रश्‍मि बड़थ्‍वाल की कहानी : दृष्टि

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शुरू से ही दृष्टि दूसरों से काफी अलग प्रकृति की थी। अपनी सगी बहन सृष्टि से भी अलग। सृष्टि जहां बच्‍चों के साथ खेलने-कूदने, हंसने-गाने में ...

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शुरू से ही दृष्टि दूसरों से काफी अलग प्रकृति की थी। अपनी सगी बहन सृष्टि से भी अलग। सृष्टि जहां बच्‍चों के साथ खेलने-कूदने, हंसने-गाने में खूब रूचि लेती खूब ऊधम मचाती, वहीं दृष्टि काफी शांत और विचारमग्‍न रहती। पढ़ाई को भी दोनों बहनों ने दो अलग नजरियों से देखा। सृष्टि स्‍नातक होकर प्रतियोगिताओं में व्‍यस्‍त हो गयी और एक बड़ी कंपनी में नौकरी पाकर ही उसने सांस संभाली।

दृष्टि सृष्टि से दो साल बड़ी थी पर उसे नौकरी की कोई जल्‍दी नहीं थी। सृष्टि को नौकरी करते लगभग दो महीने हो गये थे जब दृष्टि ने शोधकार्य के लिए विषय चुना। शिक्षाशास्‍त्र की वह छात्रा बच्‍चों में शिक्षा की रूचि और संभावनाओं का अध्‍ययन कर रही थी। बहुत कुछ इधर-उधर से टीप-बटोरकर शोध करने की बढ़ती प्रकृति को उसने भी देखा-समझा पर अपने शोधकार्य में उस राह पर एक कदम भी नहीं चली। गांव-गांव की धूल में चलकर शिक्षकों से, विद्यार्थियों से, अभिभावकों से निरंतर संपर्क में रहकर और बाकी समय पुस्‍तकालय में डूबकर

उसने शोधकार्य पूरा किया। फिर वह भी एक दिन आया जब उसके गले में स्‍वर्णपदक झूल गया।

मम्‍मी-पापा बहुत खुश थे। इकलौती बहन सृष्टि भी। अपनी कमाई में सृष्टि दीदी के लिए बहुत सारी चीजें लेकर आयी थी। यूं भी नौकरी में आकर सृष्टि की पहनने-ओढ़ने, सजने-संवरने की बारीक सूझ विकसित हो गयी थी। दृष्टि ने सृष्टि के उपहार देखे। प्‍यारी-प्‍यारी साड़ियां, कलात्‍मक कर्णफूल, कंगन, लिपस्‍टिक....वह हंस पड़ी।

“यह सब मैं क्‍या करूंगी? इससे अच्‍छा तू मुझे कुछ किताबें देती!”

सृष्टि का मुंह फूल गया। पर दोनों बहनों में प्‍यार इतना था कि भला गुस्‍सा उनके बीच ठहरता ही कितने पल!

“अब मेरी दीदी प्रोफेसर बनेगी, है न?” सृष्टि दृष्टि को बांहों में बांध बिल्‍कुल बचपन की अदा में झूमती रही।

“पढ़ो फिर पढ़ाओ यह तो बहुत पुराना ढर्रा है। मैं कुछ अलग करना चाहती हूं।”

“क्‍या करोगी?”

“अभी कुछ सोचा नहीं।”

अगली बार जब सृष्टि छुट्‌टी पर घर आयी तो फिर दृष्टि से पूछा “क्‍या तय किया दीदी, क्‍या करोगी तुम?”

दृष्टि कुछ बोलती इससे पहले ही मम्‍मी ने झुंझलाकर कहा “कुछ मत करो तुम बस शादी कर लो। छोटी को हवा में उड़ने से फुरसत नहीं है और बड़ी को झोला लटकाकर घूमने से फुरसत नहीं है।”

“तुम अभी भी गांव-गांव जाती हो दीदी? पी-एच.डी. तो पूरी हो गयी फिर अब किसलिए?”

“देख रही हूं वहां हमारी यानी हम पढ़े-लिखे लोगों की मदद की बहुत जरूरत है।”

“कैसी जरूरत?”

