गांधी जयंती पर गणि राजेन्‍द्र विजय का विशेष आलेख - गांधी की अहिंसा है मानवता का महागीत

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गांधी की अहिंसा है मानवता का महागीत -गणि राजेन्‍द्र विजय- गांधी जयन्‍ती को अन्‍तर्राष्‍ट्रीय अहिंसा दिवस के रूप में मनाते हुए मुझे एक संस्...

गांधी की अहिंसा है मानवता का महागीत

-गणि राजेन्‍द्र विजय-

गांधी जयन्‍ती को अन्‍तर्राष्‍ट्रीय अहिंसा दिवस के रूप में मनाते हुए मुझे एक संस्‍मरण याद आ रहा है -एक बार राजेन्‍द्र बाबू चरखा काटते समय सामने प्‍लेट में रखी किशमिश के दाने खा रहे थे। तभी कहीं से कोई चींटा आकर उस प्‍लेट पर चढ़ गया। राजेन्‍द्र बाबू ने उसे हटाने के लिए अपनी अंगुली से छिटक दिया। चींटा थोड़ी दूर जाकर गिरा और थोड़ा छटपटा कर मर गया। राजेन्‍द्र बाबू बहुत दुःखी हुए। उन्‍होंने किशमिश खानी छोड़ दी और चरखा भी बंद कर दिया।

राजेन्‍द्र बाबू ने महात्‍मा गांधीजी से इस घटना का उल्‍लेख किया और पूछा कि क्‍या मेरे से यह हिंसा हो गई है।

बापू ने कुछ देर सोचकर कहा-तुमने शुद्ध मन से, मात्र चींटा को हटाने के लिए ही अंगुली से छिटका था। तुम्‍हारा उसे मारने का कोई इरादा नहीं था। इसलिए तुमने कोई हिंसा नहीं की। तुमको उसकी मृत्‍यु का दुःख है, यही इसका प्रमाण है।

गांधीजी अहिंसा के सूक्ष्‍म व्‍याख्‍याता ही नहीं, बल्‍कि प्रयोक्‍ता भी थे उनका उपरोक्‍त घटना के सन्‍दर्भ में मत था कि हिंसा मन से शुरू होती है, वाणी उसे प्रकट करती है और शरीर उसे कार्य रूप देता है। इस चींटा की मृत्‍यु में न मन साथ था, न वाणी और कर्म भी हिंसा के उद्देश्‍य से नहीं था। शारीरिक शक्‍ति ही नहीं, मन और वचन भी हिंसा के साधन है। ठीक इसके विपरीत अहिंसा भी मन, वचन और कर्म से अपना प्रभाव डालती है। मन, वचन, कर्म तीनों शुद्ध पवित्र हों, हिंसा शून्‍य हों, तभी वह पूर्ण अहिंसा है। जैसे हिंसा का मूल मन है, उसी प्रकार अहिंसा का मूल भी मन है। मन ही आत्‍मा है। मानसिक बल ही आत्‍मिक बल है।

अहिंसा का अर्थ केवल मानव के प्रति ही अहिंसा का भाव नहीं अपितु संपूर्ण प्राणीजगत के प्रति मैत्री, करुणा, दया, क्षमा और अहिंसा का भाव रखना है। छोटे से छोटे जीवाणु को भी कष्‍ट न हो, उसके प्रति भी आत्‍मीय भाव रखना ही अहिंसा का दिव्‍य, लोकोत्तर रूप है। इसी को महर्षि व्‍यास ने ‘आत्‍मवत्‌ सर्वभूतेषु' कहा है।

इतिहास में ऐसे उदाहरणों की कमी नहीं है जब शारीरिक हिंसा ने मन या आत्‍मिक शक्‍ति के सामने अपनी पराजय स्‍वीकार की। हिंसा जहां शारीरिक शक्‍ति का प्रतीक है वहां अहिंसा आध्‍यात्‍मिक शक्‍ति की।

