कामिनी कामायनी की कहानी - विस्थापित

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विस्थापित "मँह मँह करता ...केवड़े की मदमाती खुशबू से ओसारे से लेकर कमरे तक की हवा...मदहोश सी होकर नृत्यरत हो गई थी। इस हिरण्यमयी कस्त...

विस्थापित

"मँह मँह करता ...केवड़े की मदमाती खुशबू से ओसारे से लेकर कमरे तक की हवा...मदहोश सी होकर नृत्यरत हो गई थी। इस हिरण्यमयी कस्तूरी सुगंध को भरपोख अपने नथुनों में समेटती हुई छोटे बाब्ड बालों को ढकने के लिए सिर का पल्ला सहेजते हुए इस स्वर्गिक खुशबू के स्त्रोत को जानने की जिज्ञासा में जैसे ही उसने पीछे मुड़कर देखा भीमशंकऱ...एकदम सूटेड बूटेड होकर बाजार के लिए प्रस्थान कर रहे थे...रिबोक के चमचमाते जूते... लीकूपर के जीन्स ... एलेनसोली के शर्ट़...मैंगो के चश्मे... "भौजी आपको भी कुछ मँगवाना हो तो बोलिए बाजार जा ही रहा हूँ। ’निर्लज्जता भरे चेहरे परजड़े होठों से शब्द ऐसे फूटे थे मानो कहकहा लगाते हुए कह रहें हों

कि आप लोगों की परवाह करता ही कौन ह़ै...सामने पड़ गईं इसलिए पूछ लिया...मैं तो रानी साहेब के करीब का आदमी...। पल भर में वह खुशबू कार्बन मोनोक्साइड में बदल गया जैस़े...माधवी का दम घुटने लगा... उस जहरीली हवा से नजात पाने के लिए साड़ी का पल्ला नाक पर रखते हुए बड़े ही नाटकीय अंदाज में सिर हिलाकर मना करते हुए आंगन से होते हुए पिछवाड़े की खुली हवा में साँस लेने चली गई थी।

धान कटनी शुरू हो गया था... आंगन के बीच में और पछवरिया ओसारे पर मिट्टी के चार चुल्हिया बनाए गए थे। कनस्तर भर भर कर धान चूल्हों पर चढ़ाए जा रहे थ़े...नीचे से खर पतवार की आग...उबाल आ जाने पर वहीं बैठी मजदूर महिलायें अपने कार्य कुशल हाथों में

कपड़े पकड़ तड़ातड़ उसे नीचे आंगऩ ओसारे में पलटती जा रही थी। ‘उसना चावल के लिए धान का उबालना जरूरी होता है। इस बार धान भी कम ही हुआ ह़ै...चारों तरफ बाढ़ ने तांडव जो मचा दिया था...मजदूर तो वैसे ही दूज के चाँद... अब वो भी दुर्लभ़...जो पहले यहाँ रहते थे अब वो वो नहीं... बदल गया सबकुछ...महानगरों की कमाई ने उन्हें भी सपने देखने के काबिल बना दिया़...मात्र सपऩे...दिवा स्वप्न... और कुछ नह़ीं। फुटपाथ के कपड़े और नकली कैसेट़... से उनके बस्तियों की रौनक देखते ही बनतीं थी... गयी रात तक पुरानी फिल्मों की वे गीतें जो कभी संपन्न छतों वाले घरों की शान हुआ करती थ़ी...आज वहाँ से रूठ कर यहाँ इन बस्तियों में इठलाने लगी ह़ैं... ‘छू लेने दो नाजुक़ । " गीत ...अभी बज ही रहा था कि बिजली चली गई थी। मगर संगीत थमने से गाँव की जिन्दगी नहीं थमती। सूरज की हल्की हल्की गरमी को सम्पूर्ण आत्मसात करने के लिए अपने अपने घरों से बाहर विभिन्न मुद्राओं में बैठे हुए लोग... कोई चारपाई पर लेटा़...कोई चटाई पऱ...कुछ ने चौकी स्थायी रूप से बाहर धूप में रख दिये थे ...कौन रोज रोज घर से निकालने... रखने का जहमत मोल ले।

बहुँए ...ऑगन में...अपने अपने घरों की छतों पर...रसोई का काम निबटा नूबटा कर बैठने की चाहत लिए आ खड़ी होत़ी मगर धूप तबतक़...उन्हें चकमा देकऱ... दूर पास के ताड़ के पेड़ों के पीछे छुपता नीचे की ओर धीरे धीरे सरकने लगता़... मानो कह रहा हो ‘तुम्हारे

काम खतम होने तक मैं भला कैसे अविचल खड़ा रह सकता हूँ। ’

