कहानी लेखन पुरस्कार आयोजन -27- संतोष भाऊवाला की कहानी : औरत या कठपुतली

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औरत या कठपुतली  (कहानी ) संतोष भाऊवाला ---------------------------------------------------------------------------------------- रु. 15,00...

औरत या कठपुतली  (कहानी )

संतोष भाऊवाला

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रु. 15,000 के 'रचनाकार कहानी लेखन पुरस्कार आयोजन' में आप भी भाग ले सकते हैं. अथवा पुरस्कार स्वरूप आप अपनी किताबें पुरस्कृतों को भेंट दे सकते हैं. अंतिम तिथि 30 सितम्बर 2012

अधिक जानकारी के लिए यह कड़ी देखें - http://www.rachanakar.org/2012/07/blog-post_07.html

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दो भाई थे। एक भाई विदेश चला गया, दूसरा भारत में ही रह गया। कुछ साल पहले दोनों भारत में एक साथ पिता के साथ रहते थे। दोनों की पत्नियां अच्छी सुशील और विचारवान थी। बड़े भाई की पत्नी सीधी सादी और विनम्र स्वभाव की थी ,जबकि छोटे भाई की पत्नी थोड़ी आधुनिकता लिये हुए स्मार्ट थी। पिता का कपड़ों का व्यवसाय था ,जो दो जगह एक बम्बई और दूसरा जर्मनी से हुआ करता था। बड़े आराम से उनका घर संसार चल रहा था। आपस ,में प्यार गुंथा हुआ था जैसे बेनी में फूल ..

एक दिन अचानक जर्मनी से खबर आयी कि वहां मजदूरों ने हड़ताल कर दी है। वहां लाखों का नुकसान हो रहा है। उसे संभलना होगा ,कई दिनों से ही कुछ अड़चनें आ रही थी। इस बार बड़ा नुकसान होने पर पिता ने छोटे बेटे को वहां का कारोबार सौंपने की सोची। बड़े बेटे बहू को बुला कर पूछा तो उन दोनों की भी यही राय थी क्यों कि छोटे को थोड़ी थोड़ी जर्मन भाषा भी आती थी, जो वहां कारोबार के सिलसिले में स्थानीय लोगो से वार्तालाप करने में सहायक थी। छोटे भाई और उसकी पत्नी जर्मनी चले गये। दोनों सगी बहनों के जैसे रहती थी। बहुत दुःख हुआ बिछड़ कर, इतना जितना कि सगे भाइयों को भी न हुआ होगा।

पिता का कारोबार अब दोनों बेटे सँभालने लग गये थे। उन्होंने अपना मन भगवत भक्ति में लगा लिया था। बड़ी बहू काम निपटा कर ससुर को रोज रामायण का पाठ सुनाती थी, उनकी सेवा करती,समय पर खाना देना, उनकी हर जरूरतों को पूरा करना , यही दिनचर्या थी .. ससुर भी बहू को बेटी सा प्यार देते थे। उधर छोटे बेटे बहू का भी हर रोज फ़ोन आता था हाल चाल लेने ... उन्हें लगता कि दुनिया में उनसे ज्यादा भाग्यवान कोई नहीं, सारे सुख उनकी झोली में भगवान् ने दे रखे हैं। कई साल गुजर गये, एक दिन अचानक पिता की तबीयत ज्यादा बिगड़ गई, छोटे बेटे को देखना चाहते थे सो दोनों बेटे बहू को बुलाया गया।