“कितनी नीरस पढ़ाई है उनके लिए, उनके हिस्‍से में! बड़ी जड़ता के साथ पढ़ाते हैं पढ़ाने वाले। विद्यार्थीर् रूचि रखें भी तो कैसे? न घर से प्रोत्‍साहन मिलता है न स्‍कूल से! बेचारे बच्‍चे।”

“तो क्‍या यह तुम्‍हारा-हमारा काम है? मत भूलो तुम गोल्‍डमैडलिस्‍ट पी-एच.डी. हो! तुम्‍हें डिग्री क्‍लासेज के बारे में सोचना चाहिए न कि गांव के प्राइमरी स्‍कूल के बच्‍चों के बारे में।

“डिग्री क्‍लासेज के बच्‍चे तो अपने बारे में बहुत कुछ खुद भी सोच सकते हैं पर वे निरीह नन्‍हें बच्‍चे जो अपना भला-बुरा कुछ नहीं जानते, जिनकी प्रतिभा के अंकुर ही टूटकर नष्‍ट हो जाते हैं, जिनकी संभावनाओं को कोई देखने वाला ही नहीं है...!”

“तो तुम उनके बारे में सोचकर क्‍या कर लोगी?”

“यही तो सोचती हूं कि मुझे क्‍या करना चाहिए!”

“तुमने अभी तक कहीं एप्‍लाई भी नहीं किया?”

“अपने परिचित गांवों में सबसे पिछड़े गांव के स्‍कूल में पढ़ाना चाहती हूं पर उसके लिए मेरे पास ट्रेनिंग नहीं है। पी-एच.डी. करने से सरकारी प्राइमरी स्‍कूल में नौकरी नहीं मिल सकती, इसलिए अब बीटीसी करूंगी।”

“तुम पागल हो गयी हो दीदी! पी-एच.डी. गोल्‍डमैडलिस्‍ट अब बीटीसी करेगी?”

दृष्टि ने कुछ कहा नहीं पर किया वही जो उसे करना था यानी बीटीसी भी प्र्रथम श्रेणी में। और फिर मनचाहे स्‍कूल में उसकी नियुक्‍ति हो गयी। नियुक्‍ति इसलिए भी आसान हो गयी क्‍योंकि उस बीहड़ गांव के टूटे-फूटे स्‍कूल में तो कोई जाना ही नहीं चाहता था।

चार सादी सी साड़ियां लेकर गांव के एक कमरे में किराये पर रहने आयी हुई उस टीचर को देखकर कोई नहीं समझता था कि वह डिग्री कॉलेज में पढ़ाने का लोभ छोड़कर प्राइमरी स्‍कूल में पढ़ाने आयी है। न कभी दृष्टि ने ही इस संबंध में किसी से कोई बात की। वह तो जुट गयी बच्‍चों को समझने में, उनसे दोस्‍ती करने में, उनके अभिभावकों से संवाद बनाने में और उनकी समस्‍याएं पहचानने में।

कोई जादू नहीं किया सृष्टि ने, पर आवारा कुत्‍तों और सुअरों की शरणस्‍थली बने उजड़े स्‍कूल में अब बच्‍चे दिखने लगे। दृष्टि ने रोज दो-दो बच्‍चों में सफाई का काम बांट दिया, वह खुद भी उनके साथ जुटती। हर रविवार को श्रमदान से स्‍कूल की इमारत काफी कुछ सुधर गयी और बगीचा भी बन गया।

बच्‍चों ने कई नये-नये खेल सीखे और खेल-खेल में पढ़ाई भी होने लगी। अनौपचारिक शिक्षा में खेल भी था, बागवानी भी, गीत-अंत्‍याक्षरी भी थे और किस्‍सा-कहानी भी। कंम्‍प्‍यूटर नाम की कोई मशीन होती है यह बच्‍चों ने दृष्टि से ही जाना। गणित के भी खेल हो सकते हैं इस बात ने तो गांव के प्रधान जी को भी आश्‍चर्य में डाल दिया था लेकिन चूंकि दृष्टि से उन्‍हें किसी तरह का कोई खतरा नहीं दिखाई दिया इसलिए उन्‍होंने उसके गणित में अपने गणित की टांग नहीं अड़ाई।

