शरद तैलंग का व्यंग्य - नहीं चाहिए भेंट में पुस्तकें

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कम्प्यूटर के प्रचलन बढ़ने का सबसे बडा नुकसान यही हुआ है कि अब कोई भी रचनाकार अपनी रचनाओँ को बाज़ार में कम्प्यूटर पर टाइप करवा कर पुस्तक छपवा...

कम्प्यूटर के प्रचलन बढ़ने का सबसे बडा नुकसान यही हुआ है कि अब कोई भी रचनाकार अपनी रचनाओँ को बाज़ार में कम्प्यूटर पर टाइप करवा कर पुस्तक छपवाने लगा है। किसी रचनाकार की पुस्तक के विमोचन का आमँत्रण मिला नहीं कि यह आशँका बढ़ जाती है कि अब वह रचनाकार अपनी पुस्तक भेँट करेगा और अलमारी में एक पुस्तक के लिये जबरन घुसेड़ कर जगह बनानी पड़ेगी....

मेरे घर में अलमारी में सजी पुस्तकेँ देख कर कोई भी इस गलतफहमी का शिकार हो सकता है कि मुझे पुस्तकोँ से बहुत प्रेम है, अध्ययन करना मेरा शौक है या मैँ कोई साहित्यकार हूँ। उनकी नज़र में अलमारी में सजीँ पुस्तकोँ की सँख्या ही साहित्यकार का स्तर तय करतीँ है। जिसके पास पुस्तकोँ की जितनी बडी अलमारी वो उतना ही बड़ा साहित्यकार। वे यह भी सोच सकते हैं कि मुझे पुस्तकेँ खरीदने का भी बडा चाव है। सब कुछ मिलाकर मेरी इस हरकत के कारण लोग मुझे कुछ विद्वान किस्म का व्यक्ति समझ लेते हैं , और ये सिर्फ मेरे साथ ही नहीं है मेरे बहुत से मित्रोँ को भी लोग उनके घर की अलमारियोँ में सजी पुस्तकोँ के कारण कुछ का कुछ समझ बैठते हैं जो वास्तविकता में वे होते नहीं है।

पुस्तकोँ की घर घर में लगी ये प्रदर्शनियाँ मित्रोँ की उस उदार नीति का परिणाम है जिसके तहत वे अपनी प्रकाशित पुस्तकेँ दूसरोँ को सप्रेम भेँट करते आ रहे हैं। जो अपनी विभिन्न विषयवस्तु की पुस्तकेँ महज इसलिये प्रकाशित करवा लेते हैं जिनसे उनके परिचय में इस बात का उल्लेख हो जाये कि इनका एक ग़ज़ल सँग्रह, या काव्य सँग्रह, कहानी सँग्रह या व्यँग्य सँग्रह प्रकाशित हो चुका है। बस यही एक कारण है जो लाभ की श्रेणी में गिनाया जा सकता है नहीं तो हानि ही हानि है। आपके किसी सँग्रह के प्रकाशित होने पर आपका साहित्य जगत में थोड़ा सा नाम हो जाये बस, भले ही इसके पीछे आपका तन, मन, और धन भी बर्बाद हो जाये ये कोई बुद्धिमानी की बात नहीं कही जा सकती है। अक्सर ये सुनने को मिल जाता है कि इनके आठ सँग्रह प्रकाशित हो गये है, उनके दस हो गये, किसी के तीन हो गये, पर ये कोई नहीं कहता कि इनके तीस हज़ार लग गये या पचास हज़ार ठुक गये।

अलमारियोँ में किसी सैनिक टुकडी की तरह खडी इन पुस्तकोँ को घर में रखा भी न जाये और फेँका भी न जाये। वैसे तो रद्दी वाले की दुकान इनके लिये श्रेष्ठ स्थान है लेकिन फिर दिल ये सोचता है कि पुस्तक भेँट करने वाले ने आपको इसे क्या रद्दी में बेचने के लिये दी है यह कार्य तो पुस्तक देने वाले के परिवारजन भी आसानी से सम्पन्न कर उनसे कुछ लाभ भी कमा सकते हैं उसने तो आपको इसलिये दी है कि आप उसको पढ़ कर उसकी झूठी तारीफ में कुछ शब्द कहेँ तथा लेखक को भी श्रेष्ठ साहित्यकार की श्रेणी में प्रतिपादित करेँ। रद्दी की दुकान पर उस की इतनी मेहनत का फल पहुँचाने में एक सबसे बड़ा खतरा यह है कि यदि वो भी कभी आपकी पुस्तक को उसी दुकान पर देने चला आये और उसकी नज़र आपको भेँट दी गई पुस्तक पर पड़ जाये तो मतभेद हो सकते हैं।

