इन दिनों झारखंड़ के हजारीबाग, गिरिडीह, धनबाद जमश्ोदपूर तथा रांची के कई शहरी और ग्रामीण इलाकों में हाथियों का झुंड़ कहर बरपा रहा है। वनविभाग...
इन दिनों झारखंड़ के हजारीबाग, गिरिडीह, धनबाद जमश्ोदपूर तथा रांची के कई शहरी और ग्रामीण इलाकों में हाथियों का झुंड़ कहर बरपा रहा है। वनविभाग मौन साधे हुए है। हाथियों को जबान देने की कोशिश में एक कविता है। दूसरी कविता हिमयुग में है जो अमेरिका में आए चक्रवाती तूफान सैंडी से प्रेरित है। हमें भविष्य में अगर हिमयुग में नहीं जाना है तो कविता पर गंभीरता से विचार करना होगा। भारत में 36 करोड़ भूखे रहने को अभिशप्त है उनपर है तीसरी कविता भूखमरी रेखा, चौथी कविता अवसाद मेरे वर्तमान स्थिति को इंगित करता हुआ और पांचवी कविता बलात्कार पर रोक भारत में बढ़ते बलात्कार कांडों के मद्देनजर लिखा गया है।
ऐरावत ने ठीक कहा था
उपरवाले ने जब हमें
इतना बड़ा बनाया
रहने, खाने के लिए
घने-घने जंगल लगवाया
जंगलों से बाहर की
दुनिया अनजानी थी
घने दरख्तों के साए में
जिंदगी बड़ी सुहानी थी
अब जमाना बदल गया
जंगलों में सुराख हो गए
कंद, मूल और फल के दरख्त
देखते-देखते साफ हो गए
रहने के लिए जंगलों में
घने दरख्तों के साए नहीं मिलते
जंगल से होकर कभी
गुजरने वाली नदी-नाले सूखे मिलते
जंगल के बाहर जाना
अब हमारी मजबूरी है
मनुष्यों का घर ढाहना
ये काम अब जरूरी है
बात मामूली है पर
मनुष्यों का समझ नही आती
मनुष्यों की कौम फिर भी
सभ्य, सुशील, बुद्धिमान कहलाती
क्यों हमारे सरों से
दरख्तों के साए उजाड़ दिए
क्यों हमारे खाने-पीने के
हर समानों को बर्बाद किए
हमें जंगल से उजाड़ कर
अपना घर बसाते हो
और हम गांव-शहर आते है
तो हमलोगों को आंतकी बताते हो
एरावत ने ठीक कहा था
उजड़े हुए जंगल के चौपाल पर
मनुष्य सिर्फ एक ही भाषा समझते है
वो है आंतक की भाषा
जंगल में अब भी दुबके रहोगे
तो मर जाओगे
गांव-शहर में आंतक फैलाओगे
तो बसा दिए जाओगे !
हिमयुग में
सैंडी तो एक इशारा है
पूरी मानवता को
प्रकृति का
पृथ्वी रूष्ट है हमलोगों से
कहती है.....
पृथ्वी बचाने का नाटक करते हो
पर मुझे नंगा कर लहू-लूहान करने में
क्या कोई कसर छोडते हो ?
अपने अनियंत्रित क्रियाकलापों से
कार्बन कटौती क्यों नहीं किया ?
सांसे रूंध गयी है हमारी
कार्बनों के उत्सर्जन से
ये अन्याय नहीं तो और क्या है ?
मैंने तो सिर्फ रोया है
सांस लेने की कोशिश की है
ओ पृथ्वीवासियों, जिसे तुम
कभी सैंडी कहते हो कभी कैटरीना !
शब्द संपदा तुम्हारा बढ़ता जाएगा
हमारी संपदा पर उजड़ती जाएगी
ओ पृथ्वीवासियों, एक-दो सालों में
जब फिर सूनामी आएगी नीलम जाएगी
ख्याल रहे !
