गोविन्द बैरवा की कहानी - शहर

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‘‘अच्‍छा माँ, मैं; चलता हूँ । ‘‘ सुनील के चेहरे पर खामोशी थी। काफी देर तक मुँह से शब्‍द बाहर निकालने का प्रयास कर रहा था, पर माँ को कहने का...

‘‘अच्‍छा माँ, मैं; चलता हूँ ‘‘ सुनील के चेहरे पर खामोशी थी। काफी देर तक मुँह से शब्‍द बाहर निकालने का प्रयास कर रहा था, पर माँ को कहने का साहस ही नहीं जोड़ पा रहा था। ‘शहर‘ का नाम माँ के लिए गहन दुःख से कम नहीं था। पर जाना भी जरूरी था।

सुनील के गाल पर हाथ फेरती हुई, सविता( सुनील की माँ) आँसुओं से भरी आँखें, साड़ी के पल्‍लू से पोंछकर, दबी आवाज में कहने लगी-‘‘बेटा, अपना ध्‍यान रखना। दिल तो नहीं चाहता कि तुझे अपनी आँखों से दूर करूँ।‘‘

सविता की सिसकियाँ धीरे-धीरे सुनाई दे रही थी। माँ को गले लगाकर, सुनील विश्‍वास दिलाता है-‘‘नहीं माँ!, नहीं। अब शहर कोई घटना नहीं जोड़ पाएगा, माँ। मुझे हँसकर विदा करो। आखिर माँ, विनोद भईया को शहर भेजने के लिए, आपने जो रास्‍ता सुझाया था। उसी रास्‍ते पर मैं, जा रहा हूँ। मुझे आशीर्वाद देकर विदा करो, माँ।‘‘

सविता कुछ कह नहीं सकी। सूनी आँखों से बेटे को एकटक देखती रही। सुनील, माँ के चरण स्‍पर्श कर, कमरे से बाहर की तरफ बढ़ने लगता है। सविता, सुनील के पीछे-पीछे दरवाजे तक चली आती है। दरवाजे की चौखट से बाहर निकलकर सुनील, एक बार पलटकर अपनी माँ को देखता है। आँसुओं से भरी हुई, माँ की आँखें, टकटकी लगाए, सुनील को देख रही थी।

सविता की आँखों के सुनील ओझल हो जाने के बाद लौटकर आती है, हृदयविराधक घटनाएँ। बीते वर्षों की दुःखदायक घटनाएँ एक-एक करके, सविता की आंखों के सामने प्रकट होती है।

बीते वर्षों में हरा-भरा, खुशहाल परिवार था, सविता का। अपने पति व दो बेटों के साथ जीवन में खुश थी। दुःख था, पर कम। कहते है, सुख का दूसरा रूप ही दुःख है। जिसका आना इंसान के बने-बनाए घरोंदे को तिनकों में बिखेर देता है। इंसान चाहकर भी कुछ नहीं कर पाता। वर्षों के प्रयास के फलस्‍वरूप जीवन में खुशियों का आगमन सुखद रूप सविता के साथ कुछ कदम ही चला था। पर पल में ही आँखों के सामने से खुशियाँ उन रास्‍तों पर चलने लगी, जहाँ से अपनों की वापसी सम्‍भव ही नहीं।

‘‘माँ!, ओ माँ!। तुम हो तो, ये विनोद है अन्‍यथा ये जीवन, व्‍यर्थ है।‘‘ माँ (सविता) से लिपटकर विनोद कहने लगा। विनोद, सविता का बड़ा बेटा था।

‘‘चल झूठे। माँ की इतनी चिन्‍ता करता है तो, बार-बार शहर जाने का नाम क्‍यों? लेता है।‘‘ चेहरे पर बेरूखी उजाकर करती हुई, सविता कहने लगी।

‘‘शहर जाकर मैं, अच्‍छा धन कमाऊँगा। धन के अभाव से अधूरी रहती घर की खुशियाँ पूरी होगी माँ।‘‘ विनोद, माँ के सामने शहर की बढ़ाई कर रहा था। सविता, बेटे की प्रतिक्रिया को अनदेखा कर, घर के कार्यों में व्‍यस्‍त होने लगती है। विनोद बार-बार माँ के सामने शहर जाने की रट लगाए जा रहा था।