एक घटना त्रेतायुग की है। महर्षि वशिष्‍ठ के पास सभी कामनाओं की पूर्ण करने वाली कामधेनु की पुत्री सुरभि गौ थी। राजा विश्‍वामित्र ने इस गौ को प्राप्‍त करने के लिए वशिष्‍ठ के आश्रम पर आक्रमण कर दिया। इसका प्रतिकार करने के लिए वशिष्‍ठजी ने अपने कमण्‍डल के मंत्र पूजित जल को आश्रम के चारों ओर छिड़क दिया। विश्‍वामित्र का नव यौवन, उनका बाहुबल और उनकी सारी सेना इस मंत्र सिद्ध जल की क्षीण रेखा को पार कर आश्रम में प्रवेश नहीं कर सकी। जैसे कोई अज्ञात-शक्‍ति उन्‍हें रोक रही थी। विश्‍वामित्र ने अपना कवच उतार दिया, अपने शस्‍त्रास्‍त्र फेंक दिए, सहसा उनके मुख से निकल पड़ा-

घिग्‍वलं शस्‍त्र वलं, ब्रह्म तेजो वलं वलम्‌।

- शस्‍त्र बल को धिक्‍कार है, ब्रह्म बल-आत्‍मिक बल ही सबसे बड़ा बल है।

अहिंसा किसी मंदिर में या किसी तीर्थस्‍थान पर जाकर सुबह-शाम संपन्‍न किया जाने वाला कोई अनुष्‍ठान नहीं है। वह आठों प्रहर चरितार्थ किया जाने वाला एक संपूर्ण जीवन-दर्शन है। यह संसार के सभी धर्मों का मूल है। धर्म की परिभाषा यदि एक ही शब्‍द में करने की आवश्‍यकता पड़े तो अहिंसा के अतिरिक्‍त कोई दूसरा शब्‍द नहीं है जो उस गरिमा को वहन कर सके। अहिंसा में ही ऐसा सामर्थ्‍य है कि वह विषमता से दहकते हुए चित्त में समता और शांति के फूल खिला सकती है।

मनुष्‍य प्रकृति का सर्वश्रेष्‍ठ प्राणी है परन्‍तु उसे एक खतरा भी है। नारी कोख से जन्‍म लेकर भी उसका जीवन भर मनुष्‍य बने रहना निश्‍चित नहीं है। पशु-पक्षियों को ऐसा कोई भय नहीं है। वे जिस रूप में जन्‍मते हैं, मरने तक उसी रूप में बने रहते हैं। पर मनुष्‍य के साथ ऐसा नहीं है। एक ओर यदि वह पुरुषार्थ कर ले तो नर से नारायण बनने की राह पर चल सकता है, पर दूसरी ओर, यदि वह अधर्म और पाप के मार्ग पर कदम बढ़ा ले तो इसी चोले में रहते हुए उसे दानव या पशु बनते भी देर नहीं लगती। यदि मनुष्‍य को मनुष्‍यता के साथ गर्व से जीना है तो उसे जीवन भर एक साधना करनी पड़ेगी। उस साधना का नाम है- ‘अहिंसा'। अहिंसा का दामन छोड़कर इंसान का ज्‍यादा देर तक इंसान बने रहना मुमकिन नहीं होता।

अहिंसा मानसिक पवित्रता का नाम है। उसके व्‍यापक क्षेत्र में सत्‍य, अचौर्य, ब्रह्मचर्य और अपरिग्रह आदि सभी सद्‌गुण समा जाते हैं, इसलिए अहिंसा को परम धर्म कहा गया है। संसार में जल, थल और आकाश में सर्वत्र सूक्ष्‍म-जीव भरे हुए हैं, इसलिए बाह्य आचरण में पूर्ण अहिंसक होना संभव नहीं है, परन्‍तु यदि अंतरंग में समता हो और बाहर की प्रवृत्तियां यत्‍नाचारपूर्वक नियंत्रित कर ली जाएं, तो बाह्य में सूक्ष्‍म जीवों का घात होते हुए भी साधक अपनी आंतरिक पवित्रता के बल पर अहिंसक बना रह सकता है।

