पुस्तक समीक्षा : अपनी मिट्टी से बिछड़ने का दर्द है ...."मुहाजिरनामा "

SHARE:

समीक्षा अपनी मिट्टी से बिछड़ने का दर्द है ...."मुहाजिरनामा " समीक्षक - विजेंद्र शर्मा 30 नवम्बर, 2008 की बात है, अज़ीज़  दोस्त ग...

समीक्षा

अपनी मिट्टी से बिछड़ने का दर्द है ...."मुहाजिरनामा "

समीक्षक - विजेंद्र शर्मा

image

30 नवम्बर, 2008 की बात है, अज़ीज़  दोस्त गौरव भास्कर के वालिद मरहूम श्री मोहनलाल भास्कर की याद में होने वाले मुशायरे में शिरकत करने मुनव्वर राना साहब फीरोज़पुर आये हुए थे उन दिनों मेरी पोस्टिंग भी वहीं थी। मेरी ख़ुशनसीबी का मिज़ाज भी उस वक़्त सातवें आसमान पर होना वाजिब था, क्योंकि मुझे मुनव्वर साहब की मेजबानी का मौक़ा फ़राहम हुआ था। मुशायरा रात को था सो मैंने मुनव्वर साहब और भाई मलिकज़ादा जावेद से सरहद पर रोज़ाना होने वाली" रिट्रीट सेरेमनी" देखने का निवेदन किया। शाम को हम लोग हुस्सैनीवाला सीमा चौकी पहुंचे और फिर वहाँ होने वाली दोनों मुल्कों के झंडे उतरने की शानदार रस्म उन्होंने देखी,मुझे आज भी याद है सरहद के इस पर और उस पार का पूरा मजमा बी.एस. ऍफ़ और पाकिस्तान रेंजर्स की ख़ूबसूरत परेड पर तालियां बजाता रहा और मुनव्वर साहब ज़मीन पे खिंची उस सरहद नाम की आडी - तिरछी लक़ीर को पूरी सेरेमनी के दौरान टक-टकी लगाकर देखते रहे। मुझे उस वक़्त अन्दाज़ा न था कि उनके मन में क्या चल रहा है। जब परेड ख़त्म हुई तो मैंने उन्हें पाकिस्तान रेंजर्स के अफ़सरान और दूसरे ओहदेदारों से मिलवाया, मुख़्तसर सी गुफ्तगू हुई और फिर रूखसती के वक़्त मुनव्वर साहब ने अपने मन की सारी पीड़ा अपने एक शे'र के माध्यम से बयान कर दी :--

बिछड़ना उसकी ख़्वाहिश थी, न मेरी आरज़ू लेकिन

ज़रा - सी ज़िद ने इस आँगन का बँटवारा कराया है

आसमान की तरह फैले हुए ख़ूबसूरत हिन्दुस्तान की तक़सीम जिनकी ज़रा - सी ज़िद के कारण हुई हम भी समझ गये और सरहद नाम की लक़ीर के उस  पार खड़े पाकिस्तान रेंजर्स के अफ़सरान भी

image

हुस्सैनीवाला से आकर हम लोग मुशायरे में चले गये, मुशायरा देर तक चला और उसके बाद हम लोग बी. एस .ऍफ़ की अधिकारी मेस में आ गये। सुबह मैं जब मुनव्वर साहब से मिलने उनके कमरे में गया तो मालूम हुआ कि वे रात भर सोये ही नहीं, हक़ीक़त ये थी कि सरहद देखने के बाद मुल्क के बंटवारे का मंज़र उनकी निगाहों के सामने आ गया और घर के आँगन में खिंची दीवार ने जो ज़ख्म दिये उन ज़ख्मों के तमाम टाँके उधड गये थे। मुनव्वर साहब पूरी रात उन उधडे हुए टांकों की तुरपाई में लगे रहे।

"मुहाजिरनामा" लिखने की इब्तिदा तो अप्रेल 2008 के उनके पाकिस्तान दौरे से ही हो चूकी थी मगर फीरोज़पुर की सरहद पे बिताये कुछ लम्हे "मुहाजिरनामा" के सफ़्हों ( पृष्ठों ) में इज़ाफा ज़रूर कर गए।

कराची में शहरे -क़ायद का मुशायरा था,वहीँ सिंध प्रांत के एक साहब जनाब साजिद रिज़वी ने मुनव्वर साहब से दो दिन बाद होने वाले सिंध के मुशायरे में शिरकत करने को कहा,मुनव्वर साहब ने अपने घुटनों की परेशानी के चलते उनसे अपनी असमर्थता ज़ाहिर कर दी परन्तु वे हज़रत अपनी ज़िद पे अड़े रहे कि नहीं आपको चलना ही पडेगा और आख़िर में उन्होंने मुनव्वर साहब को कहा कि यहाँ जो नज़राना आपको मिल रहा है हम आपको इस से दुगना दे देंगे,बस ये बात मुनव्वर साहब को नागवार गुज़री और उन्होंने उसी वक़्त मुशायरे के स्टेज पे बैठे - बैठे ही कुछ शे'र कह दिए। जब मुनव्वर साहब को मुशायरा पढने के लिए बुलाया गया तो उन्होंने अपनी ताज़ा कही ग़ज़ल के चंद शे'र रिज़वी साहिब की ख़िदमत में और पाकिस्तान में जिन्हें मुहाजिर कहा जाता है उनकी जानिब से हुकूमते -पाकिस्तान की नज्र कर दिये और "मुहाजिरनामा" का जन्म हो गया।

मुहाजिर हैं मगर हम एक दुनिया छोड़ आए है

तुम्हारे पास जितना है हम उतना छोड़ आए हैं

जब सैंतालिस में हिन्दुस्तान का बँटवारा हुआ उस वक़्त मुनव्वर साहब का जन्म तो नहीं हुआ था मगर इस तक़सीम से इनके परिवार को दोहरा नुक्सान हुआ।हिन्दुस्तान के आँगन में जब बंटवारे की दीवार खड़ी की गयी तो उसकी नींव में मुनव्वर साहब का ख़ानदान और उनकी ज़मीने दोनों दब गए। इस किताब को पढ़ के ये अंदाजा लगाया जा सकता है कि इसके एक - एक शे'र को कहते वक़्त उनकी आँखों से आंसुओं के दरिया निकल गए होंगे।

"मुहाजिरनामा " मुनव्वर राना साहब के अज़ीज़ और सहारा परिवार के सदस्य श्री उपेन्द्र राय के प्रयास से 2010 में दिव्यांश पब्लिकेशन, लखनऊ से प्रकाशित हुई मगर हाल में इसका नया संस्करण वाणी प्रकाशन,दिल्ली से प्रकाशित हुआ है।

