पंखुरी सिन्हा की कहानी - जिस दिन दंगा नहीं हुआ

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पंखुरी सिन्‍हा जिस दिन दंगा नहीं हुआ यह एक दंगे की कहानी नहीं है। यह किसी एक दंगे की कहानी नहीं है। इस देश में तो कितने ही दंगे हुए और ह...

पंखुरी सिन्‍हा

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जिस दिन दंगा नहीं हुआ

यह एक दंगे की कहानी नहीं है। यह किसी एक दंगे की कहानी नहीं है। इस देश में तो कितने ही दंगे हुए और होते हैं। एक दुर्घटना होती है और हिंसा भड़कती है। किसी सोये हुए ज्‍वालामुखी की तरह लावा फूट पड़ता है। अशरफ़ अक्‍सर सोचता है कि उस दिन कोई दंगा क्‍यों नहीं हुआ? उन दिन किसी ने उसके पक्ष में हथियार तो क्‍या, आवाज़ तक नहीं उठायी। अशरफ़ अक्‍सर सोचता है कि उस दिन कफ़्‍र्यू क्‍यों नहीं लगा शहर में?

पहले उसके हाथ बाँधे गये नारियल की मोटी रस्‍सी से। फिर बाँधने वालों को लगा कि उतना काफ़ी नहीं था। कुछ लोगों ने बंधी हुई बाँहों को ज़ोर से पकड़ा और उसे घसीटते हुए आँगन में ले गये।

आँगन में तीन पड़े थे। दो घर बनने के पहले से थे। दोनों जंगली। एक पाकड़ का, और दूसरा एक अजीब से घुइंया जैसे घुमावदार फल का जिसे लोग जंगली जलेबी कहते थे। तीसरा पेड़ एलफेन्‍जो आम का था। उसकी कलम को अशरफ ने ख़ास तौर से बम्‍बई के इलाके से मँगाया था। सारे मोहसिनपुर में एक अकेला वही एलफेन्‍जो आम का पेड़ था। हालांकि मोहसिनपुर की गुजराती मिट्टी एलफेन्‍जों को रास नहीं आयी थी। उसमें वह स्‍वाद नहीं था, जो अपनी मिट्टी में उगने पर एलफेन्‍जों का होता है। फिर भी अशरफ़ को उसके फल बहुत प्‍यारे थे। खुद सींचकर उसने उस पेड़ को बड़ा किया था। वह बहुत जल्‍दी बड़ा भी हो गया था। आभा कहती थी, पाकड़ से भी दुगुने वेग से। उसके फल पककर पीले नहीं होते थे, ख़ूब गदराए हुए हरेपन की ही एक दूसरी आभा पा लेते थे और अशरफ को पता चल जाता था कि अब कौन सा फल तोड़ लेना है। और अशरफ़ से भी पहले पड़ोस के बच्‍चों को। और उनके भी दोस्‍तों को। और इस तरह आम चुराने वालों की एक अदृश्‍य कतार सी लगी रहती थी, सुबह के धुँधलके और शाम के झुटपुटे में।

अशरफ़ ने ही ईंट की चहारदीवारी न देकर, लकड़ी की फेंस से आँगन को घेरा था। घर का डिज़ाइन कुछ ऐसा था कि आँगन पिछवाड़े था। एक तरह से बैकयॉर्ड। लकड़ी उस फेन्‍स को अशरफ़ ने सफ़ेद रंग से रंगा था। वह ऊँची थी, पर इतनी नहीं कि फाँदी न जा सके। और बच्‍चे अक्‍सर ऐसा ही करते थे। बाँस के फट्ठे का सहारा लेकर कूद जाते थे। जपू से। और उसी फट्ठे से आम भी तोड़ ले जाते थे। एलफेन्‍जो बीजू की तरह टपकता नहीं था।

उसी आम के पेड़ से अशरफ़ को बाँधा गया। ‘बाँधो, कसकर बाँधो ऐसे नहीं मानेगा। साले, कलमी आम उगाने का ऐसा शौक है तो अपने शहर में जाकर उगा। हमारा ही शहर मिला था तुझे यह आलीशान मकान बनवाने के लिए! हमारी लड़की क्‍यों ब्‍याही थी?' वह एक हिन्‍दू आवाज़ थी।