मुझे इस कदर मत रूलाओ
कि गम में आंसू बहा न पांउ
तन पर पेड़-पौधे न हो
और मैं नंगी हो जांउ
क्या महसूस नहीं किया है तुमलोगों ने
ओ पृथ्वीवासियों
हिमालय मेरे गोद में कितना गर्म हो गया है
क्या तुम नहीं जानते क्या होगा वर्फ के पिघलने से ?
अभी भी सबकुछ नहीं बिगड़ा है
ओ पृथ्वीवासियों ! सावधान
मौसम मेरी कोख में रह-रहकर
बदलते हुए अंगडाई ले रहा है
यूरोप जहां ठंड़ है और
ठंड़ा होता जाएगा
ओ पृथ्वीवासियों, दो-एक सालों में
शून्य से पंद्रह, बीस, तीस डिग्री
तापमान और नीचे गिर जाएगा
एशिया जो गर्म है और
गर्म होता जाएगा
ओ पृथ्वीवासियों, दो-एक सालों में
उबलता लहू शरीर का
क्या बर्दाश्त तब हो पाएगा
हर साल मैं तुमलोगों को
इशारा कर रही हॅूं
छोटे-छोटे आपदाओं से
दुनिया में कैटरीना, सूनामी और सैंडी बरपा रही हॅूं
विकास के नाम पर मेरा दोहन
बंद करो, ओ पृथ्वीवासियों
जरा सोचो, अपनी माँ के साथ
क्या कोई करता है इस कदर खिलवाड़
मेरे समझाने पर भी अगर
नहीं समझते हो, ओ पृथ्वीवासियों
तो रह रहे हो अभी कलियुग में
चंद ही सालों में रहोगे हिमयुग में !
भूखमरी रेखा
देश में नयी बनी है
भूखमरी रेखा
कीड़े-मकोड़े की तरह
जो रहते है और
बिलबिलाते है भूख से
उन्हें डाल दिया जाता है
इस रेखा के नीचे
खासियत यह है इसके
नीचे रहने वालों का
उपर उठाना नहीं पड़ता इन्हें
सरकार को
खूद-ब-खूद ये उपर
उठ जाते है
अवसाद
खूशी खूशी नहीं देती
दुख में दुखी होता नहीं
पुलकित मन कभी होता नहीं
त्रासद मन कभी रोता नहीं
अवसाद ये कैसा घूल गया जीवन में !
अंह बुद्धि को खा रहा
ईष्या जलन बढ़ा रहा
और-और की लालच में
कसक मन को भा रहा
अवसाद ये कैसा घूल गया जीवन में !
पाने की मुझमें चाह नहीं
खोने का भी कोई गम नही
जीवन के इस मेले में
रह गया हॅूं मैं अकेला
अवसाद ये कैसा घूल गया जीवन में !
सूख शायद रूदन में मिलता
फूलों में दिखता है खून
मौत मुझे क्या डराता
जिंदा बचा यहां है कौन
अवसाद ये कैसा घूल गया जीवन में !
जीने की चाह वेदना में घूल गया
लगता है ह्दय सांस लेना भूल गया
मुर्दा हॅूं पर सांस बाकी है
मरने में लगता है समय काफी है
अवसाद ये कैसा घूल गया जीवन में !
आंसू सूख गए आंखों में
रोना भी अब मुश्किल है
ह्दय लगता है फट जाएगा
सांसों के आवा-जाही में
अवसाद ये कैसा घूल गया जीवन में !
जीवन प्रश्न बन गया है
उत्तर किसी के पास नहीं
जो मिला वो है बिरासत
घबराने की कोई बात नहीं
अवसाद ये कैसा घूल गया जीवन में !
बलात्कार पर रोक
जैसे कोई संगठन जिम्मेदारी लेता है
अपराध की
माँ-बाप को भी लेनी होगी जिम्मेदारी
बलात्कार की
माँ-बाप जब सलीब पर चढ़ेगें
बेटे बलात्कार नहीं करेगें !
राजीव आनंद मो. 9471765417 गिरिडीह, झारखंड+
rajivanand71@gmail.com
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