दृष्टि जब-जब शहर अपने घर जाती वापसी पर बच्‍चों के लिए कुछ न कुछ नया लेकर आती। आकारवर्धक शीशे से उसने बच्‍चे-बच्‍चे का गंदगी और कीटाणुओं से परिचय कराया और उसी से बच्‍चे सफाई का महत्‍व भली-भांति समझ गये। बच्‍चों ने बड़ों को अपना ज्ञान बांटा। दृष्टि की एक बड़ी उपलब्‍धि यह भी थी कि जिस गांव की एक भी महिला साक्षर नहीं थी, सारी की सारी अंगूठाछाप थीं, वहां की लड़कियां भी पढ़ने के लिए स्‍कूल जाने लगीं।

सरकारी नीतियां और योजनाएं बेचारे प्रधानजी खुद ही ठीक से न समझ पाते गांव वालों को भला क्‍या समझाते! एक दिन प्रधान जी ने दृष्टि बिटिया को बुलवा भेजा। दृष्टि बिटिया ने एक ही मुलाकात में उनका दिल ऐसा जीता कि वे हर छुट्‌टी को उसे बुलाने लगे। योजनाओं के भूत-भविष्‍य पर चर्चा होती, खर्चे की मदों पर विचार-विमर्श होता, गांव की समस्‍याओं पर बात होती। पूरा का पूरा गांव दृष्टि का परिवार बन गया। सबका विश्‍वास, सबका स्‍नेह और आदर पाने लगी वह साल-दो-साल में ही।

उधर शहर में मम्‍मी इतना झुंझलातीं-रोतीं कि दृष्टि का वहां जाने का मन ही नहीं होता। मम्‍मी अपनी बड़ी बेटी को भी बिल्‍कुल वैसा ही देखना चाहती थीं जैसी छोटी को देख रही थीं। इस बात पर उन्‍हें बड़ा गुस्‍सा आता कि दृष्टि को उनकी कोई चिंता ही नहीं है।

“तुम्‍हारे कारण मेरा ब्‍लडप्रेशर बढ़ता है। तुम्‍हारे कारण मैं तनाव में रहती हूं। तुम्‍हारे कारण मैं हमेशा दुखी रहती हूं। तुम्‍हारे कारण ही मैं एक दिन मर जाऊंगी.....।” मम्‍मी ने जिस दिन ये बातें कहीं उस दिन दृष्टि ने मन ही मन में सोच लिया कि अब इस घर में आना ठीक नहीं है।

घर से अलग होना, मां से अलग होना, अपने शहर से अलग होना इतना सरल है क्‍या? वह भी तब जब लड़की ने न शादी की हो, न अपनी योग्‍यता के अनुरूप नौकरी पकड़ी हो, न उसे अपने समान बौद्धिक स्‍तर का एक भी व्‍यक्‍ति बात करने को मिलता हो। पर दृष्टि ने गांव में, गांव के लोगों में, विशेष तौर पर बच्‍चों में अपने-आप को इस तरह डुबो दिया कि उसे और कुछ सोचने की फुर्सत ही नही मिलती।

सृष्टि ने उसे मोबाइल फोन दिया था उसका स्‍विच भी वह काम के समय बंद ही रखती। मम्‍मी-पापा या सृष्टि फोन पर लंबी बात करते तो वह टोक देती कि बस काम की ही बात करिए। उसे कभी किसी चाची के पास जाना होता, कभी किसी ताऊ से बात करनी होती, अमुक बच्‍चे की कोई समस्‍या सुलझानी होती या तमुक को कोई चीज समझानी होती।

जाने-आने के क्रम की तरह फोन पर संपर्क भी टूटता ही जा रहा था। सृष्टि की नौकरी को सात साल पूरे हो चुके थे और उसकी शादी तय हो चुकी थी । तब दृष्टि पूरे डेढ़ साल बाद शहर गयी और तीन दिन में ही वापस लौट आयी। इस बात से मम्‍मी के साथ-साथ सृष्टि भी आहत हुई पर दृष्टि भी समझ चुकी थी कि वह अपनी बात उन्‍हें समझा नहीं सकती।

