व्यंग्य गंजे को नाखून पूरन सरमा एक बार मैंने भगवान से कहा-‘प्रभो आपने गंजे को नाखून क्यों दिये ?' भगवान बोले-‘मैंने तो बेटे नाखू...
व्यंग्य
गंजे को नाखून
पूरन सरमा
एक बार मैंने भगवान से कहा-‘प्रभो आपने गंजे को नाखून क्यों दिये ?'
भगवान बोले-‘मैंने तो बेटे नाखून सबको ही दिये हैं। गंजे के साथ में पक्षपात क्यों कर करूँ। वह भी आदमी ही है। लेकिन तुम यह पूछ क्यों रहे हो ?'
मैंने कहा-‘प्रभो, गंजे ने अपना पूरा माथा खोद लिया है। घावों से लहूलुहान होकर गंजा विकृत हो गया है।'
‘तो तुम क्यों फिक्र करते हो। गंजा जाने और उसका काम जाने।' भगवान बोले।
‘नहीं प्रभो, वह गंजा मेरा दोस्त है, वह साहित्यकार है और मेरा समानधर्मी है। भगवान न करे उसे कुछ हो जावे। परन्तु आपकी कृपा से वह लालबुझक्कड़ अफसर बन गया है।' मैंने कहा।
‘देखो वत्स, किसी से ईर्ष्या मत करो। साहित्यकार अफसर बन गया तो तुम्हें क्या ? रहा सवाल गंजे का, उसकी टांट और उसके नाखून। यदि वह खुजा-खुजा कर मरना चाहता है तो उसे कुत्ते की मौत मरने दो। परन्तु तुम टिप्पणी मत करो।' भगवान यह कहकर अन्तर्ध्यान हो गये।
मुझे भगवान की बात सत्य भी लगी और विचित्र भी। सोच-सोचकर हँसी भी आयी कि अच्छा भला आदमी था साहित्यकार, अफसर क्या बना कि हुलिया ही बिगाड़ लिया। एक बार मेरा उस साहित्यकार मित्र से काम पड़ गया। मैंने उसके पास जाकर कहा-‘देखिये साहित्यकारजी, आप अफसर हैं और आपके दफ्तर में मेरा एक मामला अटक गया है-उसे निकलवाइये।'
साहित्यकार बोला-‘देखो भाई, यह दफ्तर है, इसका काम करने का एक कायदा है। यदि नियमानुसार फाइल निकलने की होगी तो निकाल दी जायेगी। वरना मैं विवश हूँ।'
मैंने कहा-‘कैसी बहकी-बहकी बातें कर रहे हो मित्र ! तुम कल तक मेरे घर घण्टों पड़े रहकर मुझसे साहित्य की ट्रेनिंग लिया करते थे। मित्रता का दंभ भरते थे, आज यह नयी आचार संहिता बना लाये।'
साहित्यकार ने गम्भीरता को चेहरे पर और सघन किया और बोला-‘देखो, वह बातें अब छोड़ो। गनीमत समझो मैंने तुम्हें दफ्तर में पहचान तो लिया वरना अस्सी प्रतिशत साहित्यकारों को मैंने पहचानने से भी इंकार कर दिया है।'
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‘खैर पहचान कर तो आपने मेरे ऊपर मेहरबानी की है। परन्तु मेरा वह काम ऐसा नहीं है जो, नियमों में न आता हो। वह तो सिर्फ तुम्हारा बाबू उसे खामख्वाह दबा रहा है। दरअसल वह कुछ चाहता है रूपया-पैसा और तुम तो शुरू से ही भ्रष्टाचार विरोधी रहे हो। भ्रष्टाचार को लेकर तुमने बड़े-बड़े लेख लिखे हैं तथा स्वच्छ प्रशासन की कामना सदैव तुम्हारे मन में रही है। इस दृष्टि से मैंने तुमसे कहा है कि तुम दिया तले तो अन्धकार है उसे दूर करो। वरना तुम्हारे अफसर बनने का फायदा क्या है ?' मैंने कहा।
अफसर साहित्यकार ने बातों को निचोड़कर कहा-‘ठीक है मैं देखूँगा, तुम अगले सप्ताह में मिलो।'
अगले सप्ताह गया तो अफसर साहित्यकार किसी अखबार में अपनी रचना प्रकाशनार्थ देने चला गया था। मैंने उसके लौटने तक बाबू से ही बात करना उचित समझा। बाबू ने मुझे प्रेक्टिकल बनने की सलाह देकर कहा कि ‘उसके अफसर जो कि मेरे मित्र भी हैं, वे इस मामले को निकालने के पाँच सौ माँग रहे हैं, इसलिए भला चाहते हो तो पैसा देकर पिण्ड छुड़ाओ।' मेरा हृदय चीत्कार कर उठा। मैंने कहा-‘ऐसा हो नहीं सकता।'
बाबू ने कहा-‘सर, आजकल जो नहीं होना चाहिए, वही हो रहा है।'
मैंने कहा-‘लेकिन तुम्हारा अफसर मेरा मित्र है, उसकी वह हिम्मत हो नहीं सकती।'
‘मित्र तो आप मानते हैं उन्हें। वे आपको एक क्लाइंट मानते हैं और सच तो यह है कि अब वे फटीचर साहित्यकारों के साथ उठना-बैठना भी नहीं चाहते। उनकी नजर में तमाम साहित्यकार गिरे हुए तथा घटिया इंसान हैं।' बाबू ने साहित्यकार के भीतर का सच खोला।
मैंने कहा-‘हमारे बीच में ही जाकर वह अपने आपको क्या समझने लगा है ?'