अहिंसा का क्षेत्र संकुचित नहीं है। दार्शनिक परिभाषा में चित्त का स्‍थिर बने रहना अहिंसा है। जीव का अपने साम्‍यभाव में संलग्‍न रहना अहिंसा है। क्रोध, मान, माया, लोभ से रहित पवित्र विचार और सद्‌-संकल्‍प ही अहिंसा है। अंतरंग में ऐसी आंशिक समता लाये बिना अहिंसा की कल्‍पना नहीं की जा सकती।

अहिंसा पर प्रायः यह आरोप लगाया जाता है कि वह एक नकारात्‍मक विचार है और सांसारिक जीवन में व्‍यवहार्य नहीं है, परन्‍तु अहिंसा पर जो अध्‍ययन हुआ है और समाज में अहिंसक जीवन के जो उदाहरण सामने आये हैं उनके समाधान पर ये दोनों आरोप निराधार सिद्ध होते हैं। अहिंसा अव्‍यावहारिक नहीं है। वह पूर्णतः व्‍यावहारिक है और जीकर दिखाने की कला है।

मन में गौरवान्‍वित होकर विचारना कि मैंने अमुक जीव का घात किया है और लज्‍जित होकर पश्‍चाताप करना कि- ‘नहीं चाहते हुए, बहुत बचते हुए भी, आज मेरे द्वारा अमुक जीव का घात हो गया। इन दोनों मनोस्‍थितियों में बड़ा अंतर है। ‘हिंसा करना है, करके रहूंगा' और ‘हिंसा से बचना है, मुझे हिंसा करनी पड़ रही है' इन दोनों संकल्‍पों में जो अंतर है वही गृहस्‍थ को अपरिहार्य हिंसा के बावजूद ‘अहिंसक' बनाये रखता है। वह हिंसक नहीं है, हिंसा उसे करनी पड़़ रही है। कर्त्तव्‍य भावना से कठोर होता है।

अहिंसा से व्‍यक्‍ति का जीवन निष्‍पाप रहता है, और प्राणी मात्रा को अभय का आश्‍वासन मिलता है, इस अवस्‍था से प्रकृति का संतुलन बनाये रखने में सहायता मिलती है और पर्यावरण को संरक्षण मिलता है। अहिंसा का अर्थ कायरता नहीं है। जीवन से पलायन भी अहिंसा का उद्देश्‍य नहीं है। अहिंसा तो जीवन को व्‍यावहारिक बनाकर कर्त्तव्‍य और धर्म के बीच संतुलन बनाते हुए स्‍व और पर के घात से बचने का उपाय है। अहिंसा मनुष्‍य के जीवन में मानवता की प्रतिष्‍ठा का उपाय है। अहिंसा मानव-मन का स्‍थायी भाव है। राजनीति के कुचक्र से क्षुद्र स्‍वार्थों की पूर्ति के लिए, कहीं धर्म के नाम पर, कहीं भाषा और द्वेष के नाम पर बार-बार हिंसा को उकसाया जाता है, अहिंसा की ज्‍योति को बुझाने का प्रयास किया जाता है, परन्‍तु वह ज्‍योति केवल कांप कर रह जाती है, न बुझती है और न कभी बुझेगी।''

अहिंसा निर्मल चेतना से अनुशासित, विधायक और व्‍यवहार्य जीवन - विधान है। वह मनुष्‍य की सबसे बड़ी पूंजी है, मानवता की धुरी है। अहिंसा एक विचार है, एक समग्र चिंतन है। तप और व्रत तो मात्र साधन है, जबकि अहिंसा साध्‍य है।

