विजय शिंदे का आलेख - निरक्षरता से... मुक्ति तक का अद्भुत सफर

SHARE:

निरक्षरता से... मुक्ति तक का अद्भुत सफर                                                                         डॉ. विजय शिंदे             ...

image

निरक्षरता से... मुक्ति तक का अद्भुत सफर
                                   
                                    डॉ. विजय शिंदे
                                    देवगिरी महाविद्यालय, औरंगाबाद.


    भारतीय भूमि में उर्वरता एवं सांस्कृतिक सुफलता है। दुनिया को त्याग और संस्कार देने की  अद्भुत क्षमता है। इस देश की भूमि में कई साधु-संत होकर गए जो दैवी शक्ति रखा करते थे। पारमार्थिक शक्ति एवं ब्रह्म स्वरूप को छूने की क्षमता उनमें थी, हांलाकि उनका जन्म भी एक संसारिक जीव के रूप में हुआ था। सारी संसारिक मर्यादाओं को तोड़कर, मनुष्य सीमाओं से परे जाकर पारमार्थिक सत्ता ग्रहण करना किसी ऐरे-गैरे का काम नहीं। उसके लिए आत्मा पर अधिकार और नियंत्रण जरूरी है। नामदेव, कबीर, जायसी, सूरदास, तुलसीदास, मीरांबाई.... तथा अन्य कई संतों का नामोल्लेख होता है। जिन्होंने विविध संप्रदायों से जुड़कर समाजउपयोगी कार्य किया। यहां मेरा उद्देश्य उन्हीं संप्रदायों में आनेवाले एक अहं स्थान रखनेवाले ‘वारकरी संप्रदाय’ के अनुयायी पर प्रकाश डालने का है। इस संप्रदाय का लगभग १३ वीं सदी से लंबा इतिहास है और आज भी महाराष्ट्र में उतनी ही तन्मयता एवं अध्यात्मिकता के साथ कार्य शुरू है। महाराष्ट्र एवं महाराष्ट्र से बाहरी सभी विठ्ठल भक्त मस्तमौला रूप से पैदल, भजन-कीर्तन करके लंबा सफर तय करते हैं और पंढरपुर में जाकर विठ्ठल-पांडुरंग का दर्शन करते हैं। विठ्ठल भक्ति की यह लगन उन्हें चैन से बैठने नहीं देती, उनकी आत्मा उसके दर्शन-मिलन के लिए तड़प उठती है।
    वारकरी संप्रदाय में योगदान देने वाले संतों में नामदेव, ज्ञानेश्वर, निवृत्ति, सोपान, मुक्ताबाई, तुकाराम, दामाजी, पुंडलिक, एकनाथ, सावतामाळी, चोखामेळा, सोयराबाई, गोरा कुंभार, कान्होपात्रा, नरहरी सुनार, निळोबा, सेना नाई, जनाबाई, केशव चैतन्य, चांगदेव.... आदि प्रमुख संतों का समावेश होता है। उपर्युक्त सारे संत संसारिक सुखों से निवृत्त होकर पारमार्थिक सुख में तल्लीन हो चुके थे। वारकरी संप्रदाय के संतों की विशेषता यह भी रही कि वे विभिन्न जाति के होकर भी समादारता के साथ रहे और विठ्ठल की भी उनपर कृपा रही। उनकी जाति उनके भक्ति मार्ग में अवरोध नहीं बनी। नामोल्लेख करे तो ब्राह्मण, मराठा, कुणबी,शिंपी, मुजुमदार, माली, शूद्र, कुम्हार, सुनार तथा अन्य अनेकानेक जातियों में जन्म लेकर भी वे संत पद तक पहुंचे। वेश्या जैसा अधम कार्य करके भी संत कान्होपात्रा विठ्ठल की कृपा पात्र बनी। इन संतों के पश्चात् आज वर्तमान में भी हरिभक्त परायण महाराज विभिन्न जाति-धर्मों के हैं जो वारकरी संप्रदाय एवं विठ्ठल भक्ति की परंपरा को आगे बढ़ा रहे हैं। ताल, मृदंग, करताल (चिपळी), वीणा, तबला, पखवाज, हारमोनियम जैसे साधनों से भजन, कीर्तन, प्रवचन, पारायण, सप्ताहों, दिंडियोें में लीन प्रत्येक भक्त भक्ति रस में डूब चुका है। तुलसी मणियों की माला, गोपीचंद, अष्टगंध, बुक्का, पताका जैसे प्रतीक चिह्नों को अपनाकर सफेद-झक कपड़े, धोती-कुर्ता, टोपी, फेटों में बड़ी सात्विकता के साथ तरंगायित होता है। मजल-दर-मजल पंढरपुर की ओर जानेवाली दिंडियों के हुजूम को देखने पर चकित हुए बिना नहीं रहा जाता। ऊपर से लगनेवाली द्वैतवादी या सगुणवादी परंपरा अंदर से अद्वैतवादी मानी जा सकती है, जहां ईश्वर-भक्त एवं मेरा-तेरा का अंतर मिटते देखा जाता है।
    महाराष्ट्र भारत की मध्य-पश्चिम भक्ति संस्कृति का प्रतिनिधित्व करता है। यहीं से नामदेव ने शुरुआत की थी, दक्षिण से होकर उत्तर तक पहुंचे और ज्ञान से अध्यात्म एवं भक्ति रस को सींचकर संत पद प्राप्त कर चुके। उसी भूमि से एक नहीं तो कई संतों की लंबी परंपरा फूटती गई और आज भी जारी है। दक्षिण गंगा के नाते ‘गोदावरी’ का नामोल्लेख होता है। इस नदी के अलावा भीमा (ंचंद्रभागा), कृष्णा, पंचगंगा, वैतरना, मूला, मूठा, प्रवरा, निरा, मान, सिंदफना, दूधना, पैनगंगा, पूर्णा, इंद्रायणी, नर्मदा, तापी, आदि नदियों से यह भूमि उर्वर बनी है और इस उर्वरता में भक्ति-संस्कृति का फूलना-फलना हुआ है। भक्ति की दृष्टि से गोदावरी, भाीमा (चंद्रभागा), इंद्रायणी का ऐतिहासिक महत्त्व रहा है। इन नदियों की गोद में भक्ति की धारा प्रवाहित होकर आस-पास के प्रदेशों में उतरी है।