अमराईयों से झाँकने लगी थी ठंढी ठंढी अतीत...तब यह गाँव कुछ ज्यादा ही हरा भरा दिखता था़ जब माधवी ब्याह कर आई थी। चारों तरफ मुंड ही मुंड़ नई नवेली बहू की गाड़ी घेऱकर खड़ी। बाद में सुना था उसने... शहर की डिस्को कनियाँ...बिना घूंघट के आ रही है और इस अप्रत्याशित दृश्य को बच्चे से लेकर वृद्ध तक अपनी ऑखों से देखकर स्मृति पटल पर रेखांकित करने के लिए व्यग्र... तो इस ख्वाहिश में...जैसे ही गोधुली बेला में गाड़ी की आवाज के साथ आनंदातिरेक ...में बच्चों की समवेत आवाजें गूँजी ‘कनिया आ गई । ’ महिलाओं का उत्साह सीमा तोड़ गया था । बड़की काकी लकड़ी के चूल्हे पर मछली तल रही थी ... कड़ाही उतार जलती आग छोड़... दौड़ी दरवाजे की ओर ...साहरवाली काकी अपने छोटे नाती को लोरी गा गा कऱ पालथा झूला झूला कर सुला रही थ़ी नाती चीख चीख कर अपना गला फाड़ता रहा़...नानी के पाँव में तो जैसे पहिए लग गए थे... लुढ़कते चले गए दरवाजे की ओर...। बिमला पीसी पीतल के बड़े से थाल में सांझ का दीपक जलाने की तैयारी में लगी थी धूप़ बाती...तेल़... माचिस़...सब वैसे ही छोड़कर दौड़ पड़ी थी।

इस अपरिचित अन्जान माहौल में ... गाड़ी में बैठी माधवी के कान में खूब तेज आवाज बंदूक की गोली की तरह चीरती हुई बड़े वेग से घुस गई थी "भायज़ी माँ कहलक चादरि से सौंसे गाड़ी के झाँपि दियौ। ’बाद में पता चला बड़ी वाली ननद थ़ी...जबतक सासुमाँ आती गाड़ी से उतार रस्म रिवाज निभाने... तबतक कहीं उनकी नवेली बहु लोक समाज का व्यर्थ के मनोरंजन का कारण न बन जाय। माँजी अपने हाथ में पीतल के बड़े से लोटे में जल और एक मुठ्ठी में गुड लेकर पधार चुकी थी। ...मगर भीड़ थोड़ी निराश होकर छँटने लगी थी ... जो सोचा सुना नहीं मिला़...कनिया तो बित्ते भर की घूँघट में सहमी सिकुड़ी मुड़ी झुकाए हुए बैठी थी। दरअसल किसी ने उड़ा दिया था ‘ शहर की ह़ै गाड़ी के छत पर बिना घूँघट के नाच करती आयेगी...ससुर से अंग्रेजी में बात करेगी’ यह अफवाह इसलिए उड़ गई थ़ी...शादी के बाद़ बारात के सामने कनिया का मुँह दिखाई रस्म निभाते समय़ बड़ी दीदी ने उसके सिर पर बड़ा सा घूँघट नहीं खींचा था...सिर्फ माँग टीका तक पल्ल़ू... और बाद में चिनगारी वहीं से उड़ती हुई ... ज्वाला बनकर गाँव में धधकने लगी थी इतने बड़े अधिकारी की बेट़ी... इतना बड़ा सरकारी कोठी... क्या निभा पाएगी गाँव की मान मर्यादा़...।

आज इतने साल बाद भी...ससुराल के गाँव की सीमा पर आते ही उसके सिर का पल्लू एक बित्ते लंबे घूँघट में बदल जाती ह़ै। खैऱ... अब तो गाँव में भी कहाँ घूँघट और कौन सी मान मर्यादा़...सास ससुराल वालों को बात बात पर उनकी औकात बता कऱ पढ़े लिखे होने का दर्प दिखाते हुए़ आधुनिकता के तराजू पर अपने को तौलती ह़ैं...वे जिस दुनिया में जी रही हैं वहीं सत्य है। यहाँ की लड़कियाँ अब घरेलू कार्य में कम ब्युटि पार्लर में ज्यादा रमी रहतीं हैं। आश्चर्य हुआ उसे यह देखकऱ...कि जाँता चक्की पीसते समय जिन महिलाओं के मधुर संगीत से घर आंगन में एक नवीन ऊर्जा पैदा कर देती थी उनकी बेटियाँ़ काम काज से विमुख़...आधुनिक पढ़ाई के नाम पऱ स्कूल कालेज के रजिस्टर पर बस एक नाम भर रह गई ह़ैं...स्कूल का तो यदा कदा मुँह देख भी लिया मगर कालेज कहाँ़...लेकिन सब की सब बी0ए0 ह़ै एम0ए0 ह़ै कुछ के पास बी0एड की डिग्री भी ह़ै...ये मेहरबानी क्यों की गई...तो शोध करने से पता चला क़़ि आजकल शादी विवाह में लोग दहेज के साथ कन्या की डिग्री भी चाहते है...ये कन्यायें पैरवी पैगाम के बाद जब कभी सरकारी स्कूलों में नौकरी पा जाती तो घर बैठे कमाई का एक जरिया़ अब बेरोजगार पुरूषों से पहले महिलाओं को नौकरी जो मिलने लगी ह़ै भविष्य की चिन्ता से उन्मुक्त ये बालायें अंधेरे बंद कमरों में रखे टीवी सिरियलों में सासबहु सीरियल देखने में व्यस्त़... हकीकत से बेहद दूर... कल्पना में मस्त।

