गोविन्द बैरवा की कहानी - रोशनी

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रोशनी (कहानी) - गोविन्‍द बैरवा आज रोशनी कुछ परेशान थी। बार-बार अपने छोटे भाई दीपक को पीट रही थी। माँ शारदा बाजार गई हुई थी। दीपक की अवस्‍था ...

रोशनी (कहानी)

- गोविन्‍द बैरवा

आज रोशनी कुछ परेशान थी। बार-बार अपने छोटे भाई दीपक को पीट रही थी। माँ शारदा बाजार गई हुई थी। दीपक की अवस्‍था 7-8 वर्ष के आसपास ही नजर आती है क्‍योंकि उसकी शरारत कुछ ऐसी हरकतें करवाती थी, जिसे समझदार व्‍यक्‍ति नहीं कर सकता।

आज ना जाने ऐसी क्‍या शरारत दीपक ने कर दी, जिसके कारण रोशनी भाई पर नाराज नजर आ रही थी। अपने भाई दीपक को ड़ाँट लगाती हुई कहती है- ‘‘तुझे इतनी ऊँची रखी पुस्‍तक को लेने की जरूरत क्‍यों पड़ी। अगर गिर जाता तो हाथपैर टूट जाते। सारा का सारा दोष माँ! मुझे ही देती। तुझे समझाने का कोई फायदा नहीं, दण्‍ड़ देना आज जरूरी है।‘‘

‘‘नहीं करूँगा। नहीं करूँगा।‘‘ दीपक लगातार बहन रोशनी से कहे जा रहा था। पर आज रोशनी भाई से इतनी नाराज थी कि उसकी माफी की फरियाद को अनदेखा कर रस्‍सी से हाथ पैर बाँधने में लगी हुई थी। शायद यह एक बहन का भाई को प्‍यार करने का नया तरीका बहन रोशनी के द्वारा व्‍यक्‍त हो रहा था।

अक्‍सर रोशनी व दीपक की शरारत से माँ! शारदा भी परेशान होकर भला बुरा सिर्फ रोशनी को सुनाया करती थी-‘‘तू जैसे-जैसे बड़ी हो रही हैं, वैसे-वैसे तेरा बचकानापन बढ़ रहा है। ये तो बच्‍चा है। पर, तू तो इतनी बड़ी हो गयी है कि अंतिम पढ़ाई होते ही तुझे विदा करना है।‘‘

माँ! के इस तरह के व्‍यवहार से रोशनी काफी दुःखी हो जाती थीं। अक्‍सर घण्‍टों अकेले बैठें-बैठें सोचा करती थी कि बस इतना ही अपने घर में उसका स्‍थान है। जिस घर में लडखड़ाते हुए जीवन में चलना सिखा, उस घर का बसेरा विदाई के साथ समाप्‍त। ये कैसी समाज की संरचना हैं, नारी के प्रति।

पर आज रोशनी के मन में भाई के प्रति डाँट के साथ स्‍नेह बह रहा था। आखिर दीपक के मन में आज के समाज में बहती दूषित सोच नहीं थी। दीपक के लिए तो सिर्फ यह दुनियाँ, एक खेल है जिसे वह अपने तरीके से जब चाहे तब खेल सकता है। इसी कारण आज दीपक ने इतना ऊपर चढ़ने का साहस किया अन्‍यथा इस घर में करने से पहले पूछना पड़ता है, सबसे ज्‍यादा रोशनी को।

दरवाजे की घण्‍टी बार-बार बजनें लगती हैं। रोशनी अपने भाई के साथ इतनी व्‍यस्‍त बनी हुई थी कि घण्‍टी की आवाज उसके कानों में सुनाई नहीं दी। अचानक रोशनी का ध्‍यान बजती घण्‍टी की तरफ चला जाता है। वह भाई को छोड़कर दरवाजा खोलने दौड़कर दरवाजे की तरफ चली आती है। दरवाजा खोलते ही शारदा गुस्‍से में रोशनी की तरफ देखकर कहने लगती है- ‘‘इतनी देर से दरवाजे पर खड़ी हूँ, तू क्‍या बहरी हो गई है। तुझे घण्‍टी की आवाज सुनाई नहीं दी। तू ऐसे नहीं मानेगी। रूक तुझे में सबक सिखाती हूँ।‘‘