‘‘पवित्र वह कुल पावन वह देश।
जहां हरि के दास जन्म लेई।।‘‘

    संतों ने जनसाधारण को सामान्य स्तर से उठाकर अध्यात्मिक एवं पारमार्थिक स्तर तक पहुंचाने का पवित्र कार्य किया है। वैसा ही कार्य कीर्तन, प्रवचन, भजनों में करते ह.भ.प. सोपानकाका केळे साधु-संत की उपाधि तक पहुंचने में सफल रहे। ‘जगी ऐसा बाप व्हावा’ चरित्रात्मक रूप से लिखी मराठी किताब में मुरहरी केळे जी ने उनका सफल चित्रण किया है। वारकरी संप्रदाय की विशेषता यह रही है कि कुछ सालों के वैवाहिक जीवन के बाद विरक्ति तक पहुंचना। पारिवारिक रिश्तों से मुक्त होकर अपने आस-पास की दुनिया, गांव-प्रदेश को अध्यात्मिक ताकत देना। उस दृष्टि से ह.भ.प. सोपानमहाराज केळे सफल हो चुके हैं।

समाजसुधारक
    जो व्यक्ति अहं से मुक्ति पाकर निस्वार्थ भाव से विरक्ति प्राप्त करता है वह आत्मोद्धारी माना जाएगा परंतु यहां पर बिना रुके प्राप्त ज्ञान एवं अनुभवों का उपयोग कर लोकोद्धार भी करना जरूरी होता है। साधु प्रवृत्ति की व्यक्ति अपना सोचना तो छोड़ चुकी होती है, वह हमेशा दूसरों का उद्घार सोचा करती है। सोपानकाका गड़रिया जैसी जाति में जन्म लेकर वारकरी संप्रदाय से जुड़े और अपनी पौराणिक रूढ़ि-परंपराओं को नकार कर आत्मोद्घार के साथ लोकोद्घार करते रहे। सोपान महाराज का मूल गांव केळे और वहां बहुसंख्यक गड़रिया जाति के लोग। खुद भी उसी जाति से। पारंपरिक पद्घति से विभिन्न त्योहारों में बकरों को काटना और मांस भक्षण करना रुचि का खान-पान। नई शादी हुई की नौ बकरों को कटवाने की पारंपरिक विधि। वारकरी संप्रदाय में प्रवेश कर चुके सोपान महाराज के लिए यह हिंसा भयानक लगती है। अभक्ष भक्षण एवं अपेय पान न करने का प्रतीक चिह्न वारकरियों के लिए तुलसी माल है। (पृ.६६) जिसे उन्होंने पहना था और कड़ाई से पालन भी करते थे। यहां मूल तत्व हिंसा का विरोध है। सोपान महाराज ने मेहनत और लगन से हिंसावादी गांव के भीतर भक्ति ज्योत प्रज्ज्वलित की। उन्होंने मजदूर, विद्यार्थी, अशिक्षित, ग्रामीण एवं सामान्य जन की आत्मा को स्पर्श कर समाजोन्नति करने का क्रांतिकारी कार्य किया है। मांस भक्षण, शराब, तंबाखू, गुटखा, मटका, जुगार से गांव को मुक्ति दिलाई।
    ह.भ.प. सोपानकाका ने अपने बच्चों पर उचित संस्कार कर एक सामाजिक आदर्श भी स्थापित किया जो समाज की आंखें खोलने में सफल रहा। संत पहले जिए और बाद में अन्यों को पाठ पढ़ाए। संत तुकाराम ने लिखा है-
   
‘‘शुध्द बीजापोटी। फळे रसाळ गोमटी।।’’

    बीज अगर शुद्घ है तो उससे पौधें और उन पौधों से फल भी रस से भरा मिलेगा।
    भारतीय विवाह संस्था को ‘दहेज’ नामक बीमारी लग चुकी है। अब परिर्वतन की दिशाओं में समाज अग्रसर है पर कुछ गांव अभी-भी वहीं पड़े हैं। खैर सोपान महाराज अपनी बड़ी लड़की सुमित्रा की  शादी करते हैं और कुछ दिनोंपरांत जमाई बेटी के साथ घर आता है और पहली बार आने के ऐवज में कपड़ों के साथ सोने की अंगुठी उपहार स्वरूप मांगता है तब वे सामाजिक सुधार का डंड़ा उठा लेते हैं। जमाई को नए कपड़े लिए गए और सोने की अंगुठी के लिए जब वे रूठकर बैठे तो कहा कि ‘‘अब इन्हें कपड़े भी नहीं और वापस बेटी भी नहीं मिलेगी।’’ (पृ.२३) यह सख्ती कबीर वाणी की सख्ती मानी जा सकती है, जो समाजसुधार के लिए शद्बों का हंटर उठाती है। पिछड़ी हुई जाति का गांव, गड़रिया समाज की बहुलता वाले अविद्या एवं अंधश्रद्धा से जकड़े ग्रामवासियों को बाहर निकालने का सफल सामाजिक कार्य ह.भ.प. सोपानमहाराज ने किया है।


प्रदर्शनप्रियता का नकार
    साधु-संतों ने हमेशा प्रदर्शनप्रियता एवं ऊपरी रंग-ढंग का विरोध किया है। ह.भ.प. सोपानकाका पदों के निर्माता तो रहे नहीं परंतु बाकी संतों के पदों का अनुसरण इन्होंने किया और दूसरों को भी इसका उदाहरण प्रवचनों में देते रहे। बकरियों को चराना, दूसरों की खेती में मजदूरी करना अर्थात् खेती अभाव में मेहनत के काम एवं श्रम उनकी जीविका का आधार था। बाहरी सफाई एवं कपड़ों के शौक का मौका तो था नहीं। सिवाय साधु प्रवृत्ति के कारण बाहरी प्रदर्शन की अपेक्षा अंतर्मन की सफाई एवं खूबसूरती उनके लिए मायने रखती थी। (पृ.१७) उनका कहना था कि अगर मन निर्मल हो तो साबुण की क्या जरूरत है। संत चोखामेळा ने लिखा है-
‘‘ऊस डोंगा परि रस नोहे डेंगा।
काय भुललासी वरलीया रंगा।।’’

    अर्थात् गन्ने के ऊपरी रूप-रंग की अपेक्षा उसका अंतरंगी रस मिठास से भरा होता है, वैसे ही इंसान भी अंतरंग से साफ सुथरा मिठा हो। वैसे अपने कीर्तनों में अनेक उदाहरण एवं दृष्टातों का वे उपयोग करते थे और प्यार से लोगों को भक्ति की ओर आकृष्ट कर हिंसात्मक वृत्ति का खात्मा कर अहिंसात्मक एवं वारकरी संस्कृति में उन्हें खिंच लाते थे। तुलसी माला एक नीति नियम तय करती है, मांसाहार पर रोक लगाती है और अंतर्मन निर्मल करती है, फिर भी वे कहा करते थे-