जीने का सबका अलग-अलग ढंग है पर दृष्टि ने अपने लिए जीना सीखा ही नहीं । केवल अपनों के लिए जीना भी उसे मंजूर नहीं था। भला एक शादी के लिए चार दिन खर्च करने का क्‍या मतलब, वह ऐसा सोचती।

वह लौटी तो गांववाले चौंके “इतनी जल्‍दी लौट आयी बिटिया? बहन के ब्‍याह में भी चार-छः दिन नहीं रही?”

“बहन का ब्‍याह तो तब भी हो जाता जो मैं नहीं जाती। यहां उससे ज्‍यादा जरूरी काम हैं। हैं कि नहीं बताओ? हीरामन का मन तो पढ़ने के बजाय फिर से हल चलाने में ही लगने लगेगा, और उसके बापू ने फिर से बोतल उठा ली तो फिर कलह शुरू हो जाएंगे। नीमा काकी के बच्‍चे उनकी नहीं सुनते मेरी सुन लेते हैं और नीमा काकी बीमार चल रही हैं, बताओ मेरा मन लगता शहर में? इतने सारे बच्‍चों की तीन दिन पढ़ाई नहीं हुई यह क्‍या कम पाप है जो और पाप कमाती शहर रह कर!”

दृष्टि को पहले ही गांव सर-आंखों पर उठा रहा था इसके बाद तो वह इतनी आत्‍मीय हो गयी कि गांव का कोई भी काम उससे पूछे बिना होता ही नहीं। उसी साल गांव में कर्जे से डूबे एक किसान ने आत्‍महत्‍या कर ली। पीछे छूट गयी उसकी बीमार पत्‍नी और बेटी कमला। कमला की मां ने रो-रोकर महीने भर में जान दे दी। बिल्‍कुल अनाथ हो गयी कमला को दृष्टि ने गोद ले लिया। गांव के लोग दृष्टि के प्रति औार भी कृतज्ञ हो गये। कमला का कंठ ऐसा सुरीला कि सुनने वाला सुनता ही रह जाय, पर इस गुण पर भी और किसी का ध्‍यान नहीं गया दृष्टि ने ही देखा यह भी। स्‍कूल की प्रार्थना की जिम्‍मेदारी मुख्‍य रूप से कमला पर डालकर दृष्टि दूसरे काम देखती। कमला को संगीत सिखाने में वह अलग से समय देती।

कमला दृष्टि के साथ ही रहती और उसका हाथ भी बंटाती। कमला दृष्टि के घर में रह रही थी बिल्‍कुल एक बेटी की तरह। मां-बाप को खोने का दुख उसे कभी घेर न ले इस बात के लिए दृष्टि हमेशा सतर्क रहती। गांव वालों ने उनके संबंध को सहज स्‍वीकार लिया था पर शहर में उसके मम्‍मी-पापा को बड़ा गुस्‍सा आया था।

“उस बरबाद लड़की ने अपने आप को और भी बरबाद कर लिया।” यह पापा की टिप्‍पणी थी। सृष्टि को भी ससुराल की रिश्‍तेदारी में ताने सुनने पड़े थे इसलिए उसने भी दृष्टि पर गुस्‍सा उतारा। बचपन का स्‍नेह-अपनत्‍व सब भूल गयी हो मानो ऐसा ही व्‍यवहार था सृष्टि का। इससे दृष्टि और भी तटस्‍थ हो गयी।

जब सृष्टि का बेटा पैदा हुआ तो बड़ा उत्‍सव मनाया गया लेकिन दृष्टि उस उत्‍सव में शामिल होने भी न गयी। पांच हजार रूपये भेज कर उसने सृष्टि को लिखा कि बच्‍चे को मेरी ओर से कुछ दे देना।

