(चित्र - सौजन्य : जसबीर चावला) आशीष नैथानी 'सलिल' क्षणिकाएं *** सिलवटें *** ये जो आड़ी-तिरछी लकीरें है उस बूढ़े के चेहरे पर बुढ़ापे...
(चित्र - सौजन्य : जसबीर चावला)
आशीष नैथानी 'सलिल'
क्षणिकाएं
*** सिलवटें ***
ये जो आड़ी-तिरछी लकीरें है 
उस बूढ़े के चेहरे पर
बुढ़ापे की निशानी नहीं हैं, 
ये हैं सनद 
उम्रभर वक़्त से हुए 
टकराव की । 
*** जिह्वा ***
संभलकर चले तो 
अजनबियों को कर दे अपना,
फिसलकर चले तो 
अपनों को कर दे अजनबी,
ये जिह्वा । 
*** किसान ***
खेत-खलिहान जिसके 
चित्र,
वर्षा-सूरज उसके 
मित्र,
और पसीना तन का 
इत्र । 
*** गाय और कुत्ता ***
गौ 
प्रतीक समृद्धि की,
विदेशी कुत्ता 
दिखावे का । 
*** सुराही ***
माटी की सुराही 
रखे जल शीतल,
देती ठंडक तन को 
तब तपता है क्षितिज,
गरीबों का पुराना और 
टिकाऊ 'फ्रिज' । 
*** माँ का प्यार ***
मकई की रोटी,
सरसों का साग,
हरी मिर्च, अचार 
और 
माँ का प्यार । 
*** बाजार ***
सब कुछ बिकता है 
बाजार में,
झुनझुना भी,
काला चश्मा भी 
और 
कफ़न भी । 
*** टैक्नोलजी ***
टैक्नोलजी बनी है 
क्रूर,
चन्दा-मामा 
अक्कड़-बक्कड़ 
सब 
बच्चों से दूर । 
*** पहली रोटी ***
न गोल,
न चौकोर 
किसी नक़्शे सी 
आकार में भी छोटी 
पहली रोटी ।
*** मँहगाई ***
हर रोज पड़ रहा 
मँहगाई का 
चाँटा,
बढे दाम में मिल रहा 
तेल, नमक और 
आटा ।   
*** बेटी ***
ब्याह कर बेटी 
ससुराल जाती है,
बड़ी याद आती है । 
*** अवस्था ***
जवानी फिसलती 
रेत सी,
बुढ़ापा 
गीली मिट्टी सा । 
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****  मेरा परिचय  ****
पूरा नाम - आशीष नैथानी 'सलिल'
जन्मतिथि - जुलाई,८/१९८८
जन्मस्थान -  ग्राम तमलाग, पो. आ. - ल्वाली, पौड़ी गढ़वाल (उत्तराखंड)
शिक्षा - MCA (कंप्यूटर अनुप्रयोग में परास्नातक) 
वर्तमान - सॉफ्टवेयर इंजीनियर, हैदराबाद   
प्रकाशित कृति - तिश्नगी (काव्य-संग्रह) मई-२०१३ में प्रकाशित |  
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जसबीर चावला
विवशता
'''''''''''''''
चट कर गये
हमारे हिस्से का
अमन/ चैन
हम सब पर
भारी हैं
विडम्बना
फिर भी
हम
उनके आभारी हैं
महापौर का गुणा भाग
'''''''''''''''''''''''''''''''''''''''
शहर के महापौर
विलक्षण / चतुर /सुजान
०
समस्या
सुलझाते हैं
अजब अंदाज से
खाली मैदान में
कितनी बकरीयां है
टंागे गिनेंगे
फिर चार का भाग लगाते हैं
०
प्लास्टिक की थैलियों पर रोक नहीं लगाते
मामला चंदे/धंधे का है
मौन हैं महापौर
शहर में आवारा घूमते ढोर
मामला वोट का है
०
पर मौन नहीं हैं वे
गायों पर
बीमार हुई जो
सड़कों से प्लास्टिक/कूड़ा खाकर
वे करवायेंगे
शल्य चिकित्सा
मतदाता के पैसे से
मामला धर्म का जो है
०००
०क्यों०
'''''''''''
सब
दूसरों को
ढो रहे हैं
०
क्या
पा रहे
क्या
खो रहे हैं
००
खेल ओर खिलाड़ी
बेसबाल के बिके
हजारों बल्ले
उत्साहित
नये एजेंट ने
