अर्जुन प्रसाद की कहानी - जुड़वां

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जुड़वॉ सोलापुर के तुकाराम शिंदे के दो पुत्र थे और एक पुत्री। उनके पुत्रों का नाम था राजीव और संजीव। उनकी इकलौती बेटी का नाम सुप्रिया था। ब...

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जुड़वॉ

सोलापुर के तुकाराम शिंदे के दो पुत्र थे और एक पुत्री। उनके पुत्रों का नाम था राजीव और संजीव। उनकी इकलौती बेटी का नाम सुप्रिया था। बाबू तुकाराम के दोनों बेटे एक ही साथ पैदा होने से जुड़वाँ थे जबकि उनकी बेटी अकेली ही पैदा हुई थी। सुप्रिया तुकाराम की बड़ी संतान थी। राजीव और संजीव छोटे थे। जिनमें राजीव इस दुनिया में पहले आने से अग्रज कहलाए तो संजीव उनका पीछा करते हुए उनसे कुछ पल बाद जन्‍म लेने की वजह से अनुज बनकर ही रह गए।

मगर एक बात है उनमें बड़े गजब का अपनापन और लगाव था। उनका आपसी प्रेम देखकर बाबू तुकाराम और उनकी पत्‍नी पार्वती को बड़ी खुशी का अहसास होता। मारे खुशी के वे फूले न समाते। पति-पत्‍नी का दिल बाँग-बाँग हो जाता। आजकल भाई-भाई में जो द्वेष, अलगाव और जानी दुश्‍मन जैसा मनमुटाव देखने को मिलता है वैसा उनमें किसी को कदापि न देखने को मिलता था।

वहीं कितना दुःखद है कि आज एक ही जन्‍मदायिनी माँ के पैट से जन्‍म लेने पर भी बिल्‍कुल सगे भाइयों में जन्‍म-जन्‍म के वैरी जैसा व्‍यवहार देखने-सुनने को मिल रहा है। अपने माता-पिता और गुरुजनों से भांति-भांति के मिले हुए संस्‍कारों को भूलकर वे एक-दूसरे के शत्रु बने हुए हैं। अब तो नौबत यहाँ तक आ पहुँची है कि जीवन भर सुख-दुःख में एक-दूसरे का साथ निभाने वाला भाई ही अपने भाई का कातिल बनता जा रहा है। लोग इंसानियत और मानवता का दिन-प्रतिदिन गला घोंटते जा रहे हैं। आपस में बढ़ती प्रतियोगिता के चलते संसार में इतनी घोर अंधेर मची हुई है कि खून अपने खून को ही जड़ से मिटाने को उतारू होता जा रहा है।

बाबू तुकाराम के तीनों बच्‍चे साथ-साथ पढ़ते और खेलते थे। कहने को राजीव और संजीव का बदन तो दो था लेकिन मन से वे एक ही थे। उनके विचारों में बड़े गजब का तालमेल था। दोनों वाकई बड़े मिलनसार स्‍वभाव के थे। कभी भूलकर भी वे एक-दूसरे से अलग न होते। कदाचित किसी एक को कभी कोई कष्‍ट महसूस होता तो दूसरा भी स्‍वतः ही कष्‍ट का अनुभव करने लगता। यह देखकर उनकी ओर से उनके मां-बाप एकदम बेफिक्र थे। उन्‍हें उनकी तनिक भी फिक्र न थी।

वैसे तुकाराम कोई बहुत अमीर पुरुष न थे। बस एक छोटी सी परचून की दुकान के मालिक थे। उसी की जो थोड़ी-बहुत आमदनी हो जाती थी किसी तरह अपने परिवार का भरण-पोषण करते थे। उनकी कुछ आय तीनों बच्‍चों की पढ़ाई-लिखाई में खर्च हो जाती तो बची-खुची से घर का गुजर-बसर होता। घर में कमाई का दूसरा कोई जरिया न था। कमर तोड़ने वाली इस महँगाई में कमाने वाले एक तो खाने वाले पाँच।

आखिर जैसे-तैसे उनकी मेहनत रंग लाई और उनके दोनों संस्‍कारवान बेटे पढ़-लिखकर कामयाब हुए। खूब मन लगाकर पढ़ने-लिखने से उनकी शिक्षा पूरी हो गई। इसके बाद कालेज की डिग्री लेकर वे नौकरी-चाकरी की तलाश में जुट गए। दोनों साथ-साथ कभी कहीं टेस्‍ट और साक्षात्‍कार देने जाते तो कभी कहीं। अंततः परमात्‍मा की दयादृष्‍टि से वे अपने मकसद में सफल भी हुए।