लुगत( शब्दकोष ) के हिसाब से मुहाजिर लफ़्ज़ के मआनी है जो हिजरत ( पलायन /माइग्रेशन ) करता है उसे मुहाजिर कहते है। मगर हमारे यहाँ सैंतालिस के बंटवारे में जो लोग अपना सब -कुछ छोड़ के नए उजाले की तलाश में अपनी मिटटी की ख़ुशबू से जुदा हो गए थे सिर्फ उन्हें मुहाजिर कहा जाता है। पाकिस्तान नाम की इमारत को बनाने में जिन्होंने अपना खून -पसीना तक गारे में मिला दिया वे पाकिस्तान की तामीर के 65 बरस बाद भी आज वहाँ सिर्फ़ मुहाजिर ही कहलाते है सिर्फ़ मुहाजिर।

इंसान रोज़ी -रोटी की तलाश में अपनी ज़मीन से हिजरत (पलायन ) करता है,परिंदे अपने आबो-दाने की तलाश में एक जगह से दूसरी जगह जाते है, एक लड़की अपने बाबुल की दहलीज़ से एक अनजान घर में हमेशा - हमेशा के लिए चली जाती है ये सब भी तो हिजरत के ही मुख्तलिफ़ - मुख्तलिफ़ रूप है। हर हिजरत में एक गहरी टीस छिपी होती है,अपनी मिट्टी से अलग होने की इसी टीस, इसी पीड़ा, इसी दर्द को जब मुनव्वर राना ने आंसुओं की सियाही से काग़ज़ पे उतारा तो एक महा- काव्य का निर्माण हो गया और उसी महा -काव्य का नाम है "मुहाजिरनामा"।

डॉ. नसीमुज्ज़फ़र ने कभी कहा था कि  :--

तुम ने घर छोड़ा चलो तुम तो मुहाजिर हो गए

हम यहाँ हाज़िर रहे और ग़ैर -हाज़िर हो गए

"मुहाजिरनामा" पढने के बाद मुझे लगा कि अपने खेत, अपने घर, अपनी पगडंडियों, अपने वतन को छोड़ने के बाद सीने पे "मुहाजिर" का तमगा लगने से लेकर अपने मुल्क में हाज़िर होकर भी ग़ैर-हाज़िर होने तक के पूरे दर्दनाक सफ़र की दास्तान है "मुहाजिरनामा"।

किसी ग़ज़ल के पांच शे'र कहने में शाइर को कई बार लहू तक थूकना पड़ जाता है आप अंदाजा लगाइए कि अपनी मिट्टी से बिछड़ने या ये कहूँ कि फूल से ख़ुशबू के जुदा होने जैसे मौज़ू पे पांच सौ से ज़ियादा शे'र कहने वाले के दिल पे भला क्या गुज़री होगी और शायद इसीलिए "मुहाजिरनामा" लिखते वक़्त मुनव्वर राना को कई बार कलकत्ते और लखनऊ के अस्पतालों में भर्ती होना पडा।

"मुहाजिरनामा" को पढ़कर आज की नस्ल जिसे मुल्क के बंटवारे का ज़रा सा भी इल्म नहीं है,वो उस पीड़ा और उस अज़ीयत (कष्ट ) को महसूस कर सकती है जिस पीड़ा और अज़ीयत से मुहाजिर करार दे दिये गये बेबस लोग 65 बरसों से गुज़र रहें हैं।

नई नस्लें सुनेंगी तो यक़ीं उनको न आयेगा

कि हम कैसी ज़मीने और ज़माना छोड़ आये हैं

हिजरत के वक़्त क्या - क्या लोग यहाँ छोड़ गए उसके तसव्वुर भर से आँखें नम हो जाती है मगर मुनव्वर राना ने जब इसे ग़ज़ल बनाया तो वाकई पलकों ने आंसुओं का बोझ उठाने से मना कर दिया  :--

कई आँखें अभी तक ये शिकायत करती रहती हैं

कि हम बहते हुए काजल का दरिया छोड़ आए हैं

अपने गाँव,अपनी मिटटी से हिजरत करने वाला चाहें कितना भी खुश हाल हो जाये मगर ये कसक तो क़ब्र तक उसके दिल में रहती है :--

कहानी का ये हिस्सा आज तक सबसे छुपाया है

कि हम मिटटी की ख़ातिर अपना सोना छोड़ आए हैं

मुल्क जब तक़सीम हो रहा था उस वक़्त कुछ ऐसे लोग भी थे जो हिन्दुस्तान में अपना घर-बार छोड़ कर जाना नहीं चाहते थे मगर उन्हें ख़ूबसूरत मुस्तक़बिल के ख़्वाब दिखाए गये उन्हें यही बताया गया की नई रौशनी के तमाम इमकान सिर्फ़ वहीं है और वे न जाने कौनसी मजबूरी में अपना वतन छोड़ के चले गये। अब तो उन्हें भी यही अहसास होने लगा है :----

ख़ुदा जाने ये हिजरत थी कि हिजरत का तमाशा था

उजाले की तमन्ना में उजाला छोड़ आए हैं

"मुहाजिरनामा" में एक तरफ़ अपने खेतों, अपनी माटी, अपनी तहज़ीब से जुदा होने का ग़म है तो दूसरी तरफ़ इसके शे'रों में पछतावे की तस्वीर प्रायश्चित के फ्रेम में लगी नज़र आती है। "मुहाजिरनामा" के अशआर पढ़कर उस ग़म से रु -ब-रु हुआ जा सकता है जो आज भी हर मुहाजिर के सीने में गड़ा हुआ है :---

ये ख़ुदगरज़ी का जज़्बा आज तक हमको रुलाता है

कि हम बेटे तो ले आए भतीजा छोड़ आए हैं

अक़ीदत से कलाई पर जो एक बच्ची ने बाँधी थी

वो राखी छोड़ आए हैं वो रिश्ता छोड़ आए हैं

न जाने कितने चेहरों को धुंआ करके चले आए

न जाने कितनी आँखों को छलकता छोड़ आए हैं

मुनव्वर राना साहब की पैदाइश गंगा -जमनी तहज़ीब से ओत -प्रोत शहर रायबरेली में हुई, इसी ज़मीं पे उन्हें ऐसे संस्कार घुट्टी में पिलाए गये कि उन्हें कभी इस बात का अहसास ही न हुआ कि रहीम चाचा और सीताराम मामू अलग - अलग मज़हब के है। उन्हें ये मालूम ही नहीं था कि दीवाली और होली सिर्फ़ हिन्दुओं के त्यौहार है न कि मुसलमानों के। ऐसी तहज़ीब से जब कोई जुदा होकर जाता है तो उसका मन क्या - क्या कह सकता है मुनव्वर राना से ज़ियादा कौन जान सकता है और इस जज़्बे को मुनव्वर राना से बेहतर कौन लिख सकता है। "मुहाजिरनामा " में उनके ये शे'र गंगा -जमनी तहज़ीब से बिछुड़ने की टीस बयान करते हैं :-----

