रामवृक्ष सिंह का व्यंग्य : दक्षिण अफ्रीका विश्व हिंदी सम्मेलन में हिंदी की अस्मिता की खोज

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व्यंग्य हिंदी की अस्मिता की खोज पाँच साल पहले हम न्यूयॉर्क से हिंदी को ढूंढ़-ढांढ़ कर लाए थे। चमका-दमका कर उसकी फिर से प्राण-प्रतिष्ठा की...

व्यंग्य

हिंदी की अस्मिता की खोज

पाँच साल पहले हम न्यूयॉर्क से हिंदी को ढूंढ़-ढांढ़ कर लाए थे। चमका-दमका कर उसकी फिर से प्राण-प्रतिष्ठा की थी। लेकिन फायदा कुछ नहीं हुआ। दरअसल रोज-रोज धूप-बत्ती से पूजा-अर्चना करते-करते हिंदी की छवि फिर से धुँअठा गई है। इसलिए दुनिया के अग्रणी हिंदी-प्रेमी और हिंदी विद्वान जोहानसबर्ग में फिर एक बार मिल बैठेंगे और फिर से हिंदी को चमकाकर उसका भविष्य उज्ज्वल बनाएँगे। दिक्कत यह है कि अपने देश की सब नायाब चीजें नासमझ और खुदगर्ज लोगों ने खुर्द-बुर्द कर डाली हैं। देखिए न, बापू का बहुत-सा सामान अभी कुछ ही दिन पहले इंग्लैंड में मिला। और विडंबना यह है कि जिस भले आदमी ने ये सामान खरीदकर भारत को नायाब तोहफा और पूज्य बापू को एक तरह से श्रद्धांजलि दी, उसका ज्यादातर कारोबार शराब पर केंद्रित है, जिसकी बापू ने जीवन भर भर्त्सना की।

खैर, जैसे बापू की बहुत-सी दूसरी चीजें जैसे इधर-उधर बिला गई हैं और अब उन्हें खोज-खोजकर अपने महान देश में वापस लाया जा रहा है, उसी तरह बापू की पालित-पोषित और भारत व देश-दुनिया में प्रचारित हमारी राष्ट्र भाषा हिंदी भी अपने देश में बिला गई है। कई दशकों से हम उसे दुनिया में यहाँ-वहाँ जा-जाकर खोज रहे हैं। कभी-कभी भ्रम होता है कि कहीं अपने मादरे-वतन की यह जबान भारत में ही तो नहीं हेरा गई है! ऐसे में हम लौट-लौटकर अपना घर भी खंगाल लेते हैं। इसी क्रम में एक बार नागपुर और फिर एक बार दिल्ली में हम सब मिलकर हिंदी की अस्मत और अस्मिता, दोनों की खोज कर चुके। कुछ दिन के लिए उनके मिल जाने का भ्रम भी बना रहा, किंतु फिर यह तत्व-बोध हुआ कि हिंदी की अस्मिता की खोज स्वदेश में करना बिलकुल बेकार है। इसलिए गाहे-ब-गाहे हम विदेश जा-जाकर नए-नए कोणों से अपने ही घर में दुरदुराई जा रही हिंदी की अस्मिता को खोजने की कोशिश करते हैं। एक बार लंदन जाकर सब विद्वान देख आए कि कहीं मरदुए अँग्रेज़ तो जाते-जाते हिंदी की इज्जत-आबरू को अपने साथ नहीं लिवा ले गए? भई, उनका क्या ठिकाना! भारत का अनमोल रत्न कोह-ए-नूर तो लेकर बैठ ही गए। वापस देने का नाम ही नहीं ले रहे हैं। तो क्या मालूम भारत की लाड़ली हिंदी को भी कहीं दबाए न बैठे हों। लेकिन लंदन को खूब छानने के बाद भी अंग्रेजों के यहां से हिंदी बरामद नहीं हो सकी। अलबत्ता यह जरूर महसूस हुआ कि निगोड़ी अंग्रेजी के आतंक से ही हिंदी कहीं जाकर दुबक गई है।

