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आजकल बाल साहित्य और बाल विकास के चर्चे जोरों पर हैं। वैश्वीकरण के इस दौर मे जहाँ सारे विश्व में पश्चिम का बोलबाल है भारत भी इसकी मार से अछूता नहीं रहा। हमारा देश वैदिक परंपराओं ,पुरातन सनातन ,संस्कारों में रचा बसा सिद्धांतों, नैतिकता और मानवमूल्यों का पोषक देश रहा है । यहां मर्यादा पुरषोत्तम राम के समान पिता के वचनों के पालनार्थ राज पाठ त्याग करने वाले देव पुरुष पैदा हुये हैं तो धर्म की रक्षार्थ कृष्ण के समान लीला पुरुष भी अवतार लेकर आये हैं। जहां नैतिकता, सिद्धांत, धर्म मानव मूल्य, सचाई, करुणा ,दया ,प्रेम, परहित ,कर्तव्य ,इन सभी शब्दों को अक्षरश: पालन करने के लिये बुद्ध, महावीर, परम हंस ,विवेकानंद जैसे महामानवों ने जन्म लिया है,वहीं स्वदेश की रक्षार्थ ,मातृभूमि की सेवा में राणा प्रताप और शिवाजी जैसे देश भक्तों ने अपनी सारी जिंदगी दुखों और महान कष्टों में गुजार दी। विदेशी आतताईयों की अधीनस्था स्वीकार कर वे विलासिता पूर्ण शाही जीवन जी सकते थे। किंतु स्वदेश प्रेम और स्वाभिमान के चलते यह लोग यायावर की जिंदगी जीते हुये भी आतताइयों से युद्ध करते रहे। वीर शिवाजी ने अपने जीते जी मुगलों को चैन से नहीं बैठने दिया। गुरुकुल ही विद्यालय थे और गुरु ही विश्वविद्यालय । गुरु माता पिता ईश्वर के समान ही पूज्य थे। गुरु गोविंद दोनों खड़े काके लागूं पाँव ,यह कहकर संतो ने गुरू के महत्व का बखान किया है।
शिक्षा प्रणाली ऐसी थी कि बच्चे शिक्षा पूर्ण होते तक सच्चे ,सिद्धांतवादी ,कर्त्तव्यनिष्ठ और परिपक्व व्यक्तित्व के धनी ,पूर्ण मानव बनकर ही गृहस्थ आश्रम में प्रवेश करते थे। बड़ों की आज्ञा का पालन, कमजोरों, अबलाओं और मातृभूमि की रक्षार्थ अपने प्राणों की बाजी लगानॆ में तनिक सी भी देर नहीं करते थे। किंतु आज परिस्थितियां बिल्कुल विपरीत हैं। आज हम मैकालो की सोच को जीने के लिये मजबूर हैं। अंग्रेज भारत से जाते जाते हमारी संस्कृति को इतना विकृत कर गये हैं कि हम खुद को भूलकर पश्चिम के ही होकर रह गये हैं। आज परिवार टूटकर बिखर रहें हैं ,बुजुर्गों का सम्मान हमारी नई पीढ़ी नहीं करना चाहती ,परिवार की परिभाषा बदल गई है। परिवार मतलब हम दो हमारे दो अथवा एक। बूढ़े मां बाप अथवा भाई बहिनों को अब जगह नहीं है। क्या हमें अब कभी याद आती है कि बिगड़ते हुये बच्चों को कैसे पटरी पर लाया जाये या आज की इस स्वछंद संस्कृति को हमनॆ बिना किसी विरोध के स्वीकार कर लिया है। । हालाकि भौतिकवादी सोच के चलते आम आदमी का ध्यान इस तरफ नहीं है किंतु बुद्धिजीवी वर्ग साफ देख रहा है कि यदि देर की गई तो भारत वर्ष पूर्णत: अपने संस्कार खो देगा और हम पश्चिम की तरह नंगे, अधनंगे ,वहिशी पशु होकर रह जायेंगे। न जहां परिवार होगा न शादी विवाहों जैसी परंपरायें बचेंगी। जितने चाहे विवाह करो और जब चाहे तलाक ले लो। माता पिता को वृद्धाश्रम में डालो खूब पैसे कमाओ और ऐश करो। यही जीवन का उद्देश्य हो जायेगा। क्या यह उछृंखलता हमारे देश के लिये उचित होगी यह प्रश्न विचारणीय है।
यहां पर एक बात स्पष्ट करना होगी कि हमारे देश की पुरातन परंपराओं की जड़ें इतनी गहरी हैं कि इन्हें जड़ से खोद निकालना और समाप्त करना संभव नहीं है। यह बात अलग है कि पूर्ण आधुनिक शैली में ढले लोग अपने संस्कार भूल रहे हैं किंतु देश के अधिकांश लोग अपने मूल को विस्मरण करना चाहते हुये भी नहीं कर पा रहे हैं। हमारी परंपरायें एवं संस्कार ऐसे हैं हैं कि हम अपने मौलिक गुणों का जड़मूल से त्याग कर ही नहीं सकते। जन्म के समय से ही हमारे रीति रिवाज़ हमारे संस्कार हमें ऐसी घुट्टी पिलाते हैं कि हमारा अंतरमन सदा अच्छाई को ग्रहण कर बुराई से दूर रहने को सचेत करता रहता है। यह ग्राह्य क्षमता परिवार दर परिवार अलग अलग होती है। वंशानुगत परंपराओं को अलग से सिखाना नहीं पड़ता बच्चे जो देखते वह अपने आप सीखने लगते करने लगते हैं।
