रामवृक्ष सिंह का व्यंग्य - छींक रे छींक

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व्यंग्य छींक रे छींक डॉ. रामवृक्ष सिंह छींक शब्द की व्युत्पत्ति कैसे हुई, यह तो हमें ज्ञात नहीं। किन्तु छींकने की स्वाभाविक प्रक्रिया में ...

व्यंग्य

छींक रे छींक

डॉ. रामवृक्ष सिंह

छींक शब्द की व्युत्पत्ति कैसे हुई, यह तो हमें ज्ञात नहीं। किन्तु छींकने की स्वाभाविक प्रक्रिया में यदि कोई व्यवधान न डाला जाए और मुख-विवर के आगे कोई परदा न किया जाए तो थूक, बलगम, वायु और ध्वनि का जो अद्भुत स्फोट होता है और कुछ मिश्रित द्रव-पदार्थों का जैसा अपूर्व छिड़काव होता है, उसमें कहीं न कहीं इस शब्द का निहितार्थ अवश्य छिपा हुआ है। जब तक हम गाँव में थे, छींकना हमारे लिए बड़ी स्वाभाविक क्रिया प्रतीत होती थी। जो लोग भारत की ग्राम्य संस्कृति से जुड़े हैं, वे तसदीक करेंगे कि मनुष्य शरीर के सभी नैसर्गिक क्रिया-कलाप गाँव में खुले आम होते हैं। उनका विस्तार से जिक्र करने की जरूरत नहीं, क्योंकि समझदार को इशारा ही काफी है। लिहाजा जब बाकी सारे क्रिया-कलाप खुले आम होते हैं तो छींकना क्यों न हो!

सच्चाई तो यह है कि जब तक हम गाँव में रहे, छींकना हमारे लिए बड़े ही सुख और आनन्द का विषय था। हमारे परिवार के कुछ सदस्यों के लिए एक प्रकार से यह प्रभु स्मरण का अवसर भी होता था। कारण? जब भी हमें छींक आती, दादी, नानी या माँ पीछे-पीछे बोलतीं- ठाकुर जी। इधर हम छींके नहीं उधर उनके मुँह से उच्चार हुआ नहीं- ठाकुर जी। यह परंपरा पूर्वांचल के उस इलाके में आज भी कायम है, जहाँ से हमारा नैसर्गिक संबंध रहा है। शहर में आकर पता चला कि छींकना हमारे लिए चाहे सुखकर हो, किन्तु अपने आस-पास के लोगों के लिए तो बड़ा दुखदायी होता है। गाँव की महिलाएं तो दुख झेलने के लिए जन्म-जन्मान्तर से शापित हैं। किन्तु बच्चों या किसी के भी के छींकने पर उन्हें जरा भी कष्ट होता हो, ऐसा हमें कभी नहीं लगा।

इस लिहाज से छींकना हमें हमेशा से ही बड़ा स्पृहणीय काम लगता रहा है। इस बात से तो शहराती भी सहमत होंगे कि छींक का आ जाना कितना सुखद होता है। छींक आने के कई शारीरिक-जैविक कारण हो सकते हैं। उसकी तफसील में हम नहीं जाते। किन्तु छींक की प्रक्रिया जब पूरी होती है तो लगता है हम आनन्द के चरम बिन्दु पर हैं। छींकने से मिलने वाले आनन्द की तुलना यदि हो सकती है तो केवल ब्रह्मानन्द से। केवल भुक्तभोगी ही इसका अनुमान लगा सकते हैं। इसीलिए जब छींक आते-आते चली जाती है तो बड़ी कोफ्त होती है। हम बड़ी उत्कंठा से मुँह खोले, नाक सिकोड़ते-फैलाते हुए छींक का इंतजार करते हैं कि अब आए-अब आए। कभी-कभी आ भी जाती है, लेकिन जब नहीं आती तो बड़ी मायूसी होती है। अपना आजमाया हुआ नुस्खा है कि जब कभी ऐसा हो आप सूरज की ओर नाक कर लें। सूरज की कुनकुनी छूप के नासिका-विवर के भीतर प्रवेश करते ही छींक का जीवाणु बिलबिलाता हुआ नाक से बाहर निकल आता है और उसके बाद आनन्द का जो फव्वारा निकलता है, उसकी कल्पना भी नहीं की जा सकती।

तो शहर आने से पहले हमारा छींक के बारे में कुल मिलाकर यही अनुभव और मंतव्य रहा करता था। लेकिन शहर आते ही हमारे लिए छींक के निहितार्थ बदल गए। कभी कोई किसी काम से बाहर जा रहा हो और आपने छींक मार दी तो समझिए उसका बनता हुआ काम निश्चय ही बिगड़ जाएगा और उसकी सारी जिम्मेदारी बस आपकी होगी। यदि ऐसा हो गया तो स्वयं ब्रह्मा भी कोई ऐसा सुधारात्मक उपाय नहीं कर सकते कि छींक आ जाने मात्र से बिगड़ा हुआ काम वापस बन जाए। इसका बस एक ही उपाय है- एक और छींक। इसी को कहते हैं विषस्य विषमौषधम। छींक का इलाज छींक है। एक छींक आए तो रुक जाइए और दूसरी के आने का इन्तजार कीजिए। अच्छी बात यह है कि अमूमन ऐसा होता भी है कि एक छींक के बाद दूसरी जरूर आती है- एक से साथ एक फ्री।