‘‘मनाचा निर्मळ वाणीचा रसाळ।
त्याचे गळा माळ असो नसो।।’’
    मन निर्मल और वाणी रसपूर्ण हो तो उसके गले में तुलसी माला हो न हो कोई फर्क नहीं पड़ता। हांलाकि लोगों की चेतना जागृति के लिए सोपानकाका कहने को यह कहते थे, परंतु उन्होंने लोगों के आंतरिक परिवर्तन के लिए तुलसी माला पहनने की सलाह हमेशा दी।

संसारिक मुक्ति
    संत प्रवृत्ति के लोग हमेशा संसारिक मोह से मुक्ति के रास्तों को चुनते हैं। विठ्ठलपंत कुलकर्णी निवृत्ति-ज्ञानेश्वर-सोपान-मुक्ता के पिता परंतु जब शादी हुई तो संन्यास ले चुके। पत्नी रूक्मिनी को त्यागकर संसारिक सुखों से मुक्ति पाना चाहा पर गुरु के संपर्क में आकर उनके आदेश से दुबारा संसारिक जीवन में साधु-प्रवृत्ति से लीन हुए। वैसे ही ह.भ.प. सोपानकाका ने संसारिक सुख से मुक्ति चाही थी और शादी के बाद पारिवारिक संसारिक जीवन शुरू किया था परंतु उसके अनावश्यक मोह से वे दूर रहे थे। जब गांव के भीतर भजन-कीर्तन की शुरुआत उन्होंने की थी उसी साल बारिश नहीं हुई, सुखा पड़ गया। गांव के कुछ लोगों ने सोपान्या ने ताल बजाए, भजन-कीर्तन किया इसलिए यह दिन देखने को मिल रहे हैं कहा, पर इस निंदा को उन्होंने नजरंदाज किया। कबीर की उक्ति को ध्यान में रखते हुए उन्होंने अपना कार्य जारी रखा।

‘‘निंदक नेड़ा राखियै, आंगणि कुटी बंधाइ।
बिन साबण पांणी बिना, निरमल करै सुभाई।।‘‘

    सोपानकाका देहासक्ति से भी दूर रहे। कोई भी मौसम हो हमेशा ठंड़े पानी से नहाया, बिना साबण के। शरीर नष्ट होनेवाला है, उसे अनावश्यक सजाने की जरूरत नहीं है। अर्थात् आंतरिक शुद्धि अत्यंत जरूरी है उन्होंने माना। संत तुकाराम के उद्घरण को वे हमेशा बताते थे-

‘‘नाशिवंत देह जाणार सकळ। आयुष्य खातो काळ सावधान।।
            तैसे चित्तशुद्घी नाही। तेथे बोध करील काई।।’’
    आंतरिक शुद्घता के साथ अर्थासक्ति से भी सोपानकाका ने मुक्ति पाई थी। जहां कीर्तन करते वहां से आने-जाने के खर्चे के अलावा कुछ भी नहीं लेते थे। एक बार एक इंजिनिअर द्वारा गलत काम को सही साबित करने के लिए रुपए का लालच दिखाया था परंतु सत्यवादी सोपानकाका ने डराने धमकाने के बाबजूद भी नकार था।(पृ.७५)

शिक्षा के प्रति आस्था
    ह.भ.प. सोपानकाका आरंभ में निरक्षर थे। लिखना-पढ़ना बिल्कुल नहीं जानते थे, पर प्रवृत्ति अत्यंत सात्विक। अपेक्षा थी कि वारकरी संप्रदाय एवं विठ्ठल भक्ति से जुड़कर अध्यात्मिक ज्ञान की प्राप्ति करे। येड़शी रेल्वे स्टेशन पर कुली का काम किया करते थे। वही बापू मास्तर, ह.भ.प. भगवानभाऊ एवं ह.भ.प. रामकृष्णभाऊ के संपर्क में आए। भक्ति प्रवाह के प्रति आंतरिक खिंचाव तो था ही साथ में मूल पाठों को पढ़ने की लगन भी। बापू मास्तर ने उनकी इस लगन को पहचाना। सोपानकाका ने बापू मास्तर को अपना गुरु मानकर श्रीमद्भगवत्गीता के अध्यायों को मुखोगत् करना शुरू किया। सुबह बापू मास्तर श्लोक पढ़ाते और दिन भर काम के साथ श्लोक पठन, रात में गुरु के सामने पुनरावृत्ति। असाध्य से साध्य करने वाले  सोपानकाका का यहां से पढ़ाई का सफर शुरू होता है। वह संपूर्ण श्रीमद्भगवत्गीता को मुखोगत् करके रूकता है। लिखना पढ़ना भी उनकी मेहनत को दर्शाता है। चारों वेद, दस उपनिषद, अठराह पुराण, विभिन्न संतों की अभंग गाथाएं, ज्ञानेश्वरी, विचारसागर रहस्य, अद्वैत अमोघ, सिद्धांत बिंदु, अमृतानुभव, अनुभवामृत, ब्रह्मसूत्रशारिरभाष्य, शंकराचार्य एवं अन्य विभूतियों के प्रसिद्घ अमूल्य टीकाग्रंथों का संग्रह-चिंतन-पारायण-मनन किया। इन ग्रंथों के बलबूते पर उन्होंने निरक्षरता से अध्यात्म तक का सफर बडी आसानी के साथ पार किया। संत तुकाराम के शब्दों में -

‘‘असाध्य ते साध्य करीता। कारण अभ्यास तुका म्हणे।।’’

    सोपानकाका की यह अध्यात्मिक शिक्षा थी जो उन्हें सच्चे मायने में इंसान बनाती थी। परंतु उन्होंने यह भी जाना था कि वर्तमान युग में नवीन पीढ़ी के बच्चों के लिए आधुनिक शिक्षा अत्यंत जरूरी है। जो बचपन में उन्हें नहीं मिला वह गांव-घर के बच्चों को मिले यह उनकी आंतरिक अपेक्षा थी। वे यह भी जानते थे कि वर्तमान शिक्षा से कितनी भी उपाधियां ले ली जाए तो भी वह शिक्षा केवल पेट भरने में मदतगार साबित होगी। और सच्चे मायने में मुक्ति पाना है तो अध्यात्मिक ग्रंथों का पारायण जरूरी है। (पृ.६३-६४) उनका कहना था कि लौकिक शिक्षा पेट के लिए और अध्यात्मिक शिक्षा आत्मा के लिए जरूरी है।

