शैलेन्द्र चौहान छापे की पहली मशीन भारत में 1674 में पहुंचायी गयी थी । मगर भारत का पहले अख़बार की पृष्ठभूमि बनी इस के 100 साल बाद 1776 में,...
शैलेन्द्र चौहान
छापे की पहली मशीन भारत में 1674 में पहुंचायी गयी थी। मगर भारत का पहले अख़बार की पृष्ठभूमि बनी इस के 100 साल बाद 1776 में, जिसे ईस्ट इंडिया कंपनी का भूतपूर्व अधिकारी विलियम बॉल्ट्स प्रकाशित करना चाहता था। लेकिन भारत का सब से पहला अख़बार जिस में विचार स्वतंत्र रूप से व्यक्त किये गये वह 1780 में जेम्स ओगस्टस हीकी का अख़बार 'बंगाल गज़ेट' था। अख़बार में दो पन्ने थे और इस में ईस्ट इंडिया कंपनी के वरिष्ठ अधिकारियों की व्यक्तिगत जीवन पर लेख छपते थे। जब हीकी ने अपने अख़बार में गवर्नर की पत्नी का आक्षेप किया तो उसे 4 महीने के लिये जेल भेजा गया और 500 रुपये का जुरमाना लगा दिया गया। लेकिन हीकी शासकों की आलोचना करने से परहेज़ नहीं किया। 1790 के बाद भारत में अंग्रेज़ी भाषा के और कुछ अख़बार स्थापित हुए जो अधिक्तर शासन के मुखपत्र थे। पर भारत में प्रकाशित होने वाले समाचार.पत्र थोड़े.थोड़े दिनों तक ही जीवित रह सके। 1819 में भारतीय भाषा में पहला समाचार.पत्र प्रकाशित हुआ था। वह बंगाली भाषा का पत्र संवाद कौमुदी, ;बुध्दि का चांद था। उस के प्रकाशक राजा राममोहन राय थे। 1822 में गुजराती भाषा का साप्ताहिक मुंबईना समाचार प्रकाशित होने लगा, जो दस वर्ष बाद दैनिक हो गया और गुजराती के प्रमुख दैनिक के रूप में आज तक विद्यमान है। भारतीय भाषा का यह सब से पुराना समाचार.पत्र है। 1826 में उदंत मार्तंड नाम से हिंदी के प्रथम समाचार.पत्र का प्रकाशन प्रारंभ हुआ। यह साप्ताहिक पत्र 1827 तक चला और पैसे की कमी के कारण बंद हो गया। 1830 में राममोहन राय ने बड़ा हिंदी साप्ताहिक बंगदूत का प्रकाशन शुरू किया। वैसे यह बहुभाषीय पत्र था, जो अंग्रेज़ी, बंगला, हिंदी और फारसी में निकलता था।
1833 में भारत में 20 समाचार.पत्र थे, 1850 में 28 हो गए और 1953 में 35 हो गये। उस समय भारतीय समाचार.पत्रों की समस्याएं समान थीं। वे नया ज्ञान अपने पाठकों को देना चाहते थे और उसके साथ समाज.सुधार की भावना भी थी। सामाजिक सुधारों को लेकर नये और पुराने विचारवालों में अंतर भी होते थे। इस के कारण नये.नये पत्र निकले। उन के सामने यह समस्या भी थी कि अपने पाठकों को किस भाषा में समाचार और विचार दें। समस्या थी, भाषा शुध्द हो या सब के लिये सुलभ हो। 1846 में राजा शिव प्रसाद ने हिंदी पत्र बनारस अख़बार का प्रकाशन शुरू किया। राजा शिव प्रसाद शुध्द हिंदी का प्रचार करते थे और अपने पत्र के पृष्ठों पर उन लोगों की कड़ी आलोचना की जो बोलचाल की हिंदुस्तानी के पक्ष में थे। लेकिन उसी समय के हिंदी लेखक भारतेंदु हरिशचंद्र ने ऐसी रचनाएं रचीं जिन की भाषा समृध्द भी थी और सरल भी। इस तरह उन्होंने आधुनिक हिंदी की नींव रखी है और हिंदी के भविष्य के बारे में हो रहे विवाद को समाप्त कर दिया। आधुनिक हिंदी पत्रकारिता का जन्म अठारहवीं शताब्दी के चतुर्थ चरण में कलकत्ता, बंबई और मद्रास में हुआ। 1826 से 1873 तक को हम हिंदी पत्रकारिता का पहला चरण कह सकते हैं। 