गले मिलती हुई नदियाँ गले मिलते हुए मज़हब

इलाहाबाद में कैसा नज़ारा छोड़ आए है

वो इक त्यौहार में घर की फसीलों पर दिये रखना

अब आँखें पूछती है क्यों उजाला छोड़ आए है

वो जिनसे रिश्तेदारी तो नहीं थी हाँ तअल्लुक़ था

वो लक्ष्मी छोड़ आए है वो दुर्गा छोड़ आए है

सभी त्यौहार मिल - जुल कर मनाते थे वहाँ जब थे

दिवाली छोड़ आए है दशहरा छोड़ आए है

हिफ़ाज़त के लिए मस्जिद को घेरे हों कई मंदिर

रवादारी का ये दिलकश नज़ारा छोड़ आए है

जन्म जिसने दिया हमको उसे तो साथ ले आए

मगर आते   हुए मैया यशोदा छोड़   आए हैं

मुनव्वर राना ने "मुहाजिरनामा" की तमहीद (भूमिका ) में जो तक़रीबन 25 -26 सफ़हे ( पन्ने ) लिखें है उन्हें पढ़ने के बाद ऐसा लगता है कि नस्र (गद्य ) को भी शाइरी की शक्ल में ढाला जा सकता है। उनका लिखा एक -एक वाक्य पढने वाले को ख़ुद ब ख़ुद एक ठहराव देता है और एक - एक पंक्ति को बार - बार पढ़ने का मन करता है। मुनव्वर साहब की नस्र में शाइरी की सी महक आती है। बेजान से लफ़्ज़ों को भी अपने अहसास की सियाही से मुनव्वर राना क़ीमती गुहर (मोती ) बना देते हैं। "मुहाजिरनामा" में उनकी लिखी तमहीद में से फीरोज़पुर सेक्टर की सरहद पे शाम को होने वाली रिट्रीट सेरेमनी को देख लिखी कुछ पंक्तियों से आपको रु- ब -रु करवाता हूँ, आप समझ जायेंगे कि मुनव्वर राना जितने उम्द्दा शे'र कहते हैं उतने ही उम्द्दा नस्र निगार भी हैं।"सरहद के दोनों तरफ पेड़ों पर बैठी हज़ारहा चिड़ियाँ भी इस इंसानियत -सोज़ तमाशे को देखने के लिए कभी हिन्दुस्तानी दरख्तों पर उड़ कर चली जाती थीं, कभी पाकिस्तानी पेड़ों को अपनी छतरी बना लेती थीं। चिड़ियाँ इधर से उधर उड़ कर दोनों तरफ की फ़ौजी सलाहियतों का मज़ाक उड़ा रही थीं। क्योंकि अख़बारों में तो रोज़ यह छपता है कि सरहद पर चौकसी इतनी बढ़ा दी गयी है कि परिंदा भी पर नहीं मार सकता। "

मुनव्वर  राना की नस्र क़ारी (पाठक ) को मजबूर करती है की वो अपनी फ़िक्र की तेज़ रफ़्तार गाड़ी को फिर से मोड़ कर लाये और ज़िंदगी के उन पहलुओं पे भी ग़ौर करें जिन्हें वक़्त से आगे निकलने की चाह में वो पीछे छोड़ आया है।

"मुहाजिरनामा " में मुनव्वर साहब ने उन रोती हुई आँखों के आंसुओ को शाइरी बनाया है जो अपनी आँखों के सामने किसी को जाते हुए देखती रही और देखते -देखते कोई अपना उन आँखों से ओझल हो गया। जिसका प्यार - जिसकी मुहब्बत सब कुछ यहाँ छूट गया उसके पास वहाँ जाकर अगर कुछ बचा तो वो था पछतावा और जब इस पछतावे को मुनव्वर राना ने अपने अहसास के साथ मिलाया तो ये ख़ूबसूरत अशआर हुए :--

बिछड़ते वक़्त की वो सिसकियाँ वो फूट कर रोना

कि जैसे मछलियों को हम सिसकता छोड़ आए है

हंसी आती है अपनी ही अदाकारी पे ख़ुद हमको

बने फिरते हैं यूसुफ़ और ज़ुलेख़ा छोड़ आए हैं

बिछड़ते वक़्त था दुश्वार उसका सामना करना

सो उसके नाम हम अपना संदेशा छोड़ आए हैं

बुरे लगते हैं शायद इसलिए ये सुरमई बादल

किसी की ज़ुल्फ़ को शानों पे बिखरा छोड़ आए हैं

कई होंटों पे ख़ामोशी की पपड़ी जम गयी होगी

कई आँखों में हम अश्कों का पर्दा छोड़ आए हैं

सुनहरे ख़्वाब की ताबीर अच्छी क्यूँ नहीं होती

जो आँखों में रहा करता था चेहरा छोड़ आए हैं

मुहब्बत की कहानी को मुकम्मल कर नहीं पाये

अधूरा था जो किस्सा वो अधूरा छोड़ आए हैं

इसी सिलसिले का एक और शे'र :--

वो ख़त जिसपर तेरे होंटों ने अपना नाम लिक्खा था

तेरे काढ़े हुए तकिये पे रक्खा छोड़ आये हैं

मुनव्वर राना की शाइरी की अपनी अलग ही रवायत है, तनक़ीद के बादशाहों की परवाह किये बिना उन्होंने ऐसे -ऐसे मौज़ू अपनी शाइरी के लिए चुने है जिनके पास से गुज़रने से भी दूसरे सुख़नवर घबराते हैं। मुनव्वर राना साहब के इसी मुख्तलिफ़ लहजे की वजह से शे'र सुनते ही पूरे यक़ीन के साथ कहा जा सकता है कि इस पे मोहरे मुनव्वर लगी हुई है। दुनिया के सबसे मुक़द्दस लफ्ज़ "माँ " का शाइरी में जब भी ज़िक्र आता है तो सबसे पहले ख़याल मुनव्वर राना का आता है। मुनव्वर राना ने "माँ" के हवाले से शे'र उस वक़्त कहे जब लोग ग़ज़ल में "माँ " लफ़्ज़ के इस्तेमाल को रिवायत के ख़िलाफ़ मानते थे। मुहाजिर नामा में भी मुनव्वर राना ने एक माँ के दर्द को काग़ज़ पे उकेरा है :----

