हरदर्शन सहगल की आत्मकथा - डगर डगर पर मगर : भाग 3

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" ... एक साहित्‍यिक कार्यक्रम में मुझे अध्‍यक्षता / मुख्‍य अतिथि के रूप में बुलाया था और जैसा कि होता है, एक करोड़पति को भी। अभी हम मं...

" ... एक साहित्‍यिक कार्यक्रम में मुझे अध्‍यक्षता / मुख्‍य अतिथि के रूप में बुलाया था और जैसा कि होता है, एक करोड़पति को भी। अभी हम मंच पर नहीं बैठे थे। उन्‍होंने बात-चीत शुरू कर दी- तो आप ही सहगल साहब हैं। आप को लिखने का शौक कब शुरू हुआ। न जाने मुझे क्‍या हुआ। मैं चिढ़ गया। बोला क्‍या यह शौक है ? उन्‍होंने जवाब में वही कहा-हां शौक ही तो होता है। अब की बार मैंने सहज होकर पूछा- क्‍या आप शौकिया सांस लेते हैं। शौकिया खांसते हैं। शौकिया गुस्‍सा होते है। अगर ‘हां‘ तब में भी शौकिया लिखता हूं, वरना लेखन मेरे जीवन का अंग है। कई लोग मुझ से पूछते हैं कि आपने लिखना कब से शुरू किया ? तो मेरा उत्त्‍ार होता है- जब दो साल का था तभी से लिख रहा हूं..." -- इसी संस्मरण से

डगर डगर पर मगर

(आत्‍मकथा)

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हरदर्शन सहगल

पिछले भाग 2 से जारी...

भाग 3

मुझे क्रैडिट नहीं लेना था। मुझे इसकी दोनों बहनें मुन्‍नी (अब दिवंगत) और बेबी साधना भी अच्‍छी, शालीन लगती थीं। मुझे जीजाजी जीजाजी कहकर तथा खाना खिलाकर मेरी खूब खातिरदारी, इज्‍़ज़त करती थीं। हम दोनों (मैं और कमला) उनका भला चाहते थे। मगर हमारे हाथ में कुछ न था। और सच कहा जाए तो सब कुछ (अधिकार) कमला की मां (श्रीमती सुहागवंती) के पास थे। वास्‍तविक सचाई देखी जाए तो अप्रत्‍यक्ष रूप से चोपड़ा साहब की भी इसमें सहमति थी कि पैसा बचा रही है तो बुरा क्‍या है। भले ही बच्‍चियों का भविष्‍य कैसे भी रहे। कुछ मेरे मित्र मेरे लिए भी यही कुछ कहते थे कि इतने बड़े अफसर तुझे अपनी लड़की दे रहे हैं। मैंने खुद चोपड़ा साहब के मुंह से यह भी सुना था कि मैं तो औलाद की शादियां करते करते तंग आ गया। जैसे तैसे मानो काम निपटा रहे थे।

वे दोनों तो बस 'कम से कम‘ में, कमला की शादी कर देना चाहते थे। साधारण घर है कोई डिमांड शर्त नहीं रखेंगे।

लेकिन मैंने कुछ शर्तें (चाहे इसे डिमांड कह लें) लगा डालीं रेवाड़ी लौटकर मैंने एक लंबा पत्र अंग्रेजी में चोपड़ा साहब के नाम रवाना कर दिया। उस पत्र की कार्बन कॉपी आज भी मेरे पास है ः- रेवाड़ी 17-11-1960 डीयर मासड़ जी (श्री बी․एन․ चोपड़ा) लंबे पत्र का सारांश है ः- मैं अपनी निजी सोच और अपनी ही स्‍थितियों से विवश हूं। मेरी यही विवशता ही मुझे यह पत्र लिखवा रही है (कुछ ज्‍यादा ही अंग्रेजी झाड़ी हुई है। अनुवाद कठिन हो रहा है।) तो भ्‍ाी ः- (1) मैं पुरातन रीतिरिवाजों के और दिखावों के खिलाफ हूं। (2) सेहराबंदी नहीं करूंगा (3) घोड़ी पर चढ़कर नहीं आऊंगा। (4)․․․․․․․․․․․․․ (5) अच्‍छा हो यदि आप मेरी आंतरिक भावनाओं उसूलो, मेरे कल्‍पना जगत, सेन्‍टीमेंटस एमोशन्‌स, सामाजिक मूल्‍यों को समझ लें। (6) धन का अपव्‍यय किसी ओर से भी नहीं होने दूंगा। यानी बहुत सादगी, सिर्फ चाय पार्टी से काम चला दूंगा। (7) दहेज प्रथा से मुझे घृणा है। दहेज नहीं लूगा। (8) एक घंटे के हवन में विवाह सम्‍पन्‍न हो जाएगा (9) कोई सा इतवार का दिन होगा और दिन के वक्‍त में शादी होगी ताकि आने जाने वालों को भी आसानी हो (10) यदि आप मेरी उक्‍त शर्तें न मानना चाहें तो मेरे पास विवाह रद्‌द करने के अलावा कोई चारा न होगा।

हां इस बात का मुझे अवश्‍य अफसोस रहेगा कि यदि कमला ने मेरे प्रति कोई कोमल भावनाएं पनपा ली हैं आैर उन्‍हें ठेस पहुंचती है। कृपया कमला को कान्‍फिडेंस में लेकर, सारी बातें स्‍पष्‍ट रूप से पूछ लें। और उसे मेरे साथ जीवन साथी बनने की अनुमति दें तो मैं उसका स्‍वागत करने को तत्‍पर हूं।

मैं आपका

दर्शन

इस चिट्‌ठी ने पूरे चोपड़ा परिवार में विस्‍फोट सा कर दिया। कमला के माताजी ने जैसे दंगा करना शुरू कर दिया-ऐ कैहो ज्‍यां मुंडा (यह कैसा लड़का है) नवियां रीतां पाण (डालने) चलया है। हम क्‍या इतने गए गुजरे हैं जो दहेज भी नहीं दे सकते। इसने हमें समझ क्‍या रखा है। हमारी कोई इज्‍जत नहीं। दिन में एक घंटे में कैसे शादी हो सकती है। बिना जन्‍म पत्री मिलाए․․․․․․ यानी जो कुछ भी मैंने अपने विचार, कार्यप्रणाली लिखी थी, उन्‍हीं सबकी धज्‍जियां उड़ा रही थीं․․․․․․․․․․।

चोपड़ा साहब, पत्र लेकर पिताजी के पास जा पहुंचे। पिताजी फौरन अगली गाड़ी से मेरे पास रेवाड़ी आ पहुंचे। बड़े दुलार से मेरे सिर पर हाथ फेरते हुए, समझाने लगे-तू इतनी मुश्‍किल से तो शादी के लिए कहीं राजी हुआ, उसे भी कैंसिल कर रहा है।

-बाउजी कैंसिल मैं तो नहीं कर रहा। मैंने एक प्रस्‍ताव पत्र ही तो चोपड़ा साहब को लिख भेजा है। इसमें, गौर करें तो सब विचार तर्कसंगत हैं। चोपड़ा साहब खुद विचारशील व्‍यक्‍ति हैं। वे अपने घर वालों के दबाव में आकर यदि मेरी शर्तें नहीं मानते तो मान के चलिए कि कैंसिल वही कर रहे हैं। इसमें मेरा क्‍या दोष। उनकी तो बचत ही करा रहा हूं।

पिताजी एक दो मिनट रूके, - ओह वही सोशल प्रेस्‍टेज ईशो; हर किसी को दबाता है। लोग किसी बात को सही मानते हुए भी, अपने मन की नहीं कर पाते।

- मैं तो अपने मन की ही करूंगा। जिस चीज की गवाही मेरा मन अंदर से नहीं देता हो उसे उन लोगों की खातिर क्‍यों मान लूं। जिनके पास अपने स्‍वयं के विचार बुद्धि नहीं होती और तर्क के नाम पर यही कहते हैं कि हमारे बड़े बुजुर्ग ऐसा ही करते आए हैं। इसलिए हम भी ऐसा ही करेंगे। यह भूल कर कि नए समय का भी तो कुछ तकाजा होता है।

पिताजी ने फिर दुलार से मेरे सिर पर हाथ फेरा- मेरे लाडले बच्‍चे! यह बात नहीं कि मैं तुझे न समझता होऊं। कमला खुद का स्‍कूल चलाती है। उसकी अपनी आमदनी है। उसमें से लड़की ने अपनी मनपसंद कुछ चीजें़, कपड़े कढ़ाई तिल्‍ले वाले सोफा-सैट के गिलाफ आदि बना रखे हैं। अच्‍छा वह तो उसे अपने साथ लाने देगा वरना क्‍या उसके दिल को ठेस नहीं लगेगी। फिज़ू़ल खर्ची की वह भी हिमायती नहीं। बाकी चीजें हम सब मिल कर तय कर लेंगे। अच्‍छा घोड़ी पे भी न चढ़ना।

मैं फिर से सोच में पड़ गया। मुझे ऐसी दुविधा वाली स्‍थिति में पाकर पिताजी हंस पड़े। अब क्‍या रहा गया। मान तो लीं तेरी मांगें। देखते नहीं, कमला कितनी प्‍यारी बच्‍ची है। तब मुझे भी अंग्रेजी की वह उक्‍ति याद हो आई-डोंट गैट मैरी, हूम यू लव, बट गैट मैरी विद हर, हूॅ लव यू। यह तो मुझे पता नहीं था, कि वह मुझसे लव करती है। पर इतना तो तय था कि पहल उसी ओर से हो रही है।

जीवन पर्यन्‍त पिताजी कमला की कलात्‍मक कृतियों, कढ़ाई सिलाई हैंडराइटिंग जैसे अनुपम गुणों के प्रशंसक बने रहे। कभी भी इसकी आलोचना नहीं की।

मैंने पिताजी के सामने हामी भर दी- ठीक है, पर और गड़बड़ नहीं होनी चाहिए।

- निश्‍चिंत रहो। मैंने चोपड़ा साहब को पूरी स्‍थिति समझा दी है। अब तू भी कुछ प्‍वाइंटस पर एग्री हो गया है। सुना है कमला भी यही कहती है कि अब मुझे भी गहनेां वहनों से कोई मोह नहीं।

वार्ता खत्‍म हुई। पिताजी प्रसन्‍न भाव लिये चले गए।

मैंने भी अपने से कहा 'खुश हो। और दोस्‍तों में घोषणा कर। तेरी शादी होने वाली है।‘ वास्‍तव में सभी मित्र सुनकर बहुत खुश हुए। अब तू हमारी बिरादरी के योग्‍य हो गया है। दो एक मित्रों ने फर्स्‍ट नाइट के गुर भी समझा डाले।

मैंने भी सोचा-ठीक फैसला किया। मैंने कोई जल्‍दबाजी नहीं की। विवाह संबंधी मेरे सारे विचार, धीरे धीरे किसी तपती भट्‌टी में पड़ कर ही पक कर मज़बूत हुए हैं। पहले प्रो․ रामेश्‍वर दयालु अग्रवाल के प्रवचन। फिर अनेक विदेशी यौन मनोवैज्ञानिकों जैसे हैव लॉक एलिस, मैरी स्‍टोव, द्वारका प्रसाद और भी बहुत थे, जिन्‍हें आकर कमला जी ने अश्‍लील साहित्‍य समझ कर जला डाला था। हां आचार्य चतुरसैन शास्‍त्री को भी मनोयोग से पढ़ा था। कुचुमार को नहीं पढ़ पाया था। मेरे रेलवे के साथी मेरे जैसों की इस विषय की पढ़ाई की आलोचना करते। कहते हमने तो यह सब नहीं पढ़ा। क्‍या हमारे बच्‍चे पैदा न हुए।

मैंने समझ लिया, जब इनकी समझ ही इतनी है, तो इनको समझाया भी क्‍या जा सकता है। शादी को ये लोग, जनसंख्‍या बढ़ाने का साधन मात्र मानते हैं। इन्‍हें इनकी राह मुबारक। हां भाभी (राजरानी) से खुलकर बात कर लिया करता था। उनके कुछ प्राब्‍लम थी।

17-11-1960 से कुछ पूर्व यह शादी वाला सिलसिला कुछ नाजुक हिचकोले मोड़ों से गुजरता हुआ मंजिले मकसूद की ओर बढ़ा था।

केवल मेरा अपना निर्णय। जिसमें पंडित, ज्‍योत्‍शी, जन्‍म पत्री का कोई दखल नहीं था।

11 दिसम्‍बर 1960 दोपहर 12 बजे दो तीन बैंड मास्‍टरों के साथ पैदल पैदल, बिना घोड़ी चढ़े बिना सेहरा बांधे, बहुत थोड़े बरातियों के साथ दुल्‍हा सात आठ हार पहने, बराती एक एक हार पहने चोपड़ा निवास जा पहुंचेंगे। दोनों मकानों की दूरी ज्‍़यादा बनाते हुए, एक दो गलियों का चक्‍कर लगाते हुए।

ओ के। हरी झंडी। अब आ जाओ-पहले वे लोग चोपड़ा निवास वाले हाथ दिखा दिखाकर ज़रा और रूकने का इशारा करते रहे थे। एक मित्र थे। वीरदेव कपूर। हिन्‍दी प्रेमी रेलवे में होते हुए भी जीवन के सांस्‍कृतिक पक्षों पर सोचने विचारने वाले। यूनिस्‍को की गतिविधियों से वाकिफ आम रेलवे के लोग तो यूनिस्‍को का नाम तक नहीं जानते थे। वीरदेव कपूर मुझसे बेहद प्रभावित। बी․एम․आर․ उनका पद था। बाद में वह भी बीकानेर आ गए थें। यहां के कुछ लोग उन्‍हें जानते हैं। एक प्रेम सोबत और सरदार सुजान सिंह। इन दोनों का जिक्र पहले कर आया हूं। ये तीनों विशेष रूप से छुट्‌टी लेकर मेरी शादी में सम्‍मिलित हुए थे। सुजान सिंह तो अब तक, जब तक वे यादें ताजा करते हंसते हैं। -क्‍या शादी हुई थी वाह। हमारी शादी के थोड़े महीनों बाद उसकी शादी लुधियाना हुई थी। मैं और कमला दोनों भी गए थे।

बात अपनी शादी की बता रहा था। सच बताऊं मुझे बचपन ही से माताजी पिताजी से इतना लाड प्‍यार मिला कि तब से ही मेरी नस नस में इतना खिलंदड़पन बस गया है कि जो अभी तक भी कायम है। शरारती नेचर का धनी। खूब हंसता हूं। सबको हंसाता हूं।

शादी लंबी चौड़ी छत पर हुई थी। उसी खिलंदड़पन के तहत में छत पर खड़ा खड़ा, नीचे खड़े लोगों पर छोटी छोटी कंकरियां फेंक रहा था। जिन पर कंकरियां पड़ती, वे सिर उठाकर ऊपर देखते तो मैं दीवार के सहारे नीचे बैठकर छिप जाता। वाह दुहल्‍ले साहब। चोपड़ा साहब वहां शामियाने लगाने का आर्डर दे आए थे जिसे मैं ही कैंसिल करवा आया था कि इनकी क्‍या ज़रूरत है। सर्दियों की गुनगुनी धूप का आनंद लेंगे। और बता दूं कि जब मैं नई सड़क दिल्‍ली अपनी शादी के कार्ड छपवाने जा रहा था तो चोपड़ा साहब ने देख लिया था। पूछने लगे कहां जा रहा है। बताया, तो बोले- हमारे भी छपवा लेना। मैटर लिख दूं। मैं बोला- इसकी भी जरूरत नहीं है। वाइसवर्सा। हमारे कार्ड में जो जो नाम ऊपर होंगे। वही आपके कार्ड में नीचे। और इसी तरह․․․․․। चोपड़ा साहब हंस पड़े-बड़ा शैतान है। रिश्‍ते के जो खास नाम लिखने हैं वह तो तू जानता ही है।

- यॅस सर। मैंने एक स्‍टूडेंट की भांति जवाब दिया। दो घंटों में प्रसे वाले ने कार्ड छाप डाले थे। दोनों ही मेरे लिफाफों में हिफाजत से रखे हुए हैं। उन दो घंटों के बीच मैं किताबों की दुकानों जैसे मुंशीराम आदि में घूमता कुछ खरीदता रहा था।

हवन शुरू हुआ। कुछ फूल भी बरसे। खुशी का माहौल। मुझे सुसरालियों ने सोने की अंगूठी पहना दी। मैंने उतारी और दूर उछाल दी। मुझे इसकी ज़रूरत नहीं (यानी सिर्फ कमला की जरूरत है। उसे ही लेने आया हूं।)

जो पंडित जी विवाह करवा रहे थे। सारी स्‍थिति समझ रहे थे। वस्‍त्रों की गांठ बांध, सात फेरे डलवाते हुए मुझसे पूछने लगे-बोलिए! कितनी देर में विवाह सम्‍पन्‍न करवा दूं ?

मैं बोला- पंडित जी, जितनी जल्‍दी सम्‍पन्‍न करवा दोगे, उतने ही एप्रिश्‍येट किए जाओगे।

अब वर वधू एक दूसरे को पुष्‍प हार डालेंगे। पहले लड़की नहीं पहले मैं। मैंने आगे बढ़कर कमला को वर माला पहना दी। मुझे अच्‍छी तरह से याद है, इस पर कमला की माताजी ने खूब तालियां बजाईं। हो हो हो भी किया। फिर सबने मिलकर गगनचुंबी करतल ध्‍वनि की।

लो शादी हो गई। लो खाना खाओ। खाना अति साधारण। हां बस गर्मागरम पकोड़े शानदार तले गए थे। वही लोगों ने थोड़े चाव से खाए।

उसी वक्‍त दिमाग में आया कि मैं तो इनके हर जगह पैसे बचवा रहा हूं। लेकिन कम से कम थोड़े से आए मेहमानों की तो कद्र की होती। और बातों से भी मुझे यही जाहिर हुआ था-लो मुफ्‍त का कबूतर आन फंसा है। जब, एक बार मैं अपना शादी के लिए गर्म सूट सिलवाने दिल्‍ली जा रहा था तो चोपड़ा साहब, तब भी मिल गए थे। पूछा तो हकीकत बताई। बोले-एक सूट अपनी पसंद का हमारी तरफ से भी सिलवा लेना। मैंने लाख इनकार किया मगर उन्‍होंने कहा, यह तो निहायत ज़रूरी बनता ही बनता है। मुझे बस बिल दे देना।

जब सूट का बिल चोपड़ा साहब ने देखा तो थोड़ा मुंह बनाया, यह तो बहुत महंगा है।․․․․․․․․․․ मेरा मतलब मतलब कहते हुए वाक्‍य पूरा िकया․․․․․․․․․․․․․ स्‍टेटस के मुताबिक।

मैंने कहा स्‍टेटस․․․․․․․․ इतना कहने के बाद मैंने अपने वाला बिल निकाल कर उनके सामने कर दिया। मेरे वाला आपसे महंगा है। वे अपना सा मुंह लेकर रह गए। इससे बढ़ कर बात जूतों की हुई। निहायत घटिया से जूते कमला के भाई मेरे लिए हमारे घर छोड़ गए। मैंने देखे और खुद वापस चोपड़ा निवास छोड़ आया कि इतने घटिया जूते मैं नहीं पहना करता।

बस। उन्‍होंने रख लिये। जैसे इससे कीमती खरीदने की इनकी हैसियत ही न हो। दुबारा कोई इसरार, उन लोगों में से किसी एक ने भी नहीं किया। मैंने फिर सोचा कि यह क्‍या और किस किस्‍म की दुनियादारी निभा रहे हैं। इन्‍हें क्‍या महल्‍ले वाले मजबूर करते हैं या इनकी आत्‍मा में कोई गिल्‍ट (पाप बोध) पैदा होता है, जो सामाजिक रीतें बेदिली से निभा रहे हैं। जब तीसरा या चौथा दिन आया तो उन्‍होंने बाबा आदम युग के बड़े बड़े बर्तन जैसे कढ़ाईयां पतीले बाल्‍टियां वगैरह वगैरह हमारे घर भिजवा दिए जैसे टैंट हाउस वाले किसी होने वाले समारोह के लिए भिजवाते हैं।

मैंने सोचा। जरूर इनके यहां यह अनुपयोगी माल किसी कोने में पड़ा होगा जो यह ठीक अवसर समझ कर दहेज के नाम पर घर से निकाल रहे हैं। भई यह क्‍या तमाशा है। जब एक बार तय हो ही गया था कि दहेज नहीं लेना तो यह बेकार सा नाटक करने की क्‍या जरूरत ?

शाम तक हम लोग 11 दिसंबर को अपने घर कमला को लेकर जब आए थे, तो मुझे भी पाप बोध हुआ था। खास तौर से अपने बाहर से आए मित्रों को देखकर कि इनकी खातिरदारी ठीक से नहीं हुई। वे भी दबी जबान से कह रहे थे कि खाने का मज़ा नहीं आया। तब मैं उन सब को अपने साथ ले जाकर किसी अच्‍छे रेस्‍टोरेंट में ले गया था। मनमर्जी मुताबिक सबने आर्डर देकर खाया पिया था।

रही बात बड़े बड़े बर्तनाें के इतिहास की तो वास्‍तव में मैंने और कमला ने मिलकर उन्‍हें ऐतिहासिक बना डाला था।

हम दोनों रिक्‍शा में लाद कर, उन्‍हें बाजार ले गए थे और बेच डाला था। लोग बाग हमें नए खूबसूरत वस्‍त्रों में देखते। कमला की शादी की चूडि़यां या चूड़े, नवदम्‍पती की होने की गवाही दे रहे थे। आश्‍चर्य से पूछते कि क्‍यों बेच रहे हो। (क्‍या कोई संकट आ गया है)

मैंने स्‍पष्‍ट किया कि ऐसी कोई बात नहीं। यह हमारे किसी भी काम के नहीं है। इन्‍हें कहां रेवाड़ी तक लादे फिरेंगे। जितने पैसे हमें उन बर्तनों के मिल सकते थे, लेकर हम हनीमून मनाने चले गए थे। 21/12/1960 को। इस बीच यानी 11 और 20 के दिन, क्‍या दिन थे वे। नदी के उफान वाले दिन रात थे जो बहुत आगे तक चलते चले गए थे। दिन भर, रात होने की कल्‍पना, प्रतीक्षा।

11 दिसम्‍बर को दिन को शादी करने का लाभ यही हुआ वरना 12 दिसंबर 1960 को भी हमारी पहली रात नहीं हो पाती। क्‍योंकि 12 दिसंबर दोपहर में सारा का सारा परिवार और मेरी शादी में आए हुए तमाम रिश्‍तेदार, बृजमोहन, मेरे छोटे भाई, की बरात, लेकर दिल्‍ली चले गए थे।

11 दिसंबर की रात कमरे में दोनों किनारे पर दो खाटें (जमाने के अनुसार) बिछी हुई थीं। एक कमला की और दूसरी मेरी। मैंने, सोने का (शायद) नाटक करती हुई कमला को देखा फिर अपनी खाट पर, बाइज्‍जत-इजहार ले आया था। शायद कमला मुझसे कोई कीमती उपहार लेने की आशा में मेरी चारपाई पर आ बैठी थी, कि जनाब ने उसे कागज का एक छाेटा सा पुर्जा थमा दिया। उसकी इबारत यही थी कि मैं, अब से तुम्‍हें कुछ भी देने लायक नहीं रहा, क्‍योंकि इसी क्षण से जो कुछ भी मेरा था, सब कुछ तुम्‍हारा हो गया है।

इस पुर्जें को लेकर कमला ने सरसरी तौर से पढ़ा और रख लिया। न तो ज़रा सी खुश हुई और न जरा सी दुःखी। मगर थोड़ी ही देर बाद जब हमारे बीच कुछ संवाद हुए उसमें से साफ जाहिर हो गया और कमला की भाषा से मुझे लगा कि उसने भी अपने 'मैं‘ को उसी क्षण भुला दिया है। वह 'हम‘ 'हम‘ कह कर बात को आगे से आगे बढ़ा रही थी। कहा या पूछा-क्‍या 'हमारा‘ ट्रांसफर रेवाड़ी से कहीं अन्‍यत्र नहीं हो सकता? वजह पूछने पर उसने बताया कि रानो बहन जी ने हमारी शादी में बहुतेरी अड़चने डाली थीं। आपकी बुराइयां कर करके माताजी के कान भरे थे कि दर्शन ऐसा है, दर्शन वैसा है जिन्‍हें मैं बरदाश्‍त नहीं कर पाती थी। वैसे भी कई बातें हैं अतः अब मैं उनके साथ, एक ही स्‍टेशन (रेवाड़ी) में नहीं रहना चाहती। मैंने उसे समझाया कि यह हर घर की मामूली बातें हैं। आखिर भाई भाई होते हैं। बहन बहन ही हुआ करती है। वक्‍त-ज़रूरत, ज़रूर एक दूसरे के काम आते हैं। फिर हम एक साथ तो रहेंगे नहीं। अलग से मकान लेकर रहेंगे। कहने लगी बहन जी जीजाजी (यानी मेरे बड़े भाई साहब) के पद और तन्‍ख्‍वाह को लेकर बड़ी शान मारती हैं। मैं भी कमा कर इन्‍हें दिखाऊंगी। हम कौन से कम है।

- क्‍या आप मुझसे प्‍यार करती थीं ? पहली रात मैं 'आप‘ 'आप‘ कर करके ही कमला को संबोिध्‍ात करता रहा था।

- नहीं ऐसी कोई बात नहीं थी। जब इन्‍हें (भाइयों और पिता को) कोई ठीक लड़का कम दहेज की मांग रखने वाला मिल ही नहीं पा रहा था, तो मैंने ही कहा था कि बहन जी के देवर से कर दीजिए। हां आपके साथ बात पक्‍की होने के बाद अवश्‍य मैं अपनी छत पर खड़ी, आपको आते जाते, घर से निकलते, घुसते प्रेम भाव से निहारने लगी थी।

- अब आप खुश हैं!

- बहुत खुश हूं। रानो बहन जी की मैंने नहीं चलने दी। इस प्रकार मेरी जीत हुई है। इसी रौ में उसने अपने से बड़ी बहन बिमला की भी बुराइयां की थीं कि वह भी आपको कुछ नहीं समझती थी। मुझसे कहती थी-तुम्‍हें ऐसा लड़का बताऊंगी जो तुझे रानी बना कर रखेगा। इस दर्शन को छोड़। मैंने कहा यहीं ठीक हूं। आगे मेरी किस्‍मत। कहने का अर्थ मैं फौरन समझ गया। उसने सबको त्‍याग कर बस मुझे अपना लिया है। अब उसके लिए बस मैं ही हूं। हां सवेरे गुस्‍सलखाने जाते वक्‍त मुझसे यह भी कहा था- आपके कोई कपड़े हों तो दे दीजिए। धो लाऊंगी। वाह हरदर्शन साहब।

यह यू․पी․ गाजियाबाद की बड़ी कड़ाके की सर्द रात कैसे दहक दहक कर गर्म हो उठी थी।

आंखों मे ंनींद थी मगर।

सोए नहीं थे रात भर।

और सवेरा हो गया। वह दिन बता गए कहां।

और पता भी न चला कि रात इतनी जल्‍दी कैसे बीत गई थी। कमरे से बाहर खटर पटर हो रही थी। दरवाजे पर भी हल्‍की थपकियां सुनाई देने लगी थी। हम दोनों मन ही मन रात को गालियां दे रहे थे, जो घंटों की बजाए पलों में खत्‍म हो गई थी।

बाद में समय समय पर कमला की बहनों भाभियों ने कमला से पूछा था। तुम्‍हें क्‍या उपहार मिला तो कमला ने वह पुर्जा दिखला दिया। सब जोर से हंस दिये-तुझे बेवकूफ बनाकर अपना पैसा बचा लिया है। मगर कुछ और बाद में दो एक सहेलियों ने कहा था-इससे बड़ा उपहार तो वास्‍तव में हो ही नहीं सकता। इसे संभाल कर रखना। मगर कमला ने उसे गवा दिया। वह तो कई मायनों में निहायत अल्‍हड़ थी। उसके इतने अमूल्‍य सर्टिफेट्‌स डिपलोमाज भी मैंने इधर उधर रूलते हुए देखे थे, जिन्‍हें सहेज संभाल कर मैं रखता गया था। अगर मैंने भी ऐसी लापरवाही बरती होती तो कमला की नौकरी ही न लगी होती।

फिर आगे कमला मुझे लेकर अपनी शिष्‍याओं और सहेलियों के घर में ले गई थी। जहां भी जाता मुझे उनके वालदैन कुछ शगुन के रूपए पकड़ाना चाहते। मैं साफ इनकार कर देता- मैं ऐसे रीतिरिवाजों को नहीं मानता। इसी चीज को भी मात्र एक दो पिताओं ने प्रशंसा की। कहने का तात्‍पर्य वही कि यदि आप ज़माने की प्रचलित परिपाटियों में कोई परिवर्तन लाना चाहते हैं। लीक से ज़रा हटकर चलना चाहते हैं तो बहुत थोड़े लोग ही समर्थन में आएंगे। उन्‍हें ठीक से ग्रहण कर पाएंगे। यही बात दहेज को लेकर घोड़ी पर न चढ़ने सेहरा न बांधने, उपहार में कागज का पुर्जा देने को लेकर, समझी जा सकती है।

हां एक बात को लेकर, 12 दिसंबर के दिन कमला चुपके चुपके आंसू बहा रही थी कि मैं कैसे घर में आ गई हूं , जहां भाई भाई में लाठियां तक चला कर युद्ध होता है। मैं और बृज बचपन से ही लड़ते झगड़ते, एक दूसरे को लताड़ते चले आए थे। मैं उससे कहता- तू अपना नाम गधा रखवा ले।

वह कहता - तू अपना नाम उल्‍लू रखवा ले।

- तू धोबी के पांव धोया कर।

- तू जाकर नाई के पैदों में लौट जा।

ऐसे वाक्‍यों (वाकयुद्धों) की लंबी फेहरिक्‍त है। फिर हम दोनों घर में रखी लाठियों से एक दूसरे को मारने का नाटक खेलने लगते। एक दूसरे के पीछे भागते-छिपते।

जब खुलासा हुआ तो मैंने कमला को समझाया- पगली यह तो हमारा खेल है। हम भाइयों में बेहद मुहब्‍बत है।

यह खेल शादी के कई वर्षों बाद तक भी चलता रहा था।

12 दिसंबर को बृजमोहन सहगल साहब बाकायदा परम्‍परा का निर्वाहन करते हुए, सज्‍जे धज्‍जे सेहरा बांधे घोड़ी पर बैठे दिल्‍ली की सड़कों की रौनक बैंड बाजों, नाचों के साथ बढ़ा रहे थे।

खाने के बाद रीतें हो रही थीं कि कमला ने मेरी तरफ इशारा करते हुए एक महल्‍ले की गली में लगे हुए सिनेमा पोस्‍टर की तरफ इशारा किया- 'बरसात की रात‘। मैंने पूछा देखोगी। हां। कमला ने सिर को झुका दिया।

मैं पिताजी की तरफ दौड़ा- बाउजी हम दोनों 9 से 12 पिक्‍चर देख आएं।

- हां हां क्‍यों नहीं। खुशी से जाओ। फिर बारह बजे यहीं आ जाना। पिता ने बहुत लाड दिखाते हुए सहमति दी। ददअसल मेरे विवाह कर लेने से उनके उल्‍लास का आर पार नहीं था। मैंने खुद उन्‍हें माताजी से कहते सुना था- मन करता है; नाचूं पर बच्‍चों के सामने जरा शर्म आती है। मेरी शादी में बरातियों के बीच वे भी थोड़ा नाचे थे। पर खास नाच नहीं हुए थे जो घंटों चलते हैं।

पिताजी की अनुमति पाते ही हम दोनों खिल उठे। उधर विवाह होने दो। इधर हम अपने विवाह को खुशगवार कर लें।

हमारी देखा देखी कई और भी बराती बच्‍चे हमारे पीछे पीछे आ पहुंचे। एक दूसरे से पूछने लगे- तेरे पास पैसे हैं। सभी ने कहा-नहीं। मेरे पास भी नहीं है। वे सब लौट गए। यह बात मुझे आज तक भी किसी सीमा तक सालती रहती है कि काश मेरे पास खूब सारे पैसे होते तो मैं उन तमाम बड़ी संख्‍या वाले बच्‍चों को भी िफल्‍म दिखला पाता। दरअसल वह जमाना हमारे बहुत सीमित साधनों का था। आगे चलकर भी बताऊंगा। कुछ बता भी आया हूं।

खेर लेडीज लाइन में लगकर कमला जल्‍दी से दो टिकटें ले लाई। हम पिक्‍चर हाल में दाखिल हुए। पिक्‍चर कब शुरू हुई, पिक्‍चर कब फिर खत्‍म भी हो गई। हमें कुछ पता नहीं चला। हम जैसे नशे में सुधबुध खोए बैठे सरगोशियां छुआ छुई करते रहे। फिल्‍म के एक दो गानों को छोड़कर कुछ भी याद नहीं - न तो कारवां की तलाश है। जिंदगी भर नहीं भूलेगी वह बरसात की रात, को छोड़कर।

आज भी जब जब यह सदाबहार गीत कहीं बज रहा होता है (जिंदगी भर․․․․․․․․․․) तो मैं कमला की चुटकी लेता हूं। वह भी मुस्‍कराती है। बाद में, कथ्‍य को समझने- एंज्‍़वाए करने के लिए दो तीन बार फिर से 'बरसात की रात‘ देखी। आज भी कभी कभी टीवी पर आकर पुरानी रात की याद दिला जाती है।

यह थीं उस जमाने की फिल्‍में सदाबहार। और सदाबहार गाने। ठीक इन दिनों इनटरनैट से 1935 (अपने जन्‍म वर्ष) का के․एल․ सहगल का गाना विद सीन, 'बालम आये बसों मेरे मन में‘ पकड़ लाया हूं। वैसे भी उस ज़माने के बहुत सारे गाने आज भी पूरे वातावरण को गुंजाते रहते हैं।

आगे के दिन हवा की तहर उड़ रहे थे या हम दोनों हवा में उड़ रहे थे। कुछ सुध नहीं। कभी इस घर तो कभी उस घर निमंत्रण, बाजारों रेस्‍टोरेंट्‌स में जाकर बैठना। कमला को साइकिल पर आगे पीछे बैठाए घूमना। पार्कों में घूमना। बृजमोहन की पत्‍नी मधु और कमला की रेस, कम्‍पीटीश्‍ान। कमला हमेशा अव्‍वल। कभी दिल्‍ली निकल जाना।

चांदनी चौक के सिरे पर एक आर․के स्‍टूडियो था। (शायद आज भी हो, शायद है) 20/12/60 को वहां पर फोटोग्राफर नेे हम नवदंपती को ऐसे सटा कर शॉट लिया जो देखते ही बनता है। वह चित्र हमारे शीशे के रेक में सजा है।

दोनों शादियां साथ साथ होने से रिश्‍तेदारों को भी सुविधा हुई एक ही बार में दो दो शादियां अटैंड कर गए। बड़ी संख्‍या में रिश्‍तेदार आए थे। नहीं आ सके तो बस हमारे खास छोटे जीजाजी श्री रोशनलाल तलवाड़। फौज में होने के कारण उन्‍हें छुट्‌टी नहीं मिली थी। या अपने पद के कारण उन्‍होंने स्‍वयं नहीं ली थी। वे उस समय मद्रास में थे। बहन जी कृष्‍णा, और छोटे छोटे बच्‍चों को उन्‍होंने भेज दिया था; इस हिदायत के साथ कि आती बार हरदर्शन, बृज को सपत्‍नीक साथ लेती आना। ऐसा ही हुआ। हमारा हनीमून भी उधर ही मना।

21-12-60 को ठीक कार्यक्रमानुसार हम चारों बहन जी और नन्‍हें मुन्‍ने बच्‍चों के संग हो लिये। बच्‍चों के गाने गुनगुनाने से सफर और सुहाना हो गया। रेणु ने कमला को मल (आरक्षित) लिया- यह मेरी मामीजी हैं। और स्‍वीटी (कंचन) ने मधु को मल लिया-यह मेरी मामीजी हैं।

23-12-60 को हम सब मद्रास (आज का चेन्‍यी) पहुंचे। जीजी बहुत खुश हुए। हमें खूब घुमाते फिराते, होटलों से खिलाते पिलाते रहे। समय समय पर हम चारों घूमते फिरते रहे। मैंने अपनी डायरी में लिख रखा है ''नई पत्‍नी के साथ चलना घूमने में कितना आनंद आता है। लेकिन जीवन की असल सचाई तो यह है कि पत्‍नी कभी पुरानी नहीं पड़ती। आज तक भी (बीमारी के दिनों छोड़ कर) मेरे संग संग चलती है। उसी तरह से खिली-खिली मगर पूरा रोब जमाए। उसका रोब भी मुझे प्रेम से कम नहीं लगता। उससे जकड़ा हुआ हूं। अगर बाजार सब्‍जी मंडी भी कभी अकेला चला जाऊं तो मिलने वाले और मेरे दुकानदार पूछते हैं ''अकेले कैसे ? वह नहीं आईं।‘‘ हमने बाकी जगहों के साथ एनीबेसंट आश्रम (थियोअॉफिकल सोसाइटी) भी देखा। वहां से अंग्रेजी की आध्‍यात्‍मिक और जीवन संबंधी 'लाइफ‘ 'गॉड‘ जैसी कई बुकलैट्‌स खरीदी थीं। ये सब आज भी मेरे पास हैं।

इन पांच दिनों की तफरीह के बाद हम और तफरीह मनाने एक दिन के लिए 28/12/60 को रामेश्‍वरम और एक-दिन-रात के लिए धनुषकोडी चले गए थे। कुछ लोगों को जरूर पता होगा कि प्रकृति की उथल पुथल के कारण धनुषकोडी का अस्‍तित्‍व ही समाप्‍त हो गया है। पूरा का पूरा शहर समुद्र में समा चुका है। पर यह तो किसी को भी पता नहीं कि हमोर पास धनुषकोडी के अपने कोडक कैमरे द्वारा खींचे गए चित्र सुरक्षित रखे हैं। यादें।

रामेश्‍वर और धनुषकोडी की तमाम घटनाएं और दृश्‍य मेरे मानस पर घुलमिल गए हैं। पहले वेटिंग रूम में, सभी के सभी पर्यटक, श्रद्धालु अपना अपना सामान यूं ही रखकर छोड़ गए थे। चोरी चकारी हेरा फेरी का सवाल ही पैदा नहीं होता। ये स्‍टेशन आने से पूर्व ही कितने गाइड, और धर्मशालाओं में स्‍थान दिलवाने वाले, उत्त्‍ारप्रदेश पंजाब का खाना तैयार करवा कर खिलवाने वाले, चलती गाड़ी में हमें आ घेरते थे।

ठेके पर काम

पता नहीं किस सनक के तहत मुझे ठेके पर, हर किस्‍म के काम करवाने की ख्‍वाहिश सवार हो चली थी। मैंने एक युवक गाइड को ठके पर एंगेज कर लिया कि कुल इतने रूपए मिलेंगे-तुम हमें सारी जगहों की सैर करवाओंगे। हमारे लिए धर्मशाला में अच्‍छे कमरे की व्‍यवस्‍था करोगे। हमारी सुविधा का पूरा ध्‍यान रखोगे। पैसे बाद में पूरे मिल जाएंगे। खाना हम अपना खाएंगे। तुम से मंगवाएंगे तो तुम्‍हें ही अलग से पैसे दे देंगे। तुम्‍हीं होटल वालों चाय बिस्‍कुट मिठाई कचौड़ी वालों को दे देना। वह राज़ी हो गया। हम उसे कमरे की चाबी दे देते कि हमारा कैमरा या तोलिया या कोई और चीज कमरे में भूल आए हैं। जाकर उठा लाओ। उस युवक ने वास्‍तव में दिलोजान से हमारी खिदमत की।

गाड़ी चलने वाली थी। वह नहीं आया। हमारी जान खुश्‍क। गाड़ी में तो बैठना ही था। हमने सामान समेटा धर्मशाला वाले को बताकर स्‍टेशन जा पहुंचे।

गाड़ी चलने वाली थी। वह नहीं आया। मेरी जान और भी खुश्‍क। उस बेचारे ने तो हमसे एक भी पैसा नहीं लिया था। करें तो क्‍या करें। इससे अच्‍छा था कि धर्मशालों ही को पैसे संभलवा आते तो वही उसका दे देते। गाड़ी चलने में बहुत ही कम समय बचा था। उसका पोस्‍टल अड्रेस भी तो हमारे पास नहीं था, जो घर जाकर मनीआर्डर कर देते। हाय अब क्‍या हो। मुझे लगा पैसा न दे पाने से मेरी आत्‍मा सारी उम्र मुझे दुत्‍कारती रहेगी। इतना समय तो था नहीं कि अनजान आदमी के बारे में कुछ किसी से पता लगाएं या धर्मशाला लौटें। गार्ड ने हरी झंडी लहरानी शुरू कर दी। सच पूछो तो मेरे जिस्‍म में हज़ारों तूफान हलचल मचाने लगे। गार्ड सीटी की ध्‍वनि भी छोड़ने लगा। जैसे कहीं विस्‍फोट हो रहा हो। तभी, बस तभी, देवदूत के रूप में वही युवक भागता हांफ्‍ता मेरे उद्वार को किसी वरदान की तरह आ पहुंचा। मैंने मुक्‍ति की सांस ली। उसे ठेके से कहीं बढ़ चढ़कर पैसे पकड़ा कर। वह देरी से पहुंचने का कोई कारण बता रहा था। हम सुन समझ नहीं सके। गाड़ी खुशी से छलांगे मारती हुई किसी अल्‍हड़ बच्‍चे की तरह भाग छूटी।

दूसरा ठेका

जब हम समुद्र के बड़े लंबे आकार के किनारे किनारे चहल कदमी के साथ कदम बढ़ा रहे थे। कई कई पंडे पंडित यज्ञ द्वारा हमार उद्धार करने आ पहुंचते। इन दोनों छोकरियों की बाहों में लाल लाल चूड़े देखकर ललचाती नज़रों से देखते हुए कहते। नई नई शादी हुई है। यज्ञ संस्‍कार करवा कर पुण्‍य 'कमा‘ लो।

भला इसमें हमारी क्‍या कमाई होती। कमाई तो वही लोग करना चाहते थे। इसे मैं बखूबी जानता था। और उनके यज्ञ हवन करने के तौर-तरीकों से भी अच्‍छी तरह परिचित था। एक एक श्‍लोक के बाद, यहां अब दो पैसे रख दो। अब यहां एक आना रख दो। अब दो आने चार आने। और अंत में दक्षिणा के इतने रूपए अलग। दो आने चार आनों की संख्‍या तो पहले ही रूपयों में जा तबदील होती है।

मैं पूछता- कितने पैसे लगेंगे ?

