मनसा आनंद की कहानी - नीम का दर्द

SHARE:

  नीम का दर्द—कहानी नी म के उस पेड़ को अपनी विशालता, भव्‍यता और सौंदर्य पर बहुत गर्व था। गर्व हो भी क्‍यों न प्रत्‍येक प्राणी उसके रंग रूप...

image 

नीम का दर्द—कहानी

नीम के उस पेड़ को अपनी विशालता, भव्‍यता और सौंदर्य पर बहुत गर्व था। गर्व हो भी क्‍यों न प्रत्‍येक प्राणी उसके रंग रूप और आकार को देख कर कैसा गद-गद हो जाता था। पक्षी उस पर आकर बैठते और अठखेलिया करते। आपस में लड़ते झगड़ते कूद-फुदक कर कैसे मधुर गीतों की किलकारियाँ गाते थे। मानों आपके कानों में कहीं दूर से घंटियों को मधुर नाद आ रहा है। कोई अपनी चोंच टहनियों पर रगड़-रगड़ कर उसे साफ़ कर रहा होता। कोई चोंच मार कर आपस में प्रेम प्रदर्शित कर रहा होता। आप बस यूं कह लीजिए की उस नीम के पेड़ के चारों और रौनक मेला लगा रहता था। उस सब को देख कर नीम भी मारे खुशी के पागल हुआ रहता था। उस नीम का तना हमारे आंगन में जरूर था पर उसकी शाखा-प्रशाखाओं दूर पड़ोसियों के छत और आंगन तक पसरी फैली हुई थी। वो इतना ऊँचा और विशाल था कि ये बंटवारे की छोटी-छोटी चार दीवारी उसकी महानता के आगे बहुत ही नीची थी, इन दीवारों की उँचाई का कोई महत्‍व नहीं थी। या यूं कह लीजिए कि नीम कि उँचाई के आगे वह बोनी महसूस होती थी। जड़ें और तना भले ही हमारे आंगन में हो, परन्‍तु उसकी छत्र छाया का आशीर्वाद दुर दराज के घरों को भी उतना ही मिलता था। ये शायद उसकी बुजुर्गता और महानता का ही वरदान था। मैंने जब भी मॉं से पूछता ‘’मां ये नीम कितना पुराना होगा।‘’ तब मां केवल इतना कहती, ‘’जब में शादी होकर बाद इस घर में आई थी। मैंने इसे ऐसा ही देखा था। और मैंने अपनी सासु मॉं से भी जब पूछा था तब उसने भी यही कहां की उसने भी इसे इतना बड़ा और विशाल ही देखा था।‘’ सौ मैंने गिनती का अन्‍त करते हुए उसे अति ‘’प्राचीन’’ होने के खिताब से नवाज दिया।

नीम शब्‍द संस्‍कृत से आया है, नम: से, कैसे उसकी टहनियों को गुच्छों में झूमती सिहरती, आनन्‍द तर झुकी हुई तुम पाओगे। परन्‍तु पूर्ण नीम को जब तुम देखोगे सीधा खड़ा अपनी पूर्णता में इठलाता, प्रसन्‍न मुद्रा में लीन ही खड़ा देखोगे। उसकी पूर्ण शाखा-प्रशाखा, पृथ्‍वी तक नवी कैसी देव तुल्‍य सी प्रतीत होती थी। और दूसरी और शीशम (शीशा‍+नम:) टहनियों को जब भी आप झुके हुऐ देखेंगे वह कैसे साधू भाव से खड़ा होगा। इतना झुके होने पर भी आपके मन में शीशम के प्रति श्रद्धा भाव ही होगा। दूसरी और लहराती झूमती नीम की टहनियों को जब आप देखोगे तो आपको उसमें उसका होना कहीं वैभव पूर्ण लगेगा, वह खड़ा अपने में पूर्ण रूप लिए महसूस होगा। और इस तरह से खड़ा देख कर आपका अंतस अनायास ही उसे देख कर झु‍क जायेगा। उसकी गौरव मई विशालता उसकी झूमती टहनियों को देख कर आप पल भर के लिए किसी और ही लोक में चले जायेंगे। यही है उसके होने की सत्‍यता। उसकी सीतल कड़वी छांव जब आपके गले में कस्‍साया पन और नथुनों में सौंधा पन भर देंगे तब आप आपने को कैसा हल्‍का और निर्भार महसूस करते हुए रह जाओगे।

नीम अपने आस पास के सभी घरों में छांव देता, पतझड़ में उनके घरों में पीले पत्‍ते बिखेर कैसे मुस्कराता सा दिखता, उस समय जब आप उसे देख रहे होगें तो वह एक नटखट बालक जैसा आपको दिखलाई देगा। पत्तों के साथ जब उनकी पतली-पतली सीखें (डालियां) जमीन पर गिरती, तब लड़कियाँ-बच्‍चे उन्हें इक्‍कठा कर के खेलने का झाडू बनाते मिल जायेंगे। सावन से पहले जब उसमे बुग्‍गर (फूल) आता तो कैसी तेज गन्‍ध बिखर जाती। और आपके नथुनों के अंतस तक एक सोंधी ख़ुमारी सी भर जाती। देखते ही देखते वह निमोलियो बन कर कैसे टहनियाँ पर लद जाती, पक कर जब वे निमोलियो पीली हो जाती तब बच्‍चे, पक्षी, कीड़े मकोड़ों को कैसे अपनी और खींच कर सार दिन पागल बनाए रहती थी। श्‍याम होते तक उसकी टहनियों पर चिडियाओं का चहकना कैसा मेला लगने लग जाता था। उस समय नाम मानों अपने सारे दिन की धूल धमास और थकावट को भूला जाता था। रात होते तक आस पास के सब पक्षी अपने अहं को भूल उस पर रैन बसेरा करते थे। दिन के उजाले में फिर अपने स्वरुप के अनुरूप मोर, तोते, कौवे, चिड़ियों, गिलहरी बन अपना संसार रच लते थे। रात के अंधेरे में नीम अपनी गोद और नींद में उनका होने का भाव अपने में कैसे पूर्णता से समा कर लीन कर लेता था। दिन में ऊपर की टहनियों पर पक्षियों का डेरा जमा होता, नीचे गॉव की बहुँ-बेटियॉं सीने, पिरोने, चूटने के साथ बात-बात पर हंसते-हंसते लोट-पोट हो रही होती। उस समय वातावरण में कैसी मधुर ताजगी और एक सुहावना एहसास भर जाता था। नीम भी उसे देख कर कैसा पुलकित और अल्हादित होता था पर अपने बुजुर्ग होने के अंदाज में थोड़ा झिझकता भी जरूर था।