कीर्तनकार विठ्ठल भक्त
    ह.भ.प. सोपानकाका महाराज कीर्तनकार रहे हैं। साधु वृत्ति एवं पठन-चिंतन के आधार पर उनकी अध्यात्मिक प्रवृत्ति कीर्तन से लोगों को जागृति प्रदान करती रही है। कीर्तन, प्रवचन, हरिनाम सप्ताह, पारायण, भारूड, अभंग एवं भजनों के कई कार्यक्रम उन्होंने किए। लगभग इक्यानब्बे कार्यक्रमों का उल्लेख लेखक ने परिशिष्ट के भीतर किया है। कीर्तनों के माध्यम से उन्होंने समाज प्रबोधन किया परंतु उसके लिए उन्होंने कभी मानधन नहीं लिया। उनका कहना था कि-

‘‘जेथे कीर्तन करावे। तेथे अन्न न सेवावे।।’’

    अर्थात् सोपानकाका की यात्रा निरक्षरता से साक्षरता, साक्षरता से प्राकृतता, प्राकृतता से संस्कृतता और संस्कृतता से शुद्घ अध्यात्म की ओर रही और अंततः अध्यात्म से मुक्ति की ओर बढ़ती गई। वेदकुमार वेदालंकार लिखते हैं, ‘‘विठ्ठल भक्ति की यह धारा १३वीं शताद्वी में प्रकट होकर निरंतर प्रवाहित होती हुई १७ वीं सदी तक जन-जन को पावन बनाती हुई गतिमान रही। आज भी पंढरपुर नगरी में दक्षिण देश की ‘काशी’ नगरी में, भक्ति भाव की वहीं धारा लाखों श्रद्घालुजनों के कीर्तन गान, नृत्य के रूप में, चंद्रभागा सरिता के बालुकामय तीर पर नाचते - गाते भक्तजनों के रूप में देखी जा सकती है। महाराष्ट्र के प्रत्येक ग्राम में मंदिरों के रूप में देखी जा सकती है, मंदिरों में ‘जय-जय रामकृष्ण हरि’ मंत्र का उद्घोष ताल मृदंग के नाद में आज भी गुंजायमान हो रहा है। पांडुरंग प्रेम के यह मतवाले जब अभंग गाते-नाचते हैं, तो दर्शक भी विभोर हो उठते हैं। मोक्ष उनका दास बन जाता है और बैकुंठ चंद्रभागा तीर पर उतर आता है।’’ (मराठी संत काव्य - पृ. १६) ह.भ.प. सोपानकाका महाराज ने मराठवाडा क्षेत्र के कई स्थानों पर इसी तल्लीनता से कीर्तन को आधार बनाकर बैकुंठ रूपी स्वर्ग की प्राप्ति - प्रचीति लोगों को दिलवाई। वे अनन्यसाधारण विठ्ठलभक्त कीर्तनकार थे।

निष्कर्ष
    ‘जगी ऐसा बाप व्हावा’ वारकरी संप्रदाय में एक बूंद के नाते जीवन न्योछावर करनेवाले भक्त का परिचयात्मक विश्लेषण है। लेखक स्वयं उस भक्त के पुत्र होने के कारण चरित्र में सूक्ष्मता आई है। पारिवारिक प्रसंगों का कम-से-कम शब्दों में विवेचन और ह.भ.प. सोपानकाका के अध्यात्मिक जीवन का उचित चित्रांकन इस चरित्र में है। एक बेटे द्वारा पिता के अध्यात्मिक कार्य का गौरवगान अतुलनीय है। वारकरी भक्तजन वर्ष में दो-चार एकादशी करते हैं ऐसी बात नहीं तो वे पूरे वर्ष अपने-अपने गांवों एवं मंदिरों में भजन-कीर्तन करते लीन रहते हैं। पंढरपुर को बैकुंठ मानना और विठ्ठल भक्ति को मोक्ष प्राप्ति का मार्ग मानकर आनंद में विहार करना इनका नित कार्य रहता है। ऐसी तल्लीन अवस्था में वे योगी की चित्त दशा में पहुंच जाते हैं। सोपानकाका की इसी योगी अवस्था का वर्णन प्रस्तुत रचना में है। एक निरक्षर सामान्य व्यक्ति का अध्यात्म एवं अध्यात्म से मुक्ति तक का सफल वर्णन इस कृति में है, जो भक्ति मार्ग के वारकरी संप्रदाय की महती को भी प्रकट करता है।

आधार ग्रंथ
जगी ऐसा बाप व्हावा (चरित्र-मराठी)- मुरहरी केळे
संस्कृति प्रकाशन, ह.भ.प. सोपानकाका केळे स्मृति प्रतिष्ठान, केळेवाडी, जि. उस्मानाबाद.
प्रथम संस्करण - २०११, पृ. १५२, मूल्य - १००

                                डॉ. विजय शिंदे
                                देवगिरी महाविद्यालय,औरंगाबाद.
                        
                                ई.मेल :- drvtshinde@gmail.com

COMMENTS

BLOGGER: 15
  1. बहुत ही सार्थक एव उपयोगी प्रस्तुती,आभार।

    जवाब देंहटाएं
    उत्तर
    1. राजेंद्र कुमार जी आलेख पसंदी की सूचना दी। आभार। गुरप्रित जी आपके भी आभार। वारकरी संप्रदाय के बारे में महाराष्ट्र की भूमि श्रद्धा रखती हैं तथा विठ्ठल उनका अराध्य है। वारकरियों का निर्गुण सप्रदाय के लिए बडा योगदान भी है। संत नामदेव का नाम इसी परंपरा में आता है; जे समान रूप से निर्गुण एवं वारकरी सप्रदाय से जुडा।

      हटाएं
  2. एक नवीन प्रयास, धन्यवाद।

    MY BLOG
    http://yuvaam.blogspot.com/p/blog-page_9024.html?m=0

    जवाब देंहटाएं
    उत्तर
    1. गुरप्रित जी आलेख पढकर टिप्पण्णी लिखी धन्यवाद। महाराष्ट्र के वारकरी संप्रदाय में योगदान देनेवाले एक संत नामदेव को सिख धर्म में आदर का स्थान है। मूलतः संत नामदेव वारकरी संप्रदाय में बहुत बडा योगदान दें चुके हैं। वारकरी संतों के शीर्ष संतों में इनकी गिनती होती हैं। आप इनके बारे में अतिरिक्त जानकरी रखते हैं तो बताने का कष्ट करें जो सिखों से जुडी है परंतु वारकरियों को पता नहीं। इससे दोनों संप्रदाय लाभान्वित होंगे।
      डॉ.विजय शिंदे

