एस. के. पाण्डेय का व्यंग्य - राजनीति के गुर

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चिरौंजीलाल बहुत ही परेशान थे। क्योंकि उनका लड़का कबीर दास जी के पुत्र कमाल जैसा बनता जा रहा था। मतलब उल्टे रस्ते पर चल रहा था। कबीर दास जी को...

चिरौंजीलाल बहुत ही परेशान थे। क्योंकि उनका लड़का कबीर दास जी के पुत्र कमाल जैसा बनता जा रहा था। मतलब उल्टे रस्ते पर चल रहा था। कबीर दास जी को बड़े दुख से कहना पड़ा था- ‘बूड़ा बंश कबीर का उपजा पुत्र कमाल, हरि का कीर्तन छोड़ के घर ले आया माल’। कबीरदासजी महात्मा थे उन्हें राम भजने से मतलब था। माल का क्या करते ? कोई आज के महात्मा तो थे नहीं। और बेटा निकला आधुनिक जो रामरत न होकर मालरत हो गया।

चिरौंजीलाल अपने बेटे को राजनीति के गुर सिखाना चाहते थे। लेकिन इन्हें यह नहीं पता था कि वह इनका भी गुरु है। और इनके रहते उसे अपना भविष्य अंधकारमय दिखता है। क्योंकि वह डिरेक्ट प्रधानमंत्री बनने को सोच रहा था। और इधर अभी बाप का भी नम्बर नहीं लग पाया था। इसलिए वह इन्हें हटाने अथवा दूसरी पार्टी बनाने के बारे में सोचा करता था। लेकिन अभी खुली बगावत करने के लिए उचित समय की प्रतीक्षा कर रहा था।

ये सोचते कि लोग हमसे राजनीति के गुर सीखते हैं। और यह पता नहीं किस चक्कर में पड़ा है। किसी का स्तर उठाना हो या किसी को उठवाना हो अथवा किसी को धरती से उठाना हो तो लोग हमारा ही उदाहरण देते हैं।

दिखाने के लिए वह पढ़ाई-लिखाई में बहुत व्यस्त रहता था। इन्हें क्या मालूम कि वह क्या पढ़ता है ? इसलिए चिरौंजीलाल को लगता था कि यह उल्टे रस्ते जा रहा है। पत्नी से कहते कि समझाओ अपने लाड़ले को। हमने केवल कक्षा पांच पढ़कर यह मुकाम हासिल किया है। जब राजनीति ही करना है तो अधिक पढ़कर क्या करना ? आखिर यह पढ़कर क्या बना लेगा ? पढ़ाई से क्या मिलता है ? अनेकों पढ़े-लिखे घूमते हैं। कितने तो हमारे पास आते हैं। कहते हैं कि नेताजी कुछ कृपा करो। किसी तरह दाल-रोटी का इंतजाम हो जाय तो यही बहुत होगा।

कुछ लोग घूस देकर, जोर सिफारिश लगाकर अधिकारी बन जाते हैं। लेकिन वे जो जिंदिगी भर में कमाते हैं। उतना हम पांच साल में इकट्ठा कर लेते हैं। और अधिकारी चाहे जितना बड़ा क्यों न हो, रहता तो हमारे ही अधिकार में है। हम जैसा चाहते हैं, उसके साथ वैसा ही व्यवहार करते हैं।

हम लोग ही आज के राजा हैं। और लोग दास हैं। देश में सबसे अधिक सुपास हमीं लोग ही करते हैं। और करने को कुछ नहीं। बस राजनीति में मौज-मस्ती ही है। देश-विदेश घूमो। खाओ और खाते जाओ। इतना खाओ कि देश में पैसा रखने के लिए जगह कम पड़ जाय। फिर विदेश में भी खाते खोल लो। अपना भी भला और विदेश वालों का भी भला। रही बात देश वालों की तो ये रहें चाहे जाएँ भाड़ में। हमें क्या ? बस किसी तरह इनका वोट मिल जाया करे।

लोग समझते हैं और हम भी कहते हैं कि हम जनसेवा करते हैं। लेकिन लोकतंत्र में जनसेवा का मतलब कुछ इस तरह होता है-