बिजली यहाँ दिनभर आती जाती रहती ह़ै ‘लेकिन ग्रामीण इलाकों में तो सरकार खेती बाड़ी के नाम पऱ कम लागत में बिजली मुहैया करने का वादा करती रही ह़ै...’ माधवी के जिज्ञासु प्रवृति को शांत करते हुए पवनजी ने बताया था ‘भौजी... सरकार तो बिजली देती भी ह़ै...मगर बेरोजगाऱी पता है न आवश्यकता आविष्कार की माता...गाँव के कुछ नौजवान ... जो महानगरों की झुग्गियों फूटपाथों की गरम गरम हवा खाकर लौटे हैं...वे अपने साथ घर बैठे कमाने का कुछ सौ प्रतिशत...कामयाब धंधा भी हाथ म़़ें लेकर आये ह़ैं...संध्या ठीक छौ बजे तक ये लोग बिजली का लाईन काट देते हें और और अपना जेनेरेटर का धंधा चालू करते ह़ैं एक बल्ब नब्बे रूपए महीना... लाइट आती ह़ै रात के एगारह बजे दिन में कभी पूरे कभी अधूऱे। ’ माधवी पवनजी का मुँह ताकती रह गई थी। भोले भाले निर्दोष लोग समय के हाथ कितने मक्कार हो गए ह़ैं सर्र सर्र चलती सरसों के पीले फूलों से सजी खेतों के धान और गेहूँ के स्वर्णिम बालियों को झुलाती हुई हवा तो अभी भी विषाक्त नहीं हुई थ़ी... मगर काले धंधों की महिमा से लोग अच्छी तरह वाकिफ होने लगे थे...

वैसे धक्कम धक्का ...धूऑ तेज रफ्तार ...बिजली और पानी के साथ़ एक अदद छत की किल्लत वाले शहर से घूमकर वापस गाँव का सीधा सरल रास्ता अख्तियार करने बहुत कम ही लोग जाते ह़ैं मगर जो आ जाते हैं उनकी तो चाँदी है...सिंहासन खाली है आओ राज कऱो...थोड़ी सी बुद्धि लगाओ फिर देख तमाशा...अकेलेपन का़...दंश झेल रहे वृद्धों के लिए यही क्या कम ह़ै कि पाँच में सात म़ें...कोई एक तो इनके पास आ गया रहने के लिए। गंगा की उपजाऊ मिट्टी ने ऊपजना थोड़े ही छोड़ दिया ह़ै... फसलें देखरेख के अभाव में भले ही कम हों पर होती तो हैं... आम लीची के मौसम मेंबौरा बौरा कऱ...चारों ओर अपनी सुरभि फैला कऱ...पेड़ फलते ह़ैं...अब जो वहाँ हैं उन्हें ही इसके रसास्वादन का मौका मिलेगा न।

इतने बड़े घर में अब माँजी अकेली रह गई ह़ैं...सांझ होते ही पिछवाड़े के ताड़ वृक्ष से लुढ़कता हुआ भयानक सन्नाटा झपटने के लिए दौड़ता ह़ै...दिन तो टोल महल्ल़े खेत खलिहान...बाग बगिीचा पशु पाखी...के साथ फुर्र फुर्र उड़ता हुआ जीवन पथ को सुगम बना जाता...मगर रातें...दर्द से भरे सहस्त्रों पोथा खोले हुए़...। कितने कितने रिश्तों का हिसाब किताब़...अतीत के पिटारे से शोर मचाती हुई परछाईया़...... अठ्ठहास करत़़ी विडंबनाए़ चारों ओर थिरकने लगत़ी मन घायल घायल होकर भीषण आर्त्तनाद करने लगता...प्रलय के समान हो जाते समय़......कितनी रातें ऑखों में कट जात़ी...मगर... वक्त की सूई पीछे नहीं मोड़ी जा सकत़ी...।

असाध्य गठिया रोग़ सर्दियों में जान तो नहीं लेता था मगऱ...काश कि जान ही ले लेता़... कभी चापाकल के पास गिर पड़त़ी...कभी आंगन म़ें...तब...कामवाली के कंधों पर सिर रखकर बिलख बिलख कर अपने दुर्दान्त अकेलेपन का रोना रो लेत़ी।

वैसे तो हाथ में मोबाईल फोन था़...दिन में दस बार बच्चे फोन कर लेत़े... महिने दो महिने पर कोई न कोई संतान ऑफिस से छुट्टी लेकर माँ को देखने आ ही जाता... ऐसा कोई भी पर्व त्योहार नहीं जब उनके घर में कोई मौजूद न ह़ो। आस पास रहने वाले रिश्तेदार... भाई बहन भी अक्सर ही आते ही रहते थे। मगर इतने बड़े भरे पूरे परिवार में पचासों वर्ष जीवन व्यतीत करते करते अचानक बाबूजी के साथ छोड़ दिये जाने से माँजी नितांत अकेली हो उठी थीं... हालांकि गठिया के अलावा और कोई बीमारी नहीं थी... लंबी चौड़ी काया...ठसकेदार आवाज़......पैंसठ की होकर भी पैंतालिस से ज्यादा की नहीं लगत़ीं...एकदम काले बाल़ में अब कहीं कहीं से सफेदी झलकने लगी थी।