नीम की छाव में दिन भर गांव की बहु बेटियों की चुहल-चपलता चारों तरफ बिखरी फैली होती, पास में ही बड़ी बुढ़ियों अपना दांत रहि‍त पोपला मु‍हँ लिए गहन मंत्रणाओ के साथ, बहु-बेटियों को डाटती डपटती रहती थी। ‘’कि क्‍या खि-खि करती रहती हो सार दिन दाँत निकाल कर बेशर्म की तरह मुहँ फाड़ती रहती हो।‘’ ये सब सुन कुछ बहु बेटियाँ पल्‍लू में मुहँ दबा कर हंसती। तब नीम उन पर अपना बूगुर फेंक कर सावधान करता। पर उस बेचारे की सुनता कोई नहीं था। आस पड़ोस की सब लड़कियाँ अपने आँगनों में फैली टहनियों में झूला डालती थी, परन्‍तु रौनक मेला तने के आस-पास की झूल पर ही अधिक जमता था। पत्‍ते शाखाओं पे कहीं पर भी लगे सिंचना तो पड़ेगा उन्‍हें तने ने ही, उन अंधेरी छुपी जड़ों को अपना माध्‍यम बना कर। सावन के दिनों में नीम पर झूला डालना भी वीरता पदक पा लेने का जैसा काम था। सब लड़की उस समय कैसे प्‍यार से मेरी लल्‍लो चप्पो कर मुझे मनाती थी। तू कितना अच्‍छा है, बहादुर है, तू मेरा सबसे राजा भैया है। तू सब की बात ठुकरा सकता है पर मेरी नहीं...भैया मेरा झूला डाल दे ना....ना-ना कर के भी मुझे सब का ही झूला डालना ही पड़ता था। ये दो काम मैंने उन दिनों इतने किये कि में आपको बता नहीं सकता। एक तो उनके कपड़ों पर फूल-पत्‍ते छापना। और दूसरा झूला डालना। एक तो नीम का तना एक दम सीधा खड़ा था, और उपर वह मोटा भी इतना था की तीन चार बच्‍चे हाथ पकड़ कर उसका गोल घेरा भी मुश्किल से बनाकर हाथों को पकड़ पाते थे। इसके अलावा चींटों की पहरेदारी एक दम अडिग क्‍या मजाल कोई तने को छू भी ले, पेड़ पौधे भी कैसे शांत खड़े होकर भी अपनी रक्षा और उत्पत्ति के लिए फूल-फलों से लुभाने का सहार लेते हैं। कैसे अपने फलों-फूलों से उन्‍हें अपनी और खिंचते हैंं। पर मैं इन चींटियों की बाधाओं को बड़ी सरलता से पार कर बड़े चाव से उसे नीम पर चढ़ जाता। सच कहूं तो झूल डालना तो एक बहाना था। ताकि मां को पता चल जाये तो वो डांटने न लग जाये, मैं तो खुद ही उस नीम के साथ रह कर अपने को बहुत खुश महसूस करता था। और झूला डालने के इस बहाने से उसके उपर चढ़ कर घंटो बैठा रहता। और न मिले तब भी कोई न कोई बहाना बना लेता की देखना कहीं तुम्‍हारे झूले का कपड़ा ठीक से तो है कहीं अगर कपड़ा खिसक गया है तो तुम्‍हारी झूल कट जायेगी। अगर तुम गिर गई या तुम्‍हारी पींग टूट जायेगी तो आफत आ जायेगी । फिर उस पर मुझे बार-बार फिर नहीं चढने को कहना। मैं नीम के तने पर बैठ कर नीम के पत्‍तों से खेलता, वो पत्‍ते जब मुझे छूते तो मुझे लगता की वो मुझे गुदगुदा रहा है। उसकी टहनियों का मेरी पीठ से टेकरा मुझे बहुत अपने पन का अहसास दिलाता था। मैं उपर बैठ कर उसे एक टक निहारता रहता, उस समय उसका अपूर्व सौंदर्य का में बांया नहीं कर सकता। मेरे पास ही कोई पक्षी बैठा अपना मधुर गान गा रहा होता। वह मुझसे जरा भी नहीं डरता। मुझे इस समय अपने पर बड़ा गर्व होता। कितना अच्‍छा लगता था में आपको शब्दों में वो सब बता नहीं सकता। कभी-कभी कोई पक्षी जरूर डर कर मुझे देखते, मेरी मोजूदगी उसे कुछ अटपटी भी लगती। पर पल भर के लिए ही चुप होता और फिर निश्चिन्त हो अपना मधुर गान गाने लग जाता। उसकी मधुर गान को सून मैं उस समय अपनी आंखे बंद कर थिर हो जाता तब वह मधुर गान गाने मुझे किसी और ही लोक में ले जाता। समय और स्‍थान पल भर के लिए मिट जाता। शायद वो भी समझ जाते की हम सुरक्षित है। पर एक बात जरूर है वहां बैठ कर पक्षियों सुनना, जितना अच्‍छा लगता इतना नीचे या और कही से नहीं लगाता था। पर ऐसा क्‍यों? ये बे बुझा सा रहस्‍य में कभी नहीं समझ पाया। पर कुछ चीजें समझ में न आने पर भी कितनी अच्छी लगती है ये मैंने पहली बार जाना।

घर की छत पर बैठ कर जब मैं पढ़ता होता तब मेरा ध्‍यान पढ़ने में कम ही लगाता। और बार-बार में केवल उस नीम को ही निहारता रहता। वो देखना धीरे-धीरे मात्र देखना भर रह जाता। न वहां मैं होता और न कोई विचार। बस वहां वहीं होता मेरे सामने वो अभूतपूर्व नीम उस समय अपने अपूर्व सौंदर्य की बुलंदियों के पास चला जाता था। उसका सुबह-सुबह ओस की बुंदों में कैसी ताजगी को अपने ऊपर लिए उठना। उसकी पूर्णता में कैसा अलसाया पन होता था। फिर दिन की घुप में कैसे कसमसाते हुए अँगड़ाई लेता था। उस समय तो ऐसा लगता, मानों वह तेज गर्मी में लम्‍बी-लम्‍बी ऊसांसे भर रहा है। ठिठुरती शारदी में सुबह जब ओस उसके पत्‍तों पर जमा हो चमक रही होती तब वह कैसे सि...सि..कर ठिठुरता सा दिखता था, बरसात में मदमस्‍त हो उसका झूमना मुझे गद्द गद कर जाता था। ये सब दृश्य मुझे पारलौकिक या यू कहो आपने साथ कुछ क्षणों के लिए किसी और ही लोक में ले जाते थे। और ये सब बातें जो मेरे साथ घटती वह में जब इन्‍हें मां को बताता। तो वह हंस कर मुझे पागल कह भर देती थी। पर में तो उस समय इतना मंत्र मुग्ध हो जाता की मेरे लिये और सारी दुनिया पल भर के लिए खो ही जाती थी।

उसको निहारते समय मेरा मन अवचेतन तक अभिभूत हो उठता था। पतझड़ के आने पर उसके पके पीले पत्‍ते टहनी से टूट कर गिरते हुए कैसे गोल-गोल झूमते, नाचते, इठलाते, आनन्‍द विभोर और गौरव गर्वित हो गिरते से लगते थे। वही पत्‍ते जब जमीन पर सोये पड़े होते तो कैसे अपने अन्‍दर शान्‍ति लिये मौन मुखर दिखाई देते थे। जैसे उन्‍होंने कोई परिपूर्णता पा ली हो। क्‍या यहीं मृत्‍यु है? इतनी शांति अपने में समेटे हुए। फिर इससे कैसा भय, क्‍यों हम भयभीत होते हैं मृत्‍यु से? जब दुसरी और हम देखें है और प्राणियों की और तो वह कैसे निशचित है मृत्‍यु के प्रति, वह केवल जी रहा है। उसे मृत्‍यु का मानों पता ही नहीं है। और एक तरफ इस मनुष्‍य को देखो वह मृत्‍यु से कैसे भयभीत और सहमा दिखाई देता है हर वक्‍त। और पल भी पूर्णता से जी नहीं पाता। ऐसा क्‍यों शायद हम सोचते हैं की मौत हम बड़ी पीड़ा देगी। हमें मिटा देगी। सब खत्‍म हो जायेगा.... क्‍यों नहीं हम उसे सहजता से सविकार कर लेते। क्‍या हमने जीवन के साथ मृत्‍यु को भी विक्रीत अपूर्ण तो नहीं बना लिया है?

बसन्त से पहले उसका पत्‍ते विहीन चेहरा, एक साधु भाव लिए हुए कैसा देव तुल्‍य प्रतीत होता था। उस समय कैसे एक छोटे नग्न बच्‍चे की झिझकन और मासूमियत फली हुए उसके चारो ये सब आपको साफ़ दिखाई दे जायेगी। लाल महरून कोमल पत्‍ते आते ही कैसे नये चीवर पहन भिक्षु बन खड़ा हो पूजनीय सा दिखाई देने लग जाता था। तब वो मुझे ऐसे गर्व से देखते हुए कहता प्रतीत होता देखा मेरे रूप मेरा उत्‍सव। उन्हीं लाल महरून पत्तों पर धूप की किरणें कैसे छिटक कर आंखों को चुन्धियाँ देती थी, मानो कोई दिव्‍य पुरूष साक्षात तु‍म्‍हारी नजरों के सामने आ खड़ा हुआ हो। बरसात की तेज हवाओं में भी वह कैसे अडिग खड़ा रहता था। मानो तूफान से भी टकर लेने का साहस उसने पा लिया था। डरा देने वाली बिजली की भयक्रान्त गड़गड़ाहट उसकी निर्भीकता को छू तक नहीं पाती थी। लेकिन एक बात पक्‍की थी, वह धीरे-धीर अब बूढ़ा होने लगा था। बसन्‍त में नये कोमल पत्तों के साथ, उसमें बुगर भी आ जाता था। उम्र बढ़ने से जैसे मनुष्‍य का मस्तक के स्नायु सुप्‍त होने लग जाते हैं, उसकी याददाश्त और दैनिक कार्या पर असर दिखाई देने लगा है। शायद ऐसा ही उस नीम के साथ हो रहा था। और तो क्या कारण हो सकता है, कि वो बे मौसमी बसन्‍त में पत्तों के साथ बूगुर (फूल) भी अपने उपर लगा लेता था। जब उस बूगुर से निबोलियां बनकर पकती तब वे कैसी बेस्‍वाद और कड़वी होती थी। बेमौसम होने के कारण फलों में रस नहीं आता। वहीं दूसरी और सावन के मौसम में उनका माधुर्य वो रसीला पन अंदर तक एक शीतलता और तृप्‍ति दे जाता था। और दूसरी और इस समय वह एक दम बे स्‍वाद और रूखी-सूखी निर्जीव सी होती थी।

