"....शुद्ध एवं निखालिस हिन्दी की वकालत करने वाले उक्त लेख के तथाकथित विद्वान ने ‘क्लिनिक' के लिए ‘निदानिका', ‘हजार' के ...
"....शुद्ध एवं निखालिस हिन्दी की वकालत करने वाले उक्त लेख के तथाकथित विद्वान ने ‘क्लिनिक' के लिए ‘निदानिका', ‘हजार' के लिए ‘सहस्त्र', ‘चैरिटेबल हेल्थ सेंटर' के लिए ‘धर्मार्थ स्वास्थ केंद्र', ‘फैमिली ड्रामा' के लिए ‘पारिवारिक नाटकीय कथा', ‘मीडिया' के लिए ‘संचार माध्यम', ‘मास्टर प्लान' के लिए ‘महायोजना' तथा ‘डी. एम.' के लिए ‘जिलाधीश' का प्रयोग करने का फरमान जारी किया है। लेखक ने जिन शब्दों को अपनाए जाने का आग्रह किया है, उनमें सिद्धांत की दृष्टि से तो कोई दोष नहीं है क्योंकि कोई शब्द अपने में त्याज्य नहीं होता। मगर मुसीबत यह है कि जिन शब्दों के प्रयोग का आग्रह है, वे कम से कम उतने प्रचलित नहीं हैं जितने वे शब्द प्रचलित हैं जिनका बहिष्कार करने के लिए कहा गया है। जो समाज अपने व्यवहार में जिन शब्दों का प्रयोग करता है, वे शब्द उस समाज के लिए परिचित हो जाते हैं। चूँकि परिचित हो जाते हैं इस कारण उस समाज को वे शब्द सरल एवं सहज लगने लगते हैं। ‘शब्द' बाजार में चलने वाले सिक्के की तरह होता है। जो सिक्का बाजार में चलता है, वही सिक्का जाना पहचाना जाता है और उसी सिक्के का मूल्य होता है। भाषा की शुद्धता के नाम पर आन्दोलन चलाने के लिए उकसाने वाले विद्वानों में अपनी पुरातन संस्कृति के प्रति अगाध श्रद्धा हो सकती है मगर इससे यह भी साफ ज़ाहिर हो जाता है कि उनके पास भाषा की प्रवाहशील प्रकृति को पहचानने की दृष्टि का अभाव है..."
भाखा बहता नीर
प्रोफेसर महावीर सरन जैन
बोलचाल की सहज, रवानीदार एवं प्रवाहशील भाषा पाषाण खंडों में ठहरे हुए गंदले पानी की तरह नहीं होती, पाषाण खंडों के ऊपर से बहती हुई अजस्र धारा की तरह होती है। नदी की प्रकृति गतिमान होना है; भाषा की प्रकृति प्रवाहशील होना है। जिस अनुपात में जिन्दगी बदलती है, संस्कृति में परिवर्तन होता है, हमारी सोच तथा हमारी आवश्यकताएँ परिवर्तित होती हैं उसी अनुपात में शब्दावली भी बदलती है। यहाँ यह स्पष्ट करना आवश्यक प्रतीत होता है कि भाषा का अध्ययन समकालिक स्तर पर जिस ढंग से किया जाता है, उस ढंग से ऐतिहासिक स्तर पर नहीं किया जाता। समकालिक स्तर पर हम अपने जीवन में जिन शब्दों का व्यवहार करते हैं वे सभी शब्द हमारी भाषा के अपने होते हैं। जब हम ऐतिहासिक स्तर पर अध्ययन करते हैं तब विचार करते हैं कि हमारी भाषा में प्रयुक्त होने वाले शब्दों में से कौन कौन से शब्द आगत हैं; अन्य भाषाओं से उधार के हैं।
संसार की प्रत्येक प्रवाहशील भाषा में परिवर्तन होता है। संस्कृत भाषा के भारत के विभिन्न भागों एवं विभिन्न सामाजिक समुदायों में व्यवहार एवं प्रसार के कारण दो बातें घटित हुईं। संस्कृत ने भारत के प्रत्येक क्षेत्र की भाषा को तो प्रभावित किया ही और इस तथ्य से सब सुपरिचित हैं, सम्प्रति मैं यह प्रतिपादित करना चाहता हूँ कि संस्कृत भी अन्य भाषाओं से प्रभावित हुई। संस्कृत में ‘आर्य भाषा क्षेत्र' की संस्कृतेतर जन भाषाओं एवं आर्येतर भाषाओं से शब्दों को ग्रहण कर उन्हें संस्कृत की प्रकृति के अनुरूप ढालने की प्रवृत्ति का विकास हुआ। इसके कारण एक ओर जहाँ संस्कृत का शब्द भंडार अत्यंत विशाल हो गया, वहीं आगत शब्द संस्कृत की प्रकृति के अनुरूप ढलते चले गए। भारतीय संस्कृति का गहन अध्ययन करने वाले विद्वानों का मत है कि संस्कृत वाङ्मय की अभिव्यक्ति में दक्षिणात्य कवियों, चिन्तकों, दार्शनिकों एवं कलाकारों का अत्यंत महत्वपूर्ण योगदान है (रामधारी सिंह ‘दिनकर' ः संस्कृति के चार अध्याय, पृ0 44-47)।
संस्कृत भाषा में अधिकांश शब्दों के जितने पर्याय रूप मिलते हैं उतने संसार की किसी अन्य भाषा में मिलना विरल है। ‘हलायुध कोश' में स्वर्ग के 12, देव के 21, ब्रह्मा के 20, शिव के 45, विष्णु के 56 पर्याय मिलते हैं। इसका मूल कारण यह है कि संस्कृत भाषा का जिन क्षेत्रों में प्रचार-प्रसार एवं प्रयोग - व्यवहार हुआ, उन क्षेत्रों की भाषाओं के शब्द संस्कृत में आते चले गए। पादरी कोल्डवेल ने संस्कृत में आगत ऐसे शब्दों की सूची प्रस्तुत की है जो मूलतः द्रविड़ परिवार की भाषाओं के हैं। उदाहरणार्थ - अक्का (माता के अर्थ में) / अत्ता (बड़ी बहन के अर्थ में) / अटवी (जंगल)/ अणि (पहिए की धुरी) / अम्बा (माता) / अलि (सखि) / कटुक घ् कटु (कड़वी रुचि) / कला (व्यावहारिक कौशल) / कावेरी (नदी का नाम) / कुटी (झोंपड़ी) / कुणि (अपंग /जिसके हाथ में खोट हो)/कुल (तालाब)/ कोट (किला)/खट्वा (खाट) / नाना (विविध)/ नीर (जल)/ पट्टण (नगर)/ पन्ना घ् पन्नो (सोना) /पल्ली (नगर या ग्राम)/ भाग/(हिस्सा)/मीन (मछली)/वलक्ष (श्वेत, सफेद)/वला (घिराव)/वलय (घिरे रहना, गोलाकार) / वल्गु (सुन्दर)/वल्गुक (चंदन की लकड़ी)/शव (प्रेत)/ शाव (शव से सम्बन्धित)/ सूक्ति (छल्ला, कुंडल)/ साय (सायंकाल, शाम)/'' ;राबर्ट काल्डवेल ः ए कम्पेरेटिव ग्रामर ऑफ् द द्रविडियन ऑर साउथ इंडियन फेमिली ऑफ् लेंग्वैजिज़, पृ. 567.575 ;1961
