हरि भटनागर की कहानी - शिकंजा

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शिकंजा क़ स्‍बे में सर्कस आया था और मन्‍नू कुठरिया में बंद था। बंद किया था उसके बाप ने। और वह भी भारी मार-पिटाई के साथ। लेकिन कुठरिया में ब...

शिकंजा

क़स्‍बे में सर्कस आया था और मन्‍नू कुठरिया में बंद था। बंद किया था उसके बाप ने। और वह भी भारी मार-पिटाई के साथ।

लेकिन कुठरिया में बंद किए जाने और पीटे जाने का उसे उतना दुःख और रंज न था जितना इस बात का हुआ जब सर्कस के गेटकीपर ने उसके साथ क्रूर बर्ताव किया जो किसी भी माने में भूलने और क्षमा के योग्‍य न था․․․ इस घटना ने उसे हिलाकर रख दिया। वह रो रहा था और उसके आँसू थमने का नाम नहीं लेे रहे थे।

बात यों है कि क़स्‍बे में जबसे सर्कस लगने की बात फैली, मन्‍नू में दीवानगी भर गई थी। सर्कस लगने की ख़बर भर से वह दीवाना था, जब सर्कस का बड़े- से मैदान में, सामान गिरने लगा, बड़ा-सा आसमान जैसा तम्‍बू क्रेनों के शोर में हज़ारों कामगारों की मदद से उठाया जाने लगा, हाथियों की चिंघाड़, घोड़ों की हिनहिनाहट, शेर-चीतों के गर्जन से क़स्‍बा गूँजने लगा मन्‍नू अपना होशोहवास खो बैठा। वह लोहे की चद्‌दरों के घेरे के बाहर से सर्कस के शुरू होने का बेसब्री से इंतज़ार करने लगा।

दिनभर वह घेरे के बाहर मँडराता और शाम को आँगन में खरैरी खाट पर बिना रोटी खाए आ लेटता और शेर-चीतों-हाथियों के गर्जन को अपने अंदर महसूस करता। अँधेरा घिरते ही सर्कस की सर्चलाइट घरों की मुँड़ेरों, पेड़ों की पुलुइयों से होती हुई आसमान में अपनी विशाल जीभ लपलपाती- वह सोचता, सर्चलाइट का यह कौन-सा खेल है जिसने पूरे क़स्‍बे और उसके आस-पास के गाँवों को अपनी रौशनी के उल्‍लास में भर रखा है कि सर्कस शुरू होने से पहले ही हज़ारों-लाखों की भीड़ मैदान की तरफ़ दौड़ पड़ी है․․․

मन्‍नू जानता था कि सर्कस देखने भर के पैसे उसके पास नहीं हैं, चाहकर भी माँ उसकी ख्‍़वाहिश पूरी नहीं कर सकती कि बाप चाय की दुकान पर दिन भर खटने के बाद भी पेट, सिर्फ़ पेट किसी तरह पाल रहे थे, ऐसे में सर्कस․․․

वह दुखी हो जाता। करवट बदलता। माँ खाट के नीचे थाली रख जाती। वह उसकी तरफ़ न देखता। थाली वैसी ही पड़ी रहती। बाप दुकान से थके-हारे लौटते। इसके पहले ही माँ कुड़कुड़ाते हुए थाली उठा लेती, इस डर से कि कहीं बाप थाली देख के बिफर न पड़ें। माँ मन्‍नू के अंदर चल रहे तूफ़ान को जानती थी लेकिन कुछ भी करने को लाचार थी। गहरी साँस ही उसका सहारा थी।

जिस दिन सर्कस का शुभारंभ हुआ, आतिशबाज़ी के साथ कलाकारों, हाथी, शेर-चीतों, घोड़ों, ऊँटों के सलामी जुलूस के बाद जब बड़े- से जाल के ऊपर कलाकर कई दिशाओं से सैर करने वाले झूलों से करबत दिखाते हुए कूदे, उन्‍हीं के साथ रंगीन चेहरे लिए, सिर पर लम्‍बी छत्तरीनुमा टोपी फँसाए, नाटे और लम्‍बे क़द के जोकर होल्‍डार जैसे ढीले रंग-बिरंगे कपड़ों में उन्‍हीं की नकल करते हुए हास्‍य बिखेरने लगे तथा साजिंदों ने बड़े-बड़े ड्रमों पर मुगरी मारते हुए झाँय-से संगीत की झन्‍कार छोड़ी- लोगों का उल्‍लास देखते ही बनता था।

मन्‍नू प्राइमरी स्‍कूल के आम के विशाल दरख्‍़त की डाल पर कई सारे जवान और बच्‍चों के बीच किसी तरह फँसा, यह दृश्‍य देखते हुए मगन था कि उसे नीचे खड़े बाप दिख गए जो उसे ढूँढ़ते हुए यहाँ तक आ पहुँचे थे। वे बेपनाह गुस्‍से में थे। उन्‍होंने मन्‍नू को इतिहास का एक पाठ याद करके शाम को सुनाने को कहा था। इसीलिए काम छोड़ के जब वे दुकान से घर आए मन्‍नू को न पाकर गुस्‍से से भर उठे। उन्‍होंने तै कर लिया था कि आज उसे वे पाठ सिखा देंगे। इसी लिहाज़ से उन्‍होंने मन्‍नू से जो पेड़ से भयभीत-सा उतर आया था, पूछा- पाठ याद किया?