बसी थी जिसमें ख़ुशबू मेरी अम्मी की जवानी की

वो चादर छोड़ आयें है वो तकिया छोड़ आए हैं

महीनों तक तो अम्मी नींद में भी बड़बड़ाती थीं

सुखाने के लिए छत पर पुदीना छोड़ आये हैं

हमारी अहलिया तो आ गयी माँ छूट गयी आख़िर

कि हम पीतल उठा लाये हैं सोना छोड़ आये हैं

एक इंसान के इर्द -गिर्द जितने भी पहलू बिखरे होते हैं उन्हें मोती बनाकर अपनी ग़ज़ल की माला में पिरो देने का हुनर मुनव्वर राना से सीखा जा सकता है। मुहाजिर नामा में उनके कुछ अशआर मुलाहिज़ा हो और इन्हें सुनकर आप ख़ुद मेरी इस बात की तस्दीक करें कि ग़ज़ल के ख़ूबसूरत लिबास बनाने के लिए मुनव्वर साहब रेशमी कपडे कहाँ - कहाँ से लाते हैं :--

शकर इस जिस्म से खिलवाड़ करना कैसे छोड़ेगी

कि हम जामुन के पेड़ों को अकेला छोड़ आये हैं

किसी नुक्सान की भरपाई तो अब हो नहीं सकती

तो फिर क्या सोचना क्या लाए कितना छोड़ आये हैं

रेआया थे तो फिर हाकिम का कहना क्यों नहीं माना

अगर हम शाह थे तो क्यों रेआया छोड़ आये हैं

( रेआया - प्रजा )

किसी बात को सलीक़े से कहने का फ़न ही शाइरी का दूसरा नाम है, मुनव्वर राना की शाइरी में ज़ुबान का इस्तेमाल और लफ़्ज़ों को बरतने का ये सलीक़ा साफ़ नज़र आता है। ये शे'र ख़ूबसूरत ज़ुबान और लखनवी अंदाज़ की एक उम्द्दा मिसाल हैं :---

भतीजी अब सलीक़े से दुपट्टा ओढ़ती होगी

वहीं, झूले में हम जिसको हुमकता छोड़ आये हैं

जिस वक़्त बँटवारा हुआ उस समय लोगों पे किस तरह का चौतरफ़ा कहर बरपा था,"मुहाजिरनामा" पढ़ कर उस वक़्त की तस्वीर साफ़ -साफ़ देखी जा सकती है। लोग सोने से भी महंगे दाम की अपनी ज़मीने मजबूरी में महाजन को कौड़ियों के दाम बेच के चले गए। मुनव्वर साहब ने इस दर्द को सिर्फ महसूस ही नहीं किया बल्कि वे इस दर्द को अपनी रूह पे एक ज़ख्म की सूरत 60 सालों से मुसलसल झेलते आ रहें है :--

बहुत कम दाम में बनिए ने खेतों को ख़रीदा था

हम इसके बावज़ूद उस पर  बकाया छोड़ आए हैं

"मुहाजिरनामा" में पांच सौ से भी ज़ियादा शे'र है, किसी एक ही बहर,एक ही रदीफ़ काफ़िये से सजी इस तरह की शाइरी की ऐसी बेमिसाल किताब मैंने इस से पहले नहीं देखी। नई -पीढ़ी को ये किताब ज़रूर पढनी चाहिए ताकि उन्हें ये पता चले कि विभाजन जैसी त्रासदी कितनी दुःखदाई होती है। मेरा ये भी दावा है कि "मुहाजिरनामा " का एक - एक शे'र और मुनव्वर साहब की लिखी तमहीद पढ़ने के बाद नई नस्ल को तक़सीम लफ़्ज़ तक से नफ़रत हो जायेगी।

मुनव्वर राना ने "मुहाजिरनामा" में बंटवारे के वक़्त हिन्दुस्तान के कोने - कोने से पाकिस्तान चले गये लोगों के तमाम ग़मों को एक ही ग़ज़ल में समेट के रख दिया है। चाहें वो जुम्मन मियाँ  के राम-लीला में राम का किरदार वहाँ जा कर न कर पाने का दुःख हो, चाहें वुजू के लिए गंगा- जमुना के पानी से महरूम होने का ग़म हो,चाहें मुरादाबाद के हुक्क़े की गुड़ -गुड़ाहट की लज्जत की याद हो ,चाहें कादिर के गाजर वाले हलवे जैसे  स्वाद का वहाँ ना मिलना   हो, चाहें सुलाकी लाल की लस्सी के जलवों की  तड़प  हो,चाहें लखनऊ के सलीक़े से दामन छूट जाने की कसक हो,चाहें बनारस के पान से लबो की हो गयी दूरियां हों या फिर नानक, चिश्ती,ग़ालिब और तुलसी की ज़मीन से अलग होने का दर्द हो ..:--------

ज़मीने -नानक-ओ-चिश्ती,ज़बाने -ग़ालिब-ओ-तुलसी

ये सब कुछ पास था अपने ये सारा छोड़ आये हैं

"मुहाजिरनामा" में मुनव्वर राना हर मिसरे में ये सन्देश देते नज़र आते हैं कि एक आँगन के जब दो आँगन हो जाते हैं तो घर की दीवारें तक कराह उठती है। जहां बचपन और जवानी गुज़री हो उस माटी से जुदा होना कोई खेल नहीं है। हिन्दुस्तान के इतिहास की सबसे बड़ी अगर कोई त्रासदी है तो वो है मुल्क का बँटवारा। बंटवारे के बाद सरमायेदार और ज़मींदार से मुहाजिर हो गए लोगों के अन्दर की दबी और सहमी आवाज़ का नाम है "मुहाजिरनामा"। "मुहाजिरनामा" के और भी बहुत से शे'र मैं आप के मुख़ातिब रखना चाहता था मगर आप "मुहाजिरनामा" पढ़ें तो आप एक अजीब सी  पीड़ा से ख़ुद रु- ब -रु होंगे। जिसने विभाजन का ज़िक्र सिर्फ किताबों और किस्सों में सुना है उनके लिए ये किताब एक अनमोल तोहफ़ा है। "मुहाजिरनामा " एक किताब नहीं बल्कि एक धरोहर के रूप में सहेज के रखे जाने वाला ग्रन्थ है।

परवरदिगार से यही दुआ करता हूँ कि मुस्तक़बिल ( भविष्य ) में हमें कोई और बँटवारा न देखना पड़े और आख़िर में "मुहाजिरनामा" के इन्ही मिसरों के साथ इजाज़त चाहता हूँ ......ख़ुदा हाफ़िज़

अगर लिखने पे आ जाएँ सियाही ख़त्म हो जाए

कि तेरे पास आये हैं तो क्या -क्या छोड़ आये हैं

--

विजेंद्र शर्मा

vijendra.vijen@gmail.com

सीमा सुरक्षा बल परिसर,

बीकानेर

9414094122

COMMENTS

BLOGGER: 12
  1. विजेंद्र जी, आपने ग़ज़लों में प्रयोगधर्मिता का समर्थन इस लेख के इस वाक्य से किया है -

    "मुनव्वर राना ने "माँ" के हवाले से शे'र उस वक़्त कहे जब लोग ग़ज़ल में "माँ " लफ़्ज़ के इस्तेमाल को रिवायत के ख़िलाफ़ मानते थे।"

    तो कृपया स्पष्ट करें कि ऐसे मामलों में फिर शुद्धतावादियों की भृकुटियाँ अकसर टेढ़ी क्यों हो जाती हैं?

