(तेजेंद्र शर्मा - जिन्होंने हाल ही में अपने जीवन के 60 वर्ष के पड़ाव को सार्थक और अनवरत सृजनशीलता के साथ पार किया है. उन्हें अनेकानेक बधाई...
(तेजेंद्र शर्मा - जिन्होंने हाल ही में अपने जीवन के 60 वर्ष के पड़ाव को सार्थक और अनवरत सृजनशीलता के साथ पार किया है. उन्हें अनेकानेक बधाईयाँ व हार्दिक शुभकामनाएं - सं.)
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एक सीधी रेखा की तहें
- प्रेम जनमेजय
आधुनिक हिंदी कथा साहित्य की एक महत्वपूर्ण कड़ी, तेजेंद्र शर्मा ने कहानियां लिखी हैं, कोई उपन्यास नहीं लिखा पर मेरे लिए तेजेंद्र एक महाकाव्यात्मक उपन्यास का विषय है और मैंने भी चाहे उपन्यास नहीं लिखा है पर मैं इस विषय पर लिख सकता हूं। पर इस समय न तो मैं उपन्यास लिख रहा हूं, न कोई कहानी कह रहा हूं और न ही किसी व्यंग्य रचना का निर्माण कर रहा हूं, मैं तो हिंदी साहित्य का आभार मानते हुए, कि उसने तेजेंद्र शर्मा जैसा मित्र दिया, उसके साथ जुड़े अपने कुछ मनोभावों को काग़ज़ पर उतार रहा हूं और आपके साथ बांटने का प्रयत्न कर रहा हूं। इस उतारने में मैंने अनेक बार अपने को अनेक तरह से जिया है और लगे हाथ अपना विश्लेषण भी किया है। तेजेंद्र-वर्णन में मेरी मति थोरी है। अतः हे साहित्यिक संतों आप बिना किसी बड़ी अपेक्षा के इसे पढ़ें। इसमें नारी विमर्श जैसे स्वादयुक्त किस्से नहीं हैं और न ही तेजेंद्र के किसी अंधेरे कोने में झांकने की खोजी दृष्टि है। ये सुकर्म मैंने उसके ऐसे मित्रों के लिए रख छोड़ा है जिन्हें पीठ के पीछे रहना प्यारा लगता है और वे मौखिक ही तेजेंद्र का 'गुणगान' करते रहते हैं।
तेजेंद्र आधुनिक कथा-साहित्य के मेरे उन प्रिय लेखकों में से जिन्हें मैं खोज कर पढ़ना चाहता हूं और जिसकी अधिकांश कहानियां एक ऐसा परिवेश प्रस्तुत करती हैं, वर्तमान साहित्य जिनके तुलनात्मक अध्ययन के लिए मुझे उसके समांतर कोई और कथाकार नहीं मिलता है। मेरे इस कथन को आप मेरी पठन सीमा और मैत्री कहकर उड़ा सकते हैं परंतु मेरे विचार बिंदुओं पर ध्यान देने के बाद एवं तेजेंद्र साहित्य का निरपेक्ष भाव से अध्ययन करने के बाद हो सकता है आप मुझसे सहमत हो जाएं।
जितना आप अपने देश से दूर जाते हैं उतना ही आप उसके करीब हो जाते हैं - इस मूल मंत्र को मैंने त्रिनिदाद जा कर जाना और मेरे प्रवासी मित्र तो निरंतर इसे जान ही
रहे हैं ,इसका वृहद् अनुभव भी कर रहे हैं तथा उस विशाल अनुभव का सदुपयोग कर प्रवासी साहित्य रच रहे हैं ।जैसे यह सत्य है कि जितना हम अपने देश या अपनों से दूर जाते हैं उतना ही उनके करीब होते हैं, वैसे ही यह भी सत्य है कि जितना हम अपनों के करीब जाते हैं, उन्हें जानने लगते हैं उतना ही हम उन्हें नहीं जानते है। ये उलटबांसी बिहारी के दोहे की तरह है जिसमें वे कहते हैं-
तंत्रीनाद कवित रस, सरस राग रति रंग।
अनबूड़े बूड़े, तिरे जो बूड़ सब अंग ।।
संबंध चाहे संगीत से हो, कविता से हो, रतिमय हो या फिर मैत्रीपूर्ण हो, जितना हम डूबते हैं उतना ही हमारी अज्ञानता के द्वार खुलते जाते हैं। अक्सर सोच में सरल लगने वाली वस्तुएं कर्म के धरातल पर आते ही कठिन हो जाती है। जिन रिश्तों को हम सरल समझते हैं उन्हें निभाना सब से कठिन होता है। ऐसे रिश्तों के बारे में बहुत कुछ कहने का दंभ होता है पर जब कहने का अवसर आता है तो व्यक्ति अपनी तो क्या दूसरों की भी बगलें झांकने लगता है। कोई छोर पकड़ में नहीं आता है। लगता है जैसे आप गांव के किसी मेले में खो गए हैं और उस भीड़ में जिस छोर की तलाश आप कर रहे हैं वो छोर आपकी पकड़ाई में आ नहीं रहा है। जब आप को लगता है कि छोर आपको मिल गया तो आप पाते हैं कि आप तो और उलझ गए। किसी सीधे-साधी सरल रेखा के अंदर कितनी रेखाओं की तहें छिपी हैं, आप कितने भी ज्ञानी हों स्वयं को अनपढ़ ही पाते हैं।