- जितने इच्‍छा हो, यजमान, दे देना।

- नो। पहले पूरे पैसे बता दो। यह सिलसिला एक के बाद दूसरे पंडे के साथ चलता रहा। कमला, मधु और बृज भी हैरान-ऐसा क्‍या कर रहे हो (यानी मैं कंजूस हूं)।

अंत में दो पंडों को ठेके पर, अपने भविष्‍य गृहस्‍थ को ठेके पर सुधारने के लिए नियुक्‍त कर दिया कि कुल तीन तीन रूपए अंत में मिलेंगे।

लेकिन ठेके के बावजूद अपनी कसमें तोड़ने लगे। बीच बीच में वही पुराना राग- यहां इतने आने․․․․․․․․․यहां इतने․․․․․․․․․।

- अंत में बस तीन रूपए मिलेंगे।

- नहीं यह तो (तर्क कुतर्क देकर) बहुत आवश्‍यक बनते हैं।

- कमला भाग ले। मेरे इतना कहते ही हम चारों भागने लगते। पंडे हमारे पीछे पीछे - यह क्‍या करते हो यजमान। ऐसे तो यज्ञ को बीच में छोड़ देने से महा पाप लगता है।

- हमें बिलकुल कोई पाप नहीं लगेगा। पाप आपको लगेगा जो अपना वचन तोड़ रहे हो।

- चलो। अब आप चारों जोड़ी जोड़ी बनाकर इसी ही स्‍थ्‍ाान पर बैठ जाएं। अब नहीं मांगेंगे।

मगर वे अपनी आदत से मजबूर। और हम-भाग ले कमला कहकर भागने को मजबूर।

सच मानिए यह क्रम कम से कम चार पांच बार चला होगा। समुद्र के सुहाने मुहाने पर हम चारों आगे आगे और दो पंडे पीछे पीछे भाग रहे हैं। काश यह लाजवाब नजारा पढ़ने वालों की आंखों की शोभा बन जाए। अंत में जीत हमारी ही हुई। तीन प्‍लस तीन।

तीसरा ठेका

हालांकि बात बहुत आगे की है पर इसे भी ठेकों वाले चैप्‍टर में डाले लेते हैं।

बीकानेर में मकान तैयार होने के बाद ख्‍याल आया कि एक जीना आंगन की तरफ से भी (निचली छत को) जाना चाहिए। राज मिस्‍त्री से पूछा- कुल कितना खर्चा आएगा। पांच हज़ार। मैटिरियल अच्‍छा लगना चाहिए। हां जी अच्‍छे से अच्‍छा। मैं इनकी आदत से वाकिफ हूं। जानकर पहले कम बताएंगे, ताकि काम हाथ में आ जाए। मैंने कहा फिर से हिसाब लगाकर अच्‍छी तरह से सोच लो। हां जी पांच हजार के अंदर अंदर सारा का सारा काम हो जाएगा।

- ठीक है। तुम पांच हजार मांगते हो। मैं तुम्‍हें छह हजार दूंगा। ठेके पर।

वह छह हजार में मान गया। बाद में बड़ी हाय तौबा मचाई - मैं तो लुट गया। मेरा तो बहुत ज्‍यादा खर्चा हो गया है। ऊपर से मजदूरों की मजदूरी। तो ले ठेका। कुछ सौ और दे दिए। फिर भी कहा - भई जबान, जबान होती है। याद नहीं उसे कितना संतुष्‍ट कर पाया था।

हां तो मद्राज रामेश्‍वरम धनुषकोडी। दोपहर को भी दूर दूर तक फैले समुद्र के किनारों पर हम चारों पहुंच जाते। वास्‍तव में वहां सिनेमाई रूमानी एकांत मिलता। आबादी भी तो बहुत कम थी। या दुपहर। या दूरियां।

29 दिसंबर को हम चारों धनुषकोडी से प्रातः रेत पर उछलते कूदते रेस लगाते स्‍टेशन पहुंचे। फिर किसी बीच के स्‍टेशन पर गाड़ी के निकट मैंने और कमला (कल्‍पना) ने एक फोटो खिंचवाया। फोटो बृजमोहन ने उसी कोडक कैमरे से खींचा था। उसी साधारण से लगने वाले फोटो को बीकानेर के पेंटर/चित्रकार बरकत अली ने बड़ा रंगीन चित्र का रूप दिया। जिसका जिक्र बहुत पहले कर आया हूं। यह खूबसूरत यादगार चित्र हर वक्‍त हमारे घर की लॉबी की शोभा बढ़ाता रहता है।

30 दिसंबर 1960 को फिर से मद्राज पहुंच गए। फिर से मद्रास के सैर सपाटे। मौज मस्‍ती का आलम।

1-1-61 को हम वापस गाजियाबाद रवाना होने के लिए मद्रास रेलवे स्‍टेशन पहुंचे। गाड़ी में बैठे। सारे नग गिने। लेकिन यह क्‍या जब मैंने अपनी जेबें टटोली; दोनों भाइयों के रेलवे पास गायब। बारीकी से हर संभव जेबों अटैचियों की तलाशी ली। लेकिन पास हों तो मिलें। उधर गाड़ी चलने को थी। इधर हमारे पसीने छूट रहे थे- अब क्‍या करें।

मैंने बृज से कहा- ऐसे ही चल देते हैं। चैकर्ज को सब बता देंगे और यह भी कि हम रेलवे वाले हैं।

- इतने लंबे सफर में किस किस के सामने गिड़गिड़ाते फिरोगे। उनके नखरे उठाते रहोगे। मैं तो यह रिस्‍क कतई नहीं ले सकता। बहन जी जीजाजी ने बृज का समर्थन किया।

तो उतर ले उस्‍ताद। कूद आओ। कुछ भी सामान गाड़ी में छूटने न पाए। गाड़ी छूटने वाली है।

सचमुच हमें ससामान/ससम्‍मान उतरते देख, गाड़ी हमें चिढ़ाती हुई, छूट निकली। और सैर कर लो मद्रास की नए जोड़ो।

भारी भरकम सामान को हमने क्‍लाक रूम में जमा करवाया हल्‍के थैलों को कंधों पर झूले झुलवाते, बज़रिया बसों ट्रामों के वापस घर पहुंचे। मैंने बहन जी से चाबी झपट ली। ताले खोले। बड़े हाल कमरे के बीचोबीच पास अपनी पूरी चमक दमक के साथ पड़े मुस्‍करा रहे थे-बच्‍चू हमें अकेला छोड़कर चल दिये। ले लो मजे़।

ठीक ही तो है बजुर्ग लोग कह गए हैं, जहां का जितना अन्‍न जल लिखा होता है․․․․․। चार को चारों चोर, नहीं कहें, चित्त्‍ा चोर, गाजि़याबाद वापस पहुंचे। क्‍या नशा था। मगर जिंदगी तो बिना पैसों के चलती नहीं। चार तारीख बीत गई पांच भी आमोद प्रमोद में घुलमिल गई। छह को बिछोह। मैं अकेला रेवाड़ी पहुंचा। माताजी की तबीयत खराब थी। प्रेम पत्रों का आदान प्रदान। मेरी ओर से लंबे प्रेमरस में डूबे। जो भी सुन्‍दर लड़की दिखती है, उसमें तेरा रूप देखता हूं। तू मेरी वैजेंती माला है। खुद गौर करके देखो, क्‍या तुम वैजेंती जैसी नहीं लगती․․․․․․․। मगर कमला की ओर से निहायत संक्षिप्‍त औपचारिक पत्र ही रिटर्न में आते। पूछने पर कुछ इस प्रकार बयान करतीं-हमें यह सब ढकोसले नहीं आते। हम ने न तो ज्‍़यादा पिक्‍चरें देखी नहीं। हम पर हर वक्‍त पूरी तरह से पाबंदी थी। इन फालतू पचड़ों में हम नहीं पड़े। न ही गाने सुने हैं। न हमें कोई गाना याद रहता है। पढ़ाई के अलावा कुछ पढ़ा ही नहीं। घर के कामों में पिता माता हर क्षण पेले रहते थे। एक मिनट भी खाली मत बैठो। लगी रहो। फालतू बैठने से लड़कियां बिगड़ जाती हैं। यह हमारे माता-पिता का जीवनदर्शन और घरेलू विधान रहा है। यही संस्‍कार मिले हें। जब मुझे पिताजी कज़र्न रोड इंस्‍ट्रैक्‍टर कोर्स के लिए छह महीने के लिए होस्‍टल में छोड़ कर लौटने लगे तो उनकी आंखे गीली थीं। बिदाई से पूर्व अपनी पगड़ी की लाज रखने की प्रार्थना करते करते चले गए थे। वह दृश्‍य मैं कभी नहीं भूली।

लो कर लो बात दर्शन जी। तुम्‍हारे जीवन दर्शन का क्‍या हश्र हुआ। कोई बात नहीं। मैं तो उसे नस नस से चाहता हूं। प्‍यार करता हूं। धीरे धीरे तेरे उस प्रकार के प्‍यार के सागर में, तेरे साथ डुबकियां लगाने लगेगी। हां वह चित्रकला में होशियार थी। खूबसूरत कढ़ाई बुनाई सिलाई। थोड़ा नैचुरल ज्‍़यादा प्रोफेशनल।

टोटली लव एट वन साइट भी ज्‍यादा नहीं हुआ करता। वह दिल से एक सर्मित नारी बनी रही। मेरी छोटी सी छोटी सुविधा का ध्‍यान रखने वाली। हां मेरे पिताजी इसके हैंडराइटिंग के प्रशंसक थे। जब मैं अपने प्रो․ साहब डॉ․ रामेश्‍वर दयालु अग्रवाल को पत्र लिखता तो वह पोस्‍टकार्ड के किनारों को अपनी आर्ट से सजा देती। प्रो․ साहब ने लिखा था''यथा नाम तथा गुण‘‘ नाम मैंने बदल कर कल्‍पना कर रखा था, जो पांच छह साल तक ही चला। फिर वह कमला की कमला ही रही। कारण, मैं चमत्‍कार वाले भाग में पहले ही बता आया हूं। कमला ताउम्र कामों में लगी रही। वह वास्‍तव में एक कर्मठ महिला निकली। प्‍यार के पल अंदरूनी तौर पर क्‍या महत्‍व रखते हैं ? मेरे अनुसार, वह नहीं जानती, पर कहती यही नजर आएगी। प्‍यार दिखावे जताने की चीज़ नहीं होती। बस अंदर है। सो है। ए फेथफुल वाइफ। और क्‍या चाहिए आपको। प्‍यार के झूलों में झूलना․․․ यह कभी कभार बाई द वे जैसा हो उठता है। फिर वह भी अपनी बड़ी बहन रानो की तरह बोलने लगी थी- आप, अपने आपको बड़ा लायक विद्वान्‌ समझते हैं।

- अरे भई मैं कहां का विद्वान लायक आ गया। जो वास्‍तव में लायक हैं। विद्वान हैं, उन्‍हें मैं अंतर मन से पूजता हूं। उन विभूतियों के नाम-काम बतला सकता हूं, जो मेरे आदर्श हैं। तुम्‍हें तो एक अच्‍छी सुन्‍दर वफादार कर्मठ, हर समय मेरी सुख सुविधा का ध्‍यान रखने वाली प्रेमिका मान कर पूजता हूं। तुम्‍हारे चरणों का दास हूं। मैं पांव छू लूं तो खुश होने की बजाए और नाराज़- जानती हूं। आपके इन नाटाकों से काम नहीं चलने वाला। अच्‍छे भ्‍ाले मूड वाले का, मन दुःखाना, उसे नाराज़ कर देना। अगर मनाने की जरूरत उसे महसूस हो तो और डांटना-अब चुपचाप उठ जाओ। डांट खाने वाला और नाराज हो जाएगा, इन सब बातों का उसे कभी इल्‍म नहीं हुआ।

हमेशा मुझे ही कसूरवार ठहराना। प्रशंसा तक को दुत्‍कारना। मानों अगले का कोई अस्‍तित्‍व या मन मस्‍तिष्‍क भावनाएं ही न हों। 'जो खुशी से चोट खाए, वह जिगर कहां से लाऊं ?‘

वापस नए नए दिनों की तरफ लौटने में ही आनंद हैं। हाए जुदाई के वे नए दिन। वर्दाश्‍त नहीं होते। मगर अपनी और कमला की कुल जिंदगानी के फलसफे का राग छेडूं तो जुदाई के कोई से भी, नए हों, या पुराने दिन, हम दोनों को वर्दाश्‍त नहीं होते। कम से कम मुझे तो बिलकुल भी नहीं है। पहले पहल तो मैं नाई की दुकान पर शेव या हजामत कराने जाता तो संग संग कमला। वह लगातार साइड बैंच पर बैठी रहती। कुछ भी हो कैसी भी हो आखिर कमला कमला है। कमला मेरी कमला है। भले ही गीत गाते, समय गुजार दूं- तुम को फर्सत हो मेरी जान ज़रा इधर देख तो लो․․․․․․। मगर कमला को, काम, फुर्सत लेने दें तब ना। दुनियां भर के काम इसी के लिए बने थे शायद। घर गृहस्‍थी, रिश्‍तेदारी को जिस कुशलता से इसने निभाया चलाया है, उसका कोई सानी नहीं। इन चीज़ों से वास्‍तव में मैं बेफिक्र हूं। सब कमला के जिम्‍मे। तू घर की रानी है यह घर तेरे हवाले। यह संभाल 110 रूपए महीना। आगे तू जान तेरा काम। मेरे पास एक धेला भी नहीं।

चोपड़ा साहब ने भी यही सिखाया था कि सारी तन्‍ख्‍वाह जनानी की हथेली पर और खुद बेफिकर। किस मुंह से वह कोई फरमायश रखेगी। खैर। 6 जनवरी 61 के बाद बीच बीच में घर गाजि़याबाद जाता रहा। एक दूसरे को मुहब्‍बत का इजहार करते और अलग अलग हो जाते। रेवाड़ी में मुझे कमला का पत्र मिला था कि गर्भ ठहर गया है। मैंने भरजाई जी को बताया तो उन्‍होंने मुंह बनाया 'ऊंह इतनी जल्‍दी‘; कैसे ठहर सकता है।

अब इसका मैं उन्‍हें क्‍या उत्त्‍ार देता कि कैसे ठहर गया है। मैं 13 फरवरी 61 को गाजियाबाद गया और अब की कमला को साथ ले आया। और भरजाई-भाई साहब के क्‍वार्टर में ही हम दोनों रहने लगे। क्‍वार्टर वायरलैस स्‍टेशन के बिल्‍कुल पास ही पड़ता था/है। रात की ड्‌यूटी होती तो भी जुदाई। फिर सवेरे चार बजे फाइनली रेल सेवा से निवृत्त्‍ा, कमला-सेवा में हाजिर।

28 दिनों बाद 9 मार्च को मैं और कमला, अलग मकान लेकर, नई बस्‍ती इलाके में एक बहुत लंबे कमरे वाला, मकान लेकर रहने लगे। मकान के दूसरे पोर्शन में जगदीश टी․टी․ई․ अपनी पत्‍नी, जवान बहन प्रमिला और गौदी के बच्‍चे के साथ रहता था। मकान मालिक वही मेरे पुराने दिल्‍ली सरायरोहिला वाले स्‍टेशन मास्‍टर मितल साहब थे। वे मुझे बहुत अच्‍छा लड़का मानते थे, जिनका वर्णन पहले कर आया हूं। उन्‍होंने फौरन जगदीश की अनुमति दे दी थी- हां सहगल को दूसरा पोर्शन दे दे।

वास्‍तव में हमने घर क्‍या स्‍वर्ग सजाया था। कमरा बहुत ही लंबा था। हमने उसके तीन पोर्शन, बीच बीच में दो तारें लगाकर, परदों के सहारे कर दिए थे। अंतिम छोर पर मेरा बड़ा स्‍टडी टेबल साथ में डबल/सिंगल बैड। दूसरा पोर्शन ड्राइंग रूम। सोफा सैट। वास्‍तव में मानना पड़ेगा, कमला कमाल की कलाकार को। रेशमी कपड़े पर इतनी खूबसूरत बेल बूटों की कढ़ाई कि भूले नहीं भूलती। सोफा ही हमारे लिए स्‍वर्ग समान था। संग संग बैठने का लेटने का। झूमने झूलना झुलाओ․․․․․․․․․(के․एल․सहगल) तीसरा हिस्‍सा जो गली को लगता था, हमारा गुस्‍सलखाना था। हां रसोई घर अलदा कमरे से सटा हुआ। दरअसल हम ऊपर वाली मंजिल में रहते थे। गर्मियों में और ऊपर छत पर सोते। चारों तरफ मकान ही मकान/पिक्षयों का कलरव।

कमला खिली खिली। मैं खिला खिला। जोश जिंदगी का। जमाने में कुछ कर दिखाने का। 'खाली नहीं बैठना‘ कमला की थ्‍योरी। शादी होने से कुछ पूर्व उसने गाजियाबाद वाला स्‍कूल बंद कर दिया था, जहां दूर दूर से गांव की उम्रदराज औरते भी आकर इसका शिष्‍यत्‍व ग्रहण करती थीं। उन अनपढ़ औरतों तक को इसने अंगुलियों के माप से सिलाई कढ़ाई सिखाई थी। सो इसने घोषणा कर डाली, यहां भी स्‍कूल चलाऊंगी। पड़ोस में एक किराए का कमरा लिया। डोंडी पिटवाई। इश्‍तहार छपवाए- खुल गया। खुल गया। प्रिंसिपल कमला सहगल। फीस पांच रूपए महीना। दिनोंदिन में स्‍कूल शिखर पर । मैं जब जब ड्‌यूटी से लौटता। पूछता- आज कितनी मछलियां फंसी हैं ? यानी कितने नए एडमिशन हुए।

मगर। डगर डगर पर मगर। 1961 का नवां महीना। डिलिवरी पीरियड। कमला अपने स्‍कूल को अपनी बड़ी बहन रानी को संभलवा कर गाजियाबाद चली गई। रानी, यानी मेरी भरजाई, रेलवे क्‍वार्टर से आकर नई बस्‍ती में स्‍कूल चलाती। मगर स्‍कूल नहीं चला। उन्‍हें बेशक सिलाई कढ़ाई का कुछ ज्ञान था, लेकिन इतने ज्ञान से व्‍यवस्‍थापूर्वक कोई संस्‍था नहीं चला करती।

कमला शिशु अशु यानी विवेक को लेकर लौटी। वह उन्‍हें बच्‍चे को संभालती ? या स्‍कूल को ? स्‍कूल बंद।

विवेक 20/9/61 को पैदा हुआ था। कविता बेटी भी गाजियाबाद में 8/12/62 को पैदा हुई। घर के खर्चे खूब बढ़ चले। जिंदगी उधार पर।

जिस बड़े बंगले के एक जरा से कमरे से मुझे कभी इल्‍कट्रिक चार्ज मैन तेजभान ने बेदख्‍ाल किया था, अब वहां पर नौजवान मि․गिल आकर रहने लगे थे। अभी कंवारे थे। और इतना बड़ा बंगला। सुजान सिंह ने प्रस्‍ताव रखा-गिल साहब आधा बंगला मेरे दोस्‍त सहगल साहब को किराए पर दे दो। दस रूपए महीना किराए पर आधा बंगला हमें मिल गया, जिसे हम दोनों ने मिलकर खूब सजाया। व्‍यवस्‍थित किया। आस पास खूब पेड़ पौधे। कमला नीम के पेड़ पर चढ़ जाती और दातुन तोड़ लाती। धूप में बच्‍चों को पालने में झुलाती। दिन बहुत शानदार तरीके से गुजर रहे थे। गिल साहब दिलदार आदमी, बड़े घराने से ताल्‍लुक रखते। उन्‍हें हमारे पैसे नहीं रौनक चाहिए थी। खूब हिलमिल कर रहते थे। मेरा वायरलैस स्‍टेशन तो एक दम पास। मजा आ गया। बाद में गिल साहब की भी शादी हुई तो रौनक और बढ़ गई। इधर जी․बी․ सिंह हमारे इंचार्ज की जगह मि․ओमप्रकाश शर्मा। ऊंचे, हृष्‍ठ-पुष्‍ठ कुछ कुछ गोरे चेहरे पर गंभीर मुस्‍कान, काली काली शानदार मूंछे। थोड़ी कायदे कानून को छोड़कर उनकी सारी गंभीरता छू मंत्र हो गई। यारों के यार। अनुभवों का भंडार लादे हुए थे। वे भी पाकिस्‍तान के कश्‍मीरी इलाके जेहलम आदि से ताल्‍लुक रखते थे। वे रेलवे में आने से पूर्व मिलिटरी फोर्स में थे। एथलैटस नंबर वन। रेलवे के खेलों के कोच। बताते थे जब मैं खेला करता था तो इतने इतने इनाम लेने के लिए घर से चद्‌दर लेकर जाता। ज्‍यादातर इनाम के आइटम लोगों में बांट आता।

मैं और वह, सर्दियों के दिनों में छोटे थोड़े बच्‍चों के साथ बिना किसी के ओहदे का, ध्‍यान किए बड़े मैदान में गिल्‍ली डंडा वगैरह खेल, खेलते। शाम को हमेशा वालीबाल। शाम तो हमेशा मेरी फ्री होती। ड्‌यूटीज के बारे में पहले ही बता आया हूं। सुबह 10 से शाम 4, और इसी तरह रात 10 बजे से सुबह 4। इतवार रात को सिर्फ दो घंटे। 2 से 4। बहुत ज़रूरी रेलवे के वैगन्‍ज का लेखा जोखा हैड क्‍वार्टर बीकानेर को देना पड़ता। एल․एस․आर․ (लोकल स्‍टाक रिपोर्ट)

बहुत छोटी छोटी मछलियां कभी कभी सीजन में रेवाड़ी बिकने को आतीं। छह आने से लेकर दस आने सेर। हम दोनों शाम को हमारे घर पर बैठकर छीलते साफ करते। साथ में ओमप्रकाश शर्मा यह कहना भी नहीं भूलते ''तुम ब्राह्‌मणों का धर्म भ्रष्‍ट करने पर तुले हो।‘‘ उनकी पत्‍नी का नाम भी रानी था। वे भी जिंदा दिल थीं। मीट मछली खाती नहीं थीं पर बनाने खिलाने में कोई संकोच नहीं। मगर बनता ज्‍यादातर हमारे यहां ही था। बाद में वह मेरे साथ बीकानेर में भी रहे। अपनी सेवानिवृत्त्‍ाि तक। देहरादून से कुछ पहले कौनसा स्‍टेशन पड़ता है शायद डोईवाला। वहां घर था। वहीं जा बसे। फिर कुछ पता नहीं। कहते हैं ना 'रेलवे दी यारी आउटर सिगनल तक। उनका, सबसे बड़ा नुक्‍स, जो हमारे स्‍टाफ वाले अक्‍सर निकालते कि सारे कानूनों का ठेका जैसे इन्‍होंने ही ले रखा है। वे अब बड़ी जगह पर इंस्‍पैक्‍टर इंचार्ज थे तो काम में कतई ढिलाई बर्दाश्‍त नहीं करते। अपना काम किसी दूसरे से न लेते कि इस तरीके से, स्‍टाफ, इंचार्ज पर, हावी होने लगता है। सच भी है। इसका जीता जागता उदाहरण हमारे यहां के मि․बी․के․डी․ बंसल थे। पहले हिसार में उन्‍होंने तार घर के इंचार्ज रूप नारायण को, फिर रिवाड़ी के इंजार्च दीनदयाल फिर वायरलैस इंचार्ज ज्‍योति कुमार को पटा रखा था। सरदार जी․बी․सिंह ने उसका नाम तेलू डाल रखा था। ऐसी खोपडि़यां आपको हर कहीं मिल जाएंगी, जो हर किसी को, चाहे कोई भी नया इंचार्ज या अफसर आए, पटाने में निपुण होते हैं। और उदाहरण दे सकता हूं पर कोई फायदा नहीं आप भी जानते होेंगे। क्‍या पता आप खुद ही ऐसे व्‍यक्‍तित्‍व के धनी हों। मानना पड़ेगा कि ओम प्रकाश के सामने बंसल की एक न चली।

दूसरा आरोप जो उन पर लगाया जाता कि वे आत्‍मप्रशंसक हैं। अपने कर्मों नैतिकता के उदाहरण देते हैं। मेरा कहना यह था कि कोई भी आदमी अपने आपकी हकीकत को बयान करने में स्‍वयं ही सक्षम हुआ करता है। दूसरा नहीं। फिर ऐसी बात भी नहीं थी कि वे अपने आदर्श अफ़सरों या अन्‍य नैतिक मूल्‍यों का हरदम पालन करने वालों के उदाहरण न दिया करते हों। वे डूब कर बाते कहते। मैं डूब कर सुनता। आत्‍मसात करता इसीलिए उन कथ्‍यों के आधार पर बहुत सी कहानियां रच डालीं। शायद और भी लिखूं। मुझे कभी कभी यह भी लगता कि जो लोग उन्‍हें या उनकी बातों के विरोधी थे वे इसे स्‍वयं के चरित्र पर आघात सा मानते हों। फिर भी आत्‍म प्रशंसा को अच्‍छा तो नहीं माना जा सकता। श्री ओमप्रकाश साल मे ंएक बार लंबी छुटि्‌टयों पर अकेले निकल जाते। कहते-आदमी की पर्सनल लाइफ में किसी का दखल देना वाजिब नहीं है। एक बार उन्‍होंने रेलवे पुरस्‍कार लेने से इनकार कर दिया कि देखने वाले मुझे भी अफ़सरों की जीहुज़ूरी चापलूसी करने वाला समझने लगेंगे। पुरस्‍कार मिलते ही ऐसे लोगों को हैं।

पंजाब जल रहा था। खालिस्‍तान की मांग के आतंक के कारण गाडि़यां लगभग खाली चलतीं। तब वे बड़े इंस्‍पैक्‍टर बन चुके थे। उन्‍हें जम्‍मू अमृतसर इलाकों का इस्‍पैकशन भी करना होता था। ऐसे खतरों में भी वे किसी की नहीं मानते और टूर पर निकल जाते ''जहां लिखी होगी मौत वहीं आएगी।‘‘ श्रद्धावान भक्‍त भी थे। उनकी कही सभी बातें मुझे याद हैं। ज्‍यादातर स्‍टाफ वाले उन्‍हें ढोंगी भी कहते थे।

सुजान सिंह की बदली रेवाड़ी से, बीकानेर हो चुकी थी। वह मुझे पत्‍नी सहित बीकानेर आकर मिल जाने का आग्रह बार बार करते रहते थे। एक बार मैं, सपरिवार उनके यहां तीन चार रोज़ के लिए बीकानेर चला गया। वहां से वापस आने के फौरन बाद मेरी बदली के आदेश बीकानेर के आ गए। मुझे जर्बदस्‍त आघात हुआ। स्‍टाफ वाले कहते ढोंग रच रहा है। यह बीकानेर गया ही इसी कारण से था। मुझे आग लग गई। जले पर नमक। तब मैं ट्रांस्‍फर रूकवाने का प्रोटैस्‍ट क्‍यों कर रहा हूं। क्‍या लोग बाग इतने भोले हैं। मैंने वजह पुछवाई। न तो मेरी लांगर स्‍टे है। न मैं सीनियर हूं। न जूनियर मोस्‍ट हूं। बीच में से मुझे क्‍यों पिकअप किया जा रहा है। बस प्रशासन की रटी रटाई भाषा। इन द इन्‍ट्रैस्‍ट अॉफ एडमिन्‍स्‍ट्रेशन, या गोवर्नमेंट अॉफ इंडिया।

असल वजह यही थी कि मि․ ज्‍योति कुमार रिटायर होने वाले थे। उन्‍होंने प्रहलाद सिंह से शुरू में यही वायदा कर रखा था कि रिटायर होने से पूर्व तुझे रेवाड़ी भिजवा दूंगा। इस बात का उल्‍लेख मैं शुरू में कर आया हूं। बहाना चिटचैटिंग यानी वायरलैस चैनल पर प्राईवेट गपशप, का बनाया गया कि कंपलेंट के आधार पर डी․एस․टी․ई․ ने ट्रांसफर किया है।

मैंने लिखा पढ़ी की। मैं यूनियन वालों के पास गया। उनकी चालबाजियों को परखा। हाथ-पांव मारना बेकार। किसी ने कहा किसी एम․एल․ए․ या बड़े अफसर की सिफारिश लाओ। मैंने जवाब दिया कि अगर बाई फउल मीन्‍स (गलत तरीकब से) ट्रांसफर न हुई होती तो मैं गलेडली (खुशी से) ट्रांसफर पर चला जाता। सो सिफारिश क्‍यों लाऊं। मैं बीकानेर जाकर पहले अपने डी․एस․टी․ई से मिला कि मैं जाकर डी․एस․ से मिलूंगा यानी तुम्‍हारी कंपलेंट करूंगा। मुझे डी․एस․ से मिलने की अनुमति दी जाए। (कायदा यही है)। डी․एस․टी․ई․ घबरा गया बोला मैं इजाजत नहीं देता।

तो न सही। मैं वैसे ही डी․एस․ के कमरे के सामने जा खड़ा हुआ। डी․एस․ (सरदार जी महाराजा पटियाला के दामाद थे) वे अपनी कार से लंच के लिए निकल रहे थे। वैलफेयर इंस्‍पैक्‍टर आदि के रोकते, मैं नहीं रूका अौर उनकी कार के सामने जा खड़ा हुआ- साहब साहब․․․․․ मेरी आवाज भरी गई थी 'मेरा गलत तरीके से ट्रांसफर हुआ है। कोई आपसे मिलने नहीं देता।

बिना किसी परिचय बिना किसी पृष्‍ठभूमि वे मेरी बात क्‍या समझते। पर इतना अवश्‍य समझ गए कि आदमी सच्‍चा है। इसके साथ कुछ ज्‍यादती हुई है। बोले-ठीक है। मैं लंच के बाद तुमसे बात करूंगा।

मैं सामने पार्क में जाकर बैठ गया। इसे दुखिया पार्क के नाम से पुकारा जाता था। तमाम प्रशासन के सताए हुए कर्मचारी यहीं घास पर बैठे मिलते थे।

मैंने सोचा सर्वोच्‍च पदाधिकारी को क्‍या, मैं याद रह पाऊंगा। फिर उनके दफ्‍तर में मुझे कोई घुसने न देगा। मैं बहुत सतर्क था; कार लौटने की प्रतीक्षा में। लेकिन हुआ वही। वे कारीडोर में कार से उतरे और सीधे अपने दो दो दरवाजों वाले आफिस में समा गए। मैं फिर से दुखिया पार्क में निराश भाव से मुंह लटकाए बैठ गया िक अब ? वे तो मेरा नाम तक नहीं जानते।

लेकिन तभी चपड़ासी आया और मुझे अपने साथ ले गया। मैंने अब थोड़ी तसल्‍ली से, थोड़ी तफसील से सारी दास्‍तां बयान की और यह भी कहा कि चिट चैटिंग को अगर आधार बनाकर ट्रांसफर्ज़ की जाने लगें तो आपको हर रोज किसी न िकसी की ट्रांसफर करनी होगी। इटस वैरी कौमन थिंग। काम के दौरान थोड़ी जै राम जी या कोई मज़ाक आपस में कर ही लिया जाता है। उन्‍होंने बड़ी संजीदगी से मुझे सुना। कहा कि बेटे तुम ठीक हो सकते हो। पर डिस्‍पिलिन भी तो कोई चीज है। अब अगर मैं तुम्‍हारा ट्रांसफर रूकवा देता हूं तो तुम्‍हारे डी․एस․टी․ई․ की तौहीन होगी। तुम शांत मन से चले आओ। बीकानेर बड़ा शहर है। यहां तुम्‍हें लाभ ही होगा। किस तरह का लाभ ? तुम्‍हारे बच्‍चों की पढ़ाई के लिए। बच्‍चे तो अभी गोदी के हैं। आज न सही कल। तुम मेरी बात को सही पाओगे।

लोग बाग, हैरान कि यह डी․एस․ (मौजूदा डी․आर․एम․) तो किसी से दो मिनट से ज्‍़यादा बात नहीं करता। तुम्‍हारे साथ पंद्रह मिनट तक बात होती रही।