शारदा ने सब्‍जी से भरे थैले को जमीन पर पटकते हुए, रोशनी के गाल पर जोर से तमाचा मार देते है। रोशनी अपने गाल पर हाथ रखकर रोती हुई अपने कमरे की तरफ बढ़ने लगती है। शारदा दरवाजे पर ही खड़ी-खड़ी रोशनी को भला-बुरा बोले जा रही थी।

इतना कुछ सहन करने के अलावा रोशनी के पास कोई रास्‍ता नहीं था। आखिर वो इतना क्‍यों सहन करती है। यह सवाल एक नई घटना को अपनी तरफ खींचती हुई नजर आती है। जिसकी शुरूआत अकलेश से होता है।

अकलेश रोशनी के पिता है। रोशनी की माँ! शारदा नहीं, सविता थी। दस वर्ष पहले ही रोशनी ने अपनी माँ! को बीमारी से मरते देखा था। पति अकलेश पत्‍नी की बीमारी से परेशान होकर शराब पीने लग गये थे। जब शराब ज्‍यादा पी लेते, उस समय सविता के साथ रोशनी को भी भला-बुरा बोलते हुए कहने लगते-‘‘तुम माँ!, बेटी ने मेरे जीवन को कर्ज के तले दबा दिया है। एक बीमारी से उठने का नाम नहीं ले रही है, तो दूसरी अपनी बढ़ती उम्र के साथ विवाह करने का कर्ज तैयार कर रही है।‘‘

रोशनी इस तरह पिता को बीमार माँ! के बारे में बोलता देखकर अन्‍दर से दुःखी होती पर माँ! के सामने हमेशा यह महसूस करवाती की इन बातों से उसे कोई फर्क नहीं पड़ता। अपनी माँ! की सेवा में रात-दिन एक करने लगी। उस समय भी रोशनी के पास सहन करने के अलावा कोई रास्‍ता नहीं था।

एक दिन रोशनी की माँ! बीमारी से हमेशा-हमेशा के लिए मुक्‍त हो गई। हृदय से निकलती रोशनी की वेदना आज भी कमरे की चार दिवारी में सुनाई देती है-‘‘माँ! ऐसा क्‍यों किया। बिना बताएँ ही मुझसे इतनी दूर चली गयी। मैं, ये जीवन तुम्‍हारे बिना कैसे तय करूँगी। आखिर माँ! तू ही तो थी, मेरे जीवन का एक मात्र सहारा, जिसमें कुछ रोशनी थी। पर तेरे चले जाने से मैं, रोशनी होकर भी हूँ सिर्फ अंधेरा।‘‘

रोशनी की सिसकियाँ सूनी तो सिर्फ इस बन्‍द कमरे की दिवारों ने सूनी। पिता अकलेश अधिकतर शराब के नश्‍ो में डुबे रहते। ना तो रोशनी की चिन्‍ता थी उनको और ना ही अपनी पत्‍नी के चले जाने का दुःख।

जब कभी रात को जल्‍दी घर आ जाते, उस समय रोशनी को खामोश देखकर कहने लगते-‘‘क्‍यों, रोशनी। अभी तक किसका शौक बना रही है। जानती है। तेरे पिता पर कितना कर्ज चढ़ाकर गयी है तेरी माँ!, तू क्‍या जानेगी। आखिर तू भी तो कर्ज चढ़ाने को तैयार हो रही है।‘‘