ऐसा ही अनपढ़ मैं स्वयं को, तेजेंद्र शर्मा के व्यक्तित्व की विभिन्न परतों को आपके सामने खोलते हुए पा रहा हूं। प्रिय मित्र हरि भटनागर ने जब मुझसे एक ई-मेल के ज़रिए तेजेंद्र शर्मा पर लिखने के लिए आग्रह किया तो मैंने बहुत तत्परता से, इतनी तत्परता से कि हरि भटनागर को सुखद आश्चर्य हुआ, लिख दिया कि तेजेंद्र के बारे में मुझे लिखकर अच्छा ही लगेगा और मैं बहुत जल्दी लिखकर भेज रहा हूं। धीरे-धीरे ये जल्दी देरी में परिवर्तित होने लगी। हरि भटनागर की तकाज़ापूर्ण ई-मेल आने लगीं और दूसरों को शर्मिंदा करने वाला व्यंग्य लेखक, अपनी विसंगतियों में फंसा शर्मिंदा होने लगा। इधर-उधर के बहानों के निर्माण की प्रक्रिया में अपनी कल्पना-शक्ति के घोड़े दौड़ाने की योजना बनाने लगा। अपनी असमर्थता पर खीझने लगा। क्योंकि ये वो काम नहीं था जिसे निपटाना था, यहां तो अपनी क्षमता से भी अधिक कर्मशील होना था क्योंकि ये पता था कि हरि भटनागर या तेजेंद्र कुछ समय तक अपना रोष प्रकट कर विस्मृति के किसी खाने में इसे डाल देंगे पर मेरे मन के उस कोने का क्या होगा जहां तेजेंद्र का अधिपत्य है और जो रोज मुझे कोंचता रहेगा। पश्चाताप् की आयु बहुत लम्बी होती है, अनेक बार वो आपकी चिता के साथ ही जलता है। ये जानलेवा सर्प किसी भी समय अपना फन उठाकर आपके वर्तमान को विषमय कर सकता है। जानता हूं कि मेरे इस न लिखने का कारण हरि भटनागर अपने संकलन के लिए एक और लेख न मिल पाने का हल्का या भारी कष्ट सहेगा । तेजेंद्र इसे मेरी नालायकी मानेगा, अपना गुस्सा व्यक्त करेगा, कुछ गालियों की बौछार भी करेगा पर अपने क्रोध की आग से मित्रता को जख्म नहीं देगा, वो इसे मेरी एक और ग़लती समझ कर उसे अपने मन के किसी कोने में रख लेगा। पर मेरे अंदर बैठा तेजेंद्र...?
अपेक्षापूर्ण रिश्ते तो हम सभी जीते हैं और यह सांसारिक होते हुए यह कहना कि बिना अपेक्षा के संबंध जीते हैं, संतई का दंभ है और ऐसे संत अक्सर सीकरी के गलियारों में बुरका ओढ़े घूमते पाए जाते हैं। तेज ने न कभी संत होने का दंभ नहीं भरा है और न ही वो भरना ही चाहता है। वह स्पष्ट है। यदि वो आपसे कोई अपेक्षा है और आप उसे पूरा नहीं कर रहे हैं तो वो आक्रामक मूड में आकर आपसे दो चार होने की मुद्रा में आ सकता है । उसका ये प्यार एक तरफ़ा नहीं है, वह आपको भी ऐसा व्यवहार करने के लिए उकसाता है। वे आपके कहे का बुरा नहीं मानेगा, अगर आप किसी ग़लतफ़हमी के शिकार हैं तो वे समझा देगा, और यदि कहीं वह गलती पर है तो सफाई भी दे देगा । आपको सफ़ाई पसंद नहीं आए तो वो सारे किस्से पर झाड़ू मारते हुए बिना शर्त आपसे माफ़ी भी मांग लेगा। चाहे वह अंग्रेज़ी भाषा में एम. ए. है पर उसका सॉरी, क्षमा से अधिक प्रभावी अर्थ रखता है। जिस 'जिस' को न करने से इतने बखेड़े होने वाले हैं, उसे मनोयोग से सभी काम छोड़कर-- जैसे इश्क किया जाता है या फिर चुनाव के समय स्वयं को झोंका जाता है अथवा संसार के असार को जानकर किसी प्राचीन संत, आधुनिक संत नहीं जिन्हें केवल और केवल सीकरी से काम होता है, तपस्या का सुकर्म किया जाता है-- वैसे ही तेजेंद्र पर क्यों न लिखा जाए ? चाहे कितने भी उलझने हों उनके छोर को पकड़ कर क्यों न सुलझाया जाए! इन्हीं सब बातों से स्वयं को धिक्कारते, ललकारते, पुचकारते और धकियाते हुए किश्तों में यह सुकर्म कर रहा हूं।
तेजेंद्र को मैं बहुत पहले से,जब वह दिल्ली विश्वविद्यालय में विद्यार्थी की भूमिका अदा कर रहा था, तब से, जानता हूं, पर ये जानना बहुत ही सतही था। मैं तेजेंद्र को इसलिए जानता था क्योंकि मेरे बहुत ही करीबी और श्रध्देय उसके रगो रेशे से जुडे हुए थे। ये आयु का वो काल था जिसमें आप अपने किसी बहुत करीबी के जीवन में किसी और को, उसी भूमिका में, करीबी देखकर ईर्ष्या से जलते भुनते रहते हैं। और ऐसे में ईर्ष्या की अग्नि और प्रज्वल्लित होती है जब आप तो अंर्तमुखी हों और दूसरा बर्हिमुखी। आप चुपचाप बैठे सब सुन रहें हैं और दूसरा आपने वाक् चातुर्य से आपके श्रध्देय को लगातार प्रभावित कर रहा है। ऐसे में आप कुढ़ सकते हैं या फिर सायास उपेक्षा की मुद्रा में अपने को उससे काट सकते है। ऐसे में मैत्री का तो प्रश्न ही नहीं उठता तो उसके संबंध में आपके मन में कुछ पौज़िटिव कैसे आ सकता है। पर न जाने तेजेंद्र में ऐसा क्या था कि इन सारे विरोधों के चलते हुए भी, जब वो बात करता, तो उससे बात करने को मन करता, उसे मित्रता को मन चाहता। और मज़े के बात यह है ,यह बाद में पता चला, कि जिस नाव में मैं सवार था उसी में तेजेंद्र भी सवार था। मेरी नाव जंग खाई और टूटी फूटी थी पर उसकी नाव तो किसी जल सैनिक की नाव-सी हथियारों से लैस थी। वो अपने बहुत ही करीबी मित्र की ऐसी हरकतों का बहुत ही सफलता से सामना कर रहा था। वहां तो एक प्रतियोगिता चल रही थी कि श्रध्देय के करीब कौन आता है - तुम या मैं। जानता नहीं कि इस प्रतियोगिता में कौन सफल हुआ या विफल, पर इतना जानता हूं कि तेजेंद्र ने स्वयं को इस प्रतियोगिता से बाहर कर लिया क्योंकि वह ओछे अस्त्र-शस्त्र का उत्तर देने में अपना ओछापन मान रहा था। दूसरे उसका श्रध्देय के प्रति कुछ मोहभंग हुआ था और वो मोहभंग आज भी जारी है पर तेजेंद्र को मैंने उस श्रध्देय पर कभी कीचड़ उछालते नहीं देखा-सुना । तेजेंद्र से इस अपरिचित परिचय का दशक 1980-90 का है। 