कहानी लेखन पुरस्कार आयोजन -101- परिमल बनाफर की कहानी - हवा का झोंका

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कहानी हवा का झोंका परिमल बनाफर शि शिर की संध्या थी। पश्चिम के क्षितिज पर दिन की चिता जलकर ठंडी हो गयी थी। सूर्य को पता नहीं किस बात की जल...

कहानी

हवा का झोंका

परिमल बनाफर

शिशिर की संध्या थी। पश्चिम के क्षितिज पर दिन की चिता जलकर ठंडी हो गयी थी। सूर्य को पता नहीं किस बात की जल्दी थी, अभी साँझ के छः भी नहीं बजे, तो तेजी से क्षितिज की ओर बढ़ता चला जा रहा था, मानो दूसरे विश्व में कोई बेसब्री से इंतज़ार कर रहा हो। क्रांति स्वेटर पहनकर, शाल ओढ़कर मौसम के मजे लूट रही थी। फिर भी ठण्ड से ठिठुर रही थी। यह ठिठुरना देखकर शीत हवाएँ ऐसे बह रही थी, मानो स्वेटर और शाल होते हुए भी, अप्रत्यक्ष रूप से मानव पर अपनी विजय प्राप्ति का ध्वज फहराना चाहती हो। वैसे तो क्रांति अतीत को केवल एक स्वप्न मानती थी। पर आज अपने अतीत को याद करने में उसे आनन्द मिल रहा हो, परम आनंद। जैसे इंसान कड़वा निवाला लेने पर, अगर पानी भी पिए, तो उसे वह निवाला मीठा लगता है, कुछ वैसी ही मिठास का अनुभव उसे उस आनंद में आ रहा था। इसी तरह क्रांति भी अपने अतीत की तुलना अपने वर्तमान से कर रही थी, और उसके नयनों में वो सुख झलक रहा था जैसे इस वक्त वह स्वर्गलोक में हो। नहीं, वह खुद स्वर्गलोक में नहीं है। वह तो स्वर्गलोक को धरती पर उतार लायी है। ख़यालों में वह इतनी खो चुकी थी कि शीत हवाओं का अब उसपर कोई असर ही न हो रहा था, मानो उसके ख़याल शीत हवाओं पर अपनी विजय का परिचय दे रहे हो।

क्रांति आशावादी व्यक्तित्व की पराकाष्ठा है। और आज यही आशावाद उसके जीवन में रंग लाया है। एक दशाब्दी पहले क्रांति का जीवन ऐसा था मानो किसी ने बहुरंगी पक्षी से उसके रंग ही चुरा लिए हो। बचपन से दरिद्रता की सताई हुई क्रांति को अपने जीवन में शिक्षा करने का कोई अवसर ही न मिला। बड़ी मुश्किल से उसने बारहवीं कक्षा तक की शिक्षा पूर्ण की थी। पुराने खयालातों के माँ-पिता होने के कारण क्रांति का बाली उम्र में ही ब्याह दिया गया था। पर किसी फ़िज़ूल से कारण की वजह से उसके लालची पति से उसका तलाक़ हो चूका था। मायके में अगर उसे कुछ सुनने को मिलता, तो वो थे ताने, और कुछ खाने को मिलता, तो वो थी गालियाँ। मानो सर्वस्व उजड़ चुका हो, इस भाँति क्रांति अपना जीवन व्यतीत कर रही थी। ऐसी परिस्थिति में यदि क्रांति के आशावादी जिगर के अलावा और कोई होता तो अभी तक अपनी जीवन-यात्रा को पूर्णविराम दे चूका होता। जिसके भाग्य में रुदन, अनंत रुदन हो, उसका तो मर जाना ही अच्छा। ऐसे लक्ष्यहीन जीवन में भी आशा का कच्चा धागा उसे जीवन से बाँधे हुए था। उसे विश्वास था कि किसी दिन हवा का एक झोंका आएगा और उसके सारे दुःख उड़ा ले जाएगा और साथ-ही-साथ उसे भी किसी सुंदर दुनिया में उड़ा ले जाएगा।

इसी भाँति विपत्ति के दो वर्ष आशा की छाह में कट गए। और एक दिन बम्बई के जाने-माने सूर्यवंशी खानदान से क्रांति के लिए रिश्ता आया। क्रांति की माँ ने कहा-

“बहुत ही धन-संपन्न और बड़े खानदान के लोग मालूम होते है, ऐसा रिश्ता एक तलाक़शुदा के लिए इस जन्म तो शायद ही दुबारा आए। सब कुछ ठीक-ठाक तो लग रहा है। तुम भी कान खोलकर सुन लो, अब ज्यादा नखरे ना चलेंगे। वैसे भी मंगते की पसंद का सवाल कहाँ से पैदा हुआ?”