इसी बात की क्‍या मैं खुशी मनाऊं। हां सुना था कि डी․एस․ ने डी․एस․टी․ई․ को बाद मैं बुलाकर खूब झाड़ा था। पर मेरा अंजाम तो जस का तस रहा। हां इस बीच में ए․पी․ओ․ यादव से भी मिला था जो इलैक्‍ट्रिक क्‍लर्क वर्मा के पंखे चोरी वाले केस में इन्‍क्‍वयरी अफसर थे। वे मेरी ईमानदारी दयानतदारी की हमेशा खूब प्रशंसा किया करते थे। वह सारा केस समझते थे। उन्‍होंने हां हूं की और दो मिनट में मुझे चलता किया। कुछ थोड़ी सी ऊपर ही की सही हमदर्दी रखने वाले लोगों ने देखा तो बोले, सहगल अरे किसके पास जा पहुंचे थे। यादव ने ही तो यादव की सहायता कर उसे रेवाड़ी तेरी जगह फिट करवया है। अब भला वह तुम्‍हारी क्‍या सहायता करता। और ट्रांसफर होनी ही थी तो बतरा की होनी चाहिए थी। पर उसका पक्‍का खास आदमी डीलिंग क्‍लर्क बैठा है। चलो इन शब्‍दों के लिए धन्‍यवाद। किन्‍तु शब्‍द कोई, समाधान, इलाज तो नहीं हुआ करते। सब जगह से निराश होकर वापस रेवाड़ी घर पहुंचा। तभी खार खाए, डी․एस․ से झाड़ खाए, बौखलाए, डी․एस․टी․ई․ का तार दफ्‍तर आ पहुंचा कि सहगल को विदआउट ज्‍वाइनिंग टाइम इमीडीएटेली (तत्‍काल) बीकानेर ट्रांसफर के लिए स्‍पेयर कर दिया जाए।

एक दफः तो फौरन मन में विचार कौंधा कि इसी वक्‍त इस्‍तीफा लिखकर दे मारूं। प्रो․ साहब की बात-कि नौकरी करने से आत्‍मा का हनन होता है।

दो मिनट बाद सोचा आदमी की लंबी जिंदगी में चाहे कहीं भी हो कुछ भी करता हो, अपनी मर्जी के खिलाफ तो हर जगह, आत्‍मा का हनन होता है। चलो इस वक्‍त इससे तेरे स्‍वाभिमान की रक्षा तो हो जाएगी, पर तेरी पत्‍नी तथा दो अबोध बच्‍चों का क्‍या हश्र होगा। इनका क्‍या कसूर है। हां यह काम करना, उस समय जायज होता, जब तू ने शादी ही न की होती। अब इन सबका दायित्‍व तुझ पर है। तू कोई बुद्ध तो है नहीं जो यशोधरा को अपने निज के लिए बिलखता छोड़ गए थे और बेचारा नन्‍हा राहुल ? हाय यह प्रसंग मुझसे सहा नहीं जाता। यदि उन्‍हें निर्वाण लेना था तो विवाह ही नहीं किया होता। इस मायने में मैं बुद्ध का घोर आलोचक रहा हूं। चलो उनके यहां फिर भी राज पाट था। परिवार भूखों तो नहीं मरता। तेरे पास क्‍या है जिसके सहारे बच्‍चे भूखे नहीं रहेंगे। और बुद्ध से भी बढ़कर मैं आलोचक हूं स्‍वामी रामतीरथ का, जो अध्‍यात्‍म को प्राप्‍त करने, अपनी पत्‍नी बच्‍चों को कंगाली की स्‍थिति में छोड़कर चले गए थे। न जाने कैसा मन था उनका ? कोई दया भाव नहीं। उनके स्‍टूडेंट्‌स भी बिलख बिलख कर रोए थे। दुनिया से, उन्‍होंने अपने ज्ञान का डंका बजवाया। जय जयकार बुलवाई। लेकिन किन निस्‍सहायों की कीमत पर। पूरा जीवन वृत पढ़कर मेरी अश्रूधारा बहने लगती है।

मैंने इस्‍तीफा नहीं दिया। इन दोनों महाज्ञानी संतों पर, बाकी के प्रसंगों की बातों पर कुछ टिप्‍पणी करने का मैं अधिकारी विद्वान नहीं हूं, परन्‍तु ऐसे पलायन को लेकर, मैं अपने को, बुद्ध और रामतीरथ से महान मानता हूं। मैंने अपनी खातिर, अपने परिवार का बलिदान तो नहीं दिया। सात फेरों की रक्षा की। अपने निज के लिए जीने, जोखिम उठाने का अधिकारी मैं केवल और केवल अविवाहित को ही मानता हूं। देश राष्‍ट्र की खातिर कुछ अलग पहलू हो सकते हैं।

3-5-1965 को मैंने बीकानेर ड्‌यूटी ले ली। पत्‍नी बच्‍चों को भी साथ ले आया था और सुजान सिंह के घर पड़ाव डाला था। कमला और तरविन्‍दर (श्रीमती सुजान सिंह) किराए का मकान ढूंढ़ने निकलीं। एक एक घर देखकर पूछा। किसी ने महल्‍ला धोबी तलाई (रानी बाजार) में कहा-यहां कोई मकान किराए पर खाली नहीं है। हां चाहों तो मकान बनाने के लिए जमीन मिल सकती है। यह बात जब सरदार जी को पता चली तो हरकत में आए। जमीन खरीद डाली। यहां अपन छोटे छोटे दो मकान बनाकर रहेंगे। आधी जमीन की रजिस्‍ट्री मेरे नाम हो गई। आधी का सुजान सिंह के नाम। मगर समस्‍या जस की तस। ज़मीन पर तंबू गाड़ कर तो रहा नहीं जा सकता था।

कुछ बाद में हमें दम्‍माणी क्‍वार्टर्ज के अगले क्‍वाटर्ज की लाइन में एक अलग साफ सुथरा मकान वाजिब किराए 15, 20 रूपए पर मिल गया। मैं खुशी खुशी अब ज्‍वाइनिंग टाइम लेकर वापस रेवाड़ी अकेला सामान को रेलवे वैगन में लोड करवाने जा पुहंचा। हम लोगों को ट्रांसफर पर रेलवे एक पूरा वैगन और कोई पशु, गाय, भैंस भी यदि हो तो उसके लिए भी फ्री में वैसा वैगन देती है।

वैगन को सीलबंद कर मैं बीकानेर मेल से बीकानेर दूसरी सुबह आ पहुंचा। वैगन धीरे धीरे दो चार दिनों में किसी मालगाड़ी में आना था।

मैं खुशी खुशी किराए वाले मकान के सामने, जैसे भागता हुआ जा पहुंचा ताकि जल्‍दी से जल्‍दी बिछड़ी हुई, कमला को देख सकूं। परन्‍तु वहां पर कोई ताला जड़ा हुआ था। पड़ोसियों ने बताया कि वे एक दिन में मकान छोड़कर सुजान सिंह के मकान में चली गईं। हाय इतना अच्‍छा मकान क्‍यों छोड़ा ?

इसका खुलासा कमला ने, मिलने पर, यूं किया- कि शाम को मैं छत पर गई थी। पड़ोस में ही शमशान है। वहां मुर्दे जलाए जा रहे थे। ऐसे तो हमें हर रोज यही नजारा देखने को मिलेगा। मुझसे यह सब नहीं सहन होगा।

मैंने उसे समझाने की बहुत कोशिश की कि पगली, आदमी को रहना ही ऐसी जगह चाहिए, जहां उसे हरदम यह एहसास होता रहे कि आदमी का आखिरी हश्र क्‍या होता है। तब आदमी नेक काम करता है। गलत कामों से बचता है। आदि।

पर मेरे लंबे प्रवचन बेअसर। चलनी तो कमला ही की थी। चलती तो आज तक कमला ही की है। सब एक तरफ कमला रानी (महारानी) एक तरफ।

फिर हमें, एक संयुक्‍त परिवार में छोटा सा हिस्‍सा, उसी धोबी तलाई में, मिला। वहां हमारे बीच हर रोज ऐसी घटिया सी जगह रहने को लेकर झगड़ा होने लगा। मालिक मकान भी तंग। इस घटिया माहौल में हमने करीब चार महीने जैसे तैसे गुजारे।

इसके बाद पता चला अग्रवाल क्‍वार्टर्ज में एक मकान मिल सकता है। 21/सी मुनीम बोला- सिर्फ इसी का किराया 45/- रूपए मासिक है। बाकी सबका 50/- रूपए। यह वाला बाकियों से थोड़ा सा, एरिया में, कम पड़ता है। हां इसकी छत पर एक छोटी सी कोठरी भी बनी हुई है। कमला निर्णय लेने में देर नहीं करती। फौरन मोहर लगा दी येस। स्‍टाफ वाले सुनकर हैरान-इतना महंगा 45/- रूपए का मकान सहगल ने ले लिया है। अफसर की तरह रहता है। क्‍यों न रहे। आखिर है तो अफसर ही का दामाद।

मैंने कमला से भी कहा था कि इतनी थोड़ी पे में से हम 45/- रूपए कैसे निकालेंगे।

सब हो जाएगा। मुझे सबसे पहले आपकी सुविधा देखनी है। आपका आफिस एक दम पास है। पैदल का रास्‍ता।

बताया ना, जो कमला ने कह दिया वही फाइनल। मगर फिर भी आमदनी तो वही गिने चुने रूपयों वाली थी। हम दो छोटे छोटे बच्‍चों के लिए दूध पर भी खर्चा करते थे। घर गृहस्‍थी के हर प्रकार के खर्चों से कौन वाकिफ नहीं। हम कैसेे गुजारा करते थे, नहीं कह सकता। बस इतना ही कि किसी प्रकार महीने काट रहे थे। कुछ उधार। पांच रूपए कभी कभी पिताजी भी भेज देते थे। यह बात दूसरे भाइयों को अखरती थी। कहते हम तो पांच दस रूपए पिताजी माताजी को देते हैं। मगर दर्शन लेता है। दर्शन है ही कंजूस। गाजियाबाद आता है तो रिक्‍शा तक नहीं करता। दोनों, बच्‍चों सामान के साथ पैदल पैदल चलते आते हैं। मैं सोचता कंसूज तो वह होता है जिसके पास पैसा तो हो और खर्च करने से बचता फिरे। जब पैसा जेब में है ही नहीं तो कंजूसी कैसी। निश्‍चित रूप से बृज की आर्थिक स्‍थिति बहुत सुदृढ़ थी। मधु शादी से पूर्व पी एंड टी में नौकरीशुदा थी। देखा जाए तो कंजूस वे लोग थे। बहुत नाप तोल कर खर्चा करते। माताजी पिताजी की सुख सुविधा में कमी बरतते। मधु अपने बच्‍चों को हमसे चोरी छिपे खिलाती पिलाती। हमारा यहां आना, खाना, उन्‍हें अखरता था। कई बार कृष्‍णा बहन जी हमें अपने घर ले जाकर खाना खिलाती। कभी कभार चोपड़ा निवास से भी न्‍योता आ जाता। बड़े भाई साहब अभी गाजियाबाद आकर नहीं बसे थे।

यह सिलसिला हम दोनों भाइयों की शादियों के बाद से ही चला आ रहा था। कमला की दोनों डिलिवरियों के बाद उसके साथ अच्‍छा व्‍यवहार नहीं किया गया था। कुछ खास खिलया भी नहीं गया था। उससे घर का काम भी लिया गया था। अपनी सुविधा के लिए कमला के पास अपना पैसा भी नहीं था। उधर कमला की मां, कमला की जान की दुश्‍मन 'कर अपनी मर्जी की शादी।‘ कमला सोचती आप कौन से अमीर घराने में मेरी शादी करने जा रहे थे। वह कुछ रोज के लिए मायके गई भी थी तो केवल दुरकार मिली। मां कहती जो जो भी कमला से संबंध रखेगा। उससे मेरा बॉय काट। भरजाइयां और बहने, मां/सास से चोरी छिपे कमला को कुछ नए पुराने कपड़े लत्त्‍ाे दे देतीं। मैं अपनी सास से लड़ कर कमला को, वहां से लेकर अपने घर 'सहगल निवास‘ ले आया थ्‍ाा। अपने हालात पर हम दोनों मिलकर खूब रोते रहे थे। वैसे चोपड़ा निवास में बहनों भरजाइयों के बीच कमला श्रेष्‍ठ लड़की मानी जाती थी जो, वक्‍त जरूरत हर एक के काम आती थी। इतने बड़े संयुक्‍त परिवार छह लड़कियां (दो की शादी हो चुकी थी), चार भाई (दो भाई बाल बच्‍चो वाले) में कवेल कमला ही कमला एक ऐसी लड़की, जो न तो किसी के कान भरती, न ही किसी को किसी के विरूद्ध भड़काती। फिर भी कमला मां की आंख की किरकिरी।

बात बीकानेर में गुजारे योग्‍य पैसे की कर रहा था। श्री योगेन्‍द्र कुमार रावल यहां बीकानेर में गांधी शांति प्रतिष्‍ठान के मुख्‍य कार्यकर्त्त्‍ाा थे। डागा बिल्‍डिंग में बहुत बड़ा लंबा चौड़ा पुस्‍तकालय चलाते थे। स्‍वयं ऊपर के कैबिन में बैठते थे। वहां की हर शाम हरी भरी होती थी यानी बुद्धिजीवियों, विचारकों, अखबारनवीसों, लेखकों, पाठकों आदि आदि की महफिलें जमती थीं। रावल साहब एक दिलदार व्‍यक्‍ति थे। प्रायः चिन्‍तकों विद्वानों, बीकानेर वालों और कभी कभी बाहर वालों के भाषण भी करवाते थे। मैं हर रोज, जब जब शाम की ड्‌यूटी नहीं होती, तो वहां पत्र पत्रिकाएं पढ़ने किताबें ईशू करवाने जाता था। एक दिन रावल साहब ने मुझे ऊपर अपने कैबिन में बुलाकर मेरा पूरा परिचय लिया। जब मेरी पत्‍नी के विषय में पता चला तो कहने लगे भई इतनी क्‍वालीफाइड लेडी को घर क्‍यों बिठाए रहते हो। समाज को भी तो उनका लाभ लेने दो। उन्‍होंने स्‍वयं जाकर यहां की मशहूर साहूकार सेठानी सामाजिक कार्यकर्त्त्‍ाी श्रीमती रतन दमाणी से बात की। उन्‍होंने कमला को सौ रूपए पे पर टीचर रख लिया। वह जमाना और सौ रूपए; प्राइवेट स्‍कूल वाले दें। यह तो अचंभे वाली बात हुई। उन महिला की बाजार में कुछ दुकानें भी चलती थीं। एक डेढ़ या दो महीने बाद वे कमला से कहने लगीं दुकानों के िलए कपड़ों की ड्रेसं आदि बना/बनवाकर बाजार में बेचने के लिए भेजो।

कमला ने स्‍पष्‍ट शब्‍दों में कहा कि मैं यहां पढ़ाने सिखाने आई हूं। किसी फैक्‍ट्री में काम करने नहीं। आप टीचर की बजाए कोई कारीगर रख लें। मैं तो चली। कमला ने इस्‍तीफा दे मारा। इससे हैड मिस्‍ट्रेस का मन जरूर पसीजा। पर वह भी उसी मालकिन के अधीन थीं। मशहूर क्‍या था, खुद रावल साहब बताते थे कि दान के नाम पर अपने नाम ख्‍याति की खातिर हजारों का दान दे देती हैं। पर अपने कर्मचारियों का शोषण करती हैं। वे बेचारे अपमान सहते हैं। उनके सम्‍मुख थर थर कांपते हैं।

कमला के इस प्रकार स्‍वाभिमानपूर्वक जॉब छोड़ आने से मुझे बेइन्‍तहा खुशी हासिल हुई। मैं उसे लेकर लेडी इन्‍स्‍पैक्‍टर कार्यालय जा पहुंचा। उन्‍हें सारे डिप्‍लोमा सर्टिफीकेट्‌स दिखलाए। देखकर उन्‍होंने ने कहा- सॉरी हम इन्‍हें नहीं ले सकते।

मैं उन्‍हें इन सर्टीफिकेट्‌स डिप्‍लोमाज़ का महत्‍व समझाने लगा। वे धीरे धीरे मुस्‍कराती हुई बोली- मैं इतनी नादान नहीं हूं। निर्विवाद रूप से सारे श्रेष्‍ठ हैं। पर हम करें क्‍या। हमारे हाथ बंधे हुए हैं। हमें आर्डरज यही हैं कि राजस्‍थान सरकार के सर्टीफिकेट (भले ही मामूली) होने चाहिए। बाहर के प्रदेशों के नहीं। मैं समझ गया। संविधान में कुछ भी लिखा हो किंतु शुरू ही से अपनी प्रांतियता की जड़े गहरे तक फैले हुई हैं। फिर काहे की राष्‍ट्रीयता। समान अधिकार की डोंडी।

हम नौकरी पाने के लिए भागदौड़ नहीं कर रहे थे। हम श्रीमती दम्‍माणी जी को कुछ कर िदखाना चाहते थे। फिर हमने एम्‍पलायमेंट एक्‍चेंज जाकर कमला का नाम दर्ज करवाया। और भूल गए। 'संयोग‘ वाले चैप्‍टर में इसका थोड़ा खुलासा कर आया हूं कि कैसे आगे जाकर कमला की नौकरी प्रतिष्‍ठित सैंट्रल स्‍कूल में लग गई। सब चकित। वायरलैस स्‍टाफ वाले आलोचक- औरत होकर भी सर्विस। बहुत बाद में जाकर उन्‍होंने भी अपनी बेटियों-बहुओं से सर्विस करवाई। बेशक हम समय से आगे चल रहे थे।

यह भी सच है कि उस समय पूरे डी․एस․ आफिस में एक भी औरत किसी पद पर काम नहीं करती थी। आज वही डी․आर․एम․ आफिस बनकर लेडी ही लेडीज स्‍टाफ से जगमगा रहा है। हां उस समय लेडीज की कुछ कुछ दो जगह जरूर मानी जाती थीं, एक नर्स दूसरी मास्‍टरनी। उन दोनों को भी आम समाज किसी अच्‍छी निगाह से नहीं देखता था। औरत का घर से बाहर कदम, लोगों को अखरता था। और तो और हमारा बंगाली साथी दफ्‍़तर आती बार, औरत को ताले में बंद कर आता था। पंजाबियों को यह लोग 'बड़े अडवांस‘ कहते थे। 'अडवांस‘ का मतलब․․․․․․․? वही जानें। वक्‍त वक्‍त की बात है।

एक वक्‍त यह भी आया था कि एक बार वूलन मिल मालिक ने कमला और उन्‍हें सेठानी दमाणी जी को बतौर जज, किसी प्रतियोगिता के लिए आमंत्रित किया था। वे दोनों साथ साथ एक ही मंच पर बैठी थीं। बाई जी बार बार कमला की ओर देख रही थीं। बोलीं आप आप तो कोई परिचित लगती हैं। कमला ने ससम्‍मान उत्त्‍ार दिया-आपके यहां सर्विस कर चुकी हूं। जिन जिनको बाई जी ने ज्‍यादा नंबर दिए, कमला ने सब काट दिए, तर्क सहित। बाईजी कोे समझाया कि इन आइट्‌म्‍स में कहां कहां गलतियां हुई हैं। कमला ने दूसरे सुपात्र प्रतियोगियों को निष्‍पक्ष भाव से पुरस्‍कार दिलवाए। मिल का मालिक खुश। पर बाई जी का मंुंह लटकना ही था। और मेरा सर गर्व से ऊंचा।

कमला की सर्विस लगने से पूर्व उन पांच सालों में हमारी आर्थिक दशा ऐसे ही ऐसे रही। तीसरी औलाद। अजय ने सरकारी अस्‍पताल पी․बी․एम․ में जन्‍म लिया 16-7-1968 को। इसके छोटे छोटे, पर बड़े भाई बहन, बड़े खुश हुए। दोनों ने नन्‍हें से भाई के घर आने से पूर्व कमरे को जहां कमला अोर नवजात शिशु को, सुलाना था, गुबारों झंडिइयों से सजा कर रखा था - स्‍वागतम।

तिथि देखते वक्‍त डायरी में रखी, रेवाड़ी का एक फोटो अचानक सामने आ गयी है। संक्षेप में, रेवाड़ी का थोड़ा और बता दूं। गिल साहब का ट्रांसफर रेवाड़ी से गाजियाबाद हो चुका थ्‍ाा। यू․पी․ का दुबला काला नया चार्जमैन, जिसे वह बंगला अलॉट हुआ, वह परदे के कारण, हमें साथ नहीं रखना चाहता था। सो हमने फिर से शहर में एक मकान किराए पर ले लिया। यह मकान तीन लड़कियों वाला मकान कहलाता था। तीन कंवारी लड़कियां और उनकी मां। पता नहीं बेचारी सिर्फ मामूली किराए से गुजर बसर करती थीं। या पैसे का और भी कोई छोटा मोटा जरिया रहा होगा। मैं उन्‍हें बेशक बेचारी कह रहा हूं, लेकिन तीनों ही खूब सुंदर लड़कियां साधारण कपड़ों में स्‍वाभिमानपूर्वक रहती थीं। केले के छिलकों की भी सब्‍जी बना लेतीं। ये चीजे भी तो हमें जीवन जीना सिखाती हैं कि औरों की हालत हमसे भी गई गुजरी है।

कमला कभी कभी अकेली भी गाजियाबाद हो आती थी। एक बार गुड़गांव बिना मेरी जानकारी के उतर गई। उषा सिलाई मशीन कंपनी का हैडक्‍वार्टर गुड़गांव था। वहां वह कंपनी वालों काे अपना पूर्व परिचय देकर बात कर आई। कमला के, इस 'तीन बहनों वाले मकान‘ में पहुंचने के तीसरे ही दिन उषा सिलाई के कर्मचारी ''उषा सिलाई स्‍कूल रेवाड़ी‘ का बहुत बड़ा बोर्ड टांग गए। यहां पर भी कमला ने स्‍कूल चलाया था। तभी कुछ ठहर कर हमारा ट्रांसफर बीकानेर हो गया था। हां एक बार कमला मेरे बड़े लड़के विवेक, जिसे हम आज भी अशू ही बुलाते हैं, जो इस समय गजटेड आफिसर है, को लेकर किसी गांव में, किसी वैद्य को दिखलाने गई थी। बिना मेरी जानकारी के कि आपसे कुछ होना हवाना है नहीं। बेकार की चिंता में पड़ जाओगे। ताे ऐसी थी कमला और आज भी वैसी है कमला। रोबदाब वाली है। हुकूमत चलाने वाली। इसका साम्राज्‍य कायम रहे। गुजारे की बातें। उधार की बातें। अर्थाभाव के कारण, दूसरे रिश्‍तेदारों की नजर में हमारे कमतर दिखने की काफी बातें हो चुकी हैं। गुजारा तो सबका होता ही है चाहे, झोंपड़ी में, चाहे महल में। 'इच्‍छाएं असीमित हैं और साधन सीमित‘ यह एक्‍नामिक्‍स में पढ़ा था। हां मार्च 1967 से कुछ कहानियां छपने लगी थीं। उन कहानियों से कभी 12 रूपए कभी 15 रूपए, 30 रूपए नई कहानियों से। सरिता से 50 रूपए आ जाते।

साहित्‍य और मैं ः-

अब सोचता हूं साहित्‍य से मेरा रिश्‍ता जुड़वां भाई के समान है। क्‍यों, मैं बिल्‍कुल छोटी उम्र ही से पत्र पत्रिकाओं और किताबों से लगातार जुड़ता चला गया था। क्‍यों मैं अनजान लोगों को ऊटपटांग लंबी लंबी चिटि्‌ठयां लिखा करता था। क्‍यों कोर्स में मेरी लिखने की श्‍ौली बाकी छात्राओं से बहुत जुदा थी। अब सोचता हूं, यहीं, मेरी मौलिकता मेरे अंदर अप्रत्‍यक्ष रूप से प्रकट होनी शुरू हो गई थी। पहले कुछ कहानियों के रिकार्डज में मैं कहानी के छपने का महीना सन के साथ उसका सृजन-स्‍थल भी लिखा करता था। जैसे पहली कहानी-के साथ बरेली 1953 दूसरी के साथ 1954 तीसरी के साथ चंदौसी 1956 आदि। जिन्‍हें कभी छपने को भेजने का ख्‍याल भी नहीं आता था। मतलब हुआ, छपने के लिए नहीं लिखता था। क्‍यों लिखता था ? जवाब है कि बस यूं ही लिखता था। फिर कोर्स मे पढ़ा वह वाक्‍य याद हो आता है, आथ्‍ार्ज़ आर बार्न, नॉट मेड। इसके साथ यह भी ध्‍यान आता है कि मैं कौनसा कोई लेखक हूं ? मैं वास्‍तव में लेखक नहीं हूं। हां बस इतना भर कहने का दम भर सकता हूं कि मैं एक, लेखकों जैसी प्रवृति वाला इंसान हूं। यह प्रवृति जन्‍मजात, प्रकृतिजन्‍य है।

यहां पर अपने आत्‍म कथ्‍य, जो पांच सात जगह छपा, के कुछ संपादित अंश प्रस्‍तुत करने की अनुमति चाहूंगा। शीर्षक यूं है-मेरा लेखन मेरे लेखक होने का प्रयास भर है। दरअसल यह शीर्षक संपादिका मणिका मेाहिनी जी ने दिया था। उन्‍होंने मुझसे अपने, विभाजन पर लिखे उपन्‍यास 'टूटी हुई जमीन‘ पर, साथ ही अपनी लेखन-प्रक्रिया पर आलेख पत्रिका 'वैचारिकी संकलन‘ के लिए आमंत्रित किया था। कभी लगता है कि प्रयास शब्‍द भी मेरे ताई कुछ भ्रमित करने वाला है। मैंने प्रैक्‍टिस कर कर तो नहीं लिखा। हां यह सही है कि रचनाएं जब स्‍वतः लिखी जाती हैं तो उन्‍हें परिमार्जित करता ही हूं। और कभी कभी इस परिमार्जन में खासी मशक्‍कत दरपेश आती है।

हां यह आलेख समय के साथ कुछ कुछ संवर्द्धित होता रहा। तो ज़रा पढ़ने की जहमत उठाइए ः-

जीवन में ज्‍यादातर चीजें इतेफकन, बिल्‍कुल लॉट्री की तरह होती हैं, जिनके पीछे हमारी कोई ख्‍वाहिश, मंशा, रजामंदीगी कतई नहीं हुआ करती। जिंदगी खुद बखुद अपने आप में एक लॉट्री की तरह है। हमने कब चाहा था, हमारा जन्‍म हो। बाकी की चीजे़ भी निरन्‍तर हमारी तमन्‍ना को दरकिनार रखकर होती चली जाती है। मसलन शहर, मुल्‍क, मां बाप, बेटा बेटी वगैरह वगैरह। मशहूर है कि यह सब ऊपर वाले के हाथ में है। मगर भगवान खुदा ईसा को चुनने में भी किसी ने हमसे कब पूछा था। (लंबी बातों से बचे चला जा रहा हूं। कुछ को शायद पहले कह आया हूंगा। भरसक प्रयासरत हूं कि दुहराव न होने पाए। भले ही कुछ छूट जाए) प्रायः किसी लेखक से पूछा जाता है कि उसने लिखना कब शुरू किया। मगर सवाल सिर्फ कलम उठाकर लिखने तक ही महदूद हो या सिर्फ छपने की बात करनी हो तो मुद्‌दा मुश्‍किल नहीं। थोड़ा याद करते हुए या फिर कुछ कागज़ पत्रों को पलटते हुए सन्‌ संवत तिथियों की गिनती करवाई जा सकती है। लेकिन यह कोई सही उत्त्‍ार नहीं होगा। दरअसल सृजनात्‍मक साहित्‍य लेखन की पृष्‍ठभूमि में जाने का प्रयास करें तो पाएंगे, कि यह कोई एक सूत्रीय अवधारणा नहीं बल्‍कि जटिल पहलू है।

इन दो बातों-लिखने और छपने- को अपनी रचनाशीलता के साथ केा अभिव्‍यक्‍ति देना कुछ कुछ वैसी ही स्‍थिितयों जैसा उबाऊ होता है जैसे अपने खोए हुए सायों का पीछा करना या जैसे स्‍वयं अपनी आंख की पुतली को देखने का प्रयास। कुछ बातें ऐसी हैं, जिन्‍हें बताते हुए जरा संकोच होता है। बहुत ही छोटी आयु में अपनी सनकों पर नज़र जाती है। पेड़ों की जड़ों को घूरना, दीवारों चौबारों का अवलोकन। अरे यह आदमी कैसे किस पोश में बैठा है। कैसा मुंह बना रहा है। क्‍यों अचानक छलांगें लगाात हुआ भाग खड़ा हुआ। मेरा दिल क्‍यों और कैसे धड़क रहा है। अपनी पीड़ा के सादृश्‍य दूसरों की पीड़ा से आहत रहना। आंधी तूफान गर्मी ठंड बरसात से थोड़ी थोड़ी घबराहट के साथ, मौसम के बदलाव की प्रतीक्षा। उसी बहुत छोटी सी उम्र में जब ठीक से दुनिया को पहचान नहीं पाया था (आज भी कहां जान पाया हूं); किसी के यह पूछने पर (जैसे आम तौर से बड़े, बच्‍चों से पूछते हैं) बड़े होकर क्‍या बनोगे ? क्‍यों मेरे मुंह से आपसे आप कवि या लेखक निकला था। पहली घरेलू एलबम के पहले पृष्‍ठ पर रवीन्‍द्र नाथ टैगोर का फोटो क्‍यों चिपकाया था।

खैर यह सब अपनी जगह, फिर भी मेरे लिए लिखने और छपने से अधिक महत्‍वपूर्ण बात औरों की बनिस्‍बत खुद के लिए यह जानना समझना जरूरी है कि मैं क्‍यों, किसके लिए और किसलिए लिखने लगा।

उन ब्‍योरों में जाने के लिए, मुझे पढ़ने और लिखने या फिर लिखने और पढ़ने के अंतःसंबंधों का ध्‍यान आता है जिनके तंतु एक दूसरे के साथ संश्‍लिष्‍ट रूप से जुड़े हुए हैं। लिखने से बहुत पूर्व सुना हुआ लोक साहित्‍य तथा स्‍वतः पढ़ने की आंतरिक प्रेरणा, प्रभावशाली ढंग से हमारे मानस पर क्‍यों हावी हुई रहती है। भारी दबावों के बीच तो हम सिर्फ पढ़ाई करते हैं। कोर्स पूरा करते हैं। इम्‍तिहान पास करते हैं। डिग्रियां हासिल करते हैं। परन्‍तु कुछ खास सुना हुआ पढ़ा हुआ बिना ज्‍़यादा जोर डाले हमारी चेतना का अंग बन जाता है। यह सब कुछ रह रहकर हमें आंदोलित करता है। उस जाने हुए को हम जिस तिस के सामने प्रशंसा करते हैं। शायद यह हमारी रचनाशीलता का सुख है, जिसे हम दूसरों के साथ बांटना (शेयर) करना चाहते हैं। फिर वैसे लेखन को हम और खोजते पढ़ते रहते हैं। उसमें निरंतर संवर्द्धन की कामना के साथ प्रयत्‍नशील हो उठते हैं। जिनके साथ ऐसा होता है, क्‍यों होता है ? शायद यह एक मनोवैज्ञानिक विषय है। मुझे अपनी तीन चार साल की उम्र भी याद है। ज्‍यों ज्‍यों बड़ा होता जा रहा हूं, बचपन शीशे की मानिन्‍द स्‍पष्‍ट दिखने लगा है। उन विषयों पर बहुत सी बच्‍चों तथा बड़ों की कहानियां लिखी गईं। बच्‍चों तथा बाद में बड़ों की पत्र पत्रिकाओं का ग्राहक बना। खूब खूब हर विषय की पुस्‍तकें पढ़ीं। साहित्‍य में रूसी फ्रेंच चीनी तथा अन्‍य यूरोपीय अफ्रीकी जर्मनी यूनानी लेखक ही ज्‍यादा पसंद करता। उनको बहुत बहुत बार बारीकी से पढ़ता। उन पर मनन करता, जो आज तक कायम है। अपने निष्‍कर्ष निकालना उन पर डायरी में टिप्‍पणियां लिखना, अपने निर्णयों को ठीक मानना, तर्कों के साथ। यह भी मेरी प्रवृति में है। यदि कुछ गलत लगने लगे तो गलती मानने में कोई संकोच नहीं। सच कहूं तो, मेरी सोच ही मेरी जिंदगी है।

कॉलेज लाइब्रेरी से उन उन लेखकों को खोज निकाला, जिनके विषय में किसी ने बताया नहीं था। न दूसरे लड़कों की इसमें कोई रूचि थी। बेरोज़गारी के आलम में दिल्‍ली की सड़कों पर मारा मारा फिरता तो खाना खाने की बजाए किताबें खरीदता। लेखक मेरे लिए आकाशीय देव दूत थे। न किसी को व्‍यक्‍तिगत रूप से जानता। न किसी से जाकर मिला। अब जब जब ज्‍यादातर लेखकों, संपादकों के अवांछनीय क्रियाकलापों को देखता-सुनता हूं तो दंग रह जाता हूं। क्‍या यह आदमी न होकर, मात्र लेखक, संपादक है, जो दंभ के मारे दोहरे तिहरे हुए रहते हैं। एक बार की बात है। पुस्‍तक मेला गया था। श्रीमती जी भी साथ थीं। श्री अशोक चक्रधर को कुछ लोग घेरे खड़े थे। वे टी․वी․ पर बहुत हंसाया करते थे। मैंने भी उनसे दो तीन बार बात करना चाही, किन्‍तु वह न जाने कैसा मुंह बनाकर पासा पलट रहे थे। श्रीमती जी ने इस चीज को भांपा। मुझे अपनी ओर खींचा-किस․․․․․․․․․․․(आगे का शब्‍द रहने दें) बात करते हो। अशोक चक्रधर जी वाला प्रसंग आत्‍मकथ्‍य में नहीं है। और यहां पूरा आत्‍मकथ्‍य न देकर, अंतिम पैराग्राफ देकर छुट्‌टी करता हूं ः-

अपनी शक्‍ल को हम खुद नहीं देख पाते। उसके लिए आइने की ज़रूरत होती है। पाठक ही मेरा आइना हो सकते हैं। चूंकि लंबे अर्से से लिख रहा हूं, छप रहा हूं। दूरदराज से प्रशंसा पत्र आते ही रहते हैं। मुझसे कहानियां मांगी भी जाती हैं तो इस तरह से मैं एक लेखक कहलाता हूं, परन्‍तु जब जब जिस गहराई से, जिस अंदाज से, फुर्ती से लिखना चाहता हूं और उसे उस पूरी तरह से नहीं लिख पाता- वैसा न लिख पाना ही मुझे 'लेखक‘ होने से वंचित करता है। इसलिए मेरा लेखन मेरे लेखक होने का प्रयास भर है। बस मैं अपने को लेखकों जैसी प्रवृत्त्‍ाि वाला मनुष्‍य पाता हूं। अपने को लेखक नहीं मानता हूं। जहां एंटन चेखव हों, टालस्‍टाय हों स्‍टीफन िज्‍़वग तुर्गनेव जैसे हों वहां मेरी क्‍या औकात।

हाय फिर भी एक तमन्‍ना। मेरी रचनाओं में संगीत का सा असर हो। शब्‍द, कागज की घड़कन बन उठे। पाठक मन स्‍पंदित हो। उन रचनाओं में नई सोच, अपने सुख-दुःख संघर्षों उमंगों की तस्‍वीर दिखे। फिलहाल इतना ही। निश्‍चित रूप से सभी लेखक ऐसे नहीं होते, पर अधिकतर जो दरअसल कुछ भी नहीं हैं-एक दूसरे से बढ़ चढ़कर अपने को लेखक दर्शाते रहने में मािहर हैं। इसका उन्‍होंने अस्‍थाई/स्‍थाई रूप से कुछ लाभ भी उठाया। लोकल लैवल वालों की तो हर शहर में भरमार है।

मैं यहां अपनी कोई शान नहीं मार रहा, बल्‍कि अपनी कुछ कमियों की ओर इंगित कर रहा हूं। मैं भाषण देना नहीं जानता। मैं किसी संस्‍था से नहीं जुड़ा। किसी वाद को नहीं अपनाया। संकोचवश तथा आत्‍मविश्‍वास की कमी के कारण, साथ ही धन की कमी के कारण कहीं बाहर जाकर किसी के बुलाने पर भी, नहीं गया। हमारे बहुत से साथी दो पेजी संपादक, डेढ़ अंकी संपादक, बनना भी नाम चमकाने के लिए आवश्‍यक समझते हैं।

मैं यह सब करता ? (जो मुझ में वितृष्‍णा सी पैदा करे) या अपने घर परिवार को संभालता। मिसेस के सर्विस में होते ही, मेरे घर के दायित्‍व बढ़ गए। मैंने बस लिखने से पढ़ने से मतलब रखा। अकादमियों के क्रियाकलापों, उनकी कार्यकारिणी, उनके सदस्‍यों की संख्‍या, उनके अधिकारों के पचड़े में कैसे और क्‍यों पड़ता। सिर्फ लिखने में अपनी गति पाता किंचित संतुष्‍ट होता। रचना लौटती तो फिर से उस पर ज्‍यादा मेहनत करता। यह बात बहुत बाद में समझ में आई कि किन्‍हीं संपादकों ने किन्‍हीं लेखकों को महत्‍वहीन साबित करने की कसम सी खाई होती है।