मन्‍नू की चुप्‍पी ने जो जवाब दिया, उसके जवाब में उन्‍होंने उसकी जो पिटाई की, मन्‍नू के लिए एक सबक थी। यही नहीं, बाप ने उसे अंधेरी कुठरिया में ढकेल दिया और बाहर से कुण्‍डी चढ़ा दी- यह कहते हुए कि पढ़ाई-लिखाई गई चूल्‍हे में, सर्कस देख रहा है हरामखोर! देख सर्कस! गंदी गालियाँ देते हुए उन्‍होंने लोहे का जंग-खाया ताला जड़ दिया, उसकी चाबी धूल से भरे आले में फेंकी और पत्‍नी से कहा कि तूने ही इसे बरबाद किया है, अब इसे कुठरिया में बंद रहने दे, नहीं तो बाँस बजा दूंगा․․․ बाप बाहर निकले ज़ोरों से यह कहते कि दुकान बढ़ा के आता हूँ फिर बताता हूँ कि सर्कस क्‍या होता है? हरामखोर, नीच․․․

बाप के बाहर जाते ही मन्‍नू उठ बैठा। उसे बेतरह गुस्‍सा आ रहा था बाप पर जो घर में तो उसे अक्‍सर पीटता ही रहता था, आज तो हद कर दी, बीच सड़क पर पीटा। उसे गंदी गालियाँ दीं, उसकी माँ को भी कहीं का नहीं छोड़ा। कैसा बाप है यह! क्‍या किया मैंने? यही कि समय पर उसका दिया सबक याद नहीं किया और हमेशा जो कहता, कर देता था, फिर आज यह हरमपन क्‍यों? यह तो हद है? सर्कस देखने क्‍या चला गया, वह भी पेड़ पर चढ़के देख रहा था? न पैसा माँगा, न रुपया? माँगता तो पता नहीं क्‍या करता। साला! कमीन!!- उसने गुस्‍से में बाप को गंदी गालियाँ दीं और दीवार पर ज़ोरों से थूका। फिर पता नहीं क्‍या हुआ कि उसे मलाल ने घेर लिया- उसे बाप को गालियाँ नहीं देनी चाहिए।बाप मारता-पीटता है तो सिर्फ़ इसलिए कि मैं बिगडूँ नहीं। ग़लत सोहबत में न फँसूँ? दरअसल, बाप अपनी कड़ी मेहनत से परेशान है, इसलिए कहीं का गु़स्‍सा कहीं उतारता है। मुझे उसे माफ़ कर देना चाहिए। उस पर गुस्‍सा नहीं करना चाहिए․․․

यह सोचते सोचते उसकी आँखों में आँसू आ गए और वह रोने लगा।

यकायक उसे लगा कि दरवाज़े के पास माँ खड़ी है जो शायद उसकी टोह ले रही है।

बात सच थी। दरवाज़े की संध से माँ झाँक रही थी और फुसफुसा रही थी कि रोटी खा ले, बना के लाई हूँ। सकपैता का साग भी है, साग तुझे पसंद है न, गुड़ भी है लाल वाला, ले, खा ले․․․

वह कुछ नहीं बोला। माँ ने दरवाज़े के नीचे से थाली उसकी ओर सरकाई।

ग़ुस्‍सा दिखलाते हुए उसने थाली वापस माँ की ओर सरका दी।

माँ ने फिर सरकाई तो उसने फिर लौटा दी।

दो-चार बार ऐसा होता रहा। पाँचवीं बार जब मन्‍नू ने थाली सरकाई तो माँ नाराज़ हो गई- भाड़ में जा! खाओ न खाओ। जैसा बाप वैसा बेटा। दोनों एक- से टेढ़े-अकड़फूँ। किसकी- किसकी गु़लामी करूँ!!

मन्‍नू का दिल कचोट उठा। नाहक उसने माँ का दिल दुखाया। यकायक उसका मन हुआ कि माँ को आवाज़ दे और कहे तू परेशान न हो, ला, मैं मेरी रोटी खा लेता हूँ!

उसने आवाज़ देनी चाही, लेकिन मुँह से आवाज़ न निकली।

माँ रसोई में थी, बरतन घिस रही थी। रात के गंदे बर्तन वह रात में ही धो लेती थी। काफ़ी रात गए बाप आते तब तक वह एक नींद ले लेती थी। बर्तन घिसकर वह दालान में पड़ी खाट पर लेट गई। आँगन के घिरौंदे पर मद्धिम जल रही लालटेन की पीली रोशनी में दिख रहा था- माँ माथा खुजला रही थी। शायद मच्‍छरों ने उसे घायल कर रखा हो। पैर में भी मच्‍छरों का हमला था तभी वह बाध से एडि़या रगड़कर खुजाल मिटा रही थी। पैर पर कंबल डालकर थोड़ी देर में वह खर्राटे भरने लगी। माँ मिनटों में सो जाती थी।

मन्‍नू ने गहरी साँस ली। यकायक उसे अपने मुँह में ख़ून के खारेपन का एहसास हुआ। ज़ाहिर था पिटाई से एक दाँत ऊपर के होंठ में घुस गया था जिसमें इस वक्‍़त टीस उठ रही थी। उसने हथेली से चोट खाए हिस्‍से को दबाया। गुस्‍से के हवाले होते हुए उसने बदन के जो सारे कपड़े उतार फेके थे, यह सोचते हुए कि कड़ाके की ठण्‍ड में वह जान दे देगा, तब पता चलेगा बाप को कि बेवजह पिटाई का नतीजा क्‍या होता है․․․ वह कपड़ों की ओर देखने लगा।