रेलवे भर्ती बोर्ड की प्रतियोगितात्‍मक परीक्षा में दोनों भाई अन्‍य प्रतियोगियों के मुकाबले सबसे अव्‍वल साबित हुए। तत्‍पश्‍चात उन्‍हें रेलवे में अच्‍छी नौकरी मिल गई। राजीव शिंदे कामर्शियल विभाग में बाबू बने तो संजीव कार्मिक शाखा में चुने गए। दोनों बेटों को नौकरी मिलते ही बाबू तुकाराम के दिन धीरे-धीरे बहुरने लगे। अब घर में कमाने वाले तीन हो गए। इससे उन्‍हें बड़ी राहत महसूस हुई। उनके सिर का बोझ काफी कम हो गया।

घर में आमदनी बढ़ते ही वह दिन दूनी रात चौगुनी तरक्‍की करने लगे। इधर सुप्रिया भी पढ़-लिखकर अब आहिस्‍ता-आहिस्‍ता जवान और शादी योग्‍य हो गई। बाबू तुकाराम ने एक अच्‍छा सा घर-वर देखकर एक शिक्षित और नौकरीशुदा लड़के से बड़ी धूमधाम से उसका विवाह कर दिए। व्‍याह के बाद वह अपने माता-पिता और भाइयों को छोड़कर अपनी ससुराल चली गई।

अब घर में कुल चार लोग ही रह गए। अपनी लाडली बेटी के हाथ पीले करके तुकाराम बाबू एकदम निश्‍चिंत हो गए। ईश्‍वर की मर्जी कि सुप्रिया की खातिर घर-वर तलाशने में उनके जूते नहीं घिसे। सारा काम बड़ी सरलता से पूरा हो गया वरना हमारे समाज में दहेज रूपी दानव के चलते एक अच्‍छे दामाद की तलाश में भाग-दौड करते-करते लोगों के पैरों में छाले तक पड़ जाते हैं। उनकी इच्‍छा बड़ी मुश्‍किल से ही पूरी हो पाती है। किन्‍तु सच में तुकाराम इतने सौभाग्‍यशाली निकले कि हर्रै लगी न फिटकिरी और रंग भी खूब चोखा ही चढ़ा। बगैर किसी खास मशक्‍कत के ही उनके अरमान आसानी से पूरे हो गए। मनोवांछित दामाद भी मिल गया और जबरदस्‍ती माँगे जाने वाले दान, दहेज की मार भी नहीं झेलनी पड़ी।

समयचक्र पंख फैलाकर तीव्रगति से उड़ता रहा। काफी समय तक सब कुछ बिल्‍कुल ठीक चलता रहा। घर में कहीं कोई दिक्‍कत न आई। जिधर भी देखिए उधर ही चारों ओर खुशियाँ ही खुशियाँ फैली हुई थीं। लेकिन अब उनके दुर्भाग्‍य को क्‍या कहा जाए? विधाता की रचना भी बड़ी अजीब है। मानव जीवन की यह एक ऐसी सच्‍चाई है जिसे कतई झुठलाया नहीं जा सकता। इंसान पर उसकी संगति का कुछ न कुछ असर पड़ता ही है न चाहते हुए भी राजीव और संजीव इससे बच न सके। आधुनिकता के फेर में संयमी, राजीव पर तो कुछ विशेष फर्क नहीं पड़ा मगर इंसान कमजोरियों का दास होता ही है अतः संजीव शनैः-शनैः कुसंगति की ओर अग्रसर होते चले गए।

यद्यपि बचपन में दोनों ही भाई एकदम सात्‍विक, संयमी विचार के थे। उनके जीवन का बस यही ध्‍येय था कि सादा जीवन उच्‍च विचार। उनका रहन-सहन तो बिल्‍कुल सादा था ही उन्‍हें सदैव सादा और शाकाहारी भोजन भी पसंद था। वे अभक्षणीय मांस-मदिरा को भूलकर भी कभी हाथ न लगाते थे। धूम्रपान तो बहुत दूर की बात है वे तंबाकू या उससे निर्मित और मनुष्‍य की सेहत के लिए हानिकर नाना प्रकार की वस्‍तुओं को छूना भी पसंद न करते थे। क्‍या अनुकरणीय उच्‍च आदर्श था उनका?