1990 में तेजेंद्र का पहला कहानी संग्रह 'काला सागर' प्रकाशित हुआ था और उस गोष्ठी में मुझे तेजेंद्र की इस पुस्तक पर बोलना भी था। मैंने उसका यह संग्रह बहुत गंभीरता से पढ़ा। उन दिनों मेरी अभिरुचि व्यंग्य-लेखन और पठन में थी। मेरे चार व्यंग्य संकलन- राजधानी में गंवार, बेर्शममेव जयते, पुलिस पुलिस और मैं नहीं माखन खायो, प्रकाशित हो कर चर्चित हो चुके थे और एक सीनियर लेखक के रूप में अपने से तीन वर्ष छोटे लेखक को पढ़ने की मुद्रा में मैंने काला सागर की रचनाओं को पढ़ना आरंभ किया था और सोचा कि इस लेखक पर बोलना बहुत ही सरल होगा। पर बहुत जल्दी उंट पहाड़ के नीचे आ गया। कहानी लेखन के प्रति तेजेंद्र की गंभीरता ने मुझे बहुत प्रभावित किया। मुझे समझ आ गया कि मैं किसी लीक से हट कर कहानी लेखन करने वाले लेखक को पढ़ रहा हूं और ये भी समझ आ गया कि इस लेखक के मन को भी पढ़ना आवश्यक है।
तेजेंद्र की कहानियों में कथ्य की दृष्टि से जो प्रवासी का दर्द और उनका चिंतन मिलता है वो उसके लंदन जाने के कारण पैदा नहीं हुआ है और न ही उसने ये सोचकर कि लंदन आ गए है तो कहानी में प्रवासीपन जोड़कर विशिष्ट हो लिया जाए या फिर प्रवासी होने के आरक्षण का लाभ उठाया जाए। 'काला सागर' कहानी को ही लें। यह कहानी अपनी सहजता में जिस अनुभव जगत से परिचय कराती है उसे उस परिवेश से न केवल परिचित अपितु उसके रगो रेशे को अपने से जोड़ने वाला ही बयान कर सकता है। मानवीय मूल्यों के निरंतर क्षरण के प्रति चिंता और मानवीय संबंधों में पड़ती दरारों की परेशानी तेजेंद्र की रचनाओं का मूल रहा है। जहां वह एक ओर रिश्तों के दिखावटीपन पर निरंतर आक्रमण करता है वहीं अपनी पूरी सवेंदनशीलता के साथ उसकी स्थापना के लिए आपसे 'हाथ जोड़ विनती करता भी दिखाई देता हैं। 'काला सागर' निहित स्वार्थों के लिए मृत्यु जैसी दुर्घटना को भुनाने मानवीय कमजोरी का यथार्थ चित्रण करती । इस चित्रण में न तो भावुकता का सुबुक सुबुक अतिरेक है और न ही यथार्थ के नाम पर मानवीय आदर्शों की अनदेखी। विदेश और विदेशी वस्तुओं के प्रति हम हिंदुस्तानियों के अतिरिक्त मोह पर तेजेंद्र आक्रमण भी करता है और लाशों के व्यापार पर आपकी संवेदना को झकझोरता भी है। शवों पर होते व्यापार और वसूले जाते मुआवजे के कुछ दृश्य आप भी देखें -
क्रू यूनियन ने प्रत्येक क्रू मेम्बर के परिवार के लिए एक एक लाख देने का फैसला किया था। विमला महाजन को झटका-सा लगा जब रमेश कुमार के पिता उससे मिलने दफ्तर पहुंचे।
श्श् मिस्टर महाजन मैं रमेश का पिता हूं। आजकल मैं और मेरी पत्नी तलाक लेकर अलग अलग रह रहे है। आपको याद होगा पिछले क्रैश में मेरी बेटी नीना की मौत हो गई थी। उस समय भी एअरलाइन और क्रू यूनियन ने मुआवजा मुझे ही दिया था। मैं चाहता हूं कि अब भी मेरे बेटे और बहू की मृत्यु का मुआवजा मुझे ही मिले। इससे पहले मेरी पत्नी इसके लिए अरजी दे, मैं क्लेम की अरजी छोड़े जा रहा हूं ताकि आप इंसाफ कर सकें। अब तो मैं बूढ़ा हो चला हूं। कमाई का अब और कोई ज़रिया है नहीं। ''
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एक यात्री विमल तक पहुंचा,'' मिस्टर खाना पीना तो ठीक है, पर हमें कुछ एलाउंस वगैहरा भी दिलवाने का प्रबंध करवा दें तो अच्छा होगा। हम सब इतनी जल्दी में आए हैं कि एफ. टी. एस. का प्रबंध नहीं हो सका। कम से कम इतना रोजाना भत्ता तो हमें मिलना ही चाहिए कि जिससे हमें कहीं बाहर आने जाने में मुश्किल न हो।''
शीला देशमुख के पिता किसी सरकारी महकमें में उच्च अधिकारी थे,''महाजन साहब हमारी बेटी ने तो एअरलाइन के लिए जान दे दी। उसके बदले में आप हमें क्या देंगें? चंद रुपए। इस बुढ़ापे में उन रुपयों का हम क्या करेंगें? हमारी दूसरी बेटी अमेरिका में रहती है। हम चाहते हैं कि जब तक हम जिएं, मुझे और मेरी पत्नी को हर वर्ष अमेरिका आने जाने का मुफ़्त टिकट मिले, मैं मिनिस्टर साहब से भी इस विषय में बात करूंगा।''
......