इस सूची के अतिरिक्त पादरी काल्डवेल ने एक और सूची डॉ गुण्डर्ट की सूची के आधार पर प्रस्तुत की है जिन्हें काल्डवेल द्रविड़ भाषाओं के प्रकाण्ड विद्वान मानते थे। सूची इस प्रकार हैः
‘‘उरूण्ड़ा (गोल - एक राक्षस का नाम) ध् एडा घ् एडका (भेड़)/करबाल झ करवाल (तलवार)/कर्नाटक (कर =काला, नाट=देश घ् भीतर का देश जो अपने में घना और काला है-काली मिट्टी का देश) ध् कुण्ड (रन्ध्र-विवर)/कुक्कुर (कुत्ता)/कोकिला (कोयल)/घोट (घोड़ा)/चम्पक (फूल का नाम)/नारंग (संतरा-फल का नाम)/पिट= पिटक (एक बड़ा टोकरा, डलिया)। पुत्र (लड़का, संतान)/पुन्नाग (सोना)/पेटा (टोकरा)/ पलम (फल) /मरुत्त (ओझा, अभिचारक)/ मर्कट (बन्दर)/मुक्ता (मोती)/ बील ( भील, धनुष चलाने वाले)/विरल (खुले हुए)/हेम्ब (भैंस)/ शुंगवेर (अदरख)।'';वही, पृण् 577.578)
काल्डवेल ने श्री किट्टेल के अगस्त, 1872 में प्रकाशित इंडियन एन्टीक्वेरी के अंक में ष्द द्रविडियन एलिमेंट इन संस्कृत डिक्शनरीज़ शीर्षक लेख में प्रस्तुत ‘अ' एवं ‘आ' वर्णां से आरम्भ होने वाले निम्नलिखित शब्दों को उद्घृत किया है ः
‘‘अट्टा (ऊपर की अटारी)/ अट्टा (उबले हुए चावल, खाद्य) / अट्टा-हट्टा (बाजार, हाट) / आम (हाँ)/ अर कुटा (पीतल, मिश्रधातु) / आट - आड (खेल की प्रवृत्ति, किसी से खेलना ')/ आलि (खाई, नाली) ।'
कुछ और शब्द देखें - पालना (पालू का अर्थ दूध उससे बना रूप) / वल्ली (बेल, जो वलयित होती है) / मुकुर - मुकुल (कलिका, कली) / कुट (मिट्टी का पात्र) / कुठार (कुल्हाड़ी) कड़ी (द्रविड़ रूप)। ;वही, पृण् 578.579)
जिस प्रकार संस्कृत एवं द्रविड़ परिवार की भाषाओं के बीच आदान-प्रदान हुआ, उसी प्रकार की प्रक्रिया संस्कृत एवं तिब्बत-चीनी परिवार तथा आग्नेय / आस्ट्रिक / मुंडा परिवार की भारतीय भाषाओं में निष्पन्न हुई। संस्कृत वाड्.मय में आग्नेय अथवा आस्ट्रिक परिवार की भाषाओं के बोलने वालों को निषाद (परवर्ती काल में कोल एवं मुंडा) तथा तिब्बत-चीनी परिवार की भाषाओं के बोलने वालों को किरात कहा गया है। विद्वानों का अनुमान है कि आग्नेय भाषाओं के अनेक शब्दों का संस्कृत में आगमन हुआ है। वनस्पति एवं वन जन्तु सम्बन्धी संस्कृत के अनेक शब्दों की व्युत्पत्ति आस्ट्रिक परिवार की भाषाओं से मानी जाती है। जाँ प्रचिलुस्की ने ऋग्वेद में प्रयुक्त ऐसे अनेक शब्दों की सूची दी है जो मुंडा उपपरिवार की भाषाओं के हैं। उदाहरणार्थ- लाड्.गल (हल / हल की शक्ल का शहतीर) / वार (घोड़े के गर्दन की भौंरी ;प्री.आर्यन एण्ड प्री.द्रविडियन, पृण् 91)
डॉ0 हरिमोहन मिश्र ने भी एक लेख में इस विषय पर प्रकाश डाला है। ‘ऋग्वेद का शाल्मलि (सेमल का वृक्ष 10/85/20) और शिम्बल (सेमल का फूल 3/53/22) मुंडा भाषा के शब्द माने जाते हैं। .......... यही हाल मयूर (ऋृक0 1/191/14) का है।' (डॉ0 हरिमोहन मिश्र ः ऋग्वेदीय भारत की भाषा-स्थिति, परिषद् पत्रिका, वर्ष 8, अंक 3-4, पृ0 52)
आग्नेय परिवार की भाषाओं का सर्वाधिक प्रभाव तिब्बत-चीनी परिवार की भारतीय भाषाओं पर पड़ा है। बी0एच0 हाउसन की मान्यता है कि भारत और तिब्बत के सीमावर्ती हिमालय में बोली जानेवाली तिब्बती-हिमालयी भाषाओं के व्याकरण, वाक्य रचना और शब्दावली पर मुंडा भाषाओं का गहरा प्रभाव पड़ा है।
तिब्बत-चीनी परिवार की भारतीय भाषाओं के बोलने वाले किरातों का उल्लेख यजुर्वेद और अथर्ववेद में मिलता है। तिब्बत-बर्मी उपपरिवार की भारतीय भाषाओं के कुलों (हिमालयी, तिब्बती, बोदो, नगा, कुकिचिन, बर्मी) की आधुनिक भारतीय भाषाओं के अध्ययन से इस दिशा में विचार किया जा सकता है कि किरात भाषाओं के किन-किन शब्दों को संस्कृत ने आत्मसात किया। (उदाहरणार्थ, मिज़ो के ‘चव', लिम्बु के ‘चाचा', त्रिपुरी के ‘चामुँ' एवं ‘चाअ', रियांग एवं नोक्ते के ‘चाम' आदि शब्दों की पुनर्रचना द्वारा निर्मित शब्द की तुलना संस्कृत की ‘चम्' धातु से की जा सकती है।( खाने-पीने के अर्थ में चम् धातु (भ्वा0 पर- चमति, चान्त) 1. पीना, आचमन करना, चढ़ा जाना, 2. खाना, आ-, (आ-चामति) 1. आचमन करना, एक साँस में पी जाना, चाटना)।