      हटाएं
    2. Happy teachers' day. we are proud of you as an eminent critic in Hindi literature. ............Balaji Navle

      हटाएं
  3. "शिक्षा पेट के लिए और अध्यात्मिक शिक्षा आत्मा के लिए जरूरी है"
    सोपानकाक
    अच्छा आलेख है,सोपानकाक जी की संक्षिप्त जीवनी अनुकरणीय लगी ।

    जवाब देंहटाएं
    उत्तर
    1. गिरीर्‍ज जी आपकी टिप्पणी मेरे लिए प्रोसाहन है। वारकरी संप्रदाय का मूल मंत्र है 'अध्यात्मिक शिक्षा आत्मा के लिए जरूरी है।' संपूर्ण भारत के अध्यात्म का आधार भी यहीं है। हमेशा विज्ञान को आधार मानने वाले उल्टा सवाल करते है कि अध्यात्म से पेट भरता है? यहां उसका सही उत्तर मिल रहा है, इस प्रकृति में हमें भेजा है मुंह दिया है तो खाने का भी इंतजाम प्रकृति करती है पर आत्मा भूखी। और आत्मा का पेट अध्यात्मिक शिक्षा से भरता है। भारत में इसका खजाना है सबने इसका आस्वादन करना जरूरी है।

      हटाएं
  4. विजयजि जय हरि!आपने तो संत सहित्यापर बाहुत खुब्सुरत लिखा है.आपका दिल्से शुक्रिया!!!!!!!!!

    जवाब देंहटाएं
    उत्तर
    1. भाई 'विठ्ठल' जी आपका नाम लिखते वक्त भी मैं रोमांच महसूस कर रहा हूं कारण आपमें, आपके नाम में पांडुरंग, विठ्ठल का अंश है। आपका ऊपरी वाक्य मेरे लिए पंढरपुर का प्रसाद है और लग रहा है चंद्रभागा में डूबकी लगा कर निकल चुका हूं।

      हटाएं
  5. क्यों न ऐसे कर्मयोगी संतो के श्रीचरण में न्योछावर हो जाएँ……

    जवाब देंहटाएं
    उत्तर
    1. सुज्ञ जी सादर प्रणाम। चलो आपकी प्रतिक्रिया आ गई मैं धन्य हो गया। केवल लिखा हुआ पढ कर दोस्तों एवं पाठकों को पसंद आया असल में पंढरपूर के विठ्ठल की आत्मा से आपको हमको जुडने का मौका मिले तो कितना आनंद आएगा। संत तुकाराम ने ईश्वर प्राप्ति के आनंद का कथन किया है- 'आनंदाचे डोही आनंद तरंग।' अर्थात् ईश्वर का सहवास प्राप्त करना आनंद के सागर में आनंद के तरंग जैसा है।

      हटाएं
  6. ब्रजेश जी सूचना के लिए धन्यवाद।
    शायद इससे वारकरी एवं भक्ति का प्रवाह अधिक लोगों के पास पहुंचेगा। नामदेव से हिंदी भाषिक परिचित है पर अन्य वारकरियों का थोडा कम परिचय होगा। इससे शायद बूंद भर प्यास बूझेगी।

    जवाब देंहटाएं
  7. विजय जी आपको पढना काफी ज्ञानवर्धक रहा।।।
    काफी कुछ सीखने को मिला।।
    युहीं कर्म चलता रहे।।
    सादर
    आशा

    जवाब देंहटाएं
  8. वर्ण अशुद्धता के लिए खेद है ।।

    जवाब देंहटाएं
  9. आशा जी आपको आलेख पसंद आया धन्यवाद। आपने कर्म चलता रहने की बात कहीं है जरूर आपकी भावनाओं को न्याय देकर मेरा लेखन कर्म जारी रहेगा और वारकरी भक्ति कर्म की बात है तो वह हमारी परंपरा में रचा-बसा है।
    आपकी दोनों टिप्पणियां पढी, भाव मुझ तक पहुंचे। पर पहली टिप्पणी को पोस्ट करने के बाद व्याकरणिक शुद्धता हेतु दूसरी बार टिप्पणी लिखना आपकी भाषा के प्रति सजगता को दिखाता है। आपकी भाषा सजगता को सलाम।

    जवाब देंहटाएं
रचनाओं पर आपकी बेबाक समीक्षा व अमूल्य टिप्पणियों के लिए आपका हार्दिक धन्यवाद.

स्पैम टिप्पणियों (वायरस डाउनलोडर युक्त कड़ियों वाले) की रोकथाम हेतु टिप्पणियों का मॉडरेशन लागू है. अतः आपकी टिप्पणियों को यहाँ प्रकट होने में कुछ समय लग सकता है.