ऐसे संपादकों/लेखकों को तो अब मन, लेखक/संपादक मानने को ही नहीं करता जो साहित्‍य के नाम पर सिर्फ अपने को चमका रहे होते हैं। कुछ अपनी मित्र मंडली को ओब्‍लाइज कर, उनकी निगाह में विशिष्‍ट तो कहलाते हैं किन्‍तु देखा जाए तो शिष्‍ट नहीं होते वे। ऐसों से क्‍या मिलिए।

हां यह मैंने शुरू ही में अपनी ताई समझ लिया था कि साहित्‍य की मंजिल वह मंजिल नहीं है कि दो कदम चलूं तो मंजिल मिल जाए। न ही कोई बड़ा लेखक बनने की कोई उत्‍कट इच्‍छा थी। न ही कोई गाइडेंस। हां मैं एक अच्‍छा सा पाठक बचपन से ही था। बरेली में मैंने एक लंबी लिस्‍ट बनाई थी कि मुझे इन इन लेखकों को पढ़ना है। इन इन कृतियों को पढ़ना है। उस लिस्‍ट में यादवेन्‍द्र शर्मा 'चन्‍द्र‘ का भी नाम था।

मैंने उन्‍हीं गांधी शांति प्रतिष्‍ठान के योगेन्‍द्र कुमार रावल जी से पूछा था कि चन्‍द्र साहब भी शायद राजस्‍थान से ताल्‍लुक रखते हैं। रावल साहब ने हंस कर जवाब दिया भई वे तो यहीं बीकानेर ही में रहते हैं। अभी अभी यहीं लाइब्रेरी से उठ कर गए हैं। दो एक दिन बाद उन्‍होंने चन्‍द जी से मिलवाया। मैंने थोड़े संकोच से अपनी उस लिस्‍ट के विषय में उन्‍हें बताया कि पहले तो मैं समझा था कि आप न जाने किस प्रदेश में रहते हैं। फिर पता चला कि आप राजस्‍थान में रहते हैं। अब पता चला कि आप तो बीकानेर ही में रहते हैं। एक निःश्‍छल हंसी। अब पता चलेगा कि यह आदमी तो हर रोज़ हर कहीं यूं ही डोलता फिरता है। उन्‍होंने मेरा पूरा परिचय लिया और घर आने लगे। मैं उनके घर जाने लगा। हां यह हुए ना लेखक।

फिर रावल साहब ने मुझे अजय नाम के युवक से मिलवाया। वह एक स्‍कूल-टीचर था। उसने बड़ी प्रगाढ़ता से बात की। बात क्‍या की फौरन मेरे साथ मेरे घर चल पड़ा- दिखाओ आपने क्‍या क्‍या लिख रखा है। मैंने उसे दो एक कहािनयां सुनाई। बोला आप तो मुझ से बहुत अच्‍छा लिख लेते हैं। अगर आप चाहें तो इन्‍हें जाहन्‍वी पत्रिका में भेज दें। मेरी भी कुछ कहानियां वहां छपी हैं। पैसे तो बहुत कम देते हैं, पर देते हैं।

मेरी जाहन्‍वी में छह सात कहानियां छपी थीं लेकिन पहली दो तीन को छोड़कर उन्‍होंने (भारत भूषण चढ्‌ढा) ने कोई पारिश्रमिक नहीं दिया था।

मैं फौरन 'नई कहानियां‘ 'कहानीकार‘ में छा गया। माध्‍यम में भी कहानी स्‍वीकृत हुई। बच्‍चों की कहानियां भी बालक चंपक वगैरह में आने लगीं। और साथ ही कुछ लोग मिलने घर पर आने लगे। पढ़ने का जमाना था। नोटिस लेने का जमाना था। हमारे पड़ोसी एक सरदार जी आकाशवाणी के इंजीनियर थे उनका आफि़स बहुत दूर पड़ता था। स्‍कूटर का जमाना अभी नहीं आया था। साइकिल ही से आया जाया करते थे। वे कहते हमारे दफ्‍़तर वाले भी मुझसे पूछते हैं कि क्‍या सहगल साहब आपके पास रहते हैं। आप भी तो अग्रवाल क्‍वार्टर्ज में रहते हो। आपसे मिलना चाहते हैं। रेलवे मेें काम करने वाले भी कुछ लोग लिखते थे जब्‍बार साहब। मोहनलाल जी। वे भी मेरे ठिकाने अग्रवाल क्‍वार्टर्ज आने लगे।

मैंने 'अजय‘ (बाद में उसका पूरा नाम पता चला अब्‍दुल गफूर 'अजय‘) से पूछा- और यहां पर कौन से लेखक हैं।

उसने बहुत सारे लोगों के नाम बताए। पर यह भी कहा कि यह सारे निहायत दंभी हैं। दूसरों को अपने सामने कुछ नहीं समझते।

मैं पत्र पत्रिकाएं तो खूब पढ़ा करता था और जैसा कि बताया लेखकों की सूची भी बना रखी थी। चन्‍द्र जी तो बहुत विनम्र दिखे थे। बाकियों के नाम कहीं दिखे ही नहीं थे। हां एक अशोक आत्रेय नाम भी उन दिनों प्रगतिशील पत्रिकाओं में खूब आ रहा था। जो जो बाकी के नाम 'अजय‘ ने बताए, वे लाइब्रेरी में पड़े कुछ लोकल पेपर्ज में जरूर दिखे। हां रामदेव आचार्य और बिशन सिन्‍हा भी कुछ बड़ी पत्रिकाओं में नजर आ जाते थे।

एक दिन अशोक आत्रेय हम दोनों के सामने पड़ गया। वह अजय को तो पहचानता था- ऊंचे स्‍वर में पूछा-कहिए आजकल क्‍या लिख रहे हैं जनाब।

अजय धीमे स्‍वर में कुछ बताता रहा। फिर मेरा परिचय दिया।

अशाेक ने गर्मजोशी से मुझसे हाथ मिलाया। और तत्‍काल मेरे साथ, अजय ही की भांति, अग्रवाल क्‍वारटर्‌ज वाले घर चल पड़ा। अजय वहीं रह गया। अजय ने मुझे अशोक के बारे में बताया था कि बहुत शानियर है। सिर्फ नई भाषा नए शिल्‍प की दुहाई देकर कथ्‍यविहिन कहानियों के दम पर अपने को बहुत बड़ा लेखक समझता है।

- मगर फिर हाथों हाथ छपता क्‍यों हैं ? मैंने अपने से पूछा। कुछ बात तो जरूर होगी, इस शख्‍स में। फिर एकदम से ऐसे मिल रहा है जैसा पुराना दोस्‍त हो। इससे जरूर लेखन के संबंध में पता चलेगा।

अशोक घर पर पहुंचते ही, मुझसे मेरी कहानियां सुनने को लालायित दिखा। कहने लगा- आपकी शैली में कुछ खास है। वाह एक ही वाक्‍य में तीन तीन विचार। इसे तो मानना पड़ेगा। पर प्रस्‍तुतीकरण आज की कहानी से जरा दूर पड़ता है। फिर कहने लगा- अजय वजे के चक्‍कर में मत पड़ना। ये लोग पुरानी परिपाटी को घसीट रहे हैं। कहानियों के शीर्षकों को ही देख लो ''बहन की भाभी‘‘ ''भाभी की बहन‘‘ ईमानदार दुकानदार। फिर हंसने लगा। दूसरी बात उसने अजय वाली सी बताई थी कि यह लोग कोई साहित्‍यकार नहीं है। साहित्‍य की राजनीति करते हैं। दरअसल ये साहित्‍यिक गुंडे हैं। बाद में मैंने स्‍वयं देखा था कि अशोक ऐसे लोगों के मुंह पर उन्‍हें खरी खरी सुना आया करता था कि तुम काहे के लेखक हो। तुम जिस पत्रिका अखबार में दो कोड़ी के लिए लगे हो अगर तुम में स्‍वाभिमान जैसी कोई चीज है तो रिजाइन कर आए होते।

अशोक जैसे मेरा लंगोटिया यार हो गया। हां थोड़ी शान मारने से बाज नहीं आता। मैं कहता इतनी शान मारना तो इसका अधिकार होना चाहिए। जब कल्‍पना माध्‍यम नई कहानियां जैसी पत्रिकाओं में गल्‍प भारती कलकत्त्‍ाा, रमेश बख्‍शी की आवेश जैसी पत्रिकाओं में धड़ाधड़ छप रहा है तो इस नाैजवान में थोड़ी अकड़ तो आएगी ही ना। इस अकड़ को बर्दाश्‍त करो। और इससे कुछ सीखो। वह उम्र में मुझ से कुछ कम था। वह मुझे तथा मेरी पत्‍नी को बड़ा होने के नाते भी बहुत सम्‍मान देता। मैं कभी गाड़ी में जाता तो मेरा सामान भी उठाने में जैसे गर्व करता।

फिर अशोक के साथ कुछ और युवक भी मेरे यहां आने लगे। जैसे शाशिकांत गोस्‍वामी, पूर्णेन्‍दु गोस्‍वामी। गोस्‍वामी की तो भरमार थी। गोस्‍वामी चौक में ही रहते थे। इनके अतिरिक्‍त सूरज करेशा, प्रमोद आदि। यह अशोक आत्रेय का प्रभामंडल था। वह कुछ चेले चाले भी बनाए रखने में विश्‍वासा रखता था। उसके प्रशंसक भी शहर में काफी थे। खास तौर से उसके बड़े भाई साहब प्रकाश परिमल। वे विद्वान कलावादी, नई से नई कथावस्‍तु के पक्षधर थे। ये सात भाई थे। असल में गोस्‍वामी थे। पर तखुल्‍लुस अलग अलग। कोई 'प्रखर‘ भी थे। कुछ भाई जयपुर आदि भी जा बसे थे। सभी गोस्‍वामी किसी न किसी कला के साधक थे। शाम के समय गोस्‍वामी चौक में ख़ासी गहमागहमी रहती थी। बीच में एक मंदिर है। कोई मन्‍दिर जाकर गा रहा है। कोई पाटे (तख्‍त पोश) पर बैठा सितार हारमोनियम बजा रहा है।

धीरे धीरे मेरे परिचय का दायरा बढ़ता चला गया। किंतु मैं ठहरा एक संकोची जीव। अपने को छोटा नगण्‍य और दूसरों को बड़ा साथ ही विद्वान मानने वाला। खूब गोष्‍ठियां होतीं कभी कहां तो कभी वहां। वहां पर, अगर, मेरी ड्‌यूटी आड़े नहीं आती, तो कुछ सीखने के उद्‌देश्‍य अवश्‍य पहुंचता। परन्‍तु अशोक आत्रेय वाला आत्‍मविश्‍वास कहां से लाऊं ? सो दुबक कर पीछे कहीं सबकी नज़रों से खोया सा रहता।

एक बार संस्‍कृत के प्रकांड ज्ञाता विद्वान, साथ ही अति विनम्र पंडित विद्याधर शास्‍त्री जी की नजर मुझ पर पड़ी (यह वही शास्‍त्री जी थे जिन्‍हें दो बार संस्‍कृत के क्षेत्र में राष्‍ट्रपति पुरस्‍कार मिला था­) मुझे अपने पास बुलाया। और मेरा परिचय पूछा। मैंने कहा- जी रेलवे में नौकरी करता हूं। कोई जानकार बोल उठा- यह बहुत अच्‍छी कहानियां लिखते हैं। छपते भी हैं। उन्‍होंने कहा पंजाबी लगते हो। मैंने हामी भरी। उन्‍होंने मेरी पीठ थपथपाई- अरे पंजाबी के तो बहुत बड़े बड़े लेखक हुए हैं। मैं खुश हुआ। पर ऐसे तो किसी के सामने अकड़ने शान दिखाने का हौसला नहीं आ सकता जो आज तक मुझ में नहीं आ पाया। इसें मैं एक अच्‍छी बात मानता हूं। विनम्र होकर (बुद्ध बन नहीं) हमें बहुत कुछ सीखने को मिलता है।

दरअसल बीकानेर नगर वाराणसी ही की भांति एक सांस्‍कृतिक नगरी कहलाता है। है भी। साहित्‍य को छोड़ भी दें तो अनगिनित सोसाइटियां, दल; यूनियने, हर एक का अपना अपना समाज। जो अपनो अपनो की प्रतिभाओं का प्रशंसक पूजक है। फिर भी आपस में कोई द्वेष दुराव नहीं। कम से कम ऊपर से तो नहीं। मुसलम समाज की भी बढ़ चढ़कर कदर। दो कौमें पर एक जां। उनकी भी अपनी श्रेणियां हो सकती हैं। पर दूसरी जगहों की तरह जानी दुश्‍मन नहीं। रेलवे की यूनियन। राज्‍य प्रशासन की यूनियन। बैंकों, कोअॉपरेटिव बैंकों की अपनी अपनी यूनियने। पतंगबाजों, कबूतरबाजों, जादुगरों, ज्‍योतिषियों, होमोपैथी वालों के भी झंडे ''मेरी छतरी के नीचे आ जा। यूनियन का सुख पा जा।‘‘ हम तुम्‍हारे साथ। तू हमारे साथ। काहे की फिक्र। गलत सही को कौन पूछता है। छत्री एक होनी चाहिए। मगर यह सब भी बड़ा दिल उदार मन। अरे एक दिन में पांच पांच तक साहित्‍यिक गोष्‍ठियां। विमोचन। लोकार्पण। पुस्‍तक चर्चा। एकल काव्‍य पाठ। सामूहिक काव्‍य, मुशायरे बड़े मैदानों में भी। व्‍याख्‍यान-मालाएं। बाहर के विद्वानों का भी आगमन। अज्ञेय भी दो चार बार। बालकृष्‍ण भट्‌ट। सखा बारोड़, ख्‍वाजा अहमद अब्‍बास। राजेन्‍द्र यादव। प्रभाकर श्रोत्रिय। भारत भारद्वाज। रामदरश मिश्र, यशपाल जैन। फिर आज तक प्रतिभाओं की खोज। 'बीकानेर गौरव‘। मंचों पर काबिज सदाबहार विभूतियों पर बंदा उपेक्षित। मैं सोचता-ठीक है। मैं हूं ही किस योग्‍य। मुझे तो बस लिखना है। अपने काम से काम रख। ड्‌यूटी संभाल। घर गृहस्‍थी संभाल। बरसों बाद किसी तरस खाने वाले ने कहा था-सहगल साहब! आपका दोष यह है कि आप जाति विशेष में पैदा नहीं हुए फिर आप बाहर से आए हो। 'बाहर का आदमी‘। अरे भाई 1956 न भी मानों तो 1965 से स्‍थाई रूप से बीकानेर ही में हूं। यहीं मेरे रिश्‍तेदार हैं। यहीं चारों बच्‍चों की शादियां की हैं। अरे यहां आकर तो मानो मुझे अपना बचपन मिल गया। करोड़, लयैया, कोटलाजाम और खास तौर से कुंदिया। जहां की आंधियां, जहां की गर्मियां-सर्दिर्यां। और खास तौर से वहां की भाषा की टोन शब्‍दावली, सब बीकानेर के बिलकुल समान है। हां मैं ढंग से राजस्‍थानी बोल नहीं पाता। समझ पढ़ लेता हूं। मैं बहुत बोलियों के पक्ष में तो हूं। बहुत बोलियों-भाषाओं के पक्ष में कम हूं। पंजाबी में कइयों के कहने पर नहीं लिखा। मेरी सोच की भाषा तो हिन्‍दी ही है। मैं तरस खाने वालों से कहता- कोई बात नहीं, कभी कभार ही सही मुझे थोड़ा पूछ ही लेते हैं। कुछ साथी तो ऐसे हैं ही जो कहते हैं, कि आपने अपने लेखन से बीकानेर का नाम ऊंचा किया। बीकानेर की साहित्‍यिक पहचान अगर चन्‍द्र जी, भादाणी जी से है तो आपका नाम भी उनमें शामिल है। मेरे प्रशंसकों में सबसे बढ़ चढ़कर कोई था तो चन्‍द जी (यादवेन्‍द्र शर्मा चंद्र) थे। फिर जाने माने ढंग के कवि आलोचक प्रो․ रामदेव आचार्य, प्रो․ बिशन सिन्‍हा, श्री सांवर दैया, अजीज आजाद थे, जो आज मेरे साथ नहीं हैं। दुनियां से ही चले गए। हां कद्रदानों में बढ़ चढ़कर राजेन्‍द्र जोशी, बुलाकी शर्मा और कुछ और हैं। अशोक जयुपर रहने लगा है।

बहुत से लोग हैरान भी होते हैं कि इतनी इतनी सख्‍त ड्‌योटियों, विपरीत स्‍थितियों के बीच लिख कैसे लिया। मैं सोचता हूं इतना कहां लिखा जितना अश्‍क जी ने लिखा। प्रेमचंद्र, यशपाल आदि ने लिखा। मैं ज्‍़यादा कैसे लिख सकता था जो एक एक शब्‍द पर मरता है। उस शब्‍द के बदले कोई उससे भी बेहतर शब्‍द खोजने में छह छह घंटे लगा देता है। और ड्‌यूटी का टाइम। इस रोचक साहित्‍यिक प्रसंग को आगे बढ़ाऊंगा। मगर ड्‌यूटी का टाइम हो रहा है। अब तो तू एक रिटायर्ड परसन है। लेकिन सच मानिए रिटायरमेंट के 17-18 सालों के बाद भी अक्‍सर, ड्‌यूटी के सपने आते हैं। अरे उठ ड्‌यूटी का टाइम हो गया। कहीं लेट न हो जाओ। हमारी ड्‌यूटी ही ऐसी थी कि एक मिनट भी लेट नहीं हो सकते थ्‍ो। जितनी देर के लिए हो भी जाते तो पहला आपरेटर हमारे नाम से एक एक मिनट की डायरी मेसेज रफ तैयार करता रहता। जाने पर उसे अपने हैंडराइटिंग से फेयर करना पड़ता। यह भी दूसरी मार होती। हमारे पहुंचते ही पहला आदमी तो जैसे जेल से रिहा होकर भाग छूटता। अब उसका टेढ़ा मेढ़ा कैसा भी हैंडराइटिंग, माथा मार कर अपने हैंडराइटिंग में लिखो। इस खपत से बचने के लिए भगवान लेट न ही कराए।

आफिस अनुशासन ऐसा कि हर वक्‍त चौकने। डरते सहमते रहो। कोई किसी भी प्रकार की गलती न हो जाए। बिजली चमक रही है। बादल गरज रहे हैं। अांधियां शांय शांय कर रही हैं। इसे बोलते हैं, एटमासफियरिक डिस्‍टरबेंस। इस बीच हैड फोन लगाए, सिर्फ अपने सिगन्‌ज को पकड़ना। दूसरे बहुत से सिगन्‌ज को अवायड करना। ज़रा आउट अॉफ फ्रिक्‍वेंसी चले गए तो चार्जशीट। काम में देरी हो गई तो कंट्रोल आफिस की फोन की घंटियां- और कितना समय लगेगा। भई हमें भी तो पूरे डिवीजन की पोजीशन रिपोर्ट तैयार कर दिल्‍ली हैड क्‍वार्टर भेजनी है। यह फाइनल रिपोर्ट हमारी वायरलैस वाली रिपोर्ट के आधार पर होती। हमारे ऊपर तीन तीन चार मानिटिरिंग स्‍टेशन, जो हमें वाच कर रहे होते कि कहीं आउट अॉफ फ्रिक्‍वेंसी जाकर किसी दुश्‍मन देश से बात तो नहीं कर रहे। मेरे जैसे तो मानों कांप कांप कर ही काम करते। इसी कारण ड्‌यूटी के सपने आते हैं। हां एक दो निहायत लापरवाह दिलदार होशियार अॉपरेटर भी थे जो चपड़ासी को थोड़ा बहुत समझा कर ड्‌यूटी में से निकल जाते। कहते हम दूध को देखें या ड्‌यूटी को। वाह भई, अपना अपना जिगरा है। हम में से ज्‍यादातर अगर बहुत जरूरी काम हो तो अपने किसी घनिष्‍ठ कोवर्कर को घर से बुलवा लेते तब कुर्सी छोड़ते।

दीवाली मनाने, होली आदि पर एक आध घंटे के लिए जाने पर अपने साथी बाहुदीनखां को बुला भेजते। हे भगवान हर डिपार्टमेंट में एक न एक मुसलमान तो होना ही चाहिए। जहां, त्‍योहारों के कभी, इतवार में पड़ने से दूसरी ब्रांच वालों का दिल टूटता (हाय एक छुट्‌टी मारी गई) वहीं हमारा मन खिल उठता। क्‍योंकि सिर्फ (एमर्जेन्‍सी के दिनों को छोड़कर) इतवार को हमारा आफिस सुबह 10 बजे से रात 12 बजे के बीच बंद रहता।

सब दिन तो एमरजेंसी वाले दिन नहीं होते। मेरे लिए बस यही मज़ा था ः छह घंटे की ड्‌यूटी। बाकी के 18 घंटे अपने। शाम छह से बाहर की शिफ्‍ट होती तो और मज़े। काम इतना कि मानो अभी बैठे और अभी ड्‌यूटी खत्‍म। बहुत बार घर से आया हुआ टिफन भी बिना खोले वापस। रात बारह बजे। वाह। अग्रवाल क्‍वार्टर्ज (बाद में रेलवे क्‍वार्टर्ज) मुंह धोया। एक कप चाय बनाई। दूसरी शिफ्‍ट लिखने की जारी, जो अममून सुबह साढ़े चार तक चलती। ऐसा नहीं कि साथ साेने की चाहत न थी। मगर पहले लिखना ज़रूरी काम। सोचता कौन से तीर मार रहा है। तुझे साहित्‍य जगत में पूछता ही कौन है। पूछते तो उन्‍हें हैं जो बड़े दिग्‍गजों की हाजि़री बजा लाते हैं। इसे मैं एक निहायत घटिया चीज आज तक मानता आ रहा हूं। अपने स्‍वाभिमान को बेच कर नाम कमाया तो तुझ पर लानत। मैंने कमलेश्‍वर जी को लिखा भी था कि अगर आप सोचते हैं कि मैं किसी दिन अपनी कोई अच्‍छी कहानी लेकर आपके दरबार में हाजिरी दूंगा, तो भूल जाइए। वह दिन कभी नहीं आएगा। कमलेश्‍वर जी का उत्त्‍ार भी आया था कि भई ऐसा है कि वैसा है कि बहुत बार अच्‍छा छूट भी जाता है। मेरे लिए यह भी बहुत था कि चलो कोई उत्त्‍ार तो आया। और आज ज्‍यादातर संपादक तो अपने हाथों से अपने खासमखासों को छोड़कर चिट्‌ठी लिखना अपनी तौहीन ही समझते हैं। हर काल में हर तरह के लेखक संपादक होते हैं लेकिन रेशो को देखें तो मेरे कथन को सही पाएंगे। एक वाकिआ अचानक याद हो आया। प्रो․ बिशन सिन्‍हा ने एक कहानी कमलेश्‍वर जी को भेजी थी। वह लौट आई थी। बाद में जब सिन्‍हा साहब प्रिंसिपल बनकर अलवर चले गए थे तो किसी समारोह में कमलेश्‍वर जी को अपने कालिज बुलाया था। फिर वही की वही कहानी सारिका में छप गई थी।

ओह मेरा वायरलैस स्‍टेशन (दफ्‍तर)। अगर रात की ड्‌यूटी 12 से सुबह छह बजे की होती तो अपने सहकर्मियों से प्रार्थना करता कि भाई मेरी ड्‌यूटी में लेट न हुआ करो। हमारे पास एक ही साइकिल है जो क्‍वार्टर जाकर मिससे को संभलवानी है। ठीक है मैं तो चली। संभालों घर बच्‍चे। माई आती ही होगी। माई मोहतों की चौक से आती जो खासा दूरी का इलाका है। वह अगर नहीं आ रही होती तो मैं किसी की साइकिल से उसे पीछे बिठाकर ले आता। मेरी तबीयत ठीक नहीं। कोई बात नहीं। आकर सिफर् बैठकर बच्‍चों की देखभाल कर लो। बाकी के कामों की देखी जाएगी। सारे घर की चाबी माई के पास। वही बताती कि अब चीनी खत्‍म होने वाली है। चाय, दाल, दो दिनों की बची है।

यह माई बहुत बाद की माई थी। इससे पहले अलग अलग, तरह तरह की मिजाज वाली कई माइयों से पाला पड़ा था। उनके भी नखरे सहे थे। जिन सबके कारनामों का जिक्र करना मुमकिन नहीं। यह माई तो हमारे घर की सदस्‍य थी। मेरी सबसे छोटी लड़की शिल्‍पी तो उसी के हाथों पली थी। उसके साथ बैठकर खाती थी। उसे मां बुलाती थी। बाद तक हम उसे किसी भी कार्यक्रम में बुलाते नवाजते रहे।

हां दफ्‍तर और दफ्‍तर की एमरजेंसियां में वायरलैस मोबाईल कोच लेकर निकलता। स्‍टेशन स्‍टेशन की खाक, सर्दी हो या गर्मी, छाना करता। 1965 का युद्ध पाकिस्‍तानी हमले। साइरन की आवाज। एच․टी․ (हाई टैन्‍शन) स्‍विच इमीडियेटली (फौरन) अॉफ। नहीं तो दुश्‍मन को वायरलैस स्‍टेशन का पता चल जाएगा। बम्‍बारमेंट हो जाएगा। हमारे साथ साथ दूसरी आबादी भी मारी जाएगी। इसलिए बाद में हम ट्रांसमीटिंग स्‍टेशन को लालगढ़ के छोटे सुनसान इलाके में ले गए थे। यही हाल रेडियो स्‍टेशनों का भी है। उनका भी ट्रांसमीटर दूरदराज के इलाकों में देखा जा सकता है। हमारे और रेडियो स्‍टेशन के वर्किंग (कार्यशैली) में ज्‍़यादा अंतर नहीं। हम लोग भी उसी तरह आधे आधे घंटे में अपनी आइडेंटिटी (पहचान) प्रसारित करते रहते हैं। अंतर केवल एरियल को लेकर रहा है। उनके श्रोता चारों ओर हैं। इसलिए उनका एनटीना सीधा ऊपर जाता है। हमारे एरियल्‌ज़ डायरेकशनल एरियल होते हैं जो हमारे मतलब के स्‍टेशनों की ओर तने रहते हैं। हां उनके ज्‍यादातर स्‍टेशन रात के प्रसारण रोके रखते हैं। हमारा वर्किंग राउंड द क्‍लाक (चौबीसों घंटे) रहता है।

फिलहाल बाद के जमाने की बात जाने दें। हमारे स्‍टाफ में बारह जने थे। अब वहां पर मात्र एक है, जो दूसरा काम कर रहा है। पहले श्रीगंगानगर वायरलैस स्‍टेशन, फिर हनुमानगढ़, फिर रिवाड़ी अंत में बीकानेर भी बंद। जमाना इंटरनैट, फैक्‍स होते होते मोबाइल, ई-मेल आदि तक जा पहुंचा। न जाने क्‍या क्‍या। मेरे समय में ही टीलिमैक्‍स ईजाद हुआ था। मैंने ही इसे इन्‍स्‍टाल (लगवाया) करवाया था। प्रमोशन के लिए बड़ोदा हाउस दिल्‍ली में एक इंटरव्‍यू में मुझे बुलाया गया था। तीन अफ़सर थे। किसी ने पूछा- पहला (वायरलैस वाला) सिस्‍टम अच्‍छा था या यह टेलीप्रिंटर वाला। मैंने फौरन उत्त्‍ार दिया। पहले वाला। पहले वाला हमारी एफेशेंसी, हमारी पहचान, हमारी सृजनात्‍मकता का परिचय देता था। हमारे हैडराइटिंग से हमारी प्रतिभा पहचानी जाती थी। अब किसी का कोई राइटिंग ही नहीं। सब एक समान टाइप किया हुआ मैटर।

एक बोले - प्राम्‍पटनैस भी तो इसी से होती है।

- मगर सर इतनी प्राम्‍पटनैस की (हड़बड़ी) की हमें जरूरत हो तब ना। फिर सोचिए। इससे कागज का कितना वेस्‍टेज होता है। नौ पोस्‍टें कम हो रही हैं। स्‍टाफ की छटनी भी होगी।

- हम तो चाहते हैं। आप हमें लिखकर मांग करें ताकि हम दूसरे स्‍टेशनों पर भी यह कम्‍प्‍यूटर टेिलमैक्‍स लगवा दें। (वे दरअसल ज्‍़यादा से ज्‍यादा मशीनों के आर्डर मंगवाकर, पैसा बना रहे थे)

मैं बोला-जिस देश में, अगर बच्‍चा किताब कापी फाड़ लाए तो मां बाप उसे कैसे पीटते हैं। यहां पर कागज का दुरूपयोग रोका जाना चाहिए।

- अरे आपको कागज़ की पड़ी है। आप बार बार कागज का नाम ले रहे हैं।

- हां मुझे स्‍वयं के लिए भी कागज खरीदना पड़ता है। मैं लेखक भी हूं।

- तो आपको बहुत पैसा मिलता होगा।

- अगर लेखन से पैसा मिलता तो मैं कब से इस नौकरी को लात मार गया होता। प्रकाशक हमें देते ही क्‍या है।

- तो आप अपनी किताबें खुद ही क्‍यों नहीं छपवा लेते ?

- सर मॉफ करें। यह वाला क्‍वैशन भी आपने गलत कर दिया। अगर मैं खुद अपनी किताबें छपवाने लगूं तो मैं इन्‍हें बेचने के चक्‍कर में, केवल प्रकाशक वितरक बन के रह जाऊंगा। लेखक नहीं रहूंगा।

असली टैक्‍निकल सवालात तो धरे रह गए। उन्‍होंने खुश खुश मुझे विदा किया। रिटन में तो मैं पास हो ही चुका था। तभी तो इन्‍टरव्‍यू के लिए बुलाया गया था। चलो काम बन गया।

मगर इन सारे नाटकों की जरूरत ही क्‍यों पड़ी। यह प्रश्‍न मुझे आज तक सालता है। उन्‍होंने (प्रशासन) रिजल्‌ट नहीं निकाला। एक एक को वरिष्‍ठता के आधार पर प्रमोट करते गए। जब मेरा नंबर आया तो लंबी चुप्‍पी। मैंने लंबा कम्‍प्‍यूटराइज्‍ड लैटर अलग अलग अफसरों को दिल्‍ली रजिस्‍ट्री से भेज दिया।

इस पर वेे और चिढ़ गए और गुस्‍से से फोन किया कि सहगल ने रेलवे डाक और पेपर का मिसयूज किया है। उसे कहो कि मेरे से फोन पर बात करे।

11 दिसंबर 1992 का, हमारी शादी की सालगिरह का दिन। हम दोनों पिकनिक मना कर घर लौटे थे। ग्‍यारह दिसंबर हम खूब जोशो खरोश से मनाते हैं। सुबह सवेरे थरमस में चाय। काजू पिस्‍ता बादाम गजक मोंगफली छोटी सी दरी लेकर पहले शिवबाड़ी मंदिर में जाते हैं। फिर ऊंचे टीले पर बैठकर कमला को समर्पित कोई, नई कहानी जरूर सुनाता हूं। टेप रिकार्डर बजाकर प्रेम गीत सुनते हें। साल में एक दफः मंदिर और साल में एक ही व्रत, करवा चौथ का, मैं भी रखता हूं।

अब हमें किसी होटल में जाकर दोपहर का भोजन करने के लिए वापस निकलना था। चपरासी के आने से रंग में भंग।

फिर भी मैं आधे घंटे के लिए दफ्‍तर गया। बार बार प्रयास करने पर भी अफसर से संपर्क नहीं हो पाया। मरो। हमें अपना 11 दिसंबर मनाने दो। इससे ऊपर तो मेरे जीवन में कोई बड़ा त्‍यौहार है नहीं। मैंने दो तीन लैटर हैडक्‍वार्टर भेजे थे। उनका कोई जवाब नहीं आया। बल्‍कि दिल्‍ली से परमानंद नाम का मेरा जानकार मित्र बीकानेर आया था। इसने मेरे साथ गाजियाबाद में टेलिपिं्रटर का ट्रेनिंग कोर्स किया था। उसने बताया- वह (अफसर) तुम से बुरी तरह चिढ़ा बैठा है। कहता है कि कहो तो सहगल को सस्‍पैंड कर दूं। मैंने हाथ जोड़कर उसे मनाया साहब यह जुल्‍म मत करना। वह बेचारा निहायत शरीफ आदमी है। बस अगले साल फरवरी 1993 में उसका रिटायरमेंट है। मैैंने उसे किसी तरह शांत किया है। तुम भी शांत हो जाओ। इन सालों का कोई भरोसा नहीं। मेरा सीनियर दोस्‍त बलदेव राज भी यही कहा करता था कि अफसर चाहे मिट्‌टी का ही क्‍यों न बना हो, उससे भी डरना पड़ता है।

मुझे भी कई हवालों से मालूम था कि ये लोग बद्‌दिमाग अपने गरूर में खोए हुए, बिगडै़ल बैल के समान होते हैं। वह, वह आर्डर दे मारते हैं जो काम कभी संभव ही नहीं होते हैं। फिर भी उन्‍हें 'येस सर‘ करना पड़ता है। यानी राजी रखना होता है।

मैंने कहा- कुछ भी हो मैं कोर्ट अॉफ ला जाऊंगा। इसने रेलवे के धन और समय की बरबादी की है। पहले रिटन पेपर्ज के लिए बुलाना। फिर साक्षात्‍कार के लिए बुलाना। लोगों को पढ़ाई के लिए छुट्‌टी लेना। आने जाने में पीछे दफ्‍तर के समय का दुरूपयोग टी․ए․डी․ए․ धन का दुरूपयोग। अगर सीनियराइटी वाइज ही एक एक को पिकअप (लेना) करना था। तो बिना इतना लंबा नाटक खींचे भी, बारी बारी प्रमोट कर सकते थे। और जब मेरा नंबर आया तो रूठे बिगड़ैल बैल की भांति आक्रोशित। जवाब दो। मैं रजिस्‍ट्री की रसीदें भी दिखला दूंगा; और टाइप की दुकान भी, जहां से लैटर टाइप कराए थे।

- तुम्‍हारे सारे तर्क सही। पर न्‍यायालय क्‍या एक दो सप्‍ताह में फैसला दे देगा। फिर दूसरा मुकदमा सस्‍पैन्‍शन के खिलाफ करता फिरेगा। वास्‍तव में इतना तक सुन रखा था कि ऐसे कुछ टुच्‍चे अफसर, अपनी सेवा में रहे कर्मचारी को रिटायरमेंट के एक दिन पहले या ठीक रिटायरमेंट वाले ही दिन सस्‍पैंशन मीमो पकड़वा देते हैं। सारा बकाया, ग्रैच्‍चुयटी का पैसा वगैरह रूक जाता है। मेरे समधी श्री सदानंद जी भी रेलवे ही में थे। बहुत बहुत संतोषी जीव। सादगी और सदाचारी और साथ ही कार्य कुशलता के लिए मशहूर। मुझसे बोले-जरा सोचो क्‍लास फोर्थ वाले भी तो गुजारा करते हैं। आपको पदोन्‍नति पाने से कितने रूपयों की ज्‍यादा पेंशन मिलेगी ?