मगर जब तक यह आवाज़ उभरी, हिन्‍दू कौम की लड़की जा चुकी थी। आभा ने आत्‍महत्‍या कर ली थी। जब हिन्‍दू मुसलमानों का मिला-जुला यह दंगाई दल जबरन घर में घुसा, इतवार की सुबह के 10 बज रहे थे। टेलीविजन चल रहा था, आभा नाश्‍ते के लिए उपमा बना रही थी। मई का महीना था, खिड़कियाँ खुली थीं, आँगन दरवाजा ख़ुला था। आभा अभी-अभी आँगन से करी पत्ते तोड़कर लायी थी। किचन से लगे ड्रॉइंग रूम में सरसों और करी पत्ते की छौंक की ख़ुशबू थी।

पहली निगाह में ही ज़ाहिर हो जाता था कि यह घर आभा और अशरफ़ ने बड़े शौक से बनवाया था। बाहर के दरवाज़े में तीन चौकोर शीशे थे। इनसे उचककर बाहर देखा जा सकता था। उस दिन जब घंटी बजी, तो अशरफ़ ने देखा कि जाने-अनजाने लोगों का सैलाब बाहर खड़ा है। जो कहते हैं कि भीड़ का कोई चेहरा नहीं होता, गलत कहते हैं। अशरफ़ ने दरवाज़े के बाहर असंख्‍य चेहरे देखे। कुछ परिचित भी और कुछ नितान्‍त अपरिचित। अशरफ़ इन चेहरों पर भयानक दरिन्‍दगी देखी। जैसे क्रोध का ज्‍वालामुखी फट पड़ा हो और खौलता हुआ लावा उनके शरीर पर से गुजर रहा हो। अशरफ़ ने उनकी आँखों में ख़ून देखा। और उससे भी ज़्‍यादा ख़तरनाक यह था कि अशरफ़ ने उनके हाथों में हथियार देखे। जो आदमी दरवाजे़ के ऐन सामने खड़ा था, उसके हाथ में एक कुल्‍हाड़ी थी। वह कुल्‍हाड़ी ऐसे उठाये हुए था, जैसे अगर यह दरवाज़ा नहीं खुला तो वह दरवाजे़ को फाड़ डालेगा। उसके पीछे और लोग थे और एक के हाथ में गँड़ासा था और के हाथ में हँसुआ। अगर दरवाज़ा नहीं खोला जाता तो या तो उसे काट या तोड़ दिया जाता।

अशरफ़ को लगा कि जहान में परवरदिगार के सारे फलसफे बेमतलब हो गये थे। जहन्‍नुम और जन्‍नत तक मिलकर एक हो गये। अशरफ़ को यह भी लगा कि उस पल से पहले परवरदिगार जैसी सर्वशक्‍तिमान हस्‍ती में उसका ऐसा यक़ीन रहा हो कि अपने जीवन के सबसे डरावने क्षण में वह उसे ऐसे याद को, इसका उसे खुद इल्‍म तक नहीं था। अशरफ़ को लगा कि दुनिया की सारी शैतानी ताक़त, सारे जालिम और जिन्‍नात उसके खिलाफ़ उसके दरवाज़े पर आ खड़े हुए थे। अशरफ़ ने दरवाज़ा ऐसे खोला जैसे वह वहाँ हो ही नहीं। जैसे उसे पहले से ही अगवा कर लिया गया हो। पीतल का नॉब घूमा और सबसे पहले कुल्‍हाड़ी वाला आमदी दाखिल हुआ। ‘सियावर रामचन्‍द्र की जय', अपनी कुल्‍हाड़ी को हवा में ऊपर उठाकर जोर से नारा लगाया। नारे के जोश में कुल्‍हाड़ी का लकड़ी के डंडे वाला हिस्‍सा उसके फड़कते हुए हाथ में कुछ ऐसे घूमा जैसे थोड़ी देर पहले अशरफ़ के लगभग सुन्‍न हो गए हाथ में दरवाज़े का नॉब घूमा था।

एक दूसरा आदमी, जिसे दो दिन पहले ही अशरफ़ ने चौक पर देखा था, आगे बढ़ आया। उसने अशरफ़ को ज़ोर का धक्‍का दिया और अशरफ़ मुँह के बल फ़र्श पर गिरा। उसके मुँह से चीख़ तक नहीं निकली।