मिस्टर महाजन धम्म से कुरसी पर बैठ गए। रिश्तेदारों की दिक्कतें दूर करते, ब्रिटिश सरकार व एअरलाइन अधिकारियों से संपर्क व बातचीत करते उनका शरीर और दिमाग दोनों थक गए थे। उसपर इतनी सारी लाशों का सामूहिक क्रिया कर्म, उन्होंने आंखें मूंद लीं।
'मिस्टर महाजन!'
"जी।'' उन्होंने आंख मूंदे हुए ही पूछा।
"आपसे एक सलाह चाहिए।''
'कहिए।' नेत्र खुले।
" जिस काम के लिए आए थे वो तो हो गया। जरा बताएंगे, यदि सस्ती शॉपिंग वगैरह करनी हो तो कहां सस्ती रहेगी? नए हैं न...'' उसके बाद सुनने की ताकत विमल महाजन में नहीं थी।''
मुझे पूरा विश्वास है कि इन छोटे से प्रसंगों के वर्णन सुन कर ही आप विमल महाजन हो गए होंगें और आप में भी ये जानने की हिम्मत नहीं होगी कि इस अवसर का लाभ उठाते हुए कौन सोनी का सस्ता टी वी लाया कोई जे वी सी का।
यह एक नया कथानक था जिसने मुझे आकर्षित किया और जो तेजेंद्र रचनात्मक धरातल पर दूर लगता था और मेरी व्यंग्य केंद्रित मानसिकता के कारण जीवन में जो उपेक्षा थी उसे अपेक्षा में परिवर्तित ही नहीं किया अपितु उसे धीरे-धीरे रचनाकार तेजेंद्र को मेरे करीब करना आरंभ कर दिया। इस धीरे-धीरे प्रक्रिया में मैं तेजेंद्र के जीवन में भी करीब होने लगा। तेजेंद्र से व्यक्तिगत रिश्ता जुड़ने की प्रक्रिया इतनी सहज,धीमी और अनायास रही कि पता ही नहीं चला कि कब हमने अपने रहस्य एक दूसरे से बांटने आरंभ कर दिए। कहा जाता है कि व्यक्ति अपने मित्रों से वो सब शेयर कर लेता है जो अपनी पत्नी से भी नहीं कर पाता है। वैसे तो आजकल अधिकांश मित्र वही है जो मित्र नहीं है। आपको टूल बनाकर इस्तेमाल करने वालों की कमी नहीं है और न ही यूज एंड थ्रो के सिध्दांत का पालन करने वालों की कमी है। उनको आपकी आवश्यक्ता है तो एक मिठास की परत दर परत से आपको चारों ओर से घेर लिया जाएगा और यदि आप अनावश्यक हो गए तो उपेक्षा का कवच पहन आपको कठिनाई से पहचानने की नौटंकी की जाएगी। तेजेंद्र ने एक बार किसी को पहचान लिया तो पहचान लिया, फिर छोटे मोटे झटके उस पहचान की डोर को नहीं तोड़ पाते है। इस संदर्भ में तेजेंद्र का व्यक्तित्व मुझे कन्हैयालाल नंदन जैसा लगता है। जहां सबंधों की सहजता है, जहां सबंधों को श्मशान तक छोड़ने की चाह है।
मेरे कुछ समव्यस्क अंतरंग साहित्यिक मित्रों-- दिविक रमेश, हरीश नवल, प्रताप सहगल- के अतिरिक्त जिस दम्पत्ति का घर में आना जाना मेरी पत्नी बहुत पसंद करती है उनमें तेजेंद्र का नाम भी, कुछ देर बाद ही सही, जुड़ा। इन लोगों के साथ किसी औपचारिकता की आवश्यकता नहीं होती है और एक अच्छा समय अपनी स्मृतियों से भिगो जाता है। त्रिनिदाद में सन् 2002 में तेजेंद्र जब अंतरराष्ट्रीय संगोष्ठी के लिए आया तो लगभग एक सप्ताह साथ रहा। मेरी पत्नी आशा ने बहुत सक्रिय और आत्मीय भूमिका निभाई। तेजेंद्र के मिलनसार स्वभाव ने आशा को प्रभावित किया और उसकी मीठी-मीठी बातों को सुनकर आशा ने कहा कि यह दूसरा हरीश लगता है। हरीश में भी आपको पहली मुलाकात में ही प्रभावित करने का अद्भुत गुण है। यह मई 2002 की बात है और मुझे जून-जुलाई में अपना बढ़ा हुआ कार्यकाल समाप्त करके भारत लौटना था। तेजेंद्र को जब ये पता चला तो उसने आशा से वायदा ले लिया कि लौटते समय हम लोग उसके पास कुछ दिन रुक कर अवश्य जाएंगे। उन दिनों वह ज्ञान चतुर्वेदी को मिलने वाले इंदु शर्मा कथा सम्मान कार्यक्रम की योजना भी बना रहा था। उसने मुझसे कहा - ज्ञान पर तुमसे बेहतर कौन बोल सकता है इसलिए अपने लैटने की तिथि जल्दी बताना जिससे कार्यक्रम को उसी के अनुरूप रख लिया जाए।'' एक पंथ कई काज होने वाले थे सो मैंने एकदम स्वीकार लिया। पर बाद में उच्चायुक्त श्री वीरेंद्र गुप्ता के आग्रह पर सम्मेलन के बाद की रिपोर्ट तैयार करने और सम्मेलन के लिए गए परचों को एक स्वरूप देने के लिए मुझे अक्टूबर तक त्रिनिदाद में रुकना पड़, जिससे लंदन में अपने मित्र ज्ञान पर बोलने और वर्षो बाद उससे मिलने की इच्छा पर 'कुठाराघात' हुआ ऐसा कुठाराघात जिसकी कुठार का कारण मैं ही था। तेजेंद्र और ज्ञान का उदास होना स्वाभाविक था। अक्टूबर में जब हमारे जाने का तय हो गया और टिकट आ गए तो मैंने तेजेंद्र को ई मेल लिखा। लगभग, मेल मिलने के, तत्काल ही तेजेंद्र का फोन आया- भाभी के साथ लंदन जरूर आना ओर मेरे यहां ही रुकना। रुकने की व्यवस्था ठीक तो नहीं होगी कयोंकि घर में रेनोवेशन चल रहा है, बैठक का फर्श उखड़ा हुआ है पर उम्मीद है कि तुम्हारे आने तक जम जाएगा...