उसने कपड़े उठाए और पहनने लगा। संध से उसने माँ को देखा जो करवट लेकर सो रही थी। इस वक्‍़त खर्राटे शांत थे।

माँ यही कोई चालीस साल की होगी लेकिन शक्‍ल-सूरत से पचास के ऊपर की दिखती। बदन पर माँस का नाम न था, हडि्‌डयाँ ही हडि्‌डयाँ थीं, नीली नसों से भरीं। मुँह पतला, लम्‍बा, माथा छोटा, आँखें पनीली, डब-डब करतीं। सीना धँसा। दूध पूरी तरह ग़ायब। बाल खिचड़ी, रूखड़, काली डोरी से बंधे थे जिसमें बाल कम डोरी ही डोरी दिखती थी। हाथ की उँगलियाँ लम्‍बी-लम्‍बी और हँड़ीली थीं।

बाप का ध्‍यान आते ही यकायक मन्‍नू की आँख लग गई। ठण्‍ड से जब नींद खुली, देखा-बाप आ गए थे, दालान में बोरे पर पालथी मारके बैठे खाना खा रहे थे। सामने माँ बैठी थी थाली में दाल-रोटी डाल देने के इंतज़ार में।

बाप काफ़ी देर तक चपर-चपर खाना खाते रहे। कभी मुँह ऊपर करते, कभी नीचे। मौन। माँ मौन। बाप कुठरिया की तरफ़ देखते जिसमें उसका बेटा कै़द है जिसने आज खाना नहीं खाया- पीटे जाने के कारण- यह सोचकर बाप आहत हो उठे हैं लेकिन वह ऐसा ज़ाहिर होने नहीं दे रहे हैं। माँ भी आहत है लेकिन चुपाई लगाए बैठी है․․․

पानी पीकर बाप ने पत्‍नी से छिपकर मन्‍नू के लिए थाली में खाना रखा और कम्‍बल उठाया। थाली नीचे से अंदर सरकाई और बनावटी गु़स्‍से में दरवाज़ा भड़भड़ाकर कहा- चुपचाप खाना खा ले! कम्‍बल पड़ा है, नीचे से खींच ले․․․

सुबह जब मन्‍नू की नींद टूटी, कुठरिया उजास से भरी थी। बाप तो मुँह-अँधेरे दुकान पर चले जाते थे और माँ रसोई के काम में लग जाती थी। इस वक्‍़त माँ क्‍या कर रही है- मन्‍नू ने सोचा और संध से झांका-

माँ आँगन के एक कोने में जहाँ कन्‍डैल का पेड़ है, बम्‍बे के सामने बैठी नहा रही थी। इस वक्‍़त वह पेटीकोट पहने है। नाड़े की गांठ को दांतों में दाबे वह बदन पर पानी डाल रही है। ज्‍़यादा पानी वह ख़र्च नहीं करती। सिर्फ़ चार-छे मग्‍गे से उसका काम हो जाता। उसने दो मग्‍गे पीठ पर डाले और दो छाती पर, एक से दोनों पाँव धोये। खुरदुरे फर्श पर एडि़याँ रगड़कर वह झटपट उठ खड़ी हुई। पेड़ के नीचे खड़े होकर हल्‍के कंपन के साथ जैसे ठण्‍ड लग रही हो ‘ओम नमः शिवाय' बुदबुदाते हुए, क्‍योंकि यही एक मंत्र था जिसे वह नहाते वक्‍़त बुदबुदाती थी, उसने सिर के ऊपर से - पेटीकोट गीला वाला नीचे सरकाते हुए पहना। मुचमुचा ब्‍लाउज बांहों से उतारकर आगे छाती पर जोड़ा। चिटपुटिया बटन टांके, धोती पहनी और कन्‍डैल के पेड़ पर चीखते आ बैठे कौवे को हड़ाती हल्‍का धुआँ छोड़ते चूल्‍हे के आगे आ बैठी। राख झड़ाकर उसने कनजही लुघरियों पर फूंक मारना शुरू की।

आग जब लहक उठी, वह रोटियाँ बनाने लगी। कटोरदान में दो-चार रोटियाँ होते ही उसने कुठरिया की तरफ़ देखा जहाँ रात से मन्‍नू बंद पड़ा था। रात में उसने खाना भी नहीं खाया था, भूखा सो गया था। इस वक्‍़त वह उसे रोटी खिलाकर रहेगी चाहे जो हो जाए- इस ख्‍़याल से उसने ताला खोलकर दरवाज़ा खोला। उसने मन्‍नू से कहा कि अगर तू रोटी नहीं खाएगा तो मैं भी नहीं खाऊँगी।

जा, पानी पी, पखाने जा, रोटी तैयार है।

मुझे भूख नहीं है।

क्‍या खा लिया है तूने जो भूख नहीं है।

जूता!