मैंने कहा- बात पैसों की नहीं घूर्त लोगों के काले कारनामे उजार करने की है। बेइंसाफी के खिलाफ लड़ने की है।

इंसाफ को कोई कहां कहां रोएगा। उम्र भर इंसाफ नहीं मिलता।

- तो ठीक है। रिटायरमेंट के बाद केस लड़ूंगा। तब ये लोग मेरा क्‍या बिगाड़ लेंगे। पहले रेलवे से अपना पूरा पैसा वसूल लूं।

रिटायरमेंट के बाद क्‍या हुआ, जानना चाहेंगे। एक कहानीकार की ही तरह, अच्‍छी अंग्रेजी शैली में मैंने पूरी कहानी लिख डाली। रेलवे में तो अंग्रेजी ही चाहे कैसी भी हो, चलती है। हिन्‍दी लिखने वाला नालायक कहलाता है। अब जब थोड़ी हिन्‍दी भी चलने लगी थी, तो कइंयों के मुंह से सुनने को मिला- अब नालायकों की मौज हो गई।

मैंने अपनी अपील के संग सग, पोल खोलने वाले तमाम डाकुमेंट्‌स की फोटो कापियां भी नत्‍थी कर दीं कि मुझे उसी पिछली तारीख से पदोन्‍नति दी जाए और पे-पैंशन का ठीक फिक्‍सेशन किया जाए। जिसने भी अपील देखी, प्रभावित हुआ-बहुत कन्‍विसिंग है।

रिटायर्ड यूनियन वालों (जिन्‍होंने पैसा वसूल कर, हमें रिटायर्ड एम्‍पलाइड यूनियन‘ मेम्‍बर बनाया था) के चरणों में पहुंचा। थोड़ी अलग-अलग राय। मगर कुल मिलाकर उत्‍साहवर्द्धक। मगर यूनियन वाले चाहे किसी भी यूनियन के हों, उनकी यूिनयन (एकता) तो आपस की ही होती है। उन्‍हें मीटिंगों, जुलूसों, अपने घर के कामों से फुर्सत मिले तब ना। एक दो ने यह भी कहा कि हम व्‍यक्‍तिगत केस नहीं लेते। सामूहिक इंट्रेस्‍ट के मुद्‌दे उठाते हैं।

एक बहुत रूखे किस्‍म के बड़े सख्‍त किस्‍म के अफसर थे। रिटायरमेंट के बाद बड़े नर्म हो गए थे। टाइम पास करने के लिए मददगार आदमी बन गए थे। वे पर्सनल ब्रांच से थे। रूल्‍ज़ रेगुलेशन्‍स में माहिर। तभी तो स्‍टेनो से अफसर बने थे। वे वास्‍तव में मेरी मदद को उतावले। प्रायः हर रोज, आ जाते। बुला लेते। फोन करके, प्रगति जानने के बाद किसी दमदार दोस्‍त नेता के पास ले जाते। नेता तो कहीं के भी हों। अफसरों को घास नहीं डालते। फिर एक रिटायर्ड अफसर।

चलो। दे चक्‍कर पे चक्‍कर। चकरी धूम धूम। कभी मिलते भी। कभी बिल्‍कुल नदारद। सबके यहां फोन भी नहीं थे। ठीक है। मैं ट्रिब्‍यूनल लॉ में जाऊंगा।

कुछ देर घर बैठा करो। हमसे कुछ प्रेम व्रेम की न सही दूसरी बहुत सी बातें हैं, पूछ तो लिया करो। कोर्ट ने क्‍या आपके लिए लड्‌डू बनाकर रख छोड़े हैं ? कमला की हिदायत देने वाली जबान। याद करो आपने क्‍या कहा था। रिटायरमेंट के बाद जमकर लिखूंगा। बिलकुल फ्री होकर। कंडैक्‍स रूल्‍ज का भी डर नहीं होगा।

- वह तो सच है जी! मैं एक मस्‍टरानी के सामने एक स्‍टूडेंट की तरह, बड़ी सभ्‍य भाषा में सफाई देने लगा कि यह एक लड़ाई है। इंसाफ की डगर की लड़ाई जो हर किसी नागरिक को लड़नी चाहिए। मैं लटके हुए मुंह से, कागजों को लटकाए, बाहर से आया था।

मैं बताऊं इंसाफ की लड़ाई। मेरे साथ लड़ोगे ? उसने पलके झपकते ही सारे के सारे कागज मेरे हाथ से झपट लिये। उनकी चिंदिया उड़ा दीं। अब जाओ अपनी स्‍टडी में और कहानी लिखो।

कौन सी कहानी ? मैं समझ न सका था। अब यह कहानी आप सब की खिदमत में हाजिर है। पढ़ लें मुझे भीरू कह कर दुत्‍कार दें। मुस्‍करां। या और कुछ नहीं सूझे तो कमला सहगल जी को यथार्थवादी का तमगा लगा दें। मुझे उज्र न होगा। दुनियां में एक ही सच नहीं। सच के रूप हज़ार। मैं उन रूपों पर नहीं तो इन रूपों पर फि़दा। ओह मेरी कमांडर इन चीफ, मुझ पर रहम रखना। मुझे घर से न निकालना। दूसरे असली घर से तो कतई नहीं। नहीं तो कहीं का नहीं रहूंगा, मेरी जान। जैसे कोई बच्‍चा, स्‍कूल से छूटते ही किधर का किधर उछलता कूदता कुलांचे भरता घर से भाग छूटता है। उसी प्रकार मैं भी थोड़े विषयानुसार कहीं का कहीं जा पहुंचता हूं। मन लुभाने वाले मौसमों में। मन लगाने वाले शांत वीरानों में। फिर लौटकर दफ्‍़तर। लो फिर घर याद आया। बात तो दरअसल लेखन के शुरूआती दौर की चल रही थी जनाब। घर पर बैठा लिखता रहता। घर पर बैठा दोस्‍तों का स्‍वागत करता रहता। बहुत सारे दाेस्‍त बनते चले जा रहे थे। दफ्‍तर वाले भी आते, लेकिन उनकी बातें। दफ्‍तर की बातें। अरे भाई साहब दफ्‍तर की बातें दफ्‍तर में ही काफी हैं। उन्‍हें चौबीसों घंटों सुन सुनकर अपच सी होने लगती है। कोई और बात करो। वे और क्‍या बात करते। उनके पास दफ्‍़तर के अलावा या ज्‍यादा से ज्‍यादा घर की समस्‍याओं गृहस्‍थी के अलावा कोई और विषय हो तब ना ? हां दफ्‍़तर में उनके उस तीसरे विषयों का उल्‍लेख मैं यहां कर नहीं सकता। आप सब समझदार हैं, खुद समझ जाएंगे कि समय को फालतू बनाकर, कैसी कैसी किस तरह की बातें हमारे प्रायः हर दफ्‍तर-ब्रांचों में की जाती हैं। अरे सुना और सुना। हां जरा खुलकर बोल। हां याद आया (चपरासी से) फ्‍लानी ब्रांच से फ्‍लाने बाबू को तो बुला ला। वह मजेदार चुटकुले सुनाने में एक्‍सपर्ट है। मज़ा आ जाएगा। न खुद काम करो। न दूसरे को करने दो। अरे इधर आ। छोड़ काम को, बलण दे।

हां कभी कभार कोई जरूर बोल उठता- मुफ्‍त की तंख्‍वाह मिल रही है बेटा। रेलवे यदि कहीं निकाल दे तो बता तेरी मार्किट वैल्‍यू क्‍या है ? कोई बनिया सवेर आठ बजे से रात दस बजे तक के लिए तुझे सात सौ रूपयों में भी न रखेगा। और यहां से मुफ्‍त के साढे़ तीन हजार रूपए ले रहा है।

मुझे यदि कभी समय मिल पाता, (इन्‍स्‍पैक्‍टर बनने के बाद) ड्‌यूटी आठ घंटे की हो गई थी। थोड़ा समय मिल जाया करता था। हां डी․आर․एम․ आफिस की कोई छुट्‌टी के दिनों में वर्क लोड (कार्य का भार) कम होता तो मैं कोई किताब पढ़ रहा होता। कुछ लोग खाली समय में बोर होने लगते तो मुझसे कहते-सहगल साहब, आप तो हर वक्‍त किताब पढ़ते रहते हैं। कभी हम से भी बात कर लिया करें।

मैं फौरन किताब के पृष्‍ठ पर कोई निशान छोड़ कर, उसे बंद कर देता- हां हां कहिए क्‍या बात करेंगे। सुनाइए। क्‍या हालचाल हैं।

अब वह क्‍या तो कहें। किस टॉपिक (विषय) पर मुझे कुछ सुनाएं। यहां मेरी लिखी एक लाइन (वाक्‍य) को समझने वाला भी कोई न था। इसका मुझे थोड़ा मलाल हमेशा बना रहा। जबकि शिक्षा विभाग के मरेे मित्रों के साथ यह स्‍थिति ज्‍यादातर नहीं थी। मुझे एक जगह जबर्दस्‍त लाइन पढ़ने को मिली थी। यही लिखा था कि लेखक बनने के आकांक्षी को रेलवे की कोई अच्‍छी नौक्‍री करने की बजाए किसी अखबार का चपड़ासी बन जाना चाहिए। सोचा आंशिक रूप से यह बात सही हो सकती है। हां बीकानेर के हमारे साथी भी, 'माहौल‘ के बहुत पक्षधर हैं। पर मेरा मानना है कि 'लेखक‘ तो हमेशा अंदर से ही हुआ करता है। हां गुट पार्टी जान-पहचान, नामचीनों को खिदमत, आपको जल्‍दी चर्चा में ला सकती है। पुरस्‍कार सम्‍मान दिलवा सकती है। तब आप अपने आपमें काहे के लेखक। तिक्‍कड़म से हासिल किया हुआ पुरस्‍कार, शायद ही आपके स्‍वाभीमान की रक्षा कर सके। आपकी आत्‍मा को संतुष्‍ट कर सके। हां कह रहा था, पूरी सर्विस में मुझे मुश्‍किल से दो चार पुस्‍तक/साहित्‍य प्रेमी रेल कर्मचारी मिले होंगे। एक इंस्‍पैक्‍टर मि․ एस․डी․राय बंगाली। उन पर बीती एक घटना को आधार बनाकर 'पहले दर्जे का आदमी‘ कहानी लिखी थी जो 'आजकल‘ में छपी थी। कहने लगे- मैं खुद इतनी शिहदत से ऐसी कहानी नहीं लिख सकता था। मैंने इस तकलीफ को झेला अवश्‍य, लेकिन महीने भर बाद भूल सा गया था। वास्‍तव में तुम बहुत अच्‍छी कहानियां लिखते हो। दूसरे हमारे चीफ इंस्‍पैक्‍टर मि․ ओंकारनाथ सक्‍सेना। वे इलाहाबाद से आए थे। वे और मि․ एस․डी․राय हैट लगाते। हम तीनों अपनी अपनी साइकिल लिये स्‍टेट लाइब्रेरी बीकानेर में जा पहुंचते। हमने वहां की सदस्‍यता ग्रहण कर ली थी। दो दो किताबें ईशू करवाते तीन चार दिनों बाद फिर वहीं रूटीन। ये दोनों इंस्‍पैक्‍टर अब इस दुनिया से किनाराकश हैं। हां एक बंगाली खलासी जयंत अब भी रेलवे मे क्‍लास थ्री में, मेरे रिटायरमेंट के बाद पहुंच गया है। बहुत कम पढ़े लिखे, उस बंगाली युवक की समझ, बंगाली लेखकों के नाम, उनकी कृतियों के बारे में पूरी जानकारी थी।

जब सरमेश बसु की मृत्‍यु हुई तो मैंने जयंत को बताया था कि समरेश बसु का निधन हो गया।

सुनकर उसे वास्‍तव में धक्‍का लगा- हें सरमेश बसु मर गया ?

- हां गलत नहीं बता रहा हूं। हां कालकूट भी मर गया।

- हें उसने फिर और दुःख और आश्‍चर्य से दोहराया- कालकूट भी मर गया।

- हां दोनों एक ही क्षण में मरे।

- यह कैसे हो सकता है ?

तब उसे मैंने समझाया कि समरेश बाबू ही कालकूट के नाम से लिखते थे।

श्री ओंकारनाथ सक्‍सेना, इलाहाबाद के पूरे साहित्‍यिक परिदृश्‍य से परिचित थे। काफी हाउस की बातें करते थे। मुझसे बार बार कहते थे- तू मेरे साथ इलाहाबाद चल। देखना वहां टेबल पर बैठे बैठे तेरी कहानियां स्‍वीकृत हो जाएंगी। दोस्‍ती संपर्क बनेंगे। उधर श्री अमृतराय जी के पत्र भी आते रहते थे। आने, समारोह अटैंड करने के निमंत्रण भी। इन्‍हीं दिनों मन्‍नू भंडारी जी की जीवनी पढ़ी है। जहां वे अमृतराय जी के कन्‍फ्रेंसों के पत्र पाकर अपना महत्त्‍व दर्शाती हैं, वहीं मैं अपनी सीमित समझ के कारण इन्‍हें मामूली सी बात मान कर, नहीं जाता था। अमृत राय धड़ाधड़ मेरी कहानियां 'नई कहानियां‘ में छाप रहे थे। मैंने यह भी सुन रखा था कि अमृतराय कुछ दंभी किस्‍म के व्‍यक्‍ति हैं। मैं उस वक्‍त और न आज तक, किसी के दंभ या उपेक्षा को सहन करने की कुव्‍वत नहीं रखता। गाजि़याबाद जाता तो यात्री जी परोक्ष रूप से मेरा समर्थन करते कि जब वैसे ही तेरी कहानियां छप रही हैं तो क्‍या ज़रूरत है कहीं जाने की। बहुदा यह भी हो जाता है कि आदमी की रचनाएं तो किसी संपादक को अच्‍छी लगती हैं। प्रत्‍यक्ष होने पर आदमी नहीं भाता। इससे नुकसान भी हो सकता है।

शुरू ही से मैं इस प्रकार से नफा नुकसान को लेकर नहीं चला। संकोच की बात थी। धनाभाव, समयाभाव था। उससे बढ़कर मेरा वहीं स्‍वाभिमान। मैं किसी संपादक के पास जाऊं और अपना परिचय दूं आैर वह यह कहे कि हम तो आपको नहीं जानते। अगर मिलना भी है तो बहुत बाद में। पहले पहचान बन जाए ताकि अगला यह कहने लायक न रहे कि हम आपका नाम नहीं जानते। पहले चुपचाप छपो। पहचान अपने आप बन जाएगी। वाकिफ संपादक अगर कहानी लौटाए तो ज्‍यादा तकलीफ होती है। बता अाया हूं जब कमलेश्‍वर लगातार मेरी कहानियां लौटा रहे थे तो मैंने उन्‍हें लिख मारा था कि यदि आप यह सोचते हैं कि मैं अपनी कोई अच्‍छी कहानी लेकर बम्‍बई में आपके पास आऊंगा तो ऐसे दिन को भूल जाइए। वह दिन कभी नहीं आएगा। मेरे रिटायरमेंट के भी काफी बाद कमलेश्‍वर जी बीकानेर पधारे थे। भव्‍य समारोह मेडिकल कॉलेज में हुआ था। अपने भाषण के दौरान उन्‍होंने कहा था कि बीकानेर आने लगा, तो सोचा कि वहां कौन कौन कहानीकार मिलेंगे। एक नाम यादवेन्‍द्र शर्मा चन्‍द और दूसरा नाम हरदर्शन सहगल। अब शायद सहगल साहब रिटायर हो चुके होंगे। सब लोग दंग। सचाई यह भी मैं जानता हूं कि दूसरे अपना नाम कमलेश्‍वर जी से सुनने को तरसते रहे थे।

हॉफ टाइम में हाल से बाहर आने पर उनके सामने उपस्‍थित हुआ। यादवेन्‍द्र जी ने उन्‍हें बताया- यहीं हैं, हरदर्शन सहगल। इससे पूर्व तो कभी हमने एक दूसरे को देखा तक नहीं था। बोले- आजकल कहीं छप नहीं रहे। मैंने उत्त्‍ार दिया निरंतर छप रहा हूं। मणिका मोहिनी जी की वैचारिकी के जिस अंक में आपकी रचना छपी है, उसी में मेरी कहानी भी है।

- ओह बाज़ दफः देखने में चूक हो जाती है।

फिर शाम को भी एक छोटी मीटिंग आयोजित हुई थी। बहुत से लोगों ने उन्‍हें घेर रखा था। वे मुझसे बतिया रहे थे। मैंने उन से कहा- एक सच्‍ची बात आपसे कहूं।

- बताइए।

- जो लोग इस वक्‍त आपको घेरे हुए हैं इनमें से ज्‍यादातर ने न तो आपको कभी पढ़ा है। न आपका नाम ही सुना है। बस आपके बड़े नाम की चर्चा बीकानेर में फैली तो चले आए, शक्‍ल दिखाने।

- यह हर जगह का हाल है भाई।

कमलेश्‍वर जी की धर्मपत्‍नी भी साथ आई हुई थीं। शाम को बीकानेर स्‍टेशन पर उन्‍हें बिदाई देने, कमला को साथ लेकर पहुंचा था। सब लोग कोच में उन्‍हें घेरे बैठै थे। अब वे सब बड़ी शालीनता के साथ, वहां से हट गए। इन्‍हें बात करने दो। कमलेश्‍वर इतने शालीन और इतने प्‍यारे नेचर के। मैंने कभी कल्‍पना भी नहीं की थी। बिलकुल घरेलू माहौल। वे भाभीजी भाभी कहकर कमला से संबोधित हो रहे थे मिसेस कमलेश्‍वर भी बड़ी आत्‍मीयता से हमसे बातें करती रहीं।

बाद में कमलेश्‍वर जी के पत्र भी आते रहे थे। बहुत ही सुन्‍दर हैंडराइटिंग में प्रेम भरे। अब उनके पास कोई पत्रिका/संपादन नहीं था। पता नहीं होता तो उसमें मुझे छापते या न छापते। ऐंह मात्र छपने के लिए संपर्क। गलीज सी चीज। अब मैं इस गलीज चीज से बिलकुल पाक साफ रहूं। ऐसा दावा भी मैं कैसे कर सकता हूं। फिर भी इतना सत्‍य ज़रूर है कि मेरे लेखन से थोड़ा प्रभावित, कुछ लोग बाद में मदद को आए तो मैंने एतराज भी नहीं किया। मोटे तौर से जब मैं 'संचेतना‘ पत्रिका में कई बार छप चुका था तो एक बार जब ड्‌यूटी पर, बड़ोदा हाउस रेलवे हैडक्‍वार्टर गया तो वहां से डॉ․ महीप सिंह जी को फोन किया था। वे खुद मोटरसाईकिल दौड़ाते हुए मुझे आकर अपने घर ले गए थे। मुझसे पूछा था कहां कहा कहानियां भेज रखी हैं।

मैंने बताया- कई जगह। एक सारिका के लिए भी।

तब सारिका दिल्‍ली आ चुकी थी। उन्‍होंने फौरन फोन मिलाया- अरे नंदन तुम लेखक के धैर्य की कब तक परीक्षा लोगे। लो हरदर्शन सहगल से बात करो।

बीकानेर पहुंचते ही कन्‍हैयालाल नंदन जी से स्‍वीकृति पत्र आ गया था। महीप सिंह जी ने मेरे पहले दो कथा संग्रह भी छापे। कुछ पैसे भी दिये।

उसके बाद बड़ा नाम लूं तो यादवेन्‍द्र शर्मा 'चन्‍द्र‘ जी का। उन्‍होंने तो बीकानेर के हर उभरते लेखक की किताबें छपवाईं थीं। वे एक ही बात कहते थे कि कोई किसी की प्रतिभा को रोक नहीं सकता। वह किसी न किसी तरीके से, आज नहीं तो कल सामने आ ही जाएगा। फिर इसका श्रेय मैं ही क्‍यों ना ले लूं। यह बात दीगर है कि ज्‍़यादातर, सहायता पाने वाले, बेवफा हो गए। यह भी भूल गए कि साहित्‍य-यात्रा उन्‍हें अंततः अकेली चलनी है। और यह यात्रा बहुत लंबी हुआ करती है। ऐसे लोगों के लिए चन्‍द्र जी थोड़ी तल्‍खी से साऽले साऽले, काहे के लेखक, कहते।

किताब छपवाने में थोड़ी सहायता से से․रा․ यात्री जी ने भी की थी। पर एक तो उनकी चंद्र की तरह ज्‍यादा न चलती थी। और दूसरा वे ठहरे कुछ लापरवाह किस्‍म के इनसान।

इस प्रसंग पर मेरे सामने एक साथ बहुत से विचार कौंध रहे हैं।

(1) सिन्‍हा साहब की एक कहानी सारिका में, दो कहानियां हिन्‍दुस्‍तान साप्‍ताहिक में, एक दो कहानियां धर्मयुग में, दो चार और भी कहीं अच्‍छी जगह छपी थीं। मुझे नहीं लगता कि साहित्‍य जगत बिश्‍नसिंह नाम को याद रखे हुए हो। सिन्‍हा साहब की कहानियां जब लौटनी शुरू हुई थीं, तो उन्‍होंने इसे अपना अपमान सा महसूस किया था कि ये दो कोड़ी के संपादक इतने बड़े विद्वान्‌ (वेदों तक के, अंग्रेजी फिक्‍शन तक के) की कहानियां अस्‍वीकृत करते हैं। बेशक वे अर्थशास्‍त्र के हैड अॉफ द डिपार्टमेंट थे। सभी उनकी दिन रात हाजिरी भरते थे।

(2) अशोक आत्रेय की कहािनयां, जब लौटनी शुरू हुई थीं तो उसने संपादकों को 'साहित्‍य की तमीज़ न रखने वाले‘ कह कर उन्‍हें कहानियों की बजाए गालियां भेजनी शुरू कर दी थीं।

(3) एक ठिगने आकार के गोर छोकरे सूरज करेशा थे। फौरन साहित्‍य-मद में चूर हो उठे थे। उन्‍होंने कमलेश्‍वर को पिस्‍टल प्‍वांइट पर देख लेने की चेतावनी दे डाली थी। और लिखा था कि बीकानेर के कोटगेट (बीकानेर का हृदय स्‍थल) पर शाम इतने बजे सारिका की होली जलेगी। कमलेश्‍वर ने बिना नामोल्‍लेख के वह पत्र छाप डाला था कि बीकानेर के एक․․․․․․․ (कोई अटपटा घटिया संबोधन) ने यह सब लिखा है। तब 'कमलेश्‍वर के लेखकों‘ की (चापलुसों) की बड़ी टीम आगे आई थी कि पहली गोली कमलेश्‍वर जी से पहले हम अपने सीने पर खाएंगे।

(4) तब गाजि़याबाद के सोमदत्त्‍ा, सोमेश्‍वर बन गए थे। तब कमलेश्‍वर के नाम पर लगातार कई नाम उजागर हो रहे थे- सिद्धेश्‍वर मिथिलेश्‍वर, विश्‍वेश्‍वर, गजैश्‍वर, मलेश्‍वर न जाने क्‍या क्‍या। सुदर्शन महाजन, किसलय बंधोपाध्‍याय आदि आदि भी बहुत सक्रिय लेखक माने जाने लगे थे। से․रा․ यात्री के यहां जाते जरूर थे उनसे कुछ फायदा भी उठाते थे। लेकिन परोक्ष रूप से अपने को से․रा․यत्री से श्रेष्‍ठ मानते थे। जहां से भी, भले ही वाराणसी जैसे दूरदराज के शहर हों, कोई नई पुरानी पत्रिका निकल रही होती तो उसके संपादक को जरूर मिल आते और यह कहते सुने जाते कि हम तो बस मूड से अच्‍छी कहानी ही लिखते हैं।

(5) लगभग यही का यही कहना, बीकानेर के गोस्‍वामी चौक के, नवयुवक लेखकों का भी था। वे लोग अक्‍सर मेरे यहां चले आते थे। गोस्‍वामी चौक के किसी घर में गोष्‍ठी आयोजित कर मुझे बुला ले जाते थे। उनमें प्रमुख शशिकांत गोस्‍वामी, पूणेंदु, भारत आदि थे। हां वे एक अच्‍छे संभावनाशील युवक अरविंद ओझा (जिसकी मिसेज एम․एस․ कॉलेज में अंग्रेजी पढ़ाती थीं/हैं) को साथ रखते थे। मैं उन सबसे यही कहता कि सदा लिखते रहो। लेखन में निरंतरता अत्‍यावश्‍यक है। भले ही साधारण कहानी ही सही। वे डींग मारते-हम और साधारण। हम जब भी लिखेंगे श्रेष्‍ठ ही लिखेंगे। हम तो मूड में आकर ही लिखते हैं।

मेरे यह कहने से कि जम कर बैठने से मूड आपसे आप बन जाता है, को वे लोग नजरअंदाज करते रहते हैं।

आज सोचता हूं। चलो मेरा कोई खास नाम न सही, पर वे सब ऐसे ऐसे लेखक तो साहित्‍यिक परिदृश्‍य से लगभग विलुप्‍त हो गए। यदि इसे मेरा अतिकथन न माना जाए तो यही कहना चाह रहा हूं कि दरअसल साहित्‍य की लंबी यात्रा अकेले की जाती है। संभवतः आप बेहतर जानते हैं, जिन्‍हें कमलेश्‍वर, भैरव प्रसाद, श्रीपतराय या जिन जिन संपादकों, आलोचक मित्रों, अदला बदली के लेखकों ने मिलकर उठाया, उनमें से अनेक शोले की तरह भड़के फिर समय की आंधी/वर्षा ने घोल दिया। मेरे जैसे न इधर के न उधर के; बस चलते रहे। आज भी मामूली श्रेणी वालों में हैं। भले ही उपेक्षित। मगर हैं। इसी पर संतोष कि किसी की हाजि़री नहीं भरी। साधारण पाठकों के प्रशंसा पत्रों से बड़े बड़े लिफाफे भरे पड़े हैं। कभी कभार उन पत्रों पर भी नजर जा अटकती हैं जिनमें मेरे पत्रों के प्रत्‍युत्त्‍ार हैं। उन्‍हें पढ़कर मुझे लगता है कि हें मैं किसी संपादक को बख्‍श्‍ता नहीं था। क्‍या मैं झगड़ालू प्रवृत्त्‍ाि का इनसान हूं। पर साधारणतया ऐसा लगता तो नहीं हे।

एक बार दिल्‍ली सरकार की पत्रिका इन्‍द्रप्रस्‍थ भारती के बैक कवर पर पढ़ा- इस पत्रिका में देश के महत्‍वपूर्ण लेखक छपते हैं। मैं साहित्‍य लेखन में भले ही होशियार न हूं, लेकिन आज तक पत्र-लेखन में तुरत-फुरत हूं। मैंने उसी समय संपादक जी को खत अरसाल कर दिया; ''कृपया महत्‍वपूर्ण और गौण लेखकों की सूची भी जारी कर दें। बाकी के सारे संपादक तो मेरे पत्रों से कुढ़ भी जाते थे। मैंने पत्रों को 'नोटिसकार्ड‘ बनाकर भी कई संपादकों को लिखा था कि फ्‍लानी तारीख तक मेरा पारिश्रमिक न पहुंचा तो अदालती कार्रवाई की जाएगी। पत्र में कुल इतने अक्षर हैं। कहीं पर काट छांट नहीं हुई है। वाह वह जमाना। संपादकों के उत्त्‍ार आते- आप ऐसा क्‍यों लिख देते हैं। मेरा आज भी यही मत है कि लेखक को पारिश्रमिक मिलना ही चाहिए। संपादक जब हर मद्‌द पर खर्च करता है, तब सिर्फ लेखक को ही क्‍यों पारिश्रमिक से वंचित रखता है। दूसरा, ज्‍यादातर महल्‍लाें, घरों की स्‍थिति यह है कि वे लेखक को निकम्‍मा काम करने वाला (जीव) मानते हैं। जब पैसा आता है तो रचना तथा रचनाकार का महत्‍व बढ़ जाता है। सार्थक कार्य। मगर फिर वाह, 'महत्‍वपूर्ण गौण‘ को पढ़कर, नारायणदत पालीवाल, सं․ इन्‍द्रप्रस्‍थ भारती-तुम्‍हारी जय हो- ने मुझे लिख भेजा था ''आपका पत्र पढ़कर निहायत खुशी हुई। इस ज़माने में भी (इस जमाने में उनका तात्‍पर्य था जब लेखक (?) संपादकों के आगे पीछे दुम हिलाते घूमते हैं) ऐसी खरी बात कहने वाले लेखक भी मौजूद हैं। कभी दिल्‍ली आएं तो मिलें। मैं जब, गाजियाबाद गया तो उन्‍हें फोन किया। बहुत खुश हुए। बार बार तकाजा कर रहे थे- आकर मिलो आपको कुछ किताबें भी देंगे। गाजियाबाद मेरा घर है फिर भी यहां बहुत सीमित समय के लिए जाता हूं। 'फिर कभी‘। मैंने समय का बहाना कर मॉफी मांग ली।

उस समय के कुछ चर्चित बड़े लेखक/संपादकों जैसे शैलेश मटियानी, जगदीश चतुर्वेदी, अमृतराय बटरोही और भी बहुत थे, जिनकी चिटि्‌ठयां आती थीं। सोचता; न जाने क्‍यों मुझे इतना महत्‍व देते हैं। घर का सुख दुःख भी बांटते हैं। पर मैं तो इस लायक हूं नहीं। मुझे तो बस कहानियां लिखनी हैं, जैसी मुझसे लिखी जाती हैं। लिखने के बाद फ्‍लां फ्‍लां जगह भेजनी हैं। वहां नहीं छपी तो फिर कहां भेजनी हैं। इसका खाका पहले से तैयार कर रखा होता। टिकट लगा पता लिखा लिफाफा साथ में। अशोक आत्रेय कहता- हम तो कहानी के साथ वापसी लिफाफा भेजना अपनी तौहीन समझते हैं।

अपनी शर्तों पर जीना, कहीं कोई भी समझौता न करना, सदा सच बोलना, हो सकता बिरलों के बस की बात हो। मैं तो शादी ही को एक बड़ा समझौता मानकर चलता हूं। नहीं तो गृहस्‍थी की गाड़ी भी बेढंगी चाल की हो जाती है।

मेरी दसवीं कहानी 'मौसम‘ नयी कहानियां में छपी थी। नयी कहानियां 'मैं पहली बार छपना, बीकानेर में सबको अचंभित कर रहा था।

अमृतराय जी का पत्र आया था कि यदि आप सहमत हों तो पहली बार आपको तीस रूपए नकद पारिश्रमिक की बजाए, हमारे यहां से प्रकाशित किताबे भेज दी जाएं। ऐस में 'नयी कहानियां‘ को संबल मिलेगा। साथ में सूची पत्र भी था। यह जान कर कुछ लेखकों के कमेंटस थे- यह तो सरासर लेखक की तौहीन है। लेखक का शोषण है।

- ऐसा ही अमृतराय ने हापुड़ के किसी लेखक को भी लिखा था तो उसने अमृतराय को थप्‍पड़ मारने की बात लिख भेजी थी। तुम भी कोई ठोकवां जवाब दो।

ऐसी ऐसी प्रतिक्रियां थीं, बीकानेर, गाजि़याबाद वालों की। मेरे शुभचिंतकों की। ऐसे में प्रो․ रामदेवाचार्य मुझे अलग ले जाकर समझाने लगे- ये सब लोग शुभचिंतक नहीं, कुंठित हैं। दूसरों को खराब करने वाले हैं। बताओ इनमें से किसी की एक भी कहानी 'नयी कहानियां‘ में छपी हो। यह अंदर ईष्‍यावश यही चाहते हैं कि तुम्‍हारे संबंध अमृतरायजी से खराब हो जाएं और वे तुम्‍हें आइंदा न छापें। लेखकों को किताबें भी तो चाहिए होती हैं।

ऐसा ही हुआ। बाद में मेरी कहानियां धड़ाधड़ नयी कहानियां में छपनी शुरू हो गईं। 30 रूपए भी आते रहे। मैं थोड़ा चर्चा में भी आ गया। फिर कहानीकार, माध्‍यम सरिता। मनोरमा․․․․․․लंबी सूची है।

- अरे तुम सरिता जैसी व्‍यावसायिक पत्रिका में भी छपते हो।

- नहीं भाई, मैं किसी पत्रिका के लिए नहीं लिखता। अपने अंतस से अपने हिसाब से कहानियां लिखी जाती हैं। वे चाहे कहीं भी छप जाएं। बहुत बाद में ऐसा भी समय आया, जब मेरी एक ही कहानी प्रतिष्‍ठित अखबार में छपती, वही; फिल्‍मी दुनिया में; वही श्रेष्‍ठ साहित्‍यिक पत्रिका में। मैं मानने लगा कि पाठक वर्ग विशाल है। कहानी सबको अपील करे तो वही असली कहानी है।

ऊपर जिन तेज तर्रार, भागदौड़ करने वाले नौजवान लेखकों का वर्णन कर आया हूं। उन सबकी भूरि भूरि प्रशंसा भी करना चाहूंगा। उस जमाने के पूरे साहित्‍यिक माहौल की भी खूब खूब सरहाना करना चाहूंगा। तब लेखों, खासकर कहानियों पर, और उन पर, दी गई प्रतिक्रियाओं टिप्‍पणियों पर, गइराई से नोटिस लिया जाता था। ओह गर्माया हुआ वह माहौल, आज क्‍यों कर ठंडा पड़ गया।

बड़ों की कहानियों के साथ, मैं बच्‍चों की कहानियां भी लिखने लगा था। लाइब्रेरियों में बच्‍चों की पत्रिकाओं का कार्टनर निर्धारित था, जहां बच्‍चे, चंदा मामा, चंपक नंदन पराग, बालक, वानर, बालसखा, जैसी पत्रिकाओं पर छाते की तरह छाए रहते। मैं भी चाहता कि देखूं कि मेरी भी कोई कहानी छपी है ? लेकिन क्‍या मजाल जो कोई बच्‍चा मुझे उस तरफ आगे बढ़ने दे।

'नोटिस‘, को सिद्ध करने, तथा लेखकों काे एकजुटता, अपनापन दर्शाने के लिए एक रोचक उदाहरण पेश कर रहा हूं कि उस वक्‍त औपचारिकता जैसी कोई चीज नहीं थी। कोई भी लेखक किसी भी लेखक के यहां यूं ही किसी शहर से मिलने चले जाया करते थे।

अभी मेरी कुल कहानियां बमुश्‍किल 12, 15 छपी होंगी कि मैंने किसी सोमेश्‍वर नाम के लेखक की कहानी पढ़ी। नीचे पता पढ़ा तो आर्यनगर गाजियाबाद का था। अरे वाह यह तो हमारे ही मुहल्‍ले के कोई प्रो․ टीचर होंगे। सोचना कुछ गलत न था। आज भी देख लीजिए, ज्‍़यादातर लेखक, इसी पेशे में हैं या फिर पत्रकार, अखबार वाले। जब गाजियाबाद पहुंचा तो पता लगाया। लेकिन इस नाम का कोई व्‍यक्‍ति मिल ही नहीं रहा था। एक बार मेरे हाथ में दो तीन थैले थे। पता न चलने पर बाजार से सब्‍जी और दीगर सामान खरीदने चला गया। बाज़ार से लौटती बार, अपने को रोक नहीं पाया। फिर से दो चार से सोमेश्‍वर का पूछने लगा।

- इस नाम का, यहां कोई नहीं रहता। हम सबको जानते हैं।

- कोई प्रोफेसर होने चाहिए। कहानियां भी लिखते हैं।

- अरे अब समझा, एक हलवाई बोल उठा- कोई प्रोफेसर वरवेसर नहीं है। वही हमारा भतीजा सोमू है। सोमदत्त्‍ा। उसने कुछ कहानियां लिख छोड़ी हैं। वह सामने वाला घर रहा। थैले उठाए मैं फौरन वहां चला गया। दरवाजा अधखुला था। मैंने नॉक किया। तुरंत दो युवक प्रकट हुए। तीसरे को मैंने लुंगी पहने सिलबटे पर चिटनी पीसते पाया।

- यहां पर कोई सोमेश्‍वर जी हैं।

- कहिए आप कौन ?

- मेरा नाम हरदर्शन सहगल है।

- ओह तो आप। आप बीकानेर से आए हैं। आइए आइए। दोनों ने मेरे थैले, मेरे हाथ से ले लिए- इन्‍हें कमरे में रख दो। हमारे पास ही ठहरेंगे।

- अरे नहीं भाई। मेरा मकान वह थोड़ा सा आगे रहा। बाज़ार से सामान लेकर आ रहा हूं।

- आप तो बीकानेर रहते हैं ना। तीसरा उनसे कुछ बड़ी उम्र का, भी मेरे पास चला आया। यह बंगाली सज्‍जन, किंसले, बंधोपाध्‍याय नाम से लिखते थे। एक सुदर्शन महाजन। तीसरे सोमेश्‍वर जी (सोमदत्त्‍ा)। और भी शायद कोई था। सोमेश्‍वर के मां बाप आदि शायद गांव गए हुए थे। यहीं पर लेखकों की महफिल जमती थी।

- घर तो यहीं है। सर्विस बीकानेर में करता हूं। लाइए मेरे थैले। पहले इन्‍हें घर पहुंचा आऊं। वापस आकर आप सब से जम कर बातें होंगी।

- अजी नहीं। पहले आप हमारे साथ चलिए। वे मुझे बजरिया ले गए। खूब खिलाया पिलाया। रात का खाना हमारे साथ ही खाएंगे ना।

- बिल्‍कुल नहीं। माताजी नाराज़ होंगी। मिलते रहेंगे।

- अरे आपकी एक कहानी तो सरिता में भी छपी पड़ी है। आप सरिता मुक्‍ता के लिए भी लिखते हैं ?