चीख़ी आभा। दहशत से भरी आभा लगभग दौड़ती हुई ड्राइंग रूम में आयी और फिर वैसे ही उल्‍टे पाँव किचन की ओर वापस भागी। बदहवास, विक्षिप्‍त सी। किसी ने लपककर उसका हाथ पकड़ा। आभा के गले से रिरियाती हुई ऐसी आवाज़ निकली, जैसी शायद जिबह होते मेमने के गले से भी नहीं निकलती हो। उसने पलटकर देखा, वह आदमी जो उसे बुरी तरह खींचने की कोशिश कर रहा था, अक्‍सर उसे चौक पर दिखाई दे जाता था।

हिंस पशुता की जिस गति के साथ उसने आभा को पकड़ा था, आभा में भी दहशत ने कुछ वैसी ही गति भर दी थी। अविश्‍वसनीय तेज़ झटके से आभा ने अपना हाथ छुड़ाया और दूसरे हाथ से किचन का सबसे बड़ा चाकू उठाया। अगले ही पल चाकू आभा के पेट में उतर चुका था। ख़ून का फब्‍बारा छूट पड़ा। कुछ छींटे उस आदमी के चेहरे पर भी पड़े। हड़बड़ाकर वह लड़खड़ाता हुआ पीछे को हटा, ‘साली... जानी दे दी...।'

आभा के पैर ज़रा से काँपे, उसने अपनी कुहनियोंका सहारा लिया और फिर वह ज़मीन पर ढेर हो गयी। खुद को चाकू उसने भय के भयानक शिकंजे में आकार मारा था, और पूरी ताक़त से मारा था, लेकिन तत्‍क्षण ज़्‍यादा कुछ जान नहीं पायी थी। ख़ून इस तरह बह रहा था कि आभा के तड़पने के भी निशान दिखायी नहीं दे रहे थे।

गिरता-पड़ता अशरफ़ जब उसके पास पहुँचा तो उसके लिए यह पता लगाना मुश्‍किल था कि वह ज़िन्‍दा थी या मुर्दा। ‘डॉक्‍टर'... बेमानी सी महसूस होती एक ध्‍वनि उसके मुँह से निकली और वह कहीं घुटने टेककर बैठ गया। ‘या अल्‍लाह, या खुदा', कहता हुआ अशरफ़ आभा के करीब जाने को हुआ कि भीड़ में किसी ने उसे दबोचा, और फिर सब मिलकर उसे घसीटकर आभा से दूर, आँगन में ले गये।

पेड़ से बँधने पर अशरफ़ को मालूम हुआ कि पेड़ की छाल कितनी रुखड़ी होती है। यह वही पेड़ था जिसकी टहनी जैसी रेशमी कलम अशरफ़ मिट्टी के एक थल्‍ले में बाँधकर अपनी गोद में लाया था। अशरफ़ की देख-रेख में वह पेड़ जवान होकर फला था। अब उसकी खाल एक वयस्‍क पेड़ खाल थी। जैसी कि होनी चाहिए थी। आज इन सब लोगों का फरमान था कि उस पेड़ का वहाँ होना, और अशरफ़ का वहाँ होना, दोनों गुनाह थे।

उससे भी ज़्‍यादा बड़ा गुनाह था, आभा और अशरफ़ के घर का वहाँ होना। बल्‍कि आभा और अशरफ़ का वहाँ होना एक गुनाह था या निकाह। पहले तो ब्‍याह था या निकाह, इस पर विवाद था। वह निकाह था, इसे शहर के मुसलमान नहीं कुबूलते थे। वह ब्‍याह था इसे शहर के हिन्‍दू नहीं मानते थे।

अशरफ़ और आभा ने बग़ैर धर्म बदले कोर्ट मैरेज किया था। दोनों के ही घरवालों को घनघोर आपत्ति थी। आपत्ति क्‍या थी, आभा के हिन्‍दू परिवार ने और अशरफ़ के मुसलमान परिवार ने, दोनों को भुला देने की क़सम खा ली थी। उत्तर प्रदेश का अपना पुश्‍तैनी शहर छोड़कर दोनों ने गुजराती समुद्र तट पर बसे इस शहर में बसेरा बनाया था। अशरफ़ को यहाँ के पी.डब्‍लू.डी. के दफ़्‍तर में एक नौकरी मिल गयी थी और फिर घर-बार का सिलसिला शुरू हो गया था, पुरसुकून, ऐसा आभा और अशरफ़ को लगा था।