बाबूजी का पेंशन... शहर के मकान का किराया...बढ़िया उपजा बाड़़ी...उनके पास भला संबंधियों की क्या कमी रहती। बाबूजी के समय में ही... जब सभी बच्चे अपने पाँव पर खड़े होने शहर की ओर पलायन कर गए थ़े... मौसी अपने बड़े बेटे भीमशंकर को लाकर माँजी के चरणों में समर्पित कर दिया था... ‘इसको भी मनुख बना दो...इतना क्रोध़...झाड़ पात नोंचने लगता ह़ै... भाला बरछी निकाल लेता ह़ै... बाप को तो देखना नहीं चाहता ह़ै...गाँव भर में खिस्सा...बाप बेटा में उठापटक़...... पिता ने जहर खा लिया... वो तो मौसी का तकदीर ठीक था कि समय पर पास के अस्पताल ले जाने से बच गए।

तो चौदह बरस के भीमशंकर... अपने मौसा के घर में टहल टिकोरा करते हुए़... दो चार बार वहाँ से भागने के पश्चात भी किसी तरह़ खींच तान कर प्राइवेट से बी0 ए0 पास कहलाने लगे थे...स्वभाव तो क्या बदलता़... क्रोध को दबाने के लिए... बोली व्यवहार सिखाने के लिए

टोल के लोग के साथ गाँव के लोग भी शामिल हो गए थे। माँजी ने डपट कर कहा था ‘एना जे रस्ता पेड़ा क्रोध करबही...त’ लोक जुत्ता सँ मारबे करतैा नै...। ’ भागना तो वह इस बार भी चाहा था़ मगर...कलकत्ता से छटनीग्रस्त होकर...बरसों से बेरोजगार पिता के पास नित्य प्रति दूध मलाई़...खाने के लिए़...बाजार घूमने के लिए मन वांछित पैसे कहाँ से मिलत़ी...झगड़ा लड़ाई से परिपूर्ण जीन्दगी...

उसके व्यर्थ के स्वाभिमान पर ठंढापानी डाल देता... रबिना अनुशासन के दूसरा भाई भी अपने गाँव का दादा बन रहा था। मौसी अक्सर अपनी बड़ी बहन से मिलने आती खीर पूड़ी के साथ़ साथ अपने दुखनामे का गठरी भर भर के लात़ी। उनके बड़ेबेटे को देखकर ढर ढर बहते ऑखों को ऑचल से पोंछते पोंछते विलाप करती रहती "मौसे के लगा दही नौकऱी... रे बऊआ़...। ’ कई बार उनकी नौकरी भी लगाई गई थ़ी मगर उनके खून में वर्षो का रचा बसा यूनियन बाजी का अड़ियल क्रोधी रवैया़... वापस उन्हें अपने गाँव पहुँचा देता। खेती थी मगर नदी के डूब वाले भाग में... बाढ़ का प्रकोप भी उन्हें त्राहि त्राहि कर देता।

ऐसे में पता नहीं... भीमशंकर अपने मौसा का रोज सरसों तेल से मालिश करते करते उनसे मैट्रिक पास करवाने का वचन ले लिया था़...जो उसके लिए नितांत दुसाध्य था़...फिर तो कालेज का रास्ता उसने अपने लिए अन्य तरीकों से सुगम बना लिया था।

मंझले देवर ने एक तरह से उसे अपना जासूस बना रखा था। कपड़े लत्तों के साथ साथ उसके सपने भी वही बुनते थे। लंबाई चौड़ाई के आधार पर पुलिसिया नौकरी का ख्वाब दिखाया गया। सुनने में आया कितने सालों से दारोगा लेबल का फाँर्म भरता...लेकिन परीक्षा की तैयारी के बजाय यह ढूँढना शुरू कर देता कि कौन इसमें पैरवी से वैतरणी पार करा सकता है...कभी दौड़ने में छँटता ...कभी लिखने म़ें...। मौसी आकर बाबूजी के सामने भर भर कटोरा ऑसू बहा कर गिड़गिड़ाती ‘कत्तो नौकरी चाकरी लगा दैतियै त’ घरक हालत किछु सुधैरतै... बाप त’ एहने निकम्मा छ़ै...। ’ साली के दुख से परेशान बाबूजी सिर्फ आश्वासन ही नहीं दे रहे थे अपने स्तर पर भरपूर प्रयास भी कर रहे थे। मगर किस्मत़ ‘दौड़ने में ही नहीं पास होता है तो चोर के पीछे क्या खाक भागेगा’। अब किसी फैक्टरी में लगवाने की सोच रहे थे कि काल ने उनका कार्यकाल समाप्त घोषित कर दिया था।