कुछ दिनोँ पूर्व मेरे घर पर एक विद्यार्थी का आगमन हुआ जो उस अँचल के कवियोँ की रचनाओँ पर शोध कर रहा था। उसे यहाँ के रचनाकारोँ की प्रकाशित कृतियोँ की आवश्यकता थी जो उसके शोध में सहायक हो सकेँ। उसे देख कर मुझे ऐसा लगा जैसे स्वयँ साक्षात भगवान मेरे कष्टोँ का निवारण करने के लिये पधारे हो। मैंने मेरे पास जितनी भी कविताओँ की पुस्तकेँ थी सब उसके सम्मुख रख दीँ। वो कह रहा था कि मैँ चार पाँच दिन में इनमेँ से कुछ अपने मतलब की बातेँ उतार कर आपको वापस कर दूँगा। टलने वाली मुसीबत चार पाँच दिनोँ में फिर आ धमकेगी मैँ सोच सोच कर उद्वेलित हो रहा था मैंने उससे कहा – नहीं नहीं कोई जल्दी नहीं है , आप तो अपने शोध पूरा होने तक इन्हेँ अपने पास ही रख लेँ , मुझे कोई जल्दी नहीं है “ लेकिन वो भी चार पाँच दिन बाद वापस करने पर ही तुला था। उसके घर में भी अलमारियोँ की कमी होगी। उसी समय मेरी पत्नी ने भी जो बाज़ार गई हुई थी, घर में प्रवेश किया। एक अनजान व्यक्ति के सामने पुस्तकोँ का ढेर लगा देख कर उसने यही समझा कि वह रद्दी वाला है। “ क्या भाव ले रहे हो ? – पत्नी ने उससे अचानक पूछ लिया। “किसी भाव नहीं ले रहा हूँ , मैँ तो इसमेँ से कविताओँ के भाव ही लूँगा”। मैँ तो इन कवियोँ की कविताओँ पर शोध कर रहा हूँ इसलिये इनकी आवश्यकता है – उसने जवाब दिया। पत्नी ने पुस्तकोँ की अलमारी पर निगाह डाली अभी भी बहुत सी पुस्तकेँ वहाँ पर कब्जा जमाये थीँ जिनमेँ अधिकाँश कहानियोँ की थीँ। “ तुम कहानियोँ पर भी शोध क्योँ नहीं करते हो, वो भी अच्छा रहेगा – पत्नी बोली।– जी एक बार में एक पर ही किया जाता है, इसी में बहुत समय लग जाता है” –उसने जवाब दिया। “तुम्हारा और कोई दोस्त नहीं है जो कहानियोँ पर भी शोध कर रहा हो, अगर हो तो बताना”। हमारे पास उसके लिये बहुत सारा मसाला मिल जायेगा” और यह कह कर वह अन्दर चली गई।

कम्प्यूटर के प्रचलन बढ्ने का सबसे बडा नुकसान यही हुआ है कि अब कोई भी रचनाकार अपनी रचनाओँ को बाज़ार में कम्प्यूटर पर टाइप करवा कर पुस्तक छपवाने लगा है। किसी रचनाकार की पुस्तक के विमोचन का आमँत्रण मिला नहीं कि यह आशँका बढ जाती है कि अब वह रचनाकार अपनी पुस्तक भेँट करेगा और अलमारी में एक पुस्तक के लिये जबरन घुसेड़ कर जगह बनानी पड़ेगी। सब लोग साहित्य के प्रचार प्रसार में अपना योगदान देने को आतुर रहते है और यह उतावलापन केवल साहित्यकारोँ में ही नहीं है वरन भारतीय रेल और राज्य परिवहन निगम भी आपको पुस्तक प्रेमी बनाने पर तुला हुआ है। इसका प्रमाण यह है कि रेलवे स्टेशनोँ तथा बस अड्डोँ पर भी पुस्तकोँ की दुकानेँ हाज़िर हैं। उनका मानना है कि सफ़र में वक्त गुज़ारने के लिये पुस्तक ही सर्वोत्तम साधन है इसलिये आओ और पुस्तक खरीदो और उनको पढ़ो भी। अरे ! जब हम लोग मुफ्त भेँट में दी गईँ पुस्तकेँ ही नहीं पढते हैं तो खरीदकर पढने का तो प्रश्न ही नहीं उठता है।