वो लोग जब आये बड़ी बहू बहुत खुश थी। दोनों इतने दिनों बाद खूब जोर शोर से मिली, इतनी बातें थी कि ख़त्म ही नहीं हो रही थी, तभी खाने का बुलावा आया। पति ने प्यार से झिड़की दी, आज बातों से ही पेट भरना है क्या ....सभी जोर से हंस दिए। हंसी ख़ुशी कब दिन गुजरे कब रातें ,पता ही नहीं चला ,पर इस बीच बड़े भाई का मन अपनी पत्नी के प्रति खटास से भर गया। छोटी बहू वहां जाकर और भी निखर गई थी और पटर पटर अंग्रेजी बोलने लगी थी। वहां पति के काम में हाथ बंटाने लगी थी। उसकी बातों से आत्मविश्वास झलकने लगा था। बड़े भाई से व्यवसाय के बारे में भी कुशलता पूर्वक बातें करने लगी थी। ये देख कर बड़े भाई को महसूस हुआ कि उसकी पत्नी को कुछ नहीं आता है वह तो गंवार है पढ़ी लिखी होकर भी स्मार्ट नहीं है। एक दो बार उसने अपनी पत्नी से कहा भी , लेकिन पत्नी सीधी थी, उसने हंसी में बात उड़ा दी, इधर पिता की तबीयत थोड़ी संभल गई तो छोटे बेटे बहू दोनों वापस चले गये ,लेकिन बड़े भाई के मन में असंतोष की चिंगारी जला गये। अब वो कटा कटा सा रहने लगा पत्नी से, हर बात में उसे नीचा दिखाने लगा था।

तुम्हे कुछ नहीं आता, गंवार हो, न लिखना पढ़ना, ना ठीक से अंग्रेजी बोलना, न कपड़े पहनना, वगैरह वगैरह ...

पत्नी को समझ में नहीं आ रहा था कि ऐसा क्या हो गया, जो अचानक पति को वो गंवार लगने लगी। सारा प्यार काफूर हो गया। रोज चक चक होने लगी दोनों के बीच। पिता का मन यह सब देख कर दुखी हो गया। एक दिन पिता ने बड़ी बहू को अपने पास बुला कर समझाया कि पत्नी की समझदारी पति के अनुरूप चलने में है न उससे बात बात में बहस करने में  , अगर वो चाहता है तुम भी छोटी बहू की तरह उसके काम में हाथ बंटाओ तो बंटाओ। उन्होंने कहा , वह छोटे बेटे के पास कुछ दिन के लिये जाना चाहते हैं , तो वे जर्मनी चले गये .... इधर काम कम् होने से अब वह भी धीरे धीरे पति के काम पर ध्यान देने लगी और छोटे मोटे काम के लिये नौकरानी रख ली। धीरे धीरे बहुत कुछ सीख गई। उसमें भी आत्मविश्वास पनपने लगा। साथ ही साथ घर परिवार पर ध्यान कम रहने लगा। अब पहले जैसा कुछ भी न रहा था। दोनों काम पर साथ में जाते थे और साथ में आते थे। बच्चों को भी समय कम ही दे पाते थे। शुरू शुरू में पति को बहुत अच्छा लगा कि उसकी पत्नी भी इतनी आधुनिक हो गई है अब छोटी बहू से किसी बात में कम नहीं रह गई है, लेकिन धीरे धीरे उसे वो पहले का वातावरण याद आने लगा। कैसे इतने प्यार से अपने हाथों से खाना बना कर खिलाती थी। देर तक उसका इंतजार करती थी। वापस उसी प्यार भरी दुनिया में गोते लगने को बेताब हो उठा। पर अब कैसे कहे उसी ने तो बदलना चाहा था .....

उसका स्वभाव दिन पर दिन फिर से चिड़चिड़ा होता जा रहा था  ,पत्नी को समझ में तो आने लगा था कि आखिर वह चाहता क्या है। लेकिन अब वो नहीं बदलना चाहती थी। उसे भी इस माहौल में आनंद आने लगा था। घर की उबाऊ दिनचर्या की याद आते ही, वही सारा दिन चूल्हा चौका और देर तक काम करना, उस पर भी लोगों से यही ताने सुनना , सारे दिन घर में आराम करती रहती हो ,क्या काम है इत्यादि  ....