कंपनी खबर भेजी
'खेल प्रेमी है शहर'
ताबड़तोड़
ओर खेल सामग्री भेजो
सामान आया
पर नहीं बिका
धरे रह गये वालीबाल/फुटबाल
क्रिकेट के डंडे
पता चला
बेसबाल ही नहीं होता
शहर में
बल्ले इस्तेमाल
करते हैं गुंडे
०
इतिहास तो इतिहास है
अशोक महान से
अकबर तक
पुरातात्विक भवनों / शिलालेखों
मगध / वैशाली /पाटलिपुत्र पर
उकेरी प्रशस्ति
इतिहास में
स्वर्णाक्षरों से लिखी गाथाएं
देखा / सोचा
उनका भी इतिहास
बने / बुत लगाएं जाएं
चौराहों / बस्तियों / उद्यानों में
०
ग्रेनाइट/संगमरमर
नकली स्वर्णाक्षर / प्रशस्ति
लिखे शिलालेख / बुतों का
उद्घाटन किया
उन्होंने
खुद ही
०
निजाम बदला
बुत ढक दिये / पोते / गिराये / हटाये
अपने ही भार से गिरे
शिलालेख
उनके ही जीते जी
फिर भी
दर्ज हुआ इतिहास में
यह सब
न बच पाया
अभिशप्त / कलंकित होने
उनकी
अ-'मर' गाथा से
००००
पर पीड़क
किसी
की
क्रीड़ा
०
किसी
की
पीड़ा
००
०क्यों०
'''''''
सब
दूसरों को
ढो रहे हैं
०
क्या
पा रहे
क्या
खो रहे हैं
***
देवेन्द्र कुमार पाठक 'महरूम'
ग़ज़ल
कितनी कड़वी हैँ सच्चाइयाँ. 
गिर रहीँ नीचे ऊँचाइयाँ.  
सोने की चिड़िया के पर कटे; 
फाँसने की हैँ तय्यारियाँ.  
कोयलोँ के बिके कंठस्वर;     
चढ़ीँ नीलाम अमराइयाँ.      
बद हुए मौसमोँ के चलन;     
हुईँ ग़ुमराह पुरवाइयाँ.        
गिरना तय है जिधर जाइए;  
यहाँ कुआँ है वहाँ खाइयाँ.     
दिन ढले घर मेँ अहसास के;  
स्यापा करती हैँ तनहाइयाँ.   
होश आएगा 'महरूम' जब;  
हाथ आएँगी रुसवाइयाँ.
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बच्चन पाठक 'सलिल'
यह मर्म कहूँगा
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ओस काँच के टुकड़े जैसी
नंगे पैरों में चुभ जाती
खेत किनारे बाड़ लगी थी
वही आज फसलों को खाती ।
आज बिजुका बन कर प्रहरी
खड़े बिना आँखें झपकाए
उन्हें न मतलब किसी बात से
कोई आए, कोई जाए ।
चोर उचक्के घूम रहे हैं
नहीं किसी का उनको भय है
वे ही मुखिया बने हुए हैं
फैला चारों ओर अनय है ।
इस प्रतिकूल परिस्थिति में भी
दृढ़ता मुझमे कर्म करूँगा
अंतिम विजय हमारी होगी
मुस्काकर यह मर्म कहूँगा ।
पता- 
-- डॉ बच्चन पाठक 'सलिल' 
बाबा आश्रम कॉलोनी
पञ्च मुखी हनुमान मंदिर के पास
आदित्यपुर-२
जमशेदपुर -१३
फोन- ०६५७/ २३७०८९२
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डाक्टर चंद जैन "अंकुर"
परिवर्तन का शंखनाद 
जब गौरैया की डोली गिद्धों के घर आये। 
तब हंसों के मोती कौव्वा भर भर खाये । 
कोयल का स्वर मौन गधैय्या राग सुनाये। 
अब जुगनू सूरज को दृश्य दिखाये | 
दिल्ली की कायरता, 
भारत की गरिमा को खाये। 
मौन प्रधान संसद में, 
कब तक विषधर को पालेगा। 
मातृ भूमि से कुछ तो उनका भी रिश्ता है। 
या वो केवल गोरों का चमचा है। 
,या गुरु गोविन्द सिंह को बिलकुल भूल गया है। 
या भूल गया अपने पूर्वज की गाथाओं को। 
कैसे थे वे लोग देश के खातिर , 