ज़्‍यादा दिन नहीं हुए थे, बस दो साल। इन दो सालों में ही दोनों समझ गए थे कि वे शहर में एक कुख्‍यात जोड़े के रूप में मशहूर हो गये हैं। दरअसल उनकी जोड़ी शहर वालों को कभी मंजूर थी ही नहीं।

‘साले, मुसलमान होकर, अपनी बीवी से तीज़ का व्रत रखवाता है? हरामजादे...।' यह फिर एक हिन्‍दू था, जिसका जबरदस्‍त घूंसा अशरफ़ के चेहरे पर लगा था।

अशरफ़ के मुँह से, होठों के किनारों से, ख़ून वह रहा था। मार खाते-खाते वह अधमरा हो चुका था। ‘साले!' एक और लात उसके पेट पर पड़ी। वह दर्द से दोहरा हो रहा था।

‘एक ही घर में तीज़ का व्रत और रोजा भी? साले, मज़ाक है क्‍या? धर्म को मज़ाक बना रखा है?'

आभा के तीज़ का व्रत रखने के करीब महीने भर पहले अशरफ़ ने रोजा रखा था। हर सुबह जब वह सहरी के लिए उठता था, उसे नयी-नयी चीजें़ खाने के लिए रखी हुई मिलती थीं।

रस्‍सी से बंधी अशरफ़ की कलाइयाँ दर्द से टूट रही थीं। एक तो कलाइयाँ बंधी थीं, दूसरे मूंज की उसी रस्‍सी को उसके जिस्‍म के चारों ओर लपेटकर, पेड़ से उसे कसकर बाँध दिया गया था। उसके छिलते हुए हाथों से ख़ून रिसने लगा था। लात और घूसे की बौछार थी कि रुकने का नाम नहीं ले रही थी। ‘छोड़ दो साले को, मर जायेगा तो दो मौतें हमारे मत्‍थे चढेंगी। बीवी तो पहले की खुदकुशी कर चुकी है।'

और फिर लहूलुकान अशरफ़ को पेड़ से वहीं बंधा छोड़कर, दंगाई वापस घर में घुसे और एक-एक करके सारा सामान उठाकर ले गये। बड़े प्‍यार से बनवाया हुआ फर्नीचर, काँच के टेबल और वे तमाम चीजें जो आभा को बहुत पसन्‍द थीं। आभा को काँच बहुत पसन्‍द था। डाइंनिग टेबल काँच का, काँच की टी.बी. ट्रॉली, हर जगह काँच। और काँच की तरह ही एक दिन अचानक उसकी दुनिया चकनाचूर हो गयी।

दो दिन पहले तीज़ का त्‍यौहार था। और बड़े शौक़ से, बड़े चाब से आभा ने उसे सेलीब्रेट किया था। चन्‍देरी प्रिन्‍ट की एक नयी पीली साड़ी, ढेर सारी लाल लहठी और कुछ गहने, जो अशरफ़ ने शादी के बाद बड़े शौक से उसके लिए ख़रीदे थे उसने पहने थे। वह किसी गुड़िया जैसे ख़ूबसूरत लग रही थी। अशरफ़ ने उसकी ढेर सारी तस्‍वीरें खींची थीं। वे तस्‍वीरें अभी तक साफ़ भी नहीं हो पायी थीं। बलवाई कैमरा भी ले गये थे।