नाम

 आलेख ,1, कविता ,1, कहानी ,1, व्यंग्य ,1,14 सितम्बर,7,14 september,6,15 अगस्त,4,2 अक्टूबर अक्तूबर,1,अंजनी श्रीवास्तव,1,अंजली काजल,1,अंजली देशपांडे,1,अंबिकादत्त व्यास,1,अखिलेश कुमार भारती,1,अखिलेश सोनी,1,अग्रसेन,1,अजय अरूण,1,अजय वर्मा,1,अजित वडनेरकर,1,अजीत प्रियदर्शी,1,अजीत भारती,1,अनंत वडघणे,1,अनन्त आलोक,1,अनमोल विचार,1,अनामिका,3,अनामी शरण बबल,1,अनिमेष कुमार गुप्ता,1,अनिल कुमार पारा,1,अनिल जनविजय,1,अनुज कुमार आचार्य,5,अनुज कुमार आचार्य बैजनाथ,1,अनुज खरे,1,अनुपम मिश्र,1,अनूप शुक्ल,14,अपर्णा शर्मा,6,अभिमन्यु,1,अभिषेक ओझा,1,अभिषेक कुमार अम्बर,1,अभिषेक मिश्र,1,अमरपाल सिंह आयुष्कर,2,अमरलाल हिंगोराणी,1,अमित शर्मा,3,अमित शुक्ल,1,अमिय बिन्दु,1,अमृता प्रीतम,1,अरविन्द कुमार खेड़े,5,अरूण देव,1,अरूण माहेश्वरी,1,अर्चना चतुर्वेदी,1,अर्चना वर्मा,2,अर्जुन सिंह नेगी,1,अविनाश त्रिपाठी,1,अशोक गौतम,3,अशोक जैन पोरवाल,14,अशोक शुक्ल,1,अश्विनी कुमार आलोक,1,आई बी अरोड़ा,1,आकांक्षा यादव,1,आचार्य बलवन्त,1,आचार्य शिवपूजन सहाय,1,आजादी,3,आत्मकथा,1,आदित्य प्रचंडिया,1,आनंद टहलरामाणी,1,आनन्द किरण,3,आर. के. नारायण,1,आरकॉम,1,आरती,1,आरिफा एविस,5,आलेख,4288,आलोक कुमार,3,आलोक कुमार सातपुते,1,आवश्यक सूचना!,1,आशीष कुमार त्रिवेदी,5,आशीष श्रीवास्तव,1,आशुतोष,1,आशुतोष शुक्ल,1,इंदु संचेतना,1,इन्दिरा वासवाणी,1,इन्द्रमणि उपाध्याय,1,इन्द्रेश कुमार,1,इलाहाबाद,2,ई-बुक,374,ईबुक,231,ईश्वरचन्द्र,1,उपन्यास,269,उपासना,1,उपासना बेहार,5,उमाशंकर सिंह परमार,1,उमेश चन्द्र सिरसवारी,2,उमेशचन्द्र सिरसवारी,1,उषा छाबड़ा,1,उषा रानी,1,ऋतुराज सिंह कौल,1,ऋषभचरण जैन,1,एम. एम. चन्द्रा,17,एस. एम. चन्द्रा,2,कथासरित्सागर,1,कर्ण,1,कला जगत,113,कलावंती सिंह,1,कल्पना कुलश्रेष्ठ,11,कवि,2,कविता,3239,कहानी,2360,कहानी संग्रह,247,काजल कुमार,7,कान्हा,1,कामिनी कामायनी,5,कार्टून,7,काशीनाथ सिंह,2,किताबी कोना,7,किरन सिंह,1,किशोरी लाल गोस्वामी,1,कुंवर प्रेमिल,1,कुबेर,7,कुमार करन मस्ताना,1,कुसुमलता सिंह,1,कृश्न चन्दर,6,कृष्ण,3,कृष्ण कुमार यादव,1,कृष्ण खटवाणी,1,कृष्ण जन्माष्टमी,5,के. पी. सक्सेना,1,केदारनाथ सिंह,1,कैलाश मंडलोई,3,कैलाश वानखेड़े,1,कैशलेस,1,कैस जौनपुरी,3,क़ैस जौनपुरी,1,कौशल किशोर श्रीवास्तव,1,खिमन मूलाणी,1,गंगा प्रसाद श्रीवास्तव,1,गंगाप्रसाद शर्मा गुणशेखर,1,ग़ज़लें,550,गजानंद प्रसाद देवांगन,2,गजेन्द्र नामदेव,1,गणि राजेन्द्र विजय,1,गणेश चतुर्थी,1,गणेश सिंह,4,गांधी जयंती,1,गिरधारी राम,4,गीत,3,गीता दुबे,1,गीता सिंह,1,गुंजन शर्मा,1,गुडविन मसीह,2,गुनो सामताणी,1,गुरदयाल सिंह,1,गोरख प्रभाकर काकडे,1,गोवर्धन यादव,1,गोविन्द वल्लभ पंत,1,गोविन्द सेन,5,चंद्रकला त्रिपाठी,1,चंद्रलेखा,1,चतुष्पदी,1,चन्द्रकिशोर जायसवाल,1,चन्द्रकुमार जैन,6,चाँद पत्रिका,1,चिकित्सा शिविर,1,चुटकुला,71,ज़कीया ज़ुबैरी,1,जगदीप सिंह दाँगी,1,जयचन्द प्रजापति कक्कूजी,2,जयश्री जाजू,4,जयश्री राय,1,जया जादवानी,1,जवाहरलाल कौल,1,जसबीर चावला,1,जावेद अनीस,8,जीवंत प्रसारण,141,जीवनी,1,जीशान हैदर जैदी,1,जुगलबंदी,5,जुनैद अंसारी,1,जैक लंडन,1,ज्ञान चतुर्वेदी,2,ज्योति अग्रवाल,1,टेकचंद,1,ठाकुर प्रसाद सिंह,1,तकनीक,32,तक्षक,1,तनूजा चौधरी,1,तरुण भटनागर,1,तरूण कु सोनी तन्वीर,1,ताराशंकर बंद्योपाध्याय,1,तीर्थ चांदवाणी,1,तुलसीराम,1,तेजेन्द्र शर्मा,2,तेवर,1,तेवरी,8,त्रिलोचन,8,दामोदर दत्त दीक्षित,1,दिनेश बैस,6,दिलबाग सिंह विर्क,1,दिलीप भाटिया,1,दिविक रमेश,1,दीपक आचार्य,48,दुर्गाष्टमी,1,देवी नागरानी,20,देवेन्द्र कुमार मिश्रा,2,देवेन्द्र पाठक महरूम,1,दोहे,1,धर्मेन्द्र निर्मल,2,धर्मेन्द्र राजमंगल,1,नइमत गुलची,1,नजीर नज़ीर अकबराबादी,1,नन्दलाल भारती,2,नरेंद्र शुक्ल,2,नरेन्द्र कुमार आर्य,1,नरेन्द्र कोहली,2,नरेन्‍द्रकुमार मेहता,9,नलिनी मिश्र,1,नवदुर्गा,1,नवरात्रि,1,नागार्जुन,1,नाटक,152,नामवर सिंह,1,निबंध,3,नियम,1,निर्मल गुप्ता,2,नीतू सुदीप्ति ‘नित्या’,1,नीरज खरे,1,नीलम महेंद्र,1,नीला प्रसाद,1,पंकज प्रखर,4,पंकज मित्र,2,पंकज शुक्ला,1,पंकज सुबीर,3,परसाई,1,परसाईं,1,परिहास,4,पल्लव,1,पल्लवी