- मैं तो अपने तरीके से ही कहानी लिखता हूं। चाहे वह कहीं भी छप जाए। पर सरिता वाला वह अंक तो मुझे नहीं मिला। चलो छप गई।

- उसमें जो नायक है वह अपनी पूरी कहानी गाड़ी में बैठा बैठा सोचता है।

- कमाल है। आप लोग साहित्‍यिक पत्रिकाओं के अलावा सारी पत्रिकाएं भी गहराई से पढ़ते हैं।

- सारी नॉलेज रखनी पड़ती है।

वास्‍तव में वे लोग एक्‍टरों ही की तरह लेखकों के नाम भी जानते थे। किसी भी शहर का नाम लो। वे फौरन बता देते। वहां पर कौन कौन सा लेखक रहता है। किसने क्‍या लिखा है। किसके बारे में किसकी क्‍या राय है। नई कहानियां का जमाना था। मोहन, राकेश, कमलेश्‍वर, राजेन्‍द्र यादव इनके हीरो थे। शिवदान सिंह चौहान, उपेन्‍द्रनाथ अश्‍क नई कहानियां के घोर आलोचक थे। उनका कहना था कि इनके गुट का कोई भी आदमी अपनी किसी भी कहानी पर 'नई कहानी‘ का लेबल चस्‍पा कर, भेज दे तो वह हो गई, नई कहानी। क्‍यों और कैसे, नई कहानी हमेशा नई ही रहेगी। समय के साथ यह नइर् लिखी हुई, लिखी गई, कहानी पुरानी तो हो ही जाएंगी। लंबे लंबे लेख लिखे जा रहे थे। मैं भी सब कुछ जान लेना चाहता था। गहराई से 'नयी कहानी की भूमिका‘ (कमलेश्‍वर) एक दुनिया सामानांतर (राजेन्‍द्र यादव) किताबों का गहराई से अध्‍ययन कर रहा था। अस्‍तित्‍ववाद सािहत्‍य जगत पर हावी था। 'अजनबीपन‘ 'भीड़ में अकेलापन‘ 'पहचान खोता आदमी‘ का बोलबाला था। कामू काफका सात्र बादलों की भांति सब लेखकों पर बरस रहे थे। सभी नए लिखने वाले, 'आदमी, जीने के लिए‘, 'निर्णय लेने के लिए अभिष्‍त हैं‘, जैसे नारे से लग रहे थे। फिर सहज कहानी के पैरोकार अमृतराय आए। संचेतना के महीपसिंह। और अनेक लेखकों संपादकों ने भी ने इतिहास में जगह सुरक्षित करने हेतु 'अकहानी‘ पक्षधर कहानी‘ आदि अपने अपने नामों से जैसे 'रजिस्‍टर्ड‘ करवा रहे थे। यह भूल कर कि कहानी की सबसे पहली शर्त है, उसका 'कहानी‘ होना। उसमें कहानीपन होना। सबको अस्‍तित्‍व-वाद समेत पढ़ते। मेरे अपने छोटे से दिमाग की उपज यही रही कि कहानी तो वह, जिसकी अप्रोच आम जनता के बीच हो। ढिंढोरा पीट पीट कर किसी भी विचारधारा विशेष की कहानी, 'कहानी‘ कैसे बन जाएगी। कहानी तो वह, जो पाठक को, पढ़ते ही जकड़ ले। उसके दिलों-दिमाग पर कब्‍जा जमा ले।

इन सब दिग्‍गजों के विचारों के बावजूद मैं निरंतर समय, मनुष्‍य के स्‍वभाव के बदलते स्‍वरूप वाले दर्शन-विषय से प्रभावित हो रहा था। साथ ही अपठनीय कहानियों उपन्‍यासों को किसी जिद के साथ पढ़ ले जाता था, िक जब इनकी इतनी चर्चा की जा रही है तो हो सकता है कि मैं ही इन्‍हें नहीं समझ पा रहा होऊं।

बहुत बाद में समझ में आया था कि सब ने ही कम से कम अपनी एक कहानी को तो पेटेंट सा करा रखा था। कोई 'सपाट चेहरे वाला आदमी‘ था तो कोई 'रीछ‘ वाला और 'अपना मरना‘ 'एक चूहे के मौत‘ वाले। कुछ अब नहीं रहे। वे बेशक बढि़या लिख रहे हैं। रमेश रंजक शानदार कवि। गीतकार थे, तो बहुत से अपने द्वारा ही उछाले जा कर, चर्चा का केन्‍द्र बने हुए थे। काफ्‍का कामू सात्र को न समझ पाने वाले अपने को ऐसा घोषित कर रहे थे मानो उनकी, उनके पूरे दर्शन पर मास्‍टरी हो।

एक बार मैंने आशोक आत्रेय ही से कहा था कि आप तो काफ्‍का के भक्‍त हो। काफ्‍का की इस छोटी सी कहानी को थोड़ा एक्‍स्‍पलेन करके मुझे समझाओ। तो बोला- इसमें समझाने समझने की क्‍या बात। जो लिखा हुआ है, बस वही है। मैं समझ गया। ये इन महालेखकों की काफ्‍का के प्रति उनकी अंधभक्‍ति बोल रही है।

एक बार राजेन्‍द्र यादव जी के यहां शक्‍तिनगर वाले घर गया था तो पूछा था कि 'कहानी‘ पत्रिका का नया अंक देख लिया है ?

- हां आ गया है।

- उसमें कृष्‍ण बलदेव वैद की एक कहानी है।

- हां है।

- आपने पढ़ ली।

- हां पढ़ ली।

- मेरी तो समझ में नहीं आई। ज़रा बता दें।

- देखो सहगल, मैंने कन्‍सनट्रेट होकर उसे नहीं पढ़ा।

स्‍पष्‍ट था कि समझ में उनके भी नहीं आई थी।

यह प्रसंग मैंने बीकानेर आकर आचार्य जी को सुनाया तो बोले- भला वे क्‍यों वैद जी के खिलाफ़ बोलें।

बाद में धीरे धीरे ऐसी कई हरकतें साहित्‍य के गुटबाजों की मेरी समझ में आने लगीं। जिनका थोड़ा नाम हो, अपने जैसों के-आंख मूंद कर - समर्थक हों। अपने संपादक जो कहें, वैसा ही लिख भेजें। उनके विपरीत यदि कोई साधरण पाठक प्रतिक्रिया/टिप्‍पणी लिख्‍ा भेजे, तो संपादक उसे दबा देते हैं। फिर भी बात तर्क के साथ सामने आ ही जाए, तब पूरे ग्रुप वाले उसके बचाव में, तर्कों, कुतर्कों के साथ सीना ताने, चतुर खिलाड़ी, मुस्‍तैदी के साथ खड़े दिखेंगे। अरे, उनकी काट यदि आप लिख भेजें तो उसे दबा दिया जाए। न छापा जाए। यानी सभी एक दूसरे के खड़े खिलाड़ी।

राजनेता भी तो यह सब करते हैं। मजबूरी। महत्‍व इस बात का नहीं कि बात कितनी सही या गलत है। महत्‍व यह है कि किसने कही है। उनके ग्रुप का है या दूसरे ग्रुप का। या बेशक बेहद समझदार, मगर साधारण गुमनामी।

यह क्‍या साहित्‍य हुआ ? साहित्‍य हुआ या कि कोई झमेला हुआ। या कोई हंगामा खड़ा करने की साजिश जैसा हुआ।

ओह साहित्‍य में कदम रखने के वे मेरे, नए नए दिन। दिन भर की व्‍यस्‍तता के बाद, शाम को 'जय हिन्‍द‘ होटल, जो आज शानदार बड़े 'लालजी होटल‘ नाम में तबदील हो चुका है। उस वक्‍त पेंडू यानी ग्रामीण ढाबे की तरह था। इस जय हिन्‍द होटल में शाम होते ही साहित्‍यकारों की गहमा गहमी हुआ करती थी। कोई विचार-विमर्श में संलग्‍न है, तो कोई किसी को अपनी कहानी कविता सुना रहा है। चाय मंगवाओं, न मंगवाओं। घंटों बैठो रात तक गोष्‍ठियां सी करो। गर्मियों में छत पर भी बैठने की व्‍यवस्‍था थी। बैंक यूनियन वालों की भी भीड़ हुआ करती थी। ज्‍़यादातर लोग विद्वान, गम्‍भीर, साहित्‍य के पारखी हुआ करते थे। स्‍व․ सद्‌दीक साहब का गला बहुत सधा हुआ था। वे अपनी राजस्‍थानी हिन्‍दी कविताएं गा गा कर सुनाया करते थे। स्‍व․ अज़ीज़ आज़ाद की गजले भी सुनने लायक हुआ करती थीं। विद्वानों में डॉ․ (स्‍व․) महाबीर दाधीच अस्‍तित्‍ववाद के प्रवक्‍ता थे; तो प्रो․ रामदेव आचार्य गम्‍भीर आलोचक समीक्षक कवि। प्रो․ बिशन सिन्‍हा, प्रो․ योगेन्‍द्र किसले (ये सब अब दिवंगत) भी आ जाया करते थ्‍ो। एक प्रेम बहादुर सक्‍सेना जैसे कुछ लोग थे, जो दूसरों को उखेड़ने में ही अपना बड़प्‍पन दर्शाते थे। दूसरों का मज़ाक उड़ाकर रस पाते थे।

नंद किशोर आचार्य अपनी टोली के साथ सजनालय बड़ी लाइब्रेरी के बाहर दाऊजी पान वाले की दुकान के सामने खड़े मिलते थे।

प्रो․ दिवाकर शर्मा, फिलासफी के प्रो․ शिवजी, प्रो․ आसोपा, अग्रवाल भुजिया भंडार के आस पास थोड़ी सी जगह पर मंडराते मिलते थे।

मगर जो बात जयहिन्‍द होटल के रौनक की थी, उससे बढ़कर कहीं की नहीं थी। दूसरी जगहों वाले भी यहां जयहिन्‍द में आते जाते रहते थे। हां एक डिलाइट होटल भी है, जहां पर डॉ․ मेघराज शर्मा (प्रसिद्ध लेखक अन्‍नाराम सुदामा के पुत्र) अपने दो एक साथियों नरेन्‍द्र शर्मा जैसे कुछ और साथियों के साथ बैठे सिग्रेट फूंका करते थे। आज भी थोड़ा बहुत उनका वही अड्‌डा है। उसी जगह पर बस एक बार स्‍वयं प्रकाश से एक डेढ़ घंटे की मुलाकात हुई थी। डॉ․ मेघराज ने उनकी किताब 'सूरज कब निकलेगा‘ छापी थी। वे 'धरती प्रकाशन‘ से कुछ पुस्‍तकें छाप रहे थे। हेतु भारद्वाज का और मेरा उपन्‍यास 'सफेद पंखों की उड़ान‘ भी छापा था। पर ज्‍़यादातर पुस्‍तकें अपने पिता की ही छापते थे। पहले वे 'साुर्दल रिसर्च इन्‍स्‍टीट्‌यूट‘ में काम करते थे। फिर उन्‍हें रामपुरिया कॉलेज में लैक्‍चररशिप मिल गई। भाई उनके प्रकाशन व्‍यवस्‍था संभाल नहीं पाए। 'धरती प्रकाशन‘ बंद।

जय हिन्‍द में नियमित आने वालों श्री भवानी शंकर जी थे जो आजकल भी उधर सामने नागरी भंडार लाइब्रेरी के सामने खड़े मिल जाते हैं। और थे रामदेव आचार्य, चिरंजीलाल शर्मा, अजीज आजाद, सद्‌दीक साहब आदि। बाहर से आने वाले लेखकों को भी यह स्‍थान बता दिया जाता था।

जय हिन्‍द के सामने ही सब्‍जी मंडी है। मैं कभी उधर से, दोपहर में गुजर रहा होता तो, 'जयहिन्‍द‘ के मालिक भवानी को दिख जाता। तब वह दौड़ कर मेरे पास आ जाता- साब आज शाम को जरूर आना। कोई बाहर के लेखक आए हुए हैं। मैंने उन्‍हें बता दिया है कि यहीं पर आपको शाम को सब लेखक मिल जाएंगे।

इस वक्‍त और उस वक्‍त की स्‍मृतियों का मेरे सामने झुंड है। अंबार है। किसे पहले कहूं। किसे बाद में कहूं। कोई सी भी कहने बताने से छूट न जाए। सभी रोचक आंदोलित उद्वेलित करने वाले प्रसंग हैं। खट्‌टे मीठे अनुभव हैं मेरे। देखिइए कितना और कैसे क्रम से बता पाता हूं। सारी घटनाएं एक दूसरे से गुत्‍थी हुई भी तो हैं।

चलिए पहले थोड़े मनोरंजन, साथ ही शातिराना अंदाज़ वाली बातें भी बताता हूं। एक नवल बीकानेरी हैं। उस वक्‍त अपने कवि कर्म में बहुत सक्रिय थे। धनाड्‌य हैं। अपने पैसों से कई काव्‍य संग्रह छपवा रखे हैं। वे हरदम अपनी कविता सुनाने को बहुत लालायित रहते थे। लोग बाग बिना चाय-भुजिया के उनसे कुछ सुनने को राजी नहीं होते थे। चाय भी पीते थे और उनकी कविताओं का मज़ाक भी उड़ात थे। इसी प्रकार चिरंजीलाल शर्मा की कविताओं का भी मज़ाक उड़ाया करते थे।

एक बार जब सब लेखक उनकी पढ़ी कविता पर हें हें करके हंस रहे थे तो चिरंजीलाल ने कहा था कि भाई लोगो। यह मेरी लिखी हुई कविता नहीं है बल्‍कि आपके ही पूज्‍य कवि सवेश्‍वर दयाल या अज्ञेय या रघुबीसहाय (नाम ठीक से याद नहीं आ रहा) की कविता है। आपको तो बस मेरा मज़ाक उड़ाकर खुश होना है। सो हो लीजिए। अब वह झुंड क्‍या बोले।

एक प्रसंग तो मैं राजेन्‍द्र यादव जी का बता ही चुका हूं। दूसरा भी सुन लें। हां सूर्य प्रकाशन मन्‍दिर (प्रकाशक स्‍व․ सूर्य प्रकाश बिस्‍सा­) में भी काफी जमघट हुआ करता था। वहां पर सुमेर सिंह दैइया, श्रीगोपाल आचार्य, डॉ․ राजनंद प्रायः हर रोज़ आया करते थे।

वहां पर एक दिन बैठा मैं किसी पत्रिका के पृष्‍ठ उलट रहा था कि एक कविता को पढ़ने के बाद, मैंने अपने अंगूठे से कवि के नाम को छिपा कर डॉ․ राजानंद से कहा कि यह क्‍या कविता हुई ? उन्‍होंने पढ़ी और मेरी बात के समर्थन में अपनी नाक भौं सिकोड़ी और कहा ऊंह कुछ नहीं है। मैंने फ़ौरन अंगूठा हटा लिया। उन्‍होंने कवि का नाम पढ़ा- अच्‍छा अच्‍छा तो यह उनकी (यानी उन आदर्श कवि की) है। उस पर दोबारा नज़र डालते हुए, फिर एक टीचर की भांति बोले-अच्‍छा तो इस कविता का आशय यह यह हुआ। फिर शब्‍दों में से ढूंढ़ ढूंढ़ कर उसके भावार्थ निकालने लगे-अब समझा।

'हमारे यहां निष्‍पक्ष समीक्षाएं टिप्‍पणियां नहीं हुआ करतीं।‘ ऐसा दंभपूर्वक डंके की चोट पर, कहने वाले लोग भी सामने आए।

बात को आगे बढ़ाने से पूर्व मैं बड़े संक्षेप में अपने और प्रो․ बिशन सिन्‍हा के आत्‍मीय संबंधाें पर कुछ मोहित स्‍वर में टिप्‍पणी करना चाहूंगा। उससे भी पहले कहानी लेखन महाविद्यालय ग्रीनपार्क नई दिल्‍ली/बाद में अंबाला छावनी।

मैंने कोई विज्ञापन पढ़ा था कि वहां के निदेशक डॉ․ महाराज कृष्‍ण जैन कहानी कला का कोई कोर्स पत्राचार द्वारा चलाते हैं। मन ने कहा तू भ्‍ाी कोर्स ज्‍वाइन कर ले।

- कमला ने जबर्दस्‍त विरोध किया - क्‍या ज़रूरत है। आपने क्‍या लेखक बनना है ? लेखक बन जाओगे ? पैसे कहां रखे हैं, कोर्स के लिए। आपकी कहानियां तो छप ही रही हैं। वैसे ही कुछ और छप जाएंगी। लेखक तो फिर भी नहीं बन सकते। वह भी शायद यही सोचती थी कि लेखक, परिवार के लोगों में से नहीं बनते। आकाश से टपकते हैं। यही की यही बात मुझे पूना से भी बहन कृष्‍णा के द्वारा सुनने को मिली थी किन्‍तु, उनका स्‍वर व्‍यंग्‍यात्‍मक न होकर सुलझा हुआ था। जब जब मेरी कहानियां 'नई कहानियां‘ पत्रिका आदि में छपतीं तो मेरे छोटे भांजे भांजियां अपने सहपाठियों को दिखलाते कि यह कहानी हमारे मामाजी ने लिखी है। इस पर उनके साथी मुंह बनाते- हें तुम्‍हारे मामाजी ने लिखी है। वह कैसे लेखक हो सकते हैं। इस पर बहन जी हंसती कि जो लेखक हुआ करते हैं। वह किसी के मामा नहीं हुआ करते।

कमला के सामने असली समस्‍या पैसे की थी। मैंने उसे बड़ी मुश्‍किल से मनाया कि हो सकता है कि इस प्रकार मेरे लेखन में प्रगाढ़ता सघनता बढ़ जाए।

लेखन विद्यालय के विज्ञापनों में कई लेखकों की राय, मय चित्र भी छपा करते थे।

प्रो․ बिशन सिन्‍हा की विद्वता के विषय में बता ही आया हूं। उन्‍होंने भी कोर्स ज्‍वाइन करा था और लिख था कि मेरा अध्‍ययन अंग्रेजी फिक्‍शन के माध्‍यम से अपार है किन्‍तु मुझे जो कुछ इस कोर्स से प्राप्‍त हुआ है, वह अन्‍यत्र दुर्लभ है।

खैर मैंने कोर्स ज्‍वाइन कर लिया। यहीं पर यह भी बताता चलूं कि कहानी लेखन महाविद्यालय के विद्यार्थियों की संख्‍या/सूची बहुत बहुत बड़ी है उनमें से कई आज चर्चित लेखकों में से हैं किन्‍तु वे बताते नहीं। अपना नाम बताने से जैसे उनकी हैठी हो जाएगी। ऐसे में मैं भी क्‍यों उनका राज़ खोलूं। ऐसों की तुलना मैं मन ही मन ऐसे कैम्‍यूनिस्‍टों से किया करता हूं जो घर में छिप छिप कर पूजा पाठ किया करते हैं। राज़ तो डॉ․ महाराज कृष्‍ण जैन भी नहीं खोला करते थे। उदारतापूर्वक कहते थे कि हम कौन होते हैं किसी को लेखक बनाने वाले। बस जिनमें लेखन के अंकुर होते हैं, उन्‍हें, जरा विकसित करने में सहयोग करते हैं। हां जिस मंजिल पर बड़े बड़े लेखक रास्‍ता ढूंढ़कर टकरें मार मार कर देरी से पहुंचते हैं, हमारे कोर्स द्वारा, उनकी मंजिल पर पहुंचने की राह आसान हो जाती है। असली श्रम उनका। थोड़ी सहायता विद्यालय की। हां ऐसे स्‍कूल विदेशों में सर्वत्र हैं किन्‍तु भारत में हमारे बड़े लेखक इसे हास्‍यस्‍पद मानते हैं। जहां जहां हम उन बड़े लेखकों के पास उनके लिखित आशीष वचन लेने पहुंचे प्रायः सबने हमें भगा दिया, सिवाए श्री विष्‍णु प्रभाकर जी के (या हो सकता है एकाध और नाम भी हो) पाठ्‌यक्रम के विद्यार्थियों में एक खास नाम कु․ उर्मि दुबे का भी था। उन्‍होंने यह जानते समझते हुए भी कि डॉ․ जैन हैंडीकेप हैं। व्‍हील चेयर के सहारे जीवन जी रहे हैं, उनसे, सबका विरोध सहते हुए विवाह कर लिया। यह बहुत बड़े त्‍याग की मिसाल है। डॉ․ साहब की जीवटता भी देखते ही बनती थी। हमेशा भ्रमण पर ऊंची ऊंची पहाडि़यों, नदियों को पार करते, निकले रहते। अपाहिजता को चुनौती देने वाले बिरले ही विद्वान होते हैं। ये सब प्रसंग मेरे लिए प्रेरणा स्‍त्रोत बने। उर्मि कृष्‍ण हर पल उनका संबल बन गईं। उनके संग संग रहीं। अनेकानेक यात्राएं कीं। डॉ․ साहब के निधन के पश्‍चात आज भी बड़ी कुशलता, और भी अच्‍छे तरीके पर अकेली विद्यालय के साथ साथ, डॉ․ साहब द्वारा शुरू की गई पत्रिका 'शुभ तारिका‘ का संपादन भी कर रही हैं।

खैर ज्‍यों ज्‍यों चैप्‍टर्ज मेरे पास आने शुरू हुए मैं आस्‍थापूर्वक उनमें खोता चला जाता। अपने से कहता- और यही की यही बात कहानी को लेकर मैं भी तो सोचा करता था। डॉक्‍टर साहब ने मेरी बात का समर्थन कर, मेरी बात पर एक पक्‍की परत लगा दी। अब मेरे लिए संशय या दुविधा जैसी कोई बात नहीं है।

डॉ․ जैन के पत्रोतर बड़ी तेज़ी से आते थे कि आप तो बड़ी बड़ी साहित्‍यिक पत्रिकाओं में छप रहे हैं। यह कोई मामूली बात नहीं। डॉ․ साहब के पास लेखन प्रकाशन की स्‍पष्‍ट रूपरेखा थी। छपने के गुर। व्‍यावसायिक लेखन। फिल्‍मी लेखन। विशुद्ध साहित्‍यिक लेखन। वे मेरी इज्‍़ज़त करते थे। एक बार उन्‍होंने ही ने मुझे लिखा था कि बीकानेर के डागा बिल्‍डिंग में जाकर प्रो․ बिशन सिन्‍हा से मिलो।

मैं फौरन सिन्‍हा साहब के पास किसी शाम को जा पहुंचा। उन्‍होंने तथा उनकी पत्‍नी ने वह आत्‍मीयता दिखलाई कि मैं जीवन-पर्यन्‍त उनका ही होकर रह गया।

मैं और सिन्‍हा साहब एक दूसरे को अपनी अपनी कहानियां सुनाते रहते। उनकी बेटी सुध्‍ाा जो कॉलेज स्‍टूडेंट थी, जो बाद में गुजरात से संभागीय अध्‍यक्ष होकर सेवानिवृत्त्‍ा हुई, हमें चाय पिलाती रहती। सिन्‍हा साहब जितनी बड़ी हस्‍ती उतने ही सहज स्‍वभाव के। कहते अभी तो तुम बहुत छोटी आयु के हो आगे चलकर बहुत बड़े लेखक बनोगे। हर रोज़ दो दो चार चार पृष्‍ठ भी लिखोगे तो पता है कितने मोटे मोटे ग्रंथ रच डालोगे। इसके साथ यह भी जोड़ते कि सहगल तुम्‍हारे आने से मुझे जो खुशी मिलती है वह दूसरे के आने से नहीं। मेरे यहां कलक्‍टर भी आता है पर मुझे उससे क्‍या लेना देना। यानी कला रस, विद्धता में डूबे हुए। उनकी पत्‍नी भी मुझे बच्‍चों सा लाड दिखलातीं। कई बार सिन्‍हा साहब को खींच कर अपने अग्रवाल क्‍वार्टर में ले गया था। कमला से मिलवाया था। सिन्‍हा साहब फैल्‍ट लगाते थे। सिगार/पाइप के शौकीन थे।

सिन्‍हा साहब का प्रभा मंडल बहुत बड़ा था। कॉलेज के जूनियर लैक्‍चरर स्‍टूडेंट्‌स दूसरे बुद्धिजीवी उन्‍हें हर संध्‍या घेरे रहते थे। कभी कभार वे भी जय हिन्‍द आ जाया करते थे। प्रो․ रामदेव आचार्य कहते थे कि सिन्‍हा साहब के चापलूस बहुत हैं। उनसे फायदा उठाने के लिए उनके यहां जा पहुंचते हैं।

कभी कभी डूंगर कॉलेज के विद्यार्थियों की हड़ताल होती तो सिन्‍हा साहब मुझसे कहते - हमें तो कॉलेज की हाजिरी भरनी पड़ती है। यूं ही बैठे बैठे बोर होते हैं। तुम दोपहर को अपनी कोई कहानी लेकर कॉलेज चले आना। तुम्‍हारी कहानी भी सुनेंगे और अपनी कहानी भी सुनाऊंगा। ऐसा कई बार हुआ था जब मैंने कॉलेज जाकर कहानी सुनाई थी। सिन्‍हा साहब को घेरे दो चार और लैक्‍चरर भी कहानी सुनते। खास तौर से संस्‍कृत के विभागाध्‍यक्ष डॉ․ पुष्‍करदत्त्‍ा शर्मा भी कहानी जरूर सुनते। और खूब सराहना करते।

अब असल मुद्‌दे की बात पर लौटता हूं। एक बार मैंने जय हिन्‍द में बैठकर कोइर् कहानी सुनाई। सब विद्वान तथा अनाड़ी, घमंडी, अपनी अपनी राय उगल रहे थे। कुछ अधिक प्रशंसा होने लगी तो वही डॉ․ पुष्‍करदत्त्‍ा शर्मा न जाने कैसे उखड़ गए- सहगल साहब आपका लेखन बहुत निम्‍न स्‍तर का है। सिवाए बीकानेर पर लिखे लेख के, मुझे तो आज तक आपका लिखा कुछ भी पसंद नहीं आया।

मैं भी उखड़ गया- फिर कॉलेज में मेरी कहानियों की प्रशंसा क्‍यों किया करते थे।

- एक बात समझ लो। हमारे पास, समझो, जेब में दोनों ही प्रकार की राय रखी रहती है, जब चाहें प्रशंसा वाली निकाल लें। जब चाहें भर्त्‍सना वाली।

- हें! मैं चौंका।

वे आगे बोले- हम लोग जब, अपने साथियों के साथ, किसी पुस्‍तक चर्चा की गोष्‍ठी में जाते हैं, तो चलते वक्‍त, रास्‍ते में ही तय कर लेते हैं- बोल भाई लेखक को उखेड़ना है या․․․․․․․․।

आगे मैंने उन्‍हें टोक दिया, फिर 'हें‘ के साथ- ऐसे (शातिर) हैं आप लोग जिनका अपना कोई दीन ईमान नहीं। साहित्‍य जैसे पवित्र कर्म के साथ यह दोगलापन। सचमुच उखड़ गया था मैं। आवाज़ में खासी चिल्‍लाहट थी।

बाकी के लोग मुझे शांत करने लगे। पुष्‍कर दत्त्‍ा जी भी मुझे मनाने लगे। कुछ ने उन्‍हें कहा कि अब आप रहने दीजिए।

- रहने कैसे दूं। ऐसे तो मैं एक अच्‍छा मित्र खो रहा हूं। उन्‍होंने मेरा कंधा पकड़ लिया। मैं रूठे हुए बच्‍चे की तरह मान गया। परन्‍तु आगे से मैंने उनके समक्ष कोई गंभीर चर्चा नहीं की।

रात के बारह तो बज ही चुके थे। मैं चाहे अग्रवाल क्‍वार्टज़र् में रहा हूं या बाद में रेलवे क्‍वाटर्र में। हमेशा जयहिन्‍द पैदल ही आता जाता था। जरा सी दूरी पर रेलवे माल गोदाम। आगे लाइने क्रास कीं। इससे आगे दीवार जो लगभग हमेशा एक दो जगहों से टूटी रहती थीं। न भी टूटी हो तो दीवार फांद जाता। थोड़ा चलते ही जयहिन्‍द।

जब जब रात देरी हो जाती, मैं अपने को कोसता। फ़ालतू के लफड़ों में टाइम वेस्‍ट करता है तू। अब उस टाइम की भरपाई करो। मैं, तब लिखने बैठ जाता। बता ही चुका हूं कि रात बारह बजे ड्‌यूटी से लौटने के बाद, सोने की बजाए लिखने बैठ जाया करता था। तब तो टाइम वेस्‍ट करके नहीं, कमा कर लौटता था। यह भी बता आया हूं कि स्‍कूल कॉलेज के दिनों भी रात रात भर जागकर पढ़ाई करता था। ओह रात तुझे नमन, तब न तो शोरगुल, न आपधापी, न दरवाजों पर दस्‍तक, न टेलीफोन की घंटी का बजना। न बच्‍चों का कोई सवाल पूछने आना। न बीवी का हाथ में थैला पकड़ाना कि बाजार से जाकर यह यह ले आओ। आज भी रात को जाग कर लिखता हूं। इस मायने में रात से अच्‍छा कोई वक्‍त नहीं हुआ करता।

रेवाड़ी में संडे आबजर्‌वर, अंग्रेजी साप्‍ताहिक, संपादक दुर्लभ सिंह (शायद यही नाम था) भी खूब पढ़ा करता था। मैं क्‍या जैसे पूरी दुनियां इसकी दीवानी थी। सुनते थे, जब इतवार को कनॉट प्‍लेस कार्यालय से छप कर बाहर निकलता था तो लड़कियों औरतों तक के झुंड इस पर, झपटते थे। मोटे तौर से यह एक अश्‍लील सा बड़ी आसान अंग्रेजी वाला अखबार माना जाता था। चटखारेदार खबरों वाला। संपादक का दावा था कि यह सब एकदम सच्‍ची खबरें/सूचनाएं हैं। कोई भी पाठक कभी भी कार्यालय में आकर इनकी प्रमाणिकता की जांच कर सकता है। यह भी लिखा होता था कि सूचनाएं इतनी अधिक होती हैं कि सब को स्‍थान नहीं दिया जा सकता। यदि सप्‍ताह में चार संडे आबज़रवर भी निकालूं तो मैटर नहीं समा सकता। उनका यह भी दावा था कि इस प्रकार वे इसे निकाल कर विदेश में जाने वाले देश-धन को बचा रहे हैं। तात्‍पर्य यह था कि लोग बाग ऐसा मैटर पाने के लिए बहुत ही महंगी विदेशी पत्रिकाएं खरीदते हैं। अब उन्‍हें वही मैटर निहायत सस्‍ती दर पर इस अखबार के द्वारा प्राप्‍त हो जाता है। संपादक बहुत मेघावी, प्रखर बुद्धि के मालिक थे। उन दिनों, उठते, खालिस्‍तान आंदोलन का वे विरोध कर रहे थे कि इस तरह तो सिख कौम एक छोटे से कुएं में दुबक कर घुट जाएगी। हमें एक बड़े देश के नागरिक के रूप में जीना उभरना है। मुझे उनके कुछ श्‍ाीर्षक भी याद हैं। बी सैल्‍पिश एंड सर्व दी कंटरी। यानी कर्मठ बन अपना भला करो। साथ साथ राष्‍ट्र का भी भला अपने आप हो जाएगा। उसी प्‍वांइट पर लिखा था- रातों को छोटा करो। दिनों को बड़ा। मतलब था कि खूब जाग जाग कर सक्रियता के साथ अपने कार्यों में संलग्‍न रहो।․․․․․अब फिर बीकानेर। उन दिनों बीकानेर से एडवोकेट महबूब अली 'सप्‍तांत‘ निकाल रहे थे यह अपनी तरह का शानदार साहित्‍यिक साथ ही बीकानेर की गतिविधियों से भरा पूरा अखबार था। महबूब अली बड़े बुद्धिजीवी माने जाते हैं। कभी कभी मेरे घर कहानी लेने भी चले आते थे।

उधर हरीश भादानी के 'बातायन‘ की, देश भर में धूम थी। उनका कहना था कि उन्‍होंने अपने पूर्वजों की पांच बड़ी बड़ी हवेलियां इस मासिक पत्र के लिये होम दी हैं। उस समय इसका कार्यालय डागा बिल्‍डिंग की ऊपरी मंजिल में था, जहां नीचे के भाग में योगेन्‍द्र कुमार रावल, गांधी शांति प्रतिष्‍ठान लाइब्रेरी का संचालन किया करते थे। बहुत ही सज्‍जन परोपकारी, सबको आगे बढ़ाने वाले नेक इंसान थे रावल साहब। वे नए लिखने वालों को लेकर 'वातायन‘ ले जाते कि इन पर भी तवज्‍जो दी जाए। मुख्‍य संपादक हरीश भादानी तो निहायत शरीफ आदमी। मुस्‍करा देते। मंशा अगला जाने। बाकी के उनकी टीम के मुख्‍य महानुभाव यथा डॉ․ राजानंद, प्रेम बहादुर सक्‍सेना, डॉ․ पूनम इदया उपेक्षा से मुंह फेर कर टाल देते। बाद में रावल साहब बताते कि यह दंभी लोग, अपने सामने किसी को घास नहीं डालते। मुझसे कहते हैं- ओ रावल तुम किन किन नादानों को पकड़ कर ले आते हो। जबकि रावल साहब ने सबसे पहले बीकानेर में पी․एच․डी․ करने वालों का आगे बढ़कर तीन जनों का, गांधी शांति प्रतिष्‍ठान में सम्‍मान किया था कि यह हैं, डॉ․ राजानंद भटनागर, यह हैं डॉ․ पूनम दइया और (शायद) डॉ महावीर दाधीच जिन्‍होंने पी․एच․डी․ करके बीकानेर का नाम रोशन किया है।

ऐसे और भी बहुत से कृघन लोग थे, जिन्‍हें रावल साहब पूरा महत्‍व देते। उनको सम्‍मानित दृष्‍टि से देखते। उनका दूसरों से, परिचय करवाते। और बदले में उन्‍हीं की उपेक्षा का भाजन बनते। (अरे वह रावल है ना। ऐसा करना उसका तो फर्ज बनता हैं; हम नामी गिरामी हस्‍तियों का सम्‍मान करना)

बहुत बाद में श्री (बाद में डाक्‍टर) नंद किशोर आचार्य ने 'चिति‘ नामक बहुत पतली सी अज्ञेयवादी। कला वादी पत्रिका निकाली थी। मुझसे भी एक बार कहानी देने को कहा था तो मैंने कहा था। अभी है नहीं। कहें तो महेशचंद्र जोशी से कोई कहानी दिलवा सकता हूं।

- नहीं।

महेशचन्‍द्र जोशी काफी कुछ लिख/छप चुकने के बाद, आज तक उपेक्षित हैं।

उन दिनों महेशचन्‍द्र जोशी ही के कार्यालय (अभिलेखागार) में एक छोटे कद के, छोटी उम्र के सरदार लेख्‍ाक थे। अपना नाम प्रीतपाल 'विरात‘ लिखा करते थे। लेखक बनने की घुन उनमें भूत की तरह सवार थी। बाल कटवा दिये थे। सिग्रेट पीने लगे थे। मामूली तन्‍ख्‍वाह के बावजूद ढेरों पत्रिकाएं खरीदते। झोलों को दोनों कंधे में लटकाए फिरते थे। सूचनाओं का भंडार थे- खुशखबरी। इस इस नाम की एक और नई पत्रिका निकली है। उसमें फ्‍लाना फ्‍लाना छपा है। महेश चन्‍द्र जोशी ने उस पर 'उधार की जिंदगी‘ शीर्षक से कहानी छपवाई थी। प्रीतपाल शादीशुदा था। बीवी को मैके भेज दिया था कि तेरे होते, मेरे लेखन में बाधा पड़ती है। वह स्‍टेट लाइब्रेरी से पुस्‍तकें चुराते हुए पकड़ा गया था। बड़ी मुश्‍किल से उसकी नौकरी, बच्‍चों का वास्‍ता देकर, उसे पुलिस केस से छुड़वाया गया था। प्रो․ योगेन्‍द्र किसले (अब दिवंगत) प्रीतपाल से नौकर की तरह, काम लिया करते- मेरे ये कागज नवग्रंथ कुटीर पहुंचा आओ। मेरी यह रचनाएं सैयद से टाइप करवा लाओ। प्रीतपाल के बहुत किस्‍से हैं। हिन्‍दुस्‍तान साप्‍ताहिक आदि में भी उसके कुछ अनुवाद छपे थे। लेखन अच्‍छा था। शैली दुरूस्‍त। मगर चल नहीं पाए। इसे मैं उसकी उपेक्षा और भाग्‍य, दोनों को मानता हूं।

अगर प्रीतपाल कह दे। मेरी कहानी 'लोट पाेट‘ में छपी है तो महान लेखकगण मुंह में अंगुलियां दबाकर खीं खीं करते। क्‍या बचकानी कहानियां लिखते हो।

और अगर प्रो․ योगेन्‍द्र किसले कहें कि मेरी एक कहानी 'लोट पोट‘ में छपी है, तो वही महान लेखक इसे बड़ा सीरियसली लेते- अच्‍छा साहब। आप खूब लिखते हैं। बच्‍चों के लेखन पर आपको खूब पकड़ है।

प्रो․ किसले डूंगर कॉलेज में अंग्रेजी पढ़ाते थे। कुछ दंभी किस्‍म के थे। मैं उनसे बात नहीं करता था। बहुत बाद में मेरा कुछ नाम होने पर, और उनके विभागाध्‍यक्ष रावल साहब के साथ मेरे आत्‍मीय संबंधों को देखते हुए उनका मेरे प्रति रवैया कुछ कुछ बदला था। ज्‍़यादा शराब पीने के कारण उनका स्‍वास्‍थ्‍य ढह गया था। तब मुझे अक्‍सर याद कर लिया करते थे। मैं भी उनके निवास पुरानी गिनानी में जाकर उनसे मिल लिया करता था। बाद में उनका निधन हो गया था। प्रीतपाल बाद में ट्रांसफर पर अलवर चले गए थे। उनके जाने से एक बड़ा 'सूचना केन्‍द्र‘ विलुप्‍त हो गया था। प्रीतपाल के यहां रहते हुए, दो बार पंजाबी के सुप्रसिद्ध लेखक हरनामदास सेहराई यहां बीकानेर में अपने बिजनेस के कार्य से आए थे। मोहता धर्मशाला में रूके थे। उनके दो बार बीकानेर आने की मेरे पास बहुत सी यादें हैं। उनका कोई वाक्‍य बिना गंदी गाली के पूरा नहीं होता था। सारे अश्‍लील शब्‍द, उनके होठों पर सजे रहते थे, जिनको हम आज तक जबान पर नहीं ला सकते। और न ही यहां पर लिख सकता हूं। अजीब किस्‍म के सनकी बहके बहके, अश्‍लील गालियों के धनी भी क्‍या एेसे प्रसिद्ध, कोर्स में पढ़ाए जाने वाले लेखक हो सकते हैं; सहज विश्‍वास नहीं होता। उन्‍होंने मुझे कहानियां सुनाने को धर्मशाला में बुलाया था। फौरन चाय मंगवाई थी। चाय वाले छोकरे को गालियां देने लगे थे। छोकरा अकड़ गया था- गाली काढ़ता है ? इस कशमकश में सेहराई साहब से चाय का भरा गलास गिरकर टूट गया था। पर तूने गलास तोड़ा। छोकरे पर बिगड़ने लगे थे।

- तूने तोड़ा। तूने तोड़ा एक दूसरे पर इल्‍जाम और गालियों की बौछार। मालिक आया-हम लेखक हैं।

- कोई बात नहीं। दूसरी चाय भिजवाता हूं।

दूसरी चाय आई तो मुझसे कहने लगे- कहानी सुनाओ। मैंने कहा- पहले चाय तो पी लूं।

- नहीं पहले कहानी सुनाओ।

- चाय ठंडी हो जाएगी।

- ठीक है। चाय पियो। लेकिन फौरन बाद फिर - कहानी सुनाओ। हम ठहरे पुराने अखाड़े के पुराने खिलाड़ी। फिर भी दांव तो बता ही सकते हैं। भ्‍ाले ही इस उम्र में खुद अच्‍छी कहानियां न लिख सकें।

दोनों कहानियों सुनकर उन्‍होंने 'लाजवाब‘ घोषित किया। फिर जोड़ा-तुम बड़े लेखक नहीं बन सकते, क्‍योंकि तुम गालियां नहीं निकाल सकते।

प्रीतपाल से पूछा-कितनी औलाद हैं।

- तीन छोटी छोटी बच्‍चियां।

- तो 'उसे‘ कटवा कर कव्‍वों को खिला दे। लेखन से कोई पैसा नहीं बनता। मेरे पास कार है। बड़ा घर है। जालंधर आ। बेबे (मां यानी सेहराई जी की पत्‍नी) से जो चाहे खाने को मांग। अगर न दे तो मुझसे शिकायत कर। लेखकों के रहने-खाने की मेरी घर में व्‍यवस्‍था है। यह सब मेरे बिजनेस के कारण से हुआ। लेखन से नहीं। तू ढंग से खर्चा कर।

एक दिन मेरे मुंह से निकल गया- सेहराई साहब आज दोपहर का खाना मेरे यहां खा लें।

- खा लेंगे। उन्‍होंने फौरन हामी भर ली। मैं थोड़ा पछताया कि घर पर आकर गालियां ने बकने लगें।

सब्‍जी लेते हुए हम दोनों घर आए थे। श्रीमती जी स्‍कूल गई हुई थीं। माई घर पर चूल्‍हा चौका कर रही थी। उसे भरजाई जी कह कर प्रणाम किया। वे सब्‍जी मंडी से हरे मोंगरे खरीद कर लाए थे। आंगन में चौकड़ी मार कर सिल बट्‌टे पर चटनी पीसने लगे। तभी मिसेस कमला ने ड्‌योढ़ी में आकर साइकिल रखी थी- इशारे से पूछा था- कौन है ?