कुछ लोग हिंसा के जवाब में हिंसा के द्वारा ही उसका उत्तर दे देना आवश्‍यक और उचित मानते हैं। उनका यह भी विश्‍वास है कि इस प्रकार प्रतिहिंसा के प्रयोग से हिंसा को समाप्‍त किया जा सकता है। किन्‍तु यह बात अच्‍छी तरह समझी जा सकती है कि प्रतिहिंसा किसी हिंसा को रोकने या समाप्‍त करने का उपाय नहीं है। उससे तो हिंसा और पनपती है। वैर-विरोधी को और प्रोत्‍साहन मिलता है। वैर की यह वासना जन्‍म-जन्‍मान्‍तर तक जीव के साथ चलती है। अवसर पाते ही वह अपना बदला लेता है। इस प्रकार हिंसा और प्रतिहिंसा की यह श्रृंखला कहीं टूटती नहीं, अंतहीन होती चली जाती है। हिंसा को प्रतिहिंसा या क्रोध से कभी समाप्‍त नहीं किया जा सकता। क्षमा और समता से उस वासना को निर्मूल किया जा सकता है। उसका अन्‍य कोई उपाय नहीं है।

हमारे पास मन, वाणी और शरीर- ये तीन ही साधन हैं, धर्म तो वही हो सकता है जो इन तीनों में बस जाए, इन तीनों को पवित्र करे। वास्‍तव में परम धर्म तो एक ही है और वह है ‘अहिंसा'। मन का सारा सोच-विचार, मन के सारे संकल्‍प, अहिंसा पर आधारित और अहिंसामय होने चाहिए। हमारे कृत्‍य भर नहीं, हमारे भाव भी अहिंसामय हो, वह अहिंसा की अनिवार्य शर्त है। अतः चिंतन के स्‍तर पर अहिंसा ही परम-धर्म है।

मन की यह अहिंसा जब शब्‍दों का रूप धारण करके वाणी में उतरती है तब सत्‍य को परम-धर्म की संज्ञा मिलती है। इसी प्रकार शरीर के माध्‍यम से जब अहिंसा आचरण में उतरती है तब वह परहित का काम परम-धर्म कहा गया है। सत्‍य और परोपकार कोई पृथक धर्म नहीं है, वाणी और शरीर के ये दोनों परम-धर्म मिलकर अहिंसा को श्रेय देते हैं, उसकी प्रतिष्‍ठा करते हैं, इसलिए उन्‍हें ‘परमधर्म' कहा गया है। अहिंसा एक आंतरिक प्रकाश है। वह मानवता की सहज-स्‍वाभाविक और शाश्‍वत ज्‍योति है जिसे कभी बुझाया नहीं जा सकता। अहिंसा मनुष्‍य का स्‍वभाव और हिंसा, क्रूरता आदि उसके विकार हैं। विचार स्‍थायी नहीं होते, स्‍वभाव कभी नष्‍ट नहीं होता। भावनाएं भड़का कर इंसान को कुछ समय के लिए शैतान बनाया जा सकता है पर उसे हमेशा के लिए शैतान बनाकर नहीं रखा जा सकता। हिंसा पर अहिंसा की विजय का विश्‍वास दिलाने वाला यही सबसे बड़ा प्रमाण है।

डॉ. धमेन्‍द्रनाथ के शब्‍दों में- ‘‘अहिंसा मौलिक प्रवृत्ति है इसलिए अहिंसा पर चिंतन तथा उसे वैयक्‍तिक और सामाजिक स्‍तर पर व्‍यवहार में ढालने के प्रयोग प्रत्‍येक देश में उसकी सभ्‍यता के किसी न किसी चरण में किये गये। अनेक तत्त्व-चिंतकों, प्रबुद्धजनों ने इसको अपने ढंग से समझा और समझाया। धर्मों के संस्‍थापकों ने संसार को संदेश दिए कि बुराई का उन्‍मूलन बुराई द्वारा नहीं किया जा सकता। हिंसा द्वारा दमन तो किया जा सकता है परन्‍तु समस्‍याओं का स्‍थायी समाधान संभव नहीं। स्‍थायी परिवर्तन या समाधान केवल हृदय परिवर्तन द्वारा ही संभव है। भारतीय चिंतकों ने कहा-‘अहिंसा परमो धर्मः यतो धर्मस्‍ततो जयः'

संसार के अन्‍य किसी भी देश में अहिंसा की परम्‍परा इतनी व्‍यापक इतनी समृद्ध, और गहरी नहीं है जितनी कि भारत में है। यहां मानव जीवन को समग्रता की दृष्‍टि से देखा गया तथा अहिंसा को परम कर्त्तव्‍य माना गया। भारत की पुण्‍यधरा से ‘एकात्‍म मानव दर्शन' प्रसारित हुआ।