दूसरे दिन एक व्यावसायिक मीटिंग थी। दोनों जल्दी जल्दी तैयार होकर गये। वहीँ पर बड़ी बहू की मुलाकात एक सज्जन से हुई। यूं ही बहस चल निकली ..वह सज्जन कहने लगे ,आज कल की औरतों का पहनावा और व्यवहार इतना आपत्ति जनक हो गया कि क्या कहे.... तभी तो ऐसे गौहाटी जैसे कांड घटते हैं ...घर में पैर टिकते ही नहीं ,जब देखो पुरुषों की बराबरी करती नजर आती है।

तब बड़ी बहू से चुप्पी साधे रहा न गया ,वो बोलने लगी ..आज अगर औरत ने घर से बाहर कदम रखा है तो सिर्फ पुरुषों की स्पर्धा के कारण ही ना ...आज जो औरत घर का काम करती है उसे बेकार समझा जाता है और जो कोई ऊँचे ओहदे पर कार्यरत है उसे महान ..पति, समाज की नजरों में घर का काम करने वाली महिलाओं की कोई इज्जत नहीं होती। जब भी कोई बातें करता है कि आप क्या करते हैं ?  अगर साथ में दो औरतें खड़ी हो और एक कहे कि मैं घर गृहस्थी संभालती हूँ तो कहने लगते हैं वह तो सभी सँभालते हैं ,उसके अलावा क्या करती हैं, पर उनके पास कोई जवाब नहीं होता है और सामने वाला एक ठंडी सांस लेकर कहता है ...

ओह  !!! 

उस समय किसी ने सोचा कि उस के दिल पर कितनी छुरियाँ चलती है हालांकि वह भी इस काबिल है कि कुछ कर सकती है ,लेकिन अपने घर परिवार की ख़ुशी के लिये नहीं करती है। अपनी इच्छाओं को कुर्बान कर देती है, पर यह सब किसी को दिखाई नहीं देता .... दिखता है तो सिर्फ ओहदा,  कोई कलक्टर,  कोई डॉ,  तो कोई वकील,  वगैरह वगैरह ....

....पर आप यह भी तो देखिये ,इन्हीं कारण वश संयुक्त परिवार बिखर कर एकल परिवार बनने लगे और अब तो एकल परिवार भी कोर्ट में तलाक की अर्जी के साथ खड़े नजर आने लगे। ऐसे समाज का क्या भविष्य है ..आप ही बताएं... आज की औरतों की समस्यायों और कुंठाओं का जाल इतना बड़ा हो गया है कि उससे निकल ही नहीं पाती। उनका अहंकार उन्हें समर्पित होने ही नहीं देता। पुरुष के समान व्यवहार करने लगती है। उनका स्थायी रूप बन ही नहीं पाता है। उनके परिवार का सांस्कृतिक स्वरुप बिखरा होता है। उन सज्जन ने कहा

.....आज औरतों की क्या हालत हो गई है। उनसे उम्मीद की जाती है कि घर में बड़े बूढों के सामने पहले की तरह शर्मीली सी बहू सर पर पल्लू डाल कर रहे और पति चाहता है कि उसके साथ कदम से कदम मिला कर चले। साथ में मेरे परिवार को भी खुश रखे, बच्चों की भी देखभाल करे, कैसे मुमकिन है इतना सब अकेली औरत से .... बड़ी बहू के दिल का दर्द उभर आया बातों बातों में..

...आज लड़कियों की परवरिश लड़कों की जैसी हो गई है। माँ बाप पढ़ा लिखा कर उनके नाजुक दिल में यह भावना डाल देते हैं कि उन्हें भी जीवन में पढ़ लिख कर कुछ बनना है। फिर हम उनसे कैसे उम्मीद कर सकते हैं कि वे घर में बैठे और सिर्फ बच्चे संभालें। आज कई जगह शिक्षित पति भी चाहता है कि उसकी पत्नी सिर्फ घर संभाले और कहीं कम पढ़ा लिखा पति चाहता है कि उसकी पत्नी स्मार्ट बने , काम करें । सब कुछ इतना अव्यवस्थित हो गया है कि सामंजस्य की डोर डांवांडोल होती जा रही है। सामंजस्य स्थापित करना क्या औरतों की ही बपौती है। पुरुष का कोई कर्तव्य नहीं ..