यह तो बाद में सुना गया था कि सामानों की बोली लगायी गयी थी। किसके हिस्‍से क्‍या आयेगा इसको लेकर जब दंगाइयों के बीच आपस में ही दंगा होने की नौबत आ गयी थी तो किसी तरह यह तय हुआ कि सामानों को नीलाम किया जाए। कम कीमत पर। जो उसे खरीद सके, सामान उसका, और रकम दंगाइयों की बखीश। गेहुं रंग के दर का सोफा, इतना प्‍यार और इतना बेशकीमती दिखता था कि वह हर किसी को चाहिए था। उस सोफे पर पसर कर कितने ही फिल्‍में देखी थीं आभा और अशरफ़ ने। जाने वह टेलीविजन किसके पास गया! इतने प्‍यार से जोड़ी गयी हर चीज़ पर जैसे बम गिरा दिया गया। तश्‍तरियाँ तक आभा ने कितनी पसन्‍द से चुनीं और सजायी थी। चमचमाता रहता था हर वक़्‍त आभा का किचन जो एक झटके में आभा के लहू से रंगा था। पर हर चीज़ का ठीक-ठीक एहसास बाद में हुआ। उस वक़्‍त तो था सिर्फ दर्द और चुभन और ख़ामोश चीख़ और आँखों के आगे अंधेरा। शाम ढले किसी पड़ोसी ने आकर अशरफ़ की रस्‍सियाँ खोली। आधी बेहोशी की हालत में वह आँगन से घर में दाखिल हुआ और आभा की लाश और उसका अन्‍तिम संस्‍कार, सब कुछ एक ऐसी जल्‍दबाजी और नीम बेहोशी में हुआ कि अशरफ़ के जेहन में यादों की जगह बस एक डरावना और ख़ून आलूदा धुंधलका सा बचा है।

इतना भर याद है कि उसने आभा को दफ़नाया। कब्रगाह में एक बहुत साधारण मजार बना सका। जब आभा की कब्र पर पहली मिट्टी डाली, अशरफ़ को लगा कि उसके पाँव तले से ज़मीन सरक गयी। और फिर जो वह शहर से निकला तो भागता रहा, इधर से उधर भटकता हुआ, कराह भी न सकने की एक अजीब सी लाचारी में और आिख़र थक-हारकर उसने न्‍यूजीलैंड में पनाह ली। न्‍यूजीलैंड में मामूजान का अपना कारोबार था। साड़ियों और ड्रेस मटीरियल की एक दुकान थी। अशरफ़ ने उस दुकान पर काम शुरू कर दिया। हर सुबह वह मामूजान के साथ दुकान पर जाकर बैठता। जैसा मामूजान कहते, वह करता। कभी-कभी ग्राहकों को साड़ी और सूट के कपड़े भी दिखा देता कुछ पूछने पर बोलता। बल्‍कि पूछने पर ही बोलता।

अशरफ़ की आवाज़, गप्‍पें लड़ाने की उसकी आदत, हँसी-ठहाके, कहकहे सब जैसे कहीं गुम हो गये। पीछे जाने किस मुकाम पर छूट गये। आभा के साथ दफ़न हो गये। उसे भूख नहीं लगती थी, उसे प्‍यास नहीं लगती थी, उसके आँसू सूख गए थे, उसकी ज़िन्‍दगी थम गयी थी। रातों को नींद नहीं आती थी। आता एक सपना। वह बार बार देखता कि आभा ने खुद को चाकू मार लिया है। वह उसे धीरे-धीरे लहूलुहान होकर फ़र्श पर गिरते हुए देखता। वह उसे चाकू मार लेने से पहले देखता और फिर चाकू मार लेने के बाद मरते हुए देखता। इस दृश्‍य को वह इतनी बार देखता कि उसका दम घुटने लगता और एक बदहवासी उस पर छा जाती। धीरे-धीरे उसके लए नींद बेहद डरावनी सी चीज़ हो गयी। रात डरावनी हो गयी। इस सपने के खौफ़ कि आँख लगते ही यह सपना फिर आ जायेगा, उसे हरदम सताने लगा। दिन में रात का खौफ सताने लगा। जब रात, और रात में नींद और नींद में वह सपना सब इतने विकराल हो गये कि अशरफ़ की बर्दाश्‍त नाकाफ़ी हो गयी तो उसने पास पड़ा येलो पेजेज उठाया और किसी ‘साइकिएट्रिस्‍ट को ढूँढना शुरू किया। वह एक महिला मनोचिकित्‍सक को ढूँढ रहा था, जो यह भी समझा सके कि अपने आिख़री क्षणों में आभा ने क्‍या महसूस किया होगा?