हिंसा के विष वृक्ष को निर्मूल करने के प्रयासों में जैन धर्म का महत्‍वपूर्ण योगदान रहा है। जैन तीर्थंकरों, दार्शनिकों, चिंतकों, साधु-साध्‍वियों ने अहिंसा पर विस्‍तार और गहराई से विचार किया और उसे जीवन-दर्शन का रूप दिया।

भगवान महावीर ने अहिंसा को अनेक पहलुओं से देखा है। भगवान महावीर के शब्‍दों में हिंसा एक ग्रंथि है, मोह है, मृत्‍यु है, नरक है, बुद्धि का नाश करने वाली है, और मनुष्‍य के लिए अहितकर है। इच्‍छा, सत्ता और अपरिग्रह से हिंसा सींची जाती है। इसलिए इन तीनों को संयमित करना अत्‍यंत आवश्‍यक है। इन्‍द्रियों का सुख-सुविधाओं के प्रति आकर्षण, अहंकार और ममकार का दवाब व्‍यक्‍ति को हिंसा के विनाशकारी रूप की सच्‍चाई समझने नहीं देता।

गौतम बुद्ध ने मध्‍यमार्ग को अपनाया। अहिंसा को स्‍वीकार तो किया किन्‍तु महाव्रत नहीं समझा जैसा कि जैन आचार-संहिता में है। उनके धर्मचक्र के शील ओर (कीलक) है। क्षमा और विनय उसके धुरे हैं, बुद्धि और स्‍मृति उसके दो पहिये हैं। सत्‍य और अहिंसा रूपी धुरी से युक्‍त है। बौद्ध चिंतन में अहिंसा ‘दश सिखयवानी' तथा ‘पंच सीलानी' में से एक है। बुद्ध ने युद्धों का विरोध किया। अहिंसा की अभिव्‍यक्‍ति प्रेम, करुणा, मुदिता, उपेक्षा आदि में होती है। ‘मेता सूत्र' में बुद्ध की अहिंसा का आदर्श दिया गया है। जैन धर्म और बुद्ध धर्म दोनों ने ही अहिंसा पर बल दिया है।

ब्रिटिश शासनकाल में अहिंसा का व्‍यापक प्रयोग राष्‍ट्रपिता महात्‍मा गांधी ने किया और लोगों को उससे जोड़ा। गांधीजी के चिंतन के बुनियादी तत्त्व थे ‘सत्‍य और अहिंसा'। उन्‍होंने अहिंसात्‍मक सामाजिक संरचना के मामले को सत्ता के विकेन्‍द्रीकरण, अपरिग्रह और स्‍वदेशी के साथ जोड़ा। व्‍यक्‍ति के जीवन में मूल्‍यों को ढ़ालने पर बल दिया, स्‍वयं भी उस पर दृढ़ता से जमे रहे। गांधीजी ने मानव जीवन को समग्रता की दृष्‍टि से देखा।

गांधीजी ने अहिंसा को एक आंदोलनात्‍मक शस्‍त्र के रूप में उसकी उपयोगिता को समझा और इसका स्‍वतंत्रता-संघर्ष में प्रयोग किया। संसार चकित था कि एक निर्धन देश जिसमें साक्षरता बहुत कम थी, इस अमोघ शस्‍त्र का सफलतापूर्वक उपयोग कर सका। गांधीजी ने अपना पूरा जीवन सत्‍य की खोज और सत्‍य के प्रयोगों के लिए समर्पित कर दिया था। उनके अनुसार सत्‍य साध्‍य है और अहिंसा साधन तथा अहिंसा तमाम धर्मों का हृदय है। गांधीजी सत्‍य को सबसे बड़ा कानून और अहिंसा को सबसे बड़ा कर्त्तव्‍य मानते थे। अहिंसा आत्‍मा का गुण है जो कि आस्‍था, अनुभूति से संबंधित है। जिस पर एक सीमा के बाद तर्क नहीं किया जा सकता।