त्रिवेदी,2,पवन तिवारी,2,पाक कला,23,पाठकीय,62,पालगुम्मि पद्मराजू,1,पुनर्वसु जोशी,9,पूजा उपाध्याय,2,पोपटी हीरानंदाणी,1,पौराणिक,1,प्रज्ञा,1,प्रताप सहगल,1,प्रतिभा,1,प्रतिभा सक्सेना,1,प्रदीप कुमार,1,प्रदीप कुमार दाश दीपक,1,प्रदीप कुमार साह,11,प्रदोष मिश्र,1,प्रभात दुबे,1,प्रभु चौधरी,2,प्रमिला भारती,1,प्रमोद कुमार तिवारी,1,प्रमोद भार्गव,2,प्रमोद यादव,14,प्रवीण कुमार झा,1,प्रांजल धर,1,प्राची,367,प्रियंवद,2,प्रियदर्शन,1,प्रेम कहानी,1,प्रेम दिवस,2,प्रेम मंगल,1,फिक्र तौंसवी,1,फ्लेनरी ऑक्नर,1,बंग महिला,1,बंसी खूबचंदाणी,1,बकर पुराण,1,बजरंग बिहारी तिवारी,1,बरसाने लाल चतुर्वेदी,1,बलबीर दत्त,1,बलराज सिंह सिद्धू,1,बलूची,1,बसंत त्रिपाठी,2,बातचीत,2,बाल उपन्यास,6,बाल कथा,356,बाल कलम,26,बाल दिवस,4,बालकथा,80,बालकृष्ण भट्ट,1,बालगीत,20,बृज मोहन,2,बृजेन्द्र श्रीवास्तव उत्कर्ष,1,बेढब बनारसी,1,बैचलर्स किचन,1,बॉब डिलेन,1,भरत त्रिवेदी,1,भागवत रावत,1,भारत कालरा,1,भारत भूषण अग्रवाल,1,भारत यायावर,2,भावना राय,1,भावना शुक्ल,5,भीष्म साहनी,1,भूतनाथ,1,भूपेन्द्र कुमार दवे,1,मंजरी शुक्ला,2,मंजीत ठाकुर,1,मंजूर एहतेशाम,1,मंतव्य,1,मथुरा प्रसाद नवीन,1,मदन सोनी,1,मधु त्रिवेदी,2,मधु संधु,1,मधुर नज्मी,1,मधुरा प्रसाद नवीन,1,मधुरिमा प्रसाद,1,मधुरेश,1,मनीष कुमार सिंह,4,मनोज कुमार,6,मनोज कुमार झा,5,मनोज कुमार पांडेय,1,मनोज कुमार श्रीवास्तव,2,मनोज दास,1,ममता सिंह,2,मयंक चतुर्वेदी,1,महापर्व छठ,1,महाभारत,2,महावीर प्रसाद द्विवेदी,1,महाशिवरात्रि,1,महेंद्र भटनागर,3,महेन्द्र देवांगन माटी,1,महेश कटारे,1,महेश कुमार गोंड हीवेट,2,महेश सिंह,2,महेश हीवेट,1,मानसून,1,मार्कण्डेय,1,मिलन चौरसिया मिलन,1,मिलान कुन्देरा,1,मिशेल फूको,8,मिश्रीमल जैन तरंगित,1,मीनू पामर,2,मुकेश वर्मा,1,मुक्तिबोध,1,मुर्दहिया,1,मृदुला गर्ग,1,मेराज फैज़ाबादी,1,मैक्सिम गोर्की,1,मैथिली शरण गुप्त,1,मोतीलाल जोतवाणी,1,मोहन कल्पना,1,मोहन वर्मा,1,यशवंत कोठारी,8,यशोधरा विरोदय,2,यात्रा संस्मरण,31,योग,3,योग दिवस,3,योगासन,2,योगेन्द्र प्रताप मौर्य,1,योगेश अग्रवाल,2,रक्षा बंधन,1,रच,1,रचना समय,72,रजनीश कांत,2,रत्ना राय,1,रमेश उपाध्याय,1,रमेश राज,26,रमेशराज,8,रवि रतलामी,2,रवींद्र नाथ ठाकुर,1,रवीन्द्र अग्निहोत्री,4,रवीन्द्र नाथ त्यागी,1,रवीन्द्र संगीत,1,रवीन्द्र सहाय वर्मा,1,रसोई,1,रांगेय राघव,1,राकेश अचल,3,राकेश दुबे,1,राकेश बिहारी,1,राकेश भ्रमर,5,राकेश मिश्र,2,राजकुमार कुम्भज,1,राजन कुमार,2,राजशेखर चौबे,6,राजीव रंजन उपाध्याय,11,राजेन्द्र कुमार,1,राजेन्द्र विजय,1,राजेश कुमार,1,राजेश गोसाईं,2,राजेश जोशी,1,राधा कृष्ण,1,राधाकृष्ण,1,राधेश्याम द्विवेदी,5,राम कृष्ण खुराना,6,राम शिव मूर्ति यादव,1,रामचंद्र शुक्ल,1,रामचन्द्र शुक्ल,1,रामचरन गुप्त,5,रामवृक्ष सिंह,10,रावण,1,राहुल कुमार,1,राहुल सिंह,1,रिंकी मिश्रा,1,रिचर्ड फाइनमेन,1,रिलायंस इन्फोकाम,1,रीटा शहाणी,1,रेंसमवेयर,1,रेणु कुमारी,1,रेवती रमण शर्मा,1,रोहित रुसिया,1,लक्ष्मी यादव,6,लक्ष्मीकांत मुकुल,2,लक्ष्मीकांत वैष्णव,1,लखमी खिलाणी,1,लघु कथा,288,लघुकथा,1340,लघुकथा लेखन पुरस्कार आयोजन,241,लतीफ घोंघी,1,ललित ग,1,ललित गर्ग,13,ललित निबंध,20,ललित साहू जख्मी,1,ललिता भाटिया,2,लाल पुष्प,1,लावण्या दीपक शाह,1,लीलाधर मंडलोई,1,लू सुन,1,लूट,1,लोक,1,लोककथा,378,लोकतंत्र का दर्द,1,लोकमित्र,1,लोकेन्द्र सिंह,3,विकास कुमार,1,विजय केसरी,1,विजय शिंदे,1,विज्ञान कथा,79,विद्यानंद कुमार,1,विनय भारत,1,विनीत कुमार,2,विनीता शुक्ला,3,विनोद कुमार दवे,4,विनोद तिवारी,1,विनोद मल्ल,1,विभा खरे,1,विमल चन्द्राकर,1,विमल सिंह,1,विरल पटेल,1,विविध,1,विविधा,1,विवेक प्रियदर्शी,1,विवेक रंजन श्रीवास्तव,5,विवेक सक्सेना,1,विवेकानंद,1,विवेकानन्द,1,विश्वंभर नाथ शर्मा कौशिक,2,विश्वनाथ प्रसाद तिवारी,1,विष्णु नागर,1,विष्णु प्रभाकर,1,वीणा भाटिया,15,वीरेन्द्र सरल,10,वेणीशंकर पटेल ब्रज,1,वेलेंटाइन,3,वेलेंटाइन डे,2,वैभव सिंह,1,व्यंग्य,2075,व्यंग्य के बहाने,2,व्यंग्य जुगलबंदी,17,व्यथित हृदय,2,शंकर पाटील,1,शगुन