    जवाब देंहटाएं
  2. उफ़ रौंगटे खडे कर देने वाले शेर ………क्या बात कही है ………मुनव्वर राना जी की पुस्तक के बारे मे बताया आपने अच्छा लगा । कभी मौका लगा तो जरूर पढूँगी।

    जवाब देंहटाएं
  3. रवि साहब ,

    आदाब ...

    आप ने बड़ा अच्छा सवाल किया ....ग़ज़ल बहुत तवील अरसे तक ज़ुल्फ़ , शराब , हुस्न , बहार , खिज़ां और कसीदाकारी की गिरफ़्त में रही और इसे ही रिवायत समझ लिया गया !

    ग़ज़ल पे नए - नए प्रयोग करना कोई आसान काम नहीं है ! साठ के दशक के बाद ग़ज़ल को हमारे अहद के जदीद सुख़नवरों ने रिवायत करार दे दी गयी पटरी से कई मरतबा उतारा !

    ऐसा नहीं की नए प्रयोग बुरे होते है मगर ग़ज़ल के हुस्न से खिलवाड़ किये बगैर भी बहुत से कामयाब प्रयोग हुए मुनव्वर राना ऐसे ही एक प्रयोग धर्मी का नाम है ......

    अगर सलीक़े और शेरीयत का दामन थाम कर ग़ज़ल पे कोई प्रयोग किया जाए तो ना तो वो ग़ज़ल को अखरता है ना ही नक्कादों को ...

    रेगार्ड्स

    विजेंद्र

    जवाब देंहटाएं
  4. समीक्षा ऐसी कि पुस्तक पढ़ने के लियें दिल मचला उठा विजेंद्र भाई... अवश्य पढ़ना चाहुंगी... मेरा नमन आप दोनों को ..

    अपनी वाल पर शेयर करना चाहती हूँ साभार ..

    जवाब देंहटाएं
  5. बहुत बेहतर और दिल हिलाने वाले वाकये से रु ब रु कराया आपने वीरेन साहब. शुक्रिया. और मुनब्बर की शाइरी की तो बात ही निराली है वो वक़्त और वाकये को नजर के सामने ला देती है. वाह. क दीक्षित

    जवाब देंहटाएं
  6. bahut bahut shukriyaa vandanaa jee ....
    regards

    जवाब देंहटाएं
  7. महसूस हो रहा है कि दर्द की स्याही से लिखी गई है पुस्तक.
    बहुत ही अच्छी समीक्षा की है .

    जवाब देंहटाएं
  8. अगर लिखने पे आ जाएँ सियाही ख़त्म हो जाए

    कि तेरे पास आये हैं तो क्या -क्या छोड़ आये हैं


    आपने मुहाजिरनामा से परिचय करवाया और मुनव्वर राणा जी के इस खूबसूरत काव्य ने दर्द को शब्दों में उतार कर दिल में उतार दिया ।

    जवाब देंहटाएं
  9. आदरणीय विजेंद्र जी,
    नमस्‍कार।
    मुनव्‍वर राणा साहब की किताब पर आपकी कलम खूब चली है। पहली बार इधर आया था, आकर बहुत अच्‍छा लगा।
    बधाई और शुक्रिया।
    नवनीत शर्मा

    जवाब देंहटाएं
  10. सटीक समीक्षा....उत्कंठित हूँ मुनव्वर बाबा को पढ़ने के लिये.....

    जवाब देंहटाएं
  11. बेनामी9:29 am

    रुला देने वाले अशआर पर इतना ख़ूबसूरत तब्सरा।
    कहीं डूब गयी दूर मैं जब फ़िरोज़पुर में जब सीमा पर गयी थी।
    हमने भी यह सब सुना ही है।
    मगर दर्द तो पुष्ट दर पुश्त बहता है रगों में।
    विजेंद्र जी को बधाई और मुनव्वर जी के लिए शब्द खोज रही हूँ।
    सुलक्षणा।

    जवाब देंहटाएं
  12. बेनामी9:30 am

    रुला देने वाले अशआर पर इतना ख़ूबसूरत तब्सरा।
    कहीं डूब गयी दूर मैं जब फ़िरोज़पुर में जब सीमा पर गयी थी।
    हमने भी यह सब सुना ही है।
    मगर दर्द तो पुष्ट दर पुश्त बहता है रगों में।
    विजेंद्र जी को बधाई और मुनव्वर जी के लिए शब्द खोज रही हूँ।
    सुलक्षणा।

    जवाब देंहटाएं
रचनाओं पर आपकी बेबाक समीक्षा व अमूल्य टिप्पणियों के लिए आपका हार्दिक धन्यवाद.

स्पैम टिप्पणियों (वायरस डाउनलोडर युक्त कड़ियों वाले) की रोकथाम हेतु टिप्पणियों का मॉडरेशन लागू है. अतः आपकी टिप्पणियों को यहाँ प्रकट होने में कुछ समय लग सकता है.