. तेजेंद्र, बॉस बुरा मत मानना, हम आएंगे पर ऐसा करना कि कहीं कोई होटल देख देना...
. सर जी, अगर आप के घर में काम चल रहा होता तो क्या आप लोग होटल में रहते या फिर मैं आ जाता तो मुझे होटल में ठहराते?'' तेजेंद्र के ऐसे सवाल अक्सर मुझे निरुत्तर करते रहे हैं और ऐसे सवालों के आगे मैं अपने हथियार डालता रहा हू। आशा आज भी याद करती है कि कैसे सुबह नैना के जल्दी ऑॅफिस जाने के बाद तेजेंद्र मोटे-मोटे दो बढ़िया परांठे हम दोनों के लिए बनाता था और साथ में एक बड़ा कप चाय का भर कर देते हुए कहता- भाभी जी, होलसेल में खा पी लो, घूमने जाओ तो कुछ तो पाउंड बचेंगें।'' ऐसे बहुत किस्से हैं उसकी आत्मीयता के, जो उसे मेरा मित्र कम परिवार का अंग अधिक बनाते हैं।
मुझे तेजेंद्र ऐसे द्वीप की तरह लगता है जो दूर से देखने पर रहस्यमय और अबूझ लगता है पर पास जाने पर अपने नैसर्गिक सौंदर्य को धीरे धीरे खोलता हुआ या कहूं लुटाता हुआ अपने आकर्षण में ऐसा बांधता है कि आप उसके पाश से छूट नहीं पाते है। तेजेंद्र एक ऐसी सीधी रेखा है जो दूर से देखने में सरल लगती है पर जब उसके नीचे की परतें खुलती हैं और अन्य सीधी रेखाएं सामने आने लगती हैं तो व्यक्ति वक्र रेखा-सा र्किंकत्तव्यविमूढ़ हो जाता है। इस तरह के बीच दो छोरों पर बांधी हुई ऐसी सीधी रेखाएं भी हैं, जो जब छोरों से मुक्त होती हैं तो वक्र हो जाती हैं।
अब यदि मैं यह कहूं कि तेजेन्द्र मेरा अच्छा मित्र है और उसकी कहानियों को पढ़ना मुझे अच्छा लगता है तो मेरा यह वाक्य पढ़ते ही कुछ संतों को मुझसे ईर्ष्या होने लगेगी , विशेषकर उन संतों को जो तेजेंद्र के आत्मीय हैं, कि यह कौन आ गया तेजेंद्र का ' अच्छा ' । क्योंकि यह मानवीय कमजोरी है कि हम अपने आत्मीय को अपने लिए ज्यादा चाहते है और दूसरे के साथ बांटने को बिल्कुल तैयार नहीं होते है। मैं जानता हूं कि तेजेंद्र के पास मित्रों की एक पूरी फ़ौज है और उस फ़ौज की हर इकाई तेजेंद्र को अपने करीबी होने का दावा करती हैं। करीबी व्यक्ति की सबसे बड़ी कमजोरी ये होती है कि वह दूसरे की समीपता को बर्दाश्त नहीं कर पाता है। यह प्र.ति का नियम है कि कोई बहुत करीब रहा हो और कोई दूसरा उसके करीबी के पास आ रहा हो तो उसे अपने दूर होने का अहसास होने लगता है। और सबसे पहले वो यह आरोप लगाता है कि उसका करीबी गलत हाथों में पड़ गया है। तेजेंद्र प्रयत्न करता है कि वह कान्हा की तरह सब में बराबर बंटा रहे पर ऐसा हो कहां पाता है। इसलिए जैसे ही पहले को दूसरे और दूसरे को पहले के करीब होने का पता चलाता है, हालात खराब होने लगते हैं । सन् 2007-08 में तेजेंद्र ने अपने साहित्यिक मित्रों की फौज में एक और रेजिमेंट का इज़ाफ़ा किया है। लेखन तेजेंद्र की प्राथमिकता और वह एक महत्वाकांक्षी लेखक है। हर लेखक को यह हक है कि अपने विकास और अपने सही मूल्यांकन के लिए अपना रास्ता तलाश करे। आज के साहित्यिक माहौल में तेजेंद्र ग़लत भी नहीं है। पर उसके इस कदम से उसके कुछ करीबियों की दूरी उसके लिए भी चिंता का विषय हो तो अच्छा है। आगे बढ़ते हुए हम पीछे मुड़कर अपने कदमों के निशानों के साथ और निशानों पर धूल न डालते हुए चलें तो अच्छा है। मुझे मालूम है कि तेजेंद्र कभी ऐसा करने में विश्वास नहीं करता है और यह मैं अपने व्यक्तिगत अनुभव के आधार पर कह रहा हूं, क्योंकि 2008 में जब अपनी समस्त व्यस्तताओं के बीच तेजेंद्र ने मुझसे मिलने को आवश्यक कार्य माना और साहित्य से लेकर परिवार तक के व्यक्तिगत प्रसंग शेयर किए तो मुझे वो अपने और करीब लगा। मुझे अच्छा लगा कि उसके लेखन का मूल्यांकन हो रहा है और मुझे विश्वास है कि यह मूल्यांकन किसी स्वार्थ साधन का हिस्सा नहीं है।
आधुनिक आलोचना या तो सम्प्रदाय सापेक्ष होती है या फिर व्यक्ति सापेक्ष । मेरे विचार से अधिकांश समीक्षाएं इसी .ष्टिकोण के साथ लिखी - पढ़ी जा रही हैं । मैंने जब तेजेंद्र का पहला संग्रह पढ़ा तब न तो तेजेंद्र किसी सम्प्रदाय का सदस्य था, सम्भवतः अब भी नहीं है, और न ही व्यक्ति रूप में उसे जानता था । 'काला सागर ' की कहानियां पढ़ते ही मुझे लगा कि एक भिन्न अनुभव-क्षेत्र से गुजर रहा हूं । सागर पार हवा में घूमते हुए विभिन्न चरित्रों एवं घटनाओं से जो साक्षात्कार लेखक ने किया वह उसका अपना अनुभव संसार था जिससे बहुत कम पाठकों का साक्षात्कार होता है । तेजेंद्र की शैली इतनी जीवन्त है कि पाठक स्वयं को उस संसार का हिस्सा समझने लगता है ।
