संवेदना दुग्गल का आलेख - स्‍त्री-पुरुष संबंध यानी विश्‍वास-अविश्‍वास का खेल!

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दूसरी दुनियाः स्‍त्री-पुरुष संबंध यानी विश्‍वास-अविश्‍वास का खेल! स्‍त्री-पुरुष संबंध एक ऐसा सत्‍य है जिसे सत्‍य मानो तो झूठ लगता है। झूठ म...

दूसरी दुनियाः

स्‍त्री-पुरुष संबंध यानी विश्‍वास-अविश्‍वास का खेल!

स्‍त्री-पुरुष संबंध एक ऐसा सत्‍य है जिसे सत्‍य मानो तो झूठ लगता है। झूठ मानो तो सत्‍य। पूरा संबंध ही विरोधाभासों से भरा हुआ है। पति-पत्‍नी हों या प्रेमी-पे्रमिका, सिर्फ दोस्‍त हों या ब्‍यायफ्रेंड-गर्ल-फ्रेंड, मां-बेटा, भाई-बहन हों या बाप-बेटी, किसी भी सामाजिक-पारिवारिक संबंधों में बंधे हुए हों हम, हमारा हर संबंध शक और संदेहों से घिरा हुआ है। परस्‍पर अविश्‍वास की बुनियाद पर खड़ा हुआ है। उड़ीसा के जगन्‍नाथ पुरी में थी उस वक्‍त। टूरिस्‍ट बस में कुछ खास जगहों की यात्रा करनी थी--चिल्‍का झील, भुवनेश्‍वर, कोणार्क वगैरह। बस में एक गाइड भी चल रहा था जो टूटी-फूटी काम चलाऊ अंग्रेजी में हमें रास्‍ते के गांवों, कस्‍बों, स्‍थानों की सूचना देता हुआ वहां की खासियतें बताता चल रहा था।

रास्‍ते के गांवों के बारे में बताया--यहां गरीबी-भुखमरी हमेशा फैली रहती है। लोगों पर काम-धंधा नहीं है। औरतों के दलाल अक्‍सर यहां चक्‍कर लगाते रहते हैं। मां-बाप अपने बच्‍चों को बेचते रहते हैं। जैसा गाहक पट जाए। एक मुश्‍त रकम के बदले या बंधुआ मजदूरी-नौकरी के लिए। यहां मूड़ी के साथ चाय बहुत अच्‍छी मिलती है, अगर आप लोग चाहें तो बस रोकी जा सकती है। सबने हामी भर ली। बस की ज्‍यादातर सवारियां तो मूड़ी-चाय खाने-पीने में जुट गईं। मैं गाइड के साथ उस गांव में भीतर निकल गई। ज्‍यादातर औरतों के पास मैली-कुचैली मात्र एक धोती थी जिसे वह किसी तरह बदन को ढकने के लिए लपेटे थी फिर भी हडि्‌डयों का ढांचा नुमा उनका बदन बाहर झलक रहा था।रंग पक्‍का सांवला। आदिवासी जातियों का गांव। घर नहीं कहे जा सकते थे वे। फूसों को बांस से साध कर छा लिया गया था। झोंपड़ी में कुछ टूटे-फूटे घड़ों के खपरे थे। कोने में चूल्‍हा। चूल्‍हे पर वही खपरे नुमा बर्तन रख कर कुछ पका लिया जाता था। भाषा समझ से परे थी। उनकी बातों का मतलब गाइड ही बताता चलता था। वहां से लड़के को नौकर रखने के लिए आसानी से लिया जा सकता था। लड़की को भी। मैंने पूछा--अगर कोई व्‍यक्‍ति लड़की को खरीद ले जाए और नौकर रखने की बजाय धंधे में डाल दे तो? उस लड़की की मां ने कहा--यहां से ले जा कर वह कुछ भी करे। हमें पीसा दे जाए! बच्‍चों, लड़के-लड़कियों को नौकरी पर रखवाने के लिए या देह के धंधे के लिए, खुद मां-बाप या सगे सबंधी सौदा करते मिले। मन बेहद विचलित हुआ। देश में यह क्‍या हो रहा है? संबंधों का क्‍या कोई मतलब गरीबी में नहीं रह गया? भुखमरी इतनी दारुण अवस्‍था है कि किसी तरह का संबंध यहां झूठा दिखाई देता है? सारे संबंध एक तरह से बेमानी प्रतीत होते हैं।

कचल्‍का झील समुद्र का एक घिरा हुआ विशाल जलागार था जिसमें जैव विविधता बहुत थी। विज्ञान की प्रयोगशालाओं को म्‍यूजियम के लिए जीव-जन्‍तुओं की सप्‍लाई करने वाले व्‍यापारी वहां अक्‍सर आते रहते थे। जीव-जन्‍तुओं को ओने-पोने में खरीद ले जाते और दूर-दराज के शहरों में स्‍कूल-कालेजों की प्रयोगशालाओं को मन माने दामों पर बेचा करते हैें। एक व्‍यापारी ने बताया, जानवरों की कीमत पर यहां लड़के-लडकियां भी खूब मिलते हैें मेडम। जैसी चाहें वैसी लड़की। जैसा चाहें वैसा लड़का। ले जा कर उन्‍हें अपनी भाषा काम चलाने के लिए सिखा लें फिर चाहे जो सलूक करें, नौकर रखें या उनके अंग निकाल कर बेच लें। गुर्दे, लीवर, पेन्‍क्रियाज, आंख की पुतली, कुछ भी निकाल कर बेच लेते हैं लोग! ये बेचारे न वापस भागते हैं, न यहां आ सकते हैं। न कुछ जानते-समझते हैं।