राजीव को एकदम निरामिष भोजन ही भाता था अतएव हमेशा सामिष और मांसाहारी व्‍यंजन से वह कोसों दूर ही रहते थे। मद्यपान उन्‍हें तनिक भी पसंद न था। उससे उनका दूर का भी कोई रिश्‍ता न था। यही शिक्षा वह सदा संजीव को भी देने का भरपूर यत्‍न करते। परंतु अफसोस कि संजीव उनकी बातों को कभी संजीदगी से न लिए। वह उनकी हर सलाह को एक कान से सुनकर दूसरे से तुरंत अनसुना कर देते। वह दिनोंदिन मांस-मदिरा के मकड़- जाल में उलझते गए। कहने का मतलब यह कि ज्‍यों-ज्‍यों दवा की त्‍यों-त्‍यों मर्ज बढ़ता ही गया। वह अपने दोस्‍तों के संग बैठकर देषी और विदेशी शराब का सेवन करने के अभ्‍यस्‍त होते चले गए। मांस, मछली भी जी भर खाने लगे। आहिस्‍ता-आहिस्‍ता वह पक्‍के पियक्‍कड़ बन गए। रेस्‍तराँ और होटलों में नित आए दिन दारूबाजों की महफिलें सजने लगीं।

अगर कभी मौका पाकर राजीव उन्‍हें समझाने-बुझाने की कोशिश करते तो वह कोई न कोई बहाना बनाकर उनकी बातों को साफ-साफ टाल देते। वह उनसे कहने लगते कि अरे भइया,आप कुछ नहीं खाते-पीते तो न खाइए-पीजिए पर बात-बात पर मुझे तो मत रोकिए-टोकिए। अरे खाइए मन भाता और पहनिए जग भाता यही जिंदगी है। यह सब मुझे बिल्‍कुल भी अच्‍छा नहीं लगता। अपना अच्‍छा-बुरा मैं भलीभांति खूब समझता हूँ इसलिए आए दिन बात-बात पर रोकना-टोकना मुझे हरगिज भी पसंद नहीं। मैं यह मानता हूँ कि आप उम्र में मुझसे थोड़े-बहुत बड़े हैं किन्‍तु इसका यह अभिप्राय कतई नहीं कि अनायास ही मेरे खाने-पीने में भी दखल देते रहिए। आपका जीवन अलग है और मेरा एकदम अलग। नाहक ही मेरी इतनी चिंता करके आपको इस तरह कमजोर होने की कोई जरूरत नहीं है।

संजीव का यह जवाब सुनकर राजीव अपना सिर पीट लेते। उनकी हालत आगे कुंआँ तो पीछे खाई वाली हो जाती। उनके सामने एक ओर अपने लाडले छोटे भाई की जिंदगी थी तो दूसरी ओर आधुनिक स्‍वच्छंदता का खुलापन। अधिक दबाव डालने पर उसके बगावत करने का खतरा था। वह बार-बार यही सोचते कि यह दुनिया भी बहुत बहुरंगी है। लोग किसी को न जीने ही देते हैं और न मरने ही देते हैं। एक ही भाई है लोग सुनेंगे तो बुरा मानेंगे। वे कहेंगे कि छोटा होने की वजह से राजीव हमेशा संजीव को जानबूझकर दबाते हैं। साथ ही वे यह भी कहेंगे कि मुझे बड़ा होने का बड़ा घमंड है।

दूसरी बात संजीव भी विद्रोह पर उतर सकता है। अब वह कोई बच्‍चा नहीं बल्‍कि एक शिक्षित, तगड़ा और बाँका जवान है। कहीं मेरी बातों को वह बुरा न मान जाए। आजकल के युवकों का कोई भरोसा थोड़े ही है कि कब वे किस बात पर नाराज होकर बिगड़ खड़े हों। भाई के मन भाई के प्रति द्वेष पैदा होना कतई जायज नहीं है। ज्‍यादा नुक्‍ताचीनी करने से भाइयों के दिलों में नाहक ही दरार पड़ जाती है। मैं इसे कतई बर्दास्‍त नहीं कर सकता। यह सोचकर संजीव पर राजीव कभी अधिक जोर न डालते। वह सोचते कि देर-सबेर संजीव अपनी तामसी दुनिया छोड़कर रास्‍ते पर आएंगे ही तब मैं बिना मतलब ही इतना दुःखी क्‍यों होऊँ?