‘‘जानती हूँ मैं, किशोर ने तेरे सिर पर शहर का भूत सवार किया है‘‘

माँ की बात पूरी होने से पहले ही विनोद कहने लगा-‘‘देखा ना माँ, आपने। किशोर शहर जाकर कितना पैसों वाला हो गया हैं। कुछ रोज पहले ही मुझसे मिला था। एक बार तो मैं, पहचान ही नहीं पाया कि मेरे सामने जो खड़ा है, वह किशोर है। नये कपड़े, आँखों पर काला रंग का चश्‍मा, हाथ में अच्‍छी घड़ी।‘‘

‘‘ठहर-ठहर, तूने किशोर का शहरी रंग-ढंग देखा है, इसलिए तुझे वो अच्‍छा लगा। कल ही किशोर की माँ, सुगना मुझसे पाँच सौ रूपये उधार लेने आई थी। मुझसे कह रही थी, किशोर को पैसे भेजने है। पहले की तरह किशोर का सारा खर्च, घर वालों के द्वारा ही तय होता है। क्‍योंकि किशोर की आमदनी शहर में कम और खर्च शहर का ज्‍यादा। शहर जाकर किशोर खर्चींला भी हो गया है।‘‘

विनोद, अनमने से माँ की बात सून रहा था। फिर कुछ सोचकर कहने लगा-‘‘माँ, किशोर तो इतना पढ़ा-लिखा नहीं है। जबकि मैं, बी.ए पास हूँ। उसका खर्चों भी ज्‍यादा है, और आमदनी भी कम। मेरी योग्‍यता के अनुरूप मुझे अच्‍छा रोजगार प्राप्‍त हो जायेगा। और माँ मैं, किशोर की तरह खाली हाथ नहीं रहूँगा।‘‘ विनोद, माँ को किसी भी तरह मनाना चाहता था। पर माँ, विनोद को शहर भेजने को तैयार ही नहीं थी।

विनोद का उतरा हुआ मुँह देखकर सविता कहने लगी-‘‘मैं, तुझे शहर भेजने के लिए तैयार हूँ। पर तुझे सरकारी नौकरी प्राप्‍त करनी पड़ेगी। आखिर तू, तो पढ़ा-लिखा, बी.ए पास है। अन्‍यथा शहर जाने की रट जोड़ दे।‘‘

-‘‘पर माँ, शहर के साथ सरकारी नौकरी का क्‍या संबंध है।‘‘

-‘‘यह प्रश्न तू, अपने पिता से करना। तू नहीं, मैं सुनती हूँ। तेरे पिता रोज-रोज शहर और सरकारी नौकरी के संबंध की चर्चा मुझे सुनाते है। हमारा शहर से दूर रहने का कारण ही यहीं है कि तेरे पिता प्राईवेट नौकरी करते है। इस नौकरी में आमदनी अच्‍छी है, पर शहर में रहकर जीवन-यापन करने योग्‍य नहीं। इसलिए तेरे पिता शहर से रोज आना-जाना करते है। जानता है क्‍यों? मुँह फैलाए शहर के खर्चों से बचने के लिए, क्‍योंकि अपनों के लिए कुछ करना चाहते हैं। शहर में रहकर कुछ कर पाना सम्‍भव ही नहीं।‘‘

सविता के कथन में आर्थिक पीड़ा का अहसास, आँसुओं से भरी आँखे दिखा रही थी। आखिर आज के समय में शहर उनके लिए ही हैं, जो आर्थिक स्‍थिति से सक्षम है। सरकारी नौकरी के द्वारा आवश्‍यकता की पूर्ति हो जाती है, कारण यहीं है कि सरकार कुछ आवश्‍यकता की पूर्ति अपने स्‍तर पर कर देती है। जिसका प्रभाव आर्थिक स्‍थिति को संतुलन स्‍तर पर बनाए रखने में सक्षमता जोड़े रखती है।

‘‘माँ!-माँ!, भईया-भईया।‘‘ सुनील, जोर-जोर से पुकारता हुआ, घर में दौड़ा चला आ रहा था। माँ (सविता) व भाई (विनोद) के पास आकर रोने लगता है। सुनील के शरीर में घबराहट थी। गले से आवाज कम, आँखों से आँसू ज्‍यादा बाहर आ रहे थे।

‘‘क्‍या? हुआ, सुनील। तू इतना क्‍यों? घबरा रहा है।‘‘ सविता ने अपने बेटे सुनील से पूछा।

-‘‘माँ!-माँ!‘‘ सुनील, सिर्फ यही शब्‍द बार-बार दोहरा रहा था।

-‘‘अरे बोलता क्‍यों? नहीं। क्‍या? हुआ‘‘ विनोद ने सुनील के कंधे को झंझोरते हुए पूछा।

