ज्योतिर्मयी पन्त की संस्मरणात्मक कहानी - रामलीला, तब!

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रामलीला, तब ! `` माँ का स्वास्थ्य कुछ ठीक नहीं था अतः इलाज के लिए उन्हें अपने साथ लाने जब गई तो पहले बहुत आनाकानी करने लगी। अब इस उम्र में ...

रामलीला, तब ! ``

माँ का स्वास्थ्य कुछ ठीक नहीं था अतः इलाज के लिए उन्हें अपने साथ लाने जब गई तो पहले बहुत आनाकानी करने लगी। अब इस उम्र में कुछ न कुछ तो लगा ही रहेगा। इतनी चिंता की कोई बात नहीं। अब बेटी के घर कैसे रहूंगी `` आदि न जाने कितने बहाने भी बनाये पर बहुत कहने पर मान गयी इस शर्त पर कि वह पेइंग गेस्ट की तरह रहें जिससे बेटी के घर रहने का पाप नहीं होगा। और इलाज के बाद वे वापस लौट जाँय. अब माँ साथ आ तो गयी थी पर उनका मन अधिक लग नहीं रहा था। इसी बीच माँ की बचपन की सहेली,जो उनके लिए बहन से बढ़ कर थी। उनका पत्र मिला। वह लगभग चालीस साल के विदेश प्रवास के बाद भारत आ रहीं थीं। उम्र के इस दौर में उन्हें भी अपने लोग ,अपने देश और अपने साथियों से एक बार मिलने की चाह व्याकुल कर रही थीं। उन्हें यह तुरंत सूचित कर दिया कि माँ आजकल देहली में ही हैं। अब यह तय हो गया कि रेवती मौसी पहले हमारे साथ ही कुछ दिन रहेंगी बाद में अन्य जगह जाने का प्रोग्राम यहीं आकर तय किया जायेगा।

सहेली के आने की खबर से ही ऐसा चमत्कार हो रहा था कि माँ के मन में जिजीविषा की तरंगें उठने लगी। मौसी के आने पर क्या करना है क्या नहीं। ..देहली भी दिखाना होगा और खरीदारी भी करनी होगी। उनके खाने -पीने की पसंद का ध्यान भी रखना होगा इतने सालों में न जाने कितना बदलाव आ गया होगा ?हम सभी बहुत उत्साहित थे खास तौर पर बच्चे। जिन्हें इन दिनों नानी का सुख मिल रहा था अब एक और नानी आने वाली थी अब किस्से कहानियों की कोई कमी नहीं और बात- बात पर हमारी रोक- टोक से भी मुक्त थे. नियत समय पर मौसी को एयरपोर्ट से घर ले आये। मौसी और माँ यूँ तो हम उम्र थीं पर मौसी पर विदेश का पूरा प्रभाव झलक रहा था। वह बुज़ुर्ग लग रही थी पर एकदम स्वस्थ और चुस्त - दुरुस्त। दोनों सहेलियों का मिलन तो देखते ही बनता था। हँसी-ख़ुशी -रोना सभी एक

.. साथ। सबसे मिलना -मिलाना ,परिचय,चाय -नाश्ता फिर मौसी के स्नान-ध्यान के बाद भोजन। थोड़ी देर आराम करने की बात तो हुई पर मौसी बोली इतने युगों की बातें करनी हैं। .``.बच्चों..तुम लोग आराम कर लो। हमें तो आराम की फुर्सत नहीं फिर न जाने कब मिलना होगा? अतः अभी तक की व्यथा कथा पूरी कर लें``। पर बच्चे भी कहाँ सुनने वाले थे। बोले। .`` हम भी पुराने ज़माने की बातें सुनेंगे ` बच्चों को रोकने का मन नहीं हुआ क्योंकि मैं स्वयं ही इतना उत्सुक थी कि आखिर ये दोनों क्या बातें करेंगी?