रोशनी खामोशी से प्रत्‍येक शब्‍द ग्रहण करती है। उसे सिर्फ याद थी तो वह बात जिसे माँ! ने मरने के दो रोज पहले रोशनी को अपने पास बैठाकर कहीं थी-‘‘रोशनी बेटी! अपने जीवन में कभी कमजोर मत होना। मेरे चले जाने के बाद बेटी, तेरे सामने कहीं मुशकिलें खड़ी होगी। उन सभी का सामना बेटी तुझे करना है। इस नारी जीवन में वहीं आगे बढ़ पाता है, जिसमें अपार सहनशीलता है। पर बेटी अपनी सहनशीलता को इतना भी कमजोर मत बनाना कि तुझे भी इस पुरूष प्रधान समाज न,े नारी को जो अबला नाम दिया, उसमें तुझे भी समाहित कर दे। हमेशा जीवन को रोशनी की तरफ ही ले चलना, इसीलिए मैंने तेरा नाम रोशनी रखा है। मैं ज्‍यादा दिनों तक तेरे साथ नहीं रहूँगी, पर बेटी तेरा हाथ शिक्षा ने थामा है। शिक्षा का साथ कभी मत छोड़ना, क्‍योंकि बेटी ये तुझे रोशनी की तरफ लेकर तेरे जीवन में प्रकाश ही प्रकाश फैलायेंगी। रोशनी बेटी ज्‍यादा तो नहीं पर मैंने तेरी पढ़ाई में आने वाली धन की कमी को पहले से ही बन्‍दोवस्‍त करके रखा हैं। उस लोहे की पेंटी में पोस्‍ट अॉफिस के बचत खाते की ड़ायरी है, जिसमें मैंने तेरे नाम से खाता खुलवाया था। बुंद-बुंद धन एकत्रित तेरे शादी के लिये किया करती थी। अच्‍छी रकम जमा हो गयी हैं, वह तेरे भविष्‍य में सहायता करेगी।‘‘

माँ! की कहीं बातों को रोशनी ने अपने जीवन में ग्रहण कर शिक्षा को अपना जीवन साथी बनाकर चलने लगी। कुछ समय में ही रोशनी को अध्‍ययन में वह सभी सम्‍बंधों का अहसास होने लगा, जिनको इस दुनियाँ में नहीं देख पाई। अपने जीवन को शिक्षा के सहारे आगे बढ़ाने लगी।

एक दिन अचानक अकलेश ने बड़े प्‍यार से रोशनी को आवाज लगाई-‘‘बेटी रोशनी! बेटी रोशनी कहाँ हो। बाहर आकर देखों तो कौन आया है।‘‘

रोशनी को पिता के व्‍यवहार पर आश्‍चर्य हुआ। इस बीते एक वर्ष में पहली बार पिता के द्वारा रोशनी का नाम इतने प्‍यार से पुकारने पर। पिता के बार-बार पुकारने के कारण कमरे से बाहर आती है। पिता के साथ एक महिला कंधे पर बैंग लटकाये हुए खड़ी थी। रोशनी को देखकर पिता अकलेश कहने लगे-‘‘पहचान ये कौन है?‘‘

रोशनी कुछ समझ नहीं सकी। महिला की तरफ एकटक देखने लगती है। रोशनी को खामोश देखकर अकलेश कहने लगता है-‘‘अरे बेटी! अपनी नई माँ! को नहीं पहचाना। देख बेटी तेरी खामोशी मुझसे देखी नहीं जाती। मैं तो कार्य में व्‍यस्‍त रहता हूँ, तू घर में अकेले रहती है। आखिर मैं तेरा पिता हूँ, तेरे हित का ही सोचकर मैंने दूसरी शादी की है। आज से यह तेरी माँ! शारदा।‘‘

रोशनी जान गयी कि पिता ने अपना अकेलापन दूर करने के लिए शादी की है। वह सब कुछ सुनकर कमरे की तरफ बढ़ने लगती है। रोशनी को चली जाती देख पिता अकलेश रोशनी को रोककर कहने लगते है-‘‘बेटी अपनी नई माँ! को घर का काम करने मत देना। में नहीं चाहता की ये भी तुझे व मुझे छोडकर चली जाए।‘‘

पिता की बात सुनकर रोशनी अपने रूम में चली जाती है। घर का सारा काम रोशनी करने लगी पर साथ ही अपनी पढ़ाई की तरफ ध्‍यान देने लगी। रोशनी दिन से ज्‍यादा रात को अपनी पढ़ाई को अच्‍छी बना लेती थी। आखिर दिनचर्या घर के कार्य में ही व्‍यतीत हो जाती, पर रात उसकी अपनी थी।