अब भीमशंकर सच में अनाथ था... मौसा के कोप को झेल कर भी उसे एक स्वर्णिम भविष्य की झलक दिखाई दे जाती थ़ी अब वह भी गया...मगर माँजी ने अपनी कड़कती हुई आवाज में कहा था ‘जखन तक हम जीबैत छी चिन्ता करय के कोनो काज नै। ’फिर तो वह पनप उठा था। उसके चेहरे की हरियाली चीख चीख कर बयान करने लगी थी ‘सैंया भये कोतवाल अब डर काहे का़। ’

पंडितों के साथ कुछ श्लोक वगैरह सीखकर वह भी अपने आपके किसी भी विद्वान से कम नहीं मानने लगा था। शहरों का आकर्षण गाँवों को बौद्धिक रूप से भी खाली करता गया और इसी खालीपन का लाभ उठाने के लिए भीमशंकर मचलने लगा अपना पैत्रिक कर्म छोड़कऱ अन्य सभी के लिए पाव फैलाता़। उसे थोड़ा बहुत ‘दुर्गासप्तशदी आता था वह भी पुस्तक देखकर ... सत्यनारायण ‘भगवान की पोथी ...गृहप्रवेश ...वसंत पंचमी वगैरह वगैरह की पुस्तिका आस पास बाजार हाट जहाँ कहीं देखता उठा लाता़...सुनने में आया था...तीन चार हजार की कमाई होने लगी थ़ी... इज्जत भी मिलने लगी थ़ी...मगर फिर वही ...खुद से बड़ा उसका अहंकाऱ और क्रोध़...। पंडित को यजमान से कैसे शांतिपूर्ण व्यवहार करना चाहिए...यह बातें उसके प्रगति के रास्ते में बहुत बड़ा अवरोधक बन जाया करती ...ज्योतिष के रहस्यमय अथाह सागर में भी डुबकी लगाने की कोशिश किया गणित तो थोड़ा बहुत रट लिया मगर फलित के लिए उचित ज्ञान कहाँ... मगर उस गाँव में बचा ही कौन विद्वान था जो उसकी गलती को पकड़ पाता शायद समय भी नहीं था हाथ आए पंडित को नाराज करने का।

सुबह उठने के साथ नहा धोकर थोड़ा सा पूजा पाठ कर लेता। घंटा भर योगा के बाद एक लिटर गाय का दूध...बादाम... अंकुरित चना वगैरह का नाश्ता करने के पश्चात...सायकिल लेकर एक चक्कर खेत खलिहान बाग बागीचों का लगा लेता। बारह बजे तक उसके भोजन की व्यवस्था माँजी को करके रखनी पड़ती थी ‘जीभ का पतला ह़ै अरहर की दाल के अलावा किसी दाल में हाथ डालता ही नहीं ह़ैं...चार पाँच हरी सब्जी होनी ही चाहिए़...मलाई वाला दही उसे पसंद ह़ै...मछली तो बनाने की वजह से नहीं खाता़... माँजी तो छूती भी नह़ीं...अब तो पनीर गाँव की छोटी दुकान में भी बिकने लगा था तो भीमशंकर के लिए राहत की बात थी।

भीम शंकर के लाटसाहब बनने पर भी मौसी खुश नहीं थी...उनका वर्तमान जस का तस पड़ा था़ दो कमरे का घर जो दूर से खंडहर की तरह दिखता था़...अब तक अपना नसीब नहीं बदल पाया था। छोटा भाई गाँव में ही छोटी मोटी दलाली वगैरह करता़...अब भीम शंकर के तीन चार हजार से घर बनता या़ सत्तर अस्सी हजार का कर्ज जो बेटी के ब्याह का था चुकाया जाता।

मौसी अपने अत्यंत दीन हीन परिधान में आकर माँजी के सामने अपना रोना रोतीं "बौआ के कह़ी कत्तौ नौकरी लगा देतै। ’और दस पन्दरह दिन रहकर माँजी की अटैची में बहुओं की नई नई साड़ियाँ चादर... तौलिया भर भर कऱ अपने गाँव ले जाती पता नहीं क्या करती थी उनका मगर तीसरे चौथे महिने फिर अपने उन्हीं कपड़ों में हाजिर।

घर की बहु बेटियाँ भी समझने लगी थी मौसी की इस चालाकी को मगर सब चुप...आखिर बोले तो क्या और कैसे।

बड़ा बेटा जब भी माँजी का हाल चाल लेने के लिए फोन करता वह तुरत आह भरने लगती "हाल चाल की रहत़ै भीमबा के कत्तो नौकरी। ’

हार कर फरीदाबाद के एक कंपनी में सुपरवाईजर के रूप में काम लगवा दिया गया। अन्य भाईयों ने चेतावनी दी’ ‘अपना मुँह ठोर वश में रखना अपना क्रोध दिखाओगे तो यहाँ लोग पीस कर चटनी बना देंगे। ’

उधर भीमा के प्रस्थान और नौकरी से माँजी कुछ दिन तो शांत रहीं ब्रह्यस्थान जाकर लाल साटन का अँचरी भगवती को चढ़ा आई।

