(तेजेंद्र शर्मा - जिन्होंने हाल ही में अपने जीवन के 60 वर्ष के पड़ाव को सार्थक और अनवरत सृजनशीलता के साथ पार किया है. उन्हें अनेकानेक बध...
(तेजेंद्र शर्मा - जिन्होंने हाल ही में अपने जीवन के 60 वर्ष के पड़ाव को सार्थक और अनवरत सृजनशीलता के साथ पार किया है. उन्हें अनेकानेक बधाईयाँ व हार्दिक शुभकामनाएं - सं.)
तेजेन्द्र शर्मा किसी एक आदमी का नाम नहीं है। इस नाम के दस आदमी हैं जो एक ही शरीर में रहते हैं और यह शरीर एक ही मकान और एक ही शहर में रहता है। हो सकता है आपको यह रहस्यवाद लगे।
आप कहें कि मैं क्या अनाप-शनाप बक रहे हैं। लेकिन जब काम सीधी बात से न चलता हो तो टेढ़ी तरह से ही बात की जा सकती है। मतलब यह कि जो लोग तेजेन्द्र शर्मा को करीब से नहीं जानते हैं। जो अधिक करीब से जानते हैं वे उन्हें एक सच्चे मित्र और समर्पित व्यक्ति के रूप में भी जानते हैं, जो और अधिक पास से जानते हैं वे उन्हें एक सदाबहार कुशल ‘ऑर्गनाइज़र' के रूप में भी जानते हैं। मतलब यह कि जब आप उनके व्यक्तित्व के सभी पक्षों से परिचित हो जाते हैं तो उसके दस आयाम पता चलते हैं। वे एक कुशल रेल इंजन चालक भी है। वे अच्छे खासे कम्प्यूटर इंजीनियर भी है। वे डिजाइनर भी है और एक जिम्मेदार पिता और प्रेम करने वाले पति भी हैं। कौन अपनी पत्नी को मर जाने के बीस साल बाद भी इस तरह याद करता है जैसे तेजेन्द्र अपनी पत्नी ‘इन्दु शर्मा' को हर साल एक समारोह मनाकर याद करते हैं। दोस्तों के दोस्त तेजेन्द्र के माथे पर दोस्तों की उल्टी-सीधी फरमाइशों से बल कभी नहीं पड़ते। उनकी सदाबहार चमकती हुई आँखें न जाने कितने तरीके और रास्ते तलाश कर लेती हैं। कभी निराश हो जायें तो तेजेन्द्र के पास उसकी अचूक दवा है जो वे बिना पैसे लिए बाँटते रहते हैं।
तेजेन्द्र शर्मा से मेरी पहली मुलाकात बहुत नाटकीय ढंग से हुई थी और फिर उतने ही नाटकीय ढंग से हम लोग पच्चीस-तीस साल तक एक दूसरे से नहीं मिल सके। मुलाकात हुई तो एक अन्य नाटकीय घटना के बाद। तो शुरू करते है पहली घटना से।
मेरे ख्याल से 1966-67 के आसपास का जमाना रहा होगा। हमारे एक दोस्त फिल्म बनाना चाहते थे। मैं चूंकि कहानियाँ, नाटक आदि लिखा करता था इसलिए मित्र ने मुझे पटकथा लिखने के लिए घर पकड़ा। मेरा हमेशा से ये सिद्यांत रहा है कि जो, जितना, जैसा आता है, हाज़िर है। बस काम शुरू हो गया। बम्बई आने-जाने के लिए मित्र हवाई जहाज के सस्ते टिकट उपलब्ध कराते थे। लेकिन ये जमाना इण्डियन एयर लाइन और एयर इण्डिया का ही था। मतलब आजकल वाली ‘भिण्डी बाजार' नहीं लगती थी। ‘एयर इण्डिया' की जो फ्लाइट लंदन से बम्बई आती थी वह बम्बई में रूककर दिल्ली आया करती थी और इस फ्लाइट पर बम्बई दिल्ली के सस्ते टिकट मिला करते थे। मैं मुम्बई न लिखकर बम्बई इसलिए लिख रहा हूँ कि उस समय तक मुम्बई, बम्बई कही जाती थी। बहरहाल मैं इसी तरह की एक फ्लाइट से दिल्ली आ रहा था।