एक साल के बाद रोशनी के जीवन में दीपक आया। रोशनी अपने भाई दीपक से ज्‍यादा प्रेम करती थी। छोटे से दीपक को अपने हाथों से स्‍नान कराना। कपड़े पहनाना। ढ़ेरों सारी दीपक से बातें करना। दीपक भी माँ! शारदा से ज्‍यादा रोशनी से अपनापन रखने लगा। रोशनी घर के काम के साथ अपनी पढ़ाई पुरी करके प्रतियोगिता परीक्षा की तैयारी करने लगी हुई थी।

रोशनी व दीपक के आपसी प्रेम का सामना माँ! शारदा से सहना पड़ा। आज भी शारदा ने दरवाजा खोलने में देरी हो जाने के कारण रोशनी के गाल पर तमाचा मार दिया। माँ! को तमाचा मारता देखकर दीपक अपनी माँ! से कहने लगा-‘‘माँ! आपने दीदी को क्‍यों मारा।‘‘

बेटे के मुँह से ये शब्‍द सुनकर शारदा आग बबूला हो गयी। रोशनी को सुनाती हुई कहने लगी-‘‘अच्‍छा! तो मेरे बेटे को मेरे खिलाफ भड़काने लगी है। पर तू सुन ले, तेरे इस घर में अब ज्‍यादा दिन नहीं रहेंगे। तुझे विदा करने का जल्‍द ही तैयारी करूँगी। आने दे तेरे पिता को कहूँगी, या तू रहेंगी इस घर में या मैं।‘‘

शारदा जोर-जोर से बोले जा रही थी। जिसकी आवाज रोशनी को अपने रूम में सुनाई दे रही थी। इन दिनों रोशनी के राज्‍य प्रशासनिक परीक्षा, चल रही थी। अंतिम पेपर आज था। जाने से पहले इतना बखेड़ा माँ! ने खड़ा कर दिया था। पर रोशनी इस तरह की प्रतिक्रियाओं से संघर्ष करना जानती थी।

आज भी रोशनी ने सारा कहर अपने मन में दबाए जाने की तैयारी कर कमरे से निकलती है। रास्‍ता रोक खड़ी शारदा रोशनी को देखकर कहने लगती है-‘‘कहाँ चली महारानी, इतनी अच्‍छी तरह तैयार होकर। देख रही हूँ, इस माह में दो-तीन दिन बीच में छोड़कर, रोज बाहर जाना हो रहा हैं तेरा, कहीं कोई खिचड़ी तो नहीं पका है, पीठ पीछे।‘‘ शारदा के शब्‍दों में जहर समाहित था। जिसका प्रभाव रोशनी के मन को दुःख पहुँचाएँ जा रहा था। शारदा माँ! की तरफ देखकर रोशनी सिर्फ इतना ही कह सकी-‘‘परीक्षा का अंतिम पेपर है, आज।‘‘

शारदा कुछ मुँह को बिगाड़कर कहने लगी-‘‘क्‍या करेगी इतना पढ़कर?, क्‍या बड़ी अफसर बनेंगी?, बडे ख्‍वाब देखना छोड़ दे। तेरे जीवन में सिर्फ दुःख ही दुःख है।‘‘ माँ! के ये शब्‍द रोशनी के मन में दुःख उत्‍पन्न कर रहे थे। पर वह धीरज बनाएँ रखना जानती थी। माँ! की व्‍यंग्‍य भरी आलोचना को सुनकर घर से बाहर चली जाती है।

रोशनी के जीवन में कोई अपना बनकर साथ रहा तो सिर्फ उसकी शिक्षा, क्‍योंकि इस समाज की परिपाटी को वह जानती थीं। उसका प्रेम पुस्‍तकों के प्रति ज्‍यादा था। पुस्‍तकों में समाहित सारे रिश्‍ते-नातों का अहसास रोशनी को मिल जाता था। उसका प्रथम लक्ष्‍य जीवन को सक्षम बनाने के प्रति था, जिसे प्राप्‍त करने का माध्‍यम शिक्षा को ही वह अपना सच्‍चा साथी समझती थी। आज शिक्षा के लक्ष्‍य का अंतिम पेपर देने रोशनी बाहर चली गई थी।