फांसी को चूम लिये थे। 
याद रख तेरा मौन, सिंह 
आतंकवाद के आगे आत्मसमर्पण है। 
कण कण भ्रष्टाचार बीज का राजनीति रोपण है। 
भारत की धरती रोज सिकुड़ती जाती है। 
दिल्ली की कायरता से , 
धरती को चीन छिन ले जाता है। 
फिर भी चीन का माल खरीदा जाता है। 
कैसे है हम लोग कुछ तो शर्म करो , 
भूल गये इतिहास गुलामी का डूब मरो। 
जनसँख्या की आंधी रोज फैलती जाती है 
कमज़ोर पड़ोसी उग्रवाद को मजहब बतलाता है 
मेरे भी लोग उनसे मिलकर साजिश रचते हैं 
तभी तो आतंकवादियों की आबादी बाहर से आती है। 
नक्सलवादी तो अपने ही लोगों का चेहरा है। 
आतंकवाद से उनका भी रिश्ता गहरा है। 
अपनी ही मातृ भूमि को वे बंजर करते हैं। 
अब तो राजनीति, इनसे भी डरती है। 
शांति वार्ता के आमंत्रण से समझौता करती है। 
अब संसद कठ पुतली का खेल हो गया है। 
कोई बैठे कुर्सी पर पावर फेल हो गया है। 
सारे भारतवासी से मैं प्रश्न पूछता हूँ। 
कब तक यूँ चुप बैठेंगे, 
भारत माता को यूँ रोते हुए देखेंगे। 
या सौंपेंगे गद्दी कल के बच्चे को, 
या जातिवाद के गोरख धंधे को। 
क्या भूल गये उनको; 
जिसने हमको चार भागों में बाँटा था। 
हिन्दू ,मुस्लिम ,सिक्ख ,इसाई का दिया नारा था। 
क्या? केवल भारतवासी कहलाना हमको मंजूर नहीं। 
अब हम न बदले तो वक्त नहीं बदलेगा। 
और इतिहास, ह्रास का कालिख लिख्खेगा। 
माँ के बेटों अब वक्त आ गया है बस एक शपथ लेने का। 
अब अपने मत को केवल , 
मातृ भूमि के मतवालों को ही देना है। 
अब कठपुतली का खेल ख़त्म हो भारत के मान पटल से। 
कब तक लुटती हुई आजादी को फिर से लुटते हुए देखेंगे। 
कम से कम एक वोट का पुरुषार्थ तो करना होगा। 
और परिवर्तन का शंखनाद करना होगा। 
देश के हर कोने से भ्रष्ट और, 
निकम्मे नेता को बदलना होगा। 
शिक्षित ,निर्भय और देशप्रेम से ओतप्रोत नेता को चुनना होगा। 
अब बाहर से चलने वाला ,ये सरकार बदलनी होगी । 
और परिवर्तन का शंखनाद करना होगा। 
-- 
संग्राम 
मैं अपना प्रतिद्वंदी हूं प्रतिवार करू संग्राम करूं
सौ बार करू प्रतिघात करू हर बार करूं
हर पल जीवन संघर्ष करूं
जन्म मृत्यु प्रतिदर्शन है
मेरा जीवन दर्शन है
मैं जन्म लिया
या जन्म हुआ 
मैं प्रश्न मंच
प्रतिप्रश्न करूं
मैं देह छोड़
या
विश्व छोड़ कर 
जाऊंगा
द्वेष छोड़
और
दर्द छोड़ कर जाऊंगा
राग छोड़
अनुराग प्राप्त कर जाऊंगा
रणविजय नहीं
अरिविजय नहीं
अरिहंत नहीं
अरिमुक्त मुक्त हो जाऊंगा
मैं नहीं जानता पुनर्जन्म
पर 
पुनर्जन्म की आस लिए मैं जाऊंगा
हर पल बेहतर
हरपल बेहतर
और फिर बेहतर हो जाऊंगा
फिर दम्भमुक्त 
और दोषमुक्त हो जाऊंगा
मैं मैय्या का सत्यपुत्र बन जाऊंगा
मैं वीर्य धर्म का वाहक हूँ
कुछ भ्रूण माँतृ को अर्पण करके जाऊंगा
डाक्टर चंद जैन "अंकुर" 
रायपुर छ . ग. ९८२६१-१६९४६ 
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विजय वर्मा
  रूपांतरण  
मैं क्या था , 
जब मैं कुछ नहीं था ?