- पंजाबी के बहुत बड़े लेखक हैं।

कमला ने जाकर उन्‍हें प्रणाम किया तो आशीषें देने लगे। क्‍या मजाल जो इन दो तीन घंटों में उनके मुंह से एक भी अश्‍लील शब्‍द निकला हो।

वे यादवेन्‍द्र शर्मा 'चन्‍द्र‘ के पुराने परिचित थे। उनके यहां भी हो आए थे। अंतरंग वार्ता के दौरान उनके घर भी कोई अश्‍लील वाक्‍य नहीं उगला। मेरे लिए आश्‍चर्य की बात थी। कहने लगे- हमारे पास नकाब है। वक्‍त पर ओढ़ लेते हैं। फिर वक्‍ता पर परे फेंक कर खुलकर जी लेते हैं।

जिस शाम को उन्‍हें जाना था उस शाम को मैं कुछ देर के लिए 'जयहिन्‍द‘ गया था। फिर जल्‍दी उठ खड़ा हुआ तो रामदेवाचार्य जी ने पूछा कि इतनी जल्‍दी ?

मैंने उन्‍हें बताया कि ऐसे ऐसे एक पंजाबी के एक बहुत बड़े लेखक को सी अॉफ करने जाना है। मिलना हो तो चलिए। मेरे साथ प्रीतपाल भी पहुंचेगा।

- चलो। मिल लेते हैं।

- पर एक बात है ज़रा सोच लीजिए। वह आपको गालियां भी दे सकते हैं।

- हें, अच्‍छा। अगर तुम कहते हो कि इतने बड़े लेखक हैं, तो गालियां भी सुन लेंगे।

प्रीतपाल ने लेमन की बोतलें मंगवाईं।

- जुल्‍म है भई जुल्‍म इतना खर्चा क्‍यों करते हो। यह तो गरीब मार हुई। सहराई साहब भावुक हो उठे थे। फिर रामदेव जी से लेखकों के बारे में बात होने लगी तो वे चन्‍द्र जी को महान लेखक घोषित करने लगे। रामदेव जी ने प्रतिवाद किया और तब उनके (सहराई जी के) लेखन स्‍तर की बात भी बाद में मुझ से की थी कि जो आदमी चन्‍द की ऐसी प्रशंसा कर सकता है, वह खुद कैसे बड़ा पारखी लेखक हो सकता है। मैंने सोचा कि खुद रामदेव जी ने भी तो चन्‍द जी की पुस्‍तकों के फ्‍लेप मैटर पर उनके गुणगान गा रखे हैं। यह बातें सहराई जी के सामने नहीं हुई थीं। हां रामदेव जी ने उनसे अमृत प्रीतम के विषय में पूछा था कि उन्‍हें तो जानते होंगे। तब सहराई साहब लहरा उठे थे- अरे अमृता प्रीतम। तब से जब वह इतनी छोटी थी․․․․․․․ और अब․․․․․․․․․․। उन्‍होंने ऐसे ऐसे वाक्‍य उगले थे जिन्‍हें सुनकर रस लेने वालों के मुंह से लार टपकने लगे। पर उस वाक्‍य भंडार को यहां लिख नहीं सकता। हां अगर कोई मेरे पास प्रार्थना लेकर पहुंचे- सहगल साहब हमें बता दो। तो शायद मैं उस पर दयाभाव रखकर बता दूं।

दूसरा, वे सूर्यप्रकाशन के मालिक श्री सूर्य प्रकाश बिस्‍सा से भी काफी देर तक हिल मिल गए थे। बिस्‍सा जी ने उनकी कोई किताब छापने को ली थी या छापने का वायदा किया था। वहां जाने के बाद उन्‍होंने बिस्‍सा जी को कई पत्र लिखे। पर अधिकतर प्रकाशकों की प्रवृत्त्‍ाि, बिस्‍सा जी में भी थी, वही प्रवृति कि उत्त्‍ार नहीं देना। चाहे कोई जिस तरीके से करवटें भंगिमाएं बदल बदल कर आरज़ू करता रहे। उन्‍हें न तो अपने कहे शब्‍दों के प्रति कोई सम्‍मान होगा, न लेखक पर तरस ही आएगा। आगे का सिर्फ एक और उदाहरण भी यहीं कहता चलूं। गुजराती लेखक डॉ․ सुरेन्‍द्र दोशी ने बिस्‍सा जी से अनुमति लेकर उन्‍हें, किसी गुजराती की पुरस्‍कृत पुस्‍तक का अनुवाद करके भेजा था। न तो पुस्‍तक छप रही है। न किसी पत्र का उत्‍तर दिया जा रहा और न लेखक के लाख सिर पटकने पर भी पांडुलिपि ही वापस की जा रही है। डॉ․ सुरेन्‍द्र ने मुझसे सहयोग करने को कहा। दे चक्‍कर पर चक्‍कर जैसे किसी ने मेरा ही धन हड़प रखा हो। मैंने बहुत बहुत लोगों को यह कहते सुना है - हम क्‍यों अपने शहर के आदमी से फालतू में संबंध खराब करें। हमें यहीं रहना है। पर मैं इसे नैतिकता के विरूद्ध मानता हूं और अपने शहर की बदनामी भी मानता हूं। चाहे वह गलत काम किसी के साथ भी क्‍यों न किया गया हो। एक जिज्ञासा भी बनी रहती है कि आखिर एक अच्‍छा मिलनसार, मेरे दुःख सुख में काम आने वाला शख्‍स (बिस्‍सा जी) ऐसा क्‍यों कर रहे हैं ? कभी कोई बहाना तो कभी कोई दूसरा बहाना। कब तक, आखिर ऐसा करेंगे ? कई महीनों के बाद आखिर मैं सुरेन्‍द्र जी की पांडुलिपि वापस भिजवाने में सफल हुआ। आगे चलकर बिस्‍सा जी पर और चर्चा करूंगा। करूणा की मूर्ति थे। तब तंग आकर सहराई जी ने हमें ऐसा कुछ लिख भेजा था जो मैं स्‍व․ बिस्‍सा जी के विषय में लिखना नहीं चाहता। उन दिनों भारत-पाक युद्ध छिड़ा हुआ था। यानी 1971 का जमाना। पहला पाक-भारत युद्ध 1965 में मेरे बीकानेर पहुंचते ही शुरू हुआ था। उस समय मैं साहित्‍य के क्षेत्र में नहीं छपता था। 1967 में जब लिखना/छपना शुरू हुआ तो यही सोचा कहानियां अच्‍छी होंगी, उन उनकी प्रशंसा होगी; उनका नाम होगा। और क्‍या करना है मुझे। यही काफी है। ये गोष्‍ठियां यह भाषण बाजियां, यह अकादमियां क्‍यों बनी हैं। कहा जा सकता है कि यह मेरी बचकानी सोच थी। परंतु आज भी मैं उसी बचकानी सोच को सही मानता हूं कि सिर्फ अच्‍छे सृजनात्‍मक साहित्‍य को ही प्रश्रय मिलना चाहिए। निष्‍पक्ष भाव से। लेकिन मेरे कुछ छोटी उम्र के हितैषी मुझे समझाते हैं। केवल अच्‍छा लिखने से कुछ नहीं होता। साहित्‍य में कुछ पाने, अपना नाम रोशन करने के लिए बहुत से पापड़ बेलने पड़ते हैं। अन्‍याय अन्‍याय के शोर मचाने पड़ते हैं। अपने आपको महान बताने, पुरस्‍कार पाने के लिए साहित्‍य के मठाधीशों के साथ साथ बड़े राजनीतिज्ञों तक की भी हाजि़री भरनी पड़ती है। पुरस्‍कार मिलते नहीं, लिये जाते हैं। वास्‍तव में स्‍पष्‍ट रूप से देखता भी हूं कि जिसको पुरस्‍कार मिलते हैं और और मिलते चले जाते हैं। क्‍या दुनिया की सारी की सारी लियाकत इन्‍हीं महानुभावों में समा गई है। क्‍या ये लोग साहित्‍य के मर्मज्ञ मनीषी हैं ? जो भी हैं, यह तो तय ही है कि पुरस्‍कार/सम्‍मान लेना एक कला है (भले ही मेरे जैसे, इनसे वंचित लोग इसे एक घटिया कला या चालबाजी या चापलूसी क्‍यों न कहें)

मैं सोचता हूं ऐसे पुरस्‍कार/सम्‍मान पाने वालों की क्‍या कोई आत्‍मा नहीं होती। वह आत्‍मा उन्‍हें कचौटती नहीं होगी कि यह सब उन्‍होंने कैसे हासिल किया। दूसरे लोग भी जानते हैं किन्‍तु स्‍वयं उनसे बेहतर कौन जानता होगा। तब क्‍या वे अपनी नजरों से स्‍वयं नहीं गिर जाते ?

मगर नहीं फिर यह चस्‍का, आदत में बदल जाता है। लिखना कम। पुरस्‍कारों पर पूरी मुस्‍तैदी से गिद्ध दृष्‍टि। आगे ऐसे ही भाषण बाज, पुरस्‍कार दिलवाने वाली कमेटियों (कंपनियों) के मेम्‍बर बन जाते हैं। चयन समितियों में भी वही होते हैं कि अमुक अमुक समारोहों में किस किस को बुलाकर उन पर उपकार करना हैं, ताकि बाद में वही उनको उपकृत करें। इस किस्‍म का आदान प्रदान निरंतर गति पकड़े रहता है। लिखना कम, सैकड़ों संस्‍थाओं की मैम्‍बरशिप के सहारे, मौलिक लिखने, अच्‍छा लिखने वालों को अपने इशारों पर नचाना चाहते हैं। ''फौरन आज ही की गाड़ी से बिना रिजर्वेशन (भी) बैठकर हमारे शहर पहुंच जाओ।‘‘ मेरे जैसों को हुक्‍म उदूली की सजा। हमेशा के लिए उनकी उपेक्षा का शिकार।

हमें यह तो खुशी खुशी स्‍वीकार है, किन्‍तु किसी की कठपुतली बनना स्‍वीकार नहीं। तुम्‍हें (इस प्रकार के तमाम उठक पटक करने वाले, अचूक अवसर वादियों को अध्‍यक्षों को) तेरा घर मुबारिक। हम अपने घर में राज़ी।

एक बार उदयपुर अकादमी से शाम को टेलिग्राम आया था- कल यहां कमलेश्‍वर जी की अध्‍यक्षता में कोई कार्यक्रम होगा। आपके रहने की व्‍यवस्‍था फ्‍लाने होटल में है।

मैंने जवाब दिया जिस दिन हमें घर से निकाल दिया जाएगा, आपके होटल में आकर रह लेंगे। हाय यह शार्ट नोटिस, फरमान आदेश है या अल्‍टीमेटम। या बड़ी चालाकी कि अगला इतनी जल्‍दी तैयार होकर पहुंच ही न पाए। फिर भी कुछ लोग तुरत फुरत पहुंच जाते हैं।

जुलाई 2000 के अंतिम दिनों, बाल कल्‍याण संस्‍थान, कानपुर के डॉ․ राष्‍ट्र बंधु जी ने लिखा कि आपका सम्‍मान फर्रूखाबाद में होना है। मैंने मना कर दिया फिर तकाजा। फिर किसी दूसरे से कहलवाया। पहुंचो। फिर फोन। कुछ पैसे भी देंगे।

तब मैंने उनसे कहा- इतना लंबा सफर। अकेले, गाड़ी में बैठे हुए, अगर कोई मुझसे पूछेगा कि कहां जा रहे हैं, तो क्‍या उत्त्‍ार दूंगा। अपना सम्‍मान करवाने जा रहा हूं। तब उन्‍होंने कहा बेशक किसी साहित्‍यिक नहीं तो गैर साहित्‍यिक को साथ लेते आओ। उसका भी किराया दे देंगे।

सुभाष ब्रिगेड के भदौरिया साहब के कानपुर से भी पत्र आ रहे थे। सबसे बढ़कर मेरे मन की चाह, डॉ लक्ष्‍मी सहगल के पांव छूने की थी। सो बीकानेर के श्री बुलाकी शर्मा को साथ लेकर चल पड़ा। पहले कानपुर उतरा। भदारिया जी के यहां ठहरा। फिर अपाइंटमेंट लेकर, मैं और बुलाकी जी बड़ी मुश्‍किल से शाम को डॉ लक्ष्‍मी सहगल जी के निवास पहुंचे। आश्‍चर्य कि रास्‍ते में कोई उनके ठिकाने, उनके नाम से परिचित नहीं था। फिर सहसा मेरे मुंह से सुभाषनी अली का नाम निकला। राजनीति में सक्रिय होने से उन्‍हें लोग बाग जानते थे। पर कैप्‍टन लक्ष्‍मी सहगल को नहीं। मन को ठेस लगी कि जिन्‍होंने आज़ादी की जंग में गोलियां तक चलाईं। कितने कितने कष्‍ट सहे नेता जी सुभाषचन्‍द्र बोस की फौज में कैप्‍टिन रहीं। उस महान हस्‍ती को लोगों ने हाशिए पर रख छोड़ा है। एक कुशल चिकित्‍सक के रूप में ही लोग बाग उनसे आठ रूपए में इलाज करवाने जाते हैं। वे नवयुवकों की, असमर्थों की सहायता करती हैं। उनका मार्गदर्शन करती हैं। महिला उत्‍थान के प्रति समर्पित हैं। उस समय वे 85वें साल में भी सुन्‍दर दिखती थीं। सक्रिय।

मैं उनके चरणों में झुका तो झुका ही रह गया। उन्‍होंने मुझे ऊपर किया- यह आप क्‍या कर रहे हैं ?

- अपने मन की साध पूरी कर रहा हूं। इससे मुझे वंचित न करें। मैंने आपके विषय में बहुत कुछ बार बार पढ़ा है। कहते कहते मेरी आंखे डबडबा आईं।

कुछ फोटोग्राफ लिये पर कैमरा धोखा दे गया। बातचीत के अंशों को श्री बुलाकी शर्मा ने नोट किया। बाद में इस संस्‍मरण को मैंने दो तीन जगह छपवाया।

फरूर्खाबाद में भव्‍य स्‍वागत हुआ। तीन चार बैठकें चलीं। मैं मंच पर था। एक साधारण कपड़ों में कोई सज्‍जन, इतना विद्वतापूर्ण प्रभावशाली भाषण दे रहे थे कि मैं अभिभूत हो उठा। मंच से उतर कर उनके पांव छुए। उन्‍हें मंच पर बैठाने का यत्‍न किया।

मेरे यह सब कहने का तात्‍पर्य यह है कि हर कहीं बल्‍कि छोटी छोटी जगहों पर भी अनूठी, ज्ञानी प्रतिभाओं की कमी नहीं है। पर लाइट में आने का अवसर तो बिरलों को ही मिल पाता है। वापस दोहराना चाहूंगा कि दोयम दर्जे वाले ही अधिकतर, ज्‍़यादा बाज़ी मार ले जाते हैं। ये दंभी लोग ही सब प्रतिभाशालियों के भाग्‍य-विधाता बन बैठते हैं।

पिछले साल मेरे, हितैषी छोटे मित्र रवि पुरोहित के यत्‍न से, िबना मुझे बताए, राज․सा․ अकादमी उदयपुर ने मेरा मोनोग्राम जारी कराया तो उसका खूब खूब प्रचार हुआ। कुछ लोग तो हैरान भी हुए कि अब (85वां) नम्‍बर आपका आ रहा है। हम तो समझते थेे आपका मोनोग्राम कब का छप चुका होगा। चलो भले ही 85वां है पर हम इसे नंबर वन मानते हैं। दिल्‍ली के एक दोस्‍त कमल चोपड़ा ने लिखा-अरे आपने इतना काम कर लिया है ? यहां दिल्‍ली में तो दो चार कहानियां, 7-9 कविताएं लिखकर लोग बाग स्‍टार बने बैठे हैं

अपने आप जो काम या उपलब्‍धि मिलती है; अच्‍छी भी, वही लगती है। संतोष देने वाली। मुम्‍बई से सुश्री विभारानी की नाटक पुरस्‍कार के लिए प्रविष्‍टि हेतु विज्ञप्‍ति पढ़ी। मैंने वैसे ही 70 एक पेज का नाटक 'घुमावदार रास्‍ते‘ लिख छोड़ा था। कार्बन कापी रद्‌दी में डाल दी थी। वही कार्बन कापी साधारण डाक से अरसाल कर दी। द्वितीय पुरस्‍कार के लिए मुम्‍बई से बुलावा आ गया। प्रायः हर रोज विभाजी का फोन कि आपको आना अवश्‍य है। आपका यहां और कोई जान पहचान का है। वैसे हम आपके रूकने की व्‍यवस्‍था किसी होटल में कर रहे हैं।

- मैं श्रीमती जी को साथ लाऊंगा।

- स्‍वागत है। (यह तो स्‍पष्‍ट था ही कि आने जाने का ए सी द्वितीय का किराया तो मुझे ही देय था।)

एक दिन फोन आया तो मैंने पूछ लिया कि क्‍या आप सीमा अनिल सहगल को जानती हैं

- हां क्‍यों नहीं। वे तो अंतर्राष्‍ट्रीय स्‍तर वाली गायिका हैं। फोन नंबर भी मिल जाएगा। देखती हूं।

सीमा सहगल जी से जान-पहचान कैसे हुई थी। बताता हूं। एक बार सीमाजी को आकाशवाणी बीकानेर वालों ने किसी भव्‍य आयोजन में बुलाया था। वे मेरे नाम से परिचित थीं। मैंने उन्‍हें अपना नया छपा कहानी संग्रह मर्यादित भेंट किया था और उन्‍होंने मुझे अपनी मीर और फैज़ की गाई कैसिट 'टुकड़ा टुकड़ा दिल‘ भेंट की थी। फिर ज्‍यादातर स्‍क्‌वैड्रन लीडर अनिल सहगल जी के पत्र ग्रीटिंग्‍ज भी आने शुरू हुए थे। अनिल जी भी संगीतकार फिल्‍म टी․वी․ वगैरह में बड़ी हस्‍ती हैं। अब हर दिन इन दोनों के फोन भी आने लगे- बधाई हो। किसी बात की चिंता मत कीजिएगा। सारा बम्‍बई घुमाऊंगा। बेटे कीर्तिकेय को बंगलोर जाना है। आपकी खातिर रूक गया है।

कमलाल है इतनी मुहब्‍बत। हमारे यहां सीमाजी छह सात घंटे ही रूकी थीं। हमने उनके मुंह से गाने सुने थे। बाजार घुमाया था। कपड़े आदि खरीदवाए थे। भेंट स्‍वरूप अचार वगैरह दिये थे। यह बात उन्‍होंने कमला से अवश्‍य कही थी कि जो प्‍यार स्‍नेह मुझे आप सबसे मिला है, वह मुझे अपने रिश्‍तेदारों से कभी नहीं मिला। हां श्री बुलाकी शर्मा ने उनका साक्षात्‍कार सचित्र राजस्‍थान पत्रिका में छपवाया था।

हमने तो सीमाजी को थोड़ा सा बीकानेर दिखाया था; उन्‍होंने हमें इतना बड़ा मुम्‍बई दिखा दिया। गेट वे अॉफ इंडिया। समुद्री जहाज में सफर और न जाने क्‍या क्‍या। बहुत आलीशान ओपन होटलों से नाश्‍ता-खाना। वे दोनों हमें स्‍टेशन पर रसीव करने आए थे। बड़े होटल में विभाजी की ओर से ठहराया, जहां सारी सुविधाएं, खाना नाश्‍ता फोन कालें फ्री। फिर भी एक एक बार उनके और दूसरी बार विभाजी के यहां, खाना खाया। इन सब ऐशों, अपनत्‍व के सामने पुरस्‍कार तो नगण्‍य होकर रह गया था। ओह कितनी कितनी दूरी अनिल जी ने कार से जगह जगह नाम पूछ पूछ कर तय की थी। तब हम कहीं मुश्‍किल से आडियो किंग सर्किल माटुंगा की बहुत बड़ी बिल्‍डिंग में पहुंचे थे। उस एक बिल्‍डिंग में कई कई हाल, विभिन्‍न संस्‍थाओं द्वारा बुक थे कि देखकर हैरानी हुई।

एक हाल में इप्‍टा वालों का कार्यक्रम चल रहा था। विभाजी के लिए मात्र पोन घंटा निर्धारित था। पुरस्‍कार मुझे विश्‍व सुप्रसिद्ध नाट्‌यकला के मर्मज्ञ श्री जयदेव हटगंडी द्वारा दिया गया था और भी बड़ी हस्‍तियां थीं (सबके नाम फाइलों में मौजूद हैं) लेकिन विभाजी यह अवितोको संस्‍था ज्‍यादा समय चला नहीं पाई थीं। मैं यही बताना चाहता हूं और मेरे कहे का समर्थन, अनिलजी ने भी किया था कि किसी दूसरे के सहारे ज्‍यादा दूरी तक नहीं चला जा सकता। विभाजी 'इप्‍टा‘ के सहारे चल रही थीं। हां मेरा नाटक 'घुमावदार रास्‍ते‘ विभाजी ने वाणी प्रकाशन से प्रकाशित करवाया था।

अगर कोई यह सोचे कि यह सहगल सहगल होने के नाते था तो एकदम गलत हुआ। मुझे दूसरे ज्‍यादातर सहगल बहुत घटिया किस्‍म के मिले हैं। फिर मैं और कमला लगभग 36 घंटों के लिए श्रीमती मालती शर्मा के यहां पूना (पुणे) चले गए थे। वहां मैं डॉ पद्‌माकर वि․ जोशी जी से भी मिला था जिन्‍होंने मेरे उपन्‍यास 'टूटी हुई जमीन‘ का मराठी अनुवाद कर किसी प्रकाशक को दे रखा था, जो आज तक नहीं छपा। हो सकता है, प्रकाशक को दिया ही न हो, प्रकाशक का अडै्रस उन्‍होंने कई बार पूछने पर, नहीं बताया था। तीन एक साल के पत्र व्‍यवहार की बड़ी फाइल आज भी मेरे पास मौजूद है। बड़ी चालाकी से उन्‍होंने मुझसे बहुत सी पुस्‍तकें झपट ली थीं। इन्‍हीं दिनों मालती जी का पत्र आया है कि इतने निष्‍कपट मनुष्‍य को उन्‍होंने क्‍यों छला, समझ से बाहर है। सोचता हूं, यदि साहित्‍य की दुनिया में पूरी तरह ईमानदारी होती तो इसकी तस्‍वीर, आम लोगों के सामने मिसाल जैसी होती। खैर․․․․․।

हां तो मालती जी ने अपने घर वहां की अपनी सहेली लेखिकाओं को घर बुलवा लिया था। सभी ने मुझे अपनी अपनी पुस्‍तक भेंट की थी। हां अनिल सहगल ने अपनी अंग्रेजी की बड़ी संपादित बड़ी पुस्‍तक जो 'अली सरदार जाफरी पर केन्‍द्रित ही थी‘ मुझे दी थी जिसे अंग्रेजी में होते हुए भी ज्ञानपीठ ने छापा है। जाफ़री साहब से उनके घरेलू संबंध हैं। जब जब दोनों विदेशों में कई कई महीनों के कार्यक्रमों में जाते हैं, बच्‍चों को जाफ़री साहब के यहां ही छोड़ जाते हैं। हम दोनों को भी श्रीमती जाफ़री से उनके घर ले जाकर मिलवाया था। उस वक्‍त जाफरी साहब इस दुनिया से विदा हो चुके थे। मैं कुछ देर तक उनके बड़े चित्र के सम्‍मुख नत मस्‍तिष्‍क होकर खड़ा रहा था। सीमाजी की उनकी गजलों पर एक कैसिट भी है।

पूना से मुम्‍बई वापस आने पर स्‍टेशन पर दोनों न जाने कितनी कितनी फ्‍फ्‍टिस हमें दी थीं। और तरह तरह के लज़ीज़ खाने बनाकर आए थे। तब बेटा कीर्तिकेय बंगलोर गया था। पवतीर् बेटी को आजकल स्‍टार प्‍लस टी․वी․ चैनल पर 'कोमल‘ के रूप में देखा जा सकता है। अब वह पूना में किसी फिल्‍म में काम कर रही है।

यदि मैं अपने को मिले, छोटे बड़े पुरस्‍कारों/सम्‍मानों की गिनती करूं (जिनमें से कुछ बहुत से बहुत साधारण हैं) की, कुल संख्‍या 18 बनती हैं, जो मुझे 43 सालों की साहित्‍यिक यात्रा के दौरान मिले हैं। रूसी दूतावास ने मुझे डिप्‍लोमा लेने के लिए अपने यहां बुलाया था किन्‍तु मैंने विनम्रतापूर्वक मना करते हुए डिप्‍लोमा को डाक से मंगवा लिया था। मेरे सामने सच्‍चाई भी यही है कि पुरस्‍कार से अधिक महत्‍वपूर्ण लेख्‍ान ही का हुआ करता है। इसके बावजूद न जाने क्‍यों साधारणों को पुरस्‍कारों की बाजी मारते देख थोड़ी सी खीज, तकलीफ भी होती है।

या तो पुरस्‍कार कमेटी में कोई निष्‍पक्ष बैठा हो या कोई खासमखास। मुझे एक पुरस्‍कार मिलते देखकर, सहसा मेरे बड़े भाई साहब के मंुंह से एक बार निकला था- तो वहां पर ईमानदारी है।

एक बार जब से․रा․ यात्री हमारे पास बीकानेर आकर ठहरे हुए थे तो उत्त्‍ारप्रदेश अकादमी द्वारा उनको पुरस्‍कार स्‍वरूप 51 हजार रूपए मिलने की खबर मिली थी तो अपने लिए यात्री जी के मुंह पर यही शब्‍द निकल आए थे- ''जरूर वहां पर मेरा कोई खास आदमी कमेटी में रहा होगा।‘‘

हां, डॉ․ प्रकाश आतुर तत्‍कालीन अध्‍यक्ष राज․ साहित्‍य अकादमी को आज तक सभी लोग अत्‍यंत आदर के साथ याद करते हैं उनका कार्यकाल श्रेष्‍ठ माना जाता है। डॉ आुर अत्‍यंत संवेदनशील कार्यनिपुण और निष्‍पक्ष व्‍यक्‍ति थे। मैं भी उन्‍हें हमेशा याद करता हूं जिन्‍होंने मुझे खास न जानते हुए भी 'सफेद पंखों की उड़ान‘ उपन्‍यास को रांगेय राघव पुरस्‍कार हेतु, मेरी सहमति मात्र लेकर, शामिल कर लिया था। और वह उपन्‍यास वास्‍तव में पुरस्‍कृत भी घोषित हुआ था। यह 1986/87 की बात है। इसके बाद कितना लिख लेने के बाद वहां से कुछ नहीं मिला जबकि ओवररूल कर करके लोग बाग धन्‍य होते रहे। से․रा․ यात्री कहा करते हैं जब इन लोगों को बिना कुछ किए/लिखे सब कुछ मिल रहा है तब ये लोग लिखने की मशक्‍कत क्‍यों करें। अपने से छोटी उम्र वाले मेरे सामने कई मित्र मौजूद हैं, जिन्‍होंने पहले अच्‍छा लिखा। बाद में साहित्‍य की राजनीति में पड़कर महान बन गए। मौलिक लेखन शून्‍य होता चला गया। लोग बाग उन्‍हीं की हाजिरी भरते हैं कि शायद उन्‍हें भी कुछ दिलवा दें। सबके अपने अपने रास्‍ते हैं। सभी ऐसे रास्‍तों पर चलने की चतुराई और क्षमता नहीं रख सकते। इन सारी बातों को भी प्रकृतिजन्‍य मानता हूं। आजकल की एकदम युवा पीढ़ी भाषण देने और अपने वरिष्‍ठों को समझाने/बताने में महारत रखती है। बहुत बहुत बाद में मुझे मंच से थोड़ा थोड़ा बोलना आया था। आज भी अच्‍छा वक्‍ता कहां माना जाता हूं। इन्‍श्‍योरेंस कंपनी वालों ने हिन्‍दी कार्यशाला का उद्‌घाटन करने हेतु मुझे बुलाया तो इस तरह के हिन्‍दी दिवसों, सप्‍ताह, पखवाड़ों और हिन्‍दी पर रटे रटाए पाठो/भाषणों का मज़ाक सा उड़ा आया। इस पर हास्‍य संस्‍मरण लिखा था- हिन्‍दी की अंग्रेजी में घुसपैठ। इन्‍कम टैक्‍स वालों ने बुलाया था तो वहां के भ्रष्‍टाचार पर टिप्‍पणी झोंक आया। किसी ने कहीं कहा- आप बहुत लंबा बोलते हैं (आउट)। ऐसे में दुबारा कैसे बुलाया जा सकता हूं। जिनका इस क्षेत्र में बोलबाला है उनके निवासों में, स्‍मृति चिह्‌नों की भरमार है। वे लोग नए से नए अनाड़ी लिखाड़ी की तुलना मोपॉसा टैगोर ओ हेनरी जैसों से करके उन्‍हें यश लुटाते हैं। उससे अधिक स्‍वयं यश लूटते हैं। इससे सबसे बड़ा लाभ समाजवाद (?) की उत्‍कृष्‍ट अवधारणा को मिलता है, जहां श्रेष्‍ठ द्वतीय और निम्‍न श्रेणियां, लोकन स्‍तर पर समाप्‍त हो जाती हैं। यहां के सभी साहित्‍यकार, बस एक ही साहित्‍यकार श्रेणी के होकर रह जाते हैं। 'हम भी किसी से कम नहीं‘ का ऐसा प्रचलन उन्‍हें कहीं वास्‍तविक स्‍तर पर आगे नहीं बढ़ने देता। यहां बीकानेर में उस जमाने में जब प्रीतपाल विरात साहब यहां पर थे उन्‍होंने एल․पी․ शब्‍द का आविष्‍कार किया था जो कमोबेश आज तक घिसटता हुआ चला आ रहा है। एल․पी․ माने, 'लोकल प्रतिभा‘, जिन्‍हें बीकानेर के आउटर सिगनल से आगे कोई नहीं जानता।

गोष्‍ठी में शिरकत करना, वहां पर कुछ न कुछ, थोड़ा ही सही, बोल आना, संभव बने तो जरा हाथ पैर मार कर फोटो भ्‍ाी खिंचवा आना, दूसरे रेाज लोकल पेपरों में अपना नाम पढ़ना ही यहां कई लोगों का शगल पासटाइम है। जिस दिन सबब से कोई भी गोष्‍ठी न हो, ये महानुभाव बोर हो उठते हैं। वरना एक दूसरे से पूछते रहते हैं- आज कहां कहां जाना है। दरअसल बीकानेर एक गोष्‍ठियों से लबरेज शहर है। ऐसे माहौल का कभी कभी मैं भी लुत्‍फ उठा आता हूं। मित्रों से मिलने पर खासी खुशी हासिल होती है। सौहार्दपूर्ण वातावरण होता है। लगभग सभी मेरी इज्‍़ज़त करते हैं।

अध्‍यक्षता, मुख्‍य अतिथि, वरिष्‍ठ अतिथि बनने की होड़। कइयों को तो इसका ठेका नसीब है। वे इसी में गद्‌गद्‌ हैं। उधर सुनता हूं कि विदेशों में अध्‍यक्षता आदि करने के लिए बड़ी हस्‍तियां काफी पैसा लेती हैं।

एक बार आकाशवाणी वालों ने मुझे अपने समारोह में अध्‍यक्षता करने को बुलाया था। जब मैं पहुंचा तो आयोजक का मुंह थोड़ा उतरा हुअा शर्मसार था। कहने लगा हमारा कोई मुकेश शर्मा, स्‍वामी सोमगिरी जी महाराज को अध्‍यक्षता करने का निमंत्रण दे आया है। आप अब मुख्‍य अतिथि होंगे। मैंने उसके कंधे थपथपाए और हंसा- तुम मुझे निकृष्‍ट अतिथि बना दो तो भी कोई फर्क पड़ने वाला नहीं है। मुझे जो कहना बोलना होगा, वही बोलूं/बता दूंगा। मुझे तो सच आज तक भी पता नहीं कि अध्‍यक्ष बड़ा होता है या मुख्‍य, विशिष्‍ट अतिथि। हम सब यहीं के हैं। अतिथि नहीं। फिर सोमगिरी जी तो लालेश्‍वर मंदिर के सर्वोसर्वा संत महात्‍मा ज्ञानी हैं। उनकी हर विषय में अपार दक्षता है।

यह बात बिलकुल सही भी है कि स्‍वामी जी बहुत बड़े ज्ञानी और कुशल वक्‍ता है। मंदिर में और पूरे शहर में उनके भक्‍तों की बहुत बड़ी भीड़ है। परन्‍तु वे बड़ी उदारता से दुकानों आदि तक का शुभारंभ करने तक बुलाने पर अपने चिर परिचित भगवे वस्‍त्र धारण किए पहुंच जाते हैं।

इसके साथ मुझे एक मार्मिक घटना की याद हो आई है। भीलवाड़ा में एक बाल रचनाकार समारोह में एक ऐसे ही भगवा वस्‍त्रधारी मंच पर आ बैठे थे। तब देश के सुप्रसिद्ध बाल साहित्‍य के अधिष्‍ठाता (कानपुर के) डॉ राष्‍ट्र बंधु सहसा बिना कुछ समझे सोचे तैश में आ गए। और उन संतजी की ऐसी तैसी करनी शुरू कर दी- महाराज जाकर मंदिर में पूजा पाठ कीजिए। यहां पर आपका क्‍या काम। यह साहित्‍यिक कार्यक्रम है․․․․․․। बड़ी मुश्‍किल से वहां के आयोजकों ने उन्‍हें शांत किया कि हम इन्‍हें बड़े आग्रह के साथ ससम्‍मान बुलाकर लाए हैं। इन्‍हीं के सािन्‍नध्‍य में समारोह होना है।

अंत में जब स्‍वामी जी ने अपना वक्‍तव्‍य प्रसारित किया तो वास्‍तव में मैं दंग रह गया। इतना बड़ा साहित्‍य-ज्ञान जैसे कूट कूट कर उनमें भरा हुआ था। स्‍पष्‍ट बेबाक सहज समझ में आने वाले भाषण कम ही सुनने को मिलते हैं।

तब मेरे दिमाग में एक विचार कौंधा कि काश यहां पर स्‍वामी जी भगवे कपड़ों में न आए होते․․․․․․․․।

अब फिर से साहित्‍य के उन्‍हीं शुरूआती दिनों की ओर लौअता हूं। 1967-70 के और भी आगे के वर्षों में। मेरे दो बड़े बच्‍चे, अपने पांव से चलने लायक हो गए थे। दो अभी गोदी के थे। मैं पूरे परिवार के लिए फर्स्‍ट क्‍लास का पूरा कैबिन बुक करा लेता और बराबर गाजियाबाद के चक्‍कर काटता रहता। जहां अपने भाइयों बहनों थोड़ा ससुरालियों से मिलने का उत्‍साह होता। अब मुझे अपने साहित्‍यिक मित्रों से मिलने का और ज्‍़यादा होने लगा था।

सोमेश्‍वर, सुदश्‍ार्न महाजन, किसलय बंधोपाध्‍याय कभी कभी धन्‍जय सिंह और एक खास नाम भूल रहा हूं, टोलियां बनाकर मुझे कभी इस घर तो कभी उस घर, कभी बाजार किसी रेस्‍टोरेंट में ले जाते। कभी कभी लंबी दूरी नापकर हिंडोन नदी तक की यात्रा करा लाते थे। जीवन के वे साहित्‍यिक दिन कभी भूले नहीं भूलते।

हां एक बात और ये सब लोग कॉलेज स्‍टूडेंट थे। स्‍टूडेंट इसलिए थे क्‍योंकि निकम्‍मे, तिस पर कहानियां भी लिखा करते थे। इसलिए उनके माता-पिता की नजरों में ये आवारा थे। फालतू काम करते थे।

लेकिन जब मैं उनके घर बना-ठना, जाने लगा तो इन लड़कों ने मुझे बताया कि आपके हमारे यहां आने से हमारी इज्‍़ज़त बढ़ गई है। हमारे घर वाले सोचने लगे हैं, जब कोई ऊंचे पद वाला लड़का हमारे लौंडों से दोस्‍ती रखता है तो यह कहानियां लिखकर कुछ गलत नहीं कर रहे।

एक बार सुदर्शन महाजन ने मुझसे बड़ी गंभीरता से पूछा (अक्‍सर ये लोग महान चिंतकों वाली गंभीरता) अपने चेहरे पर ओढ़ लिया करते थे और बड़े बड़े नामी लेखकों के आशय मंतव्‍यों वक्‍तव्‍यों की मीमांसा विद्वतापूर्ण ढंग से किया करते थे) -क्‍या आप से․रा․ यात्री से मिलन चाहेंगे।

- क्‍यों नहीं। मैं तो उन्‍हें खूब पढ़ता हूं। खासकर जब पते में गाजियाबाद लिखा होता है तो खुशी हेाती है कि गाजियाबाद के हैं। पर आज तक किसी भी लेखक के यहां गया नहीं। यह तो आप अपने महल्‍ले आर्य नगर के निकले तो संकोच के साथ मुलाकात कर ली।

अब यात्री जी पहले वाले पते पर नहीं रहते थे। हम लोग यात्री जी को कवि नगर जाकर मिले। उन्‍होंने मेरा परिचय करवाया। यात्री जी ने मेरी एकाध कहानी पढ़ रखी थी। वह ज़माना, लेखक का, लेखक पर नोटिस लेने वाला था। नयों को भी, पुराने, बड़े चाव से पढ़ते थे। फिर एक बार इन सबने डॉ महीद सिंह को बुलाया कि आप कृपया यहां आ जाएं। फिर हम यात्री जी को साथ लेकर हापुड़ सुदर्शन नारंग, अशोक अग्रवाल के पास चलेंगे।

डॉ महीप सिंह आ नहीं पाए थे। मैं, यात्री जी, सुदर्शन महाजन, सोमेश्‍वर हापुड़ जा पहुंचे थे। सबसे पहले इन लोगों ने किसी शराब की दुकान पर झपट्‌टा मारा था। फिर थोड़ी ही देर बाद कहने लगे- पूरा मज़ा नहीं आया जो मज़ा ठर्रे में हैं, वह शराब में नहीं। फिर इन्‍होंने कुल्‍ड़ों में ठेके से शराब-जाम टकराए थे। साथ सिग्रेट भी फूंक रहे थे।

सुदर्शन नारंग ने मुझसे कहा था- आप सिग्रेट नहीं पीते, शराब नहीं लेते तो आप लेखक कैसे हो गए ?