संस्कृत में केवल नाम शब्द ही नहीं अपितु कुछ ऐसे धातु रूपों का प्रयोग भी हुआ है जिनका उल्लेख पाणिनी की अष्टाध्यायी में नहीं हुआ है। अनुमान है कि ये धातु रूप आर्येतर भाषाओं से संस्कृत में आगत हुए। इस सम्बन्ध में विद्वानों से गहन अध्ययन करने की अपेक्षा है।
पालि, प्राकृत एवं अपभ्रंश भाषाओं के गहन अध्ययन से इस दिशा में संकेत प्राप्त होते हैं कि जहाँ इन भाषाओं ने आर्येत्तर भाषाओं को प्रभावित किया है वहीं इन भाषाओं पर द्रविड़, आग्नेय (मानख्मेर एवं मुंडा) एवं तिब्बत-बर्मी (किरात) परिवार/ उपपरिवार की भाषाओं का प्रभाव पड़ा है। यह प्रभाव शब्दावली एवं ध्वनि व्यवस्था के स्तरों पर तो है ही क्रिया एवं क्रिया -विशेषण की संरचना के स्तर पर भी है। द्रविड़ परिवार की भाषाओं ने आर्य परिवार की भाषाओं की क्रिया वाक्यांशों की संरचना को प्रभावित किया है। इस दिशा में विद्वानों का ध्यान आकृष्ट हुआ हैं। परस्पर प्रभाव का मूल कारण पालि भाषा का तथा बाद में शौरसेनी प्राकृत ध् शौरसेनी अपभ्रंश का अखिल भारतीय स्तर पर प्रतिष्ठित होना / सम्पर्क भाषा बनना था। भारत के विभिन्न भागों एवं विभिन्न सामाजिक समुदायों में व्यवहार एवं प्रसार के कारण जिस प्रकार संस्कृत भाषा ने एक ओर भारत के प्रत्येक क्षेत्र की भाषा को प्रभावित किया तथा दूसरी ओर स्वयं भी भारत की अन्य भाषाओं से प्रभावित हुई उसी प्रकार पालि तथा बाद में शौरसेनी प्राकृत ध् शौरसेनी अपभ्रंश ने भी एक ओर भारत के प्रत्येक क्षेत्र की भाषा को प्रभावित किया तथा ओर स्वयं भी भारत की अन्य भाषाओं से प्रभावित हुईं।
अपभ्रंश के परवर्ती युग की ‘अवहट्ठ' में अनेक ऐसे संज्ञा पद, क्रिया विशेषण, विशेषण तथा क्रियापद मिलते हैं, जिनका स्रोत आर्येत्तर है। यथा वर/ वड (मूर्ख) / चिखिल्ल (कीचड़ भरा) / बब्ब (गूँगा) / बड्ड (बड़ा) / खोज्ज (खोजना) / वुड (डूबना)।
इस्लाम के कारण तुर्की -अरबी-फारसी से आगत शब्दों ने भारत की सभी भाषाओं को प्रभावित किया, हिन्दी को तो किया ही। इस संदर्भ में हम यह स्पष्ट करना चाहेंगे कि हिन्दुस्तान में एक ही देश, एक ही जुबान तथा एक ही जाति के मुसलमान नहीं आए। सबसे पहले यहाँ अरब लोग आए। अरब सौदागर, फ़कीर, दरवेश सातवीं शताब्दी से यहाँ आने आरम्भ हो गए थे तथा आठवीं शताब्दी (711-713 ई. ) में अरब लोगों ने सिन्ध एवं मुलतान पर कब्जा कर लिया था। इसके बाद तुर्की के तुर्क तथा अफ़गानिस्तान के पठान लोगों ने आक्रमण किया तथा यहाँ शासन किया। शहाबुद्दीन गौरी (1175-1206) के आक्रमण से लेकर गुलामवंश (1206-1290), खिलजीवंश (1290-1320), तुगलक वंश (1320-1412), सैयद वंश (1414-1451) तथा लोदीवंश (1451-1526) के शासनकाल तक हिन्दुस्तान में तुर्क एवं पठान जाति के लोग आए तथा तुर्की एवं पश्तो भाषाओं तथा तुर्क-कल्चर तथा पश्तो-कल्चर का प्रभाव पड़ा।
मुगल वंश की नींव डालने वाले बाबर का संबंध मंगोल जाति से कहा जाता है। बाबर ने अपने को मंगोल बादशाह ‘चंगेज़ खाँ' का वंशज कहा है। यह भी सही है कि मंगोल का ही रूप ‘मुगल' हो गया। मगर इस सम्बंध में यह भी द्रष्टव्य है कि बाबर का जन्म मध्य एशिया क्षेत्र के अंतर्गत फरगाना में हुआ था। मंगोल एवं तुर्की दोनों जातियों का वंशज बाबर वहीं की एक छोटी सी रियासत का मालिक था। उज़्बेक लोगों के द्वारा खदेड़े जाने के बाद बाबर ने अफ़गानिस्तान पर कब्जा किया तथा बाद में 1526 ई. में भारत पर आक्रमण किया। बाबर की सेना में मध्य एशिया के उज्बे़क एवं ताज़िक जातियों के लोग थे तथा अफ़गानिस्तान के पठान लोग थे।