इसके बाद हिंदी के भइया लोगों को लगा कि हो न हो विलायत वालों ने हिंदी की कामधेनु को धीरे से अमेरिका खिसका दिया है। वैसे भी जबसे सोवियत संघ का शीराजा बिखरा है, पूरी पृथ्वी में केवल एक ही ध्रुव बचा है, और वह है अमेरिका। लिहाजा सारे हिंदी प्रेमी अपनी-अपनी डोरी-लुटिया लिए न्यूयॉर्क पहुँच गए। वहाँ देखा कि पूरा अमेरिकी समाज अजब तरह के घाल-मेल से बना है। दुनिया भर के लोग वहाँ जुटे हैं और सरकार उनके निजी जीवन में किसी तरह का दखल नहीं देती। जिसे जैसे रहना है रहो, जो भाषा बोलनी है, बोलो। बस अमेरिका की समृद्धि में योगदान किए जाओ। सबने देखा कि हिंदी तथा अन्य भारतीय भाषाएँ बोलने वाले लोग भी कुछ डॉलरों के लालच में अमेरिका के आगे दंड पेल रहे हैं। जब घर-गाँव की याद सताती है तो हिंदी बोलकर, हिंदी फिल्में देखकर और हिंदी गीत गाकर ग़म ग़लत कर लेते हैं। कोई धार्मिक आयोजन हो, योग-वोग का कार्यक्रम हो, मिलना-मिलाना हो, तो राम-राम, राधे-कृष्ण कहके, हिंदी में गप्प-सड़ाका करके अपनी जड़ों को याद कर लेते हैं। पर सच कहें तो वहाँ जाकर भी हिंदी की खोज मुकम्मल नहीं हुई। कोलंबस ने जिस तरह अमेरिका को ही भारत समझ लिया था, उसी तरह कुछ लोगों को जरूर लगा कि उन्हें अमेरिका में सही-सलामत अस्मिता-युक्त हिंदी मिल गई। लेकिन थोड़े ही दिन बात उनका यह मुगालता जाता रहा। हुआ यह कि न्यूयॉर्क में 2007 में जो हिंदी दिखी और हस्तगत हुई थी, वह फिर हाथ से फिसल गई और अब फिर से उसकी खोज जारी हो गई है।

बताते चलें कि इससे पहले एक बार हम हिंदी प्रेमी लोग गिरमिटिया मजदूरों के यहाँ, यानी मॉरीशस और सूरीनाम-त्रिनिदाद में भी हिंदी की खोज कर आए हैं। हिंदी तो हमेशा से ही गरीब किसानों और मजदूरों, मजलूमों की भाषा रही है। बेचारे अनपढ़ और अर्ध-शिक्षित गिरमिटिया मजदूर अपने साथ अपने कर्मठ शरीर और रामचरित मानस की पोथी लेकर गए थे। उन्होंने अंग्रेजों के उपनिवेशों को ही अपना लिया, लेकिन अपनी भाषा और संस्कृति की सोंधी-सोंधी विरासत को भी बड़े जतन से बचाए रखा। हमें लगा कि इतने कठिन यातनामय जीवन-क्रम के बाद भी जो हिंदी जिंदा बच गई, उसके बीज में कितनी गहरी जिजीविषा होगी! हमने मॉरीशस और त्रिनिदाद जाकर हिंदी का राग गाया और उसके बीज लाकर भारत की शस्य-श्यामलता धरती में बोए थे। लेकिन यह इतिहास की बात हो गई। मॉरीशस और त्रिनिदाद में चाहे हिंदी की सोंधी महक अब भी बाकी हो, अपने यहाँ तो वह विलुप्ति के कगार पर है। इसलिए बार-बार हमें अपनी प्यारी हिंदी की तलाश में अंग्रेजों के उपनिवेशों की ओर निकलना पड़ता है।