मम्‍मी का गुस्‍सा इससे और भी ऊंचा हो गया और फिर दृष्टि को जो कभी-कभार मां की आवाज फोन पर सुनने को मिल जाया करती थी वह भी मिलनी बंद हो गयी। मिली तो एक दिन यह खबर कि मम्‍मी नहीं रही।

वह भागी गयी। सालों बाद पन्‍द्रह दिन शहर में रही। शहर के एक घर के एक कमरे में रोती, आंसू बहाती, और फिर लौट गयी गांव की ओर। पर शहर उसे गांव से अभी एक बार और वापस बुलाने वाला था, एक नये दुख के लिए। सृष्टि का फोन आया कि पापा को लकवा पड़ गया है। दृष्टि तुरंत गयी। पापा अस्‍पताल में थे। सृष्टि और उसके पति को अपनी-अपनी नौकरी और बच्‍चे की देखभाल और पढ़ाई की व्‍यस्‍तता में अधिक दिन वहां रहने की सुविधा नहीं थी। दृष्टि ने आते ही कमर कस ली पापा की सेवा के लिए। सृष्टि, उसके पति और दूसरे रिश्‍तेदार बीच-बीच में आते-जाते रहे। महीना भर अस्‍पताल में रहने के बाद पापा की हालत काफी संभल गयी थी और डॉक्‍टरों का कहना था कि अब मालिश, व्‍यायाम और देखभाल की आवश्‍यकता अधिक है पर पापा के लिए यह करता कौन? इस सब के लिए तो समय भी चाहिए समर्पण भी।

दृष्टि पापा को लेकर उसी पिछड़े गांव में चली गयी जिससे सब घृणा करते थे। मम्‍मी भी, पापा भी, सृष्टि भी और दूसरे रिश्‍तेदार भी। वे सब लोग जिन्‍होंने कभी वह गांव देखा नहीं था। पहुंचते ही दृष्टि के पापा मानो सारे गांव की जिम्‍मेदारी बन गये। मालिश के लिए बीस हाथ हर समय तैयार रहते। फलों का रस निकालना हो, खिचड़ी घोटनी हो, व्‍यायाम करवाना हो... दृष्टि के पास चार-छः सहायक हर समय मौजूद रहते। शहर में तो मोटी रकम पर नर्स रखकर भी इतनी सुविधा न मिल पाती। दृष्टि को इतना आराम न मिल पाता।

पापा के स्‍वास्‍थ्‍य लाभ के साथ ही सब कुछ चल रहा था स्‍कूल की पढ़ाई भी, घर-घर की चिंता और हित भी। लगभग छः महीने में पापा अपने आप खाने और टहलने लगे। इस बीच दृष्टि की दुनिया देखकर उनका सोच ही पूरी तरह बदल गया। क्‍या होता अगर वे शहर में ही रह रहे होते! शायद दो-दो नर्स रखते और तब भी अकेलेपन से पल-पल मरते रहते। यहां तो एक घड़ी अकेला नहीं महसूस किया! कितने लोगों ने उनके कष्‍ट को अपना कष्‍ट समझा, उन्‍हें आश्‍चर्य होता। गांव के हवा-पानी ने कितनी मदद की सुधार में! उनके दिल-दिमाग के दरवाजे ही खुल गये मानो। ग्राम-प्रधान रोज ही आकर उनके हाल पूछते। खण्‍ड विकास अधिकारी तक हफ्‍ते-दस दिन में चक्‍कर लगाते और बार-बार कहते हमारे योग्‍य सेवा हो तो बताइए हमें भी अच्‍छा ही लगेगा आपकी सेवा करके।

पापा काफी स्‍वस्‍थ हो चुके थे और उधर सृष्टि दूसरी बार मां बनने वाली थी। पापा को देखने वह आ नहीं सकती थी इसलिए वह चाहती थी कि पापा अब उसीके पास आ जायं। दृष्टि को भी कोई आपत्‍ति नहीं थी तो उसने गांव के एक जवान लड़के को साथ करके पापा को भेज दिया।

सृष्टि इस बात पर भी खूब नाराज हुई कि पापा को एक गैर आदमी के साथ भेज दिया। इस पर दृष्टि ने कहा “मेरे लिए वह गैर नहीं था बल्‍कि अपना ही बच्‍चा था, कमला की तरह।”