अग्रवाल,1,शबनम शर्मा,7,शब्द संधान,17,शम्भूनाथ,1,शरद कोकास,2,शशांक मिश्र भारती,8,शशिकांत सिंह,12,शहीद भगतसिंह,1,शामिख़ फ़राज़,1,शारदा नरेन्द्र मेहता,1,शालिनी तिवारी,8,शालिनी मुखरैया,6,शिक्षक दिवस,6,शिवकुमार कश्यप,1,शिवप्रसाद कमल,1,शिवरात्रि,1,शिवेन्‍द्र प्रताप त्रिपाठी,1,शीला नरेन्द्र त्रिवेदी,1,शुभम श्री,1,शुभ्रता मिश्रा,1,शेखर मलिक,1,शेषनाथ प्रसाद,1,शैलेन्द्र सरस्वती,3,शैलेश त्रिपाठी,2,शौचालय,1,श्याम गुप्त,3,श्याम सखा श्याम,1,श्याम सुशील,2,श्रीनाथ सिंह,6,श्रीमती तारा सिंह,2,श्रीमद्भगवद्गीता,1,श्रृंगी,1,श्वेता अरोड़ा,1,संजय दुबे,4,संजय सक्सेना,1,संजीव,1,संजीव ठाकुर,2,संद मदर टेरेसा,1,संदीप तोमर,1,संपादकीय,3,संस्मरण,730,संस्मरण लेखन पुरस्कार 2018,128,सच्चिदानंद हीरानंद वात्स्यायन,1,सतीश कुमार त्रिपाठी,2,सपना महेश,1,सपना मांगलिक,1,समीक्षा,847,सरिता पन्थी,1,सविता मिश्रा,1,साइबर अपराध,1,साइबर क्राइम,1,साक्षात्कार,21,सागर यादव जख्मी,1,सार्थक देवांगन,2,सालिम मियाँ,1,साहित्य समाचार,98,साहित्यम्,6,साहित्यिक गतिविधियाँ,216,साहित्यिक बगिया,1,सिंहासन बत्तीसी,1,सिद्धार्थ जगन्नाथ जोशी,1,सी.बी.श्रीवास्तव विदग्ध,1,सीताराम गुप्ता,1,सीताराम साहू,1,सीमा असीम सक्सेना,1,सीमा शाहजी,1,सुगन आहूजा,1,सुचिंता कुमारी,1,सुधा गुप्ता अमृता,1,सुधा गोयल नवीन,1,सुधेंदु पटेल,1,सुनीता काम्बोज,1,सुनील जाधव,1,सुभाष चंदर,1,सुभाष चन्द्र कुशवाहा,1,सुभाष नीरव,1,सुभाष लखोटिया,1,सुमन,1,सुमन गौड़,1,सुरभि बेहेरा,1,सुरेन्द्र चौधरी,1,सुरेन्द्र वर्मा,62,सुरेश चन्द्र,1,सुरेश चन्द्र दास,1,सुविचार,1,सुशांत सुप्रिय,4,सुशील कुमार शर्मा,24,सुशील यादव,6,सुशील शर्मा,16,सुषमा गुप्ता,20,सुषमा श्रीवास्तव,2,सूरज प्रकाश,1,सूर्य बाला,1,सूर्यकांत मिश्रा,14,सूर्यकुमार पांडेय,2,सेल्फी,1,सौमित्र,1,सौरभ मालवीय,4,स्नेहमयी चौधरी,1,स्वच्छ भारत,1,स्वतंत्रता दिवस,3,स्वराज सेनानी,1,हबीब तनवीर,1,हरि भटनागर,6,हरि हिमथाणी,1,हरिकांत जेठवाणी,1,हरिवंश राय बच्चन,1,हरिशंकर गजानंद प्रसाद देवांगन,4,हरिशंकर परसाई,23,हरीश कुमार,1,हरीश गोयल,1,हरीश नवल,1,हरीश भादानी,1,हरीश सम्यक,2,हरे प्रकाश उपाध्याय,1,हाइकु,5,हाइगा,1,हास-परिहास,38,हास्य,59,हास्य-व्यंग्य,78,हिंदी दिवस विशेष,9,हुस्न तबस्सुम 'निहाँ',1,biography,1,dohe,3,hindi divas,6,hindi sahitya,1,indian art,1,kavita,3,review,1,satire,1,shatak,3,tevari,3,undefined,1,
ltr
item
रचनाकार: विजय शिंदे का आलेख - निरक्षरता से... मुक्ति तक का अद्भुत सफर
विजय शिंदे का आलेख - निरक्षरता से... मुक्ति तक का अद्भुत सफर
http://lh3.ggpht.com/-9oLgifZxr2A/URtXQkhlBcI/AAAAAAAAT0A/KWFbOMMxLxE/image%25255B2%25255D.png?imgmax=800
http://lh3.ggpht.com/-9oLgifZxr2A/URtXQkhlBcI/AAAAAAAAT0A/KWFbOMMxLxE/s72-c/image%25255B2%25255D.png?imgmax=800
रचनाकार
https://www.rachanakar.org/2013/02/blog-post_707.html
https://www.rachanakar.org/
https://www.rachanakar.org/
https://www.rachanakar.org/2013/02/blog-post_707.html
true
15182217
UTF-8
Loaded All Posts Not found any posts VIEW ALL Readmore Reply Cancel reply Delete By Home PAGES POSTS View All RECOMMENDED FOR YOU LABEL ARCHIVE SEARCH ALL POSTS Not found any post match with your request Back Home Sunday Monday Tuesday Wednesday Thursday Friday Saturday Sun Mon Tue Wed Thu Fri Sat January February March April May June July August September October November December Jan Feb Mar Apr May Jun Jul Aug Sep Oct Nov Dec just now 1 minute ago $$1$$ minutes ago 1 hour ago $$1$$ hours ago Yesterday $$1$$ days ago $$1$$ weeks ago more than 5 weeks ago Followers Follow THIS PREMIUM CONTENT IS LOCKED STEP 1: Share to a social network STEP 2: Click the link on your social network Copy All Code Select All Code All codes were copied to your clipboard Can not copy the codes / texts, please press [CTRL]+[C] (or CMD+C with Mac) to copy Table of Content