माँ हँस पड़ी। पान से रँजे उसके दांत बाहर को निकल पड़े वह तो तू रोज़ खाता है, अब रोटी खाले, चल उठ․․․

चूल्‍हे के आगे, पांव के पंजे पर थाली रखे मन्‍नू ने दल में डुबोकर पहला कौर मुँह में डाला ही था कि साइकिल खड़खड़ाई। दोनों समझ गए कि बाप आ गये हैं। अधूरा खाना छोड़कर मन्‍नू ने थाली घिरौंदे के अंदर सरका दी और कोठरी में जा घुसा। माँ ने हड़बड़ी में मुस्‍कुराते हुए कुण्‍डी चढ़ाई, ताला चाँपा, आले में चाबी फेंकी और पखाने में घुस गई।

लौटी तो बाप आँगन में खड़े थे। इशारे से पूछ रहे थे कि मन्‍नू को खाना दिया?

इशारे में ही रोष में माँ ने जवाब दिया- नहीं! तुमने जो मना किया है।

कैसी नालायक औरत है, च-च-च!!! बाप अफ़सोस में सिर हिला रहे थे।

मैं नालायक हूँ तो तुम लायकी दिखाते! क्‍यों बेवजह बच्‍चे की कुंदी करते रहते हो․․․

अच्‍छा चुप रह। बहुत बकबका रही है।

क्‍यों चुप रहूँ।

गहरी साँस छोड़ते बाप झिंलगी खाट में धंस गये। वह छै फुट लम्‍बे थे और इंतहा गोरे। सिर के बाल काले थे और लटियाए। नाक लम्‍बी थी और टेढ़ी-मेढ़ी। मूँछ-दाढ़ी बेतरतीब बढ़ी हुई। वह जांघिया पहने थे और रुई की फ़तूही्र।

सिर झटकते हुए उन्‍होंने कहा- क्‍या करूँ। कुछ समझ नहीं आता। मन्‍नू को सर्कस दिखलाना है। बस दो तीन रोज़ और ठहर जा! मुकुंद बाबू उधारी देने ही वाले हैं․․․

मन्‍नू ने गहरी साँस ली अब पैसा मिल भी जाए तो सर्कस नहीं जाऊँगा, नहीं जाऊँगा, नहीं जाऊँगा।

बाप ने ताला खोलकर कुंडी खोली तो अंदर से सांकल कसी थी।

देख लो अब इसकी हरामीपंती - बाप ने दरवाज़े पर ज़ोर लगाते हुए पत्‍नी की तरफ़ देखा।

अच्‍छा तुम दुकान जाओ, मैं मन्‍नू को समझा लूंगी।

और मन्‍नू समझ गया था, मान गया था, माँ के समझाने पर नहीं बल्‍कि अपने जिगरी दोस्‍त आलोक कोछड़ के समझाने पर।

जिस सर्कस को उसने न देखने की क़समें खाई थीं, उस सर्कस को देखने वह आज शाम को जाएगा। उसका दोस्‍त उसे अपने पैसे से सर्कस दिखला रहा है- यह बात उसे रोमांचित कर रही है।

आलोक ने कहा- मन्‍नू ज़मीन पे या पीछे पटिये पे नहीं, बाल्‍कनी में बैठेगा जिसमें बड़े लोग बैठते हैं, सुन्‍दर कुर्सी पर। बस थोड़ा रुकना होगा दस मिनट, मैं अंदर गया और लौटा फिर टिकट मन्‍नू का․․․

और जो कोई रोके, अंदर न जाने दे तो मन्‍नू ने शंकित होते हुए पूछा।

इसकी फिकर तू क्‍यों करता है। हाथ में टिकट होना चाहिए बस। किसी का नाम थोड़े ही लिखा है उस पर। कल पापा के टिकट पर नन्‍हकू कम्‍पाउण्‍डर देखके आया।

सुबह के नौ बजे थे। सर्कस की ख़ुशी इस क़दर मन्‍नू पर तारी थी कि वह उसी के ख्‍़वाब में डूबा था। लग रहा था जैसे मेले जैसी भीड़ के बीच किसी तरह रास्‍ता बनाता वह सर्कस के विशाल तंबू के नीचे आ बैठा है जहाँ बड़े भारी जाल पर कलाकार झूले से कूद रहे हैं। साजिंदे जलती-बुझती रोशनी के बीच रोमांचक संगीत बिखेर रहे हैं।

माँ ने कहा बाबू ने जो सबक दिया था, याद कर ले। सर्कस तो पाँच बजे जाएगा। कहीं फिर बाबू का दिमाग़ पल्‍टा न ले ले․․․

उसने माँ की बात पर ध्‍यान न दिया। माँ ने आगे कहा बाबू की जांघिया फट गई है, सिलना है, ले सूई में धागा डाल दे, मुझे तो कुछ सूझता ही नहीं, अंधी हो रही हूँ․․․

एक शो में लाख- एक लोग तो सर्कस देखते ही होंगे․․․ मन्‍नू माँ की तरफ़ देखता बोला।

माँ ने माथा सिकोड़ा मैं कुछ कह रही हूँ कि नहीं․․․

लाख लोग नहीं होते? मन्‍नू फिर ज़ोर से बोला।

भाड़ में जा तू माँ झुँझला उठी।

शाम को जाऊँगा।

माँ हँसी। मन्‍नू ने उसकी प्‍यारी ली और कोठरी में घुस गया। ख़ुशी की तरंग में बहते हुए उसने छत की छड़ पकड़ी और ज़ोर-ज़ोर से झूलने लगा।