नाम

 आलेख ,1, कविता ,1, कहानी ,1, व्यंग्य ,1,14 सितम्बर,7,14 september,6,15 अगस्त,4,2 अक्टूबर अक्तूबर,1,अंजनी श्रीवास्तव,1,अंजली काजल,1,अंजली देशपांडे,1,अंबिकादत्त व्यास,1,अखिलेश कुमार भारती,1,अखिलेश सोनी,1,अग्रसेन,1,अजय अरूण,1,अजय वर्मा,1,अजित वडनेरकर,1,अजीत प्रियदर्शी,1,अजीत भारती,1,अनंत वडघणे,1,अनन्त आलोक,1,अनमोल विचार,1,अनामिका,3,अनामी शरण बबल,1,अनिमेष कुमार गुप्ता,1,अनिल कुमार पारा,1,अनिल जनविजय,1,अनुज कुमार आचार्य,5,अनुज कुमार आचार्य बैजनाथ,1,अनुज खरे,1,अनुपम मिश्र,1,अनूप शुक्ल,14,अपर्णा शर्मा,6,अभिमन्यु,1,अभिषेक ओझा,1,अभिषेक कुमार अम्बर,1,अभिषेक मिश्र,1,अमरपाल सिंह आयुष्कर,2,अमरलाल हिंगोराणी,1,अमित शर्मा,3,अमित शुक्ल,1,अमिय बिन्दु,1,अमृता प्रीतम,1,अरविन्द कुमार खेड़े,5,अरूण देव,1,अरूण माहेश्वरी,1,अर्चना चतुर्वेदी,1,अर्चना वर्मा,2,अर्जुन सिंह नेगी,1,अविनाश त्रिपाठी,1,अशोक गौतम,3,अशोक जैन पोरवाल,14,अशोक शुक्ल,1,अश्विनी कुमार आलोक,1,आई बी अरोड़ा,1,आकांक्षा यादव,1,आचार्य बलवन्त,1,आचार्य शिवपूजन सहाय,1,आजादी,3,आत्मकथा,1,आदित्य प्रचंडिया,1,आनंद टहलरामाणी,1,आनन्द किरण,3,आर. के. नारायण,1,आरकॉम,1,आरती,1,आरिफा एविस,5,आलेख,4288,आलोक कुमार,3,आलोक कुमार सातपुते,1,आवश्यक सूचना!,1,आशीष कुमार त्रिवेदी,5,आशीष श्रीवास्तव,1,आशुतोष,1,आशुतोष शुक्ल,1,इंदु संचेतना,1,इन्दिरा वासवाणी,1,इन्द्रमणि उपाध्याय,1,इन्द्रेश कुमार,1,इलाहाबाद,2,ई-बुक,374,ईबुक,231,ईश्वरचन्द्र,1,उपन्यास,269,उपासना,1,उपासना बेहार,5,उमाशंकर सिंह परमार,1,उमेश चन्द्र सिरसवारी,2,उमेशचन्द्र सिरसवारी,1,उषा छाबड़ा,1,उषा रानी,1,ऋतुराज सिंह कौल,1,ऋषभचरण जैन,1,एम. एम. चन्द्रा,17,एस. एम. चन्द्रा,2,कथासरित्सागर,1,कर्ण,1,कला जगत,113,कलावंती सिंह,1,कल्पना कुलश्रेष्ठ,11,कवि,2,कविता,3239,कहानी,2360,कहानी संग्रह,247,काजल कुमार,7,कान्हा,1,कामिनी कामायनी,5,कार्टून,7,काशीनाथ सिंह,2,किताबी कोना,7,किरन सिंह,1,किशोरी लाल गोस्वामी,1,कुंवर प्रेमिल,1,कुबेर,7,कुमार करन मस्ताना,1,कुसुमलता सिंह,1,कृश्न चन्दर,6,कृष्ण,3,कृष्ण कुमार यादव,1,कृष्ण खटवाणी,1,कृष्ण जन्माष्टमी,5,के. पी. सक्सेना,1,केदारनाथ सिंह,1,कैलाश मंडलोई,3,कैलाश वानखेड़े,1,कैशलेस,1,कैस जौनपुरी,3,क़ैस जौनपुरी,1,कौशल किशोर श्रीवास्तव,1,खिमन मूलाणी,1,गंगा प्रसाद श्रीवास्तव,1,गंगाप्रसाद शर्मा गुणशेखर,1,ग़ज़लें,550,गजानंद प्रसाद देवांगन,2,गजेन्द्र नामदेव,1,गणि राजेन्द्र विजय,1,गणेश चतुर्थी,1,गणेश सिंह,4,गांधी जयंती,1,गिरधारी राम,4,गीत,3,गीता दुबे,1,गीता सिंह,1,गुंजन शर्मा,1,गुडविन मसीह,2,गुनो सामताणी,1,गुरदयाल सिंह,1,गोरख प्रभाकर काकडे,1,गोवर्धन यादव,1,गोविन्द वल्लभ पंत,1,गोविन्द सेन,5,चंद्रकला त्रिपाठी,1,चंद्रलेखा,1,चतुष्पदी,1,चन्द्रकिशोर जायसवाल,1,चन्द्रकुमार जैन,6,चाँद पत्रिका,1,चिकित्सा शिविर,1,चुटकुला,71,ज़कीया ज़ुबैरी,1,जगदीप सिंह दाँगी,1,जयचन्द प्रजापति कक्कूजी,2,जयश्री जाजू,4,जयश्री राय,1,जया जादवानी,1,जवाहरलाल कौल,1,जसबीर चावला,1,जावेद अनीस,8,जीवंत प्रसारण,141,जीवनी,1,जीशान हैदर जैदी,1,जुगलबंदी,5,जुनैद अंसारी,1,जैक लंडन,1,ज्ञान चतुर्वेदी,2,ज्योति अग्रवाल,1,टेकचंद,1,ठाकुर प्रसाद सिंह,1,तकनीक,32,तक्षक,1,तनूजा चौधरी,1,तरुण भटनागर,1,तरूण कु सोनी तन्वीर,1,ताराशंकर बंद्योपाध्याय,1,तीर्थ चांदवाणी,1,तुलसीराम,1,तेजेन्द्र शर्मा,2,तेवर,1,तेवरी,8,त्रिलोचन,8,दामोदर दत्त दीक्षित,1,दिनेश बैस,6,दिलबाग सिंह विर्क,1,दिलीप भाटिया,1,दिविक रमेश,1,दीपक आचार्य,48,दुर्गाष्टमी,1,देवी नागरानी,20,देवेन्द्र कुमार मिश्रा,2,देवेन्द्र पाठक महरूम,1,दोहे,1,धर्मेन्द्र निर्मल,2,धर्मेन्द्र राजमंगल,1,नइमत गुलची,1,नजीर नज़ीर अकबराबादी,1,नन्दलाल भारती,2,नरेंद्र शुक्ल,2,नरेन्द्र कुमार आर्य,1,नरेन्द्र कोहली,2,नरेन्‍द्रकुमार मेहता,9,नलिनी मिश्र,1,नवदुर्गा,1,नवरात्रि,1,नागार्जुन,1,नाटक,152,नामवर सिंह,1,निबंध,3,नियम,1,निर्मल गुप्ता,2,नीतू सुदीप्ति ‘नित्या’,1,नीरज खरे,1,नीलम महेंद्र,1,नीला प्रसाद,1,पंकज प्रखर,4,पंकज मित्र,2,पंकज शुक्ला,1,पंकज सुबीर,3,परसाई,1,परसाईं,1,परिहास,4,पल्लव,1,पल्लवी