‘वे लेखन अब शौकिया करते हैं सा‘ब। अखबार वालों को वे विज्ञापन देते हैं। उनके काम कराते हैं, इसलिए उन्हें आप पा नहीं सकते। वे अब बराबरी के अफसर लोगों के साथ उठते-बैठते हैं। हालांकि उन्हें ‘हूँकनी' आती है परन्तु वे मन मारकर चुप रहते हैं। कभी किसी साहित्यिक गोष्ठी-समारोह में जाते भी हैं तो बड़ा ही अटपटा-सा लगाता है उन्हें। किसी से बात नहीं करना चाहते, कटे-कटे से रहते हैं, गम्भीरता चिपकाये अफसर और साहित्यकार का निर्वाह करते हैं। इसलिए इनका मायाजाल आप समझेंगे नहीं। प्रकाशकों को इसलिए उनकी किताबें छापनी पड़ रहीं हैं, क्योंकि वे हजारों रूपयों की सरकारी खरीद करवाते हैं।
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इस बूते पर उनकी घटिया पुस्तकें भी प्रकाशन पा रही हैं। आप लोग जो उच्च साहित्य लिख रहे हैं, वह प्रकाशक मुफ्त में भी नहीं छापना चाहता।'
मैंने कहा-‘भाई धन्य हो तुम ! यह लो पाँच सौ रूपये और निकालो मेरी फाइल।'
फाइल निकल गयी, मेरा काम हो गया। एक दिन एक लेखक सम्मेलन में साहित्यकार मिल गया। मैंने उसका अफसरी रूप आँककर बात करना उसकी औकात के खिलाफ समझा। वही खुद आया और बोला-‘मैंने तुम्हारा वह काम करा दिया था।'
मैं बोला-‘हाँ, मेरा वह कार्य हो गया था। बाबू ने तुम्हारे लिए मुझसे सिर्फ पाँच सौ रूपये माँगे थे।'
साहित्यकार की जमीन खिसक गयी, चेहरा सफेद पड़ गया और हाथों के तोते उड़ गये। वह अपने आपको संयत कर बोला-‘यह क्या कह रहे हो तुम ! झूठा इलजाम लगाते हो मुझ पर।'
मैंने कहा-‘अफसर साहित्यकार, मैं क्यों लगाने लगा इल्जाम। मुझसे तुम्हारे बाबू ने तुम्हारे नाम से पाँच सौ रूपये लिये हैं और तुम्हारा सारा घिनौना रूप बखाना है। चाहो तो पूछ लेना अपने बाबू से।'
हिकारत भरी नजर से देखता हुआ वह भीड़ में खो गया। उसके बाद उससे मेरी बोलचाल बंद हो गयी। एक अच्छे साहित्यकार की मृत्यु अफसर बनने पर ऐसे होती है, मुझे पता नहीं था। साहित्यकार के ये सम्बन्ध लगभग समानधर्मियों के साथ ऐसे बने गये थे। किसी को घास नहीं डालता था। घटिया कीचड़ में से निकला यह कीड़ा सफेद पोश बना अपना स्थान बनाने के प्रयासों में लगा रहता।
एक दिन अफसर साहित्यकार सेवानिवृत्त हो गया। साल दो साल रोज दाढ़ी बनाकर चिकना चुपड़ा बना घर में बैठा रहा। परन्तु एक दिन बेटे ने मारी लात और कहा-‘क्या दिन भर घर में पड़े रहते हो। जाओ साहित्य की चर्चा करो-अपने समानधर्माओं में जाकर टाइम पास करो। घर में पड़े-पड़े हमारी सीक्रेसी डिस्टर्ब क्यों करते हो।'
साहित्यकार घर से निकला तो सबने मुँह फेर लिये। कोई बात नहीं करना चाहता था उससे। मेरे पास आया तो मैंने कहा-‘तुम आ गये साहित्यकार !'
‘हाँ, मैं जमीन पर आ गया हूँ।'
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‘देखो, टटोल लो अच्छी तरह। फिर कहीं हमारे जैसे घटिया लोगों के साथ बैठने से तुम्हारे अफसर को ठेस न पहुँचे।' मैंने कहा।
अफसर साहित्यकार दुम हिलाकर बोला-‘मुझे सुबह का भूला समझकर माफ कर दो।'
मैंने कहा-‘तुमने पूरे साहित्य क्षेत्र के साथ धोखा किया है। सेवानिवृत्त हो गये तो आ गये हमारे बीच, पिछले तीस सालों तक मूँग दलते रहे। चलो पहले माफी माँगों।' साहित्यकार रो पड़ा। मैंने उसे गले से लगाया और कहा-‘चलो छोड़ो रोना-धोना, अब हँसों थोड़ा-सा।' साहित्यकार हँसने लगा, उसने फिर से कविताएँ लिखना शुरू कर दिया।
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(पूरन सरमा)
124/61-62, अग्रवाल फार्म,
मानसरोवर, जयपुर-302 020,
सरमा जी , मुझे डर लगने लगा है रचना पढकर।
जवाब देंहटाएंपर शुक्र है हिन्दी अधिकारी हूं इसलिए किसी का कोई काम
मुझसे नहीं अटकता।
बहुत अचछी रचना,
अति व्यस्तता के बावजूद भी आपका व्यंग्य पढ़ने से नहीं रोक पाता हूं।
सादर
डॉ राजीव रावत