हाँ इतना जरूर है कि कभी-कभी अवसर देखकर यह कहने से न चूकते कि संजीव, आजकल तुम्‍हें क्‍या हो गया है? तुम आखिर इतने तामसी क्‍यों बनते जा रहे हो? क्‍या तुम्‍हें अपनी जिंदगी की कोई परवाह नहीं? मुझे तुम्‍हारा खाना-पीना तनिक भी नहीं सुहाता है। मैं कोई पराया नहीं वरन तुम्‍हारा सगा अग्रज हूँ। मैं जो कुछ भी कह रहा हूँ तुम्‍हारी भलाई की खातिर ही कह रहा हूँ। वक्‍त ऐसे ही गुजरता रहा। संजीव पर अपनी जवानी का ऐसा नशा हावी था कि वह राजीव की एक भी सुनने को हरगिज तैयार न थे दोस्‍तों के साथ जमकर बेखटके खूब खाते-पीते और मौज उड़ाते। कभी भांति-भांति की मछलियाँ तलवाते तो कभी जी भर बकरे की नल्‍ली पकड़कर चूसते। यह समझिए कि उन्‍हें तरह-तरह का मांसाहारी भोजन और शराब के सेवन की लत पड़ गई।

समय ऐसे ही गुजरता रहा। एक दिन की बात है राजीव यूँ ही बनावटी गुस्‍से में भरकर संजीव से बोले-बेवकूफ कहीं के लगता तुम्‍हें अपनी जिंदगी से सचमुच कोई लगाव नहीं है। अगर अब भी तुम नहीं चेते तो समझ लो बहुत जल्‍दी क्‍ँवारे ही इस दुनिया से चले जाओगे। मैंने अपने जीवन में तुम्‍हारे जैसा पहला व्‍यक्‍ति ही देखा है जिसे अपने जान की कोई परवाह नहीं है।

यह सुनते ही संजीव तपाक से बोले-अगर ऐसी ही बात है चलिए चलकर किसी डॉक्‍टर से चेक करा लेते हैं। अभी सब पता चल जाएगा कि आप जल्‍दी मरेंगे या मैं। कोई चिकित्‍सक झूठ थोड़े ही बोलेगा। आपका सारा भ्रम दूर हो जाएगा। इससे आपको तसल्‍ली भी हो जाएगी। आए दिन रोज-रोज की किचकिच करने से अच्‍छा हे कि हम दोनों ही अपनी-अपनी जाँच करा लें। मैं एकदम सच कहता हूँ आप चाहे तो शर्त लगा लें मैं सब कुछ खाता-पीता जरूर हूँ मगर मेरे अंदर कोई बीमारी न निकलेगी। आप बिल्‍कुल सात्‍विक साधु पुरूष बने घूमते-फिरते हैं आपके अंदर यूँ ही अनेक बीमारियाँ निकल आएंगी। भइया, इसी का नाम कलयुग है। आप मेरी इतनी चिंता व्‍यर्थ ही करते हैं।

तब राजीव बोले-हरगिज नहीं, ऐसा कदापि नहीं हो सकता। सारे उल्‍टे-सीधे काम तुम करते हो मैं नहीं तो भला मुझे कोई रोग क्‍यों होने लगा? देख लेना जब डॉक्‍टर से जाँच कराई जाएगी तब सब कुछ दूध का दूध और पानी का पानी एकदम साफ हो जाएगा। अगर कोई रोग निकलेगा तो वह केवल तुम्‍हारे ही शरीर में निकलेगा। मैं अभी तक बिल्‍कुल तंदुरूस्‍त हूँ और डॉक्‍टरी जाँच के बाद भी स्‍वस्‍थ ही रहूँगा।

इतना सुनते ही संजीव बोले-ठीक है ज्‍यादा फिक्र क्‍यों करते हैं? लेकिन जब ऐसी ही बात है तब कल डॉक्‍टर के पास चलकर जाँच जरूर करानी पड़ेगी। ऐसा ही होगा।

यह सुनकर राजीव हँसकर बोले-बिल्‍कुल ठीक, हम दोनों सुबह डॉक्‍टर सुरोडकर के पास चलकर अपनी-अपनी जाँच कराएंगे। एक बात और जिसके शरीर में कोई बीमारी निकलेगी वह हममें से दूसरे को मनमाफिक पार्टी भी देगा। मैं रोगी निकला तो तुम जो चाहोगे मैं खिलाऊँगा और अगर तुम रोगी साबित हुए तो मेरी पसंद की खिलाओगे।