1873 ई में भारतेंदु ने हरिश्चंद्र मैगजीन की स्थापना की। एक वर्ष बाद यह पत्र हरिश्चंद्र चंद्रिका नाम से प्रसिध्द हुआ। वैसे भारतेंदु का कविवचन सुधा पत्र 1867 में ही सामने आ गया था और उसने पत्रकारिता के विकास में महत्वपूर्ण भाग लिया था परंतु नई भाषाशैली का प्रवर्तन 1873 में हरिश्चंद्र मैगजीन से ही हुआ। इस बीच के अधिकांश पत्र प्रयोग मात्र कहे जा सकते हैं और उनके पीछे पत्रकला का ज्ञान अथवा नए विचारों के प्रचार की भावना नहीं है। अधिकांश पत्र आगरा से प्रकाशित होते थे जो उन दिनों एक बड़ा शिक्षाकेंद्र था, और विद्यार्थीसमाज की आवश्यकताओं की पूर्ति करते थे। शेष ब्रह्मसमाज, सनातन धर्म और मिशनरियों के प्रचार कार्य से संबंधित थे।
बहुत से पत्र द्विभाषीय ;हिंदी उर्दू थे और कुछ तो पंचभाषीय तक थे। इससे भी पत्रकारिता की अपरिपक्व दशा ही सूचित होती है। हिंदीप्रदेश के प्रारंभिक पत्रों में बनारस अखबार;1845 काफी प्रभावशाली था और उसी की भाषानीति के विरोध में 1850 में तारामोहन मैत्र ने काशी से साप्ताहिक सुधाकर और 1855 में राजा लक्ष्मणसिंह ने आगरा से प्रजाहितैषी का प्रकाशन आरंभ किया था। राजा शिवप्रसाद का बनारस अखबार उर्दू भाषाशैली को अपनाता था तो ये दोनों पत्र पंडिताऊ तत्समप्रधान शैली की ओर झुकते थे। इस प्रकार हम देखते हैं कि 1867 से पहले भाषाशैली के संबंध में हिंदी पत्रकार किसी निश्चित शैली का अनुसरण नहीं कर सके थे। इस वर्ष कवि वचनसुधा का प्रकाशन हुआ और एक तरह से हम उसे पहला महत्वपूर्ण पत्र कह सकते हैं। भारतेंदु के बहुविध व्यक्तित्व का प्रकाशन इस पत्र के माध्यम से हुआ, परंतु सच तो यह है कि हरिश्चंद्र मैगजीन के प्रकाशन ;1873 तक वे भी भाषाशैली और विचारों के क्षेत्र में मार्ग ही खोजते दिखाई देते हैं। पत्रकारिता का दूसरा युग 1873 से 1900 तक चलता है। इस युग के एक छोर पर भारतेंदु का हरिश्चंद्र मैगजीन था ओर नागरीप्रचारिणी सभा द्वारा अनुमोदनप्राप्त सरस्वती। इन 27 वर्षों में प्रकाशित पत्रों की संख्या 300.350 से ऊपर है और ये नागपुर तक फैले हुए हैं। अधिकांश पत्र मासिक या साप्ताहिक थे। मासिक पत्रों में निबंध, नवल कथा ;उपन्यास, वार्ता आदि के रूप में कुछ अधिक स्थायी संपत्ति रहती थी, परंतु अधिकांश पत्र 10.15 पृष्ठों से अधिक नहीं जाते थे और उन्हें हम आज के शब्दों में विचारपत्र ही कह सकते हैं।
साप्ताहिक पत्रों में समाचारों और उनपर टिप्पणियों का भी महत्वपूर्ण स्थान था। वास्तव में दैनिक समाचार के प्रति उस समय विशेष आग्रह नहीं था और कदाचित् इसीलिए उन दिनों साप्ताहिक और मासिक पत्र कहीं अधिक महत्वपूर्ण थे। उन्होंने जनजागरण में अत्यंत महत्वपूर्ण भाग लिया था। उन्नीसवीं शताब्दी के इन 25 वर्षों का आदर्श भारतेंदु की पत्रकारिता थी। उनकी टीकाटिप्पणियों से अधिकारी तक घबराते थे और कविवचनसुधा के पंच पर रुष्ट होकर काशी के मजिस्ट्रेट ने भारतेंदु के पत्रों को शिक्षा विभाग के लिए लेना भी बंद करा दिया था। इसमें संदेह नहीं कि पत्रकारिता के क्षेत्र भी भारतेंदु पूर्णतया निर्भीक थे और उन्होंने नए नए पत्रों के लिए प्रोत्साहन दिया। हिंदी प्रदीप, भारतजीवन आदि अनेक पत्रों का नामकरण भी उन्होंने ही किया था। उनके युग के सभी पत्रकार उन्हें अग्रणी मानते थे। 1895 ई में नागरीप्रचारिणी पत्रिका का प्रकाशन आरंभ होता है। इस पत्रिका से गंभीर साहित्यसमीक्षा का आरंभ हुआ और इसलिए हम इसे एक निश्चित प्रकाशस्तंभ मान सकते हैं।