कभी कभार भीमशंकर बड़े भैया से मिलने आता तो माधवी उसे समझाती "अब मौसी का सपना साकार कीजिए़ साल भर के भीतर नहीं तो दो साल में घर बनवा लीजिए। ’ वह हाँ हूँ कह कर रह जाता। एकबार माधवी ने कहा था कि अपने माता पिता को तीर्थाटन करवा दीजिए ...कितना

दूआ देंगें आपको आखिर आप उन्हीं के बेटे हैं...। ’ उसने माधवी की बातें ऐसे सुनी थी मानो उनके घर आया था तो क्या करता। ’

उसके बाद से उसने वहाँ आना भी छोड़ दिया था। पति ने भी कहा "तुम्हें क्या पड़ी थी मोरल एडुकेशन देने की। ’माधवी को लगा था यह कहना नितांत गलत है कि सभी मनुष्य एक समान होते हैं शारीरिक तौर पर भले सही हो... मानसिक तौर पर तो कदापि नहीं। मस्तिष्क के दुर्दांत जंगल में कौन कहाँ भटक रहा ह़ै कितना खूंखार है क्या पता़। स्वाभिमान भी कोई चीज होती है मगर लालच के दलदल में सिर से पाँव तक सराबोर व्यक्ति के लिए कैसी नैतिकता और कैसा स्वाभिमान।

दबंग माँजी वहाँ गाँव में अकेले पन से बौखलाने लगी...बहुओं को फोन पर ही जली कटी सुनाने लगती ‘जेना हमरा छोड़ने छ़ी अहूँ सबके बेटा पुतौह अहिना छोड़ देत़। ’दुखी से मलिन चेहरा लिए माधवी पति से कहती

"आप बड़े हैं माँजी को देखना आपका ही फर्ज ह़ै। ’ये भी प्रतिदिन फोन पर बात कर लेते थे वो यहाँ आकर रहने के लिए तैयार नहीं और बहुए बच्चों की पढ़ाई लिखाई छोड़वा कर भला कैसे वहाँ रहत़ीं। एक उपाय यह भी सोच लिया गया कि पड़ोस की ही परशुराम बाबा की पोती को अपने साथ रख लेती और उसकी शादी ब्याह का खर्च दे दिया जाता़ मगर माँजी को उसकी दादी से पुरानी रंजिश की वजह से यह सार्थक नहीं हो पाया।

एक दिन सुबह सुबह फोन आया ...भीमशंकर को नौकरी से निकाल दिया गया...वह गाजियाबाद मँझले भाई के घर पहुँच गया था। कसम खाया बार बार मैने कोई फसाद नहीं किया था़... दो महिने बैठा रहा बड़े भैया ने मैंनेजमेंट से बात की वह फिर से रखने के लिए तैयार था़ मगर ये अड़ गए की अब वहाँ नौकरी करेंगे ही नहीं।

बड़ी

तेजी से ऐसी नौकरी ढूँढी जा रही थी जिसमें बुद्वि की जरा भी जरूरत न हो। उधर मँझले भैया उसके सामने लुभावने प्रस्ताव रख चुके थे ‘यदि तुम गाँव जाकर माँ के पास रहो और तुम्हें पाँच हजार महीना दिया जाए तो... ’उसके सूखे शरीर बुझी बुझी ऑखों में अजीब सी चमक आ गई थ़ी बिना इथ उथ के तैयार।

वहाँ गाव में जब माँजी को इस बात की खबर मिली वे बिना पानी की मछली की तरह छटपटा उठी थी। बड़े को फोन मिलाकर अपनी व्यथा कथा भाव विह्यवल हो कर कहने लगी कि अब इस बूढ़ी काया में इतनी शक्ति नहीं है कि उसके नाज नखरे उठाए। ‘बौआ रे हमरा एतेक काबू नै अछि जे नीक नुकुत बना क’ खुएब़ै...ओ लड़तै...जहर माहूर खेत़ै...भागतै के संभारत़ै। ’इधर भीमशंकर घर जाने के लिए एकदम अड़ा हुआ। माँजी को समझाया गया कुछ दिन में फिर उसे बुला लेंगे।

दूर पास के सूत्रों से पता चला कि अड़ोस पड़ोस से लड़कर आंगन में आकर मांजी से उनकी झूठी शिकायत करके उनके विचार को अपने पक्ष में मोड़ लेता था एक बार आम के फसल को बेचते समय...कमल कका उसके पास से गुजर रहे थ़े भीम का पीठ उनकी ओर था़ व्यापारी से कुछ पैसे लेकर चुपचाप अपने पाँकेट में रख रहा था़ उनको क्या पता क्या गोरखधंधा ह़ै हँसते हुए कहा ‘ मौसा के संपत्ति के आब तू ही देखभाल करै छ़ै। ’

बस ...चालाक भीम शंकर...नमक तेल मसाला मिला कर बात को खूब तीखा बनाकर माँजी के सामने परोसा़ ‘कका कह रहे थे आन गामक लोक आब एतय आबि क’ मालिक भ’ लूटि रहल छै संपत्ति। ’बस फिर क्या था माँजी ने दियाद पर अपना सारा क्रोध उतारते हुए आंगन से ही लक्षणा और व्यंजना के माध्यम से वो सब कहकर जो किसी भी खूनी क्रान्ति का कारण बन सकता था जता दिया कि भीमशंकर कोई गैर नहीं और उससे उलझने वालों की खैर नहीं...। बाद में पछताती जब वही ऑखें दिखाता था या और लोग अलग कहानी सुनाते।