-‘‘माँ!, पिताजी......पिताजी।‘‘

-‘‘क्‍या? हुआ, तेरे पिता को। तू बोलता क्‍यों नहीं।‘‘ सविता के मन में भय का रूझान उभर आया था। चेहरे पर उभरी पसीने की बूँदें अहसास करा रही थी कि घर में भूचाल आना वाला है, क्‍योंकि बेटे की आँखों से निकलने वाले आँसू, बिना कहे सब बयान कर रहे थे।

‘‘अरे, तू बोलता क्‍यों नहीं, सुनील।‘‘ विनोद ने सुनील को जोर से झंझोरतें हुए पूछा।

‘‘भईया-भईया। पिताजी जिस बस से आ रहे थे। वह बस ओवर-टेक करते समय अपना सन्‍तुलन खोकर नदी में गिर गई।‘‘ सुनील के मुँह से यह शब्‍द सुनते ही, सविता वहीं चक्‍कर खाकर गिर गई। विनोद भी हक्‍का-बक्‍का रह गया।

माँ!-माँ!, सुनील-सुनील। पानी लेकर आ।‘‘

‘‘आँखें खोलो माँ!-आँखें खोलो।‘‘ माँ को जमीन से उठाकर पंलग पर लेटाकर, मुँह पर पानी छिटकते हुए विनोद, माँ को आँखें खोलने का कहे जा रहा था।

गाँव में यह दुःखद घटना हवा की तरह फैल गईं। तीन घरों में मातम विकराल रूप में छाया हुआ था। विनोद के पिताजी व गाँव के दो व्‍यक्‍ति भी बस में सवार थे। समय का ये खेल बड़ा ही हृदयविराधक वेदनामयी परिवेश लिए गाँव में कहर बरसा रहा था। प्रत्‍येक व्‍यक्‍ति के चेहरे पर हताशा व आँखों में उदासी थी। गाँव के उम्र दराज व्‍यक्‍तियों ने विचार-विमर्श कर घटना के बाद बनने वाली सामाजिक क्रिया-कलापों को तय करने का परिवेश जोड रहे थे। नदी का तेज बहाव होने के कारण कुछ व्‍यक्‍तियों के शव ही गोताखोरों को प्राप्‍त हुए। शेष व्‍यक्‍तियों का पता ही नहीं चला कि बहती नदी अपने साथ कहाँ लेकर गई। बहते शवों में विनोद के पिता भी थे।

गाँव के लोगों ने दुःखदायिक परिवेश को सामान्‍य स्‍थिति में लाने के लिए भावात्‍मक सहानुभूति का सहारा दिया। आखिर गाँव का परिवेश भावात्‍मक स्‍तर पर एक-दूसरे के सुख-दुःख में सहृदयता लिए रखता है। वेदना का कहर दिन से सप्‍ताह में, सप्‍ताह से माह के बढ़ते क्रम के साथ अपना कहर हटाने लगा। परन्‍तु आर्थिक परिस्‍थितियाँ सविता के जीवन में मंदगति से बढ़ती जा रही थी।

आखिर एक दिन परिस्‍थितियों से उभरने के लिए विनोद माँ को कहने लगा-‘‘माँ, मुझे माफ करना। मैं, आपकी कहे अनुरूप शहर नहीं जा रहा हूँ। क्‍योंकि माँ, यथास्‍थिति पिताजी की मृत्‍यु के बाद पहले जैसी नहीं रही। आखिर पिताजी की मृत्‍यु को आज आँठ माह हो गए। सुनील भी प्रतियोगिता परीक्षा की तैयारी में मन लगा रहा है। उसे व इस घर को मेरी जरूरत है। आखिर मुझे ही घर की शोचनीय आर्थिक स्‍थिति को फिर से उभारना है। अच्‍छी आमदनी व योग्‍यता अनुरूप रोजगार शहर में ही मिलेगा।‘‘

विनोद माँ से शहर जाने की अनुमति लेना चाहता था। घर की यथास्‍थिति को नजर अन्‍दाज नहीं करना चाहता था। सविता का मन पति की मृत्‍यु बाद अत्‍यधिक भयभीत व चिन्‍ता में रहने लगा। दुनियाँ छोड़कर जाने वाले पति का मुँह भी नहीं देख पाई थी। शहर का नाम सुनकर कुछ कहना चाहती थी। पर क्‍या कहे? समय ने परिवेश ही ऐसा जोड़ा कि ना कहकर भी, ना नहीं कर सकती थी। मुँह पर चुप्‍पी, आँखों में उदासी, मन में रह-रहकर उठती भय की दुःखद लहरों का उतार-चढ़ाव कई भावों को चेहरे पर प्रकट कर रहे थे।