रेलवे स्टेशन पर जब कोई रेलगाडी आकर रुकती है तो पाँच –सात मिनट के विश्राम के समय लोग चाय, पानी, पूडी-सब्जी के लिये उतरेँगे या पुस्तक खरीदने। और पुस्तक के स्टॉल के सामने तो एक ही डिब्बा आयेगा पूरी ट्रेन के लोग भाग कर तो वहाँ आयेँगे नहीं , पुस्तकोँ के चक्कर में उनकी ट्रेन छुटवानी है क्या ? फिर इन स्टॉल पर कौन आता है ? जाहिर है वही लोग आयेँगे जो अपने किसी रिश्तेदार को लेने या छोडने वहाँ आये होँगे, या स्वयँ ही कहीँ जा रहे होँगे। अब ट्रेन आ नहीं रही है खडे खडे ऊब हो रही है ऐसे में पुस्तक स्टॉल काम आता है। आप वहाँ इस अदा से जाते हैं जैसे अभी बहुत सी पुस्तकेँ खरीद लेँगे। आप पहले कुछ मँहगीँ अँग्रेज़ी की पुस्तकोँ के पन्ने पलटते हैं। दुकानदार समझ जाता है कि आप को लेना देना कुछ नहीं है बस ये प्रदर्शित करना है कि आप अँग्रेजी भी जानते है। आप तो सिर्फ टाइम पास करने के लिये ही आये हैं। अँग्रेज़ी से आप हिन्दी पत्रिकाओँ पर उतर आते हैं और फिर सत्य कथाओँ पर। प्रेमचन्द और स्वेट मार्टन ललचाई नज़रोँ से देखते रहते हैं कि आप उन पर भी दृष्टिपात करे। आचार्य चतुरसेन जी लगता है सो रहे हैं। वेद प्रकाश कम्बोज तथा गुलशन नन्दा ने तो सन्यास धारण कर लिया है। अच्छा हुआ आपके साथ कोई बच्चा नहीं आया नहीं तो चाचा चौधरी, साबू और पिँकी जबर्दस्ती आपके साथ हो लेते। आपकी निगाहेँ पुस्तकोँ के साथ साथ दाँयीँ ओर भी लगातार पड रहीँ हैं कि ट्रेन की लाइट दिखी या नहीं। दुकानदार आपकी सारी योजना को जानता है उसके स्टॉल पर रोज़ ही ऐसे ग्राहक आते हैं जिन्हेँ खरीदना कुछ नहीं बस अपने आप को पुस्तक प्रेमी सिद्ध करना ही है और ट्रेन का इंतज़ार करना है।

इसी समय आप दुकानदार की कुदृष्टी को भाँप जाते हैं और “ नवभारत टाइम्स है क्या ? जैसा प्रश्न उसकी तरफ उछल देते हैं। वो भी जानता है कि आपको उस समाचार – पत्र के समाचारोँ में कोई दिलचस्पी नहीं है। समाचार तो आप घर से ही पढकर या टीवी में देख कर आये हैं आप तो वह समाचार पत्र महज़ इसलिये ले रहे हैं कि यात्रा में खाना खाते समय उसे सीट पर बिछाया जा सके, सीट गन्दी हो जाये तो उससे पौछा जा सके ,जगह न मिले तो फर्श पर बिछा कर उस पर लेटा जा सके  और गर्मी लगे तो उसे पँखे की तरह इस्तेमाल किया जा सके। तीन रुपये में इतना बहुउद्देशीय साधन और कहाँ मिलेगा। बस स्टेण्ड के बुक स्टॉल पर तो जो साहित्य उपलब्ध होता है उस पर दृष्टीपात करने पर लोग आपको पुस्तक प्रेमी तो नहीं हाँ कुछ और ही टाइप के प्रेमी समझ सकते है।

मेरी तो यही अभिलाषा है कि लोग कविता या कहानियाँ न लिखेँ, यदि लिखेँ भी तो उनकी पुस्तक न छ्पवायेँ, छपवायेँ भी तो उनको मित्रोँ को भेँट में न देँ, भेँट में देँ तो उनसे उसके बारे में राय न माँगे , राय भी माँगेँ पर कभी कबाड़ी की दुकान पर न जायेँ - आपकी पुस्तक के प्रति उनकी असली राय तो आपको वहीँ मिल पायेगी।

COMMENTS

BLOGGER: 7
  1. उफ़ बडा भयानक सच लिख दिया :)

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  2. :).
    ***mazedaar vyngy,

    *mere ek mitr ne ek baar kahaa tha ki aaj kal kitaaben chhpwana
    shaadi ke card chhpwane se bhi sasta ho gyaa hai.

    *publishers bhi chhpaas rog se pidit kaviyon/lehkon ko khuub aakrshit karte hain jo khud paise de kar chhpna chahte hain.
    publishing ka bhi ab badhiya business hai.

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  3. ha haha.......isliye maine abhi tak koi sangrah nahin chhapaayaa hai, agar chhapaaunga bhi to aapko nahin dunga.....bahut hi badhiya vyngy...badhaayi.

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  4. कितना कठोर सत्य है। मैं तो जानती भी नहीं कि संग्रह क्यों छपवाए जाते हैं। अब जान लिया तो कभी हिम्मत नहीं करूंगी।

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  5. आप कृपया यह बताने का कष्ट करे कि आपका व्यंग पढ़ कर कोई हँसें या रोये--पढकर हँसीं आती है ,और कडवी सच्चाई से मन रोने-रोने को करता है.

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  6. Vijay verma Ji, मेरे एक मित्र का कहना है कि यदि कोई गुदगुदी करे तो उससे हास्य उत्पन्न होता है और यदि गुदगुदी करने के साथ ही वह आपके चिउटी भी भर दे तो वह व्यंग्य हो जायेगा ।

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  7. अनिल वर्मा.1:39 pm

    बहुत ही यार्थ रचना. शरद जो बधाई.

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रचनाकार: शरद तैलंग का व्यंग्य - नहीं चाहिए भेंट में पुस्तकें
शरद तैलंग का व्यंग्य - नहीं चाहिए भेंट में पुस्तकें
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