क्रांति को कुछ सोच-विचार करने का अवसर ही न दिया गया। और इस तरह क्रांति का दूसरा ब्याह ‘आलोक’ के संपन्न हुआ। ना, बल्कि ये विवाह उस पर थोपा गया। कई बार तो क्रांति की माँ के दिल में संदेह भी निर्माण हुआ, कि इतने धन संपन्न लोग हम गरीब की बेटी, और वो भी जो तलाक़शुदा हो, उससे भला रिश्ता क्यों जोड़ने लगे ? पर इस ओर नजरअंदाज़ करते हुए वधूपक्ष ने जल्दबाज़ी में ही विवाह संपन्न किया।

भांवरें समाप्त हुई और बिदाई की रस्म पूरी होने को ही थी जो क्रांति अपने नए जीवन के मधुर सपने सजाने में जुट चुकी थी। उसका मन इतना उल्लास भरा था, मानो विमान पर बैठा हुआ स्वर्ग की ओर जा रहा हो। लग रहा था जैसे आज वही हवा का झोंका आ चुका है जिसका उसे बेसब्री से इंतज़ार था, और उसी के साथ वह भी उड़ती चली जा रही थी। उसके जीवन में ‘आलोक’ सचमुच एक किरण लेकर आया है इसी दृढ़ विश्वास के साथ क्रांति ने मायके से विदा लिया। मगर विधि-वाम कुछ और ही षड़यंत्र रच रही थी, इसकी कल्पना उस वक्त उसे कहाँ थी ?

ससुराल में किसी पूजा-रस्म की वजह बताकर क्रांति और आलोक की सुहागरात रद्द कर दी गयी। अगले ही दिन क्रांति की मुँह-दिखाई थी। साथ-ही-साथ सभी परिवारजनों से परिचय करवाने का कार्यक्रम भी रखा गया था। मुँह-दिखाई में क्रांति को एक तोला से कम के स्वर्ण आभूषण किसी ने न दिए होंगे। ससुराल तो वाकई में जैसा सुना वैसा ही धन-संपन्न था। खूब बड़ा कारोबार था। दो ननदें थी, एक जेठ थे और सभी की शादी हो चुकी थी। आलोक और उसके भाई के भविष्य का प्रबंध भी पहले से ही कर रखा था। घर में दो मोटरकार थी, उसी शहर के अलग बस्ती में एक और बंगला भी था। जेठानी, और आज के बाद तो, क्रांति भी सोने से पीली जड़ी थी। ये आभूषण बहुओं के लिए न थे। बल्कि ये तो सूर्यवंशी खानदान की शान के प्रतीक थे। परिचय की औपचारिकता पूरी हुई। क्रांति से तो ससुराल का ठाट-बाट देखते बन रहा था। उसे लगा जैसे आशावाद का परीक्षाफल उसे इसी स्वरुप में मिला हो। कार्यक्रम समाप्त हो गया। हवा का उसे अपने सपनों के संसार में उड़ा लाया था। कौन जाने क्या इस हवा के झोंके में कोई तूफ़ान भी छिपा हो ?

रात को जेठानीजी ने अपनी नयी देवरानी को अकेले में मिलने बुलाया था। क्रांति के आते ही, संकोच और लज्जा को जैसे गिरवी रखकर अपनी बात करना शुरू किया।

जेठानी – “क्रांति, तुम इसे धोखा कहो या गोपनीयता, पर आज ये बात तुम्हारे सामने स्पष्ट रूप से बता देना मेरा कर्तव्य है। तुम ठहरी अनपढ़। दहेज में चंदा भी न लायी। सोने-पे-सुहागा तलाक़शुदा। ये बात तुम्हारे लिए जानना जरूरी है कि तुम्हारा पति, आलोक, नपुंसक है। इस परिवार को एक बहु की जरुरत थी और आलोक को एक पत्नी की। मैं नौकरी करती हूँ। मुझसे घर का काम और बंदोबस्त करना नहीं बनता। तो आज से ये तुम्हारा कर्तव्य है कि तुम अपनी सासु-माँ, मेरा और सारे परिवार का ख़याल रखोगी, घर का सारा काम देखोगी और साथ-ही-साथ मेरा सुपुत्र बसंत, जो तुम्हारा भतीजा है, उसकी परवरिश करोगी। और हाँ, आलोक नपुंसक होते हुए बच्चे की माँ बनने का ख़याल भी कभी दिल में मत लाना। अगर तुम इसे हमारा गुनाह समझती हो कि हमने शादी से पहले ये बात तुम्हें नहीं बतायी, तो तुम कोई अप्सरा या सावित्री तो ना थी, तलाक़शुदा थी। हमें जो ठीक लगा, सो हमने किया। तुम्हें कुछ कहना हो, तो अभी कह दो, बाद में हमारे पीठ-पीछे परिवार की इज्जत को उछालने की जरुरत नहीं।” जेठानीजी ने अविराम कहा।