विनोद, किशोर की मदद से शहर में प्राईवेट रोजगार प्राप्‍त कर लिए था। लेखा-जोखा कार्य में आमदनी ज्‍यादा तो नहीं थी। लेकिन परिवार की आर्थिक स्‍थिति को उभारने में सहयोगी भूमिका निभा रही थी। माह में एक बार घर आता था, विनोद।

‘‘सुनील, माँ का ध्‍यान रखना। किसी तरह की जरूरत हो, बिना संकोच मुझसे कहना। माँ का सपना तुझे पूरा करना है। मेरे शहर जाने के बाद घर की जिम्‍मेदारी तेरे कंधों पर ही है।‘‘ विनोद, सुनील को पास बिठाकर समझ की सीख देता है।

विनोद जब शहर से आता, माँ के मन में छायी वेदना को कम करने का रूझान जोड़ता था। सविता भी दुःख के प्रकोप से उभरने लगी थी। आखिर इंसान यथास्‍थिति के अनुरूप समायोजन ना चाहकर भी करता है। सविता ने भी यही किया।

‘‘बेटे मैने तेरे रिश्‍ते की बात पास के गाँव में तय कर दी है। तेरे पिता ने पहले से ही तेरा संबंध वहाँ सोच रखा था। समय ने उनको यह अवसर ही नहीं दिया।‘‘ सविता, की बातें सुनकर विनोद कुछ बोल ही नहीं पाया। आखिर जानता था कि जीवन में समय के अनुरूप बनने वाले कार्यों का तय होना भी जरूरी है। जिसका आगमन परिवार की चलती स्‍थिति दुःख-सुख व सुख-दुःख की अनुभूति करता है।

‘‘सुनील-सुनील।‘‘ दरवाजे पर जोर-जोर से पुकार सुनाई दी। जिसे सुनकर सुनील व सविता कमरे से दरवाजे की तरफ जल्‍दी से चले आते है। सुनील दरवाजा खोलकर देखता है, सामने किशोर भयभीत खड़ा था। उसके चेहरे का हाव-भाव भी बदला हुआ नजर आ रहा था।

‘‘क्‍या?हुआ, किशोर भाईसाहब।‘‘ सुनील ने किशोर की भयभीत आँखों की तरफ देखकर पूछा।

‘‘सुनील-सुनील। वि...नोद-वि..नोद.....विनोद।‘‘

‘‘क्‍या? हुआ, भईया को...क्‍या? हुआ।‘‘ सुनील ने किशोर के कंधे को झंझोरते हुए कहा।

‘‘सुनील-सुनील, तू घबराना मत।‘‘

‘‘तुम बताओ ना किशोर भईया, कहाँ है विनोद भईया ?, क्‍या हुआ भईया को।‘‘

‘‘सुनील, विनोद हमें छोड़कर चला गया।‘‘

‘‘क्‍......या-क्‍या।‘‘ सुनील के मुँह से यही शब्‍द निकल सके।

‘‘न...हीं...नहीं....।‘‘ लम्‍बी चीख के साथ सविता वही जड़ बन गई।

किशोर का कहना अभी पुरा ही नहीं हुआ था कि सविता चौखट पर धड़ाम से गिर गई। सुनील के हाथ पाँव भी फूल गये। हक्‍का-बक्‍का जड़ बना, दरवाजे पर बर्फ की तरह जम गया। किशोर के द्वारा झंझोरने के बाद जोरों से भईया-भईया कहकर रोने लगा। रोने की आवाज सुनकर आस-पास के लोग दौड़कर आ गये। औरतों ने सविता की स्‍थिति देखकर तुरन्‍त हास्‍पीटल लेकर चली जाती है। गाँव के अन्‍य लोग सुनील को धीरज देने लगे।

‘‘ये, कैसे हुआ? किशोर ।‘‘ गाँव के व्‍यक्‍ति ने किशोर को पास बुलाकर पूछा।

‘‘ काका, अभी कुछ घण्‍टों पहले शहर के तीन स्‍थानों पर बम धमाके हुए। एक बम धमाका विनोद की दुकान के पास हुआ। बम धमाका इतना शक्‍तिशाली था कि दुकान के साथ-साथ उसमें कार्य करने वाले सभी व्‍यक्‍ति ताश के पत्‍तों की तरह बिखर गये। उन बिखरे व्‍यक्‍तियों में विनोद भी था।‘‘ किशोर कहते हुए बीच-बीच में आँख से बाहर आ रहे आँसू को हाथ से साफ कर रहा था।