गांधीजी कायरता को अहिंसा नहीं मानते थे। अहिंसा तो वीरों का शस्‍त्र है। सत्‍याग्रह में हृदय और मस्‍तिष्‍क की पवित्रता को सदैव अपनाया गया। किसी के प्रति बुरी भावना न हो तथा उद्देश्‍य नैतिक और उचित हो। जैन और वैष्‍णव परम्‍पराओं में पोषित अहिंसा में गांधीजी का दृढ़ विश्‍वास था। अहिंसा के प्रति गांधीजी का रवैया व्‍यावहारिक था।'' प्रस्‍तुति- ललित गर्ग

प्रेषकः

(ललित गर्ग)

ई-253, सरस्‍वती कुंज अपार्टमेंट

25 आई पी एक्‍सटेंसन, पटपड़गंज

दिल्‍ली-110092

COMMENTS

BLOGGER: 2
  1. आपकी इस सुन्दर प्रविष्टि की चर्चा कल २/१०/१२ मंगलवार को चर्चा मंच पर चर्चाकारा राजेश कुमारी द्वारा की जायेगी आप का स्वागत है

    जवाब देंहटाएं
  2. भटकाव को अगर
    ठहराव की तरफ
    ले जाना है
    गाँधी अभी भी
    उतना ही कारगर है
    और सटीक है
    यही सत्य तो
    सबको समझाना है !