इस बार की दिल्ली वापसी से सुना गया उसके स्वभाव में कुछ परिवर्तन आया था। माँजी बताती थी क्रोध समेटकर उनकी सेवा करने लगा था। भोजन भी खुद बना लेता बस सूत्र वाक्य की तरह एक ही रट़ "आब दिल्ली ऩै... अहि जगह रहि क’ कोनो काज करब। ’

शाम के सन्नाटे से डरती माँजी के लिए भी यह एक सुखद अनुभूति थी... स्वभाव भी सुधर गया ह़ै खाने के लिए कितना खायेगा...पास में एक आदमी तो भरोसे का है।

छठ के पुनीत अवसर पर जब माधवी गाँव आई तो उसने अपने दिव्य चक्षु से उस विशाल घर पर भीमशंकर का साम्राज्य स्थापित होते देख लिया था। गैस पर बड़ा बरतन चढ़ा कर कलछुल से हिला हिला कर दूध का राबड़ी बनाया जाता...जिसे भीमशंकर बड़े चाव से खाता़। शीशे के मर्त्तबान में रखे काजू किसमिस बादाम़ जो माँजी के पूजा पाठ व्रतादि फलाहारी के लिए रखा रहता था भीम़शंकर के लिए अलभ्य नहीं था़ बाहर जाते समय आलमारी खोलकर पसंदीदा मेवा निकाल कर अपने पैंट की जेबी में रख लेता... जब वह उसे चबाते हुए माधवी के सामने से निकलता तो उसका खून सौ डिग्री फारेनहाईट को पार कर जाता... मगर कर क्या सकती थी माँजी के करीब का आदमी...। खुद गुस्सा होने पर कह भी देती भाड़े का आदमी ह़ै कैसा रहेगा़। मगर ब्हुओं का एक शब्द भी बोलना उन्हें बरदाश्त नहीं था "अहा सब स बढ़िया़ छ़ै सेवा त’ करैय। ’हालाकि दिल्ली के एक काफी प्रतिष्ठित अस्पताल में बड़े बेटे ने ई लाज करवाना शुरू कर दिया था साल में तीन चक्कर वहाँ का लग ही जाता हवाई जहाज से कई बार लाया गया उन्हें बच्च़े बहु सभी दासोदास फिर भी उन्हें लगता सब अपने में मस्त है ओर उन्हें कोई पूछता नहीं। बेटियों से फोन पर बतें करती तब पता चलता यहाँ तो वे और भी जेल में बंद मह सूस करती हैं...और यही कड़ुआहट उनके व्यक्तित्व को और भी कर्कश कठोर बनाता जा रहा था।

किसी ग्रामीण को गाड़ी चलाते देखकर एक बार यह सपना भी उसके मस्तिष्क में जबरदस्त अंगड़ाई लेने लगा थी कि उसकी भी अपनी गाड़ी हो। रात दिन परेशा न...माँजी को भोला की गाड़ी के फायदे गिनवाता शादी ब्याह में भाड़े पर लगा कर अच्छी कमाई कर लेता ह़ै परिवार के लोगों को भी कहीं आना जाना हो तो अपनी गाड़ी की बात ही कुछ और होती है इज्जत प्रतिष्ठा भी समाज में बढ़ता ह़ै...। जब माँजी से बात नहीं बनी तब छोटे भाई को पकड़ा...छोटका अपने माहिऱ खिलाड़ी नहले पर दहला फेंकते हुए कहा था ‘पाँच लाख की गाड़ी......तुम्हारे जैसे क्रोधी...सिरफिरा के हवाले कर क्या मैं रोज र्कोट कचहरी करता हुआ जीवन बिताऊँगा़। ’ उस दिन से वो चुप... दाल कहीं गल नहीं रही...मेहनत करने की आदत नहीं... पूर्ण रूप से परजीवि...पर मुड़ी...फलाहार... मगर अहंकार की मारती हिलकोरे उसे किसी का मातहती करने के लिए राजी नहीं रहने देता।

‘वर्ल्ड बैंक के किसी प्रोजेक्ट के तहत... काफी सुपरवाईजरों की बहाली हो रही ह़ै बी ए चाहिए... नौ हजार र्स्टाटिंग में देगा... नौकरी के लिए बातचीत चल रही है...लोक सब लगे हैं। ’ दिल्ली से वापसी के बाद असंख्य प्रश्नवाचक चिन्हों से भरे ऑखों की शांति के लिए उसने यह बढ़िया सा फारमूला गढ़ लिया था...। महीने दो महिने लोगों ने इंतजार किया...माँजी भी आश्वस्त थी। । कि आस पास में नौकरी हो जाने से कम से कम उन्हें तो अकेलेपन का चुभती बबूल के काँटों जैसी जिन्दगी तो नहीं जीनी पड़ेगी...यहीं से अपना आयेगा जायेगा।