मैं छत पर बैठ जब पढ़ता होता, तब भी किताबों में लिखें काले अक्षरों से उसके पत्तों पर लिखी कविता मुझे ज्यादा लुभावनी लगती थी। मैं उसे जब भी देखता वो केवल प्रसन्‍न ही दिखाई देता, मैने उसे कभी उदास नहीं देखा। कितना बड़ा तपस्‍वी है, कभी उफ्फ तक नहीं करता, न वो कभी मेरे की तरह बीमार ही पड़ता है। कभी-कभी उसके तने पर काले-काले मोटे तिलच्ट्टा जरूर दिखाई देते थे, जब मैं मां से पूछता मां इसके तने पर ये क्‍या चल रहे है, मां कहती इसके शरीर पर जुए हो गई है। मैं सोचता इसकी तो मां भी नहीं है जो इसकी जुए निकाल दे, मेरे सर में जब भी जरा सी खुजली हो जाती थी, तब मां को कैसा शक हो जात कि कही जुए तो नहीं हो गई है। तब वह किस तत्परता से मुझे पकड़ कर घंटो मेरे सर से जुए ढ़ूँढ़ कर निकालने की कोशिश करती रहती थी। मैं लाख छटपटाता और छुड़ा कर भागने की कोशिश करता। पर सब नाकामयाब हो जाती थी। इस बीच मेरी गर्दन भी दु:ख ने लग जाती थी। परन्‍तु उस समय कौन सुनने बाला था, डांट डपट कर बि‍ठा दिया जाता।

मुझे उसके तने के पास बैठना इतना अच्छा लगता कि आपको बता नहीं सकता, उस पर चलते तिल चट्टों का भी मुझ जरा डर नहीं लगता उसके संग होने पर में भूल ही जाता इस सारी दुनियां को। मैं बाल वत एक बच्‍चे की भाति उससे ऐसे चिपट जाता जैसे कोई मां के आँचल को सुस्‍वाद सुख ले रहा हूं। उस का खुरदरा पन, उस पर रेंगते कीड़े-मकोड़े मेरे उपर भी चढ़ जाते, मुझे उन से भय के साथ घृणा का भाव भी खत्‍म हो गया। में उस सब को ग्रहण कर लेता था अपने होने के साथ। उस के पास केवल बैठना इतना अच्‍छा लगने लगा कि घर के लोग ने मुझे ‘नीम पागल’ की उपाधि से नवाज दिया। मैं नहीं जानता था कि नीम पागल क्‍या होता है, शायद मेरा दोस्त नीम और मैं..पागल, शायद ये लोग यही कहना चाहत हो। मुझे ये गाली जैसा न लग कर ऐसा लगता कोई मुझे किसी उपाधि से सुशोभित कर रहा हो। क्‍योंकि इसके साथ मेरे दोस्‍त का नाम जो जूड़ा था। दोस्‍त शब्‍द सच ही महान है जहां दो अस्‍त हो जाये, दो मिट जाये। शब्‍दों की यात्रा भी अपना पूरा इतिहास अपने में पिरोये हुए साथ चलती है। और में इतना गदगद हो जाता आपने उस दोस्‍त के साथ समय मेरे लिए ठहर जाता था।

उसके अन्‍दर की बहती जीवंतता, मुझे इतना अलाहदा और आनंदित करने लगती थी कि मेरे आस पास क्‍या हो रहा है। इस सब का मुझे कोई भी पता नहीं होता, न मेरे पास शब्‍द होते न होती परिभाषा कुछ क्षणों के लिए सब गायब हो जाता था। और चाहे मैं कितना भी क्‍यों न थका होता या मेरे मन में कैसी भी उदासी, परेशानी क्‍यों न होती, मैं कुछ देर उस नीम के तने से सट कर बैठा नहीं की मेरी आंखें अचानक बंद हो जाती थी। जब मेरी आंखें खुलती में किसी और लोक से इस लोक में अपने आप को आया हुआ पाता था। मेरी सारा तनाव और थकान न जाने कहां गायब हो जाती थी। और में एक नई ऊर्जा से अपने को सराबोर पाता था। मुझे अपने अन्‍दर एक नई उर्जा का संचार बहता साफ़ महसूस होता रहता था। उसके पास बैठने भर से कुछ ऐसा हो गया कि जो पहले मैं घंटो बैठ कर भी याद नहीं कर पाता था उसको में मात्र एक बार पढ़ने से याद कर लेता था। उन दिनों मेरा मन इतना शांत रहता की मेरा किसी के साथ बात करने के जी नहीं भी चाहता था। उन्‍हीं दिनों मैंने पहली बार जीवन के वह गहरे तल जो अनछुए अनजाने निर्दोषता से भरे क्षणों को छुआ था। उन आयामों में घण्टों गोते मारे थे। उनमें खोया उनमें जिया उनको जाना। कैसा सुरमई अँधेरें क्षण थे वो वही चींजे अब मुझे ध्‍यान करते हुए सालों बाद महसूस होती है। और मुझे वह मील के पत्‍थर परिचित से लगते हैं। और तब मुझे लगता है मैं सही मार्ग और धरातल चल रहा हूं। मुझे मेरा प्‍यार नीम गुरु तुल्‍य बन कर वो सब निर्दोष भाव से दिया उस से मैं कभी उऋण नहीं हो सकता।

कभी-कभी अचानक पढ़ते-पढ़ते जब नीम शब्‍द मेरी पुस्‍तक में आ जाता तब में नीम के पास जा कर उसके कानों में थिसारस का पाठ भी पढ़ाने की कोशिश करता था। कि देख मैं कोई बुद्धू नहीं हुं, एक ज्ञानी हूं।( यानि में उससे कहता की देख तेरे इतने नाम है क्‍या तुझे मालूम है—चीर्णपर्ण, अरिष्‍ट, रविप्रिय, मदार, सर्वतोभद्रक, महातिक्‍त, पीतसार.....आदि ..‍आदि) तब वह मेरी और देख कर मुस्कराता हुआ मालूम पड़ता, और कहता सा लगता कि ये सब उल जलूल बातें तुम मनुष्‍यों को ही शोभा देती है, हमे शब्दों की क्या जरूरत है, हम तो केवल महसूस कर हर बात को जान लते हैं। मानो मेरे ज्ञान के पिटारे को खुलने से पहले ही वह बंद करा देता। और उस समय वो ऐसा झूमता की में अवाक सा रह जाता। उसकी टहनियों इस तरह झूमती इठलाती और बल खाती जैसे वो खिल खिला कर हंस-हंस कर लोटपोट हो रहा हो। और मैं निरुत्तर सा उस ज्ञान के पिटारे के कारण शर्मिंदा हो जाता।

उस रात को बहुत तेज आंधी-तूफान आया, पूरे नीम की गूतनी पकड़ कर हवा मरोड़-मरोड दिए जा रही थी। नीम की ऐसी हालत देख कर मेरा दिल बैठा जा रहा था। इस बेचारे को इसे समय हवा किस बुरी तरह से झक-झोर रही है, मेरे दोस्‍त नीम को कितना भय लग रहा होगा। कैसे रात भी हवा इसे सोने नहीं दे रही है, और उपर झकझोर रही है। मां तो मुझे रात को सोते में कभी उठाती भी नहीं थी। नहीं कभी मजबूरी में अगर उठाना भी पड़े तब कैसे प्‍यार से दुलार कर मेरे बालों में हाथ फेरती तब भी मुझे कैसा बुरा लगता। और उस समय कच्‍ची नींद उठने के बाद न खाने में कोई रास आत और न ही कुछ अच्‍छा लगता था। क्‍या हमारी बेहोशी हमें जीवन में पूर्ण रस नहीं लेने देती। क्‍या हम थोड़े और अधिक जाग्रत जब हो जाते हैं, उन्‍हीं-उन्‍हीं स्थान उन्हीं-उन्‍हीं चीजों में हमारा रास अधिक नहीं बढ़ जाता है। मैं सोच रहा था क्या ये हवा दिन में नहीं चल सकती मेरा मन कर रहा था उसे हवा को बंद कर दूँ। पर मैं असहाय सा केवल देखता रहा कैसे इसकी मदद करूं, लेकिन वो बिना किसी भय के अडिग खड़ा तूफान का सामना करता रहा। इतनी देर में हवा के साथ-साथ बारिश भी आ गई, कितनी सहन शक्‍ति होती है, इनमें हम मनुष्‍य अपने को कितना सुरक्षित कर लिया है, तभी तो हम इतना बचा पाए, बराना हमारी शारीरक संरचना पूरी पृथ्‍वी पर सबसे कमजोर है। मनुष्य का शरीर इतना बर्दाश्त कभी नहीं कर सकता। अचानक टहनियॉं के बीच में बड़े जोर से फड़फड़ाहट की आवाज आई, जैसे कुछ गिरा हो। बीच में बिजली की कड़कड़ाहट जो दिलों को कंपा दिया। उस समय बिजली इतनी जोर से चमकी की पल भर के लिए तो आंखे भी अंधी हो गई। जब इस तरह से बिजली चमकती है तो मां आँगन में तवे को उल्‍टा कर के रख देती थी। ताकि बिजली न गिरे, अब उनका लाजिक कितना सत्‍य या केवल एक दिलाने वाला था मैं ने कभी खुद ही समझ पाया और न मां को ही समझा ही पाया।