मौसी और माँ अब एक ही पलंग पर बैठ गयी थी। बच्चे उनके सामने। मैं भी एक कुर्सी खिसका कर पास ही आ बैठी।

दोनों महिलाएँ जैसे दो अल्हड़ किशोरियां बन बैठी। उनके बातचीत का ढंग ,बात -बात पर हँसना- खिलखिलाना ,एक दूसरे का हाथ पकड़ लेना। पहले मेरी - । बात, अरे हाँ !!! । .....उस दिन की बात ,फलां दिन फलां जगह । ..घर- कॉलेज न जानें कितने लोगों की कितनी बातें, कितनी घटनाओं का ज़िक्र होता रहा। कई बातें हमारी समझ से बाहर थी फिर भी सब शांत होकर सुन रहे थे। कोई बोरियत नहीं हो रही थी। मौसी ही बीच में बच्चों को भी शामिल कर लेती। कैसी लग रही हैं बुढ़ियों की पुरानी बातें ? तुम लोग भी अपने दोस्तों के साथ ऐसी मस्ती करते हो ?

बच्चे बड़े अनमने होकर बता रहे थे। .``नानी !हम को तो दिन भर स्कूल ,फिर होमवर्क। फिर ट्यूशन। बाकी बचे समय में टी.वी,कंप्यूटर। दोस्त हैं ही कहाँ ?जो हैं वे नेट फ्रेंड्स। इतनी बातें और मस्ती के लिए समय ही कहाँ है?.घर से बाहर तो मम्मी पापा जानें भी नहीं देते। ``

मौसी बोली । ....``.जमाना कितना बदल गया । ..नया ज़माना कितना सुख-सुविधाओं से युक्त। हैं यंत्रों -उपकरणों से हर काम सरल हो गया है। हमारे समय कष्टों की भरमार थी। लेकिन कभी सोचती हूँ हमारा समय अधिक अच्छा था मानवता ,दया ,प्यार के लिए दिलों में जगह थी ,बड़ों का आदर था उनकी आज्ञा मानना कर्तव्य होता था। आजकल तो घर में माँ-बाप और बच्चों में सामंजस्य की कमी है बच्चों को ममता ,प्यार ही नहीं मिल पाता ,माँ पिता काम करते हैं। परिवार एकल हो गए हैं। कीमती उपहारों से बच्चों को फुसलाया जाता है। बच्चे भी मनमानी करते हैं ``.

माँ बोली बेटा! बच्चों का होम वर्क आदि होगा ,देख ले बातें तो होती रहेंगी। तभी छोटा बेटा नील बोल उठा _``नहीं नानी ,आज कोई काम नहीं है। कल स्कूल में `हौली डे `होम वर्क मिलेगा न दशहरा ब्रेक होने वाला है। इस बार छुट्टियों में खूब मज़ा आएगा। दोनों नानियों के साथ। ``

दशहरा का नाम क्या लिया नील नें कि मौसी की आँखों में एक अद्भुत चमक सी दिखाई दी। ``अरे वाह! मुझे तो ध्यान ही नहीं था --कि रामलीला के दिन हैं। माँ से बोली नीतू याद हैं वे बचपन के दिन। रामलीला हमारे लिए क्या हुआ करती थी?माँ बोली सब कुछ भूल सकते हाँ पर ये नहीं उनकी आँखें भी कुछ शरारत का आभास देने लगी। मुझे भी बड़ी उत्कंठा सी हुई कि क्या बातें थीं माँ ने तो कभी बताई ही नहीं। तभी बच्चे भी बोल उठे नानी बताओ न। हमने तो कभी रामलीला देखी भी नहीं। सिर्फ किताबों में पढ़ा है या कभी टी वी में दशहरे की ख़बरों में कुछ झलकियाँ देखी हैं। मौसी एक दम नाराज़ सी होकर माँ से बोली ---``हद हो गयी। नीतू !तुमने इन्हें कुछ बताया ही नहीं अब तक। आखिर ये किस से सीखेंगे ,सुनेंगे अपनी परम्पराएँ। मैं तो विदेश ही रही। यहाँ की यादों में डूबती उतराती रही। पर अपने बच्चों को अपने बचपन की बातें हमेशा सुनाती रहीं। कुछ तो जानेंगे अपनी बातें। पर तुमने क्या किया नीतू ?``