‘‘सुनो जी! ये तुम्‍हारी बेटी रोशनी, अब घर में रखने लायक नहीं है। रोज-रोज इसकी शरारत बढ़ती जा रही है। आज मुझे मालूम चला कि रोशनी दीपक को मेरे खिलाफ भड़का रही है। आज मेरा बेटा मेरे सामने खड़ा हो गया।‘‘ शारदा अपने पति अकलेश को रोशनी की शिकायत किये जा रही थी । अंत में शारदा ने अकलेश से कह दिया-‘‘ रोशनी को विदा करों, वरना में घर छोड़कर चली जाऊँगी।‘‘

अकलेश को अॉफिस में कार्यरत मनमोहन की बात याद आ जाती है। कुछ दिनों पहले ही मनमोहन ने अकलेश से कहाँ था-‘‘अरे अकलेश तूने रोशनी के लिए कोई लडका देखा की नहीं। अगर नहीं देखा तो यार मेरे मामाजी का लडका है प्रमोद। तू कहे तो मैं मामाजी से बात चलाऊँ।‘‘

‘‘क्‍या करता है प्रमोद।‘‘ अकलेश ने मनमोहन से पुँछा।

‘‘पढाई तो उसने की नहीं, पर हाथ का हुनर कार्य के प्रति अच्‍छा है। कारखाने में काम करता है। मासिक वेतन भी अच्‍छा है। हाँ! तुझसे में स्‍पष्‍ट कहना चाहूंगा कि वह कुछ शराब का शौक भी रखता है। पहले कह देता हूँ अन्‍यथा तू सारा दोष मुझे ही देगा। अब तू कहे तो मैं मामाजी से बात करूँ।‘‘ मनमोहन ने प्रमोद के सारे गुण अकलेश के सामने रख दिये।

शारदा को यह बात आज बताई तो शारदा ने पति को स्‍वीकृति देने के साथ यह भी कह दिया- ‘‘यह रिश्‍ता अच्‍छा है। हमें देर नहीं करनी चाहिए। कल ही मनमोहन जी से बात करके लड़का रोक दो।‘‘

कुछ दिनों में प्रमोद से रोशनी का सम्‍बन्‍ध पक्‍का कर दिया। रोशनी को खबर ही नहीं हुई कि उसकी शादी इस वर्ष ही दिपावली के बाद तय हो चुकी है।

एक रोज दरवाजे की घण्‍टी सवेरे जोर-जोर से बजने लगती है। दरवाजा शारदा खोलने लगती है। जैसे ही दरवाजा खोलती है तो सामने एक खूबसूरत लड़की खड़ी नजर आती है। शारदा की तरफ देखकर कहने लगती है-‘‘आँटी नमस्‍ते! क्‍या रोशनी घर पर है।‘‘

‘‘हाँ! वह अपने कमरे में ही होगी।‘‘ शारदा ने लड़की की तरफ देखकर कहाँ। खूबसूरत लड़की मुस्‍कान होठों पर लाकर कहने लगी-‘‘आँटी क्‍या मैं उससे मिल सकती हूँ।‘‘ कुछ देर सोचकर शारदा ने रोशनी के कमरे की तरफ इशारा करते हुएँ कहने लगी-‘‘वो रहा रोशनी का कमरा, जाकर मिल लो। शायद महारानी अभी जागी के नहीं।‘‘

आँटी का तेवर प्रिया, रोशनी से सुन चुकी थी। वह रोशनी के कमरे की तरफ चलने लगी। कमरे में रोशनी पुस्‍तक पढ़ रही थी। रोशनी को देखते ही प्रिया जोर से बोलने लगी-‘‘अरे रोशनी। तूने तो सबको पीछे छोड़ दिया।‘‘ रोशनी अचानक प्रिया को अपने घर देखकर आश्‍चर्य से उसे देखकर कहने लगी-‘‘प्रिया तू इतने सवेरे-सवेरे यहाँ कैसे?‘‘