दोबारा बिजली कड़-कड़ाई और पूरा आंगन तेज प्रकाश से नाह गया। मेरी भी आंखें मारे डर के एक दम से बंद हो गई। लेकिन प्रकास में आँगन में कुछ गिरा हुआ दिखाई दिया, बिजली की गडगडाहट के साथ ही जो बुंदा-बाँदी थी वो अचानक बरसात में बदल गई। फिर भी मेरा मन नहीं माना मुझे लगा कोई चीज ऊपर से गिरी है। और काफ़ी बड़ी दिखाई दी थी जब वह फड़-फड़ा कर गिर रही थी। मां के मना करने के बावजूद भी में बिना रुके और बरिस की परवाह किए बाहर कि तरफ भाग। मैंने उस गिरी चीज के पास जा कर देखा तो वह एक मोर था। उसका शरीर अभी तक भी गर्म था, सांसों का चलना भी महसूस हो रहा था। मैंने मां को आवज दी: ‘ मां देखो मोर गिर गया है।‘

मां को यकीन नहीं हुआ कि मोर कैसे गिर सकता है, उसके तो पंख होते हैं, वो तो गिरने से पहले अपने को संभाल सकता है। शायद हवा के झोंके में, या तेज बारिश में, गीले पर होने के कारण वो अपने को संभाल न पाया हो, उसका संतुलन बिगड़ गया हो, या शायद वह गहरी नींद में हो पर जो भी हो बेचार इस समय जमीन पर गिरा असहाय दिखाई दे रहा था। उड़ने का प्रयास तो उसने जरूर किया होगा पर उड़ नहीं पा रहा होगा। हां अभी भी मेरे हाथ लगाने से पंख फड़-फड़ाने की कोशिश कर रहा था।

इतनी देर में मानो आसमान टुट कर सर पर गिर गया हो। पुरा आँगन कांप गया। कुछ क्षण के लिए तो सब ठहर गया। आंख, मन, शरीर, मस्‍तिष्‍क सब निष्क्रय हो गया। पास ही नीम के एक तने के हर-हरा कर गिरने की आवाज आई, पक्षियों की भयक्रान्त कर्कश करूण पुकार ने वातावरण को और भी डरावना बना दिया। चारों तरफ भय और हाहाकार हवा में घुल गया। नीम का एक बहुत बड़ी टहने पर शायद बिजली गरी हो और वो टुट कर नीचे गिर गया। उस पर सोये वो लाचार पक्षी इस तूफान भरी रात में बेसहारा हो गए। छीन लिया कुदरत ने उन का आशियाना। भय से कि...कि...कि.. आवाज करते अंधेरे और उस तूफान में दूर कहीं नये आशियाने की तलाश में उड़ गये।

मैंने जल्‍दी से मोर को उठाया और घर के अंदर की तरफ भागा। मोर मेरी गोद में कुछ कुल बुलाया और अपने को मेरी पकड़ से छुड़ाने की कोशिश करने लगा। उस ने मेरे हाथ को काटने कि कोशिश भी की परन्‍तु उसकी चोंच खुली भर रह गई दबाव न डाल पाई। मैंने एक कपड़े से उसे पोंछा और एक कोने में उसे बिठाने की कोशिश‍ करने लगा। परन्‍तु वो बैठ न सका। उसकी गर्दन एक तरफ को मुड़ गई मैने मां को बताया मां ने हाथ लगा कर देखा और वो कहने लगी शायद इसकी गर्दन टुट गई लगती है। में फटा-फट अंदर गया। आयोडेक्‍स की शीशी और एक कपड़ा ले आया। मां ने कहां साथ में पानी भरने बाले रबर का एक टुकडा काट कर उसके बीच से दो हिस्‍से कर पहले इसकी गर्दन के चारों तरफ लपेट दे, मैं मां का मुहँ देखता रह गया। मानों मां ने कहीं से फस्‍टऐड का कोर्स किया हो। हम दोनों डाक्‍टर बन उसकी मरहम पटटी करेने में व्यस्त हो गये। और एक चारपाई को कोने में आड़ी खड़ी कर के उसे एक कपड़ा ढंक दिया। हमने अपनी तरफ से उसकी सुरक्षा का घेरा बना दिया ताकि हमारा पालतू कुत्‍ता या बिल्‍ली उस पर हमला न कर दे। मैंने उसे एक कपड़ा भी उढा कर सुलाने की कोशिश की पर वह भीगा हुआ था। तब मां ने कहा की ले पहले में ईंट के टुकड़े को चूल्‍हे पर गर्म कर के तुझे देती हूं तू उसकी थोड़ी सिकाई कर दे ताकि उसके बाल सुख जाए और उसे गर्मी भी मिले। उसे बाद में उसे कपड़े में लपट कर उसके बदन को सुखाने की कोशिश की थोड़ी ही देर में उसने आंखे बंद कर ली पता नहीं दर्द से या गर्माहट से। बहार बारिश अपना तांडव दिखाती नहीं और बिजली सहयोगी बन उसे मार्ग दिखाती रही।

सुबह जब उठे तो आस पड़ोस के घरों में हाहाकार मचा था। जो नीम का बड़ा सा टहना रात को तूफ़ान में टूट कर गिरा था। उससे एक पडोस का घर छप्‍पर गिर गया था। इससे तो उन्‍हें इतना डर हो गया कि ये नीम किसी दिन हमारी जान भी ले लगा। जो नीम कल तक सब का दुलारा था आज अचानक एक दम से दुश्मन हो गया। आस पड़ोस की भीड़ बस यहीं रट लगाये हुई थी कि इस नीम को तो अब काट डालों। ये अब बूढ़ा हो गया है। इसे तो मरना ही है। पर ये अपने साथ आस पास के लोगों को भी ले कर मरेगा। मां न उन्‍हें लाख समझाया कि इस में इस नीम का कोई कसूर नहीं है। ये तो रात को तूफान ही इतना तेज आया था। मुझे तो लग रहा था कि पेड़ कहीं जड़ से न उखड जाए। पर इसने कितनी हिम्‍मत दिखाई तुम देखते तो अचरज कर जाते। और आस पास के टीन टब्‍बर और छान तो न जाने कहा गायब हो गई थी। उस भयंकर तूफ़ान के सामने उनकी क्‍या बिसात थी। फिर टिकना इस छप्‍पर को भी नहीं था, ये तो पहले ही नीम के तने के गिरने के कारण दब कर टूट गया। पर अब उस नीम की शामत आई थी। सब लोग उसके अस्‍तित्‍व के पीछे पड़ गये थे। कोई ये समझने की कोशिश नहीं कर रहा था ऐसा खतरनाक तूफ़ान कोई रोज-रोज थोड़े ही आते हैं। फिर बेचारे नीम का एक ही तो टहना गिरा था बाकी चार-पाँच तो अभी भी अडिग खड़े थे। परन्तु मां की किसी ने नहीं सुनी।