इतना सुनना था कि संजीव व्‍यंग्‍यमय मुस्‍कान के साथ बोले- मैं बिल्‍कुल तैयार हूँ। मुझे आपकी सारी शर्त मंजूर है। आपके चैलेंज को मैं खुशी-खुशी स्‍वीकार करता हूँ। पर एक बार फिर सोच लीजिए। मुझसे शर्त लगाना आपके लिए कहीं मँहगा न सिद्ध हो। आप उम्र में मुझसे बड़े हैं तो क्‍या हुआ? यह शर्त जरूर हारेंगे। कुछ भी कर लीजिए जीत मेरी ही होगी।

तब राजीव मुस्‍कराकर बोले-अरे यार इतने चिंतित क्‍यों होते हो? जब ओखली में सिर दे ही दिया तब फिर सोचना कैसा? में तुमसे बड़ा हूँ तो मेरी हर बात बड़ी रहेगी। अब सारी बातों का खुलासा कल ही होगा। देखते हैं हम दोनों में से कौन जीतता है और कौन हारता है। दूसरी बात हार-जीत कोई मायने नहीं रखती है। दरअसल बात स्‍वास्‍थ्‍य की है। मनुष्‍य को अभक्षणीय पदार्थों का भी सेवन करना शोभा थोड़े ही देती है। खाद्य-अखाद्य का ध्‍यान रखना निहायत ही जरूरी है। तुम्‍हारे खान-पान को देखकर मुझे सचमुच तुम पर बड़ा तरस आता है। हम सब मनुष्‍य हैं कोई असुर नहीं कि जो कुछ भी सामने आ जाए आँखें मूंदकर फटाफट उसका भक्षण करते चले जाएं। इंसान और पशुओं में बड़ा अंतर होता है। मनुष्‍य, मनुष्‍य है और पशु, पशु ही है। दोनों में कही कोई लेषमात्र भी समानता नहीं है। इसलिए दोनों का खान-पान और रहन-सहन सब बिल्‍कुल अलग-अलग है। यह बात अलग है कि आजकल कुछ लोग हमारे पशुओं का चारा तक डकार जा रहे हैं। वे कोई इंसान थोड़े ही हैं। मेरी नजर में ऐसे लोग मनुष्‍य के रूप में पशु से भी बदतर हैं।

यह सुनते ही संजीव हँसकर बोले-आप तो न जाने किस आदिम जमाने की बात करते हैं? क्‍या आपको इतना भी नहीं मालूम कि आज शाकाहार के नाम पर हम जो कुछ भी खा-पी रहे हैं वे सब जैविक रसायनों की देन हैं। आज की दुनिया में कुछ भी शुद्ध नहीं है। यहाँ तक कि देशी घी भी अब पशुओं की चर्बियों से बन रहा है। आए दिन मैगजीन और अखबारों में पढ़ने को मिलता है कि अमुक जगह चर्बी से नकली घी बनाने की फैक्‍टरी पकड़ी गई। अब आप खुद ही सोच सकते हें कि जब सब कुछ मिलावटी या नकली ही मिल रहा है तब असली और शुद्ध स्‍वास्‍थ्‍यवर्धक क्‍या है?

संजीव फिर बोले- बड़े भइया, सच मानिए जब इंसान को आजकल पीने को शुद्ध जल नसीब नहीं हो रहा है तब खाने को कहां से मिलेगा? इतना ही नहीं मनुष्‍य के तमाम रोगों को दूर भगाने वाली दवाइयाँ भी अक्‍सर नकली ही मिल रही हैं। इंसान की सेहत के साथ खुलेआम खिलवाड़ करने वालों का कोई बाल भी बाँका नहीं कर पा रहा है। इसलिए मेरे विचार से सब कुछ खाद्य है अखाद्य कुछ भी नहीं। एक समय था कि लोग डालडा खाने से परहेज करते थे आज वही पाम आयल के साथ-साथ न मालूम क्‍या-क्‍या इस्‍तेमाल कर रहे हैं? लोग सिंथेटिक दूध बड़े शौक से इस्‍तेमाल करते नजर आ रहे हें। लगता है ऐसी उल्‍टी-सीधी चीजों का सेवन करते-करते किसी माई के लाल में इतनी ताकत ही नहीं रह गई है जो मनुष्‍य की सेहत के दुश्‍मनों को तगड़ी सबक सिखा सके।