बाबर का उत्तराधिकारी हुमायूँ जब अफ़गान नेता शेरखाँ (बादशाह शेरशाह) से युद्ध में पराजित हो गया तो उसने 1540 ई. में ‘ईरान' में जाकर शरण ली। 15 वर्षों के बाद 1555 ई. में हुमायूँ ने भारत पर पुनः आक्रमण कर अपना खोया हुआ राज्य प्राप्त किया। 15 वर्षों तक ईरान में रहने के कारण उसके साथ ईरानी दरबारी सामन्त एवं सिपहसालार भारत आए। हुमायूँ, अकबर, जहाँगीर, शाहजहाँ, औरंगजेब आदि मुगल बादशाह यद्यपि ईरानी जाति के नहीं थे, ‘मुगल' थे (तत्वतः मंगोल एवं तुर्की जातियों के रक्त मिश्रण के वंशधर) फिर भी इन सबके दरबार की भाषा फारसी थी तथा इनके शासनकाल में पर्शियन कल्चर का हिन्दुस्तान की कल्चर पर अधिक प्रभाव पड़ा। इस प्रकार जिसे सामान्य व्यक्ति एवं बहुत से विद्वान लोग भारत की संस्कृति पर इस्लाम संस्कृति का प्रभाव कहते हैं या समझते हैं वह इस्लाम धर्म को मानने वाली विभिन्न जातियों की संस्कृतियों के प्रभाव के लिए अंग्रेजों द्वारा दिया हुए एक नाम है, लफ़ज़ है। अरबी, तुर्की, उज़्बेकी, ताज़िकी, अफगानी या पठानी, पर्शियन या ईरानी अनेक जातियों की भाषाओं एवं संस्कृतियों का हमारी भाषाओं पर तथा हिन्दुस्तान की कल्चर पर प्रभाव पड़ा है।
जीवन के जिस क्षेत्र में हमने संस्कृति के जिस तत्व को ग्रहण किया तो उसके वाचक शब्द को भी अपना लिया। तुर्की से कालीन (क़ालीन) और गलीचा (ग़ालीचः), अरबी से कुर्सी तथा फ़ारसी से मेज़, तख्त (तख़्त) तथा तख़ता शब्द आए। फ़ारसी से जाम तथा अरबी से सुराही तथा साकी (साक़ी) शब्दों का आदान हुआ। कंगूरा (फ़ारसी-कंगूरः), गुंबद, बुर्जी (अरबी-बुर्ज) तथा मीनार आदि शब्दों का चलन हमारी स्थापत्यकला पर अरबी-फारसी कल्चर के प्रभाव को बताता है। कव्वाली (फ़ारसी-क़व्वाली), गजल (अरबी -ग़ज़ल) तथा रुबाई शब्दों से हम सब परिचित हैं क्योंकि उत्तर भारत में कव्वाल लोग कव्वाली गाते हैं तथा अन्य संगीतज्ञ गजल एवं रुबाई पढ़ते हैं। जब भारत के वातावरण में शहनाई गूँजने लगी ते अरबी शब्द ‘शहनाई' भी बोला जाने लगा। मृदंग और पखावज के स्थान पर जब संगत करने के लिए तबले का प्रयोग बढ़ा तो तबला (अरबी-तब्लः) शब्द हमारी भाषाओं का अंग बन गया। धोती एवं उत्तरीय के स्थान पर जब पहनावा बदला तो कमीज (अरबी-क़मीस, तुर्की-कमाश), पाजामा (फ़ारसी-पाजामः), चादर, दस्ताना (फ़ारसी-दस्तानः), मोजा (फ़ारसी - मोजः) शब्द प्रचलित हो गए।
जब क़ाबुल और कंधार (़अफ़गानिस्तान) तथा बुख़ारा एवं समरकंद प्रदेश (उज़्बेकिस्तान) से भारत में मेवों तथा फलों का आयात बढ़ा तो भारत की भाषाओं में अंजीर, किशमिश, पिस्ता, बादाम, मुनक्का आदि मेवों तथा आलू बुखारा, खरबूजा, खुबानी (फ़ारसी-ख़ूबानी), तरबूज, नाशपाती, सेब आदि फलों के नाम- शब्द भी आ गए। मुस्लिम-शासन के दौरान मध्य एशिया और ईरानी अमीरों के रीतिरिवाजों के अनुकरण पर भारत के सामन्त भी बड़ी-बड़ी दावतें देने लगे थे। यहाँ की दावतों में गुलाबजामुन, गज्जक, बर्फी, बालूशाही, हलवा-जैसी मिठाइयाँ परोसी जाने लगीं। खाने के साथ अचार का तथा पान के साथ गुलकंद का प्रयोग होने लगा। गर्मियों में शरबत, मुरब्बा, कुल्फी का प्रचलन हो गया। निरामिष में पुलाव तथा सामिष में कबाब एवं कीमा दावत के अभिन्न अंग बन गए । श्रृंगार-प्रसाधन तथा मनोरंजन के नए उपादान आए तो उनके साथ उनके शब्द भी आए । खस का इत्र, साबुन, खिजाब, सुर्मा, ताश आदि शब्दों का प्रयोग इसका प्रमाण है। कागज़, कागज़ात, कागज़ी - जैसे अरबी शब्दों से यह संकेत मिलता है कि संभवतः अरब के लोगों ने भारत में कागज बनाने का प्रचार किया। मीनाकारी, नक्काशी, रसीदाकारी, रफूगीरी - जैसे शब्दों से कला-कौशल के क्षेत्र में शब्दों से जुड़ी जुबानों की कल्चर के प्रभाव की जानकारी मिलती है।
इसी प्रकार जब अंग्रेजी सभ्यता एवं संस्कृति ने हमारी जिन्दगी में बदलाव किया तो हमारी हिन्दी में भी अंग्रेजी के शब्दों ने आसन जमा लिया। आज की जिन्दगी में अंग्रेजी शब्दों का प्रयोग निरन्तर बढ़ता जा रहा है। ‘ऑफिस' जानेवाला आम आदमी रात को सोने से पहले ‘अलार्म' लगाता है। सबेरे ‘ब्रुश' पर ‘पेस्ट' लगाकर ‘टूथ ब्रश' करता है, ‘लैदर क्रीम' लगाकर ‘रेज़र' से ‘शेव' करता है, ‘सोप' एवं ‘शैम्पू' से नहाता है, ‘हेयर ऑयल' लगाकर अपने बाल बनाता है, ‘अंडरवियर', ‘शर्ट', ‘पैंट' तथा जाड़ों में ‘पुलओवर', ‘ कोट', ‘सूट', ‘ओवरकोट' पहनकर ‘साइकिल'/ ‘बस'/ ‘लोकल ट्रेन' से अपने ऑफिस जाता है। ‘साहब' भी अपने ऑफिस जाते हुए यह सब करता है, यह बात अलग है कि वह ‘शर्ट' पर ‘टाई' भी लगाता है, ‘शर्ट' का ‘कॉलर' ठीक करता है, ‘शू' / ‘बूट' पहनकर ‘चेयर' पर बैठकर ‘टैबिल' पर लगा ‘ब्रेकफास्ट' कर अपनी ‘कार' से अपने ऑफिस जाता है। मध्यम स्तर के परिवारों में ‘चेयर',‘टेबिल',‘सोफासेट',‘टेलिफोन', ‘मोबाइल',‘टी ़ वी ़', ‘वाशिंग मशीन' आदि सामानों / उपकरणों का प्रयोग आम हो गया है। कम्प्यूटर पर काम करने वाले व्यक्ति अटैचमेन्ट, इन्टरनेट, ई - कॉमर्स, एक्सप्लोरर, एड्रेस वार, एन्टीवायरस, कन्टेंट, कम्प्यूटर, कॉपी, टाइप, टेक्स्ट, टैग, ट्रान्सफर, डाउनलोड, डाक्यूमेंट, डाटा, नोटपेड, प्रोग्राम, फाइल, फ़ार्मेट, ब्राउसर, मेमोरी, मेल, मोडेम, ब्राउसर, यूजर, लिंक, वर्ल्ड वाइड वेब, वेब, वेब साइट, वेब साइट पेज, सर्फिंग, सर्वर, साइट, साफ्टवेयर, होमपेज़ आदि शब्दों का धड़ल्ले से प्रयोग करते हैं। इन शब्दों से हमारी अपेक्षा आज की युवा पीढ़ी अधिक परिचित है, अधिक अभ्यस्त है।