अबकी हमारे विद्वानों और हिंदी प्रेमियों ने हिंदी की खोज में दक्षिण अफ्रीका जाने का मन बनाया है, जहाँ हमें अंततः ऐसी हिंदी के मिल जाने की पूरी उम्मीद है, जो दीर्घजीवी होगी। अब क्या बताएं? सच तो यह है कि दुनिया के पूरे हिंदी प्रेमियों को आशा अंतरीप बड़ी शिद्दत से अपनी और खींच रहा है। बात ही कुछ ऐसी है। सन 1896 में जब बापू दक्षिण अफ्रीका गए थे और पंद्रह-सोलह वर्ष तक वहाँ एशियाई मूल के लोगों के लिए सम्मानपूर्ण जीवन के सामान जुटाने में लगे रहे थे, तब उन्होंने हिंदी, तमिल और गुजराती आदि भारतीय भाषाओं के अख़बार निकालकर वहाँ के भारतीय समाज में जागृति लाने की बड़ी सफल चेष्टा की थी। यानी बापू खुद लगभग सौ साल पहले दक्षिण अफ्रीका में हिंदी को खोज-खाजकर अच्छी तरह से जमाकर आए थे। इसलिए उम्मीद की जा रही है कि जोहानेसबर्ग में हमें हिंदी बहुत अच्छे हाल में मिलेगी। बापू ने हिंदी की जो पौध जोहानेसबर्ग की मिट्टी में लगाई थी, वह इन सौ से अधिक वर्षों में खूब बड़ा पेड़ बन गई होगी। उसी की एकाध डाल-डंगाल लाकर हम भारत में रोप देंगे तो हो सकता है कि हिंदी की फसल फिर से अपने यहाँ तैयार हो जाए।

पर न जाने क्यों अपने मन में रह-रहकर शंका उठती है। अपुन को लगता है कि हिंदी के जो भी बीज हमें विदेश से जा-जाकर, खोज-बीनकर लाते हैं, वे वस्तुतः टर्मिनेटेड सीड होते हैं और उनकी फसल पाँच साल में फिर से मर जाती है। इसलिए हर पाँच साल में हमें हिंदी का नया बिरवा खोजने विदेश निकलना पड़ता है। वरना क्या बात है कि मॉरीशस, फिजी, आदि जगहों से बहुत पुराने और सांस्कृतिक रूप से समृद्ध गुणसूत्रों से युक्त बीज तथा लंदन और न्यूयॉर्क जैसे उन्नत शहरों से ला-लाकर भारत में बीज-वपन करने के बाद भी हिंदी खुद अपने देश से उच्छिन्न होने के कगार पर है। अगर ऐसा न होता तो क्या कारण है कि हिंदी-भाषी, गो-पट्टी राज्यों में सबसे प्रमुख राज्य, यानी उत्तर प्रदेश के 35 लाख बोर्ड-परीक्षार्थियों में से 3 लाख हिंदी की परीक्षा में पूरी तरह फेल ही हो गए और 40 प्रतिशत छात्रों के प्राप्तांक पचास प्रतिशत से भी कम रह गए?

खैर, हमें आशा का दामन नहीं छोड़ना चाहिए। अगर जोहानेसबर्ग से भी हम अपनी राष्ट्रभाषा हिंदी को इम्पोर्ट या डिपोर्ट नहीं करवा पाए तो अबसे पाँच साल बाद सिंगापुर जाकर उसे भारत लाने की कोशिश करेंगे। और यदि तब भी सफलता हाथ नहीं लगी तो उसके अगले पाँच वर्ष बाद हॉङ्ग-कॉङ्ग या मनीला चलेंगे। फिर भी काम न चला तो टोकियो और फिर सिडनी चलेंगे। कहीं न कहीं तो हमें हिंदी मिल ही जाएगी। भारत से जलावतन हुई हिंदी की तलाश में हम दुनिया का कोना-कोना छान मारेंगे, लेकिन हिंदी को खोजकर लाने और उसे उसकी खोई हुई अस्मिता वापस दिलाने में हम कोई कोर-कसर बाकी नहीं रखेंगे।