तब राजीव गंभीर मुद्रा में बोले-बात तो तुम पते की कहते हो संजीव पर, यह मत भूलो कि अब मांसाहारी चीजें ही कहाँ असली मिल रही हैं? इस संसार में सब कुछ नकली ही मिल रहा है। ऐसे में अनाप-शनाप वस्‍तुओं के खाने-पीने से बचने की सख्‍त जरूरत है वरना स्‍वास्‍थ्‍य बिगड़ते तनिक भी देर न लगेगी। जरा तुम्‍हीं सोचो जब कुछ भी न खाने-पीने वाले को कैंसर तक हो सकता है तब बहुत कुछ खाने-पीने वाले क क्‍या होगा? कोई उच्‍च रक्‍तचाप का शिकार है तो कोई मधुमेह का। यहाँ तक मद्यपान और धूम्रपान से कोसों दूर रहने वाली स्‍त्रियाँ भी अब अनेक बीमारियों की गिरफ्‌त में हैं। अस्‍पतालों में जाकर देखो तो प्रतीत होता है कि सारी दुनिया ही बीमार है। कोई भी इंसान रोग से मुक्‍त नहीं है।

इस प्रकार दिन ढल गया और धीरे-धीरे षाम हो गई। सुबह राजीव और संजीव अपने-अपने तन-मन की जाँच कराने डॉक्‍टर सुरोडकर के पास पहुँच गए। उन्‍होंने बारी-बारी दोनों भाइयों की तरह-तरह से खूब जाँच-पड़ताल की मगर जॉचोपरांत उनके सामने जो कुछ भी आया उसे देखकर डॉक्‍टर साहब एकदम चौक गए। उन्‍होंने देखा कि जवानी की षुरूआत से ही बिल्‍कुल सामिष भोजन करने वाले संजीव तो पूरी तरह स्‍वस्‍थ हैं लेकिन इसके विपरीत एकदम षाकाहारी निरामिष भोजन का सेवन करने वाले राजीव हृदयघात से पीड़ित हैं। उन्‍हें सचमुच बहुत ताज्‍जुब हुआ। इससे उनके आष्‍चर्य का कोई ठिकाना ही न रहा। उनकी समझ में कुछ भी न आ रहा था कि यह सब बिल्‍कुल उल्‍टा-पुल्‍टा कैसे हो गया? इस बात को लेकर वह बड़े दुःखी हुए।

अंततः डॉक्‍टर सुरोडकर ने राजीव और संजीव को उनकी जाँच रिपोर्ट देते हुए उदास मन से कहा-बड़े अफसोस के साथ बताना पड़ रहा है कि संजीव हर तरह से एकदम तंदुरूस्‍त हैं मगर राजीव, आपको भई हार्ट अटैक की शिकायत है। दरअसल आपको तनिक सावधानी बरतने की सख्‍त जरूरत है वरना मर्ज बढ़ने का अंदेशा है।

यह सुनते ही राजीव के हाथ के तोते उड़ गए। वह बहुत परेशान हो गए। वह डॉक्‍टर साहब से पूछने लगे-अरे साहब, ऐसा कैसे हो गया? कहीं आपको कोई गलतफहमी तो नहीं हो गई। जिस रिपोर्ट को आप मेरी बता रहे हैं वह कहीं संजीव की तो नहीं है?

तब डॉक्‍टर सुरोडकर बेझिझक बोले-नहीं भई नहीं ऐसा नहीं है। मैंने भी पहले यही सोचा कि कही रिपोर्ट आपस में बदल न गई हो इसलिए बार-बार उसकी जाँच की है। अब यह दूध की तरह एकदम स्‍पष्‍ट है कि आपको कभी कुछ भी हो सकता है। मुझे आपसे कोई वैर थोड़े ही है। समझिए इसे ही कुदरत का खेल कहते हैं। ईश्‍वरीय महिमा भी बड़ी निराली है राजीव बाबू, कभी-कभी वह ऐसा भी खेल खेल देता है कि उस पर सरलता से यकीन ही नहीं होता है। विधि का विधान वाकई बड़ा अपरंपार है। उसका कोई हिसाब नहीं लगा सकता है। परमेश्वर की यही नियति है।

इतना सुनते ही राजीव और संजीव सोच में डूब गए। वे देखते ही देखते वे गम के सागर में डूबने-उतराने लगे। आखिर अपना कोई वष न चलते देखकर दोनों भाई मायूस होकर अपने घर चले गए। संजीव के मन में भी बड़ा शोक उत्‍पन्‍न हुआ। अपने अग्रज की बीमारी के बारे में सुनते ही वह भी बहुत चिंतित हो गए। वह तपड़पकर रह गए।