`` चलो अब मैं ही कथा वाचक बन जाँऊ। ``मौसी बोली। दोनों बेटों को लगा कि अब बहुत मनोरंजक कथा सुनने को मिलेगी तो पापा को भी बुलाना चाहिए। अब सारे श्रोता अधीर हो रहे थे। मौसी और माँ ने मिलकर जो बताया वह कुछ यों था....अब ये तो तुम जानते ही होगे की श्री राम चन्द्र के जीवन की घटनाओं को नौ दिन में मंचपर नाटक के रूप में दिखाया जाता है। इसे रामलीला कहा जाता है ,.....

तो सुनो। ...हमारे ज़माने में न तो आज की तरह टी। वी थे न कंप्यूटर न मोबाईल। फोन और रेडियो भी इक्के दुक्के घरों में ही होते थे। त्यौहार और मेले आदि कभी कभार होते थे तो बच्चे ख़ुशी से उन्मत्त हो जाते। ऐसे में दशहरे का त्यौहार हम सब बच्चों को इसलिए भाता था क्योंकि दस रातों तक रामलीला देखने का अवसर मिलता था। रामलीला देखने जाने के लिए जो तैयारियां होती थी उन्हें सुनकर तुम्हें आश्चर्य होगा। कोई थियेटर नहीं। किसी मैदान में जहाँ सिर्फ मंच आदि बनाया जाता था। रामलीला का आयोजन होता। लोग अपने घरों से ही चटाई ,दरी आदि ले जाते और जल्दी से जल्दी पहुँच कर जगह घेर लेते। जिसके लिए बच्चे सदा तैयार मिलते। रात को कहीं नींद की झपकियाँ न आयें और कोई दृश्य छूट न जाएँ। तो हमारी टोलियाँ खट्टे -मीठे चूर्ण बनाने की तैयारियों में जुट जाती। ताकि उनके चटकारे लेकर नींद को भगाया जाये और पूरा आनंद लिया जाये। अब यह भी ज़रूरी होता कि घर की -पड़ोस की महिलाओं को भी जाने के लिए उकसाया जाये तभी हम लड़कियों को भी जाने की अनुमति मिल सकेगी।

दूसरी ओर.नवरात्रि से पहले ही रामलीला के विविध पात्र अपने- अपने पार्ट का अभ्यास शुरू कर देते बाद में ड्रेस रिहर्सल भी होती। .आज की तरह मंच को सजाने और रंगीन लाइट की भी सुविधा नहीं होती थी। बिजली की रौशनी के अलावा पेट्रोमैक्स लाइट की व्यवस्था करनी पड़ती। मंच के परदे भी हाथ से खींच कर खोले और बंद किये जाते। कोई पात्र अपनी पंक्ति भूल जाता तो अपने मन से ही वाक्य गढ़ लेता कई बार तो अरे! रावण तूने सीता देनी है की नहीं ?बीडी तो दे जैसे वाक्य बोल देता या परदे के पीछे से बताने तक हारमोनियम की धुन पर ऊओं ऊऊऊ गाता रहता। महिलाएं तो भक्ति भाव में इतनी डूब जाती राम-सीता आदि के मंच पर आते ही फूल पत्ते और सिक्के उछाल कर फैंक देती। जिन पात्रों का काम सराहनीय होता उन्हें लोग सवा रूपये से लेकर पांच-सात रूपये का इनाम देते और मंच से जोर शोर से अपने नाम का प्रचार करते। जिस दिन बंदरों की सेना मंच पर आती तो कई बच्चे स्वयं ही तैयार हो मंच पर और आस पास कूद-फांद मचाने लगते और असंख्य बंदरों की सेना का रूप साकार करते। इस बात से ही खुश हो जाते कि उन्होंने रावण वध में राम का साथ दिया। इसतरह रावण वध। अयोध्या आगमन ,भारत मिलाप ,राज्याभिषेक आदि से राम लीला सम्पूर्ण होती।

