देश का इलाज संविधान संशोधनों में छिपा है असग़र वजाहत आज देश में हर सोचने समझने वाला आदमी यह महसूस करता है कि देश की व्यवस्था में सार्थक बदलाव...
देश का इलाज संविधान संशोधनों में छिपा है
असग़र वजाहत
आज देश में हर सोचने समझने वाला आदमी यह महसूस करता है कि देश की व्यवस्था में सार्थक बदलाव लाये बिना काम नहीं चलेगा। एकाध समस्या पर कड़ा रुख अपनाने से भी कोइ रास्ता नहीं मिलेगा। परन्तु व्यवस्था में सार्थक बदलाव लाने की दिशा में कम सोचा जा रहा है। किसी बड़े नेता ने ऐसा नहीं कहा कि देश की राजनैतिक, आर्थिक, सामाजिक व्यवस्था में बड़े परिवर्तन करने की आवश्यकता है। अन्ना हजारे तक सिर्फ भ्रष्टाचार मिटाने की बात करते हैं। व्यवस्था में सार्थक बदलाव की बात नहीं करते।
सत्ता और विरोधी दल के नेता केवल ग़रीब जनता को तरह तरह की सहूलियतें देने की बात ही करते हैं। अब तो कैश पैसे तक देने की बात हो रही है। मैं एक गाँव की आँगन बाडी में गया तो वहां बताया गया कि यहाँ बच्चों को दूध दलिया आदि मिलता है . मैंने कहा कि यह सब उनको अपने - अपने घरों में क्यों नहीं मिलता ? इस पर बताया गया की योजना यही है कि बच्चों को गाँव की आँगन बाडी में सरकार / प्रशासन की ऒर से दूध दलिया मिले। घर में नहीं, आँगन बाडी में दूध दलिया आदि खा कर बच्चों की क्या समझ और मानसिकता बनेगी? वे सोचेंगे माता पिता उनका पेट नहीं भर सकते, पर एक ऐसी जगह है जहाँ उन्हें मुफ्त खाना मिलता है। मुफ्त खोरी की आदत कैश सब्सिडी तक ले जायेगी।
मुख्य सवाल यह है की लोकतान्त्रिक ढांचे में रहते हुए व्यवस्था में क्या परिवर्तन लाया जा सकता है? लोकतान्त्रिक ढांचे से बाहर होकर परिवर्तन लाने की बाय आज की स्थिति में व्यावहारिक नहीं लगती। सत्ता और सरकार के पास गैर वैधानिक तरीकों से परिवर्तन लाने वालों को कुचलने के लिए अपार ताक़त है। इसलिए परिवर्तन की बात संवैधानिक तरीके से ही की जानी चाहिए।
लोकतान्त्रिक ढांचे में सबसे अधिक शक्तिशाली संविधान है। जिसके अंतर्गत कानून बनते है जिसके आधार पर राजनीतिक व्यवस्था, प्रशासन और सरकार चलती है। हमारे देश में सरकार कैसे चल रही ये सब को मालूम है। मौलिक अधिकारों का हनन, असमानता, अन्याय आदि व्याप्त है। हमारा संविधान जो देने की बात करता हे वही वही मिल रहा है। पर देखने की बात ये है कि अच्छे सिद्धांतों और अच्छे कानूनॊ की कमी नहीं है।। मुश्किल है उसे लागू करने की। कानून लागू करे वाले अपनी ज़िम्मेदारी पूरी नहीं कर रहे हैं। कानून बनाने वाले भी बड़ी हद तक अपनी ज़िम्मेदारी पूरी नहीं कर रहे हैं। ऐसे हालत में एक तीसरी शक्ति की ज़रूरत है जो कानून लागू करे वालों और कानून बनाने वालों पर कुछ नियन्त्रण रख सके क्योंकि इन दोनों ने बहुत अधिक शक्ति संचित कर ली है और प्रायः उसका मनमाना प्रयोग करते हैं। ।
यह तीसरी शक्ति भारतीय संविधान ही बना सकता है। हमारे संविधान की सीमा यह है की वह केवल संसद और विधान सभाओं में चुन कर आये जन प्रतिनिधियों के अलावा संसद, सरकार और प्रशासन में जनता की भागीदारी सुनिश्चित नहीं करता। हमारी मुख्य समस्या यही है। सौ करोड़ लोगों के देश में चुनाव के माध्यम से चुन कर आये केवल कुछ हज़ार प्रतिनिधि वास्तव में संसद सरकार और प्रशासन में जनता की आशाओं और भावनाओं का निर्वाह नहीं कर सकते। लाखों लोगों द्वारा चुना गया प्रितिनिधि लाखों लोगों के इलाके में क्या क्या कर सकता हैं? इसलिए संविधान को इस ऒर ध्यान देना चाहिए।
संसद से यह आशा करना चाहिए की वह देशवासियों की आशाओं का सम्मान करेगी। कुछ ऐसे बिल पास होंगे और कानून बनेंगे जो लोगों को यह अवसर देंगे की वे इस महान देश के निर्माण में अपनी भूमिका निभा सके। ऐसे बिलों का प्रारूप तैयार किया जा सकत है जो प्रशासन और नीति निर्धारण के विभिन्न अवसरों पर संवैधानिक तरीके से लोगों को अपनी भूमिका निभाने का अवसर दें।