जेठानीजी ने परिस्थिति को इतने स्पष्ट, बेलाग और लट्ठमार शब्दों में खोलकर रख दिया कि और कुछ कहने को बचा क्या था ? क्रांति कहती भी तो क्या कहती ? सारी पृथ्वी चक्कर खा रही थी। मालूम हो रहा था, मानो पैरों के नीचे ज़मीन ही नहीं है। क्रांति को ऐसा लगा जैसे दुनिया अँधेरी हो चुकी है। और वह उसकी अथाह गहराई में धंसती चली जा रही है। आते समय क्रांति अपनी जेठानीजी के लिए लस्सी बनाकर लायी थी। ये सब सुनते ही लस्सी का गिलास उसके हाथों से गिर गया, और उसकी आशाओं की भाँति वह भी चूर-चूर हो गया। उसका हृदय इतने जोर से धक्-धक् करने लगा मानो उस पर हथौड़े पड रहे हो। खून सर्द हो गया है। हवा के झोंके में छिपे तूफ़ान ने अपना असली रूप दिखा दिया था।

आलोक की नपुंसकता की जानकारी क्रांति के ससुराल में सबको थी। यहाँ तक की उनके परिवार से जुड़े जुए सभी संबंधी तक इस बात से मुखातिब थे। घर पे आनेवाला हर मेहमान क्रांति की ओर सहानुभूति की दृष्टि से देखता। इतना ही नहीं कई आदमी तो उसे दोहरे अर्थ से कहा करते थे, “मैं आपकी परिस्थिति समझ सकता हूँ। अगर किसी बात में मदद लगे तो जरुर कहियेगा।” ऐसी घटिया नजर से लोग उसकी ओर देखते और उसके पीड़ित होने का ग़लत फ़ायदा उठाने की तांक में रहते। अपने पति की नपुंसकता के उपरान्त भी क्रांति हमेशा हसमुख रहने की कोशिश में जुटे रहती थी। चित्र का श्याम-पक्ष देखना तो उसके खून में ही नहीं। सकारात्मक मनोभाव से जीवन जीना तो कोई उससे सीखे। पर दुखते हुए फोड़े में कितना मवाद भरा हुआ है, ये उस वक़्त मालूम होता है, जब नश्तर लगाया जाता है। वह मानती थी कि केवल ‘उस’ संबंध से तो प्रेम की व्याख्या नहीं है। सहानुभूति दर्शाते हुए लोगों को वह टका-सा उत्तर दे देती, “मेरे लिए प्रेम की व्याख्या बहुत उदार है। मेरे लिए प्रेम है मेरा सुहाग। उनके लिए प्रेम है मेरा अस्तित्व। जब मुझे बुखार होता है तो वो मेरे लिए रात भर जागते है ना ? मैं दो दिन के लिए भी मायके जाऊं, तो अलविदा करते समय उनका मन भारी होता है ना ? मेरा दर्द देखकर उनकी भी तो संवेदना जागृत होती है ना ? मुझे क्रंदन करते देख उनकी भी तो आँखें सजल होती है ना ? फिर आखिर क्यों मैं अपने पति की अक्षमता को अपना दुर्भाग्य समझूं ? मेरा पति चाहे जैसा भी है, अच्छा है और सिर्फ मेरा है।” क्रांति का ऐसा उत्तर सुनकर सभी हक्के-बक्के रह जाते। तकदीर चाहे उसके जीवन में कितने ही छेद करे, वो उसे बुझाती चली जा रही थी, अपने किस्मत को ललकारते जा रही थी।