रात तो जैसे-तैसे बीत गई लेकिन दुश्चिंता के मारे राजीव अचानक सचमुच बीमार पड़ गए। उन्‍हें पक्‍का विश्‍वास हो गया कि मैं एकदम निरामिषाहारी होते हुए भी दिल का रोगी क्‍यों हूँ? यह बात बहुत गहराई से उनके दिल में उतर गई। बाबू तुकाराम और संजीव उन्‍हें उठाकर अस्‍पताल ले गए किन्‍तु सब कुछ व्‍यर्थ ही रहा। एक से बढ़कर एक तजुर्बेकार डॉक्‍टर उन्‍हें बचाने में असफल ही रहे। चंद घंटों में ही राजीव सबको त्‍यागकर दूसरी दुनिया को चलते बने। यह देखते ही तुकाराम बाबू और संजीव पर मानो मुसीबतों का पहाड़ ही टूट पड़ा। उनके नेत्रों से अश्रुधार बहने लगी। बहुत भारी मन से वे किसी तरह राजीव के मृतक शरीर को उठाकर घर ले गए।

घर जाने के बाद बाबू तुकाराम जैसे-तैसे राजीव की चिता को मुखाग्‍नि देकर उनका अंतिम संस्‍कार निभाए किन्‍तु संजीव के दिल पर अपने भाई से बिछड़ने का बड़ा आघात पहुँचा। उन्‍हें इस बात का बहुत पश्‍चाताप हुआ कि मैंने अपने भाई से ऐसी ऊटपटाँग शर्त ही क्‍यों लगाई जो उसके जान का शत्रु बन गई। हमारे मजाक ने भाई को असमय ही हमसे छीन लिया। अब इस जग में मैं एकदम अकेला रह गया। उसके स्‍थान पर मैं ही क्‍यों रोगी साबित न हुआ? लगातार कई घंटे तक दुराशा से घिरे रहने से एकाएक संजीव भी बीमार पड़ गए और तीसरे दिन आनन-फानन में भरी जवानी में ही इस दुनिया से आँखें फेर लिए। अपने दोनों जवान बेटों को खोकर बाबू तुकाराम और उनकी अर्धांगिनी पार्वती पर गमों का पहाड़ डूट पड़ा।

COMMENTS

BLOGGER: 2
  1. भाई के गम में भाई मर गया , पर दोनों बेटों के मरने के गम के बावजूद माता-पिता जीवित रहे ।कहानी बहुत अच्छी लगी मगर दूसरे भाई का मर जाना एक नकारात्मक संदेश छोड़ गया ।उसे संभलना था , शेष जिम्मेदारियों को पूरा करना था ।उसे अग्रज बन जाना था ।

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  2. ओह ह्रदयविदारक कुछ कहने मे असमर्थ