नेता बनि भरि लीजिए यसकेपी भंडार।

जनसेवा यह ही बड़ी बिना किए धिक्कार ।।

कोठी हो हर शहर में हर कोठी में कार।

यसकेपी सेवा यही करत लगे नहि वार ।।

बिजली विल या फोन विल को नहि कोई भार।

यसकेपी को का करी हम भारत सरकार।।

राजनीति में कथनी और करनी को बहुत दूर रखना होता है। जनता के समक्ष जो-जो वादें हम लोग कर देते हैं। उन्हें यदि पूरा भी कर दें तो राजनीति क्या खाक करेंगे ? यदि डॉक्टर मरीज को ऐसी दवा दे जिससे उसका रोग जल्दी से छू मंतर हो जाय तो क्या बैठकर मक्खी मारेगा ? इसलिए उनको बड़ी सावधानी बरतनी पड़ती है। बस मरीज का किसी तरह विश्वास बनाये रखना होता है। इस तरह कई लोग साधारण बुखार ठीक करने में भी कई हफ्ते लगा देते हैं।

हम लोग भले ही प्रजातंत्र का मतलब जनता को कुछ दूसरा बताएं और किताबों में भी वैसा ही लिखवा दें। लेकिन दरअसल ऐसा तंत्र जिसमें नेता स्वतंत्र रहें और आम प्रजा त्रस्त्र रहे। वही तंत्र प्रजातंत्र होता है। हम लोगों को इस प्रजातंत्र को चलाने के लिए तंत्र और मंत्र सब प्रयोग करना पड़ता है। और सार रूप में लोकतंत्र का यही मतलब है कि कुछ भी हो जाय लेकिन हमारी सरकार बची रहे -

यसकेपी नेतन मते लोकतंत्र को सार।

लोक जाय परलोक को बची रहे सरकार।।

जो बात लोक में लागू होती है। जरूरी नहीं है कि वह लोकतंत्र में भी लागू हो। लोक और लोकतंत्र में बहुत अंतर है। तंत्र के सिपल्सर कुछ यंत्र जैसा व्यवहार करते हैं। यंत्र अपने आप, जब तक उसे बाहर से कोई शक्ति न मिले काम नहीं करता। इसी तरह लोक तन्त्र के जितने भी तन्त्र हैं, वहाँ बाहरी शक्ति की जरूरत होती है। अब यह शक्ति चाहे नगदेश्वर के जरिये मिले चाहे जोड़-तोड़ से। बिना बाहरी शक्ति के काम बनना मुश्किल ही रहता है।

लोक में एक प्रचलित कहावत है कि ' जो जैसा करे वो वैसा भरे ' । लेकिन लोकतंत्र में यह लागू नहीं होती। लोकतंत्र में इसी तरह की दूसरी कहावत चलती है- ' जो करे सो मरे और जो कुछ न करे सो भरे' ।

लोक में जो परीक्षा देता है, वही सफल अथवा असफल होता है। लेकिन लोकतंत्र में ऐसा बिल्कुल नहीं है। यहाँ बिल्कुल इसके विपरीत होता है। लोकतंत्र में परीक्षा जनता को देना पड़ता है। और सफलता नेता को मिलती है। जनता हमेशा असफल ही होती है। इसके लिए हमें राजनीति के गुर की जरूरत पड़ती है।

लोक में स्थाई दुश्मन भी होते हैं। लेकिन लोकतंत्र में कोई अपना स्थाई दुश्मन नहीं होता है। लोक में लोग साधारण सी बातों पर मन मुटाव कर लेते हैं। जैसे कोई किसी को गाली दे दे। तो लोग मार पीट पर भी उतारू हो जाते हैं। लेकिन हम लोग एक जगह जिसको गाली देते हैं। दूसरी जगह उसी से हाथ मिला लेते हैं। लोकतंत्र में दोस्त और दुश्मन की परिभाषा यही है कि जो कुर्सी दिलाने और बचाने में काम आये वह दोस्त। और जो काम न आये किसी भी तरह बाधक बने तो वह दुश्मन। इस तरह जो आज दुश्मन है, वह कल मित्र हो सकता है। और जो आज दोस्त है, वह कल दुश्मन हो सकता है।