मैंने कहा यह बात आप कभी मेरा इन्‍टरव्‍यू लेने आएं तब पूछिइएगा। अगर कोई शराब, सिग्रेट पीने से ही लेखक बनने लगे तो सभी शराब पी पी कर लेखक बना जाएं।

सुदर्शन नारंग के यहां हमारी खूब आवभगत हुई। खाना वाना चाय। शाम/रात तक हम गाजि़याबाद वापस। एक दो बार इन लोगों ने मुझे दिल्‍ली कनॉट प्‍लेस, टी आउस रैम्‍बल ओपन होटल भी घुमाया था, जहां काले गोरे विदेशी भी बैठे हुए थे। महंगा था सो हमने मात्र एक एक लेमन पी थी।

वहीं इन इलाकों के पास और टी हाउस में इन्‍होंने मुझे दिखाया था कि यह जो रेलिंग लांघ रहा है ना! मुद्रा राक्षस है। ये हर रोज़ आने वाले विष्‍णु प्रभाकर हैं। ये यह हैं। जैसे लेखक नहीं जन्‍तुघर में कोई दुर्लभ प्रजाति के पशु पक्षी दिखा रहे थे। वास्‍तव में हमने उनसे कोई बात नहीं की थी। मानो इन हस्‍तियों से बात करना संभव ही नहीं होती। हां वे मुझे इनके लेखकों के जानवरी किस्‍से भी बता रहे थे कि बाज़ोकात, यहां पर यह लोग हाथापाई तक उतर आते हैं। ऐसी कुछ बातों की फुसफुसाहट बीकानेर भी होती थी और यह भी कहा जाता था कि यह सब 'लेखकों‘ को शोभा नहीं देता। मगर लेखक तो लेखक ठहरे। उनसे जितने बड़े उदार दिल की अपेक्षा की जाती है, प्रायः समय कुसमय, एक दूसरे से महान दिखने दिखाने के चक्‍कर में ऐसी महानता चुटकियों में ही तिरोहित हो जाती हैं। यहां बीकानेर में सुनने में आया था कि यहां बीकानेर में भी बहसें मनमुटाव फिर लंबे समय तक अबोलापन हो जाता था। 'मैंने इतिहास रचा है‘। अब अगर वैसा माहौल बने तो, मैं भी यह दावा कर सकता हूं कि बच्‍चों की रेत पर पहली कविता 'बीकानेरी रेत‘ मैंने ही जनसत्त्‍ाा 06 जुलाई 2003, चकमक जून 2005, पंजाब सौरभ फरवरी 2006 में छपवाई थी। 'रेत के समुद्र में बसा टापू बीकानेर‘ शब्‍द मैंने ही 'नई कहानियां‘ इलाहाबाद मार्च 1970 के 'कथा नगर‘ का शीर्षक बनाया था, जो लगातार आज तक प्रचलन में आम है। पर इस पर मेरा कभी किसी से विवाद नहीं हुआ।

फिर क्‍या था। वक्‍त थोड़ा आगे बढ़ा ये लड़के-लेख्‍ाक टीचर बन गए। सुदर्शन बैंक कर्मचारी होकर बाहर दूरदराज के किसी कसबे में चला गया। बंधोपाध्‍याय किसी प्रैस का प्रूफ रीडर वगैरह बन गया। बाद में लगभग ऐसा ही भविष्‍य बीकानेर के उस समय के युवा लेखकों का होते, मैंने देखा था। 'अजय‘ यानी अब्‍दलु गफूर टीचर से इनकम टैक्‍स क्‍लर्क और फिर छलांग लगाकर मजिस्‍ट्रेट बन गया। शशिकांत गोस्‍वामी बाकियों के मुकाबले बेहतर लिखता था। अच्‍छी जगहों छपा भी। वह इन्‍कम टैक्‍स क्‍लर्क बन गया। भारत गोस्‍वामी किसी सरकारी महकमे में सलैक्‍ट हो गया। वह हनुमानगढ़ (राजस्‍थान) जाने से डरता था। छह महीने, साल भर अप्रोच लड़ाता रहा। फिर बीकानेर में ही लग गया। यहां के अधिकांश निवासी 'आधी घर की चंगी‘ यानी बीकानेर छोड़कर कहीं बाहर नहीं जाना वाले सिद्धांत को मानने वाले हैं, भले ही तरक्‍की न मिले। ऐसों की लिस्‍ट में मेरे खास मित्र बुलाकी शर्मा का नाम भी लिखा जा सकता है। लैक्‍चररशिप त्‍याग दी, अकाउंटेंसी मंजूर। बाद में थोड़ी तरक्‍की (प्रमोशन) मिली तो बीकानेर ही में बने रहे। मेरे लिए ऐसे मित्रों का बीकानेर बने रहना अच्‍छा रहा। पर, अशोक आश्रेय जयपुर से भी संबंधित थे; वह जयपुर चले गए, यह अखरा था। लेखन के चक्‍कर में वे बी․एस․सी․ भी न कर पाए थे। पर अपने लेखन में जैसी पहले उत्‍कृष्‍टता प्राप्‍त की थी, आगे न बढ़ पाई। वे पत्रकार बन गए। तत्‍कालीन समालोचक प्रो․ रामदेव आचार्य इन गोस्‍वामियों के विषय में कहा करते थे कि यह सब लोग चार पांच ही अच्‍छी कहानियां लिख पाते हैं। फिर बस। इनमें खास नाम पूणेन्‍दु गोस्‍वामी का भी लिया जाना चाहिए। वे अंग्रेजी के लैक्‍चरर (बीकानेर) में बने। ज्‍़यादा वर्ष न जिये।

इन सारे गोस्‍वामी बंधुओं के खासमखास मित्र अरविंद ओझा थे जो प्रायः हर रोज़ ही कुछ सुनने सुनाने गोस्‍वामी चौक चले जाया करते थे। उनकी श्रीमती जी सुशीला ओझा अब भी एम․एस․ कॉलेज, बीकानेर में अंग्रेजी पढ़ाती हैं। उन्‍होंने तब के अरविंद क्‍लर्क से शादी की थी। उन्‍होंने अरविंद के लेखन की बहुत कद्र की। उन्‍हें आगे बढ़ाने में पूरा सहयोग दिया। उनका एक कहानी संग्रह भी छपवाया। उस पर सुशीला जी ही ने चर्चा गोष्‍ठी भी आयोजित कराई। उस संग्रही की समीक्षा लिखकर मैंने प्रकाशित करवाई थी। इस पर दूसरे साथी ईर्ष्‍या जैसी भावना व्‍यक्‍त करते थे कि हर लेखक को एक सुशीला मिलनी चाहिए, जो हमें न मिली। ठीक है, प्रेरणा बहुत बड़ी शक्‍ति हुआ करती है किन्‍तु आप में भी तो स्‍वयं आगे बढ़ने की कुव्‍वत होनी जरूरी है। निश्‍चित रूप से अरविंद की कहानियों का कथ्‍य-पक्ष काफी प्रबल था, किन्‍तु वे आर․ए․एस․ अलाइड में सलैक्‍ट होकर, फिर उरमूल ट्रस्‍ट में अच्‍छे पद पर पहुंच गए। ग्राम विकास परियोजनाओं में भी संलग्‍न रहे। हिन्‍दुस्‍तान अौर कुछ दूसरे देशों की यात्राएं भी कर आए। लेकिन लेखन सबके सबों का ठप।

हां उनमें से भारत, पूणेंदु, शशि आकाशवाणी में केज्‌़युल एनाउसर का कार्य भी करते थे। कुछ कंपनियों के विज्ञापन भी रेडिया द्वारा प्रसारित कर, धन अर्जित कर लिया करते थे।

यह सब लोग, अपने से किसी बड़े को, मेरे निवास रेलवे क्‍वार्टर भेजते थे कि गोस्‍वामी चौक में आज फ्‍लाने के, तो कभी फ्‍लाने के, यहां कहानी पाठ होगा। आप को ज़रूर आना है। उनका मार्ग-दर्शन करना है। ये सारे गोस्‍वामी, वास्‍तव में बोलने में, टिप्‍पणियां करने में बहुत पटु थे। परंतु मैं, 'अच्‍छी (कहानी) लगी।‘ 'प्रभावित करती हैं।‘ 'नयापन है।‘ जैसे कुछ शब्‍दों को ही कह पाता। पता नहीं क्‍यों, मैं इन गोष्‍ठियों को बहुत ही लाइटली लेता कि क्‍या होगा इनसे। और आज भी लगभग ऐसा ही कि क्‍या इस तरह बैठकों में बैठकर कहानी पाठ करके हम हिन्‍दुस्‍तान में छा जाएंगे ?

एक बार किसी गोस्‍वामी बंधु की कोई कहानी बहुत अच्‍छी लगी थी तो देखा सामने कमरे के कोने में एक क्रिकेट बैट पड़ा है तो बोला उठा- यह वाला बैट इनको इनाम में दे दिया जाए। आज यह सब सोचकर स्‍वतः मेरे होठों पर हल्‍की सी मुस्‍कराहट छा जाती है कि कैसी प्रशंसा ? उन्‍हीं का बैट उन्‍हीं को इनाम में। आज भी बचपना मेरी नस नस में याप्‍त है।

मेरे साथ साथ वे श्री हरीश भादानी को भी कभी कभी बुला लिया करते थे। वे वास्‍तव में अच्‍छे चिंतक विचारक पढ़ाकू अच्‍छे वक्‍ता होने के साथ साथ कला-साहित्‍य को बारीकी से समझने वाले भी थे। वे अक्‍सर उनकी कहानियों को अपनी पत्रिका 'वातायन‘ में छापने की घोषणा भी कर देते थे।

हां एक बार प्रभाकर श्रोत्रिय जी ने मेरी कहानी वागर्थ के लिए स्‍वीकृत की थी तो साथ यह भी लिखा था कि मेरा बीकानेर आने का संयोग बन रहा है।

टाउन हाल बीकानेर में उनका बहुत प्रभावशाली विद्वतापूर्ण भाषण हुआ था। उनके सारे संपादकीय भी पुरअसर होते हैं) तब मैं उन्‍हें आग्रहपूर्वक खाना खिलाने अपने घर ले आया था। वे खुशी खुशी आए थे। साथ एक एक हिन्‍दी की जानकार रूसी महिला भी थीं। उन्‍हें मैं अपने स्‍टडी रूम ले गया था तथा मास्‍को, से मिला डिप्‍लोमा भी दिखाया था। वे महिला मेरी पत्‍नी से खूब हिलमिल गई थीं। दूसरे दिन दोनों बीकानेर के बाजारों मेें घूमी थीं। सामान खरीदा था। श्रोत्रिय जी वास्‍तव में बड़ी प्‍यारी नेचर के लगे थे। परन्‍तु मेरे श्रोत्रिय जी को अपने घर लाने, खाना खिलाने को लेकर बीकानेर में बवंडर सा मचा था। आयोजक संस्‍था वाले मुझ पर नाराज भी हुए- तुम उन्‍हें क्‍यों ले गए। मन्‍तव्‍य स्‍पष्‍ट था कि उनसे कुछ फायदा उठाना चाहते हो।

'अरे भाई हमने क्‍या फायदा उठाना है ?‘ यह शब्‍द सहसा प्रो․ रामदेवाचार्य जी के याद हो आए, जब उन्‍हें यह नाराजगी, श्री बालकृष्‍ण राव संपादक 'माध्‍यम‘ को इलाहाबाद से बीकानेर बुलाने पर झेलनी पड़ी थे कि अपने फायदे के लिए राव साहब को इस आयोजन में बुलवाया है। रामदेव जी एक निष्‍पक्ष प्रवृत्त्‍ाि के विद्वान, कवि समालोचक थे। प्रायः गोष्‍ठियां करवाया करते थे। इससे उन्‍हें ख़ासी ठेस लगी थी और उन्‍होंने आगे से गोष्‍ठियां करवानी बंद कर दी थीं। वास्‍तव में उन्‍हें क्‍या फायदा उठाना था। बल्‍कि होता यह था कि दिनों दिनों में उनके समीक्षात्‍मक लेख, पढ़ पढ़कर कमलेश्‍वर, राजेन्‍द्र यादव जैसों के पत्र रामदेव जी के पास आने लगे थे। राजेन्‍द्र अवस्‍थी के काव्‍य पर उन्‍होंने लिखा था कि अवस्‍थी जी में क्‍या विशेषता है कि सिवाए इसके कि वे 'कादम्‍बिनी‘ के संपादक पद पर हैं। रामदेव जी ने बम्‍बई यात्रा भी की थी कमलेश्‍वर से भेंट की थी तो कमलेश्‍वर जी ने पूछा था कि मेरा यह 'समांतर आंदोलन‘ कैसा लग रहा है ? रामदेव जी ने उत्त्‍ार दिया ''बस यू ही है।‘‘

- इसके खिलाफ तो नहीं लिखोगे ?

- फिलहाल इस पर कुछ भी न लिखने से मेरा काम चल रहा है (निश्‍चिंत रहिए)

यहां पर मैं भी यह कहना चाहूंगा कि कमलेश्‍वर के बैनर तले 'सामांतर कहानी‘ लिखने के नाम पर बहुत से अच्‍छे लेखकों ने घटिया कहानियां लिख मारी थी जो सामांतर की शर्तों, को लेकर लिखी गई थीं।

बार बार अपनी बात दुहराए चला आ रहा हूं कि कहानी की सबसे बड़ी शर्त है, उसका 'कहानी होना‘ सशक्‍त कथ्‍य सुन्‍दर गठा हुआ शिल्‍पविधान। शुरू में ही पाठक को जकड़ लेने की क्षमता। न कि यह कहानी। वह कहानी। ऐसी कहानी वैसी कहानी। यानी लेबलों वाली कहानियां। मगर बड़े नामी लेखक हैं कि उनका काम बिना विवाद पैदा किए, बिना आंदोलन छेड़े, बिना किसी (चाहे पिद्‌दी सी भी) पत्रिका के संपादन के, नहीं चलता। वे लेखन से ज्‍यादा संपादन पर बल देते हें। इससे उनके आले-दवाले (आस पास) लिखने छपने वालों की भीड़ जुटती रहती है। छोटी छोटी समीक्षाएं छापने से मुफ्‍त की किताबों से लाइब्रेरी बन जाती है।

यहां पर रामपुरिया कॉलेज में श्री गुरूदत्त्‍ा जी भी पधारे थे। प्रश्‍नों की भरमार थी। मैं उनसे भी नहीं मिला। बस एक दो बातें उन्‍होंने शानदार सरलता से कहीं थीं, जो मुझे मेरे लिए मार्गदर्शक बनीं कि निरंतर लिखते रहने से जनता, लेखक को पहचानने लगती है। मेरी पहचान भी जनता के बीच ऐसे ही बनी थी।

लेकिन इससे महत्‍वपूर्ण जो वाक्‍य मुझे लगा था कि लेखक को बार बार अपनी रचना पर गौर करना चाहिए कि वह उसके स्‍वयं के हिसाब से बिल्‍कुल सही है। तब उसे फिर किसी दूसरे की अनुशंसा की चिंता करने की जरूरत नहीं। यानी वह अपनी रचना को जस्‍टीफाई/सिद्ध कर सकने में सक्षम है। बस।

एक बार रतन बिहारी परिसर में सखा बारोड़ को भी बुलाया गया था। ऐसे समारोहों को किसी साहित्‍यकार के 'सम्‍मान समारोह‘ की संज्ञा दी जाती है। सखा बारोड़ भारत में चहेते यात्रा-वृतांत लिखने में सिद्धस्‍त माने जाने जाते हैं, जैसे कागजों पर पाठकों के सम्‍मुख चित्र परोस रहे हों। यहां पर उन्‍होंने मेरे हिसाब से तो यह एक मंत्रमुग्‍ध कर देने वाला शानदार भाषण था। सबने इसे शायद पहले इसे इसी रूप में प्रभावित करने वाले भाषण के रूप में सुना; किंतु उन सुनने वाले बुद्धिजीवी अपनी तर्कशक्‍ति, अपनी बुद्धिमतता का परिचय भी तो देना लाजमी समझते थे। भाषण समाप्‍त होने पर सखा बारोड़ पर प्रश्‍नों की बौछार होने लगी। उनके कहे शब्‍दों को जैसे इन्‍होंने कंठस्‍थ कर लिया था। उन्‍हीं का हवाला दे देकर जैसे उनकी खाल उतार रहे थे कि आपने यह यह बिलकुल गलत कहा।

- नहीं भई मैंने ऐसा कहां कहा है ?

- बिलकुल कहा है।

- आपने कुछ मिस कंसीन (गलत धारण) किया है।

- नहीं बिलकुल नहीं। हमने ठीक समझा है।

- मैं ऐसा कैसे कह सकता हूं। बेशक मेरे लेख पढ़कर देख लीजिए।

- यहां आपने बिलकुल यही कहा है। कहा कैसे नहीं ? यही कहा है आपने।

मतलब साफ है कि उन्‍होंने मिलकर सखा बारोड़ को मुल्‍जिम करार दे ही दिया ः भले ही वे बार बार अपनी सफाई पेश करते रहे।

ऐसे बोलने वाले अग्रणी वही श्रेष्‍ठ बुद्धिजीवी थे, जिन्‍हें अशोक आत्रेय साहित्‍यिक गुंडा कहा करते थे। उनके सुर में सुर मिलाने वाले शायद विद्वान डॉ․ महावीर दाधीज भी थे, जो अपने तर्कों को अकाट्‌य मानते थे। मुझे जयहिन्‍द में उन्‍हीं दाधीच जी की बुद्धि पर थोड़ा तरस भी आया था, जब वे रेलवे वायरलैस/टैलिग्राफ पर अपनी विद्वता झाड़ रहे थे जो कि सरासर गलत थी। मैंने बड़ी विनम्रतापूर्वक उन्‍हें बताया था कि आप गलत कह रहे हें। मैं वहीं वायरलैस का ही कर्मचारी हूं। वहां दिन रात ड्‌यूटी बजाता हूं सारे रूल्‍ज़ रैगुलेशन भी पढ़े हैं। प्रैक्‍टिकली, हम लोग ऐसे, ऐसे काम किया करते हैं।

लेकिन क्‍या मजाल जो वे कुछ मानने को तैयार हों। माना जनाब आप दर्शन और साहित्‍य के मर्मज्ञ हैं, लेकिन रेलवे के कार्यों में कैसे दक्षा हो सकते हैं ? संकोचवश मैं ऐसा कोई वाक्‍य मुंह से निकाल न सका। मैं तो वहां पर मात्र एक जिज्ञासु की भांति ही बैठा करता था। विभूतियों की ओर प्रशंसात्‍मक नजरें उठाए। केवल इन से आदरभाव से ही पेश आता था। घुलमिल नहीं सकता था। ऐसा नहीं था कि सभी के सभी दंभी हों। मैं न उन दिनों और आज के दिन किसी भी तीस मारखां से आतंकित नहीं हुआ जैसा कि ऐसा शब्‍द साहित्‍य में प्रचलित है। अभी लिखते हुए चंद साल ही हुए थे कि किन्‍हीं डॉ․ नरेन्‍द्र समाधिया ने मेरा थोड़ा लंबा साक्षात्‍कार दैनिक 'विक्रम दर्शन‘ उज्‍जैन 1971 में (संपादक रमेश चन्‍द्र दास­) में छपवाया था। उस वक्‍त भी मैंने उनके प्रश्‍न का यही उत्त्‍ार दिया था कि ऐसे तथाकथित प्रबुद्ध किसी रचनाकार दूसरों को आतंकित करना तो चाहते हैं। पर हम उनकी लेखन की हैसियत भी जानते हैं। दूसरा; कोई कितना भी बड़ा लेखक हो, संपादक हो, हमारी सी․आर․ तो खराब नहीं कर सकता। वह हमारा अफ़सर नहीं।

श्री हरीश भादानी निहायत निष्‍कपट, विनयशील और समग्र साहित्‍य वामपंथ दर्शन और ऋग्‍वेद इतिहास के ज्ञाता। हर गोष्‍ठी में मौजूद होने को तत्‍पर। गला भी भगवान ने जबर्दस्‍त सुरीला दिया। अपनी वामपंथ को समर्पित कविताओं का पाठ सस्‍वर करते। नए लेखकों की पुस्‍तकों की भूमिका लिखने से भी मना नहीं करते।

उस वक्‍त तथाकथित अकड़ू लेखकों की भी कमी नहीं थी। एक बार स्‍व․ भूपेन्‍द्र अग्रवाल ने मुझसे कहा कि हर शनिवार को यहां एक गोष्‍ठी होगी। मैं बोला इतवार मेरे लिए सुविधाजनक रहेगा। रविवार को रख लिया करें।

- आपको बता दिया। बस। आपकी मर्जी है। आएं, न आएं। इतना कहते ही वह अकड़ते हुए चले गए।

उस वक्‍त, और मानें, आज के वक्‍त। मेरी सोच। मुझे क्‍या लेना इनकी छत्रछाया में इन गोष्‍ठियों से। मुझे तो बस लिखना है। तुम उधर गोष्‍ठियां करते फिरो। इध्‍ार हम जितना लिख पाएं, लिख लें।

रामदेव जी भी एक बार हंस हंस कर बता रहे थे कि मुझे बुला लिया। पर वहां तो बाल (बालक) कवि ही, बाल कवि थे। कुछ तो छोटे छोटे लड़के और कुछ अपनी बचकानी कविताएं सुनाने वाले।

आगे की एक बात याद आ गई। दोपहर की चिलचिलाती गर्मी। नवनीत का फोन। इलाहाबाद से विभूतिमिश्र जी यहां के किसी (शायद चन्‍द्र जी) का सम्‍मान करने आए हैं। हम यहां डाक बंगले में उनका (विभूतिमिश्र का) सम्‍मान कर रहे हैं। मुझे ध्‍यान तो था। क्‍योंकि विभूति जी के पत्र मुझे आ रहे थे कि मेरा बीकानेर आने का कार्यक्रम हैं भीड़ जुटनी चाहिए। मैंने उन्‍हें उत्त्‍ार में लिखा था कि मेरे पास कोई संस्‍था नहीं है जिनके पास संस्‍थाएं हैं, उनको बता दिया है। बेशक आप भी इस इस पते पर उनसे संपर्क कर लें। जिस होटल में वे ठहरे थे। वे वहां न तो मझे मिले थे। और न संस्‍था के पदाधिकारी। कोई तीसरा ही उन्‍हें ले उड़ा था। समय समय पर यही सुनने को मिलता है और कल ही यहां के प्रबुद्ध शालीन यू․सी․ कोचर साहब ने भी यही कहा है कि यहां के अधिकतर लोग नहीं चाहते कि हमारे सिवा कोई दूसरा बाहर से किसी हस्‍ती से मिले। खैर मेरा नवनीत को उत्त्‍ार - जरूर करो सम्‍मान। पर इस वक्‍त मुझे बक्‍शो।

- आपको तो आना ही होगा। फ्‍लाना फ्‍लाना भी आ गया है। सब आपको यहां देखना चाहते हैं।

- इसके लिए उन्‍हें मेरा धन्‍यवाद कहो। पर मेरा वहां क्‍या काम।

- नवनीत पांडे था। और भी एक नवयुवक। यह मेरी बहुत इज्‍़ज़त करते थे।

- तो क्‍या हमारे कहने पर भी नहीं आएंगे ?

- तुम्‍हें कैसे मना कर सकता हूं। खाली हाथ, सिर पर रेशम का रूमाल। साइकिल दौड़ा दी।

वहां दो तो बिलकुल ही सातवीं आठवीं के लड़के थे। बाकी बुड़ी बुद्धि के बाल कवि। एक दूसरे की कविताओं पर तालियां बजा बजा कर, मुफ्‍त की दाद लूटे चले जा रहे थे। उन बच्‍चों ने भी अपनी कुछ छोटी कविताएं सुनाईं।

अंत में मुझसे बोले- आप भी अपनी कविताएं सुनाइए। मैं थोड़ा असहज हो उठा- क्‍या आपको इतना भी पता नहीं कि मैं कविताएं नहीं लिखा करता।

- हूं हूं। कोई बात नहीं। कुछ बोलिइए। आप यहां अध्‍यक्षता कर रहे हैं।

उनके अज्ञान पर तो मैं असहज हो उठा था परन्‍तु अब अपने अज्ञान पर हंसा- हें मैं यहां पर आप विद्वानों के बीच बैठा अध्‍यक्षता कर रहा हूं। वाह अघोषित अध्‍यक्ष महोदय। अब तो आपको अपना खुफिया वक्‍तव्‍य झाड़ना ही पड़ेगा।

अरे यह क्‍या मैं तो उन तमाम बड़े बड़े कवियों को झाड़ने लगा- किस बात पर तालियां बजा रहे थे। किस बात पर एक दूसरे को दाद दे रहे थे। क्‍या ये कविताएं हैं ? क्‍या आप लोग कभी देश की प्रतिष्‍ठित पत्रिकाओं को भी पढ़ते हैं ? उनमें छपी कविताओं की अपनी कविताओं के साथ तुलना की है। ये मेरी, आपके मुखश्री से 35 साल पहले की सुनी हुई कविताएं हैं। क्‍या यही आपकी पूंजी है जिसके आधार पर यश लूट रहे थे। हां (मैंने एक युवक की ओर इंगित किया) इनकी कविता अच्‍छी थी। तभी दूसरा युवक मेरे कान में फुसफुसाया यह फ्‍लाने किसी नामी कवि की चुराई हुई कविता है।

- शाबाश अब मेरे होंठों पर रोष के स्‍थान पर स्‍मित रेखा तैर गई- कम से कम इनको अच्‍छी कविता की पहचान तो है। फिर मैंने छोटे बालकों की ओर देखा निश्‍चित रूप से तुम दोनों की कविताएं इन सबसे अच्‍छी थीं। तुम लोग यदि थोड़ा अध्‍ययन करो तो और अच्‍छा लिख सकते हो। हां एक बात और समझ लो - आगे से इनकी काव्‍य गोष्‍ठियों में कभी मत आना। ये लोग तुम्‍हें खराब करेंगे।

गोष्‍ठी विसर्जित हुई। हम सब हाल से बाहर की ओर बढ़े - खूब आपने तो सब सही बताया। हम हर हफ्‍ते गोष्‍ठी करते हैं। लेकिन अखबार वाले ज्‍़यादातर रपट छापते नहीं।

मैंने उन्‍हें तसल्‍ली दी कि हर हफ्‍ते बेचारे कैसे छापें। और समझ गया कि ये लोग लोकल पेपर्ज में अपना नाम देखने के लिए ही शायद गोष्‍ठियां किया करते हैं।

यह बात लगभग हर शहर कस्‍बे की है। बरेली गया था तो सुकेश साहनी से मैंने कहा मधुरेश जी से दो बार मिल लिया। हरिशंकर सक्‍सेना जी से भी (वे अपनी 'निर्भणी‘ पत्रिका मुझे भेजा करते थे) और एक उभरते हुए समालोचक से भी मधुरेश जी ने मुझे मिलवाया है। और यहां के कौन कौन से साहित्‍यकार हैं। सुकेश ने कहा- यूं तो बहुत है। कहो तो शाम को कोई कवि गोष्‍ठी आयोजित करवा दें। भीड़ हो जाएगी।

हां वह जमाना गोष्‍ठियों के साथ साथ कवि सम्‍मेलनों, मुशायरों का भी खूब था। बीकानेर में भी खूब हुआ करते थे। इससे साधारण से साधारण को भी नगर निवासी, गंभीर लिखने वालों को तो नहीं, पर इन्‍हीं का नाम 'माने हुए शायर‘ या कवि के रूप में लेने लगे थे/हैं। अब भी इनका नाम बीकानेर में प्रसिद्ध है। धंन्‍जय वर्मा की 'रस माधुरी‘ अजीज आजाद की 'मेंडकी को चढ़ा बुखार‘ सद्‌दीक साहब की मजा करो महाराज तुम्‍हारी पांचों घी में हैं। हरीश भादानी की तो मुझे बहुत सी याद है। सस्‍वर गाते थे 'मसलन, रेत में नहाया है मन‘। आज ने नहीं कल ने बुलाया है आदि। इसी तरह औरों की भी थीं। जो इस वक्‍त याद नहीं आ रहीं। इनमें से बहुत से कवियों को बाहर भी बुलाया जाता था। उनमें मुझे जो खास नाम याद आ रहे हैं। वह श्री भवानी शंकर व्‍यास 'विनोद‘ मुहम्‍मद सद्‌दीक, अजीज आजाद, हरीश भादानी हैं। ये भी सुनने में आया कि कभी नंदकिशोर आचार्य भी मंच पर काव्‍य पाठ किया करते थे। पर बाद में उन्‍होंने छोड़ दिया। मंच कवि की प्रतिष्‍ठा गिर गई थी या उसे गिराया जा रहा था। क्‍योंकि पहले, पहल बड़े बड़े नामीगिरामी, राष्‍ट्रीय स्‍तर के कवि भी मंच से पूरे हावभाव के साथ सस्‍वर कविता पाठ किया करते थे। कुछ बिना गाए ही ख्‍याति अर्जित करते थे। कविता में दम होने के कारण।

परंतु मैं सोचता हूं कि बाजी अच्‍छे गले के मालिक ही ज्‍यादा मार ले जाते हैं। लोग बाग शब्‍दों में कम, और गायन पर अधिक ध्‍यान देते हैं। मुझे लगता था अज़ीज़ साहब की गज़लों में, सद्‌दीक साहब की गजलों से बहुत ज्‍यादा दम है।

जब बात गोष्‍ठियों की चल रही है तो थोड़ी गुस्‍ताखी मैं भी कर डालूं कि एक गुमनाम गोष्‍ठी-कार्यक्रम मैंने भी स्‍व․ सूर्यप्रकाश िबस्‍सा जी के सहयोग से चलाया था। गोष्‍ठियां महीने में दो बार सूर्य प्रकाशन मंदिर के प्रागण में आयोजित की जाती थीं। इतवार के दिन, जब बिस्‍सा जी का प्रकाशन संस्‍थान बंद होता था तभी शाम को, समय पर आरम्‍भ हो जाती थी। वैसे बिस्‍सा जी थोड़े लापरवाह टाइप के, पर निहायत मुलायम प्रकृति के, यारों के यार थे। यह गोष्‍ठी संस्‍था करीब छह सात महीने चली थी। एक बार भी ऐसा नहीं हुआ कि बिस्‍सा जी समय पर न पहुंचे हों। यदि किसी विवशतावश स्‍वयं ने आते तो अपने बेटे प्रशांत को चाबी देकर भेज देते। मुझे तो खैर पहुंचना ही पहुंचना था। मैंने संस्‍था की कुछ शर्तें भी तय कर दी थीं।

1- सभी मित्र समय पर आएंगे।

2- अपनी, किसी भी विधा की, नई रचना सुनाएंगे। पुरानी बिलकुल नहीं। अपवाद अलग बात है।

3- यदि किसी मित्र ने किसी भी प्रदेश भाषा की ऐसी रचना हाल ही में पढ़ी हो तो उसका पाठ मय उसकी प्रशंसा/प्रासंगिता को भी सुना सकता है।

4- इस संस्‍था का न तो कोई अध्‍यक्ष होगा और न ही पदाधिकारी। राजानंद जी भी चार पांच आए थे। आब्‍जैकशन-यह भई यह क्‍या संख्‍या हुई। चलो बारी बारी से ही सही, बदल बदल कर अध्‍यक्ष, मुख्‍य अतिथि बनाते रहो। जवाब 'नो नाे‘ में मिला तो उन्‍होंने आना बंद कर दिया। यह भी कोई संस्‍था हुई। मतलब यह कि हम जैसों को मंचस्‍थ तो किया ही जाना चाहिए।

5- गोष्‍ठी की रपट कोई भी मित्र किसी भी अखबार में नहीं छपवाएगा। डर यही था कि यह प्रचार का माध्‍यम बनकर ही न रह जाए।

6- चाय वगैरह का जो भी खर्चा होगा, वह बराबर हर एक की जेब से।

7- जो भी लेखक नियमित रूप से नहीं आ पाता या कभी भी नहीं आया, अगर वह कुछ नया सुनाना चाहता तो उसका भी स्‍वागत है।

8- अंत में रचनाओं पर समालोचनात्‍मक टिप्‍पणियां होंगी। कोई भी बुरा नहीं मानेगा। उतरों पर भी गौर किया जाएगा।

जाहिर है कि सूर्यप्रकाशन में भीड़ जुटने लगी। इसका उद्‌देश्‍य ही मात्र नए सृजनात्‍मक लेखन को प्रात्‍साहित करना था। जिसमें सबको सफलता मिली। ज्‍यों ज्‍यों तिथि निकट आने लगती, सबकी कलम गति पकड़ने लगती। फोन आने लगते- अब की बार हम बहुत अच्‍छी चीज पेश करेंगे कि सुनकर आपकी तबीयत प्रसन्‍न हो जाएगी।

मैंने वहां अपनी कोई कहानी वगैरह नहीं सुनाई। एक बार भाई लोगों ने जिद पकड़ ली तो किसी युवक को मेरे घर साइकिल से दौड़ाया गया। उसे मैंने समझा दिया कि वहां मेरी स्‍टडी टेबल पर रखी नई लिखी हुई कहानी मिल जाएगी। सड़कों पर उन दिनों भीड़ बहुत कम हुआ करती थी। लंबी दूरी उसने तुरत फुरत नाप डाली और तब मेरा कहानी-पाठ हुआ। कहानी लंबी थी। 'हां‘ 'हूं' में बात खत्‍म हो गई।

बाद में, जैसा कि अमूमन संस्‍थाओं में होता है, इसमें भी राजनीति सी, अपने को या अपनाे अपनो को अधिक महत्‍वपूर्ण दर्शाने की प्रथा ने घुसपैठ शुरू कर दी तो मैंने तुरंत इसे बंद करने की घोषणा कर डाली कि इन छह सात महीनों में हमने अपना उद्‌देश्‍य प्राप्‍त कर लिया है। आगे सभी अपने स्‍तर पर स्‍वतंत्र रूप से सृजन करते रहें।

आज तक भी पुराने साथी उस दौर को याद करते हैं कि उन दिनों हमने काफी कुछ लिखा था।

भले ही लेखन स्‍वतः स्‍फूरित होता है किन्‍तु यह भी बड़ा सच है कि कोई उस पर नोटिस लेने वाला हो तो लिखने में अधिक गति आ ही जाती है। मसलन आकाशवाणी से अनुबंध पत्र का प्राप्‍त होना। संपादक द्वारा रचना की मांग आदि।

(क्रमशः अगले भाग में जारी...)

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रचनाकार: हरदर्शन सहगल की आत्मकथा - डगर डगर पर मगर : भाग 3
हरदर्शन सहगल की आत्मकथा - डगर डगर पर मगर : भाग 3
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