आलोक भी क्रांति से बेहद प्यार करता था। आखिर क्रांति उसका पहला प्यार जो था। और उसके जीवन में सवेरा भी तो क्रांति ही ने लाया था। उस घर में आलोक ही क्रांति का दर्द समझता था। पर इन दोनों के बीच नागिन की तरह डंख मारती थी तो क्रांति की जेठानी। उसे मात्र क्रांति और आलोक के बीच का प्यार जरा भी देखा न जाता। हमेशा दोनों में चिंगारी लगाकर उसे भड़काने की फ़िराक में रहती। क्रांति का ठाट देखो तो रईस खानदान की बहुओंवाला थी। मगर घर में जो उसकी कुत्ते की दशा थी, उसे उससे बेहतर और कोई न जानता था। उसे सिर्फ घर की नौकरानी बनाकर रखा गया था। आलोक इतना परिपक्व तो न था कि क्रांति को इससे छुड़वा सके, पर हाँ, क्रांति को हमेशा आश्रय उसी का मिलता था। अभी तक नादान था, पर वह तो बस इतना जानता था कि क्रांति से वह बेहद प्यार करता है। पति-प्रेम का यह परिचय पाकर क्रांति ने अपने भाग्य को सराहा, और देवताओं में उसकी श्रद्धा और भी बढ़ गयी थी। उसके लिए तो यह भी एक स्वर्ग ही था। तलाक़शुदा होकर कब तक अपनी जिंदगी को कोसती रहती ? आज कम-से-कम कोई तो था जिसे वह अपना कहती। अपने जीवनसाथी के साथ उसे यही दुनिया प्रिय और सुंदर लगने लगी थी। उसे दृढ़ आस थी कि किसी दिन फिर एक हवा का झोंका आएगा और उसके सारे दुःख उड़ा ले जाएगा और साथ-ही-साथ उसे भी अपने प्रियवर के साथ किसी स्वर्ग में उड़ा ले जाएगा !

क्रांति का जीवन ससुराल के लोगों को झेलते और उनके जुल्म सहते सहते नीरस बनते जा रहा था। आखिर कब तक वह इस तमाशे को निष्क्रिय दर्शक की तरह देखती रहती ? आलोक तो इस तमाशे का दर्शक बन चुप्पी साधने के अलावा अपने हात-पैर हिलाना भी पाप समझता। उस घर में क्रांति को ना ही एक पैसे का लेन-देन करने का अधिकार था और ना ही एक पैसा खर्च करने की उजागरी। उसे इतने धनवान घर में होकर भी पैसे-पैसे को तरसाया जाता था। क्योंकि उसके भाग्य ने उसे कुल-दीपक का प्रसाद नहीं दिया था, इसलिए उसे जायजाद से भी अपरिचित रखा गया था। किस्मत ने उसे पहले से ज्यादा बेहतर विश्व में ला रखा था। पर कहते है कि भाग्य अपाहिज होता है, वह कर्मों की लाठी से चलता है। इसलिए अगर उसे इस नरक से बाहर निकलना हो, तो उसे खुद से हात-पैर चलाने होंगे। हवा के रुख को बदलना होगा। यह बात तो अब क्रांति भी भली-भाँति समझ चुकी थी।

घर के सभी काम निपटाकर क्रांति रात को छत पर आलोक के साथ तारे गिन रही थी। मन में कुछ उथल-पुथल थी, तो चेहरे पर ऐसे भाव, मानो तारे नहीं अपने जीवन में ‘हवा का झोंका’ आने में कितने दिन और है ये गिन रही हो। और उसी समय चाँद किसी क्षीण आशा की भाँति बादलों में छिपा हुआ था, मानो क्रांति को उसके जीवन में ‘क्रांति’ के आने की आस जता रहा हो। इससे पहले ‘क्रांति’ लाने की चाह में वह कोई कदम आगे बढ़ाए, उसने अपने पति से अनुमति लेना योग्य समझा।

क्रांति – “अब मैं इस नीरस जीवन से ऊब गयी हूँ। क्या तुम कभी इससे त्रस्त नहीं होते ?”

आलोक-”मैं तो परिस्थिति से बेबस हूँ।”

क्रांति – “तुम हो नहीं, तुम अपने आप को समझते हो।”

आलोक – “कुछ भी समझो...”

क्रांति – “पर मैं अपने को नहीं समझती और ना ही मैं हूँ....”

आलोक – “क्या ? ”

क्रांति – “तुम्हारी तरह बेबस।”

आलोक – “तो तुम चाहती क्या हो ?”

क्रांति – “आज़ादी।”

आलोक – “मुझसे या इस घर से ?”

क्रांति – “नहीं जी, मैं तो हालातों से आजादी चाहती हूँ। आप को भी आजाद कराना चाहती हूँ।”

आलोक – “मैंने हमेशा तुम्हारे हर निर्णय का समर्थन ही तो किया है।”

क्रांति – “तो फिर बस एक और बात का भी कर दोगे ?”

आलोक – “क्या ?”

क्रांति – “मैं नौकरी करना चाहती हूँ।”

आलोक – “यहाँ पैसों की कौन कमी है ? हाथी मरा तो नौ लाख का !”