इसके बाद पूरे छः महीने सृष्टि ने दीदी से बात नहीं की। दृष्टि ही फोन से पापा के हालचाल पूछ लेती।

एक दिन पापा ने फोन किया कि सृष्टि की बेटी हुई है पर कुछ जटिल हालत में। सृष्टि की हालत खराब है और उसकी सास बेटी पैदा होने के दुख से उसे छोड़ कर चली गयी है।

दृष्टि ने फोन रखते ही कमला को पुकारा “कमला, मुझे जाना होगा। स्‍कूल की पूरी जिम्‍मेदारी तुम पर सौंप कर जा रही हूं। कब लौटूंगी पता नहीं! गोपू और हीरामन को कहना कि बच्‍चों को पढ़ाने आ जाएं। प्रधान काका के पास जाती रहना। उनकी बात मानना और सोने के लिए नीमा काकी के पास चली जाना। चाहो तो काकी को सोने के लिए यहीं बुला लेना। कुछ पैसे रख लो और जो जरूरत पड़े तो दुकान से उधार ले लेना। बिल्‍कुल भी घबराना मत बेटी!”

कमला बहुत समझदार थी। दृष्टि का पूरा प्रभाव उस पर था। दृष्टि को भी यह बात पता थी।

सृष्टि ने जब दीदी को देखा तो वह धार-धार रो पड़ी। दृष्टि ने उसे ढाढस बंधाया, डॉक्‍टर से मिली और सृष्टि की देखभाल की पूरी जिम्‍मेदारी अपने ऊपर ले ली। सृष्टि से पूछ-पूछकर वह बच्‍चे को भी नहलाती-धुलाती, मालिश करती, कपड़े पहनाती और सृष्टि की सेवा में भी जुटी रहती। कुछ दिन में सृष्टि को अस्‍पताल से तो छुट्‌टी मिल गयी पर उसे देखभाल की जरूरत थी।

“दीदी मेरे लिए नर्स रखने के एक-दो दिन बाद ही जाना। मुझे बहुत डर लग रहा है। अगर मम्‍मी आज जिंदा होती तो....

“बावरी है तू तो! मैंने केवल यह देखा कि कहां मेरी ज्‍यादा जरूरत है। गांव को तो हमेशा ही जरूरत थी पर अब तुझे है। कमला बहुत समझदार है, बहुत कुछ संभाल लेती है। सृष्टि मेरी बहन, इरादे अगर नेक हों, उद्‌देश्‍य अच्‍छे हों तो बहुत से लोगों का सहयोग हमें मिलता जाता है। मैं अपने अनुभव से कह सकती हूं । अपने स्‍वार्थ किनारे रखकर, बस जनहित देखकर मैं काम करती रही। आज कितने सारे लोगों का विश्‍वास मेरे साथ है। पापा ने तुम्‍हें बताया ही होगा कि कैसे उनके लिए सारा गांव एक पैर पर खड़ा रहता था।”

“हां दीदी, पापा तो कहते हैं बड़ी बेटी ने मेरी आंखें खोल दीं। वे तो फिर तुम्‍हारे पास आने की बात सोच रहे थे पर इधर मेरी हालत बिगड़ गयी।”

“अब मैं और पापा तुम्‍हें बिल्‍कुल ठीक करके ही वापस जाएंगे।”

“उसमें तो लंबा समय लगेगा दीदी। तुम रह भी पाओगी तो कितना? ज्‍यादा से ज्‍यादा महीना-डेढ़ महीना ही तो!”

सृष्टि की आवाज में भरा डर दृष्टि ने देख लिया। मुस्‍कराकर वह फोन मिलाने लगी।

“किसे फोन कर रही हो दीदी?”