मैं तेजेंद्र की कहानियों को 'हंस', 'वर्तमान साहित्य', 'वागर्थ' 'नया ज्ञानोदय' जैसी महत्वपूर्ण साहित्यिक पत्रिकाओं के साथ साथ अन्य साहित्यिक पत्रिकाओं में पढ़ता रहा हूं। मैं तेजेंद्र की लेखन-इतर गतिविधियों से भी मैं परिचित रहा हूं । अपनी दिवंगत पत्नी इंदु के सम्मान में पुरस्कार की स्थापना उसकी रचनाओं में आई आपसी सम्बन्घों के प्रति उसकी प्रतिबध्दता को सही सिध्द करती है । उसकी रचनाओं में ही नहीं उसके व्यक्तिगत जीवन में भी मानवीय मूल्यों के प्रति जो प्रतिबद्धत्ता है , मेरे विचार से वही उसकी ताकत भी है । वह सम्बन्धों को रचना और व्यक्ति दोनों आधारों पर जीता है । जिस गंभीरता से वह 'अंतरराष्ट्रीय इंदु शर्मा कथा सम्मान' का आयोजन लगभग एकला-चलो की शैली में कर रहा है वह उसकी साहित्य और सबंधों के प्रति प्रतिबध्दता को रेखांकित करता है। इस आयोजन में उसे सूरज प्रकाश और उसकी पत्नी मधु, हरि भटनागर, अजित राय आदि का जो सहयोग मिल रहा है यह उसके सबंधों के कारण है पर पुरस्कार में वह किसी प्रकार के सबंध नहीं निभाता है। उसके द्वारा पुरस्कार के लिए चुनी गई सभी .तियों की आलोचकों ने प्रशंसा की है। तेजेंद्र अपनी आलोचकीय क्षमता पर विश्वास करता है न कि दूसरों की लुच्चीय प्रभाव क्षमता से प्रभावित होता है। उसके कुछ स्वार्थ हो सकते हैं पर वे प्रबल नहीं हैं अपितु पार्श्व में हैं जबकि उसी के समानधर्मी एक निश्चित बाज़ारवादी योजना के तहत अपने व्यवसाय को फैला रहे हैं।
अनेक बार रचनाकार को व्यक्तिगत रूप से जानना आपको सीमा में बांधता है परन्तु उसकी रचनाओं को एक नए कोण से देखने की दृष्टि भी देता है । आप उसके अतीत और वर्तमान को जानते हैं और उसकी रचनाओं में उसे ढूंढ ही लेते हैं । वैसे भी रचना रचनाकार के व्यक्तिगत अनुभवों की निर्वैर्यक्तिक अभिव्यक्ति ही तो है । मैं दावा नहीं कर सकता कि मैं तेजेंद्र के व्यक्ति से पूर्णतः परिचित हूं, ऐसा दावा कोई भी नहीं कर सकता है, पर जितना परिचित हूं उस आधार पर रचनाकार को उसकी रचना में न चाहते हुए भी ढूंढूंगा ।
जो तेजेंद्र के व्यक्तिगत जीवन को जानते हैं वे जानते हैं कि उसकी पत्नी की मृत्यु कैंसर से हुई थी । उसके संग्रह देह की कीमत की अधिकांश कहानियों के केंद्र में यही थीम है । शरीर और मन से लड़ता हुआ रचनाकार अपने पाठकों के सामने अनेक सवाल रखता है । सम्बन्धों की इन कहानियों में अनेक ऐसे सवाल हैं जो हमारे अपने सवाल लगते हैं । इन कहानियों में अधिकांशतः औरत कर दर्द है । उसके देह की कीमत ही नहीं लगती है अपितु एक मानसिक तनाव में जी रही 'वह ' समाज में अपनी कीमत , अपनी भूमिका के लिए जूझ रही है । तेजेंद्र ने अपनी कहानी की औरत को यांत्रिक नहीं बनाया है । हर ज़ोर जुल्लम की टक्कर में 'वह' फ़ॉर्मूलाबद्ध औरत से अलग है और यही कारण कि उससे आत्मीयता होती है, उसका दर्द अपना दर्द लगता है तथा उसके लिए कुछ करने का मन करता है । देह की कीमत अलग अलग रूपों में सामने आती है । कहीं यह ' देह की कीमत ' की पम्मी के रूप में, पैसा कमाने अवैध रूप से विदेश गए अपने मृत पति के साथ बिताए पांच महीनों की बख्शीश के रूप में सामने आती है । यह कहानी मुझे बहुत कुछ प्रेमचंद की कहानी कफ़न की याद दिलाती है जो हमारे समाज के यथार्थ से हमारा साक्षात्कार कराती है । एक ओर भावनात्मकता है तथा दूसरी ओर स्वार्थ में लिपटी तथाकथित सांसारिकता है । एक ओर विदेश में मृत हरदीप के अवैध रूप से विदेश गए वो साथी हैं जो मानवीय भावना में बंधे उसकी लाश को भारत पहुंचाने के लिए चंदा कर तीन लाख रुपया इक्ट्ठा करते हैं और दूसरी ओर भारत में हरदीप के पिता को छोड़कर परिवार के सदस्य हैं , जो इस लाश का मूल्य लेना चाहते हैं । हरदीप के भाई लाश लेने के बहाने से टोकियो जाना चाहते हैं और वहां बसना चाहते हैं । दूसरी ओर हरदीप की मां को बेटे की लाश में तीन लाख का लाभ दिखाई देता है । यही कारण है कि दारजी --- '' ...... अपने परिवार को देखकर हैरान थे , क्षुब्ध थे .... अपने ही पुत्र या भाई के कफ़न के पैसों की चाह इस परिवार को कहां तक गिरायेगी, उन्हें समझ नहीं आ रहा था । मन किया सब कुछ छोड़- छाड़कर संन्यास ले लें । '' और इस सबको देखते हुए पम्मी अपने आपसे सवाल