जब हमारी संतानें तथा संतानों की संतानें कॉन्वेंट स्कूलों में पढ़ेंगी तो स्वाभाविक हैं, अंग्रेजी बोलेंगी और हिन्दी में अंग्रेजी शब्दों का प्रयोग करेंगी। जिस अनुपात में अंग्रेजी शब्दों का चलन बढ़ता जाएगा उसी अनुपात में हमारी भाषा में भी उनका प्रयोग बढ़ता जाएगा।
ऐसा नहीं है कि केवल हिन्दी एवं अन्य भारतीय भाषाओं में ही अंग्रेजी के शब्दों का प्रयोग होता है और अंग्रेजी बिल्कुल अछूती है। अंग्रेजी में संसार की उन सभी भाषाओं के शब्द प्रयुक्त होते हैं जिन भाषाओं के बोलने वालों से अंग्रेजों का सामाजिक सम्पर्क हुआ। चूँकि अंग्रेजों का भारतीय समाज से सम्पर्क हुआ, इस कारण अंग्रेजी ने भी हिन्दी एवं अन्य भारतीय भाषाओं के शब्दों का आदान किया है। यदि ब्रिटेन में इंडियन रेस्तरॉ में अंग्रेज समोसा, इडली, डोसा, भेलपुरी खायेंगे, खाने में ‘करी', ‘भुना आलू' एवं ‘रायता' मागेंगे तो उन्हें उनके वाचक शब्दों का प्रयोग करना पड़ेगा। यदि भारत का ‘योग' करेंगे तो उसके वाचक शब्द का भी प्रयोग करेंगे, भले ही वे उसको अपनी भाषा में ‘योगा' बना लें जैसे हमने ‘हॉस्पिटल' को ‘अस्पताल' बना लिया। जिन अंग्रेजों ने भारतविद्या एवं धर्मशास्त्र का अध्ययन किया है उनकी भाषा में अवतार, अहिंसा, कर्म, गुरु, तंत्र, देवी, नारद, निर्वाण, पंडित, ब्राह्मन, बुद्ध, भक्ति,भगवान, भजन, मंत्र, महात्मा, महायान, माया, मोक्ष, यति, वेद, शक्ति, शिव, संघ, समाधि, संसार, संस्कृत, साधू, सिद्ध, सिंह, सूत्र, स्तूप, स्वामी, स्वास्तिक, हनुमान, हरि, हिमालय आदि शब्दों का प्रयोग हुआ है। भारत में रहकर जिन अंग्रेजों ने पत्र, संस्मरण, रिपोर्ट, लेख आदि लिखे उनकी रचनाओं में तथा वर्तमान इंगलिश डिक्शनरी में अड्डा, इज्जत, कबाब, कोरा, कौड़ी, खाकी, खाट, घी, चक्कर, चटनी, चड्डी, चमचा, चिट, चोटी, छोटू, जंगल, ठग, तमाशा, तोला, धतूरा, धाबा, धोती, नबाब, नमस्ते, नीम, पंडित, परदा, पायजामा, बदमाश, बाजार, बासमती, बिंदी, बीड़ी, बेटा, भाँग, महाराजा, महारानी, मित्र, मैदान, राग, राजा, रानी, रुपया, लाख, लाट, लाठी चार्ज, लूट, विलायती, वीणा, शाबास, सरदार, सति, सत्याग्रह, सारी(साड़ी), सिख, हवाला एवं हूकाह(हुक्का) जैसे शब्दों को पहचाना जा सकता है। डॉ ़ मुल्क राज आनन्द ने सन् 1972 में ‘पिज़िन-इंडियन ः सम नोट्स ऑन इंडियन-इंगलिश राइटिंग' में यह प्रतिपादित किया था कि ऑक्सफोर्ड इंगलिश डिक्शनरी में 900 से अधिक भारतीय भाषाओं के शब्द हैं तथा इनकी संख्या हर साल बढ़ती जा रही है।
(देखें - आस्पेक्ट्स ऑफ् इंडियन राइटिंग इन इंगलिश, सम्पादकः एम ़ के ़ नाइक, मद्रास, पृ ़24-44,(1979))
सन् 2012 में ऑक्सफोर्ड इंगलिश डिक्शनरी के अधिकारी की प्रेस रिलीज़ हुई जिसमें उनका वक्तव्य था कि इस साल डिक्शनरी में विदेशी भाषाओं के करीब दो हजार शब्द सम्मिलित किए गए हैं और उनमें से करीब दो सौ शब्द भारतीय भाषाओं से आगत हैं।
कुछ विद्वान सवाल उठाते हैं कि क्या नदी की धारा को अनियंत्रित, अमर्यादित एवं बेलगाम हो जाने दें। नदी की धारा अपने तटों के द्वारा मर्यादित रहती है। भाषा अपने व्याकरण की व्यवस्था एवं संरचना के तटों के द्वारा मर्यादित रहती है। भाषा में बदलाव एवं ठहराव दोनों साथ साथ रहते हैं। ‘शब्दावली' गतिशील एवं परिवर्तनशील है। व्याकरण भाषा को ठहराव प्रदान करता है। ऐसा नहीं है कि ‘व्याकरण' कभी बदलता नहीं है। बदलता है मगर बदलाव की रफ़्तार बहुत धीमी होती है। ‘शब्द' आते जाते रहते हैं। हम विदेशी अथवा अन्य भाषा से शब्द तो आसानी से ले लेते हैं मगर उनको अपनी भाषा की प्रकृति के अनुरूप ढाल लेते हैं। ‘शब्द' को अपनी भाषा के व्याकरण की पद रचना के अनुरूप विभक्ति एवं परसर्ग लगाकर अपना बना लेते हैं। हम यह नहीं कहते कि मैंने चार ‘फिल्म्स' देखीं; हम कहते हैं कि मैंने चार फिल्में देखीं।