‘‘ईश्‍वर भी दुःख को बढ़ाने में तुला है, बेटा। अभी शंकर (विनोद व सुनील के पिता) की मृत्‍यु हुए वर्ष भी नहीं हुआ। उससे पहले ही दुःख का असहाय घाव जुड़ गया। वहाँ रे, सृष्‍टि के रचयिता तेरी भी ऐसी लेखनी।‘‘ काका की आँसुओं से भरी आँखें, अचानक प्रकट हुए दुःख को उजागर कर रही थी।

‘‘बेटा; ये कौन लोग है? जो इंसान को इंसान नहीं समझते।‘‘ हरिया काका किशोर की तरफ लाचार दृष्‍टि से देखकर पूछने लगे।

‘‘काका, वो इंसान हमारे जैसे ही होते हैं।‘‘ किशोर की बात पुरी होने से पहले ही किशनवा बीच में बोलने लगा-‘‘हमारी तरह नहीं हैं वे लोग। उनका ईमान इंसान नहीं, रूप‍या-पैसा है।‘‘ किसनवा की आँखों में क्रोध उभर आया था। अगर वे लोग सामने होते तो शायद ही आने वाला दिन नहीं देख पाते। आखिर कौन चाहेगा कि ऐसे इंसान, इंसानियत रखने वाले लोगों के बीच रहे।

‘‘काका, क्‍या? करना है, अब‘‘ तुलसी ने उम्र दराज व्‍यक्‍ति फूलचन्‍द से कहाँ।

‘‘क्‍या? करना है। जो करना था, वह तो मालिक ने कर दिया। हमें तो सिर्फ समाज के रीति-रिवाज को आगे बढ़ाना है। जैसे पिता के शव न मिलने के कारण, फोटो से क्रियाएँ तय हुई, उसी तरह बेटे की करनी है। आखिर उसका शव भी ना जाने टुकडों में कहाँ-कहाँ फैला हुआ होगा।‘‘ फूलचन्‍द की आँखों से निकलते आँसू, मुँह पर उभरी झुरियों के रास्‍ते बहते हुए, धरती में समाहित हो रहे थे।

गाँव वालों ने सामाजिक कार्यों को मिलकर पूरा किया। सुनील को, किशोर व अन्‍य युवाओं ने सहारा देकर समस्‍त क्रियाऐं तय करवाई। सविता की स्‍थिति अच्‍छी नहीं थी। किशोर की माँ हास्‍पीटल में सविता के साथ थी। इतनी जल्‍दी दो घटनाओं का कहर सविता की सम्‍पूर्ण तन-मन की शक्‍ति समाप्‍त कर गया था। बिना कुछ कहे, गले से ऊँ-ऊँ की सिसकियाँ बाहर आती सुनाई दे रही थी। रो-रो कर आँखों में सुजन उभर आई थी। लगातार रूक-रूक कर बाहर आते आँख से आँसू को कमला(किशोर की माँ) पल्‍लू से पोंछ रही थी ।

सप्‍ताह दुःख के कहर में गुजर गया। सुनील माँ को हास्‍पीटल से छुटटी दिलाकर ले आया। परन्‍तु सविता को अभी भी दुःख से छुटटी नहीं थी। विनोद की मृत्‍यु ने, सविता के मुँह को चुप करा दिया था। सुनील पीड़ा को दबाकर, माँ की देखभाल में लगा हुआ था। अचानक माँ को छोड़कर जाने वाले भाई (विनोद) ने सुनील को माँ की जिम्‍मेदारी सौंपी थी। माँ को खुशियाँ देने वाला विनोद; दुःख का ऐसा सरोवर दे गया, जिसने सविता के सम्‍पूर्ण जीवन को निर्जीव बना दिया।

‘‘टक-टक, कोई है, अन्‍दर‘‘ दरवाजे पर डाकियाँ आवाज लगाता है। सुनील कमरे से बाहर निकलकर दरवाजा खोलता है। सामने पोस्‍ट-मैन लिफाफा हाथ में लिए खड़ा था। सुनील ने लिफाफा पोस्‍ट-मैन से लेकर, माँ के पास चला जाता है।