करती है -- '' अस्थियां और बैंक ड्राफ़्ट आ पहुंचे हैं । बाहर बीजी का प्रलाप जारी है , दारजी दुखी हैं । और अंदर कमरे में पम्मी अपनी सूजी आंखों से कलश को देख रही है । ....... उसने तीन लाख रुपए का ड्राफ़्ट उठाया । ......... उसे समझ नहीं रहा था कि यह उसके पति के देह की कीमत है या उसके साथ बिताये पांच महीनों की कीमत।'' देह की एक ऐसी ही कीमत का पता, और इस बार यह देह उसकी ही है , उसकी यानि ' श्वेत श्याम श् कहानी की संगीता की । संगीता का पति हेमन्त कंपकंपाती शीत ऋतु में भी सीमा पर पहरेदारी कर रहा है और पांच सितारा होटलों की यह प्रेम -दीवानी देह व्यापार के धंधे में स्वयं को फंसाती है । उसकी और कोई विवशता नहीं है केवल इसके कि उसे ऐशो आराम के लिए ढेर सारा पैसा चाहिए जो जीन सितारों को कंधे पर लगाने वाला और उसी कंधे पर देश का भार ढोने वाला नहीं उठा सकता । अंततः वह अपने देवर को ही ग्राहक के रूप में पाती है और पश्चाताप् की आग में जलने लगती है । तेजेंद्र के मन में इस पात्रा के लिए भी पर्याप्त सहानुभूति दिखाई देती है , शायद यह उसका नारी के प्रति अति भावुक दृष्टिकोण है, किन्तु मैं ऐसी पात्रा के साथ कोई सहानुभूति नहीं रख पाता हूं । इनका पश्चाताप् मुझे ओढ़ा हुआ लगता है । केवल अपने भौतिक सुख के लिए अपने शरीर को बेच देना कहां की आधुनिकता या क्रांतिकारिकता है ।
तेजेंद्र की उन कहानियों को जो कैंसर पीड़ित नायिका पर लिखी गई हैं पढ़कर मुझे लगा कि मैं किसी उपन्यास के अध्याय पढ़ रहा हूं । ' कैंसर ' ' रेत का घरौंदा', ' अपराध बोध का प्रेत ' . इन कहानियों का केन्द्रबिन्दु एक है मगर ट्रीटमेंट अलग है । इन कहानियों की रचना में तेजेंद्र का मन विशेष रूप से रमा है । लगता है तेजेंद्र किसी अदालत के सामने कसम खा रहे है -- मैं सच कहूंगा , सच के इलावा कुछ नहीं कहूंगा । इन कहानियों का नायक नरेन है। केवल इन कहानियों का ही नहीं , एक दूसरे थीम की कहानियों का नायक भी नरेन है । यह नरेन ' कोष्ठक ' की कामिनी की दृष्टि में बहुत जीवन्त व्यक्ति है, '' बड़ा जीवन्त आदमी है नरेन । कठिन से कठिन समस्या के साथ जूझते समय भी नरेन के चेहरे पर मुस्कान ही दिखाई देती है । शिकन का तो उसके चेहरे से दूर का सम्बन्ध भी नहीं । बात बात पर मज़ाक करना , ठाहका लगाना और जीवन के एक एक क्षण को जी लेना उसका स्वभाव है । '' तो ' रेत का घरौंदा ' की दीपा का नरेन ,'' जीवन के हर पहलू के लिए तर्क खेज लेता है । '' नरेन का मानना है कि भावना और तर्क दिमाग के ही दो रूप हैं । हर व्यक्ति दिमाग से ही सोचता और जीता है । ...... किसी के दिमाग में भावनाएं तर्कशक्ति पर हावी हो जाती हैं , तो वह इंसान भावुक बन जाता है , तर्क शक्ति को तिलांजलि देता है । ..... जबकि किसी के दिमाग में तर्क शक्ति भावनाओं से अधिक बलशाली हो जाती हैं तो भावुकता उस व्यक्ति का साथ छोड़ देती है । कहीं नरेन लेखक है और कहीं वह जीवन से पलायन करता दिखाई देता है । तेजेंद्र का यह पात्र अनेक स्थलों पर हीरो होते हुए भी एक स्वाभाविक चरित्र है । तेजेंद्र ने उसको अपनी जिंदगी स्वयं जीने का अवसर दिया है।
कैसर बीमारी के माध्यम से तेजेंद्र ने आपसी सम्बन्धों में फैल रहे कैंसर का जिक्र किया है । यही कारण है कि पूनम सवाल करती है -- '' मेरा पति मेरे कैंसर का इलाज दवा से करने की कोशिश कर सकता है ........... मगर जिस कैंसर ने उसे चारों ओर से जकड़ रखा है...... क्या उस कैंसर का कोई इलाज है ।'' इस कथ्य की कहानियां जहां अपने ट्रीटमेंट में नवीनता लिए हुए हैं वहीं कई बार यह भी लगता है कि कहानी जैसे रचनाकार के बने बनाए निष्कर्ष पर चल रही है । एक सोची सुचाई पूर्व निश्चित जमीन है जिस पर तेजेंद्र अपने पात्रों को चलाना चाहते हैं । ऐसे में मुझे उनकी चाल में अस्वाभाविकता सी दिखाई देने लगती है । पर इसका कारण यह भी हो सकता है कि तेजेंद्र अपने जीवन को उस अनुभव को अनेक कोणों से हमारे सामने प्रस्तुत कर रहा है और इस प्रस्तुति से संतुष्ट न होने के कारण एक दोहराव के कारण कृत्रिमता आ रही है । यह मेरा अपना सीमित दृष्टिकोण भी हो सकता है और हर व्यक्ति इसका शिकार होता है पर वह इस स्वीकार नहीं करता है । जैसे अगर मैं कहूं कि ' तुम क्यों मुस्कराए ' में सूरी सर के प्रति आलोचनात्मक दृष्टिकोण इसी का परिणाम है तो वह स्वीकार नहीं करेगा ।