तब घरों में आस -पास के बच्चे,छोटे भाई- बहन भी रामलीला देखने के बाद इतने उत्साहित रहते कि.. पहले दिन की कथा की पुनरावृति की जाती। माँ, ताई ,चाची की साड़ियाँ,सिन्दूर ,काजल ,कुमकुम ,पावडर आदि चुपके से ले लिए जाते। पुरानी पतंगों या झाडू की तीलियों से धनुष- बाण बनाये जाते. डंडों में कपडे लपेट कर या लोटे बाँध कर गदाएँ भी तैयार हो जाती । गत्ते और कागजों के मुकुट बनते। ,फूलों के गहने ,हार बनते। बहनों या माँ से मालाएं मांगी जाती। भुट्टे के सुनहरे बालोंसे बाल,दाढ़ी-मूँछे बनाई जाती। मेज यदि तबला बनता तो मुँह से ही हारमोनियम की धुनें निकाली जाती और संवाद भी अपने ही होते चारपाई या तखत मंच बन जाता और सभी अपनी योग्यता के अनुसार कई -कई किरदार निभाते। हर वर्ष इसी तरह से पात्र बड़े होकर अच्छे अभिनेता भी बन जाते और सचमुच कि रामलीला में हिस्सा ले सकते। आबाल-वृद्ध सभी आनंद लेते।

मौसी बोली इन राम लीला के दिनों में कुछ और लीलाएं भी हो जाती। माँ ने अचकचाकर रोकना चाहा,बस करो इतना काफी है। रामलीला तो पूरी हो गयी न।

पर मौसी कहाँ रुकने वाली थी। उन दिनों लड़के लड़कियों का आपस में बात करना भी बुरा माना जाता था। गर्ल फ्रैंड-बॉय फ्रैंड तो जानते ही नहीं थे लोग। लेकिन रामलीला देखने आने -जानें में कई

लोगों के दिल मिल जाते। ``

`` फिर बोली अपने जीवन में एक बार की रामलीला तो अविस्मरणीय ही हो गयी ,नीतू भूली तो नहीं ?``माँ का चेहरा देखने योग्य था। कुछ भय और कुछ लज्जा का मिश्रित सा भाव झलकने लगा। ``रहने दो न ,इन बातों को अब क्या लेना देना ?``

अरे !लेना देना कैसे नहीं ?ये भी तो जाने कि हम सदा से ऐसी बूढी औरतें नहीं कि हर समय खिट-पिट- टिकटिक करने वाली नहीं। हम भी कभी ऐसे ही बच्चे थे और शरारतें भी कर ही लेते थे। ``

एक बार एक दिन सारी तैयारी रामलीला में जाने की हो गई थी पर न जाने किसने और कैसे ये प्रोग्राम बनाया कि आज मिडनाइट शो में अंग्रेजी सिनेमा देखा जाय। अब जहाँ दिन में ही हिंदी सिनेमा देखने की अनुमति लड़कियों को मिलनी नामुमकिन होती थी तो रात को वह भी अंग्रेजी सिनेमा बिना किसी बड़े -बुज़ुर्ग के साथ। ....असंभव बात। पर दोस्तों के साथ यह भी बताना ठीक नहीं कि हमारे घर के लोग दकियानूस हैं या हम इतने डरपोक हैं। .. सभी बड़ी हिम्मत दिखाकर जाने को तैयार....खैर।