विचार किया जाना चाहिए कि चुनाव में विभिन्न इलाकों से केवल संसद और एक विधायक ही क्यों चुना जाये? क्यों न मतदाता उन कमेटियों को चुने जो प्रभावकारी तरीके से कानून बनाने वाली समितियों और प्रशासन में अपनी सक्रिय भूमिका निभाएँ । राष्ट्रीय स्तर से लेकर जिला स्तर तक ऐसी चुनी हुई संवैधानिक समितियों का गठन किया जाना चाहिए जो नीति निर्धारण और प्रशासन में सक्रिय योगदान दे सकें।
इन समितियों को सहभागिता, पारदर्शिता और जवाबदेही (सपाज) के आधार पर गठित करना होगा। वर्तमान में नीतियों और उनको लागू करने की कमजोरियों को दूर या कम करने का एक प्रभावकारी तरीका सपाज ही हो सकता है। इसके माध्यम से कानून और नीतियाँ जनता की वास्तविक ज़रूरतों और निर्धारित उद्देश्यों को ध्यान में रख कर बनाये जा सकते हैं। प्रशासन में जन भागीदारी से बदलाव आ सकता है। प्रशासन और जनता के बीच की दूरी को कम किया जा सकता है। प्रशासकों की मनमानी कार्य शैली पर अंकुश लग सकता है। निशचित रूप से भ्रष्टाचार पर लगाम कसी जा सकती है।
सहभागिता, पारदर्शिता और जवाबदेही (सपाज) के आलोक में संविधान में क्या परवर्तन किए जाएँ यह बहुत बड़ा और जटिल विषय है। परन्तु इस सम्बन्ध में कुछ इशारे किये जा सकते हैं। उदाहरण के लिए संविधान में यह संशोधन किया जाए कि सांसद या विधायक के चुनाव के साथ ऐसी समितियों को भी चुना जायेगा जो न केवल सांसदों और जनता के बीच सेतु का कम करें बल्कि यदि ज़रुरत हो तो सांसद पर आंशिक नियंत्रण आदि भी रखें। समितियां चुने हुए प्रितिनिधियों के काम को पारदर्शी बनायेगी । इसी प्रकार की वैधानिक समितियां केंद्रीय और प्रांतीय सरकारों और मंत्रालयों के लिए भी बनाई जा सकती हैं। जनपद स्तर पर ऐसी समितियां बहुत आवश्यक हैं। यह स्पष्ट है की ऐसी समितियां जनपद स्तर पर होने वाली हर तरह की धाधली, अत्याचार और अन्याय पर कुछ नियंत्रण करेंगी। यह किसी से छिपा हुआ नहीं है कि जिला और ग्रामीण स्तर पर सब से अधिक ध्यान देने की आवश्यकता है।
लेकिन मुख्य सवाल यह है की क्या हमारी संसद, राजनीतिक दलों और प्रशासकों की यह इच्छा है कि देश के लोगों को नीति निर्धारण और प्रशासन के क्षेत्रों में प्रभावकारी वैधानिक साझीदारी दी जाये या नहीं? इस बात का सही उत्तर तो संसद और राजनीतिक दल ही दे सकते हैं। लेकिन इतना कहा जा सकता है कि राजनैतिक दलों, संसद और प्रशासन के लिए अपने अधिकारों में जनता को हिस्सा देना बहुत सरल न होगा। लेकिन आज की स्थिति में अगर लोकतंत्र में बड़े पैमाने पर जनता की भागीदारी सुनिश्चित कर लोकतंत्र को मज़बूत नहीं बनाया जाता तो ग़ैर लोकतान्त्रिक ताक़तें मज़बूत होती जायेगी और ऐसी हालत में संसद, सरकार और राजनैतिक दल गहरे संकट में फंस जायेगे और सब से ज्यादा नुकसान जनता का होगा।
क्या ऐसा हो सकता है कि अगले चुनाव में कोई राजनीतिक दल संविधान सुधार का मुददा लेकर जनता के सामने आये? इसकी संभावना तो कम लगती है क्योंकि आज राजनीतिक दलों ने चुनाव जीतने के लिए कुछ दूसरे हथकण्डे अपना लिए हैं। उनके पास आज मुददों पर राजनीति करने की हिम्मत नहीं है जबकि आज देश को सब से अधिक ज़रुरत इसी की है।
यह सच है कि इस व्यवस्था को परिवर्तित करना आवश्यक है, हम केवल सरकार के गुलाम ही नज़र आते हैं । वास्तव में तो हम ही सरकार हैं, यह लोकतन्त्र है केवल दिखावे और ढकोसले का ।
जवाब देंहटाएंडॉ. मोहसिन ख़ान
अलीबाग (महाराष्ट्र) 09860657970 khanhind01@gmail।com
असगर वज़ाहत जी को बधाई! इस बौद्धिक आलेख में समाधान छिपा है लेकिन जब सत्ता इसे स्वीकार करे तब ना।
जवाब देंहटाएंडॉ॰गुणशेखर
असगर वज़ाहत जी को बहुत-बहुत बधाई!इस बौद्धिक आलेख में एक बेहतर समाधान छिपा है लेकिन जब सत्ता की गूंगी गांधारी अपनी आँखों पर से पट्टी उतार कर पढ़े और उस पर अमल करे तब ना।
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जवाब देंहटाएंदिनांक 27/01/2013 को आपकी यह पोस्ट http://nayi-purani-halchal.blogspot.in पर लिंक की जा रही हैं.आपकी प्रतिक्रिया का स्वागत है .
धन्यवाद!
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'हो गया क्यों देश ऐसा' .........हलचल का रविवारीय विशेषांक.....रचनाकार....रूप चंद्र शास्त्री 'मयंक' जी