‘‘अरे प्रिया मैं तो तुझसे मिलने रात में ही आना चाहती थी। पर घर वालों ने आने ही नहीं दिया।‘‘ प्रिया के चेहरे पर खुशी झलक रही थी।

‘‘ऐसा क्‍या काम आ गया जिसके लिए इतनी आतुर हो मुझे बताने के लिए तू प्रिया।‘‘ रोशनी ने प्रिया का हाथ पकड़कर अपने करीब खींचते हुए कहा।

‘‘अरे रोशनी आज जो मैं तुझे बताने के लिए इतना आतुर हूँ, उसे सुनकर तू पागल हो जाएगी। जानती है, तूने प्रशासनिक सेवा में प्रथम स्‍थान प्राप्‍त किया।‘‘ प्रिया की बात सुनकर रोशनी एकटक प्रिया की तरफ देखकर कहने लगी-‘‘सवेरे-सवेरे ये मजाक करने का बहाना तूने ये चूना है।‘‘

‘‘मैं मजाक नहीं कर रही हूँ रोशनी। मैंने स्‍वयं तेरा परिणाम इंटरनेट द्वारा देखा है। पगली तूने इस परीक्षा में प्रथम स्‍थान प्राप्‍त किया है। मैं जानती थी तू विश्‍वास नहीं करेंगी, इसी लिए मैंने ये परिणाम की लिस्‍ट नेट से प्रिंट निकालकर लाई हूँ।‘‘ प्रिया ने रोशनी की तरफ परिणाम कागज आगे करते हुए कहाँ।

रोशनी के शरीर में घबराहट चढ़ी हुई थी। हाथ में इतना कम्‍पन था कि उँगलियाँ कागज को पकड़ने में असमर्थता व्‍यक्‍त कर रही थी। दुःख के सागर में सींचा ये अध्‍ययन आज उसके जीवन के सारे घिरे अंधेरे को दूर कर प्रकाश फैलाने के प्रति आतुर है। आज का दिन रोशनी को रोशन प्रकाश देने के लिए परिणाम रूप में चला आया।

हाथ में सफलता का परिणाम पकड़े रोशनी की आँखें आंसुओं से भरी हुई थी। परिणाम को दिल से लगाकर जोर-जोर से रोना चाह रही थीं। इतने सालों से दिल में छुपी वेदना आज सारे दिल के रास्‍ते खोल कर बहना चाह रहे थे। रोशनी के मुंह से निकलने वाली सिसकियाँ कमरे में सुनाई दे रही थी। अपनी सगी माँ को बार-बार रोते हुए कह रही थी-‘‘माँ!, ओ माँ!, देख माँ! मैंने तेरे सपने को साकार कर लिया है। तू जो चाहती थी, वहीं में आज बन गई हूँ। माँ!, तेरी रोशनी अब अंधेरा छोड़कर उजाले में आ गई है। आज मैं माँ!, अबला नहीं। सबल, सक्षम, युवती इस समाज में बन गई हूँ। माँ! मुझे अपने गले से लगाओ ना। ओ माँ!‘‘ रोशनी आज अपनी माँ! को याद कर, सारी वेदना आंसुओं में बहार निकाल रही थी। प्रिया उसे बार-बार चुप कराना का प्रयत्‍न कर रही थी पर रोशनी आज खुलकर रो रही थी।

रोशनी के रोने की आवाज सुनकर शारदा, रोशनी के कमरे में चली आती है। बिना सोचे समझे कहने लगती है-‘‘अरे! कर्मजली, सवेरे-सवेरे क्‍यों आंसू बहा रही हैं। अभी तक तेरा मन नहीं भरा, जो इतने जोर-जोर से रोकर सबको सुना रही है।‘‘ रोशनी कभी भी अपनी नई माँ! के सामने नहीं बोलती, आज भी माँ के सामने चुप थी।