नवजात शिशुओं के मष्तिस्क में भले सोचनॆ की क्षमता न्यूनाधिक हो परंतु आंखों से तो वे सब कुछ देखते ही हैं। कानों से भी उन्हें पूर्णत:तरह से सुनाई पड़ता है। पैदा होते ही थाली बज़ने की आवाज़ ,माँ की लोरियां, बड़े बूढ़ों का दुलार ,दादरे ,ढोलक की आवाज़, बांसुरी ,क्या इन सबसे बच्चा अनजान रह सकता है? भले ही वह बोलकर कुछ भी व्यक्त नहीं कर पाता पर वहा जानता सब है। बच्चा बड़ा होते ही दादा दादी कहनियां सुनाते हैं ,दुलराते हैं, चूमते हैं ,पुचकारते हैं औरयहीं से बच्चा प्रॆमा स्नेह दया करुणाजैसे गुणों को ग्राह्य करने लगता है।
बड़ा होता है तो घर में त्योहारों के समय मां को गुझियां बनाते देखता है संक्रांति पर लड्डू खुरमा बतियां बनाते देखता है तो वह भी मां के साथ ये सब चीजें बनाने कि जिद करता हैं । मां सॆवईयां बनाती है तो बच्चा कहता है कि मैं भी बनाऊंगा। दादी भगवान की आरती करती है तो बच्चे भी बड़ी रुची लेकर आरती करने आ जाते हैं। यह तभी होगा जिस घर में लोग इन रिवाजों का पालन करते हों। जहां पूजा पाठ होता ही नहीं, जहाँ बच्चों को नर्सों के हवाले कर दिया जायेगा ,जहाँ बच्चे बचपन से ही छात्रावासों में भेज दिये जायेंगे ,वहां के बच्चे यह संस्कार कहां सीख पायेंगे। भारतीय घरों में अभी भी सुबह से दरवाजे पर आई गाय को रोटी खिलाने का रिवाज़ है। कई घरों में तो गाय के लिये रोज़ रोटियां बचा कर रखीं जातीं हैं ताकि गाय दरवाजे से भूखी न जाये। महमानों को हमने सदा देवता माना है अथिति देवो भव ,यह हमारे संसार हैं। हमें बचपन में यही सिखाया गया है कि खुद चाहे भूखे रह लो पर अतिथिओं का सदा ध्यान रखो। बच्चे देखते हैं कि कैसे घर में महमानों का स्वागत करते हैं तो बड़े होकर उनमें भी यही भावना निश्चित तौर पर विकसित होगी। कुछ घर ऐसे अभी भी हैं जहाँ से भिखारी खाली हाथ वापिस नहीं जाते ,न जाने किस भेष में बाबा मिल जायें भगवान रे।
ईश्वर हम सबके भीतर बसता है और यह सोच, कि कर भला सो हो भला हमें दूसरों की सहायता करने को उकसाती है। कहने का तात्पर्य यह कि लोकचर्या का बच्चे के विकास पर बहुत प्रभाव पड़ता है। बच्चा जैसे वातावरण मे पलेगा उसके गुण स्वभाव संस्कार वैसे ही हो जायेंगे। आदिवासियों के बच्चे किसी ट्रैनिगं सेंटर में ट्रेनिंग नहीं लेते कितु इतना अच्छा लॊक नृत्य करते हैं कि ट्रेनिंगवाले क्या करेंगे। मादल, ढोल ,एकतारा, टिमकी, झांझ, मजीरा बजाना इन्हें कौन सिखाता है? कोई नहीं, यह इनकी दिन चर्या में है लोकचर्या में शुमार है। बच्चों की दिनचर्या अच्छी होगी लोक चर्या सुव्यवस्थित होगी संस्कारित होगी तो बच्चे के संस्कार निश्चित ही अच्छे होंगे। जिन घरों में माता पिता के चरण स्पर्श किये जाते हैं वहां के ब्च्चे भी ऐसा ही करते हैं । जहां हाय डेड ,हलो मम्मी का रिवाज़ है वहां बच्चे भी हाय हलो से काम चला लेते हैं। जैसा देखते हैं वैसा करते हैं बच्चे, इसलिये वे ऐसे परिवेश में पलें जहां संस्कार हों सलीका हो तहजीब सिखाई जाये और बड़ों का सम्मान और छोटों कॊ स्नेह देने कि परिपाटी हो। आज यह सब इसलिये जरूरी है कि हमारे कदम पश्चिम की मदहोशी में बह रहे हैं\हम संभलेंगे तो बच्चे भी संभल जायेंगे अन्यथा भगवान ही मालिक है। भूतकाल को समेटकर वर्तमान के रास्ते भविष्य की ओर राष्ट्र को ले जाने का काम बच्चों के कंधों पर ही है आज के बदलते हुये समाज को यह बात अच्छी तरह स्मरण रखना होगी।
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