अशरफ़ ढूँढ रहा था कोई नाम, सूदिंग सा। जिससे कुछ कहा जा सके, इस आशा के साथ समझा जायेगा। उन क्षणों को। जो दरिन्‍दगी उन क्षणों में हुई। बल्‍कि घंटों में। अशरफ़ तो घायल घंटो तक पेड़ से बँधा रहा। उसकी आँखां के सामने आभा छटपटाकर मर गयी और वह कुछ नहीं कर सका। कोई तो हो जो यह याद दिलाने में उसकी मदद कर सके कि क्‍या उन घंटों में उसका दिमाग बिल्‍कुल शून्‍य रहा? वह मर क्‍यों नहीं गया? क्‍यों वे पल बार-बार उसके सपने में आकर उसे डराते हैं, उसे जलाते हैं? जेहन में कील की तरह चुभता है एक-एक लम्‍हा। और फिर वही नींद से जागना, हाफते हुए जागना कि जैसे वह भागता रहा हो, और पसीना और पानी का एक ग्‍लास!

सारी कहानी वह एक साँस में सुना गया। एमी एशराइट की सुनहली स्‍लेटी आँखें जैसे कोटरों से बाहर निकल आयीं।

‘व्‍हाट?'

और उसका पहला वाक़्‍य वह था जिसके लिए किसी साइकिएट्रिक टे्रनिंग की जरूरत नहीं थी और जिसे अशरफ़ भी लगातार जानता और महसूस करता आया था। ‘अशरफ, तुम्‍हें एक साइकिएट्रिस्‍ट की नहीं, कानून की जरूरत है।'

और अशरफ़ मुस्‍कुराया। दिनों-हफ़्‍तों बाद। अशरफ़ मुस्‍कुराया कि जैसे साँस ली। पर बस उतना ही भर। इस बात को तो अशरफ़ दरवाज़ा खोलने से पहले, खोलते वक़्‍त और रस्‍सी से खुलते वक़्‍त भी जानता था कि उसे कानून की जरूरत है।

एमी और अशरफ़ दोनों जानते थे कि अशरफ़ को कानून की मदद की जरूरत नहीं थी, कानून को आगे आना चाहिए था, जब बलवाई आ गये थे।

‘मेरे पास किसी तरह का सबूत नहीं है।'

अशरफ़ बोलता जा रहा था। बोलते-बोलते उसका गला सूख गया।

‘हिअर, हैव ए ग्‍लास ऑफ वाटर', एमी ने उठकर अशरफ़ के लिए पानी ढाला। लकड़ी के फर्श पर उसके हील की आवाज़ अशरफ़ के अन्‍दर और बाहर हॉल में दूर तक खटखटाती हुई गूंज गयी। वही एक वयोवृद्ध महिला थी और शायद नर्मदिल। अशरफ़ को उसके निकट आने पर एक शॉल की गुनगुनी गरमाहट का सा आभास होता था।

सपनों की जो एक पीली-पनीली दुनिया थी जिसमें वही चेहरे बार-बार प्रकट हो जाते थे, और आभा बार-बार मरती थी। उस सपने के कभी भी आ जाने का खौफ, अशरफ़ कह पाता था एमी से। आँखे बन्‍द करने का खौफ। एमी के ऑफिस में, आँखें बन्‍द कर, एक आराम कुर्सी पर लुढ़क कर जैसे उस सपने को अपने भीतर से निकाल फेंकने की कोशिश, सेशन दर सेशन, अशरफ़ करता रहा।

‘सूबूत के नाम पर सिर्फ़ आभा की कब्र है मेरे पास। मैं एक बार उस कब्र को फिर से देखना चाहता हूँ। लेकिन उस शहर में लौट नहीं पाता। हिम्‍मत नहीं होती। किस मुँह से उसकी कब्र पर जाऊँ। सोचता हूँ उस शहर में तभी लौटूंगा, जब मुकदमा कर पाऊँ। अभी तो मेरे तसव्‍वुर में उस शहर के ऊपर चील कौवे मँडराते हैं, उल्‍लू बोलते हैं।'

और घबराकर अशरफ़ ने आँखें खोल दीं। पहले जब वह यूँ घबराकर आँखे खोलता था, एमी उसका हाथ थाम लेती थी। लेकिन अब धीरे-धीरे वह बगै़र उसका हाथ थामे उसे थामने की, बल्‍कि उसे खुद ही खुद को थाम लेने की कुव्‍वत दे रही थी। अशरफ़ ने आँखें खोलीं और एमी का शान्‍त चेहरा सामने पाया।

