प्रमोद भार्गव का आलेख : संदर्भ- राज ठाकरे का बयान - महाराष्‍ट्र में भाषाई सांप्रदायिकता का उभार

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महाराष्‍ट्र में आंचलिक भाषाई सांप्रदायिकता उभार पर है। इसे खाद - पानी विपक्ष के साथ सत्‍ता पक्ष भी दे रहा है। इसीलिए जिस दिन महाराष्‍ट्र नव...

महाराष्‍ट्र में आंचलिक भाषाई सांप्रदायिकता उभार पर है। इसे खाद - पानी विपक्ष के साथ सत्‍ता पक्ष भी दे रहा है। इसीलिए जिस दिन महाराष्‍ट्र नव निर्माण सेना के प्रमुख राज ठाकरे कहते हैं कि अमर जवान स्‍मारक को खंडित करने वाले आरोपी को बिहार जाकर गिरफ्‌तार करने वाले पुलिस वालों के साथ बिहार सरकार कोई कानूनी कार्यवाही करती है तो राज की सेना घुसपैठी बिहारियों को मुंबई समेत महाराष्‍ट्र से खदेड़ देगी। इसी दिन पत्रकारों द्वारा राजभाषा हिन्‍दी में सवाल पूछने पर राज्‍य सरकार में उपमुख्‍यमंत्री अजीत पवार कहते हैं कि केवल मराठी में प्रश्न करिये ? अजीत, कृषि मंत्री शरद पवार के भतीजे हैं और राष्ट्रीय कांग्रेस पार्टी से जुड़े हैं। भाषा और लोगों के बीच विभाजन की रेखा खींचने वाली क्‍या यही इनकी राष्ट्रीयता है ? हकीकत तो यह है कि हमारे ज्‍यादातर नेताओं को राष्ट्रीयता का पाठ जापान से सीखने की जरुरत है। यहां रहने वाले बौद्ध अथवा ईसाई आप किसी भी धर्मावलंबी से पूछिये, आपको एक ही एक ही उत्‍तर मिलेगा, मेरा धर्म जापान है, कर्म जापान है और मेरा सर्वस्‍व जापान है। लेकिन हमारे नेता राष्ट्रीयता के उस स्‍थायी भाव को खंडित करने के बयान जब-तब देते रहते हैं, जिसके चलते उनमें में प्रत्‍येक भारतीय नागरिक के प्रति दया, उदारता, प्रेम और उसके हित साधन की लालसा प्रगट होनी चाहिए।

अब तक सांप्रदायिकता को उन्‍मादित धर्मांधता और जातीय विद्वेश के परिप्रेक्ष्‍य में ही देखा जाता रहा है। लेकिन महाराष्‍ट्र में शिवसेना से अलग होने के बाद राज ठाकरे और उनकी मनसे ने भाषाई और क्षेत्रीय अराजकता को अपना राजनीतिक वजूद निखारने के लिए औजार ही बना लिया है। यह निर्माण नहीं जघन्‍य विंध्‍वस का हथियार है। राज द्वारा फैलाई जा रही इस हिंसक अराजकता के शुरुआती दौर नवंबर 2008 में दो उत्‍तर भारतीयों की हत्‍या कर दी गई थी। बावजूद उनके कटु वचनों पर लगाम लगाने का काम न प्रदेष सरकार कर पाई और न केंद्र सरकार। जबकि संविधान हरेक भारतीय को देष के किसी भी राज्‍य में जाकर बसने की इजाजत देता है। इसी से भारत की एकता में विविधता के इंद्रधनुषी रंग दिखाई देते हैं और समरसता के वातावरण का निर्माण होता है। दिग्‍विजय सिंह ठीक कहते हैं कि यदि संविधान में यह व्‍यवस्‍था नहीं होती तो बिहार से चलकर जिस ठाकरे परिवार ने मुंबई में अपना वजूद बनाया, वह कैसे संभव होता ? उन जैसों को मुंबई छोड़ना पड़ता। मुंबई के मूल निवासी तो केवल मछुआरे हैं। बाकी सब बाहरी हैं। लेकिन हमारे यहां एक दुर्भाग्‍यपूर्ण स्‍थिति यह भी कि हमारे शासक-प्रशासक कानून का हवाला तो देते हैं, उस पर अमल करने का साहस नहीं दिखाते। केंद्र व राज्‍य सरकारों की इसी काहिली का लाभ उठाकर राजनैतिक बौने आतंक का पर्याय बनकर भस्‍मासुर की भूमिका निभाने लग जाते हैं। हालांकि राज ठाकरे की हरकतों के परिप्रेक्ष्‍य में सर्वोच्‍च न्‍यायालय भी चेतावनी दे चुका है कि राजठाकरे, उनकी मनसे और महाराष्‍ट्र सरकार किसी को भी देश की एकता खंडित करने की अनुमति नहीं दी जा सकती है। लेकिन ऐसी निंदा और चेतावनियों का असर इस स्‍वयंभू मराठी मानुश पर दिखता ही नहीं।