त्रिवेदी,2,पवन तिवारी,2,पाक कला,23,पाठकीय,62,पालगुम्मि पद्मराजू,1,पुनर्वसु जोशी,9,पूजा उपाध्याय,2,पोपटी हीरानंदाणी,1,पौराणिक,1,प्रज्ञा,1,प्रताप सहगल,1,प्रतिभा,1,प्रतिभा सक्सेना,1,प्रदीप कुमार,1,प्रदीप कुमार दाश दीपक,1,प्रदीप कुमार साह,11,प्रदोष मिश्र,1,प्रभात दुबे,1,प्रभु चौधरी,2,प्रमिला भारती,1,प्रमोद कुमार तिवारी,1,प्रमोद भार्गव,2,प्रमोद यादव,14,प्रवीण कुमार झा,1,प्रांजल धर,1,प्राची,367,प्रियंवद,2,प्रियदर्शन,1,प्रेम कहानी,1,प्रेम दिवस,2,प्रेम मंगल,1,फिक्र तौंसवी,1,फ्लेनरी ऑक्नर,1,बंग महिला,1,बंसी खूबचंदाणी,1,बकर पुराण,1,बजरंग बिहारी तिवारी,1,बरसाने लाल चतुर्वेदी,1,बलबीर दत्त,1,बलराज सिंह सिद्धू,1,बलूची,1,बसंत त्रिपाठी,2,बातचीत,2,बाल उपन्यास,6,बाल कथा,356,बाल कलम,26,बाल दिवस,4,बालकथा,80,बालकृष्ण भट्ट,1,बालगीत,20,बृज मोहन,2,बृजेन्द्र श्रीवास्तव उत्कर्ष,1,बेढब बनारसी,1,बैचलर्स किचन,1,बॉब डिलेन,1,भरत त्रिवेदी,1,भागवत रावत,1,भारत कालरा,1,भारत भूषण अग्रवाल,1,भारत यायावर,2,भावना राय,1,भावना शुक्ल,5,भीष्म साहनी,1,भूतनाथ,1,भूपेन्द्र कुमार दवे,1,मंजरी शुक्ला,2,मंजीत ठाकुर,1,मंजूर एहतेशाम,1,मंतव्य,1,मथुरा प्रसाद नवीन,1,मदन सोनी,1,मधु त्रिवेदी,2,मधु संधु,1,मधुर नज्मी,1,मधुरा प्रसाद नवीन,1,मधुरिमा प्रसाद,1,मधुरेश,1,मनीष कुमार सिंह,4,मनोज कुमार,6,मनोज कुमार झा,5,मनोज कुमार पांडेय,1,मनोज कुमार श्रीवास्तव,2,मनोज दास,1,ममता सिंह,2,मयंक चतुर्वेदी,1,महापर्व छठ,1,महाभारत,2,महावीर प्रसाद द्विवेदी,1,महाशिवरात्रि,1,महेंद्र भटनागर,3,महेन्द्र देवांगन माटी,1,महेश कटारे,1,महेश कुमार गोंड हीवेट,2,महेश सिंह,2,महेश हीवेट,1,मानसून,1,मार्कण्डेय,1,मिलन चौरसिया मिलन,1,मिलान कुन्देरा,1,मिशेल फूको,8,मिश्रीमल जैन तरंगित,1,मीनू पामर,2,मुकेश वर्मा,1,मुक्तिबोध,1,मुर्दहिया,1,मृदुला गर्ग,1,मेराज फैज़ाबादी,1,मैक्सिम गोर्की,1,मैथिली शरण गुप्त,1,मोतीलाल जोतवाणी,1,मोहन कल्पना,1,मोहन वर्मा,1,यशवंत कोठारी,8,यशोधरा विरोदय,2,यात्रा संस्मरण,31,योग,3,योग दिवस,3,योगासन,2,योगेन्द्र प्रताप मौर्य,1,योगेश अग्रवाल,2,रक्षा बंधन,1,रच,1,रचना समय,72,रजनीश कांत,2,रत्ना राय,1,रमेश उपाध्याय,1,रमेश राज,26,रमेशराज,8,रवि रतलामी,2,रवींद्र नाथ ठाकुर,1,रवीन्द्र अग्निहोत्री,4,रवीन्द्र नाथ त्यागी,1,रवीन्द्र संगीत,1,रवीन्द्र सहाय वर्मा,1,रसोई,1,रांगेय राघव,1,राकेश अचल,3,राकेश दुबे,1,राकेश बिहारी,1,राकेश भ्रमर,5,राकेश मिश्र,2,राजकुमार कुम्भज,1,राजन कुमार,2,राजशेखर चौबे,6,राजीव रंजन उपाध्याय,11,राजेन्द्र कुमार,1,राजेन्द्र विजय,1,राजेश कुमार,1,राजेश गोसाईं,2,राजेश जोशी,1,राधा कृष्ण,1,राधाकृष्ण,1,राधेश्याम द्विवेदी,5,राम कृष्ण खुराना,6,राम शिव मूर्ति यादव,1,रामचंद्र शुक्ल,1,रामचन्द्र शुक्ल,1,रामचरन गुप्त,5,रामवृक्ष सिंह,10,रावण,1,राहुल कुमार,1,राहुल सिंह,1,रिंकी मिश्रा,1,रिचर्ड फाइनमेन,1,रिलायंस इन्फोकाम,1,रीटा शहाणी,1,रेंसमवेयर,1,रेणु कुमारी,1,रेवती रमण शर्मा,1,रोहित रुसिया,1,लक्ष्मी यादव,6,लक्ष्मीकांत मुकुल,2,लक्ष्मीकांत वैष्णव,1,लखमी खिलाणी,1,लघु कथा,288,लघुकथा,1340,लघुकथा लेखन पुरस्कार आयोजन,241,लतीफ घोंघी,1,ललित ग,1,ललित गर्ग,13,ललित निबंध,20,ललित साहू जख्मी,1,ललिता भाटिया,2,लाल पुष्प,1,लावण्या दीपक शाह,1,लीलाधर मंडलोई,1,लू सुन,1,लूट,1,लोक,1,लोककथा,378,लोकतंत्र का दर्द,1,लोकमित्र,1,लोकेन्द्र सिंह,3,विकास कुमार,1,विजय केसरी,1,विजय शिंदे,1,विज्ञान कथा,79,विद्यानंद कुमार,1,विनय भारत,1,विनीत कुमार,2,विनीता शुक्ला,3,विनोद कुमार दवे,4,विनोद तिवारी,1,विनोद मल्ल,1,विभा खरे,1,विमल चन्द्राकर,1,विमल सिंह,1,विरल पटेल,1,विविध,1,विविधा,1,विवेक प्रियदर्शी,1,विवेक रंजन श्रीवास्तव,5,विवेक सक्सेना,1,विवेकानंद,1,विवेकानन्द,1,विश्वंभर नाथ शर्मा कौशिक,2,विश्वनाथ प्रसाद तिवारी,1,विष्णु नागर,1,विष्णु प्रभाकर,1,वीणा भाटिया,15,वीरेन्द्र सरल,10,वेणीशंकर पटेल ब्रज,1,वेलेंटाइन,3,वेलेंटाइन डे,2,वैभव सिंह,1,व्यंग्य,2075,व्यंग्य के बहाने,2,व्यंग्य जुगलबंदी,17,व्यथित हृदय,2,शंकर पाटील,1,शगुन अग्रवाल,1,शबनम