शाम को चार बजे जब वह बालों में पानी लगा के टूटे दाँतों वाले कंघे से बाल सँवारता हुआ धूल और तेल से चीकट होते लिसलिसे आले में रखे छोटे-से धुँधले आईने में किसी तरह अपने को निहार रहा था, दरवाज़े की साँकल बजी। मन्‍नू समझ गया आलोक है। आलोक इसी तरह साँकल बजाता है।

माँ रास्‍ता रोकती बोली रोटी खा के जाना, सुबह से तूने अन्‍न छुआ तक नहीं।

हट तो तू। आलोक बाहर खड़ा इंतज़ार कर रहा है।

करने दे इंतज़ार।

अच्‍छा हट․․․ मन्‍नू माँ को परे करता बाहर की तरफ़ भागा।

सामने मुस्‍कुराता आलोक था।

नॉर्मल स्‍कूल चौराहे से मुड़ते ही सुन्‍दरलाल पार्क था जहाँ सर्कस अपने वैभव में डूबा था। शेर-चीतों की हुँकार के साथ हाथियों की चिंघाड़ गूँज रही थी।

चारों तरफ़ लोगों की भीड़ थी। आदमी, औरत, बच्‍चे। बूढ़े भी, जवान भी। कुछ लोग अपने बूढ़े माँ-बाप को काँधे पर लादे आए थे। कुंभ जैसा नज़ारा था। इसी भीड़ में कचालू बिक रहा था। बच्‍चों के खिलौने तो कहीं गुड़ की पट्‌टी। हर तरफ़ चीख-गुहार थी। लोग खाने के लिए टूटे पड़ रहे थे।

मन्‍नू टिकट की खिड़की पर लोगों की मारा-मारी देखके घबरा गया, बोला- आलोक, टिकट कैसे मिलेगा, देख रहे हो․․․

सब देख रहा हूँ, तू घबराता क्‍यों है? अपने टिकट के लिए अभी एक आदमी नहीं, देख बो बाल्‍कनी वाली खिड़की ख़ाली पड़ी है।

आलोक ने खिड़की पर जाकर टिकट ख़रीदा और दोनों सर्कस के विशाल गेट की ओर बढ़े।

सामने आसमान जैसा तम्‍बू था। हर तरफ़ बड़े-बड़े हेलोजन, ट्‌यूब लाईट्‌स, रंग-बिरंगे बल्‍बों का जाल। पूरा जादुई खेल था। तम्‍बू के अंदर तो सुन्‍दर झाँकी जैसा दृश्‍य था। गेट के बाएँ हाथ पर सीढि़यों और जाजिमों पर बैठने वालों का अंदर जाने का सँकरा और चक्‍करदार रास्‍ता था। रास्‍ता बड़ी-बड़ी बल्‍लियाँ बाँधकर बनाया गया था जिनके गेट पर पुलिस जैसी वर्दी पहने गेटकीपर थे जो हाथों में रूल लिए, सिर पर कैप चाँपे अंदर घुसने को कसमसाती भीड़ को मुस्‍तैदी से रोके खड़े थे। गेट के दाएँ हाथ पर बाल्‍कनी का रास्‍ता भी सँकरा और चक्‍करदार था। इस गेट पर वैसी ही धज का बल्‍कि काफ़ी मोटा गेटकीपर था। यहाँ बीस- एक लोग होंगे जो इत्‍मीनान से खड़े थे अंदर जाने के इंतज़ार में।

आलोक इसी लाइन में लग गया।

सर्कस अभी शुरू नहीं हुआ था लेकिन अंदर बैण्‍ड बजने की आवाज़ें उठा रही थीं।

यकायक हरी बत्ती जली और उसी के साथ ज़ोरों से किड़किड़ाती घण्‍टी बजी और अंदर जाने का रास्‍ता खुल गया।

सर्कस शुरू हो चुका था। मन्‍नू नीम की उभरी जड़ पर बैठा आलोक के लौटने का इंतज़ार कर रहा था।

बैण्‍ड अब और ज़ोरों से बजने लगा था और ऐसे-ऐसे वाद्य बीच में बज उठते जिससे रह-रह जंगली जानवरों के चीत्‍कार का भ्रम होता।

सामने एक लाइन में बीसों ठेले थे जिनमें फुल्‍की चाट खाने वालों की भीड़ लगी थी। लोग उतावले हो रहे थे और धड़ाधड़ खाए जा रहे थे। मन्‍नू सोचने लगा, कैसे लोग हैं, देखने आए हैं सर्कस और मन फुल्‍की में लगा है।

मन्‍नू सोच रहा था और निगाह उस रास्‍ते पर थी जिसमें से होकर आलोक आने वाला है। गेट पर वही काफ़ी मोटा गेटकीपर अभी भी खड़ा था, बड़ा-सा रूल काँख में दाबे, सिर पर कटोरे जैसा हैट लगाए, बल्‍ली से टिका।

सहसा गेटकीपर टीन की कुर्सी पर बैठ गया। कान में खुसी बीड़ी निकालने लगा। होंठों में बीड़ी लगाकर उसने लाइटर चमकाया। बहुत सारा धुआँ उसके चेहरे पर आ घिरा।

यकायक गेटकीपर कुर्सी से उठा और बल्‍ली से बीड़ी बुझाता अंदर की तरफ़ तेज़ी से भागा। शायद किसी ने उसे आवाज़ दी थी। इसी बीच उस रास्‍ते से निकलता आलोक दिखा जो तकरीबन दौड़ता हुआ मन्‍नू के पास आया।

उसने मन्‍नू को टिकट थमाया और कहा ले, जा देख सर्कस। मैं घर जा रहा हूँ, माँ इतज़ार में होगी।

मन्‍नू जैसे ही गेट में घुसने को हुआ, अंदर से अचानक आकर उस मोटे गेटकीपर ने उसे रूल से रोक लिया कहाँ घुसा जा रहा है भाई! यह तेरी झुग्‍गी है क्‍या?