1900 ई में सरस्वती और सुदर्शन के अवतरण के साथ हिंदी पत्रकारिता के इस दूसरे युग पर पटाक्षेप हो जाता है। इन 25 वर्षों में हमारी पत्रकारिता अनेक दिशाओं में विकसित हुई। प्रारंभिक पत्र शिक्षाप्रसार और धर्मप्रचार तक सीमित थे। भारतेंदु ने सामाजिक, राजनीतिक और साहित्यिक दिशाएँ भी विकसित कीं। उन्होंने ही बालाबोधिनी ;1874 नाम से पहला स्त्री.मासिक.पत्र चलाया। कुछ वर्ष बाद महिलाओं को स्वयं इस क्षेत्र में उतरते देखते हैं। इन वर्षों में धर्म के क्षेत्र में आर्यसमाज और सनातन धर्म के प्रचारक विशेष सयि थे। ब्रह्मसमाज और राधास्वामी मत से संबंधित कुछ पत्र और मिर्जापुर जैसे ईसाई केंद्रों से कुछ ईसाई धर्म संबंधी पत्र भी सामने आते हैं, परंतु युग की धार्मिक प्रतियिाओं को हम आर्यसमाज के और पौराणिकों के पत्रों में ही पाते हैं। आज ये पत्र कदाचित् उतने महत्वपूर्ण नहीं जान पड़ते, परंतु इसमें संदेह नहीं कि उन्होंने हमारी गद्यशैली को पुष्ट किया और जनता में नए विचारों की योति भी। इन धार्मिक वादविवादों के फलस्वरूप समाज के विभिन्न वर्ग और संप्रदाय सुधार की ओर अग्रसर हुए और बहुत शीघ्र ही सांप्रदायिक पत्रों की बाढ़ आ गई। सैकड़ों की संख्या में विभिन्न जातीय और वर्गीय पत्र प्रकाशित हुए और उन्होंने असंख्य जनों को वाणी दी। आज वही पत्र हमारी इतिहासचेतना में विशेष महत्वपूर्ण हैं जिन्होंने भाषा शैली, साहित्य अथवा राजनीति के क्षेत्र में कोई अप्रतिम कार्य किया हो। इन पत्रों में हमारे 19वीं शताब्दी के साहित्यरसिकों, हिंदी के कर्मठ उपासकों, शैलीकारों और चिंतकों की सर्वश्रेष्ठ निधि सुरक्षित है। यह क्षोभ का विषय है कि हम इस महत्वपूर्ण सामग्री का पत्रों की फाइलों से उध्दार नहीं कर सके। बालकृष्ण भट्ट, प्रतापनारायण मिश्र, सदानंद मिश्र, रुद्रदत्त शर्मा, अंबिकादत्त व्यास और बालमुकुंद गुप्त जैसे सजीव लेखकों की कलम से निकले हुए न जाने कितने निबंध, टिप्पणी, लेख, हमें अलभ्य हो रहे हैं। आज भी हमारे पत्रकार उनसे बहुत कुछ सीख सकते हैं। अपने समय में तो वे अग्रणी थे ही।
बीसवीं शताब्दी की पत्रकारिता हमारे लिए अपेक्षाकृत निकट है और उसमें बहुत कुछ पिछले युग की पत्रकारिता की ही विविधता और बहुरूपता मिलती है। 19वीं शती के पत्रकारों को भाषा.शैलीक्षेत्र में अव्यवस्था का सामना करना पड़ा था। उन्हें एक ओर अंग्रेजी और दूसरी ओर उर्दू के पत्रों के सामने अपनी वस्तु रखनी थी। अभी हिंदी में रुचि रखनेवाली जनता बहुत छोटी थी। धीरे.धीरे परिस्थिति बदली और हम हिंदी पत्रों को साहित्य और राजनीति के क्षेत्र में नेतृत्व करते पाते हैं। इस शताब्दी से धर्म और समाजसुधार के आंदोलन कुछ पीछे पड़ गए और जातीय चेतना ने धीरे.धीरे राष्ट्रीय चेतना का रूप ग्रहण कर लिया। फलत: अधिकांश पत्र, साहित्य और राजनीति को ही लेकर चले। साहित्यिक पत्रों के क्षेत्र में पहले दो दशकों में आचार्य द्विवेदी द्वारा संपादित सरस्वती ;1903.1918 का नेतृत्व रहा। वस्तुत: इन बीस वर्षों में हिंदी के मासिक पत्र एक महान् साहित्यिक शक्ति के रूप में सामने आए। सरस्वती और इंदु दोनों हमारी साहित्यचेतना के इतिहास के लिए महत्वपूर्ण हैं और एक तरह से हम उन्हें उस युग की साहित्यिक पत्रकारिता का शीर्षमणि कह सकते हैं।