शर्मा,7,शब्द संधान,17,शम्भूनाथ,1,शरद कोकास,2,शशांक मिश्र भारती,8,शशिकांत सिंह,12,शहीद भगतसिंह,1,शामिख़ फ़राज़,1,शारदा नरेन्द्र मेहता,1,शालिनी तिवारी,8,शालिनी मुखरैया,6,शिक्षक दिवस,6,शिवकुमार कश्यप,1,शिवप्रसाद कमल,1,शिवरात्रि,1,शिवेन्‍द्र प्रताप त्रिपाठी,1,शीला नरेन्द्र त्रिवेदी,1,शुभम श्री,1,शुभ्रता मिश्रा,1,शेखर मलिक,1,शेषनाथ प्रसाद,1,शैलेन्द्र सरस्वती,3,शैलेश त्रिपाठी,2,शौचालय,1,श्याम गुप्त,3,श्याम सखा श्याम,1,श्याम सुशील,2,श्रीनाथ सिंह,6,श्रीमती तारा सिंह,2,श्रीमद्भगवद्गीता,1,श्रृंगी,1,श्वेता अरोड़ा,1,संजय दुबे,4,संजय सक्सेना,1,संजीव,1,संजीव ठाकुर,2,संद मदर टेरेसा,1,संदीप तोमर,1,संपादकीय,3,संस्मरण,730,संस्मरण लेखन पुरस्कार 2018,128,सच्चिदानंद हीरानंद वात्स्यायन,1,सतीश कुमार त्रिपाठी,2,सपना महेश,1,सपना मांगलिक,1,समीक्षा,847,सरिता पन्थी,1,सविता मिश्रा,1,साइबर अपराध,1,साइबर क्राइम,1,साक्षात्कार,21,सागर यादव जख्मी,1,सार्थक देवांगन,2,सालिम मियाँ,1,साहित्य समाचार,98,साहित्यम्,6,साहित्यिक गतिविधियाँ,216,साहित्यिक बगिया,1,सिंहासन बत्तीसी,1,सिद्धार्थ जगन्नाथ जोशी,1,सी.बी.श्रीवास्तव विदग्ध,1,सीताराम गुप्ता,1,सीताराम साहू,1,सीमा असीम सक्सेना,1,सीमा शाहजी,1,सुगन आहूजा,1,सुचिंता कुमारी,1,सुधा गुप्ता अमृता,1,सुधा गोयल नवीन,1,सुधेंदु पटेल,1,सुनीता काम्बोज,1,सुनील जाधव,1,सुभाष चंदर,1,सुभाष चन्द्र कुशवाहा,1,सुभाष नीरव,1,सुभाष लखोटिया,1,सुमन,1,सुमन गौड़,1,सुरभि बेहेरा,1,सुरेन्द्र चौधरी,1,सुरेन्द्र वर्मा,62,सुरेश चन्द्र,1,सुरेश चन्द्र दास,1,सुविचार,1,सुशांत सुप्रिय,4,सुशील कुमार शर्मा,24,सुशील यादव,6,सुशील शर्मा,16,सुषमा गुप्ता,20,सुषमा श्रीवास्तव,2,सूरज प्रकाश,1,सूर्य बाला,1,सूर्यकांत मिश्रा,14,सूर्यकुमार पांडेय,2,सेल्फी,1,सौमित्र,1,सौरभ मालवीय,4,स्नेहमयी चौधरी,1,स्वच्छ भारत,1,स्वतंत्रता दिवस,3,स्वराज सेनानी,1,हबीब तनवीर,1,हरि भटनागर,6,हरि हिमथाणी,1,हरिकांत जेठवाणी,1,हरिवंश राय बच्चन,1,हरिशंकर गजानंद प्रसाद देवांगन,4,हरिशंकर परसाई,23,हरीश कुमार,1,हरीश गोयल,1,हरीश नवल,1,हरीश भादानी,1,हरीश सम्यक,2,हरे प्रकाश उपाध्याय,1,हाइकु,5,हाइगा,1,हास-परिहास,38,हास्य,59,हास्य-व्यंग्य,78,हिंदी दिवस विशेष,9,हुस्न तबस्सुम 'निहाँ',1,biography,1,dohe,3,hindi divas,6,hindi sahitya,1,indian art,1,kavita,3,review,1,satire,1,shatak,3,tevari,3,undefined,1,
ltr
item
रचनाकार: पुस्तक समीक्षा : अपनी मिट्टी से बिछड़ने का दर्द है ...."मुहाजिरनामा "
पुस्तक समीक्षा : अपनी मिट्टी से बिछड़ने का दर्द है ...."मुहाजिरनामा "
http://lh3.ggpht.com/-F_zkKPvBz5w/UDnDqWk0ZXI/AAAAAAAANxY/15hBZh-e5HQ/image%25255B2%25255D.png?imgmax=800
http://lh3.ggpht.com/-F_zkKPvBz5w/UDnDqWk0ZXI/AAAAAAAANxY/15hBZh-e5HQ/s72-c/image%25255B2%25255D.png?imgmax=800
रचनाकार
https://www.rachanakar.org/2012/08/blog-post_359.html
https://www.rachanakar.org/
https://www.rachanakar.org/
https://www.rachanakar.org/2012/08/blog-post_359.html
true
15182217
UTF-8
Loaded All Posts Not found any posts VIEW ALL Readmore Reply Cancel reply Delete By Home PAGES POSTS View All RECOMMENDED FOR YOU LABEL ARCHIVE SEARCH ALL POSTS Not found any post match with your request Back Home Sunday Monday Tuesday Wednesday Thursday Friday Saturday Sun Mon Tue Wed Thu Fri Sat January February March April May June July August September October November December Jan Feb Mar Apr May Jun Jul Aug Sep Oct Nov Dec just now 1 minute ago $$1$$ minutes ago 1 hour ago $$1$$ hours ago Yesterday $$1$$ days ago $$1$$ weeks ago more than 5 weeks ago Followers Follow THIS PREMIUM CONTENT IS LOCKED STEP 1: Share to a social network STEP 2: Click the link on your social network Copy All Code Select All Code All codes were copied to your clipboard Can not copy the codes / texts, please press [CTRL]+[C] (or CMD+C with Mac) to copy Table of Content