सब पड़ोसियों ने निर्णय कर लिया था कि उनके आँगन में जो बड़े-बड़े टहनियों फैली हुए है, उसे काट देंगे। अच्‍छा तो यही रहे की इसे जड़ से काट दिया जाए। तने को काटने के लिए मां ने मना कर दिया। आज नीम के अंग-भंग किए जा रहे है। मैंने उसे छुआ वो बहुत उदास था। मेरी आंखों से आंसू बहने लगे। और मुझे एक मायूसी ने घेर लिया। शायद यहीं उदासी और हताशा, और पीडा उस नीम को भी घेरे हुए थी। वो जीवंत बलि चढ़ाया जा रहा था। मैंने अपने हाथ पर चूँटी काट कर देखा की कितना दर्द होता है। अगर मेरा ये हाथ ही काट दिया जाए तो क्‍या में इस पीड़ा को सह सकूंगा। आज मेरे दोस्‍त नीम को इतनी पीड़ा मिल रही है। और में उसे बाट भी नहीं सकता हूं। क्‍या हो गया मनुष्‍य को क्या वो संवेदन हीन हो गया, क्‍या कारण है इंसान आज इतना मतलबी हो गया है? क्‍या गांधी जी का वैष्णव जन कभी जीवित नहीं होगा? जो दूसरे की पीर, करूण, पीड़ा या वेदना को जान सके। ये संवेद हीन होता मनुष्‍य खुद को काल के गर्त में शुद ही अपने आप को लिए जा रहा है। उसको पता नहीं है, प्रकृति का एक-एक साथी उसके लिए जीवन है। चाहे वो जल, वृक्ष, पशु, पक्षी, मिटटी; पहाड़ दृश्य या अदृष्‍य ही क्‍यों न हो.......ये सब उसी के शरीर के अंग है अगर वो इन्‍हें भंग करेगा तो उसे भी मरना पड़ेगा। शायद हम आत्‍म हत्‍या की तरफ कदम बढा रहे हैं। और हमारी चाल बाजी तो देखे हम नारा विकसित करते हैं ‘’पृथ्‍वी को बचाए ’’ उसे पता नहीं है पृथ्‍वी तो करोड़ो सालों से अपने उपर ये विपदाएं, उथल, पुथल झेलती आ रही हे। उसे तो मानो इस सब को सहने की आदत सी हो गई है, इस लिए अपने का और अधिक मजबूत बना लिया है। पर जब करोड़ो सा पहले उस पर मानव भी नहीं था, तब भी उसने अनेकों संहार देखे है, सहे है, उनके साथ खड़े हो अपना आस्‍तित्‍व बचाया है।। और आज भी वह हमारी हजार बाधाओं को झेलती आ रही है। देखना वह खत्‍म नहीं होगी खत्‍म होगा ये मनुष्‍य ही। इस पृथ्‍वी का कुछ नहीं होगा वह तो अपना नया परिधान पहन कर फिर भी आनंद से जीएगी...कड़ावा सच तो ये है हमें अपने आप को बचाना है इस पृथ्‍वी को नहीं.......

दिन भर उस पर कुल्हाड़ी चलती रही। शाम होते तक उसके सब तने काट दिए गये। श्‍याम का कुहासा घिरनें लगा था, उस पर दुर-दुर से जो पक्षी रैन बसेरा करने आते थे, आज अपना आशियाना न पा कर बड़े बेचैन हो रहे थे। वो बार-बार उड़ कर उन तनों पर बैठना चाह रहे थे। जो अब वहां पर नहीं थे। जिन पर वो सालों से सोते आ रहे थे, न जाने आज अचानक कैसे ओर कहां गायब हो गये। ये सब कारण उन मूक प्राणियों कि समझ से परे की बात थी। उन्‍हें एक भ्रम ने घेर लिया। कि कल तक भी हम जिन तनों पर बैठते थे दिन भर गीत गा कर खेलते थे। एक दूसरे के साथ लड़ते थे आज अचानक कैसे गायब हो गये। उन्होंने तो सोचा भी नहीं था कि रात जब हम अपने घर सोने आयेंगे तो वह नदारद मिलेगा। लेकिन उन पक्षियों की बेचैनी और उधेड़ बुन की ओर किसी का ध्‍यान गया। वो बेचारे निरीह समझ ही नहीं पा रहे थे की हमारा आशियाना कहां चला गया....... दस बीस कदम दूर तक उड़ते और फिर वापिस आ कर देखते। इसी उधेड़ बुन में रात घिरनें लग गई थी और उन्‍हें जहां भी ठोर-ठीक ना मिला वो बेचारे मायूस हो चले गये। शायद वो इस मनुष्‍य को कभी नहीं समझ सकेगें जिनके संग वो रहते हैं। मैं ये सब होते नहीं देख सका और अंदर कमरे जा करा दरवाजा बंद कर के अपने बिस्तरे में लेट गया। में उस समय अपने को बहुत असहाय महसूस कर रहा था मेरे ही सामने मेरे दोस्‍त के अंग भग किये जा रहे है और में उसे बचाने में लाचार हूं। मेरी समझ में नहीं आ रहा था कि में नीम को अंग विहीन कैसे देख पाऊंगा। इसी सब के बीच न जाने कब मेरी आँख लग गई और मैं सो गया और जब उठा तो श्‍याम से रात हो गई थी।

बहार कि अफरातफरी खत्‍म हो गई थी और उसके बाद एक श्मशान की शांति फैली थी आँगन में। नीम के अंग काट दिए गये थे। वो असह्य पीड़ा से कराह रहा था। मैं उस से लिपट कर रो पडा मेरा मन चीत्कार कर उठा उसको इस हालत देख कर। लेकिन में लाचार और असहाय और मजबूर था। आज मुझे दुःख हो रहा था वह नीम इतना विशाल क्‍यों हुआ। क्‍या हमारे ही आँगन में नहीं समा सकता था। क्‍यों उसने अपने पराये की सीमाओं को तोड़ा और उसे ये सब भोगना पडा। आज उसकी विशालता ही उसका अवगुण बन गई। मैं अपने दोस्‍त को नहीं बचा सकता…..इस का मुझे आज भी दुःख है। मां ने मेरे सर पर हाथ फेरा, मैंने अपना मुहँ उपर उठा कर देखा तो मां भी मेरे साथ रो रही थी। और मैं जोर से ‘’मां’’ कहा कर उस के सिने से लिपट गया। हम दोनों की धड़कन एक हो गई। दोनों का दर्द भी एक दूसरे में प्रवाहित हो कर एक दूसरे में विलीन हो गया। आज में इतना संवेदन शील ओर भावुक हुं तो इसका सारा श्रेय या तो उस नीम को जाता है, या मां के संग साथ और लाड़ दुलार इसमें बहुत हाथ है। काश मेरी मां जैसी सब की माँएं हो जाती जो पीर पराई को पी सके उसे दूसरे में प्रवाहित कर सके।

मोर दो दिन तक जीवित रहा लेकिन उसे हम नहीं बचा सके क्‍योंकि उसकी गर्दन टुट गई थी। आँखो में दवाई डालने वाले ड्रोपर में उसे दूध पिलाता था। पर वह आखिर कार मर ही गया। फिर में उसे जंगल में जा एक गढ़ा खोद कर उसे दबा आया। ऊपर से दो चार पत्‍थर रख दिये ताकी कोई गीदड़ आदि उसे खोद न सके।

मैं उस दिन जब नीम के पास जाकर बैठा , मेरे अंदर की समस्‍वरता ही बदल गई। एक नीरसता, रसहीनता, एक उबाऊपन और बेचैनी ने मुझे घेर लिया। एक न जीने की चाहा जैसे मुझे लगा की में न जीउ , एक मरने की आकांक्षा बार-बार मेरे मन में उठ रही थी समुद्र की लहरों की तरह जो टकराती जीवन के किनारे से ओर फिर नई बन कर तैयार हो जाती। ऐसा क्‍यों हुआ उस समय मुझे बड़ा अजीब सा लग रहा था। क्‍योंकि ये मरने का विचार तो मेरे बाल वत मन में उठा तो उठा कैसे? मैं तो जीवन को भगवान का दिया एक प्रसाद समझता था। इससे पहले ये विचार मेरे मन में कभी नहीं आया मुझे तो जीने का जितना रस और आनंद था वो करोड़ो में किस एक बच्‍चे के जीवन में रहा होगा। मां ने मुझे बचपन से यही तो सिखाया था जीओं पूर्णता से भर कर लंबा-लब, एक-एक क्षण में खड़े होकर देखो तभी तुम ये जीवन जी सकोगे। वरण तो तुम बहुत चुक जाओ इस जीवन से.... पर ये विचार अभी तक भी कभी नहीं उठा मेरे मन में तो फिर आज क्‍या? तब अचानक मेरा माथा ठनका अरे ये विचार उस पागल नीम के अंदर से उठी तरंगें तो नहीं थी, जिन्‍होंने मुझे घेर लिया था, उसकी पीड़ा के साथ उसके भाव भी मुझमें प्रवाहित तो नहीं गये। धीरे-धीरे ये मुझे साफ-साफ दिखाई देने लगा। ये विचार मेरे नहीं अपितु मेरे दोस्‍त नीम के ही है। मैंने उसे अपने गले लगया और उस प्‍यार से कहा, उसे मनाने की कोशिश भी की, में उस से लिपट कर खूब रोया उसे प्‍यार किया, क्या तू मुझे ऐसे ही छोड़ कर चला जाएगा फिर मेरा दोस्त कोन बनेगा। पर मैंने ज़िद्द नहीं की, मुझे उसकी पीड़ा का एहसास था। उसके कटे अंगों के कारण वह कितनी पीड़ा को सह रहा होगा। माना वो मनुष्‍य की तरह कह नहीं सकता। पर मैं अपने दोस्त को खोना भी नहीं चाहता थ। मैं जानता था मेरा दोस्त मुझे छोड़ कर चला गया तो मेरा कोई दोस्त नहीं रहेगा। और सच ऐसा ही हुआ आज तक भी मैं नीम के बाद अपना कोई दोस्‍त नहीं बन पाया। तब मैंने मां को बताया। मां की आंखों में आंसू आ गए एक पेड़ को काटना एक आदमी को मारने के बराबर पाप होता है। शायद हम दोनों को सब लोग नीम पागल समझ कर हंसते हो...पर हम नीम पागल आनंद से जीतने तृप्‍त और शांति और प्रेम महसूस करते हैं, शायद उतने ये ठीक ठाक दिखने वाले समझदार मनुष्‍य नहीं।