“प्रधान जी को।”

उधर से ‘हैलो' होते ही दृष्टि ने कहा “प्रधान काका दृष्टि बोल रही हूं । कमला ने बताया ही होगा आपको मेरी बहन बीमार है।....हां-हां अब सुधार हो रहा है पर उसे देखभाल की जरूरत है और आप तो जानते ही हैं बड़ी बहन का कर्तव्‍य मां जैसा ही होता है। तो मैं कम से कम छः महीने यहां रहूंगी। प्रार्थनापत्र आज ही डाक से भेज रही हूं।....हां-हां वेतन के बिना भी...। अरे काका जमा पूंजी कब काम आएगी? ...काका यहां बहन के घर पर न रोटी की चिंता न कपड़े की। आपसे निवेदन केवल इतना है कि कमला का पूरा ध्‍यान रखें।...आपके रहते मुझे कैसी चिंता! ...पैसा मैं भेजती रहूंगी।...अच्‍छा रामदेई को इधर बुखार तो नहीं चढ़ा?...अच्‍छा, हीरामन इतनी जिम्‍मेदारी अकेले संभाल ले रहा है? बड़ी खुशी हुई सुनकर! ....तो ठीक है काका, कोई खास बात हो तो फोन कर लेना। ...अच्‍छा काका प्रणाम्‌।”

सृष्टि मुग्‍ध भाव से अपनी दीदी को देख रही थी और सुन रही थी।

“दीदी, मम्‍मी ने कितना सोच कर तुम्‍हारा नाम दृष्टि रखा होगा। सचमुच तुम दृष्टि हो! और दीदी, दृष्टि है तो ही सृष्टि है।”

“अरे वाह! मेरी छोटी सी, नन्‍हीं सी, प्‍यारी सी बहन तो कविता करने लगी।” दृष्टि सृष्टि को बांहों में बांधकर झूलने लगी, वैसे ही जैसे बचपन में झुलाया करती थी।

सृष्टि रो पड़ी “दीदी मैं तुम्‍हें कितना गलत समझती थी! मैं समझती थी तुम बहुत आत्‍मलिप्‍त हो गयी हो। अपने काम के अलावा किसी के बारे में नहीं सोचती, और काम भी कितना छोटा!.... तुम्‍हारा काम बहुत बड़ा है, बहुत महान है, यह तो मुझे पापा ने ही समझा दिया था पर दूसरी गलतफहमी मेरी अब ही दूर हो पायी।”

“दूसरी कौन सी?” दृष्टि अब भी उसे बाहों में झुला रही थी।

“यही कि तुम बहुत आत्‍मलिप्‍त हो, आत्‍मलीन हो, किसी की परवाह नहीं करती। मेरी तक नहीं।” सृष्टि सुबक रही थी।

“पगली!” दृष्टि ने सृष्टि का माथा चूमा। “मुझे मालूम था एक न एक दिन सब रूठे हुए मान जाएंगे। और देखो न, वह दिन आ गया!”

तुम सचमुच मेरे लिए छै महीने यहां रह जाओगी दीदी?”

“छः महीने नहीं मैं छै साल तेरे लिए, सिर्फ तेरे लिए, सब कुछ छोड़ कर घर में तो क्‍या सड़क पर पड़ी रह सकती हूं। पर बिना कारण गंवाने के लिए मेरे पास छै दिन भी नहीं हंै। बल्‍कि सच कहूं सृष्टि छै घंटे भी नहीं।”

“अब कभी शिकायत नहीं करूंगी दीदी, अब तो मैं तुम्‍हें समझ गयी हूं।”

“अब समझ पाई हो!” दृष्टि हंस पड़ी।

“मैं कोई दृष्टि थोड़े ही हूं जो मुझसे इतनी समझदारी की आशा रखी जाय!” सृष्टि झेंपती हुई बोली और फिर दोनों बहनें गले लग कर हंस पड़ीं