राजनीति करना बच्चों का खेल नहीं है। यह बहुत अनुभव और तिकड़म माँगती है। जब कभी किसानों की सभा होती है तो हम किसानों का वाना धारण करके उनकी सभा में शिरकत करते हैं। उनसे कहता हूँ कि हम पहले भी किसान थे और आज भी किसानी नहीं भूले हैं। और हल का मूठ भी पकड़ कर दिखा देते हैं। मीडिया वाले चित्र लेते हैं। कुछ प्रश्न भी करते हैं। तो बता देते हैं कि भारत किसानों का देश है। जो नेता किसान नहीं बन सकता वह भारत का नेता नहीं हो सकता। वह किसानों का दुख-दर्द कभी नहीं समझ सकता। इसके साथ विरोधियों पर जमकर कीचड़ उछालता हूँ। और अंततः उन्हें किसान विरोधी साबित कर देता हूँ।

दूसरे-समुदायों के तीज-त्योहारों में भी हम उन्हीं का वेशभूषा धारण करके बढ़-चढ़ कर भाग लेते हैं। इससे हम यह साबित कर देते हैं कि ‘सर्वधर्म-समभाव’ रखने वालों में हमारी मिसाल नहीं है। उनके तीज-त्योहारों को ध्यान में रखकर कुछ और छुट्टियाँ करने का वादा भी कर लेता हूँ। साथ ही विरोधियों को साम्प्रदायिक बताना नहीं भूलता और कह देता हूँ कि आप लोग साम्प्रदायिक शक्तियों को सबक सिखाने के लिए हमेशा तैयार रहें।

साम, दाम, दंड, और भेद इन चारों की राजनीति में जरूरत पड़ती है। भेद नीति की आवश्यकता जनता को अपनी पार्टी से जोड़ने और अन्य पार्टियों को तोड़ने के लिए होती है। चिरौंजीलाल आगे बोले कि दंड नीति हमारा बहुत बड़ा हथियार है। इससे बड़े विरोधियों को हटाया जाता है। इसका इस्तेमाल जनता पर भी किया जाता है। लेकिन जनता को इतनी सूक्ष्मता से दंडित किया जाता है कि जनता अपने को मंडित समझती रहती है।

जब सब कुछ अपना है तो क्या लेना और क्या नहीं लेना। लेकिन इसका मतलब यह नहीं है कि हम सिर्फ लेना ही जानते हैं। हमें देना भी आता है। कभी वोट के बदले तो कभी चोट के बदले देते हैं । खुद ही घाव करके मरहम पट्टी भी करना हमें आता है। इस तरह हम डाक्टरी भी जानते हैं। कभी बेचते हैं तो कभी खरीदते भी हैं। यानी एक अच्छे व्यापारी भी हैं। कभी अधिक पाने के लिए तो कभी सब कुछ हड़प जाने के लिए भी देते हैं। इस तरह दाम नीति का भी प्रयोग हो जाता है।

साम नीति पर भी हमारी अच्छी पकड़ है। चुनाव के दौरान जनता के लिए इसका इस्तेमाल करते हैं। इससे जनता पिछले किए-कराये को भुलाकर फिर से जनसेवा का अवसर देती है। और जब अवसर मिल जाता है तो हम सुप्तावस्था में चले जाते हैं। और जनता स्वयं भी ऊँघती रहती है। यह सब राजनीति के गुर का ही जादू होता है। जब पाँच साल बीत जाता है तो हम जनता को दर्शन देने जाते हैं। जनता हमें देखकर कृतार्थ हो जाती है। फूल बरसाती है और जय-जयकार करती है।

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डॉ. एस. के. पाण्डेय,

समशापुर (उ.प्र.)।

ब्लॉग: श्रीराम प्रभु कृपा: मानो या न मानो

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रचनाकार: एस. के. पाण्डेय का व्यंग्य - राजनीति के गुर
एस. के. पाण्डेय का व्यंग्य - राजनीति के गुर
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