राष्ट्र या किसी क्षेत्र विशेष के प्रति मोह, चिंता और उसके विकास व रोजगार के प्रति स्‍वप्‍नदृष्टि जब आंचलिकता भाषावाद, जातिवाद या संप्रदायवाद में तब्‍दील हो जाती है तो यह अतिवाद और अराजकता की संभावनाओं को जन्‍म देती है। जिसकी परिणति राज्‍य की प्रतिस्‍पर्धी राजनीति में क्रूर व विस्‍फोटक रुपों में सामने आती है। जिसके दुष्परिणाम स्‍वरूप स्‍थानीय चेतनाएं व राष्ट्रीयताएं उभरती हैं, जो संघीय भारत के खतरों को बढ़ाती हैं। भारत एक राष्ट्रीय इकाई जरुर है, लेकिन उसमें अनेक सांस्‍कृतिक राष्ट्रीयताएं बसती हैं।

शिवसेना से अलग होने के बाद राज ठाकरे ने महाराष्‍ट्र में अपनी स्‍वतंत्र राजनीति की स्‍थापना के दृष्टिगत तथाकथित महाराष्‍ट्र व मराठी भाषियों को लुभाने के प्रति जो आक्रामक बयानबाजियों की मुहिम चला रखी है यह बेलगाम स्‍थिति और इससे उपजी प्रतिक्रियाएं संकीर्ण राज्‍यवाद को जन्‍म देने वाली हैं। आंचलिक भाषाई संप्रदायवाद के आधार पर समाज के एक वर्ग के विरुद्ध खड़ा करने की ये जघन्‍य राजनीतिक हरकतें सामाजिक समग्रता और सांस्‍कृतिक चेतना के लिए खतरा हैं। इसी का प्रतिफल रहा था कि मुंबई में जब रेलवे की परीक्षा देने गए अभ्‍यार्थियों को शिवसेना और मनसे के बाहुबलियों ने खदेड़ा था तब बिहार में इसकी प्रतिक्रिया स्‍वरुप आक्रोश राष्ट्रीय संपत्‍ति को नष्ट करने के रुप में सामने आया था। दरअसल आजादी के 65 साल बाद भी हम औपनिवेषिक मानसिकता से पूरी तरह मुक्‍त नहीं हो पाए हैं, इसी कारण हम एक देश के रुप में राष्ट्रीय इकाई होने के बावजूद हम पर क्षेत्रीय राष्ट्रीयताएं, भाषावाद, क्षेत्रवाद, जातिवाद व संप्रदायवाद अन्‍यान्‍य रुपों में हावी हैं, नतीजतन जैसे ही किसी भी वाद को हौवा बनाने के उपक्रम शुरु होते हैं वह क्षेत्रीय राजनीति के फलक पर उभर आता है। आंचलिक या स्‍थानीयता के इन्‍हीं उभारों के चलते शिवसेना, महाराष्‍ट्र नवनिर्माण सेना, तृण-मूल कांग्रेस, गोंडवाणा गणतंत्र पार्टी और बहुजन समाजपार्टी अस्‍तित्‍व में आई। दरअसल आंचलिकता का उभार ही जन जागरण से जुड़ा होता है। स्‍थानीयता के बहाने ही दलित और पिछड़ों के बहुजन राष्ट्रीय राजनीति के मुख्‍य फलक पर उभरे हैं। भूमण्‍डलीयकरण के प्रभाव और बाजारवाद की आंधी में यह भ्रम होने लगा था कि स्‍थानीयता के मुद्‌दे कमजोर पड़ जाएंगे। वैश्वीकरण की अवधारणा में स्‍थानीयता का विलोपीकरण हो जाएगा। अमेरिकी पूंजीवादी एकरुपता जैसे दुनिया के बहुलतावाद को खत्‍म कर देगी ? हालांकि ये शंकायें पूंजीवादी अर्थव्‍यवस्‍था ढहने के बाद स्‍वयं समाप्‍त हो रही है। पर आजादी के समय जो सवाल अनुत्‍तरित थे, वे अनुत्‍तरित ही हैं।

स्‍थानीयता के मुद्‌दे ने ही कश्मीर के सवाल को चिर-प्रश्न बनाया हुआ है। जबकि वह भारत की अंखडता और सार्वभौमिकता से जुड़ा है। कश्मीर के महाराजा हरिसिंह ने सामंतवादी राज्‍यों के भारत में विलीनीकरण के दौरान अभिलेखों पर हस्‍ताक्षर कर राज्‍य सत्‍ता का हस्‍तांतरण भारत की प्रभुता के लिए किया था। कमोवेश इसी तरह की प्रक्रियाओं को अमल में लाने के साथ ही तमाम बड़ी रियासतें भारत का संवैधानिक अंग बन गई थीं। लेकिन कालांतर में पाकिस्‍तानी शह और सहयोग से कश्मीर में मुस्‍लिम हित और इस्‍लाम का राग अलापा जाने लगा। हिंदुओं को अलगाववादी निशाना बनाकर खदेड़ने लगे। बांग्‍लादेशी घुसपैठियों ने यही हाल असम का बना दिया है। नतीजतन वह कश्मीर के नक्शेकदम पर है और केंद्र व राज्‍य सरकारें केवल लाचारी का राग अलाप रही हैं। स्‍थानीय नेतृत्‍व ने प्रांतवाद के ऐसे ही सोच को उभारकर भारत को ‘संघीय भारत' के रास्‍ते पर डाल दिया। क्‍योंकि राष्ट्रीय इकाई और क्षेत्रीय राष्ट्रीयताओं के बीच बेहद बारीक विभाजन रेखा है, जिसे स्‍थानीय सरोकारों से बरगलाकर उभारना किसी भी विघटनकारी नेतृत्‍व के लिए सरल है। खालिस्‍तान, नागालैण्‍ड, बोडोलैण्‍ड, गोरखालैण्‍ड, मराठालैण्‍ड इन्‍हीं क्षेत्रीय राष्ट्रीयताओं की उपज हैं।