प्रिया को ये अच्‍छा नहीं लगा। वह रोशनी को छोड़कर शारदा के सामने आकर पहले तो आक्रोश भरी नजर से देखकर बोलने लगती है-‘‘आँटी! आप रोशनी को इस तरह क्‍यों बोल रही हो। आप जानती है। रोशनी ने वो किया है जिसकी उम्‍मीद हर माता-पिता करते है।‘‘ प्रिया की तरफ देखकर शारदा मुंह बिगाड़ कर कहने लगी-‘‘ऐसा क्‍या किया इस मनहूस ने।‘‘

प्रिया शारदा की तरफ देखकर कहने लगी-‘‘मनहूस ये नहीं आप हो। आप जैसी हर माँ! मनहूस है। आप जिसे मनहूस कह रही हो, वह अब राजस्‍व प्रशासनिक सेवा में सबसे ऊँचे पद की अधिकारी है।‘‘ शारदा का शरीर ये सुनकर सुन्न पड़ गया। चेहरे पर जो आक्रोश था, वह अब खामोशी में बदल गया था। प्रिया की तरफ एकटक देखें जा रही थी। पर आज प्रिया, वो सब कहना चाह रही थी, जो रोशनी कह नहीं सकी।

‘‘आँटी! जिसके साथ आप रोशनी का सम्‍बन्‍ध जोड़ा है, रोशनी को बिना बताये, आप उसे नहीं जानती पर मैं जानती हूँ। वह लड़का मेरे दूर का सम्‍बन्‍धी लगता है। एक नम्‍बर का लोफर व शराबी है। अब आप रोशनी के विवाह की चिन्‍ता मत करना। क्‍योंकि रोशनी की रोशनी में कहीं अच्‍छे सम्‍बन्‍ध लाईन में खड़े है।‘‘

प्रिया के मुँह से निकलने वाली आक्रोशमयी बोली का प्रभाव शारदा के घमण्‍ड़ को जमीन पर पटक रहा था। शारदा सोच रही थी जिस रोशनी को कभी आँखें उठाकर नहीं देख पाई, वह आज इतनी ऊपर पहुँच गईं की आँखें मिलाने के लिए अनुमति लेनी पड़ेगी।

प्रिया बोले जा रही थी-‘‘जानती हूँ मैं आपको अच्‍छी तरह आँटी जी! आपने मेरी सहेली रोशनी को कभी भी सुख के दो शब्‍द व माँ! की ममता का प्रेम दिया ही नहीं। पर रोशनी अब अंधेरे में नहीं। आज उसने वर्षों से घिरे अंधेरे को छोड़कर रोशनी में कदम बढ़ाया है। अब आप चिन्‍ता ना करे क्‍योंकि रोशनी अब ओझल नहीं होगी। और ना ही अब आपके सहारे की आवश्‍यकता है रोशनी को। रोशनी अपनी दिशा स्‍वयं तय करेंगी। आँटी जी आप इतना रूके थोड़ा और रूक जाये, क्‍योंकि रोशनी अब रोशनी के साथ इस घर से विदा होगी। स्‍वयं ही अपना जीवन साथी का चुनाव करेंगी।‘‘

रोशनी ने प्रिया को आगे बढ़कर कहने से रोका। प्रिया की आँखें आँसुओं से भरी हुई थी। रोशनी से लिपटकर वह भी रोने लगी। रोशनी के भी आँखों में आँसू बह रहे थे

 