वैसे तो छींक एक नैसर्गिक और अनैच्छिक क्रिया है। उसे जब आनी होता है आती ही है। उस पर किसी का जोर-जबर नहीं चलता। कुछ लोग कहते हैं कि छींक एक प्रकार की प्रत्यूर्जता यानी एलर्जी का लक्षण है। वातावरण में विभिन्न प्रकार के प्रत्यूर्जताकारी तत्व तैरते रहते हैं। धूल के कण, फूलों के पराग कण, तरह तरह की खुशबुएँ आदि इसी प्रकार के तत्व हैं। कभी अंधेरे से उजाले में जाने, गरम वातावरण से ठंडे वातावरण में जाने पर भी छींकें आने लगती हैं। ऐसी स्वाभाविक और नैसर्गिक क्रिया भी शहरातियों के लिए गोपन लगती है, यह देखकर हमें बड़ा आश्चर्य होता था। जब तक गाँव में रहे, जिधर मन हुआ मुँह उठाकर आ..छी.. कर देते थे। शहर आए तो पता चला कि यह तो अच्छी बात नहीं है। इस बात का पहले-पहल अहसास हमें मिसेज आधार ने कराया जो आठवीं कक्षा तक हमारी सिविक्स की टीचर थीं। ठीक भी है, सिविक सेन्स तो सिविक्स की टीचर ही सबसे अच्छा सिखा सकती हैं।

तो मिसेज आधार के सामने जब पहली बार अपनी छींक का विस्फोट हुआ और खूब ढेर सारी फुहार हवा में बिखर गई तो उन्होंने हमें लगभग दुत्कारते हुए कहा- ‘ओए, खोत्ते दे पुत्तर! रुमाल नहीं रख सकता मुँह पे? रुमाल ना हो तो ना सही... कम से कम हाथ ही लगा ले।’ बस तभी से हमने ये सीख गाँठ बाँध ली कि छींकते समय मुँह को जैसे भी हो ढको, रुमाल से, हाथ से या आस्तीन से। कुछ न मिले तो सीधे डस्टबिन में घुस जाओ, लेकिन छींक का सार्वजनिक फुहारा मारना असभ्यता की निशानी है। ऐसी ही एक असभ्यता की निशानी और छुड़वाई मिसेज आधार ने। एक बार हम उनकी क्लास में जम्हाई पर जम्हाई लिए जा रहे थे। मिसेज आधार का लेक्चर बोरियत भरा होता था। हमारी जम्हाई का कारण यह बोरियत ही थी, लेकिन उन्होंने समझा कि हम सीधे बिस्तर से उठकर उनकी क्लास में चले आए हैं। उन्होंने अपने उसी चिर-परिचित अंदाज में कहा- ‘ओ...ए। खोत्तेआँ..। नहा के नहीं आया क्या आज? ... चल नहीं आया ते ना सही.. पर ऐसे मुँह ते ना फाड़..। हाथ रख लिया कर मुँह पे।’ इस प्रकार मिसेज आधार ने हमारे साथ-साथ ग्राम्य पृष्ठभूमि से जुड़े बहुत-से छात्रों के जीवन में शहराती सभ्यता की आधार-शिला रखी।