आधी रात के आसपास का टाइम रहा होगा। मैं नींद, परेशानी, थकान दूर करने के लिए हिन्दी का कोई पत्रिका पढ़ रहा था। शायद हंस उस वक्त न निकला था। हो सकता है ‘सारिका' हो। बहरहाल मैं पढ़ने में डूबा हुआ था कि हवाई जहाज के अम्ले का एक आदमी मेरे सामने आकर खड़ा हो गया। यह एक दुबला, पतला, औसत दर्जे की हाइट और गेंहुए रंग, खड़े नाक नक्शे वाला नौजवान था। पता नहीं, बात किस तरह शुरू हुई थी पर इतना याद है कि हिन्दी पत्रिका पढ़ने या हिन्दी कहानियाँ पढ़ने आदि को लेकर संवाद स्थापित हुआ था। उस समय शायद ये नौजवान कहानियाँ लिखना शुरू कर रहा था और शायद मेरी दो-चार कहानियाँ छप चुकी थीं लेकिन मुझे आमतौर पर लोग किसी गिनती में न लाते थे, इसलिए हमारा परिचय लेखक नहीं पाठक होने के कारण हुआ था। नौजवान ने अपना नाम तेजेन्द्र शर्मा बताया था और बम्बई का पता दिया था। इस तरह आप और हम लोगों से मिला ही करते हैं। कुछ दिनों बाद पते वाला पर्चा खो गया। नाम जे़हेन से निकल गया। मित्र की फिल्म बन गयी। बम्बई आना-जाना बंद हो गया और सबसे बड़ी क़यामत ये हुई कि 1977 के राजनैतिक उथल-पुथल से बड़ी उथल-पुथल मेरी जिन्दगी में हो गयी। यानि मेरी शादी हो गयी। नून, तेल, लकड़ी का भाव पता चलने लगा और साहित्य की किताब ‘ताक' पर चली गयी।
बहरहाल किस्सा कोताह ये कि कुछ साल बाद किसी पत्रिका में दुबई के परिवेश पर लिखी कोई कहानी पढ़ी। कहानी बहुत अच्छी लगी। लेखक का नाम फिर से पढ़ा और दिमाग पर जोर दिया तो बात समझ में आई कि लेखक वहीं तेजेन्द्र शर्मा हैं जो हवाई जहाज में मिले थे। कहानी के साथ उनका बम्बई का पता भी छपा था। ख़त लिख मारा। ये याद नहीं कि जवाब आया था या नहीं। बहरहाल इस बीच कभी मुलाकात नहीं हुई लेकिन दिमाग में नाम चिपक गया-तेजेन्द्र शर्मा। यह नाम कभी-कभार पत्र-पत्रिकाओं में दिखाई दे जाता था। यादे फिर ताजा हो जाती थी।
होते हुआते सन् 2003-04 आ गया। मेरा एक उपन्यास “कैसी आगी लगाई” छपा। आप सब जानते हैं और बताने की जरूरत नहीं कि हिन्दी साहित्य और खासतौर से आलोचना के क्षेत्र में बहुत साधारण प्रतिभा के लोग बड़ी जोड़-तोड़ करते रहते हैं। गिरोह बंदियां अपने चरम पर है। उठा-पतक का बाज़ार गर्म है। विमर्शो की दुकानें लगी हुई हैं और पुरस्कारों की मण्डी में हर रोज मार्केट अप-डाउन होती रहती है। इस बाजार में कोई किताब छपती है तो घाघ किस्म के गिरोह वह समीक्षक उसे अपनी अलग ही नज़र से देखते हैं। जैसे बकरे को देखकर कसाई अंदाजा लगा लेता है कि कितना गोश्त होगा उसी तरह किताब को देखकर गुरू घंटाल लोग आंक लेते हैं कि किस ‘एवार्ड' में किस किताब का रास्ता रूक जायेगा। किस क्षेत्र में हम किसे ‘प्रोपोट' कर रहे हैं और उस क्षेत्र में हमारे प्रियजन पर संकट आ जायेगा। यहीं सब सोच समझ कर हिन्दी के गुरू घण्टाल, पत्रिकाओं के सम्पादक, माफिया गिरोहों के सरग़ना किताब के बारे में अपनी राय बनाते हैं।
मुझे नहीं पता मेरे उपन्यास ने किसका रास्ता रोका लेकिन जब समीक्षाएँ छपने लगीं तो हैरत का पहाड़ टूट पड़ा। एक मित्र सम्पादक ने अपनी पत्रिका में ऐसी समीक्षा छापी कि उपन्यास के परखचे कर दिए। उस पर तुर्रा यह कि मित्र सम्पादक ने कहा - यार मैं समीक्षक को पूरी आजादी देता हूँ। ”
मैंने कहा - वो तो ठीक है पर ये बताओ तुमने उपन्यास पढ़ा ?