एक दिन दरवाजे पर जहाँ टोले की अन्य स्त्रियों के साथ माताजी दरबार लगाए बैठी थीं...अपनी सायकिल खड़ी करके जोर जोर से साँस खींचते हुए खड़ा हो गया था। पाकेट से रूमाल निकाल कर मुँह पोछते हुए बोला ‘नौकरी के लेल गप त’ भ’ गेलए़ ...कागज सेहो द देने रह़़ै गाम गाम जाकए काज देखके पड़त़ै...मोटरसायकिल एकदम जरूरी छै...आब हम कत्त सँ आनबै साठ सत्तर हजार एही लै मना करि देलियै ओ नौकरी के। ’ मन मसोसती हुई माँजी उसका मुँह देखती रह गई थी उन्हें उसके इस बात पर इक्ष्वाकू कुल की सत्यता नजर आई थी। ‘अच्छा भगवान कोनो और रास्ता देथिन्ह। ’कहकर उसे सांत्वना देती खाने पीने के इंतजाम में घर के अन्दर चली गई थी।

उन्हीं दिनों छोटे भैया किसी की शादी में शामिल होने के लिए गाँव आए़ ...भीमशंकर के नखरे आसमान से उतार कर खजूर में अटके पड़े थ़े..."जब तक नया कुरता पैजामा खरीद कर नहीं आयेगा बाजार स़े वह बारात में नहीं जायेगा़ आखिर उसकी भी कोई इज्जत है कि नह़ीं। औेर बारात में झक सफेद कुर्त्ता पैजामा पहनेवह दूर से ही झलक रहा था। छोटे भैया को भी उस दिन उसकी ये फरमाइश विलासिता लगने लगी थ़ी "मैं कमाता हूँ `फिर भी पुराने कपड़ों में ही बारात में गया...लेकिऩ...। ’मगर माँजी का सांय सांय करता अकेलापन ...... और उसका फायदा उठाता हुआ भीमशंकऱ...। इसीलिए सबने उधर से ऑखें बंद कर ली थ़ी...लेकिन भीतर ही भीतर सबकी परेशानी का सबब तो बनता ही जा रहा था।

कुछ दिनों से उसके एक और महत्वकांक्षी योजना अंगड़ाई लेने लगे थे दिन रात वह उसी को साकार करने में लगा रहता था। माँजी को भी लगा चलो इस बहाने तो यह हमारे करीब रहेगा। शहर के मकान से किराएदार निकाल दिया गया़ कुछ ठीक ठाक कराकर उसे ‘ विवाह भवन’ बना दिया गया। सुनने में आया कि काफी अच्छी कमाई होने लग़ी...अब पैसे का मालिक तो भीमशंकर ही था क्या पता माँजी को क्या देता था वे भी कभी खुलकर बताई नहीं।

छोटे भैया ने बाबूजी के दिन को याद करते हुए कहा जो उन्होंने माँ को बताई थ़ी "यह परजीवी किसी शहर महानगर में टिकने वाला नहीं हैं। इसी गाँव में...इसी घर में आकर दिन गुजारेगा य़े...। ’ जिस वक्त ये बातें हो रही थी भीम शंकर उस समय लैंड लाईन पर एस टी डी काँल कर रहा था। भाईयों का नाम लेकर न जाने किस किस से बातें करता रहता। माधवी के कान अतीत में चले गए थ़े...बाबूजी के समय जब दलान से अचानक वे आंगन में आते तो किसी भी बहु को फोन पर बातें करते हुए देख कर पूछ लेते थे ‘फोन एले यै कि जा रहल छ़ै। ’माताजी उनके परम मितव्ययी स्वभाव को जानते हुए बोल उठती थी "नैहर से एले है। ’ "हाँ वही बिल बहुत ज्यादा आ जाता है जरा होशियारी स़े। ’ बात को जानबूझ कर अधूरा छोड़कर चले जाते थ़े। और आज ...उन्हीं के तिनके तिनके जुटाए संपत्ति का धड़ल्ले से भीमशंकर प्रयोग कर रहा है।

छठ के बाद वापस शहर जाते हुए माधवी ने सोचा़ बड़े बड़े राजघराने तक पर परायों का आधिपत्य हो चुका है यह तो मामूली सा एक गृहस्थ परिवार ह़ै प्रकृति में कुछ भी चीज खाली नहीं रहती। हवा वहाँ विभिन्न रूपों में प्रवेश कर ही जाती है कभी आत्मा के रूप में कभी प्राणी के रूप में इसमें नई बात क्या । हाँ माँजी अकेली हैं यह बात अब उसे दिन रात व्यथित नहीं करेगा। और वह ट्रेन की बढ़ती हुई गति के साथ ही बर्थ पर लेट कर सोने की तैयारी करने लगी

14:6: 2012

COMMENTS

BLOGGER: 1
  1. बेनामी11:23 am

    kahani clear mahi hai,itna ghumane ki apeksha saral shabdo main likhna chahiye tha,......kathya spashat nahi hai.

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रचनाकार: कामिनी कामायनी की कहानी - विस्थापित
कामिनी कामायनी की कहानी - विस्थापित
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