तेजेंद्र शर्मा की कहानियों को पढ़ना आसान नहीं हैं। ये कहानियां आपका रिश्ता एक ऐसे दर्द से जोड़ देती हैं जो आपकी ज़िंदगी का हिस्सा बन जाता है। ऐसे में तेजेंद्र की कहानी कहानी नहीं रह जाता है, वह अपनी रचनात्मकता के साथ आपके रगो-रेशे में बस जाती है। दर्द से रिश्ता आसान नहीं है पर ये तो ऐसा दर्द है जो करुण रस का सुख देता है, जो जीवन को एक व्यापक सोच देता हे और एक विशाल फलक पर मानवीय मूल्यों से साक्षात्कार कराता है।
तेजेंद्र की कहानियां आपको सीमित नहीं करती हैं और न ही एक बंधे बंधाए परिवेश को दोहराती हैं अपितु एक नयेपन के साथ जीवन के सौंदर्य को साक्षात करती हैं। उनका यह नया संग्रह उसी कड़ी क़ा एक महत्वपूर्ण हिस्सा है। सरहद पार के हमारे रिश्ते अबूझ सी पहेली बने हुए हैं। उनमें कोई स्पष्टता नहीं दिखाई देती है। ऐसे बहुत कम लेखक हैं जिन्होंने उस परिवेश की सच्चाई को समझने और उसे रचनात्मक प्रस्तुति देने का साहस किया है। तेजेंद्र ने सरहद पार मुसलिम परिवेश में जी रहे नगमा जैसे चरित्रों (एक बार फिर होली) को हिंदी साहित्य का हिस्सा बनाया है जिसने उस मौत को गले लगाया है जिसमें इंसान का शरीर तो नहीं मरता लेकिन आत्मा अनेक मौतें मर जाती है। जो आज भी, छलनी हुई उस आत्मा को अपने उस शरीर में ढो रही है जिसमें अपने उपर चढ़ाए गए कपड़ों को उठाने की ताकत नहीं। पर इस छलती हुई आत्मा के साथ वह इंसानों को दायरे में बांटने वाली उस संकुचित मानसिकता से संघर्ष करती है जो इंसानियत की आत्मा को छलती करने में लगे हुए हैं।
तेजेंद्र में एक विशिष्ट कलात्मकता है जो जीवन के यथार्थ को कटु नहीं होने देती। वह जीवन की सच्चाई को अभिव्यक्त करते हुए रचनात्मकता एवं कलात्मकता का एक संतुलन बनाए रखते हैं। उनकी यही खूबी कहानी को समाप्त करने से पहले पाठक को अपने वर्तमान में लौटने नहीं देती है। और अपने वर्तमान में लौटने के बावजूद उनकी कहानियों का पाठक तेजेंद्र की कहानियों के कथा परिवेश से स्वयं को मुक्त नहीं कर पाता है। उनकी कहानियों की यही ताकत विभिन्न भाषाओं में अनूदित होने के बावजूद अपनी प्रभावमता को कम नहीं होने देती है . कुल मिलाकर तेजेंद्र की कहानियां आपको सोचने तथा कहने के लिए बाध्य करती है । एक नए अनुभव जगत में ले जाती है तथा एक उपलब्धि का बोध कराती हैं।
एक कथाकार के अतिरिक्त तेजेंद्र के अन्य मोहक रूप हैं। हिंदी भाषा के प्रति उसकी सोच साफ है। मुझे याद है त्रिनिदाद में मई 2002 में जब वेस्ट इंडीज विश्वविद्यालय, हिंदी निधि और भारतीय उच्चायोग के संयुक्त तत्वावधान में आयोजित अंतरराष्ट्रीय संगोष्ठी का मैंने अकादमिक समिति के अध्यक्ष के रूप में तेजेंद्र को निमंत्रण भेजा तो उसने जो उत्तर दिया वो किसी मित्र को नहीं अपितु समिति के अध्यक्ष को सभी औपचारिकताओं को निभाते हुए लिखा था । पत्र का मजमून साफ था कि यदि मेरा सार आपको सम्मेलन के उपयुक्त लगे तो मैं आने को तैयार हूं, केवल घूमने की लालच से आना संभव नहीं है क्योंकि मैं अंतरराष्ट्रीय इंदु कथा सम्मान की तैयारियों में भी फंसा हुआ हूं। तेजेंद्र पूरी गंभीरता के साथ अपना आलेख लिख कर लाया था और उसने न केवल अपने अकादमिक व्यक्तित्व से त्रिनिदाद के हिंदी प्रेमियों को प्रभावित किया अपितु अपने मिलनसार व्यक्तित्व से भी लोगो का दिल जीता और इस जीत के चक्कर में अनेक प्रतिभागी जलन का शिकार हुए। न्यूर्याक में हुए विश्व हिंदी सम्मेलन पर भी तेजेंद्र की कटु टिप्पणियां हिंदी के रक्षकों को याद होंगीं।
तेजेंद्र नई तकनीक से घबराते नहीं हैं अपितु उसका सदुपयोग करते हैं। इंटरनेट से जुड़े हिंदी प्रेमी उसकी इस प्रतिभा से भली भांति परिचित हैं और यदि आप परिचित नहीं हैं तो बस तेजेन्द्र शर्मा से मुलाक़ात कर लीजिए, आप सब भी इंटरनेट के मित्र बन जाएंगे और युनिकोड में टाइप करना शुरू कर देंगे।
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प्रेम जनमेजय हिन्दी व्यंग्य के प्रमुख हस्ताक्षर हैं। वे हिन्दी की बेहतरीन व्यंग्य पत्रिका व्यंग्य यात्रा के संपादक हैं। देश विदेश में विभिन्न पुरस्कारों से सम्मानित प्रेम जनमेजय के अब तक आठ व्यंग्य संग्रह, तीन बाल साहित्य, दो पुस्तकें नवसाक्षरों के लिए तथा कुछ संपादित पुस्तकें।
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