शाम के छह बज रहे थे। एमी के ऑफिस के ज़्‍यादातर लोग जा चुके थे। या शायद सब खिड़की से बाहर बर्फ गिर रही थी। अशरफ़ के कह चुकने के बाद और एमी के लगातार सुनने में एक ख़ामोश झरने की सी बमुश्‍किल कमरे में भर गयी थी। ऐसे एक नहीं, अनेक बार हुआ था। उस प्रवाह की कलकल में अशरफ़ ने जैसे देखा था कि आभा की कब्र के इर्द-गिर्द हरी घास उग आयी है। कभी उसने देखा था कि आभा की कब्र पर वह ढेर सारे फूल डाल आया है। और फिर उसने देखा कि फूल डालकर वह लौट आया है। और रंग और शब्‍द के इस प्रवाह के बीच अशरफ़ को यह उम्‍मीद बंधी कि एक दिन वह सचमुच दंगे और हत्‍या के उस शहर में वापस लौटेगा और कानून के दरवाज़े खटखटायेगा और वे दरवाज़े उसके लिए खुलेंगे। इस उम्‍मीद से उनकी ज़िन्‍दगी में दिन में रात का डर कम हो गया। रात में उस डरावने सपने के कभी भी आ जाने का डर का हो गया। अशरफ़ अब हर सुबह इस उम्‍मीद के साथ जागने लगा कि एक दिन वह उस शहर में लौटेगा जहाँ ज़िन्‍दगी बसर करने के इरादे से आभा और अशरफ़ आये थे। इसी उम्‍मीद में वह ऑस्‍ट्रेलिया के कुछ शहर भी खुली आँखों ओर लगभग खाली दिमाग से घूम आया। अब जब वह ग्राहकों को कपड़े दिखाता, तो उसकी अपनी भी एक पसन्‍द होती। कभी-कभी वह बिना पूछे भी कुछ कह देता ओर उम्‍मीद के इसी हल्‍के से उजाले में एक दिन मामीजान की भतीजी शगुफ्‍ता के साथ उसका निकाह हो गया। और उसके भीतर वह उम्‍मीद परवान चढ़ती रही कि वह एक दिन लौटेगा, उस शहर में, जहाँ आभा का हाथ पकड़कर वह दाखिल हुआ था, जहाँ वहशत और नफरत की आग बेवजह उसका सब कुछ लील गयी थी और जहाँ आभी की कब्र है

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  ए-204, प्रकृति अपार्टमेंट्‌स,
प्‍लॉट नं. 26, सेक्‍टर-6, द्वाराका,

नई दिल्‍ली-110075

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  1. भाई शाहबेग सिंह लाहौर के कोतवाल थे. आप अरबी और फारसी के बड़े विद्वान थे और अपनी योग्यता और कार्य कुशलता के कारण हिन्दू होते हुए भी सूबे के परम विश्वासपात्र थे. मुसलमानों के खादिम होते हुए भी हिन्दू और सिख उनका बड़ा सामान करते थे. उन्हें भी अपने वैदिक धर्म से अत्यंत प्रेम था और यही कारण था की कुछ कट्टर मुस्लमान उनसे मन ही मन द्वेष करते थे. शाहबेग सिंह का एकमात्र पुत्र था शाहबाज सिंह. आप १५-१६ वर्ष के करीब होगे और मौलवी से फारसी पढने जाया करते थे. वह मौलवी प्रतिदिन आदत के मुताबिक इस्लाम की प्रशंसा करता और हिन्दू धर्म को इस्लाम से नीचा बताता. आखिर धर्म प्रेमी शाहबाज सिंह कब तक उसकी सुनता और एक दिन मौलवी से भिड़ पड़ा. पर उसने यह न सोचा था की इस्लामी शासन में ऐसा करने का क्या परिणाम होगा.