हिन्दी में कुछ शुद्धतावादी विद्वान हैं जो ‘भाषिक शुद्धता' के लिए बहुत परेशान, चिन्तित एवं उद्वेलित रहते हैं और इस सम्बंध में आए दिन, गाहे बगाहे लेख लिखते रहते हैं। इस दृष्टि से मैं दो लेखों के बारे में अपनी टिप्पणी देना चाहता हूँ।
पहला लेख सातवें विश्व हिन्दी सम्मेलन के अवसर पर भारतीय सांस्कृतिक सम्बंध परिषद द्वारा प्रकाशित ‘स्मारिका' (2003) में ‘भाषा, संस्कृति और सामंजस्य' शीर्षक से संकलित है। इसके लेखक ने हिन्दी में प्रयुक्त फारसी एवं अंग्रेजी शब्दों के स्थान पर संस्कृत शब्दों को अपनाने की पुरज़ोर वकालत की है तथा प्रयुक्त फारसी-अंग्रेजी शब्दों को प्रकारान्तर से ऐसे ‘मल' की संज्ञा दी है जो ‘हमारी भाषा और संस्कृति की गंगा को गंदा नाला बना देता है'।
शुद्ध एवं निखालिस हिन्दी की वकालत करने वाले उक्त लेख के तथाकथित विद्वान ने ‘क्लिनिक' के लिए ‘निदानिका', ‘हजार' के लिए ‘सहस्त्र', ‘चैरिटेबल हेल्थ सेंटर' के लिए ‘धर्मार्थ स्वास्थ केंद्र', ‘फैमिली ड्रामा' के लिए ‘पारिवारिक नाटकीय कथा', ‘मीडिया' के लिए ‘संचार माध्यम', ‘मास्टर प्लान' के लिए ‘महायोजना' तथा ‘डी. एम.' के लिए ‘जिलाधीश' का प्रयोग करने का फरमान जारी किया है। लेखक ने जिन शब्दों को अपनाए जाने का आग्रह किया है, उनमें सिद्धांत की दृष्टि से तो कोई दोष नहीं है क्योंकि कोई शब्द अपने में त्याज्य नहीं होता। मगर मुसीबत यह है कि जिन शब्दों के प्रयोग का आग्रह है, वे कम से कम उतने प्रचलित नहीं हैं जितने वे शब्द प्रचलित हैं जिनका बहिष्कार करने के लिए कहा गया है। जो समाज अपने व्यवहार में जिन शब्दों का प्रयोग करता है, वे शब्द उस समाज के लिए परिचित हो जाते हैं। चूँकि परिचित हो जाते हैं इस कारण उस समाज को वे शब्द सरल एवं सहज लगने लगते हैं। ‘शब्द' बाजार में चलने वाले सिक्के की तरह होता है। जो सिक्का बाजार में चलता है, वही सिक्का जाना पहचाना जाता है और उसी सिक्के का मूल्य होता है। भाषा की शुद्धता के नाम पर आन्दोलन चलाने के लिए उकसाने वाले विद्वानों में अपनी पुरातन संस्कृति के प्रति अगाध श्रद्धा हो सकती है मगर इससे यह भी साफ ज़ाहिर हो जाता है कि उनके पास भाषा की प्रवाहशील प्रकृति को पहचानने की दृष्टि का अभाव है। इसी संदर्भ में, मैं यह जोर देकर कहना चाहूँगा कि विदेशी भाषाओं से आगत जो शब्द आम आदमी की रोजमर्रा की जिंदगी में रच बस जाते हैं, घुलमिल जाते हैं; वे ‘ऐसा मल, हमारी भाषा और संस्कृति की गंगा को गंदा नाला बनाता है' की श्रेणी में नहीं रखे जा सकते। ऐसे शब्द हमारी गंगा की मूल स्रोत भागीरथी में आकर मिलने वाली अलकनंदा, धौली गंगा, नंदाकिनी, पिंडर और मंदाकिनी धाराओं की श्रेणी में आते हैं।
दूसरा लेख दैनिक समाचार पत्र ‘अमर उजाला' के दिनांक 14 अक्तूबर,2012 के अंक में ‘हमारी फिल्मों में यह कैसी हिन्दी है' शीर्षक से प्रकाशित हुआ है। इसके लेखक ने समकालीन फिल्मों की हिन्दी भाषा के प्रयोग के सम्बंध में निम्नलिखित टीका-टिप्पणियाँ की हैः
1 ़ हिन्दी प्रदेश में आज हम जो हिन्दी बोलते हैं, पचास साल पहले उसका अस्तित्व नहीं था।
2 ़ भाषा में अंग्रेजी शब्दों का इतना प्रयोग हो रहा है जिससे हमारा मातृभाषा से दुराव आज बढ़ता ही जा रहा है।
3 ़ फिल्मों में शुद्ध हिन्दी के प्रयोग के लिए आन्दोलन चलाया जाना चाहिए।
4 ़पिछले साल करीब 210 फिल्में बनीं लेकिन उनमें से एक भी ऐसी नहीं थी, जिसकी भाषा प्रेमचंद से मिलती जुलती हो। प्रेमचन्द की भाषा के अनुरूप हिन्दी फिल्मों की भाषा को ढाला जाना चाहिए और इसके लिए आन्दोलन चलाया जाना चाहिए।
5 ़ सिनेमा में शास्त्रीय हिन्दी का पुराना दौर या कहें प्रेमचंद जैसी भाषा का दौर लौटना चाहिए।
6 ़ लेखक ने इस पर अपना आक्रोश व्यक्त किया है कि फिल्मों की स्क्रिप्ट के लेखक समाज के सबसे निचले स्तर के अशिक्षितों द्वारा प्रयोग की जाने वाली भाषा को परदे पर ला रहे हैं।
बिंदुवार टिप्पण प्रस्तुत हैं ः
1 ़ लेखक ने इस पर अपना आक्रोश एवं अफसोस जाहिर किया है कि ‘हिन्दी प्रदेश में आज हम जो हिन्दी बोलते हैं, पचास साल पहले उसका अस्तित्व नहीं था'। यह स्थिति अत्यंत स्वाभाविक है; भाषा की प्रवाहशीलता की सूचक एवं द्योतक है।