मन्‍नू ने कड़क आवाज़ में तनकर कहा- तमीज़ से बात कर।

गेटकीपर माथे पर बल डालकर हैट ठीक से जमाता बोला तमीज से ही बात कर रहा हूँ, यहाँ कहाँ घुसा जा रहा है?

तुझे दीख नहीं रहा है मन्‍नू रोष में बोला।

क्‍या दीख नहीं रहा है?

यही कि मैं सर्कस देखने के लिए जा रहा हूँ।

अच्‍छा, गेटकीपर नाटकीय अंदाज़ में बोला तो अमिताभ बच्‍चन सर्कस देखने जा रहे हैं और․․․

और क्‍या? मन्‍नू चीखा।

यही कि तेरी औकात है सर्कस देखने की, वह भी बाल्‍कनी में। चूतिया कहीं का। भाग यहाँ से, नहीं बो लात खैंच के दूँगा चूतड़ पर कि अपनी अम्‍मा की पोंद से जा लगेगा।

मन्‍नू चीखा मुझे औकात बताता है! मैंने टिकट ख़रीदा है बाल्‍कनी का, पैसा ख़र्चा है, मुझे अंदर जाने दे। मैं पेशाब के लिए बाहर निकला था, मुझे तू रोकता काहे को है?

तेरे जैसे लफन्‍टूस यहाँ हज़ारों आ खड़े होते हैं, चल फूट यहाँ से कि दूँ लात! गेटकीपर गरजा।

मार के देख। मैं अपने बाप को बुलाकर लाता हूँ फिर पता चलेगा तुझे․․․

मन्‍नू का यह कहना था कि गेटकीपर पगला-सा गया। आँखें लाल करके उसने मन्‍नू के मुँह पर ज़ोरों का लपाड़ा मारा, कंधे से उस पर हुमककर वार किया और गंदी-गंदी गालियाँ देने लगा बाप बुलाएगा बहन का․․ उसकी नौकरी में हूँ․․

कंधे का वार इतना जबरदस्‍त था कि मन्‍नू मैदा होती धूल में मुँह के बल गिरा। क्षण भर को समझ में नहीं आया कि अचानक क्‍या हो गया। फिर यकायक लगा कि वह धूल में औंधे मुँह पड़ा है। धूल से कपड़ों का सत्‍यानाश हो गया है। चेहरा भी धूल से अँट गया है।

यकायक वह गु़स्‍से से बेकाबू हो गया। दौड़कर उसने गेटकीपर के गट्‌टे में कसकर दाँत जमा दिए।

गेटकीपर ज़ोरों से चीख़ा, इतनी कि दूसरी तरफ़ के गेटकीपर और सर्कस के दूसरे कर्मचारी उसकी ओर दौड़े-भागे आए। यहाँ तक कि सर्कस का मैनेजर भी वहाँ आ पहुँचा।

अच्‍छा-ख़ासा तमाशा खड़ा हो गया था। हाथ से बेतरह टपकता ख़ून लिए गेटकीपर और धूल से छिबा मन्‍नू, आँखों में आँसू। रोता हुआ।

मैनेजर को बात समझते देर नहीं लगी। उसने माथा सिकोड़कर मन्‍नू से पूछा तेरे पास टिकट है?

हाँ, है!

तूने ख़रीदा है?

हाँ, मैंने ख़रीदा है।

ला दे टिकट।

मन्‍नू ने टिकट मैनेजर के हवाले किया। मैनेजर ने चश्‍मा ठीककर टिकट को उल्‍टा-पलटा, फिर पास आ खड़े हुए टिकट बेचने वाले बाबू से कहा कि इसकी जाँचकर बता कि टिकट आज का है या नहीं।

बाबू के हाथ में टॉर्च थी। वह दौड़ा हुआ खिड़की पर गया। थोड़ी देर में वह लौटा। उसने मैनेजर से कहा कि टिकट सही है साब! इसी शो का है। बाल्‍कनी का!!!

मैनेजर ने जलती आँखों से गेटकीपर को देखा जिसने मन्‍नू के साथ बदसलूकी की थी। उसे गहरा अफ़सोस हुआ। रह-रहकर वह सिर हिला रहा था। उसने मन्‍नू के सिर पर हाथ फेरा और कहा बेटा, मुझे दुःख है कि तुम्‍हारे साथ हमारे आदमी ने गंदा व्‍यवहार किया। इसके लिए मैं तुमसे माफ़ी माँगता हूँ सहसा उसने गेटकीपर को जलती आँखों से देखा और मन्‍नू को बालकनी में सबसे आगे इज्‍़ज़त से बैठाने का हुक्‍म दिया।

मन्‍नू सबसे आगे और सबसे अच्‍छी कुर्सी पर बैठ ज़रूर गया था लेकिन पता नहीं क्‍यों, शायद गेटकीपर की बदसलूकी के कारण उसका सारा मज़ा, उत्‍साह जाता रहा। कहा जाए कि सब कुछ किरकिरा गया था। उसे यहाँ बैठना भी अच्‍छा नहीं लग रहा था। लगता था जैसे गहरे अंधे कुएं में डूबा चला जा रहा हो। पता नहीं किस साइत में उसने सर्कस देखने की इच्‍छा पाली कि सब बरबाद हो गया․․․