साथ के लोगों से यह कह कर हम दूसरी जगह पर बैठे हैं ,हम पांच- छह लोग सिनेमा हॉल पहुंचे। टिकट लिया। छात्रों के लिए विशेष छूट होती थी हॉल में जाकर बैठ गए। सच मानना जो एक भी शब्द समझ में आया हो। कथा तो थोड़ी बहुत समझ में आई पर और कुछ नहीं लोग हँसते तो हम भी हंस देते। वे सीटी बजाते तो हम ताली। पहली बार स्त्री पात्रों के पहनावे और सिगरेट पीते हुए देखा तो हॉल के अँधेरे में भी बहुत शर्म सी महसूस हुई। जैसे तैसे पिक्चर पूरी हुई। एक अजीब एहसास हो रहा था। कुछ नया सा कर पाने का।

हाल से बाहर आते ही देखा की इस बीच बहुत तेज़ आंधी आई और पानी बरसा ,सड़क पर पत्ते गिरे पड़े थे पानी भरता। सबने एक दूसरे का हाथ थामा और सुनसान सी सड़क पर दौड़ लगा दी। सारा शहर शांत था। घर पहुँचते ही चाची ने दरवाज़ा खोला और आग्नेय नेत्रों से घूरती हुई बोली। .....हो गयी आज की रामलीला पूरी। ? क्या क्या हुआ आज ?हमने उस दिन होने वाले सारे आख्यान बता दिए। उन्होंने एक अजीब मुस्कराहट बिखेरी और चली गयी । हम भी भीगी बिल्लियाँ बन सोने चले गए। सुबह जब उठे तो माँ ने बुला कर पूछा। ...कौन से पंडाल की रामलीला देख के आये हो और लोग तो ग्यारह बजे घर आ गये इतनी आंधी पानी में रामलीला का मंचन रुक गया था कहाँ थे तुम लोग रेवती। . नीतू बोलो। फिर हमें सब कुछ बताना ही था अन्यथा सारी उम्र के लिए उम्रकैद होती। .हमने सभी के नाम बता दिए साथ में दो सहेलियों के भाई भी थे ,जानकर माँ को तसल्ली हुई। एक मोहल्ले में रहने वाले सभी लोग एक दूसरे का ख्याल रखते थे। भाई सगे हों ,राखीबन्द हों या पडोस के लड़के एक अज्ञात बंधन से बंधे एक दूसरे की रक्षा को तत्पर रहते थे। माँ ने राहत की सांस ली छोकरियाँ अकेली नहीं गयी।

माँ और मौसी तो अपना बचपन याद कर पुलकित हो रहीथी। मुझे लगा हमारे पास अपने बच्चों को सुनाने के लिए क्या बचा है दिन भर की भाग दौड़ और तनाव के अलावा क्या है जो सुने-सुनाएँ। और हमारे बच्चे तो और भी खोखली सी ज़िन्दगी जी रहे हैं। बस्तों के भारी बोझ। कम उम्र में ही पढाई और प्रतिस्पर्धा का तनाव। माँ बाप के प्यार से वंचित। उनका जीवन तो अपनी ही बाललीलाओं। से वंचित है और रामलीला उनसे बहुत दूर। वे कार्टून ,विडिओ गेम के चक्रव्यूह में फंसे हैं अब हमें ही कुछ सोचना होगा।

तभी दोनों बेटों ने एक साथ कहा `` वाव नानी लोग! आपकी लाइफ कितनी इंटरेस्टिंग है लगता है आप बच्चे हैं और हम एकदम बूढ़े। ``

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ज्योतिर्मयी पन्त

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COMMENTS

BLOGGER: 2
  1. बेनामी1:13 am

    mausi, padh kar mazaa aa gaya! Aur saath main thode aasun bhi aaye

    जवाब देंहटाएं
  2. वाह ..........दी बहुत सही बात लिखी आपने .....जीवन की एक लीला आपकी कलम से वाह ...

    जवाब देंहटाएं
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रचनाकार: ज्योतिर्मयी पन्त की संस्मरणात्मक कहानी - रामलीला, तब!
ज्योतिर्मयी पन्त की संस्मरणात्मक कहानी - रामलीला, तब!
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