    जवाब देंहटाएं
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तौंसवी,1,फ्लेनरी ऑक्नर,1,बंग महिला,1,बंसी खूबचंदाणी,1,बकर पुराण,1,बजरंग बिहारी तिवारी,1,बरसाने लाल चतुर्वेदी,1,बलबीर दत्त,1,बलराज सिंह सिद्धू,1,बलूची,1,बसंत त्रिपाठी,2,बातचीत,2,बाल उपन्यास,6,बाल कथा,356,बाल कलम,26,बाल दिवस,4,बालकथा,80,बालकृष्ण भट्ट,1,बालगीत,20,बृज मोहन,2,बृजेन्द्र श्रीवास्तव उत्कर्ष,1,बेढब बनारसी,1,बैचलर्स किचन,1,बॉब डिलेन,1,भरत त्रिवेदी,1,भागवत रावत,1,भारत कालरा,1,भारत भूषण अग्रवाल,1,भारत यायावर,2,भावना राय,1,भावना शुक्ल,5,भीष्म साहनी,1,भूतनाथ,1,भूपेन्द्र कुमार दवे,1,मंजरी शुक्ला,2,मंजीत ठाकुर,1,मंजूर एहतेशाम,1,मंतव्य,1,मथुरा प्रसाद नवीन,1,मदन सोनी,1,मधु त्रिवेदी,2,मधु संधु,1,मधुर नज्मी,1,मधुरा प्रसाद नवीन,1,मधुरिमा प्रसाद,1,मधुरेश,1,मनीष कुमार सिंह,4,मनोज कुमार,6,मनोज कुमार झा,5,मनोज कुमार पांडेय,1,मनोज कुमार श्रीवास्तव,2,मनोज दास,1,ममता सिंह,2,मयंक चतुर्वेदी,1,महापर्व छठ,1,महाभारत,2,महावीर प्रसाद द्विवेदी,1,महाशिवरात्रि,1,महेंद्र भटनागर,3,महेन्द्र देवांगन माटी,1,महेश कटारे,1,महेश कुमार गोंड हीवेट,2,महेश सिंह,2,महेश हीवेट,1,मानसून,1,मार्कण्डेय,1,मिलन चौरसिया 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पाटील,1,शगुन अग्रवाल,1,शबनम शर्मा,7,शब्द संधान,17,शम्भूनाथ,1,शरद कोकास,2,शशांक मिश्र भारती,8,शशिकांत सिंह,12,शहीद भगतसिंह,1,शामिख़ फ़राज़,1,शारदा नरेन्द्र मेहता,1,शालिनी तिवारी,8,शालिनी मुखरैया,6,शिक्षक दिवस,6,शिवकुमार कश्यप,1,शिवप्रसाद कमल,1,शिवरात्रि,1,शिवेन्‍द्र प्रताप त्रिपाठी,1,शीला नरेन्द्र त्रिवेदी,1,शुभम श्री,1,शुभ्रता मिश्रा,1,शेखर मलिक,1,शेषनाथ प्रसाद,1,शैलेन्द्र सरस्वती,3,शैलेश त्रिपाठी,2,शौचालय,1,श्याम गुप्त,3,श्याम सखा श्याम,1,श्याम सुशील,2,श्रीनाथ सिंह,6,श्रीमती तारा सिंह,2,श्रीमद्भगवद्गीता,1,श्रृंगी,1,श्वेता अरोड़ा,1,संजय दुबे,4,संजय सक्सेना,1,संजीव,1,संजीव ठाकुर,2,संद मदर टेरेसा,1,संदीप तोमर,1,संपादकीय,3,संस्मरण,730,संस्मरण लेखन पुरस्कार 2018,128,सच्चिदानंद हीरानंद वात्स्यायन,1,सतीश कुमार त्रिपाठी,2,सपना महेश,1,सपना मांगलिक,1,समीक्षा,847,सरिता पन्थी,1,सविता मिश्रा,1,साइबर अपराध,1,साइबर क्राइम,1,साक्षात्कार,21,सागर यादव जख्मी,1,सार्थक देवांगन,2,सालिम मियाँ,1,साहित्य समाचार,98,साहित्यम्,6,साहित्यिक गतिविधियाँ,216,साहित्यिक बगिया,1,सिंहासन बत्तीसी,1,सिद्धार्थ जगन्नाथ जोशी,1,सी.बी.श्रीवास्तव विदग्ध,1,सीताराम गुप्ता,1,सीताराम साहू,1,सीमा असीम सक्सेना,1,सीमा शाहजी,1,सुगन आहूजा,1,सुचिंता कुमारी,1,सुधा गुप्ता अमृता,1,सुधा गोयल नवीन,1,सुधेंदु पटेल,1,सुनीता काम्बोज,1,सुनील जाधव,1,सुभाष चंदर,1,सुभाष चन्द्र कुशवाहा,1,सुभाष नीरव,1,सुभाष लखोटिया,1,सुमन,1,सुमन गौड़,1,सुरभि बेहेरा,1,सुरेन्द्र चौधरी,1,सुरेन्द्र वर्मा,62,सुरेश चन्द्र,1,सुरेश चन्द्र दास,1,सुविचार,1,सुशांत सुप्रिय,4,सुशील कुमार शर्मा,24,सुशील यादव,6,सुशील शर्मा,16,सुषमा गुप्ता,20,सुषमा श्रीवास्तव,2,सूरज प्रकाश,1,सूर्य बाला,1,सूर्यकांत मिश्रा,14,सूर्यकुमार पांडेय,2,सेल्फी,1,सौमित्र,1,सौरभ मालवीय,4,स्नेहमयी चौधरी,1,स्वच्छ भारत,1,स्वतंत्रता दिवस,3,स्वराज सेनानी,1,हबीब तनवीर,1,हरि भटनागर,6,हरि हिमथाणी,1,हरिकांत जेठवाणी,1,हरिवंश राय बच्चन,1,हरिशंकर गजानंद प्रसाद देवांगन,4,हरिशंकर परसाई,23,हरीश कुमार,1,हरीश गोयल,1,हरीश नवल,1,हरीश भादानी,1,हरीश सम्यक,2,हरे प्रकाश उपाध्याय,1,हाइकु,5,हाइगा,1,हास-परिहास,38,हास्य,59,हास्य-व्यंग्य,78,हिंदी दिवस विशेष,9,हुस्न तबस्सुम 'निहाँ',1,biography,1,dohe,3,hindi 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रचनाकार: गांधी जयंती पर गणि राजेन्‍द्र विजय का विशेष आलेख - गांधी की अहिंसा है मानवता का महागीत
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