परन्‍तु नीम की जीवेशणा शायद उस का साथ छोड़ चूकि थी, उस के पत्‍ते जो पहले झूमते इठलाते से महसूस होते थे, अब मायूस, और उदास दिखाई देने लगें। तब में छोटा था फिर भी उसकी वो पीड़ा और हताशा, देखने के साथ-साथ महसूस भी कर सकता था। अब उस के पास एक ही टहना बचा था। केवल हमारे अंगन बाला, उसे अपना संतुलन करने में भी काफी तकलीफ होती होगी। परन्‍तु एक बात जो सबसे ज्‍यादा मुझे अखरी की उस टहनी पर एक भी पक्षी उस रात के बाद सोने के लिए नहीं आया। शायद इस पीड़ा के समय में उस पर बैठे ये पक्षी कुछ मरहम का काम करते। चमत्‍कार है प्रकृति का रहस्‍य बे बुझ है। धीरे-धीरे उसकी मायूसी बढ़ती चली गई। मैंने उसे लाख मनाया, प्‍यार किया, अपनी दोस्‍ती का वास्‍ता दिया, क़समें खाई रोया गिड़गिडाना परन्‍तु उस की उदासी कम नहीं हुई। और देखते ही देखते वो दो महीने सुख कर ठुंठ रह गया। उस के प्राण पखेरू उड़ गये। में अंदर तक कांप गया। मेरा दोस्‍त मुझे छोड़ कर चला गया। पृथ्‍वी पर से तो नीम मिट गया पर मेरे ह्रदय में आज भी जीवित है। आज भी उस पर बसंत आती है। पक्षी गीत गाते हैं। निमोलियो से लद जाता है.....

सालों वह ठुंठ वैसे ही हमारे आंगन में खड़ा रहा, मां ने अपने जीते जी उसे किसी को उसे काटने नहीं दिया। इतने सालों बाद भी इन मनुष्‍य रूपी जीवों में मुझे एक भी नीम का पेड़ नजर नहीं आया कि मैं उस के साथ दोस्‍ती कर लू। फिर उसके बाद मेरा कोई दोस्त न बन सका या शायद मैं ही खुद बना न सका। पर आज भी उस नीम का वंशज मेरा साथ है। पहले तो मैंने उसे अपने बैठक खाने के आँगन में निमोलियो के बीजों से उसे उगा दिया। पर समय के साथ हमारे घर का बटवार भी हो गया। और वो जगह बड़े भाई ने ले ली। मैंने जब भी जिद की थी की ये जगह हमे दे दो पर हमारी तब भी एक न चली और भाई साहब ने उस दस साल के नन्‍हें मुन्‍ने को काट दिया। लेकिन अब में आपने प्‍यारे दोस्‍त को मैंने ऐसी जगह उगा दिया जहां से उसे अब कोई भी नहीं खत्‍म कर सकता। मैंने इस बार उसकी कुछ निमोलियो को एक थैले में भर लिया ओ आपने पास के अरावली के जंगल में बिखेर आया था। आज मेरा नीम एक नहीं हजार रूपों में मुझे दिखाई देता है। और धीरे-धीरे उनकी तादाद बढ़ती ही जा रही है। पक्षी भी उस पर आ-आ कर बसेरा करते हैं। मैंने उससे कहां तू मूर्ख है इस मनुष्‍य को तू कभी नहीं पहचान सकता है। ये पल-पल में गिरगिट की तरह से रंग बदलता है। तू आपने घर प्रकृति की गोद में अपनी मां के पास ही सुरक्षित है। इस का कोई भरोसा नहीं कब ये तुम्हारा घर कब तुझ से छीन ले....मेरी इस बात से वह हंसता है। और मैं इधर उधर देखता हूं की कोई और तो उसकी हंसी को सुन नहीं रहा। उसका इस तरह से मेरे उपर हंसना मुझे कुछ ओर खुशी जाता है। की पूरी मानवता के बदले का जहर उसके मन में जो जहर है वह मुझे दे जाये। कम से कम उसे थोड़ी तो खुशी मिलनी ही चाहिए....पर मैं जब भी जंगल में उन नीम के पेड़ों के पास से गुजरता हूं तो सब मुझे देखते ही आनंदित हो कर नाचते से प्रतीत होते हैं। और उनमें से किसी भी एक नीम के तने से लिपट कर अपने दोस्‍ती की यादों में खो जाती हूं.........

मैं सोचता हूं इस नीम के साथ रह कर कुछ और या पूरा ही नीम पागल हो गया जाऊँ

--

स्‍वामी आनंद प्रसाद ‘मनसा ’