कि तभी ज़ोरों का शोर उभरा।

मन्‍नू ने सामने देखा।

सामने गोल दायरा था लोहे के जंगलों से घिरा। रोशनी इतनी कि दिन का उजाला मात खा जाए। गोल दायरे के बीचोबीच एक ऊँची-सी गोल मेज़ थी जिस पर एक लड़की खड़ी थी। लड़की चड्‌ढी और ब्रॉ भर पहने थी। उसके होंठ चटख लाल थे। लड़की के सिर पर सिर टिकाए एक दस साल की लड़की लगभग वैसी वेष-भूषा वाली, टाँगें आसमान की तरफ़ किए, करतब दिखा रही थी। गोल मेज़ के बग़ल एक दूसरी गोल मेज़ भी थी जिस पर सिर जमाकर ढीला-ढाला लबादा पहने, रंगीन चेहरे का एक जोकर करतब दिखाती लड़की की नकल करते हुए, टाँगें आसमान में लहरा रहा था कि नीचे खड़े एक दूसरे जोकर ने जो निहायत नाटा था, लहरा के चलता था, इस जोकर के करतब को ग़ौर से देख रहा था, यकायक ज़ोरों से चीख़ कर उसने उसके चूतड़ पर बड़ा-सा फटा बाँस मारा कि उसका ढीला-ढाला पाजामा खुल गया और उसी के साथ जोकर गुलाटी खाकर मेज़ के नीचे आ गिरा․․․

इस दृश्‍य पर हँसी का जबरदस्‍त विस्‍फोट हुआ, तालियों और सीटियों की बमबारी होने लगी․․․

मन्‍नू ने देखा लोग लोट-पोट हुए जा रहे हैं, तालियाँ पीट रहे हैं, ठठा रहे हैं․․․

इस दृश्‍य ने मन्‍नू को ज़रा-भी रोमांचित नहीं किया। उल्‍टे उसे लगा कि फटा बाँस जोकर के नहीं, बल्‍कि उसे मारा गया है जिसके एवज़ में जनता वाह-वाह कर रही है कि क्‍या बाँस बजाया है! और ज़ोर का वार होना चाहिए था․․․

यकायक ज़मीन पर गिरा जोकर गोल मेज़ पर आ गया और सिर के बल होकर करतब दिखाने लगा। फटा बाँस मारने वाला जोकर यकायक फुर्ती से मेज़ पर चढ़ा और उसके पैर पर पैर जमाकर आसमान में टाँगें लहराने लगा।

अट्‌टहास और सीटियों का फिर से विस्‍फोट हुआ․․․

मन्‍नू ने देखा, कुर्सियों पर उसके अग़ल- बग़ल और पीछे लोहे के जंगले के चारों तरफ़ वृत्ताकार रूप में असंख्‍य लोग जमा थे। कुर्सियों की लम्‍बी पंक्‍तियों के पीछे ज़मीन पर बैठे लोगों और उनके पीछे सीढ़ीदार पटियों पर बैठे लोगों का हुजूम था। लोग इतनी बड़ी तादाद में थे कि गिनना असंभव था।

लोगों के हुजूम से नज़र हटाकर जब मन्‍नू ने गोल घेरे की ओर देखा एक निहायत ही नाटा गधा डुगर-डुगर चला आ रहा था। उसकी पीठ पर रंग-बिरंगी शक्‍ल का नाटा जोकर विभिन्‍न मुद्रओं में मटकता हुआ खड़ा था। घेरे में दाख़िल होते ही वह गधे को तेज़ गति से दौड़ाने लगा।

हँसी का ज़ोरदार धमाका तब और हुआ जब लम्‍बे जोकर ने कहीं से प्रकट होकर गधे पर सवार जोकर के सिर पर दौड़कर फटे बाँस का प्रहार किया कि जोकर ज़मीन पर आ गिरा।

इस दृश्‍य के बाद गोल घेरा ख़ाली था। चारों तरफ़ संगीत की स्‍वर लहरी थी। घोड़े पर सवार शिकारी की वेष-भूषा में एक नवयुवक प्रकट हुआ। घुड़सवार गोल घेरे के बीचोंबीच में आया और घोड़े की पीठ पर खड़े होकर पहले उसने जनता को सलामी दी फिर फुर्ती से घोड़े से उतरकर घेरे में ज़ोरदर चक्‍कर लगाने के लिए घोड़े पर हंटर फटकारे। हंटर की फटकर पर ज़ोरों की आवाज़ हुई जैसे बिजली कड़की हो।

घुड़सवार हैट लगाए काला चश्‍मा पहने रह-रह हंटर फटकारा जाता था जिसका असर था कि घोड़ा सरपट, बेपनाह दौड़े जा रहा था। फिर पता नहीं क्‍या था, घुड़सवार नेे मुँह से ज़ोरदार सीटी मारी कि दौड़ता घोड़ा जहाँ का तहाँ स्‍थिर हो गया। उसने आगे के दोनों पाँव उठा लिए और पिछले पाँवों पर खड़ा हो गया।