क्रांति–“तुम समझ नहीं रहे हो जी, मुझे आजादी चाहिए- जुल्म से और हालातों से।”

आलोक – “चलो मेरी ओर से कोई दिक्कत नहीं और मैं घर पे सबको संभाल भी लूँगा। पर तुम करोगी क्या ? इतनी कम शिक्षा में तुम्हें ऐसे कौन ऊँचे ओहदे की नौकरी मिलेगी ?”

क्रांति – “चाहे मजदूरी करुँगी, तुम्हारा साथ हो तो।”

आलोक – “मुझे तुमपर गर्व है। मैं जता नहीं सकता कि मुझे तुम्हारे कष्ट और परिस्थिति से तुम्हारी जूझ देख मुझे कितना अच्छा लगता है।”

क्रांति – “और माँ ?”

आलोक – “ओखली में मुँह डाला तो मूसलों से क्या डरना ? मैं हूँ न तुम्हारे साथ- देख लूँगा। तुम करो तुम्हें जो करना है। आगे कदम बढ़ाओ।”

क्रांति – “तुम हो तभी तो जिंदगी की इस गाड़ी को धकेल रही हूँ। वरना जिंदगी बोझ न बन जाती ?”

आलोक – “एक बात कहूँ ?”

क्रांति – “नहीं, कहना हो तो दो बातें कहो।”

आलोक – “वास्तविक तुम्हारी इस दुर्दशा के लिए तो केवल मैं जिम्मेदार हूँ। तुम्हें देखकर मन अपने आप को इतना कोसता है कि जी करता है...”

क्रांति – “श्श्श्शू.....चुप हो जाओ। दूसरी बात कहो।”

आलोक – “तुम ही मेरी हृदयेश्वरी हो।”

क्रांति – “चलो अब ज्यादा इतराओ मत...”

इस आधे घंटे में क्रांति ने आलोक को अपने प्रेम की मदिरा में उन्मत्त कर दिया था। उसने स्मित मुस्कान दी और आलोक की बाहों में खो गयी। चौदहवीं के चाँद ने मानो शरमाकर अपना विश्वदीपक बुझा दिया।

अगले ही दिन सुबह क्रांति नौकरी की तलाश में घर से बाहर निकल पड़ी। बहुत दौड़-धूप करनी पड़ी, तब जाकर एक महीने बाद, क्रांति को किसी चित्रकला विश्वविद्यालय में लिपिक की नौकरी मिली। अत्यंत अल्प वेतन था और काम बहुत ज्यादा। उतने वेतन से उसका जाने-आने का खर्च होने पर शायद ही कुछ बच पाता। पर महीनों की क्षुधाग्नि में जलने के पश्चात, अन्न का एक कण पाकर क्या वह उसे ठुकरा दे सकती है ? पेट नहीं भरेगा, कुछ भी नहीं होगा, लेकिन उस दाने को ठुकराना क्या उसके बस की बात थी ?”

अगले ही दिन से उसने नौकरी पर जाना शुरू कर दिया। दिन में नौ घंटे काम करने पर खून-पसीना एक कर, रोज शाम घर थकी हुई आती और फिर घर पर किसी की नाराजी का शिकार न बन जाए इसलिए घर के कामों में जुट जाती। उसका वार्षिक आय उसके परिवार के मासिक धन आय से भी कई गुना कम थी। परिवार के इतने बड़े कारोबार के आगे बहु का नौकरी करना ससुराल में विवाद उत्पन्न कर रहा था। इससे परिवार की प्रतिष्ठा को ठेस पहुँच रही थी। पर क्रांति ने भी एक नहीं मानी।