उन्होंने बताया कि उन्होंने उपन्यास नहीं पढ़ा।
मैंने कहा- तुमने उपन्यास पढ़ा नहीं ः समीक्षक को तुम पूरी आजादी दे रहे हो तो सम्पादक के नाते तुम्हारी जिम्मेदारी क्या कुछ नहीं है।”
मित्र सम्पादक बिगड़ गये। एक वरिष्ठ सम्पादक कहते हैं, पत्रिका मेरी है, मैं प्रधान सम्पादक हूँ, मैं मालिक हूँ , मैं जो चाहूँगा वह छपेगा। मैं अगर चाहता हूँ कि किसी उपन्यास की तीन समीक्षाएँ छपें तो छपेंगी और मैं नहीं चाहता कि किसी उपन्यास की एक भी समीक्षा न छपे तो नहीं छपेगी।
मैंने वरिष्ठ सम्पादक से कहा - आप साहित्य के लालू है।
साहित्य के लालुओं ने मेरे उपन्यास को किनारे लगा दिया। उसमें कोई विमर्श ही नहीं निकला। ऐसे हालात में एक दिन तेजेन्द्र शर्मा का फोन आया कि उनकी संस्था कथा यू.के. मेरे उपन्यास को एवार्ड देना चाहती है। मैंने कहा - यहाँ के महारथी तो उपन्यास को पीट चुके हैं।” पर तेजेन्द्र नहीं माने और मुझे हाउस ऑफ लाड्र्स में इन्दु शर्मा कथा सम्मान दिया गया।
अब तेजेन्द्र शर्मा फिर धीरे-धीरे सामने आने लगे जैसे कोई ‘पैनोरेमिक' दृश्य सामने आता है। इस बीच तेजेन्द्र की कहानियाँ पढ़ी और लगा कि वे विसंगतियों के शिल्पी हैं। उनकी कहानियाँ सामाजिक, पारिवारिक, राजनैतिक विसंगतियों को जिस तरह सामने लाती है और जैसा मार्मिक वातावरण निर्मित करती है, वैसा कम ही देखा जाता है। दूसरी बात यह लगी कि तेजेन्द्र बहुत सरलता और सहजता से गहराई में उतरते हैं और अपना सार्थक ‘कमेण्ट' करने के बाद जितनी सरलता से नीचे उतरे थे, उतनी ही सरलता से ऊपर आ जाते है। लगता है एक नटखट और शरारती बच्चे ने माँ-बाप की आँख बचाकर कोई शरारत कर दी है और अब अपने चेहरे पर मासूमियत के सभी भाव ले आया है। उनकी कहानियों में मुद्दे घटनाओं के साथ आते हैं। वे केवल विमर्श के कहानीकार नहीं हैं। उनमें संवेदना का जो बहाव है वह पाठक को अपनी गिरफ्त में ले लेता है।
लंदन में तेजेन्द्र का जो काम है और उस कारण उसकी जो लोकप्रियता है उसका उल्लेख करना जरूरी है। उन्होंने हिन्दी वालों को ही नहीं जमा किया है बल्कि लोगों को हिन्दी की ओर आकर्षित किया है। जिस तरह पंजाबी और उर्दू भाषी उनके साथ जुड़े हैं वह इस बात का प्रमाण है कि तेजेन्द्र उर्दू और पंजाबी भाषी समाजों में भी लोकप्रिय है तथा भारतीय भाषाओं का सम्मान करना उनका स्वभाव है। तेजेन्द्र की रचनायें ही नहीं उनकी किताबें उर्दू में छपी है और पाकिस्तान में उनकी सराहना हुई है।
तेजेन्द्र कवि भी हैं और कविता संबंधी उनकी अपनी मान्यताएँ हैं जिन पर विचार किया जाना चाहिए। तेजेन्द्र कविता की पूरी गम्भीरता और गरिमा बनाये रखते हुए को सुरक्षित रखते हुए कविता और पाठक के बीच संवाद की बात करते हैं और उनका मानना है कि कविता केवल बौद्धिक विमर्श नहीं है। पश्चिम ने कविता को जिस रूप में लिया है, उस रूप में हम नहीं ले सकते क्योंकि हमारे जीवन में कविता का जो स्थान है, वह पश्चिम के जीवन में नहीं है। तेजेन्द्र जितना काम करते हैं और जितनी तेजी से करते हैं वह उन्हें लगातार आगे बढ़ायेगा। इसमें उनका ही नहींं हिन्दी, साहित्य और रचनाधर्मिता की भलाई है।
असार वजाहत
79, कलाविहार
मयूर विहार - प्
दिल्ली-110091
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साभार-
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