सारे टूर में बेहद उदास रही। यह कहों आ गई मैं! अजब रूप है यह जिंदगी का। हालात न हमें हसंने देते हैं, न रोने। हर तरह के संबंधों पर से विश्‍वास उठ जाता है। गाइड ने एक जगह बताया--टूरिस्‍ट लोग यहां से जवान लड़कियां ले जाते हैं। जितने दिन इस क्षेत्र में घूमते हैं, अपने संग रखते हैं। होटलों में अच्‍छा खिलाते-पिलाते हैं और उनके साथ . . .! पता नहीं किस शायर का श्‍ोर याद आता रहा--दिल में मोहब्‍बत की दहकती आग रखना/ जमीर लेकिन अपना बेदाग रखना! मैं न होऊं तो मुहब्‍बत की बसर रखना/तुम न हो तो बेवफाइयों की गुजर रखना! ळम अपने घरों-परिवारों में, सीरियलों-फिल्‍मों में कितनी झूठी जिंदगी देखते और जीते हैं। जिंदगी की सच्‍चाइयां तो इस देश में हर कहीें बिखरी हुई टूटे कांचों की किरचों की तरह हमारी आंखों में चुभती-गड़ती है। स्‍त्री-पुरुष संबंधों का काला रूप हमें देश में घूमने पर पता नहीं कहां-कहां देखने को मिलता है।

मराठी के प्रसिद्ध नाटककार विजय तेंदुलकर का एक नाटक है--कमला। उस नाटक पर हिन्‍दी में फिल्‍म भी बनी थी। शबाना आजमी और दीप्‍ति नवल थीं उस फिल्‍म में। दीप्‍ति नवल को एक पत्रकार धौलपुर के एक गांव में लगने वाले लड़कियों के बाजार से खरीद कर दिल्‍ली लाया था--नाम था कमला। दीप्‍ति नवल कमला बनी थी। पत्रकार की पत्‍नी शबाना आजमी से दीप्‍ति नवल पूछती है--तुम्‍हें इस आदमी ने कितने पैसे में खरीदा है? शबाना आजमी हड़क जाती हैं--क्‍या मतलब है तुम्‍हारा? मेरी इनसे शादी हुई है। मैं बीवी हूं इनकी। दीप्‍ति नवन भोलेपन से हंसती हैं--बीवी-सीवी क्‍या होती है? सीधे-सीधे बताओ, कितने में बिकी हो तुम? जिंदगी का यह कडव़ा रूप नहीं है तो क्‍या है? संबंधों की कड़वी सचाई नहीं है तो क्‍या है?

--डॉ संवेदना दुग्‍गल

COMMENTS

BLOGGER: 6
  1. गरीबी के आगे कोई रिश्ता नहीं ठहरता.

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  2. abilkul sahi kaha aaap ne. main bhee ek bar gaya tha vahan per. jo vastr dale the un ko aage piche kar ke hi shreer saf kar lete the log

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  3. यह सार्वकालिक एवं सार्व-देशीय तथ्य है कोई भी टिप्पणी अपर्याप्त ही रहेगी ...

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  4. Akhilesh Chandra Srivastava10:03 pm

    sawal stree purushon ke sambandon ka nahi gareebi aur berojgari ka hai varna kaun apni
    aulad benchega yeh jan ne ke baad ki bikne ke baad unka bhavishya aur jeevan dono hi asurkshit hai ..pet ki aag se badhkar kuch nahi hota unhe ye lagta hai ki ek to ek khane wala sadasya kam hua aur doosra shayad hamare bachchon ko aage se kuch khana pet bharne ko milega

    kahani vastav men samvedna bayan karti hai aur uttam hai

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  5. जठराग्नि बुझाने को शेर पिंजडे में फँस जाता है । एक मनुष्य दूसरे को खा जाता है । सभी चाँद सितारों की बातें करते हैं, अँधेरे में जो बैठे हैं नजर उन पर भी कुछ डालो, ... देश में सरकारें बदलती हैं, रॉकेट अंतरिक्ष की ओर जाते है , परंतु गरीब बस्ती के लिए तो, रहा गर्दिशों में हरदम ...

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  6. और सम्बन्ध की परिभाषा तो स्थान, काल, संस्कृति के अनुरुप परिवर्तनशील होती है । यह अलग बात है कि स्त्री पुरुष के सम्बन्ध की बुनियाद अविश्वास पर टिकी है पर यह समस्या संभ्रान्त वर्ग में भी है । आलेख बढिया है परंतु शीर्षक पढने पर समस्या की जड कुछ और ही दिखती है ।

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रचनाकार: संवेदना दुग्गल का आलेख - स्‍त्री-पुरुष संबंध यानी विश्‍वास-अविश्‍वास का खेल!
संवेदना दुग्गल का आलेख - स्‍त्री-पुरुष संबंध यानी विश्‍वास-अविश्‍वास का खेल!
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रचनाकार
https://www.rachanakar.org/2013/06/blog-post_7642.html
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