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पता- रश्‍मि बड़थ्‍वाल

21, नील विहार

निकट सेक्‍टर 14

इंदिरा नगर, लखनऊ- 16

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पाटील,1,शगुन अग्रवाल,1,शबनम शर्मा,7,शब्द संधान,17,शम्भूनाथ,1,शरद कोकास,2,शशांक मिश्र भारती,8,शशिकांत सिंह,12,शहीद भगतसिंह,1,शामिख़ फ़राज़,1,शारदा नरेन्द्र मेहता,1,शालिनी तिवारी,8,शालिनी मुखरैया,6,शिक्षक दिवस,6,शिवकुमार कश्यप,1,शिवप्रसाद कमल,1,शिवरात्रि,1,शिवेन्‍द्र प्रताप त्रिपाठी,1,शीला नरेन्द्र त्रिवेदी,1,शुभम श्री,1,शुभ्रता मिश्रा,1,शेखर मलिक,1,शेषनाथ प्रसाद,1,शैलेन्द्र सरस्वती,3,शैलेश त्रिपाठी,2,शौचालय,1,श्याम गुप्त,3,श्याम सखा श्याम,1,श्याम सुशील,2,श्रीनाथ सिंह,6,श्रीमती तारा सिंह,2,श्रीमद्भगवद्गीता,1,श्रृंगी,1,श्वेता अरोड़ा,1,संजय दुबे,4,संजय सक्सेना,1,संजीव,1,संजीव ठाकुर,2,संद मदर टेरेसा,1,संदीप तोमर,1,संपादकीय,3,संस्मरण,730,संस्मरण लेखन पुरस्कार 2018,128,सच्चिदानंद हीरानंद वात्स्यायन,1,सतीश कुमार त्रिपाठी,2,सपना महेश,1,सपना मांगलिक,1,समीक्षा,847,सरिता पन्थी,1,सविता मिश्रा,1,साइबर अपराध,1,साइबर क्राइम,1,साक्षात्कार,21,सागर यादव जख्मी,1,सार्थक देवांगन,2,सालिम मियाँ,1,साहित्य समाचार,98,साहित्यम्,6,साहित्यिक गतिविधियाँ,216,साहित्यिक बगिया,1,सिंहासन बत्तीसी,1,सिद्धार्थ जगन्नाथ जोशी,1,सी.बी.श्रीवास्तव विदग्ध,1,सीताराम गुप्ता,1,सीताराम साहू,1,सीमा असीम सक्सेना,1,सीमा शाहजी,1,सुगन आहूजा,1,सुचिंता कुमारी,1,सुधा गुप्ता अमृता,1,सुधा गोयल नवीन,1,सुधेंदु पटेल,1,सुनीता काम्बोज,1,सुनील जाधव,1,सुभाष चंदर,1,सुभाष चन्द्र कुशवाहा,1,सुभाष नीरव,1,सुभाष लखोटिया,1,सुमन,1,सुमन गौड़,1,सुरभि बेहेरा,1,सुरेन्द्र चौधरी,1,सुरेन्द्र वर्मा,62,सुरेश चन्द्र,1,सुरेश चन्द्र दास,1,सुविचार,1,सुशांत सुप्रिय,4,सुशील कुमार शर्मा,24,सुशील यादव,6,सुशील शर्मा,16,सुषमा गुप्ता,20,सुषमा श्रीवास्तव,2,सूरज प्रकाश,1,सूर्य बाला,1,सूर्यकांत मिश्रा,14,सूर्यकुमार पांडेय,2,सेल्फी,1,सौमित्र,1,सौरभ मालवीय,4,स्नेहमयी चौधरी,1,स्वच्छ भारत,1,स्वतंत्रता दिवस,3,स्वराज सेनानी,1,हबीब तनवीर,1,हरि भटनागर,6,हरि हिमथाणी,1,हरिकांत जेठवाणी,1,हरिवंश राय बच्चन,1,हरिशंकर गजानंद प्रसाद देवांगन,4,हरिशंकर परसाई,23,हरीश कुमार,1,हरीश गोयल,1,हरीश नवल,1,हरीश भादानी,1,हरीश सम्यक,2,हरे प्रकाश उपाध्याय,1,हाइकु,5,हाइगा,1,हास-परिहास,38,हास्य,59,हास्य-व्यंग्य,78,हिंदी दिवस विशेष,9,हुस्न तबस्सुम 'निहाँ',1,biography,1,dohe,3,hindi 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रचनाकार: रश्‍मि बड़थ्‍वाल की कहानी : दृष्टि
रश्‍मि बड़थ्‍वाल की कहानी : दृष्टि
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