माँ के पास बैठकर, लिफाफा खोलकर पढ़ने लगता है-‘‘ श्रीमान्‌ सुनील, आपका चयन स्‍टेट बैक में लिपिक पद पर हुआ है। आप एक सप्‍ताह के अन्‍दर बैक की मुख्‍य शाखा........शहर में स्‍थित है, वहाँ उपस्‍थिति दे।‘‘ दुःख में बड़ी खुशी भी खुशी नहीं, दुःख का अहसास कराती है। सुनील की आँसुओं से भरी आँखें, यह वेदना महसूस करा रही थी। माँ का सपना पुरा हुआ, पर इस सपने से पहले उजागर हुई, हृदयविदारक घटना ने ऐसा परिवेश सामने खड़ा किया। जिसका दुःखद कहर, खुशी को जाग्रत करने में असफल थी।

‘‘माँ, दुःख में प्रकट इस दिशा में चलना तो पड़ेगा। समय ने फिर से शहर का रूझान खड़ा किया। इस दिशा पर चलने के अलावा‌ अन्‍य दिशा ही नहीं, माँ।‘‘ सुनील जानता था कि घर का एकमात्र सहारा स्‍वयं ही है। सविता भी इस स्‍थिति को जानती थी।

‘‘सविता-सविता।‘‘ दरवाजे पर खड़ी सविता को किशोर की माँ (कमला) पुकारती है।

‘‘हाँ....हाँ..हाँ।‘‘ सविता, दुःखद स्‍मृतियों से सजग स्‍थिति में आ जाती है। सुनील के जाते समय यही खड़ी-खड़ी गुजरी दुःखदायक घटनाओं में गोते लगा रही थी।

‘‘तुम्‍हारे पैसे लौटाने आई थी। क्‍या?सविता, सुनील शहर गया।‘‘ कमला ने आँसुओं से भरी हुई, सविता की आँखों को देखकर पूछा।

‘‘हाँ..हाँ। आज शहर गया, सुनील।‘‘

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लेखक- गोविन्‍द बैरवा 

आर्य समाज स्‍कूल के पास, सुमेरपुर

जिला-पाली, (राजस्‍थान) पिन.कोड़ 306902

govindcug@gmail.com

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जोशी,1,सी.बी.श्रीवास्तव विदग्ध,1,सीताराम गुप्ता,1,सीताराम साहू,1,सीमा असीम सक्सेना,1,सीमा शाहजी,1,सुगन आहूजा,1,सुचिंता कुमारी,1,सुधा गुप्ता अमृता,1,सुधा गोयल नवीन,1,सुधेंदु पटेल,1,सुनीता काम्बोज,1,सुनील जाधव,1,सुभाष चंदर,1,सुभाष चन्द्र कुशवाहा,1,सुभाष नीरव,1,सुभाष लखोटिया,1,सुमन,1,सुमन गौड़,1,सुरभि बेहेरा,1,सुरेन्द्र चौधरी,1,सुरेन्द्र वर्मा,62,सुरेश चन्द्र,1,सुरेश चन्द्र दास,1,सुविचार,1,सुशांत सुप्रिय,4,सुशील कुमार शर्मा,24,सुशील यादव,6,सुशील शर्मा,16,सुषमा गुप्ता,20,सुषमा श्रीवास्तव,2,सूरज प्रकाश,1,सूर्य बाला,1,सूर्यकांत मिश्रा,14,सूर्यकुमार पांडेय,2,सेल्फी,1,सौमित्र,1,सौरभ मालवीय,4,स्नेहमयी चौधरी,1,स्वच्छ भारत,1,स्वतंत्रता दिवस,3,स्वराज सेनानी,1,हबीब तनवीर,1,हरि भटनागर,6,हरि हिमथाणी,1,हरिकांत जेठवाणी,1,हरिवंश राय बच्चन,1,हरिशंकर गजानंद प्रसाद देवांगन,4,हरिशंकर परसाई,23,हरीश कुमार,1,हरीश गोयल,1,हरीश नवल,1,हरीश भादानी,1,हरीश सम्यक,2,हरे प्रकाश उपाध्याय,1,हाइकु,5,हाइगा,1,हास-परिहास,38,हास्य,59,हास्य-व्यंग्य,78,हिंदी दिवस विशेष,9,हुस्न तबस्सुम 'निहाँ',1,biography,1,dohe,3,hindi 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रचनाकार: गोविन्द बैरवा की कहानी - शहर
गोविन्द बैरवा की कहानी - शहर
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