.....नहीं ऐसा नहीं है ,पर नारी में स्त्रैण भाव अधिक होता है। नर बुद्धि प्रधान है। जबकि नारी मनस्वी है। दोनों के जीवन का धरातल भिन्न है, आवश्यकताएं भिन्न है। पुरुष आवरित होता है, नारी आवरित करती है। अगर नारी भी पुरुष सदृश हो जाएगी तो दोनों एक दुसरे के पूरक कहाँ रह पायेंगे। आमने सामने खड़े पायेंगे। जहाँ हर क्षण अहंकार का युद्ध छिड़ा रहेगा।

..तो क्या औरत जिम्मेदार है इसके लिये पुरुष का कोई दोष नहीं ..

..नहीं ऐसी बात नहीं है पुरुष भी जिम्मेदार है, पर भगवान् ने नारी में सहनशीलता अधिक दी है। इसीलिए नारी ही अपना घर छोड़ती है , किसी और के घर को रौशन करने का साहस नारी ही कर सकती है , पुरुष नहीं ...

...तो क्या नारी को पढ़ना लिखना नहीं चाहिए ....क्या आप एक अनपढ़ लड़की से शादी करना चाहेंगे ?

...नहीं मेरे कहने का ये मतलब नहीं है ......

...तो क्या पत्नी कठपुतली है जो वह हमेशा पति के अनुसार बदलती रहे.....

इतने में खाने का बुलावा आ गया और बहस को वहीँ पूर्ण विराम लग गया ,लेकिन बड़ी बहू के दिमाग में कई यक्ष प्रश्न आते जाते रहे। वह यंत्रवत खाना खाकर, घर पहुँच कर सोने की कोशिश करने लगी ,पर ऐसे अनेक प्रश्न उसे उद्वेलित किये हुए थे ,जिनका कोई प्रत्युत्तर न था किसी के भी पास .....आज उसे पूरी रात नींद नहीं आयी। प्रश्नों के मकड़जाल में इस कदर उलझ गई कि जितना बाहर निकलना चाहती, उतना ही उलझती जा रही थी।

अपने आपसे पूछने लगी .....क्या उसे फिर से पहले जैसा हो जाना चाहिए ...अपनी समस्त आकांक्षाओं का गला घोंट कर ....

संतोष भाऊवाला

COMMENTS

BLOGGER: 10
  1. संतोष भाउवाला जी की कहानी आज के परिवेश मे ढ्लते समज का वास्तविक प्रतिबिम्ब है। उन्होंने बडी कुशलतापूर्वक एक सम्रिद्ध परिवार के अन्तर्द्वन्द और बहुवों पर पड्ते प्रभावों का सफ़ल चित्रण किया है। विदेशी सभ्यता का भारतीयता पर पडते असर को भी खूबसूरती से
    कहानी में निरूपित किया गया है । कहानी सामाजिक और मनोवैग्यानिक दोनों द्रिश्टियों से
    उच्चकोटि की है ।
    सत्यनारायण शर्मा ’ कमल ’ - ahutee@gmail.com

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  2. कहानी बड़ी ही सरलता से बिना किसी विशेष शिल्प-अलंकरण के सहज मनोवैज्ञानिक धरातल पर गुंथी हुई है, जो कई यक्ष प्रश्न छोडती है? इसका शीर्षक ही स्वयं औरत या कठपुतली का प्रश्न लिए हुए है...जिसका समाधान कौन करेगा? लेखिका ने यह कहकर,'प्रश्नों के मकड़जाल में इस कदर उलझ गई कि जितना बाहर निकलना चाहती, उतना ही उलझती जा रही थी|' पाठक के लिए भी एक मकड़जाल छोड़ दिया है...आज की नारी की समस्या को उभार कर सामने लाने के लिए लेखिका सादुवाद की पात्र हैं...
    बधाई और शुभकामनाओं के साथ-
    मंजु महिमा.