सरस्वती के माध्यम से आचार्य महावीरप्रसाद द्विवेदी और इंदु के माध्यम से पंडित रूपनारायण पांडेय ने जिस संपादकीय सतर्कता, अध्यवसाय और ईमानदारी का आदर्श हमारे सामने रखा वह हमारी पत्रकारिता को एक नई दिशा देने में समर्थ हुआ। हंस का प्रकाशन सन 1930 ई0 में बनारस से हुआ। इसके संपादक प्रेमचन्द थे। प्रेमचन्द के संपादकत्व में यह पत्रिका हिन्दी की प्रगति में अत्यन्त सहायक सिध्द हुई। पिछले युग की राजनीतिक पत्रकारिता का केंद्र कलकत्ता था। परंतु कलकत्ता हिंदी प्रदेश से दूर पड़ता था और स्वयं हिंदी प्रदेश को राजनीतिक दिशा में जागरूक नेतृत्व कुछ देर में मिला। हिंदी प्रदेश का पहला दैनिक राजा रामपालसिंह का द्विभाषीय हिंदुस्तान ;1883 है जो अंग्रेजी और हिंदी में कालाकाँकर से प्रकाशित होता था। दो वर्ष बाद ;1885 में बाबू सीताराम ने भारतोदय नाम से एक दैनिक पत्र कानपुर से निकालना शुरू किया। परंतु ये दोनों पत्र दीर्घजीवी नहीं हो सके और साप्ताहिक पत्रों को ही राजनीतिक विचारधारा का वाहन बनना पड़ा।
वास्तव में उन्नीसवीं शतब्दी में कलकत्ता के भारत मित्र, वंगवासी, सारसुधानिधि और उचित वक्ता ही हिंदी प्रदेश की राजनीतिक भावना का प्रतिनिधित्व करते थे। इनमें कदाचित भारतमित्र ही सबसे अधिक स्थायी और शक्तिशाली था। प्रथम महायुध्द की उत्तेजना ने एक बार फिर कई दैनिक पत्रों को जन्म दिया। कलकत्ता से कलकत्ता समाचार, स्वतंत्र और विश्वमित्र प्रकाशित हुए। बंबई से वेंकटेश्वर समाचार ने अपना दैनिक संस्करण प्रकाशित करना आरंभ किया और दिल्ली से विजय निकला। 1921 में काशी से आज और कानपुर से वर्तमान प्रकाशित हुए। इस प्रकार हम देखते हैं कि 1921 में हिंदी पत्रकारिता फिर एक बार करवटें लेती है और राजनीतिक क्षेत्र में अपना नया जीवन आरंभ करती है। हमारे साहित्यिक पत्रों के क्षेत्र में भी नई प्रवृत्तियों का आरंभ इसी समय से होता है। फलतः बीसवीं शती के पहले बीस वर्षों को हम हिंदी पत्रकारिता का तीसरा चरण कह सकते हैं।
आधुनिक युग ;1921 के बाद हिंदी पत्रकारिता का काल आरंभ होता है। इस युग में हम राष्ट्रीय और साहित्यिक चेतना को साथ साथ पल्लवित पाते हैं। इसी समय के लगभग हिंदी का प्रवेश विश्वविद्यालयों में हुआ और कुछ ऐसे संपादक सामने आए जो अंग्रेजी की पत्रकारिता से पूर्णत: परिचित थे और जो हिंदी पत्रों को अंग्रेजी, मराठी और बँगला के पत्रों के समकक्ष लाना चाहते थे। राष्ट्रीय आंदोलनों ने हिंदी की राष्ट्रभाषा के लिए योग्यता पहली बार घोषित की ओर जैसे.जैसे राष्ट्रीय आंदोलनों का बल बढ़ने लगा, हिंदी के पत्रकार और पत्र अधिक महत्व पाने लगे। सच तो यह है कि हिंदी पत्रकार राष्ट्रीय आंदोलनों की अग्र पंक्ति में थे और उन्होंने विदेशी सत्ता से डटकर मोर्चा लिया।
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