आधार-शिला तो रख दी गई, लेकिन उसपर सभ्यता के कंगूरे बाद में बने, तब जब हम पढ़-लिखकर, नौकरी पाकर साहब लोगों की जमात में शामिल हुए। यहाँ खुलकर बोलना, हँसना, खुलकर अपनी बात कहना सब कुछ वर्जित था। जो कहना है धीरे से कहो। न कहो तो और भी अच्छा। बस सुनो। सबकी सुनते रहो। बॉस की सुनो, नीचे वाले की सुनो। अल्लम-गल्लम जो भी कहा जाए, बस चुपचाप सुनते रहो। बोलना मना है। बोलना शुरू किया कि गए काम से। बोलने पर तो हमने कंट्रोल करना सीख लिया, लेकिन इस छींक का क्या करें? यह तो बिना बुलाए चली आती है। मौके-बेमौके, कब आ धमके और हमें रुमाल निकालने का भी अवसर न दे, कुछ ठिकाना है क्या इसका! साहब लोगों की जमात में भरती होने पर पता चला कि यदि गलती से, खुदा न खास्ता ऐसा हो जाए तो पट से कहो- एक्स्क्यूज मी। बाद में हमें पता चला कि यह जुमला तो बड़े काम की चीज है। छींक निकल गई तो कहो एक्स्क्यूज मी। हिचकी निकल गई तो कहो एक्स्क्यूज मी। दो लोग गलियारे में खड़े घंटों से गप मार रहे हों और उनके बीच से होकर गुजरना पड़े तो कहो एक्स्क्यूज मी। मीटिंग में बैठे हों और अचानक बीवी का फोन आ जाए तो उठकर बाहर भागने से पहले कहो एक्स्क्यूज मी। और तो और भाषण-वाषण देते समय आपको पानी का एक घूँट पीने की जरूरत महसूस हुई तो भी कहो एक्स्क्यूज मी। एक लिहाज से यह एक्स्क्यूज मी का जुमला हर मर्ज की रामबाण औषधि है। एक्स्क्यूज मी का हिन्दी अनुवाद होता है-मुझे माफ करें। गोया सामने वाले को आप मौका दे रहे हैं कि भइए, ये सारी प्राकृतिक क्रियाएं जो केवल इसलिए हो रही हैं कि मैं भी अंततः कपड़े पहनने और दाढ़ी बनानेवाला एक पशु ही हूँ, उसके लिए भी मुझे माफ करो। कि इन क्रियाओं पर मेरा कोई वश नहीं। चुनांचे अब अपने नैसर्गिक रूप में रहना शर्मिंदगी और माफी माँगने का सबब बन गया है। पता नहीं किस झक में विलियम वर्ड्सवर्थ नाम के अंग्रेज महाशय ने बैक टू नेचर यानी प्रकृति की ओर वापस लौटने का नारा दिया था। हमें तो लगता है कि आज के जमाने प्रकृतिस्थ होना सबसे बड़ी असभ्यता है। अपने असली चेहरे को मेकअप से ढके रहिए, सभ्यता का मुखौटा ओढ़े रहे, अपने चरित्र के भेड़िए को मेमने की खाल से छिपाए रहिए। यही आज का सर्व-स्वीकार्य युग-सत्य है।

अब हमें लगता है कि अंग्रेजों के पास ऐसी बहुत-सी कारगर दवाइयाँ और नुस्खे थे, जो गँवार से सुसभ्य बनाने के काम आते हैं और जिनको वे विलायत लौटने से पहले हम गँवार हिन्दुस्तानियों के लिए छोड़ गए। जब तक गाँव में रहे, अंग्रेजों की छोड़ी हुई इन नेमतों की भनक भी हमें नहीं लगी। लेकिन गाँव से शहर आए और पढ़ लिख गए, साहब लोगों के तबेले में भरती हो गए, तब पता चला कि ओहो..हम तो बड़े पिछड़े हुए थे। अब गाँव जाते हैं और छींकने पर माँ, बड़ी माँ, दादी या नानी ठाकुर जी बोलती हैं तो बड़ा अजीब लगता है। उनकी जहालत पर हमें तरस आता है। उनके अनसिविलाइज्ड होने पर कोफ्त होती है। छींकने के काम में ठाकुरजी कहाँ से बीच में आ गए? आना तो चाहिए था एक्स्क्यूज मी को। इसलिए अब इन बूढ़ी महिलाओं की मौजूदगी में कभी ऐसा होता है तो हम चट रुमाल निकालते हैं और उसी में सब कुछ लपेटकर जेब में रख लेते हैं। गाँव के लोगों को यह बड़ा अजीब लगता है। जिस चीज को आसानी से जमीन पर फेंका जा सकता था, उसे रुमाल में सहेजकर जेब में रखने की क्या जरूरत है। यह उन्हें कैसे समझाएँ?

क्या अच्छा है और क्या बुरा, यह फैसला करने की अपनी औकात नहीं। बस हम तो इतना जानते हैं कि एसी में रात-दिन रहनेवाले हम शहराती इंडियन लोगों ने अंग्रेजों की विरासत को अच्छे से सहेज लिया है। दूसरी ओर अपने अधिसंख्य भारत-वासी हैं जिनके तईं छींक का ठीक से आ जाना अब भी सुख और संतोष का विषय है, माफी माँगने का सबब नहीं।

COMMENTS

BLOGGER: 3
  1. वाह सर
    आनंद आ गया
    मन में एक बार फिर अपने गांव जाकर नीम के पेड़ के नीचे कुए की मुंडेर पर अपनी चांडाल चौकडी के साथ छींकने की हूक सी आ रही है.. और आपको बैंक में तो लोग बैसे भी छींकने नहीं देते होगे-- पर परभु से हाथ जोडकर प्रार्थना है कि वह आपको छींक बख्शता रहे और आपको देख देख कर हम भी छींकने लगें और हम सब की छींक की गूजं रवि सर के इस ब्लाग के हर पाठक को छींकने के लिए मजबूर करदे।
    सादर
    डॉ रावत

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  2. अच्छा लगा, रजीव जी आप की प्रर्थना स्वीकार हुइ शायद, छींक मुझ तक पहुंची ,छींकने वालों मे कृपया मेरा नाम भी जोड लें ।

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  3. badi achchi hai aapkee bhaashaa...ekbar padhne ko baitha to bas khatam hone ke baad hee saans lee!

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रचनाकार: रामवृक्ष सिंह का व्यंग्य - छींक रे छींक
रामवृक्ष सिंह का व्यंग्य - छींक रे छींक
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