    जवाब देंहटाएं
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फाइनमेन,1,रिलायंस इन्फोकाम,1,रीटा शहाणी,1,रेंसमवेयर,1,रेणु कुमारी,1,रेवती रमण शर्मा,1,रोहित रुसिया,1,लक्ष्मी यादव,6,लक्ष्मीकांत मुकुल,2,लक्ष्मीकांत वैष्णव,1,लखमी खिलाणी,1,लघु कथा,288,लघुकथा,1340,लघुकथा लेखन पुरस्कार आयोजन,241,लतीफ घोंघी,1,ललित ग,1,ललित गर्ग,13,ललित निबंध,20,ललित साहू जख्मी,1,ललिता भाटिया,2,लाल पुष्प,1,लावण्या दीपक शाह,1,लीलाधर मंडलोई,1,लू सुन,1,लूट,1,लोक,1,लोककथा,378,लोकतंत्र का दर्द,1,लोकमित्र,1,लोकेन्द्र सिंह,3,विकास कुमार,1,विजय केसरी,1,विजय शिंदे,1,विज्ञान कथा,79,विद्यानंद कुमार,1,विनय भारत,1,विनीत कुमार,2,विनीता शुक्ला,3,विनोद कुमार दवे,4,विनोद तिवारी,1,विनोद मल्ल,1,विभा खरे,1,विमल चन्द्राकर,1,विमल सिंह,1,विरल पटेल,1,विविध,1,विविधा,1,विवेक प्रियदर्शी,1,विवेक रंजन श्रीवास्तव,5,विवेक सक्सेना,1,विवेकानंद,1,विवेकानन्द,1,विश्वंभर नाथ शर्मा कौशिक,2,विश्वनाथ प्रसाद तिवारी,1,विष्णु नागर,1,विष्णु प्रभाकर,1,वीणा भाटिया,15,वीरेन्द्र सरल,10,वेणीशंकर पटेल ब्रज,1,वेलेंटाइन,3,वेलेंटाइन डे,2,वैभव सिंह,1,व्यंग्य,2075,व्यंग्य के बहाने,2,व्यंग्य जुगलबंदी,17,व्यथित हृदय,2,शंकर पाटील,1,शगुन अग्रवाल,1,शबनम शर्मा,7,शब्द संधान,17,शम्भूनाथ,1,शरद कोकास,2,शशांक मिश्र भारती,8,शशिकांत सिंह,12,शहीद भगतसिंह,1,शामिख़ फ़राज़,1,शारदा नरेन्द्र मेहता,1,शालिनी तिवारी,8,शालिनी मुखरैया,6,शिक्षक दिवस,6,शिवकुमार कश्यप,1,शिवप्रसाद कमल,1,शिवरात्रि,1,शिवेन्‍द्र प्रताप त्रिपाठी,1,शीला नरेन्द्र त्रिवेदी,1,शुभम श्री,1,शुभ्रता मिश्रा,1,शेखर मलिक,1,शेषनाथ प्रसाद,1,शैलेन्द्र सरस्वती,3,शैलेश त्रिपाठी,2,शौचालय,1,श्याम गुप्त,3,श्याम सखा श्याम,1,श्याम सुशील,2,श्रीनाथ सिंह,6,श्रीमती तारा सिंह,2,श्रीमद्भगवद्गीता,1,श्रृंगी,1,श्वेता अरोड़ा,1,संजय दुबे,4,संजय सक्सेना,1,संजीव,1,संजीव ठाकुर,2,संद मदर टेरेसा,1,संदीप तोमर,1,संपादकीय,3,संस्मरण,730,संस्मरण लेखन पुरस्कार 2018,128,सच्चिदानंद हीरानंद वात्स्यायन,1,सतीश कुमार त्रिपाठी,2,सपना महेश,1,सपना मांगलिक,1,समीक्षा,847,सरिता पन्थी,1,सविता मिश्रा,1,साइबर अपराध,1,साइबर क्राइम,1,साक्षात्कार,21,सागर यादव जख्मी,1,सार्थक देवांगन,2,सालिम मियाँ,1,साहित्य समाचार,98,साहित्यम्,6,साहित्यिक गतिविधियाँ,216,साहित्यिक बगिया,1,सिंहासन बत्तीसी,1,सिद्धार्थ जगन्नाथ जोशी,1,सी.बी.श्रीवास्तव विदग्ध,1,सीताराम गुप्ता,1,सीताराम साहू,1,सीमा असीम सक्सेना,1,सीमा शाहजी,1,सुगन आहूजा,1,सुचिंता कुमारी,1,सुधा गुप्ता अमृता,1,सुधा गोयल नवीन,1,सुधेंदु पटेल,1,सुनीता काम्बोज,1,सुनील जाधव,1,सुभाष चंदर,1,सुभाष चन्द्र कुशवाहा,1,सुभाष नीरव,1,सुभाष लखोटिया,1,सुमन,1,सुमन गौड़,1,सुरभि बेहेरा,1,सुरेन्द्र चौधरी,1,सुरेन्द्र वर्मा,62,सुरेश चन्द्र,1,सुरेश चन्द्र दास,1,सुविचार,1,सुशांत सुप्रिय,4,सुशील कुमार शर्मा,24,सुशील यादव,6,सुशील शर्मा,16,सुषमा गुप्ता,20,सुषमा श्रीवास्तव,2,सूरज प्रकाश,1,सूर्य बाला,1,सूर्यकांत मिश्रा,14,सूर्यकुमार पांडेय,2,सेल्फी,1,सौमित्र,1,सौरभ मालवीय,4,स्नेहमयी चौधरी,1,स्वच्छ भारत,1,स्वतंत्रता दिवस,3,स्वराज सेनानी,1,हबीब तनवीर,1,हरि भटनागर,6,हरि हिमथाणी,1,हरिकांत जेठवाणी,1,हरिवंश राय बच्चन,1,हरिशंकर गजानंद प्रसाद देवांगन,4,हरिशंकर परसाई,23,हरीश कुमार,1,हरीश गोयल,1,हरीश नवल,1,हरीश भादानी,1,हरीश सम्यक,2,हरे प्रकाश उपाध्याय,1,हाइकु,5,हाइगा,1,हास-परिहास,38,हास्य,59,हास्य-व्यंग्य,78,हिंदी दिवस विशेष,9,हुस्न तबस्सुम 'निहाँ',1,biography,1,dohe,3,hindi 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रचनाकार: अर्जुन प्रसाद की कहानी - जुड़वां
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