एक दिन क्रांति के भाग्य की किताब का एक और पन्ना पलटा। क्रांति को बचपन से ही चित्रकला में बहुत रूचि थी। उसी विश्वविद्यालय में एक अध्यापिका थी, जो हमेशा क्रांति को सहारा दिया करती थी। बहुत हद तक तो वह क्रांति के निजी जीवन के बारे में भी जानती थी। एक दिन जब अध्यापिका सौ. दीक्षित ने पढ़ाते समय क्रांति के चेहरे के भावों का निरीक्षण किया, तो उन्हें क्रांति में कोई जोश भरी चिंगारी पनपती हुई नजर आई। उन्होंने क्रांति से कहा कि अगर वह अपना काम पूरा हो जाने पर उनके लेक्चर में बैठना चाहे तो बैठ सकती है। उसे कोई डिग्री नहीं मिलेगी पर ज्ञानार्जन जरुर होगा। क्रांति तो फूली नहीं समाई। उसी दिन से क्रांति दफ्तर के समय के अलावा अतिरिक्त समय निकालकर अपना काम पूरा करने लगी और अध्यापिका सौ. दीक्षित से रोज ज्ञानार्जन करने लगी। उत्साह और जोश की उसमें कमी नहीं थी। उसने बहुत ही तेजी से चित्रकला के सभी पाठ पढना शुरू कर दिया। इतना ही नहीं, बल्कि नियमित छात्रों के मुकाबले क्रांति हमेशा चार कदम आगे ही रहती। सौ. दीक्षित दिल की बहुत अच्छी थी। उन्हें क्रांति की प्रगति देखकर हर्ष महसूस हुआ। उन्होंने छुट्टी के दिन भी क्रांति को अपने घर बुलाकर पढ़ाना शुरू किया। इतना ही नहीं, सिखाने के लिए लगने वाली सामग्री भी वे खुद उसे प्रदान करती। क्रांति अन्य अध्यापकों के लेक्चर में भी बैठ पाए इसलिए उन्होंने खुद क्रांति के लिए विश्वविद्यालय के प्राचार्य से अनुमति ली। परिणामस्वरूप महत्त्वाकांक्षी क्रांति ने नौकरी के साथ चित्रकला की शिक्षा भी ग्रहण कर ली। साथ ही उसके सौ. दीक्षित के साथ घनिष्ठ संबंध भी स्थापित हो गए। अब सौ. दीक्षित उसकी अच्छी सहेली बन चुकी थी। अक्सर क्रांति अपने व्यक्तिगत जीवन की बातें भी उनसे बाँट लिया करती थी।

जब सौ. दीक्षित को आलोक की नपुंसकता के बारे में पता चला तब उन्होंने उसकी मदद करने का निश्चय किया। एक दिन क्रांति के लिए किसी डाक्टर का समयादेश उन्होंने निश्चित किया और कॉलेज खत्म होते से उसे लेकर वे डाक्टर से मिलने चल पड़ी। डाक्टर से बहुत देर तक बातचीत चली।

डाक्टर – “तुम्हें इस बात पर गौर करना जरुरी है कि तुम्हारा पति नपुंसक है, इसका अर्थ ये नहीं कि तुम माँ बनने के काबिल नहीं। माँ बनना तुम्हारा हक है। इसे तुमसे कोई छीन नहीं सकता।”

क्रांति – “मैं एक इज्जतदार स्त्री हूँ...और न ही मेरा परिवार मुझे बच्चा गोद लेने की इज़ाजत देगा। अब यदि तुम्हारे पास समस्या का कोई हल है तो बतलाओ।”

डाक्टर – “बिलकुल है। धीरज रखो। ये कोई असाधारण समस्या नहीं है। ऐसी समस्या और भी कई लोगों की होती है। विज्ञान के होते हुए ये बिलकुल मुमकिन है कि तुम माँ बन सको। ‘ब्लड-बैंक’ की तरह कुछ होता है जिसे हम ‘स्पर्म-बैंक’ कहते हैं, जहाँ दानकर्ताओं के शुक्राणु परिरक्षित किये जाते हैं। इस तरह के मामलों में ‘स्पर्म-बैंक’ एक वरदान साबित हुए हैं। और इसको करने की प्रक्रिया भी बहुत सरल और आसान है। तुम्हें केवल एक इंजेक्शन लेना होगा जिससे तुम्हारी कोख में शुक्राणु छोड़े जाएँगे। उसी समय तुम्हारी गर्भधारणा हो जाएगी। और फिर किसी आम गर्भवती स्त्री की तरह तुम माँ बन पाओगी। सबसे महत्त्व की बात तो ये है कि इसे कानूनन रूप से भी मान्यता प्राप्त हो चुकी है।”

डाक्टर ने क्रांति को सभी सम्बंधित जानकारी से तृप्त किया। क्रांति ने अपने सभी संदेह-शंका को भी कायल कर दिया। आनेवाले भविष्यकाल में उसे कहीं एक आशा का अंकुर पनपता हुआ दिखाई पड़ा। ये सब जानकारी मिलते ही मानो उसके खुशी का तो ठिकाना ही न रहा। हर्षोल्लास में डूबी हुई वो घर की ओर चली जा रही थी। जिस हवा के झोंके का उसे बेसब्री से इंतज़ार था, लग रहा था मानो आने ही वाला है और उसके जीवन में बह रही उष्ण ‘लू’ से उसे राहत दे जाएगा। इसी शीतल-समीर की अनुभूति लेने में मानो क्रांति मंत्र-मुग्ध हो गयी।