2 ़ भाषा में यदि अंग्रेजी शब्दों का धड़ल्ले से प्रयोग हो रहा है तो इसका यह अभिप्राय नहीं है कि ‘हमारा मातृभाषा से दुराव आज बढ़ता ही जा रहा है'। इसका अभिप्राय एवं अर्थ है कि आज हम अपनी मातृभाषा में अंग्रेजी शब्दों का प्रयोग अधिक कर रहे हैं। कोई भी जीवंत एवं प्राणवान भाषा ‘अछूत' नहीं होती। कोई भी जीवंत एवं प्राणवान भाषा अपने को शुद्ध एवं निखालिस बनाने के व्यामोह में अपने घर के दरवाजों एवं खिड़कियों को बंद नहीं करती। यदि किसी भाषा को शुद्धता की जंजीरों से जकड़ दिया जाएगा, निखालिस की लक्ष्मण रेखा से बाँध दिया जाएगा तो वह धीरे धीरे सड़ जाएगी और फिर मर जाएगी।
3 ़ फिल्मों में शुद्ध हिन्दी के प्रयोग के लिए आन्दोलन चलाने के बारे में मेरा टिप्पण है कि न तो ऐसा कोई आन्दोलन चलाया जा रहा है, न चलाया जा सकता है, न चलाया जाना चाहिए। जनतंत्र में ऐसा करना सम्भव नहीं है। ऐसा फासिस्ट शासन में ही सम्भव है।
4 ़अगर हमारी आज की फिल्मों की भाषा की स्थिति यह है कि ‘पिछले साल करीब 210 फिल्में बनीं लेकिन उनमें से एक भी ऐसी नहीं थी, जिसकी भाषा प्रेमचंद से मिलती जुलती हो', तो यह भी स्वाभाविक स्थिति है। लगे हाथ मैं यह भी बता दूँ कि जब प्रेमचंद ने उर्दू से आकर हिन्दी में लिखना शुरु किया था तो उनकी भाषा को देखकर छायावादी संस्कारों में रँगे हुए आलोचकों ने बहुत नाक भौंह सिकोड़ी थी तथा प्रेमचंद को उनकी भाषा के लिए पानी पी पीकर कोसा था। मगर प्रेमचंद की भाषा खूब चली। खूब इसलिए चली क्योंकि उन्होंने प्रसंगानुरूप किसी भी शब्द का प्रयोग करने से परहेज़ नहीं किया।
प्रेमचन्द की भाषा के अनुरूप हिन्दी फिल्मों की भाषा को आज भी ढालने की वकालत करने के सम्बंध में टिप्पण है कि प्रेमचन्द की रचनाओं में भी अंग्रेजी शब्दों का खूब प्रयोग हुआ है। अपील, अस्पताल, ऑफिसर, इंस्पैक्टर, एक्टर, एजेंट, एडवोकेट, कलर, कमिश्नर, कम्पनी, कॉलिज, कांस्टेबिल, कैम्प, कौंसिल, गजट, गवर्नर, गैलन, गैस, चेयरमेन, चैक, जेल, जेलर, टिकट, डाक्टर, डायरी, डिप्टी, डिपो, डेस्क, ड्राइवर, थियेटर, नोट, पार्क, पिस्तौल,पुलिस, फंड, फिल्म, फैक्टरी, बस, बिस्कुट, बूट, बैंक, बैंच, बैरंग, बोतल, बोर्ड, ब्लाउज, मास्टर, मिनिट, मिल, मेम, मैनेजर, मोटर, रेल, लेडी, सरकस, सिगरेट, सिनेमा, सीमेंट, सुपरिन्टेंडैंट, स्टेशन आदि हजारों शब्द इसके उदाहरण हैं। अंग्रेजी के ये शब्द ‘ऊधारी' के नहीं हैं; जनजीवन में प्रयुक्त शब्द भंडार के आधारभूत, अनिवार्य, अवैकल्पिक एवं अपरिहार्य अंग हैं।
प्रेमचंद के समय में छायावादी रचनाकार ठेठ हिन्दी की प्रकृति के विपरीत तत्सम बहुल संस्कृतनिष्ठ भाषा रच रहे थे तो उर्दू के अदबीकार फारसी का मुलम्मा चढ़ा रहे थे। प्रेमचंद दोनों अतिवादों से बचे तथा अपनी भाषा को ‘हिंदुस्तानी' कहा जो ‘बोलचाल के अधिक निकट' थी। इस सम्बंध में उन्होंने स्वयं कहाः ‘साहित्यिक भाषा बोलचाल की भाषा से अलग समझी जाती है। मेरा ऐसा विश्वास है कि साहित्यिक अभिव्यक्ति को बोलचाल की भाषा के निकट से निकट पहुँचना चाहिए'।
जब हमारी संतानें तथा संतानों की संतानें कॉन्वेंट स्कूलों में पढ़ेंगी तो स्वाभाविक हैं कि वे अंग्रेजी बोलेंगी और हिन्दी में अंग्रेजी शब्दों का प्रयोग करेंगी। जिस अनुपात में अंग्रेजी शब्दों का चलन बढ़ता जाएगा उसी अनुपात में हमारी भाषा में भी उनका प्रयोग बढ़ता जाएगा।
5 ़‘सिनेमा में शास्त्रीय हिन्दी का पुराना दौर या कहें प्रेमचंद जैसी भाषा का दौर' न तो है, न वापिस लौटेगा और न लौटना चाहिए। धारा को उल्टी दिशा में नहीं मोड़ा जा सकता। जब साहित्य की भाषा में पुराना दौर नहीं होता और न वापिस लाया जा सकता है तो सामान्य जनप्रचलित भाषा से ऐसी उम्मीद पालना अतार्किक और अवैज्ञानिक है। क्या हम दुष्यंत से यह कह सकते थे कि तुम प्रसाद जैसी भाषा लिखो या धूमिल से यह कहना तार्किक होता कि तुम दुष्यंत जैसी भाषा लिखो। फिर फिल्म, रेडियो, टेलीविजन, दैनिक समाचार पत्र साहित्य की सीमा में नहीं आते, ये जनसंचार के माध्यम हैं। इस बात को दोहराने की आवश्यकता नहीं है कि साहित्यिक भाषा एवं जनसंचार की भाषा में बहुत अन्तर होता है। जनसंचार की भाषा में यदि साहित्य सर्जित भी किया जाता है तो वह साहित्यानुरागी मर्मज्ञों के लिए नहीं होता, वह आम आदमी का लोक साहित्य होता है। इस श्रेणी में चूरनवालों की बानी, बिरहे, पचड़ों के बंद, स्वाँग, भगत, लावनी, ख्याल, चौबेले आदि के नाम लिए जा सकते हैं।