    मौलवी शहर के काजियों के पास पहुंचा और उनके कान भर के शाहबाज सिंह पर इस्लाम की निंदा का आरोप घोषित करवा दिया.पिता के साथ साथ पुत्र को भी बंदी बना कर काजी के सामने पेश किया गया. काजियों ने धर्मान्धता में आकर घोषणा कर दी की या तो इस्लाम काबुल कर ले अथवा मरने के लिए तैयार हो जाये.जिसने भी सुना दंग रह गया. शाहबेग जैसे सर्वप्रिय कोतवाल के लिए यह दंड और वह भी उसके पुत्र के अपराध के नाम पर. सभी के नेत्रों से अश्रुधारा का प्रवाह होने लगा पर शाहबेग सिंह हँस रहे थे. अपने पुत्र शाहबाज सिंह को बोले “कितने सोभाग्यशाली हैं हम, इसकी हम कल्पना भी नहीं कर सकते थे की मुसलमानों की नौकरी में रहते हुए हमें धर्म की बलिवेदी पर बलिदान होने का अवसर मिल सकेगा किन्तु प्रभु की महिमा अपार हैं, वह जिसे गौरव देना चाहे उसे कौन रोक सकता हैं. डर तो नहीं जाओगे बेटा?” नहीं नहीं पिता जी! पुत्र ने उत्तर दिया- “आपका पुत्र होकर में मौत से डर सकता हूँ? कभी नहीं. देखना तो सही मैं किस प्रकार हँसते हुए मौत को गले लगता हूँ.”

    पिता की आँखे चमक उठी. “मुझे तुमसे ऐसी ही आशा थी बेटा!” पिता ने पुत्र को अपनी छाती से लगा लिया.

    दोनों को इस्लाम काबुल न करते देख अलग अलग कोठरियों में भेज दिया गया.

    मुस्लमान शासक कभी पिता के पास जाते , कभी पुत्र के पास जाते और उन्हें मुसलमान बनने का प्रोत्साहन देते. परन्तु दोनों को उत्तर होता की मुसलमान बनने के बजाय मर जाना कहीं ज्यादा बेहतर हैं.

    एक मौलवी दाढ़ी पर हाथ फेरते हुए पुत्र से बोला “बच्चे तेरा बाप तो सठिया गया हैं, न जाने उसकी अक्ल को क्या हो गया हैं. मानता ही नहीं? लेकिन तू तो समझदार दीखता हैं. अपना यह सोने जैसा जिस्म क्यों बर्बाद करने पर तुला हुआ हैं. यह मेरी समझ में नहीं आता.”

    शाहबाज सिंह ने कहाँ “वह जिस्म कितने दिन का साथी हैं मौलवी साहिब! आखिर एक दिन तो जाना ही हैं इसे, फिर इससे प्रेम क्यूँ ही किया जाये. जाने दीजिये इसे, धर्म के लिए जाने का अवसर फिर शायद जीवन में इसे न मिल सके.”

    मौलवी अपना सा मुँह लेकर चला गया पर उसके सारे प्रयास विफल हुएँ.

    दोनों पिता और पुत्र को को चरखे से बाँध कर चरखा चला दिया गया. दोनों की हड्डियां एक एक कर टूटने लगी , शरीर की खाल कई स्थानों से फट गई पर दोनों ने इस्लाम स्वीकार नहीं किया और हँसते हँसते मौत को गले से लगा लिया.अपने धर्म की रक्षा के लिए न जाने ऐसे कितने वीरों ने अपने प्राण इतिहास के रक्त रंजित पन्नों में दर्ज करवाएँ हैं. आज उनका हम स्मरण करके ,उनकी महानता से कुछ सिखकर ही उनके ऋण से आर्य जाति मुक्त हो सकती हैं.

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  2. क्या यह सच्ची घटना है? जो भी हो, आपकी कहानी उम्दा है. प्रस्तुतीकरण भी. बातों कि जटिलता, धर्मान्धता, कट्टरता पर एक शानदार प्रहार। टिपण्णी कि जगह पोस्ट करने के लिए धन्यवाद्।

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  3. क्या यह सच्ची घटना है? जो भी हो, आपकी कहानी उम्दा है. प्रस्तुतीकरण भी. बातों की जटिलता पर प्रकाश डालते, धर्मान्धता, कट्टरता पर एक शानदार प्रहार। टिपण्णी की जगह पोस्ट करने के लिए धन्यवाद्।

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रचनाकार: पंखुरी सिन्हा की कहानी - जिस दिन दंगा नहीं हुआ
पंखुरी सिन्हा की कहानी - जिस दिन दंगा नहीं हुआ
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