यकायक चालीस-पचास घोड़े गोल घेरे में दािख़ल हुए और पिछली टाँगों पर खड़े घोड़े के गिर्द तेज़ी से दौड़ने लगे। रह-रह हंटर की फटकार होती․․․ बिजली कड़कती․․․

मन्‍नू को लगा, हंटर की यह फटकार और बिजली की कड़क घोड़ों के लिए नहीं, वरन्‌ उसको, ख़ुद को तंग करने के लिए हैं- यह सोचकर वह परेशान हो उठा। इसी रौ में उसने आँखें मींच लीं और देर तक मींचे रहा। थोड़ी देर बाद जब खोलीं दृश्‍य कुछ अलग तरह का था। हंटर चलाने वाल नवयुवक, पता नहीं कैसे उसे गेटकीपर नज़र आया जिसने उसके साथ बदसलूकी की थी।

मन्‍नू ने यकायक दोनों हाथों से आँखें मल डालीं। यह क्‍या घपला हो गया है अचानक! दुबारा जब नवयुवक की तरफ़ देखा तो वह नवयुवक ही था!

मन्‍नू को दुःख हुआ कि कहीं उसका दिमाग़ तो नहीं चल गया।

हंटर वाला नवयुवक गोल घेरे से जा चुका था और उसकी जगह एक ऐसा निशानेबाज़ आ गया जो एक बड़े से बोर्ड के सामने ब्रॉ और चड्‌ढी में खड़ी नवयौवना के इई-गिर्द धारदार चाकुओं की बौछार कर रहा था। नवयौवना मस्‍तानी अदा में निश्‍चल और प्रसन्‍न खड़ी थी और हवा में तेज़ आते चाकू उसके कान के पास, कमर के पास, बाँह के पास, घुटने के पास घप्‍प से घुस जाते।

मन्‍नू को यह निशानेबाज़ भी यकायक गेटकीपर में तब्‍दील नज़र आया!

इसे ताज्‍जुब ही कहा जाएगा कि इस कलाकार के बाद चाहे साइकिलों पर करतब दिखाते कलाकार हों या हाथियों की सूंड पर या तेज़ गति से बहती मोटर साइकिल पर थोड़ी देर तक वे कलाकार रहते फिर अचानक गेटकीपर में तब्‍दील हो जाते!

मन्‍नू घबरा गया। उसकी समझ में कुछ नहीं आ रहा था कि क्‍या करे? रह-रह कर आँखें मलता और गहरी सांसें छोड़ता।

आख़िर में वह झुंझला उठा। उसी बहाव में यकायक वह कुर्सी से उठ खड़ा हुआ। धीरे-धीरे चलता बाहर की तरफ़ निकला जिसे देखकर गेटकीपर एक तरफ़ को खड़ा हो गया। मन्‍नू ने उसकी तरफ़ नहीं देखा उसने जेब से टिकट निकाला और उसको चिंदियों में बदल डाला।

उसकी आँखों से झर-झर आँसू बह रहे थे। वह जल्‍द से जल्‍द घर पहुँच जाना चाहता था

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197, सेक्‍टर-बी सर्वधर्म कॉलोनी,

कोलार रोड, भोपाल-402 042

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फाइनमेन,1,रिलायंस इन्फोकाम,1,रीटा शहाणी,1,रेंसमवेयर,1,रेणु कुमारी,1,रेवती रमण शर्मा,1,रोहित रुसिया,1,लक्ष्मी यादव,6,लक्ष्मीकांत मुकुल,2,लक्ष्मीकांत वैष्णव,1,लखमी खिलाणी,1,लघु कथा,288,लघुकथा,1340,लघुकथा लेखन पुरस्कार आयोजन,241,लतीफ घोंघी,1,ललित ग,1,ललित गर्ग,13,ललित निबंध,20,ललित साहू जख्मी,1,ललिता भाटिया,2,लाल पुष्प,1,लावण्या दीपक शाह,1,लीलाधर मंडलोई,1,लू सुन,1,लूट,1,लोक,1,लोककथा,378,लोकतंत्र का दर्द,1,लोकमित्र,1,लोकेन्द्र सिंह,3,विकास कुमार,1,विजय केसरी,1,विजय शिंदे,1,विज्ञान कथा,79,विद्यानंद कुमार,1,विनय भारत,1,विनीत कुमार,2,विनीता शुक्ला,3,विनोद कुमार दवे,4,विनोद तिवारी,1,विनोद मल्ल,1,विभा खरे,1,विमल चन्द्राकर,1,विमल सिंह,1,विरल पटेल,1,विविध,1,विविधा,1,विवेक प्रियदर्शी,1,विवेक रंजन श्रीवास्तव,5,विवेक सक्सेना,1,विवेकानंद,1,विवेकानन्द,1,विश्वंभर नाथ शर्मा कौशिक,2,विश्वनाथ प्रसाद तिवारी,1,विष्णु नागर,1,विष्णु प्रभाकर,1,वीणा भाटिया,15,वीरेन्द्र सरल,10,वेणीशंकर पटेल ब्रज,1,वेलेंटाइन,3,वेलेंटाइन डे,2,वैभव सिंह,1,व्यंग्य,2075,व्यंग्य के बहाने,2,व्यंग्य जुगलबंदी,17,व्यथित हृदय,2,शंकर 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रचनाकार: हरि भटनागर की कहानी - शिकंजा
हरि भटनागर की कहानी - शिकंजा
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