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  3. संतोष जी,

    आपने आज के बदलते परिवेश की ऐसी ज्वलंत समस्या को लेकर कहानी बुनी है जो परिवार का, समाज का ढांचा बदल रही हैं! इसके लिए ज़िम्मेदार कौन - नारी या पुरुष ? गहराई से विचार करें तो ज़िम्मेदार पुरुष ही है ! क्यों ? क्योंकि नारी से उसकी अपेक्षाएं बहुत बढ़ गई हैं ! वह चाहता है कि नारी सुघड गृहस्थन भी हो, ऊंचे ओहदे पर काम करने वाली स्मार्ट आधुनिका भी हो, आर्थिक मदद का स्रोत भी बने, मतलब कि 'many in one' हो ! जब वह उसके मन चाहे रूप में, उसकी खुशी की खातिर ढल जाती है तो पुरुष को उसका पहले वाला विनम्र, समर्पित रूप याद आने लगता है और दबे ढके वह नारी से पहले वाले रूप में ढल जाने की अपेक्षा करने लगता है ! क्या पुरुष की यह पारेनुमा सोच और अपेक्षा वाजिब है ? अपने व्यक्तित्व में बदलाव लाने पर, बौद्धिक और सशक्त बन जाने पर उसका यह रूप पुरुष पर भारी पडने लगता है, तो वह उससे सहा नहीं जाता ! समाज भी अनेक बातों के लिए अकारण ही औरत को दोषी बताता है लेकिन उसके पीछे छुपे पुरुष के दिलो-दिमाग को कोई नहीं पढ़ता!
    इसमें कहानी की प्रमुख पात्र 'बड़ी बहू' के संवाद कहानी का सन्देश पाठक तक बड़ी शिद्दत से पहुंचाते हैं, खासतौर से यह संवाद पूरी कहानी का सार है - तो क्या पत्नी कठपुतली है जो वह हमेशा पति के अनुसार बदलती रहे.....!
    कहानी का शीर्षक भी कथ्य के अनुरूप और बहुत सटीक है !
    संतोष जी, इस चिचारशील और संवेदनशील कहानी के लिए आपको ढेर बधाई !
    दीप्ति

    जवाब देंहटाएं
  4. Santosh Ji,

    Nari vimarsh achha hai.

    Mahesh Chandra Dewedy

    जवाब देंहटाएं
  5. tumahari kahani mughe bahut achi legi sub kuch karne ke bad bhi aurat ko nicha dikhana puruso ka jese janam sidh adhikar hai yahi bhartiya samaj kijese parampara ho kuch apawad ko chor kar

    जवाब देंहटाएं
  6. tumahari kahani mughe bahut achi legi sub kuch karne ke bad bhi aurat ko nicha dikhana puruso ka jese janam sidh adhikar hai yahi bhartiya samaj kijese parampara ho kuch apawad ko chor kar

    जवाब देंहटाएं
  7. har yug ki nari ka ak alag hi roop hai per aaj ki nari ghar or baher dono ke bich fas ke rah gayi hai

    जवाब देंहटाएं
  8. aaj ki nari ghar or baher dono ki duniya mai jakar kar rah gayi hai

    जवाब देंहटाएं
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रचनाकार: कहानी लेखन पुरस्कार आयोजन -27- संतोष भाऊवाला की कहानी : औरत या कठपुतली
कहानी लेखन पुरस्कार आयोजन -27- संतोष भाऊवाला की कहानी : औरत या कठपुतली
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