पुरानी फिल्मों में प्रयुक्त होनेवाले चुटीले संवादों तथा फिल्मी गानों की पंक्तियाँ जैसे पुरानी पीढ़ी के लोगों की जबान पर चढ़कर बोलती थीं वैसे ही आज की युवा पीढ़ी की जुबान पर आज की फिल्मों में प्रयुक्त संवादों तथा गानों की पंक्तियाँ बोलती हैं। यदि पुरानी पीढ़ी के कुछ सज्जनों को आज के सिनेमा की भाषा पसंद नहीं है तो क्या किया जा सकता है। मेरे से पुरानी पीढ़ी सहगल की देवदास पर फिदा थी, मेरी पीढ़ी को दिलीप कुमार की देवदास रुचिकर लगी, मेरे बाद की पीढ़ी ने शाहरुख खान की देवदास को पसंद किया। मेरे से पुरानी पीढ़ी के लोगों को सुरैया के गाए गाने पसंद थे, मेरी पीढ़ी को लता एवं रफी के गानों में रसास्वाद मिला मगर आज की पीढ़ी नए गानों पर थिरकना चाहती है। फिल्मों की भाषा में भी बदलाव आता रहा है, आ रहा है और आता रहेगा।
6 ़ यदि फिल्मों की स्क्रिप्ट के लेखक ‘समाज के सबसे निचले स्तर के अशिक्षितों द्वारा प्रयोग की जाने वाली भाषा' को परदे पर ला रहे है तो इस काम के लिए उनकी आलोचना नहीं अपितु प्रशंसा की जानी चाहिए। उनके इसी प्रयास का परिणाम है कि फिल्मों को देखकर समाज के सबसे निचले स्तर का आम आदमी भी उमग रहा है, हुलस रहा है। लेख में प्रेमचंद की भाषा के दौर को लौटाने का जो आग्रह है, उससे यह समझ में आता है कि लेखक प्रेमचंद की भाषा को मानक मानता है, मानक स्वीकार करता है। मैं यह स्पष्ट कर दूँ कि प्रेमचंद की भाषा में ‘समाज के सबसे निचले स्तर के अशिक्षित, देहाती एवं तथाकथित गँवारू लोगों द्वारा बोली जाने वाले शब्दों एवं भाषिक रूपों का भी जमकर प्रयोग हुआ है। उदाहरण के लिए ‘महावर, नफरी, चंगेरी, ठिकोना, पचड़ा, बिसूर, डींग, बेसहाने, हुमक, धौंस, बधिया, कचूमर' आदि जनप्रचलित ठेठ शब्द प्रस्तुत हैं। प्रेमचंद के द्वारा समाज के सबसे निचले स्तर के देहाती लोगों की बोली से शब्दों को पकड़ लाने, खींच लाने पर फिदा समकालीन आलोचक बेनीपुरी की टिप्पणी है -
‘जनता द्वारा बोले जाने वाले कितने ही शब्दों को उनकी कुटिया मड़ैया से घसीटकर वह सरस्वती के मंदिर में लाए और यों ही कितने अनधिकारी शब्दों, जो केवल बड़प्पन का बोझ लिए हमारे सिर पर सवार थे, इस मंदिर से निकाल फेंका।'
यह विचारणीय है कि हिंदी फिल्मों की भाषा साहित्यिक नहीं है और न होनी चाहिए। इस भाषा ने गाँवों और कस्बों की सड़कों एवं बाजारों में आम आदमी के द्वारा रोजमर्रा की जिंदगी में बोली जाने वाली बोलचाल की भाषा को एक नई पहचान दी है। फिल्मों के कारण हिन्दी का जितना प्रचार-प्रसार हुआ है उतना किसी अन्य एक कारण से नहीं हुआ। आम आदमी जिन शब्दों का व्यवहार करता है उनको हिन्दी फिल्मों के संवादों एवं गीतों के लेखकों ने बड़ी खूबसूरती से सहेजा है। जन-भाषा की क्षमता एवं सामर्थ्य ‘शुद्धता' से नहीं, ‘निखालिस होने' से नहीं, ‘ठेठ' होने से नहीं अपितु विचारों एवं भावों को व्यक्त करने की ताकत से आती है।
हिन्दी को अमिश्रित, शुद्ध एवं खालिस बनाने के प्रति आसक्त तथाकथित विद्वानों की बात यदि मान ली जाए तो कभी सोचा है कि उसका क्या परिणाम होगा। उस स्थिति में तो हमें अपनी भाषा से आकाश, मनुष्य, चन्द्रमा, दर्शन, शरीर एवं भाषा जैसे शब्दों को निकाल बाहर करना होगा। इसका कारण यह है कि ये सारे शब्द हिन्दी के नहीं अपितु संस्कृत के हैं। ठेठ हिन्दी के शब्द तो क्रमशः आकास, मानुस, चन्दा, दरसन, सरीर तथा भाखा हैं। जरा सोचिए, संस्कृत के कितने शब्द हिन्दी में आते आते कितना बदल गए हैं। उदाहरणार्थ, कर्ण का कान, हस्त का हाथ तथा नासिका का नाक हो गया है।
हिन्दी के प्रचार एवं प्रसार के संदर्भ में, मैं फिल्मों में कार्यरत सभी रचनाकारों एवं कलाकारों का अभिनंदन करता हूँ। हिन्दी सिनेमा ने भारत की सामासिक संस्कृति के माध्यम की निर्मिति में अप्रतिम योगदान दिया है। बंगला, पंजाबी, मराठी, गुजराती, तमिल आदि भाषाओं, हिन्दी की विविध उपभाषाओं एवं बोलियों के अंचलों तथा विभिन्न पेशों की बस्तियों के परिवेश को सिनेमा की हिन्दी ने मूर्तमान एवं रूपायित किया है। भाषा तो हिन्दी ही है मगर उसके तेवर में, शब्दों के उच्चारण के लहजे़ में, अनुतान में तथा एकाधिक शब्द-प्रयोग में परिवेश का तड़का मौजूद है। भाषिक प्रयोग की यह विशिष्टता निंदनीय नहीं अपितु प्रशंसनीय है।
हिन्दी या संसार की किसी भी जीवित भाषा के सम्बंध में लिखते समय कबीर के इस उद्धरण को हमेशा याद रखना चाहिए: ‘ भाखा बहता नीर'।
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प्रोफेसर महावीर सरन जैन
(सेवा निवृत्त निदेशक, केन्द्रीय हिन्दी संस्थान)
123, हरि एन्कलेव, चाँदपुर रोड
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