प्रेम की एक नदी , 
फूलों का सुगंध, 
एक सुंदर सी कविता, 
बे-सहारों का स्कन्ध ! 
आज क्या हूँ , 
जब सोचता हूँ कि
मैं कुछ  हूँ  ? 
अहं ,घृणा और
मूल्यहीनता का वाहक ! 
क्रोध और इर्ष्या में
दहकता हुआ  और दाहक ! 
वक़्त ये कौन सा विष
मुझमें  बो गया है! 
रूपांतरण किस कदर
मेरा हो गया है! 
v k verma,sr.chemist,D.V.C.,BTPS 
BOKARO THERMAL,BOKARO
vijayvermavijay560@gmail.com 
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संजय गिरि
है कौन! जो हमको ललकारे ? 
है कौन! जो हमको ललकारे ? 
है किसमें दम, जो मेरी, 
मात्रभूमि को, आँख दिखलाये ? 
सीना चीर के उसके रक्त को, 
हम कच्चा ही पी जायंगे , 
हम भारत के दुश्मन को अब ,
उसके घर में घुस कर मारेंगे | 
बहुत बह चूका खून हमारा , 
अब न शीश झुकायेंगे . 
भारत माँ की कसम है हमको , 
अब उसकी बलि चढ़ाएंगे |. 
बहुत हो चुकी भाई- बंदी, 
अब न मुंह से लगायेंगे
गर अब भी न सुधरा तो , 
अगला १५ अगस्त हम  , 
"लाहौर" मैं ही मनाएंगे | 
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नाम :संजय कुमार गिरि 
पिता : श्री धनुषधारी गिरि 
माता :श्री मति सुशीला देवी 
जन्मतिथि :२७ जून १९७५ 
जन्म स्थान :दिल्ही 
शिक्षा : बी .ए हिंदी
कॉलेज : पी.जी .डी. ए.वी .संध्ये . विश्व विद्यालय दिल्ली .
सर्विसे : ग्रुप ४ सिक्यूरिटी 
रूचि :पेंटिंग ,स्केचिंग और कवितायें लिखना और पढना . 
दूरभाष :०९१-९८७१०२१८५६
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रवि देववंशी
   कौन यहाँ रुक पाया है..
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अभी तो जीते थे खुशियों के संग,
ग़मों ने भी जीना सीखा दिया,
पीते थे खुशियों में चाय और काफी,
ग़मों ने जाम पीना सीखा दिया,
संभलकर चले जिन रास्तों पर,
उन्ही पर ठोकर खा गए,
डरते थे जिन पलो से हम,
वही मुकददर में आ गए,
सोचा बहने न देंगे आंसुओं को,
कोशिश करके हार गए,
कोशिश जब तक सफल हुई,
दिल का दर्द हम खा गए,
जाने वो थी कौन सी घडी,
जब दिल ही धोखा खा गया,
बहुत संभाला दिल को अपने,
पर अन्धकार ही छा गया,
थामी जब उंगली जिंदगी की,
वीराने में खुद को देखा  था,
यारी की जब मौत से हमने,
मेला सा भी देखा था,
कौन किसी का इस दुनिया  में,
ये तो एक छलावा है,
आये हैं तो जाना भी है,
कौन यहाँ रुक पाया है..
कौन यहाँ रुक पाया है..
                            RAVI DEOVANSHI
                            behind mohan talkie's
                            subhash ward,katni(m.p.)
                            pin-483501
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