गांव दसघरा—नई दिल्‍ली—110012

COMMENTS

BLOGGER
नाम

 आलेख ,1, कविता ,1, कहानी ,1, व्यंग्य ,1,14 सितम्बर,7,14 september,6,15 अगस्त,4,2 अक्टूबर अक्तूबर,1,अंजनी श्रीवास्तव,1,अंजली काजल,1,अंजली देशपांडे,1,अंबिकादत्त व्यास,1,अखिलेश कुमार भारती,1,अखिलेश सोनी,1,अग्रसेन,1,अजय अरूण,1,अजय वर्मा,1,अजित वडनेरकर,1,अजीत प्रियदर्शी,1,अजीत भारती,1,अनंत वडघणे,1,अनन्त आलोक,1,अनमोल विचार,1,अनामिका,3,अनामी शरण बबल,1,अनिमेष कुमार गुप्ता,1,अनिल कुमार पारा,1,अनिल जनविजय,1,अनुज कुमार आचार्य,5,अनुज कुमार आचार्य बैजनाथ,1,अनुज खरे,1,अनुपम मिश्र,1,अनूप शुक्ल,14,अपर्णा शर्मा,6,अभिमन्यु,1,अभिषेक ओझा,1,अभिषेक कुमार अम्बर,1,अभिषेक मिश्र,1,अमरपाल सिंह आयुष्कर,2,अमरलाल हिंगोराणी,1,अमित शर्मा,3,अमित शुक्ल,1,अमिय बिन्दु,1,अमृता प्रीतम,1,अरविन्द कुमार खेड़े,5,अरूण देव,1,अरूण माहेश्वरी,1,अर्चना चतुर्वेदी,1,अर्चना वर्मा,2,अर्जुन सिंह नेगी,1,अविनाश त्रिपाठी,1,अशोक गौतम,3,अशोक जैन पोरवाल,14,अशोक शुक्ल,1,अश्विनी कुमार आलोक,1,आई बी अरोड़ा,1,आकांक्षा यादव,1,आचार्य बलवन्त,1,आचार्य शिवपूजन सहाय,1,आजादी,3,आत्मकथा,1,आदित्य प्रचंडिया,1,आनंद टहलरामाणी,1,आनन्द किरण,3,आर. के. नारायण,1,आरकॉम,1,आरती,1,आरिफा एविस,5,आलेख,4288,आलोक कुमार,3,आलोक कुमार सातपुते,1,आवश्यक सूचना!,1,आशीष कुमार त्रिवेदी,5,आशीष श्रीवास्तव,1,आशुतोष,1,आशुतोष शुक्ल,1,इंदु संचेतना,1,इन्दिरा वासवाणी,1,इन्द्रमणि उपाध्याय,1,इन्द्रेश कुमार,1,इलाहाबाद,2,ई-बुक,374,ईबुक,231,ईश्वरचन्द्र,1,उपन्यास,269,उपासना,1,उपासना बेहार,5,उमाशंकर सिंह परमार,1,उमेश चन्द्र सिरसवारी,2,उमेशचन्द्र सिरसवारी,1,उषा छाबड़ा,1,उषा रानी,1,ऋतुराज सिंह कौल,1,ऋषभचरण जैन,1,एम. एम. चन्द्रा,17,एस. एम. चन्द्रा,2,कथासरित्सागर,1,कर्ण,1,कला जगत,113,कलावंती सिंह,1,कल्पना कुलश्रेष्ठ,11,कवि,2,कविता,3239,कहानी,2360,कहानी संग्रह,247,काजल कुमार,7,कान्हा,1,कामिनी कामायनी,5,कार्टून,7,काशीनाथ सिंह,2,किताबी कोना,7,किरन सिंह,1,किशोरी लाल गोस्वामी,1,कुंवर प्रेमिल,1,कुबेर,7,कुमार करन मस्ताना,1,कुसुमलता सिंह,1,कृश्न चन्दर,6,कृष्ण,3,कृष्ण कुमार यादव,1,कृष्ण खटवाणी,1,कृष्ण जन्माष्टमी,5,के. पी. सक्सेना,1,केदारनाथ सिंह,1,कैलाश मंडलोई,3,कैलाश वानखेड़े,1,कैशलेस,1,कैस जौनपुरी,3,क़ैस जौनपुरी,1,कौशल किशोर श्रीवास्तव,1,खिमन मूलाणी,1,गंगा प्रसाद श्रीवास्तव,1,गंगाप्रसाद शर्मा गुणशेखर,1,ग़ज़लें,550,गजानंद प्रसाद देवांगन,2,गजेन्द्र नामदेव,1,गणि राजेन्द्र विजय,1,गणेश चतुर्थी,1,गणेश सिंह,4,गांधी जयंती,1,गिरधारी राम,4,गीत,3,गीता दुबे,1,गीता सिंह,1,गुंजन शर्मा,1,गुडविन मसीह,2,गुनो सामताणी,1,गुरदयाल सिंह,1,गोरख प्रभाकर काकडे,1,गोवर्धन यादव,1,गोविन्द वल्लभ पंत,1,गोविन्द सेन,5,चंद्रकला त्रिपाठी,1,चंद्रलेखा,1,चतुष्पदी,1,चन्द्रकिशोर जायसवाल,1,चन्द्रकुमार जैन,6,चाँद पत्रिका,1,चिकित्सा शिविर,1,चुटकुला,71,ज़कीया ज़ुबैरी,1,जगदीप सिंह दाँगी,1,जयचन्द प्रजापति कक्कूजी,2,जयश्री जाजू,4,जयश्री राय,1,जया जादवानी,1,जवाहरलाल कौल,1,जसबीर चावला,1,जावेद अनीस,8,जीवंत प्रसारण,141,जीवनी,1,जीशान हैदर जैदी,1,जुगलबंदी,5,जुनैद अंसारी,1,जैक लंडन,1,ज्ञान चतुर्वेदी,2,ज्योति अग्रवाल,1,टेकचंद,1,ठाकुर प्रसाद सिंह,1,तकनीक,32,तक्षक,1,तनूजा चौधरी,1,तरुण भटनागर,1,तरूण कु सोनी तन्वीर,1,ताराशंकर बंद्योपाध्याय,1,तीर्थ चांदवाणी,1,तुलसीराम,1,तेजेन्द्र शर्मा,2,तेवर,1,तेवरी,8,त्रिलोचन,8,दामोदर दत्त दीक्षित,1,दिनेश बैस,6,दिलबाग सिंह विर्क,1,दिलीप भाटिया,1,दिविक रमेश,1,दीपक आचार्य,48,दुर्गाष्टमी,1,देवी नागरानी,20,देवेन्द्र कुमार मिश्रा,2,देवेन्द्र पाठक महरूम,1,दोहे,1,धर्मेन्द्र निर्मल,2,धर्मेन्द्र राजमंगल,1,नइमत गुलची,1,नजीर नज़ीर अकबराबादी,1,नन्दलाल भारती,2,नरेंद्र शुक्ल,2,नरेन्द्र कुमार आर्य,1,नरेन्द्र कोहली,2,नरेन्‍द्रकुमार मेहता,9,नलिनी मिश्र,1,नवदुर्गा,1,नवरात्रि,1,नागार्जुन,1,नाटक,152,नामवर सिंह,1,निबंध,3,नियम,1,निर्मल गुप्ता,2,नीतू सुदीप्ति ‘नित्या’,1,नीरज खरे,1,नीलम महेंद्र,1,नीला प्रसाद,1,पंकज प्रखर,4,पंकज मित्र,2,पंकज शुक्ला,1,पंकज सुबीर,3,परसाई,1,परसाईं,1,परिहास,4,पल्लव,1,पल्लवी त्रिवेदी,2,पवन तिवारी,2,पाक कला,23,पाठकीय,62,पालगुम्मि पद्मराजू,1,पुनर्वसु जोशी,9,पूजा उपाध्याय,2,पोपटी हीरानंदाणी,1,पौराणिक,1,प्रज्ञा,1,प्रताप सहगल,1,प्रतिभा,1,प्रतिभा सक्सेना,1,प्रदीप कुमार,1,प्रदीप कुमार दाश दीपक,1,प्रदीप कुमार साह,11,प्रदोष मिश्र,1,प्रभात दुबे,1,प्रभु चौधरी,2,प्रमिला भारती,1,प्रमोद कुमार तिवारी,1,प्रमोद भार्गव,2,प्रमोद यादव,14,प्रवीण कुमार झा,1,प्रांजल धर,1,प्राची,367,प्रियंवद,2,प्रियदर्शन,1,प्रेम कहानी,1,प्रेम दिवस,2,प्रेम मंगल,1,फिक्र तौंसवी,1,फ्लेनरी ऑक्नर,1,बंग महिला,1,बंसी खूबचंदाणी,1,बकर पुराण,1,बजरंग बिहारी तिवारी,1,बरसाने लाल चतुर्वेदी,1,बलबीर दत्त,1,बलराज सिंह सिद्धू,1,बलूची,1,बसंत त्रिपाठी,2,बातचीत,2,बाल उपन्यास,6,बाल कथा,356,बाल कलम,26,बाल दिवस,4,बालकथा,80,बालकृष्ण भट्ट,1,बालगीत,20,बृज मोहन,2,बृजेन्द्र श्रीवास्तव उत्कर्ष,1,बेढब बनारसी,1,बैचलर्स किचन,1,बॉब डिलेन,1,भरत त्रिवेदी,1,भागवत रावत,1,भारत कालरा,1,भारत भूषण अग्रवाल,1,भारत यायावर,2,भावना राय,1,भावना शुक्ल,5,भीष्म साहनी,1,भूतनाथ,1,भूपेन्द्र कुमार दवे,1,मंजरी शुक्ला,2,मंजीत ठाकुर,1,मंजूर एहतेशाम,1,मंतव्य,1,मथुरा प्रसाद नवीन,1,मदन सोनी,1,मधु त्रिवेदी,2,मधु संधु,1,मधुर नज्मी,1,मधुरा प्रसाद नवीन,1,मधुरिमा प्रसाद,1,मधुरेश,1,मनीष कुमार सिंह,4,मनोज कुमार,6,मनोज कुमार झा,5,मनोज कुमार पांडेय,1,मनोज कुमार श्रीवास्तव,2,मनोज दास,1,ममता सिंह,2,मयंक चतुर्वेदी,1,महापर्व छठ,1,महाभारत,2,महावीर प्रसाद द्विवेदी,1,महाशिवरात्रि,1,महेंद्र भटनागर,3,महेन्द्र देवांगन माटी,1,महेश कटारे,1,महेश कुमार गोंड हीवेट,2,महेश सिंह,2,महेश हीवेट,1,मानसून,1,मार्कण्डेय,1,मिलन चौरसिया मिलन,1,मिलान कुन्देरा,1,मिशेल फूको,8,मिश्रीमल जैन तरंगित,1,मीनू पामर,2,मुकेश वर्मा,1,मुक्तिबोध,1,मुर्दहिया,1,मृदुला गर्ग,1,मेराज फैज़ाबादी,1,मैक्सिम गोर्की,1,मैथिली शरण गुप्त,1,मोतीलाल जोतवाणी,1,मोहन कल्पना,1,मोहन