गोविन्‍द बैरवा पुत्र श्री खेमाराम जी बैरवा

आर्य समाज स्‍कूल के पास, सुमेरपुर

जिला-पाली, राजस्‍थान, पिन0 कोड-306902

मो0-9427962183, 9928357047

मेल- govindcug@gmail.com

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पाटील,1,शगुन अग्रवाल,1,शबनम शर्मा,7,शब्द संधान,17,शम्भूनाथ,1,शरद कोकास,2,शशांक मिश्र भारती,8,शशिकांत सिंह,12,शहीद भगतसिंह,1,शामिख़ फ़राज़,1,शारदा नरेन्द्र मेहता,1,शालिनी तिवारी,8,शालिनी मुखरैया,6,शिक्षक दिवस,6,शिवकुमार कश्यप,1,शिवप्रसाद कमल,1,शिवरात्रि,1,शिवेन्‍द्र प्रताप त्रिपाठी,1,शीला नरेन्द्र त्रिवेदी,1,शुभम श्री,1,शुभ्रता मिश्रा,1,शेखर मलिक,1,शेषनाथ प्रसाद,1,शैलेन्द्र सरस्वती,3,शैलेश त्रिपाठी,2,शौचालय,1,श्याम गुप्त,3,श्याम सखा श्याम,1,श्याम सुशील,2,श्रीनाथ सिंह,6,श्रीमती तारा सिंह,2,श्रीमद्भगवद्गीता,1,श्रृंगी,1,श्वेता अरोड़ा,1,संजय दुबे,4,संजय सक्सेना,1,संजीव,1,संजीव ठाकुर,2,संद मदर टेरेसा,1,संदीप तोमर,1,संपादकीय,3,संस्मरण,730,संस्मरण लेखन पुरस्कार 2018,128,सच्चिदानंद हीरानंद वात्स्यायन,1,सतीश कुमार त्रिपाठी,2,सपना महेश,1,सपना मांगलिक,1,समीक्षा,847,सरिता पन्थी,1,सविता मिश्रा,1,साइबर अपराध,1,साइबर क्राइम,1,साक्षात्कार,21,सागर यादव जख्मी,1,सार्थक देवांगन,2,सालिम मियाँ,1,साहित्य समाचार,98,साहित्यम्,6,साहित्यिक गतिविधियाँ,216,साहित्यिक बगिया,1,सिंहासन बत्तीसी,1,सिद्धार्थ जगन्नाथ जोशी,1,सी.बी.श्रीवास्तव विदग्ध,1,सीताराम गुप्ता,1,सीताराम साहू,1,सीमा असीम सक्सेना,1,सीमा शाहजी,1,सुगन आहूजा,1,सुचिंता कुमारी,1,सुधा गुप्ता अमृता,1,सुधा गोयल नवीन,1,सुधेंदु पटेल,1,सुनीता काम्बोज,1,सुनील जाधव,1,सुभाष चंदर,1,सुभाष चन्द्र कुशवाहा,1,सुभाष नीरव,1,सुभाष लखोटिया,1,सुमन,1,सुमन गौड़,1,सुरभि बेहेरा,1,सुरेन्द्र चौधरी,1,सुरेन्द्र वर्मा,62,सुरेश चन्द्र,1,सुरेश चन्द्र दास,1,सुविचार,1,सुशांत सुप्रिय,4,सुशील कुमार शर्मा,24,सुशील यादव,6,सुशील शर्मा,16,सुषमा गुप्ता,20,सुषमा श्रीवास्तव,2,सूरज प्रकाश,1,सूर्य बाला,1,सूर्यकांत मिश्रा,14,सूर्यकुमार पांडेय,2,सेल्फी,1,सौमित्र,1,सौरभ मालवीय,4,स्नेहमयी चौधरी,1,स्वच्छ भारत,1,स्वतंत्रता दिवस,3,स्वराज सेनानी,1,हबीब तनवीर,1,हरि भटनागर,6,हरि हिमथाणी,1,हरिकांत जेठवाणी,1,हरिवंश राय बच्चन,1,हरिशंकर गजानंद प्रसाद देवांगन,4,हरिशंकर परसाई,23,हरीश कुमार,1,हरीश गोयल,1,हरीश नवल,1,हरीश भादानी,1,हरीश सम्यक,2,हरे प्रकाश उपाध्याय,1,हाइकु,5,हाइगा,1,हास-परिहास,38,हास्य,59,हास्य-व्यंग्य,78,हिंदी दिवस विशेष,9,हुस्न तबस्सुम 'निहाँ',1,biography,1,dohe,3,hindi 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रचनाकार: गोविन्द बैरवा की कहानी - रोशनी
गोविन्द बैरवा की कहानी - रोशनी
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