हाँ। अपने सरकारी काम-काज में हिंदी का प्रयोग करने के लिए हमें कोई न कहे। निजी जीवन में हिंदी के इस्तेमाल की बात तो बिलकुल ही न की जाए, क्योंकि वह हमारा निजी मामला है। दरअसल बात यह है कि भारत में जो थोड़ी-मोड़ी हिंदी बची भी है वह हमें बहुत कठिन लगती है। उसे अभी और आसान बनाने की जरूरत है। आसान, और आसान, और भी आसान, बहुत आसान। कितना आसान? कैसे आसान बनेगी हिंदी? यह आप हमसे मत पूछिए। हमें तो ऐसी हिंदी चाहिए जो बिना प्रयास किए हमारी खोपड़िया में गटागट घुसती चली जाए। इस लिहाज से हमें अंग्रेजी आसान लगती है। हमें ही क्यों! भारत के अनपढ़ लोगों को भी हिंदी की तुलना में अंग्रेजी ही आसान लगती है। दरअसल बात यह है भइए, कि अंग्रेजी है खालिस इम्पोर्टेड माल, बिलकुल विलायती! इस विलायतीपन की खोज में ही तो हम हिंदी-प्रेमी कभी इस देश तो कभी उस देश दर-दर भटक रहे हैं। जिस दिन हिंदी में लुभावना विलायतीपन आ जाएगा, समझो कि बस उसी दिन से वह छा जाएगी पूरे भारत पर। अभी तो पूरी दुनिया में अच्छी नस्ल की हिंदी फैली है, बस भारत में उसकी कमी है। और हम हिंदी प्रेमियों की पुरजोर कोशिश है कि किसी न किसी तरह हम वही विदेशी हिंदी वाली बात इस देसी हिंदी में भी लाकर रहेंगे। चाहे इसके लिए हमें एक हिंदी सम्मेलन चाँद पर ही क्यों न करना पड़े!

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आर.वी.सिंह/R.V. Singh

ईमेल/email-rvsingh@sidbi.in

COMMENTS

BLOGGER: 5
  1. ...हिन्दी को विश्वस्तरीय भाषा बनाने की कोशिश तो जारी रखनी ही चाहिए!...अब इसके लिए ज्यादा से ज्यादा सहयोग, अपनी स्वेच्छासे भारतीय लोग कितना देते है यह देखने वाली बात है...सहयोग देने का मतलब है हिन्दी भाषा को ज्यादा से ज्यादा प्रयोग में लाना...चाहे लिखना हो या बोलना हो!

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  2. Dr. Shaik Abdul Wahab7:56 pm

    Aaj ke daur mein Hindi ko ahik se adhik prayog mein lane ki aavashyakta hai. Rashtra Bhasha ka prachar va prasar hamara ya ham sab ka dharma hai. Jab yahan ka pratyek nagarik is pavitra karma mein lag jayega tab yah saral hoga. Jeevan aur vyavsay ke har kshetra mein iske prayog ko badhane ki aavashyakta hai. Bolen hindi mein likhen hindi mein kaamkaaj ho Hindi mein. To bas sachhe arthon mein yah Rashtra Bhasha bankar raj karegi.

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  3. हा हिन्दी!
    सटीक!

    जवाब देंहटाएं
  4. बेनामी12:33 pm

    रामवृक्ष जी आपके द्वरा हिंदी के प्रति व्यंगात्मक व्यथा की अभिव्यक्ति से मैं पूर्णतया सहमत हूँ। विडंबना यह है कि हम विश्व स्तर पर हिंदी की बात कर रहे हैं जबकि हमारे घर में ही हिंदी की उपेक्षा हो रही है। सरकारी तबका कार्यालयों में हिंदी में काम करने में अपनी तौहीन समझता है । राजभाषा के रूप में हिंदी की प्रगति नगण्य है, खुलेआम संविधान की अपेक्षाओं की धज्जियां उड़ाई जा रही हैं। जब हम अपनी व्यवस्था पर नियंत्रण नहीं कर पा रहे हैं तभ विदेश में हिंदी को मान्यता दिलवाने की बात समझ में नहीं आती है।.... आगे फिर अपनी व्यथा और कथा के साथ मिलेंगे।

    धन्यवाद,

    डॉ. ओमकार नाथ शुक्ल

    धन्यबाद,

    जवाब देंहटाएं
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रचनाकार: रामवृक्ष सिंह का व्यंग्य : दक्षिण अफ्रीका विश्व हिंदी सम्मेलन में हिंदी की अस्मिता की खोज
रामवृक्ष सिंह का व्यंग्य : दक्षिण अफ्रीका विश्व हिंदी सम्मेलन में हिंदी की अस्मिता की खोज
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