क्रांति को मंजिल तो सामने नजर आ ही रही थी। रास्ते भी साफ़ दिखाई पड़ रहे थे। अब उसे सिर्फ उन रास्तों से काँटों को हटाकर मंजिल तक पहुँचना था। इंजेक्शन के लिए लगनेवाले खर्च के पैसे भी अब तक वह संचित कर चुकी थी। पर यदि वह डाक्टर से की बात का जिक्र घर पे करती, तो इस चीज़ के लिए आलोक भी शायद ही राजी होता और घरके अन्य सदस्यों के मान्य करने का तो प्रश्न ही निर्माण नहीं होता, इस बात को वह भली-भाँति समझ चुकी थी। क्योंकि आखिर जन्म लिया गया शिशु तो किसी गैर का ही कहलाएगा ऐसा वे समझते।

उनके परिवार से जुड़े एक ज्योतिषी पंडितजी थे जो उनके परिवार के हर एक सदस्य और समस्याओं से मुखातिब थे। वे क्रांति को भी जानते थे। क्रांति अब जानती थी कि उसे अगला कदम कौनसा बढ़ाना है। क्रांति अगले दिन अकेली ही पंडितजी के पास जा पहुँची। अब उसमें इतना सबर न था कि वह जरा भी इंतज़ार और कर सकती। प्यास से बेबस मनुष्य के सामने जल का प्याला रखकर आखिर कब तक हम उसे वह पीने से रोक सकते है ? उसने पंडितजी को डाक्टर से हुई बातचीत के बारे में कुछ नहीं बताया। पंडितजी आलोक की समस्या से ज्ञात थे।

क्रांति – “पंडितजी आप तो आलोकजी की समस्या के बारे में जानते है। हमारे घर की सारी समस्याओं का निवारण आप ही करते है। मैं आपके पास बड़ी आस लेकर आयी हूँ। आलोकजी के समस्या का कुछ तो हल होगा ?”

पंडितजी – “देखो बेटी, इस समस्या का उपाय है मेरे पास। लेकिन जहाँ तक मेरा मानना है, इस उपाय की भी एक सीमा है।”

क्रांति – “मैं समझी नहीं ?”

पंडितजी – “देखो मैं तुम्हें इस समस्या को सुलझाने के लिए कुछ निवारण दूँगा। आलोक को तीन महीनों तक आयुर्वेदिक दवा ग्रहण करनी होंगी। इससे उसकी दुर्बलता का निवारण हो जाएगा, और वह संबंध प्रस्थापित करने के काबिल भी बन जाएगा, किन्तु वह शिशु को जन्म देने के काबिल मात्र कभी न बन पाएगा।”

क्रांति ने कुछ पल सोचा और फिर समझ गयी कि उसे अगली चाल कौनसी चलनी है।

क्रांति – “ठीक है पंडितजी, पर संभावना है कि इसके लिए माँ इनकार करे। मैं कल माँ को ले आती हूँ। तब तुम इसके बारे में उन्हें बताना। और केवल इतना बतइयो कि आपकी दवाई से आलोकजी की समस्या पूर्ण रूप से ठीक हो जावे। नहीं तो माँ मानने की नाहीं।”

पंडितजी – “ठीक है बिटिया। तुम्हारी समस्या हल होने में ही मेरी खुशी है।”

क्रांति – “और मैं यहाँ आयी ये भी ना बतईयो।”

पंडितजी – “जैसी तुम्हारी मर्जी।”

अगले दिन क्रांति ने बड़ी मुश्किल से अपनी सासू-माँ को मनाया और पंडितजी से उन्हें मिलने ले गयी। पंडितजी ने भी अपना काम पूरी कुशलता से किया। उन्होंने सासू-माँ से कहा कि अगले कुछ महीनों में ज्योतिष के आधार पर आलोक के पिता बनने के योग भी नजर आ रहे है। क्रांति जब पंडितजी के घर से बाहर निकली तो मिशन को कामयाब करके ही निकली ! आलोक की दवाईयाँ शुरू हो गयी। पंडितजी ने दिया हुआ तावीज भी आलोक ने धारण कर लिया। कुछ ही दिनों में पंडितजी की दवा से आलोक की दुर्बलता भी कम होने लगी थी। दोनों पति-पत्नी के बीच अब संबंध प्रस्थापित होने लगा था। क्रांति के प्रयत्नों के कारण ही अपने जीवन का उद्धार हो रहा है, आलोक के मन में ये विश्वास और भी दृढ़ होता गया। विश्वास, प्रेमलीला, और प्रणयसागर में भरती आने लगी। दोनों के बीच श्याम-राधा से भी बढ़कर अनुराग फूलने लगा।