वर्मा,1,यशवंत कोठारी,8,यशोधरा विरोदय,2,यात्रा संस्मरण,31,योग,3,योग दिवस,3,योगासन,2,योगेन्द्र प्रताप मौर्य,1,योगेश अग्रवाल,2,रक्षा बंधन,1,रच,1,रचना समय,72,रजनीश कांत,2,रत्ना राय,1,रमेश उपाध्याय,1,रमेश राज,26,रमेशराज,8,रवि रतलामी,2,रवींद्र नाथ ठाकुर,1,रवीन्द्र अग्निहोत्री,4,रवीन्द्र नाथ त्यागी,1,रवीन्द्र संगीत,1,रवीन्द्र सहाय वर्मा,1,रसोई,1,रांगेय राघव,1,राकेश अचल,3,राकेश दुबे,1,राकेश बिहारी,1,राकेश भ्रमर,5,राकेश मिश्र,2,राजकुमार कुम्भज,1,राजन कुमार,2,राजशेखर चौबे,6,राजीव रंजन उपाध्याय,11,राजेन्द्र कुमार,1,राजेन्द्र विजय,1,राजेश कुमार,1,राजेश गोसाईं,2,राजेश जोशी,1,राधा कृष्ण,1,राधाकृष्ण,1,राधेश्याम द्विवेदी,5,राम कृष्ण खुराना,6,राम शिव मूर्ति यादव,1,रामचंद्र शुक्ल,1,रामचन्द्र शुक्ल,1,रामचरन गुप्त,5,रामवृक्ष सिंह,10,रावण,1,राहुल कुमार,1,राहुल सिंह,1,रिंकी मिश्रा,1,रिचर्ड फाइनमेन,1,रिलायंस इन्फोकाम,1,रीटा शहाणी,1,रेंसमवेयर,1,रेणु कुमारी,1,रेवती रमण शर्मा,1,रोहित रुसिया,1,लक्ष्मी यादव,6,लक्ष्मीकांत मुकुल,2,लक्ष्मीकांत वैष्णव,1,लखमी खिलाणी,1,लघु कथा,288,लघुकथा,1340,लघुकथा लेखन पुरस्कार आयोजन,241,लतीफ घोंघी,1,ललित ग,1,ललित गर्ग,13,ललित निबंध,20,ललित साहू जख्मी,1,ललिता भाटिया,2,लाल पुष्प,1,लावण्या दीपक शाह,1,लीलाधर मंडलोई,1,लू सुन,1,लूट,1,लोक,1,लोककथा,378,लोकतंत्र का दर्द,1,लोकमित्र,1,लोकेन्द्र सिंह,3,विकास कुमार,1,विजय केसरी,1,विजय शिंदे,1,विज्ञान कथा,79,विद्यानंद कुमार,1,विनय भारत,1,विनीत कुमार,2,विनीता शुक्ला,3,विनोद कुमार दवे,4,विनोद तिवारी,1,विनोद मल्ल,1,विभा खरे,1,विमल चन्द्राकर,1,विमल सिंह,1,विरल पटेल,1,विविध,1,विविधा,1,विवेक प्रियदर्शी,1,विवेक रंजन श्रीवास्तव,5,विवेक सक्सेना,1,विवेकानंद,1,विवेकानन्द,1,विश्वंभर नाथ शर्मा कौशिक,2,विश्वनाथ प्रसाद तिवारी,1,विष्णु नागर,1,विष्णु प्रभाकर,1,वीणा भाटिया,15,वीरेन्द्र सरल,10,वेणीशंकर पटेल ब्रज,1,वेलेंटाइन,3,वेलेंटाइन डे,2,वैभव सिंह,1,व्यंग्य,2075,व्यंग्य के बहाने,2,व्यंग्य जुगलबंदी,17,व्यथित हृदय,2,शंकर पाटील,1,शगुन अग्रवाल,1,शबनम शर्मा,7,शब्द संधान,17,शम्भूनाथ,1,शरद कोकास,2,शशांक मिश्र भारती,8,शशिकांत सिंह,12,शहीद भगतसिंह,1,शामिख़ फ़राज़,1,शारदा नरेन्द्र मेहता,1,शालिनी तिवारी,8,शालिनी मुखरैया,6,शिक्षक दिवस,6,शिवकुमार कश्यप,1,शिवप्रसाद कमल,1,शिवरात्रि,1,शिवेन्‍द्र प्रताप त्रिपाठी,1,शीला नरेन्द्र त्रिवेदी,1,शुभम श्री,1,शुभ्रता मिश्रा,1,शेखर मलिक,1,शेषनाथ प्रसाद,1,शैलेन्द्र सरस्वती,3,शैलेश त्रिपाठी,2,शौचालय,1,श्याम गुप्त,3,श्याम सखा श्याम,1,श्याम सुशील,2,श्रीनाथ सिंह,6,श्रीमती तारा सिंह,2,श्रीमद्भगवद्गीता,1,श्रृंगी,1,श्वेता अरोड़ा,1,संजय दुबे,4,संजय सक्सेना,1,संजीव,1,संजीव ठाकुर,2,संद मदर टेरेसा,1,संदीप तोमर,1,संपादकीय,3,संस्मरण,730,संस्मरण लेखन पुरस्कार 2018,128,सच्चिदानंद हीरानंद वात्स्यायन,1,सतीश कुमार त्रिपाठी,2,सपना महेश,1,सपना मांगलिक,1,समीक्षा,847,सरिता पन्थी,1,सविता मिश्रा,1,साइबर अपराध,1,साइबर क्राइम,1,साक्षात्कार,21,सागर यादव जख्मी,1,सार्थक देवांगन,2,सालिम मियाँ,1,साहित्य समाचार,98,साहित्यम्,6,साहित्यिक गतिविधियाँ,216,साहित्यिक बगिया,1,सिंहासन बत्तीसी,1,सिद्धार्थ जगन्नाथ जोशी,1,सी.बी.श्रीवास्तव विदग्ध,1,सीताराम गुप्ता,1,सीताराम साहू,1,सीमा असीम सक्सेना,1,सीमा शाहजी,1,सुगन आहूजा,1,सुचिंता कुमारी,1,सुधा गुप्ता अमृता,1,सुधा गोयल नवीन,1,सुधेंदु पटेल,1,सुनीता काम्बोज,1,सुनील जाधव,1,सुभाष चंदर,1,सुभाष चन्द्र कुशवाहा,1,सुभाष नीरव,1,सुभाष लखोटिया,1,सुमन,1,सुमन गौड़,1,सुरभि बेहेरा,1,सुरेन्द्र चौधरी,1,सुरेन्द्र वर्मा,62,सुरेश चन्द्र,1,सुरेश चन्द्र दास,1,सुविचार,1,सुशांत सुप्रिय,4,सुशील कुमार शर्मा,24,सुशील यादव,6,सुशील शर्मा,16,सुषमा गुप्ता,20,सुषमा श्रीवास्तव,2,सूरज प्रकाश,1,सूर्य बाला,1,सूर्यकांत मिश्रा,14,सूर्यकुमार पांडेय,2,सेल्फी,1,सौमित्र,1,सौरभ मालवीय,4,स्नेहमयी चौधरी,1,स्वच्छ भारत,1,स्वतंत्रता दिवस,3,स्वराज सेनानी,1,हबीब तनवीर,1,हरि भटनागर,6,हरि हिमथाणी,1,हरिकांत जेठवाणी,1,हरिवंश राय बच्चन,1,हरिशंकर गजानंद प्रसाद देवांगन,4,हरिशंकर परसाई,23,हरीश कुमार,1,हरीश गोयल,1,हरीश नवल,1,हरीश भादानी,1,हरीश सम्यक,2,हरे प्रकाश उपाध्याय,1,हाइकु,5,हाइगा,1,हास-परिहास,38,हास्य,59,हास्य-व्यंग्य,78,हिंदी दिवस विशेष,9,हुस्न तबस्सुम 'निहाँ',1,biography,1,dohe,3,hindi divas,6,hindi sahitya,1,indian art,1,kavita,3,review,1,satire,1,shatak,3,tevari,3,undefined,1,
ltr
item
रचनाकार: मनसा आनंद की कहानी - नीम का दर्द
मनसा आनंद की कहानी - नीम का दर्द
http://lh6.ggpht.com/-KaH2fYFNabc/UPT3j5PScNI/AAAAAAAASWQ/8i4JRWzXQpA/image%25255B2%25255D.png?imgmax=800
http://lh6.ggpht.com/-KaH2fYFNabc/UPT3j5PScNI/AAAAAAAASWQ/8i4JRWzXQpA/s72-c/image%25255B2%25255D.png?imgmax=800
रचनाकार
https://www.rachanakar.org/2013/01/blog-post_8475.html
https://www.rachanakar.org/
https://www.rachanakar.org/
https://www.rachanakar.org/2013/01/blog-post_8475.html
true
15182217
UTF-8
Loaded All Posts Not found any posts VIEW ALL Readmore Reply Cancel reply Delete By Home PAGES POSTS View All RECOMMENDED FOR YOU LABEL ARCHIVE SEARCH ALL POSTS Not found any post match with your request Back Home Sunday Monday Tuesday Wednesday Thursday Friday Saturday Sun Mon Tue Wed Thu Fri Sat January February March April May June July August September October November December Jan Feb Mar Apr May Jun Jul Aug Sep Oct Nov Dec just now 1 minute ago $$1$$ minutes ago 1 hour ago $$1$$ hours ago Yesterday $$1$$ days ago $$1$$ weeks ago more than 5 weeks ago Followers Follow THIS PREMIUM CONTENT IS LOCKED STEP 1: Share to a social network STEP 2: Click the link on your social network Copy All Code Select All Code All codes were copied to your clipboard Can not copy the codes / texts, please press [CTRL]+[C] (or CMD+C with Mac) to copy Table of Content