यहां सवाल यह भी उठता है कि आंचलिकता अथवा स्‍थानीयता जब मानवीय सभ्‍यता और संस्‍कृति की इतनी मजबूत विरासत के रुप में अवचेतन में बैठी अवधारणा है तो इन्‍हें गंभीरता से क्‍यों नहीं लिया जाता ? इंदिरा गांधी पंजाब में अकालियों की राजनीति खत्‍म करने के लिए भिंडरावाले को राजनीतिक संरक्षण देकर खड़ा करती हैं और वह स्‍वयंभू तथाकथित आतंकवाद के बूते खालिस्‍तान का राष्ट्राध्‍यक्ष बन बैठता है। ठीक इसी तर्ज पर शिवसेना को कमजोर करने के दृष्टिगत राज ठाकरे और उनकी स्‍थानीय अस्‍मिताओं को उभारने का भरपूर मौका महाराष्‍ट्र सरकार देती हैं, जिससे कांग्रेस और राष्ट्रीय कांग्रेस पार्टी फायदे में रहें। अन्‍यथा राष्ट्रद्रोह की बयानबाजी करने वाले राज ठाकरे के विरुद्ध कोई कठोर कारवाई करने में सरकार क्‍यों हिचकिचाती है ? दल व व्‍यक्‍तिगत मंशाओं की पूर्ति के दृष्टिगत दायित्‍व निर्वाह में शिथिलता व लापरवाही बरतना भी एक तरह राष्ट्रीय अनैतिकता है, जिसे अपराध के दायरे में लाना चाहिए ?

दरअसल अकेले महात्‍मा गांधी ने व्‍यक्‍तिगत स्‍थानीयता और राष्ट्रीयता के परस्‍पर सामंजस्‍य को समझने की कोशिश की थी। उन्‍होंने मार्गदर्शन करते हुए इसीलिए लघु परंपराओं के महत्‍व को बार-बार उल्‍लेखित किया है क्‍योंकि वे स्‍थानीयता या आंचलिकता की आधारशिला हैं। निम्‍न वर्गों, वर्णों, जातियों और समुदायों की मानसिक स्‍थितियों की समझने की कोशिश करते हैं। जबकि वृहत परंपराओं के तहत उपरोक्‍त स्‍थितियों को समझा ही नहीं गया।

दलित और पिछड़ों के सामूहिक रुप से सत्‍ता में आने के बाद यह उम्‍मीद की जा रही थी कि अब तमाम अनुत्‍तरित सवालों के हल ढूंढ लिए जाएंगे ? परंतु ठीक इसके विपरीत 1990 के बाद से संसद में गरीब, अल्‍पसंख्‍यक, भाषा और महिलाओं की चर्चा को नकारते हुए भूख, असमानता और सामाजिक न्‍याय के मुद्‌दे भी संसद से गौण हो गए। अब वहां जाति, अपराधी और पूंजी के माफिया तंत्र का बोलबाला है। जिसकी ताकत में लगातार इजाफा हो रहा है और संसद से जो विधेयक पारित होकर कानून बन रहे है उन्‍हें संज्ञान में लेते हुए ऐसा लगता है कि के केवल पूंजीपतियों और सक्षम तबके का हित साधने के लिए बनाये जा रहे हैं। पूंजी के आगे विधायिका नत मस्‍तक है। संक्रमण की इस महामारी को बलपूर्वक नियंत्रित नहीं किया गया तो क्षेत्रीय अस्‍मिताएं सुरसामुख की तरह फैलती चली जाएंगी

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प्रमोद भार्गव

शब्‍दार्थ 49,श्रीराम कॉलोनी

शिवपुरी म.प्र.

मो. 09425488224

फोन 07492 232007, 232008

लेखक प्रिंट और इलेक्‍ट्रोनिक मीडिया से जुड़े वरिष्‍ठ पत्रकार है।

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रचनाकार: प्रमोद भार्गव का आलेख : संदर्भ- राज ठाकरे का बयान - महाराष्‍ट्र में भाषाई सांप्रदायिकता का उभार
प्रमोद भार्गव का आलेख : संदर्भ- राज ठाकरे का बयान - महाराष्‍ट्र में भाषाई सांप्रदायिकता का उभार
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