पंडितजी के उपचार के चलते छ: महीने बीत चुके। आलोक और क्रांति के बीच के फासले पूरी तरह से समाप्त हो गए थे। आलोक अब नपुंसक नहीं रहा। पर पंडितजी के कहने के मुताबिक वह शिशु को जन्म देने के काबिल मात्र न था, इस बात से केवल क्रांति ज्ञात थी। क्रांति को अपने मिशन का आखिरी कदम उठाना अभी बाकी था। इसी दौरान क्रांति ने अस्पताल जाकर उसी डाक्टर से शुक्राणु का इंजेक्शन ले लिया। एक महीने के भीतर ही डाक्टर की रिपोर्ट आई कि वह गर्भवती है। उसका रिपोर्ट देखकर सभी हक्के-बक्के रह गए। सारे परिवार में प्रश्नचिह्न उत्पन्न हो गया। यहाँ तक कि पंडितजी भी आश्चर्य की नौका में बैठ डूब गए कि ये आखिर मुमकिन कैसे हुआ ? पर क्रांति ने अपने रंगों से उसे हर्ष और जल्लोष में परिवर्तित कर दिया। जिस क्रांति का कुछ दिन पहले तिरस्कार हुआ करता था और वह चुपचाप सहती थी, उसी क्रांति ने अब अपने जीवन में एक अद्भुत शक्ति का अनुभव किया। कहते है न, देनेवाला जब भी देता, छप्पर फाड़ के देता है। प्रसूति हुई। जुड़वां हुए। कुलदीपक के साथ-साथ वंश की ज्योत का भी वरदान क्रांति को मिला। फुलवाड़ी में गुलाब के साथ-साथ चमेली भी खिल उठी।

प्रसूति के तुरंत बाद ही, क्रांति अपने संयुक्त परिवार से अलग हो गयी। उसी शहर में उनका दूसरा पैतृक घर था, वहाँ स्थानांतरित हो गयी। जो ससुराल कल तक उसका इतना तिरस्कार करता था, अब वे लोग क्रांति की देहली पर भी खड़े होने से रहे। हालातों से क्रांति पर इतने रट्टे-घट्टे पड़ गए कि अब वह भी किसी का भी मुलाहजा नहीं करती। कई बार उसकी ननद-जेठानी क्रांति को हुए बच्चे पर शंका-कुशंका व्यक्त करते। संदेह का अंकुर जमता। पर पानी न पाकर सुख जाता। वे क्रांति ने किये ऐसे मिशन की कल्पना ही न कर सकते, जिससे संदेह को आश्रय मिलता।

अब क्रांति का जीवन किसी जन्नत से कम नहीं। वह चित्रकला के क्लासेस लेती है। सुंदर से सुंदर प्रतिमाएँ, रेखाचित्र बनाती जिन्हें बाजार में उच्च कीमत मिलती। आलोक को भी व्यापार में जुटा दिया है। जिंदगी के हर शौक पूरे करती है। इस दुबारा मिली जिंदगी को वह वरदान समझती है, अपना पुनर्जन्म समझती है।

किस्मत से हिम्मत हार जाना तो उसके शब्दकोष में ही नहीं। आज उसका आशावाद उसे पाताल से सीधा आसमान की ऊँचाई पर ले आया है। उसने अपने जीवन में घडाई ‘क्रांति’ के लिए आलोक तो उसका जन्मों-जन्मों तक ऋणी रहेगा। खतरनाक बवंडर में फंसे अपने जीवन की कश्ती को वह बड़ी निपुणता से किनारे लायी है।

आज शरद पूनम की रात में आँगन में सर्दी के मजे ले रही थी। अपने दोनों बच्चों को प्यार से सहला रही थी। उसे शायद संदेह था कि जीवन के ये क्षण स्वप्न है या सत्य; लेकिन सत्य भी है तो स्वप्न से अधिक मधुर और स्वप्न भी है तो सत्य से अधिक उज्जवल। उसे खुद ने घडाई हुई ‘क्रांति’ पर विश्वास नहीं जम रहा था। ऐसा लग रहा था मानो स्वर्ग की सारी विभूतियाँ उसपर पुष्प-बौछार कर रही हो। शीतल-समीर के बहने की अनुभूति लेकर, उसे वही हवा का झोंका याद आया जो उसे इस परम आनंद तक उड़ा लाया है। हवा के झोंके ने क्रांति के रौंगटे खड़े कर दिए। जीवन में हुए इस अनंत सुख के स्पर्श से उसकी आँखें सजल हो गयी

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PAREMAL BANAFARR
Dept. Chem. Engg. (III Year),
VNIT, Nagpur

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रचनाकार: कहानी लेखन पुरस्कार आयोजन -101- परिमल बनाफर की कहानी - हवा का झोंका
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