एम. आर. अयंगर का आलेख - बचिए, कान खाए जा रहे हैं

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बचिए – कान खाए जा रहे है. आँखों को बचाने के साधारण तरीकों के बारे लिखा लेख पसंद कर कुछ साथियों ने कानों की सुरक्षा के बारे में भी लिखने का...

बचिए – कान खाए जा रहे है.

आँखों को बचाने के साधारण तरीकों के बारे लिखा लेख पसंद कर कुछ साथियों ने कानों की सुरक्षा के बारे में भी लिखने का आग्रह किया. उनके प्रेरणा व प्रोत्साहन का ही फल है कि यह लेख आप सबको समर्पित है.

बचपन की अपनी खुद की बचकानी हरकतों पर आज शर्म आती है. तब किसी के समझाए भी समझ नहीं आती थी. कोई सीरियस बात चल रही हो तो पास की किसी सहेली या दोस्त के कान में फुसफुसाना. जरा सुनना... पास आ.. ना. और जब पास आए तो उसके कान में पूरी भरपूर ताकत से चीखना.. यह एक शरारत होती थी. लेकिन जिसके कान में चीखा गया, उसके कान के पर्दे कंपन से इतने आहत करते थे कि उसकी आँखों में आँसू आ जाते थे. यदि चीख ज्यादा तेज हो, तो शायद कान के पर्दे फट जाएँ. बड़ों ने तो बहुत समझाया, लेकिन समझने को तैयार ही कौन था ? अब बूढ़े हो गए तो समझ आई पर अब बच्चे समझने को तैयार नहीं हैं.

कान की नाजुकता को समझिए. बचपन में उल्टियाँ आने पर आपकी माताजी आपके दोनों कान अपनी हथेलियों से ढँक लेती थीं. किसलिए ?. इसलिए कि उल्टियों के समय जिस जोर से पेट से सारा माल बाहर आता है, उसमें होने वाली तीव्र आवाज से आपके कानों को कोई नुकसान नहीं पहुँचे. जब पटाखों के फूटने के पहले आप अपने कान बंद कर लेते हो. तेज बिजली कड़कने पर आप आँख और कान दोनों बंद कर लेते हो. उस वक्त आपकी मानसिकता क्या होती थी कभी सोचा है आपने ?.

स्कूल कालेज की परीक्षाओं के दौरान यदि आपके घर या हॉस्टल के आसपास कोई शादी हुई हो या किसी के जन्मदिन पर म्यूजिक डी जे का प्रोग्राम हुआ हो, तो आपको एहसास हो ही गया होगा कि ये शोर आपके कान और मूड के साथ कैसा खिलवाड़ करते हैं. पर गम इस बात का है कि अपने घर प्रोग्राम हो तो हम भी इनकी परवाह करना पसंद नहीं करते.

अक्सर तिमाही परीक्षाओं के समय गणेश चतुर्थी के कारण लोग पंडालों में जोर जोर से गाने बजाया करते थे. छःमाही के समय क्रिसमस और नया साल का मजमा होता था. अच्छा हुआ ये तिमाही – छःमाही परीक्षाएं खत्म ही कर दी गईं.

कानों के लिए आजकल एक नई बीमारी आ गई है मोबाईल फोन. लोग फोन कान से सटाए, घंटों उस पर लगे रहते हैं. खासकर सफर में तो इन बड्स के बिना लोग सोते भी नहीं. एक नया उपकरण है ब्लूटूथ ईयर प्लग जो हेंड्स ऑफ काम करता है. हमेशा कानों में ही लगा रहता है. जब कोई कान में हीयरिंग बड्स (प्लग) या ब्लूटूथ रिसीवर डालकर झूमते रहता है, तब कई तो उन्हें पागल समझने लगते हैं. उनकी हँसी को बेकारण समझ कर सोचने लगते हैं कि कहीं वह हम पर तो नहीं हँस रहा और बिन बात के उसके बारे में गलत धारणा घर कर लेती है. ऐसे समय किसी से कुछ कहो तो पहले आपकी मुखाकृति देखकर सोचेगा कि इसकी बात सुनी जाए या नहीं. यदि सुनने का मन बना लिया, तब अपने एक कान से स्पीकर (हीयरिंग) बड निकालेगा फिर पूछेगा क्या ? यानि आपको निश्चिंत रहना है कि पहली बार कोई सुनेगा ही नहीं. इसलिए पहली बार केवल होंठ हिलाइये, जब कान खाली हो जाएं तब ही कहिए. अन्यथा आपकी मेहनत बेकार. इस तरह की हरकतों से जब तक जरूरी न हो कोई उनसे बात करने की कोशिश नहीं करेगा और वे अपने आप अलग थलग रह जाएंगे.

लगातार कान में इस तरह का शोर कान खराब करने में पूरी मदद करता है. लोग परहेज तो कर नहीं सकते, इसलिए कान ही खराब करते हैं. लगातार कान में रहकर ईयर प्लग वहाँ घाव भी करता है. ऐसे लोगों से भी पाला पडता रहता है जिन्हें अपने आनंद के लिए दूसरों को परेशान करना भी अखरता नहीं है. छोटे बच्चे या बुजुर्गों वाले पडोस में भी रात के तीसरे पहर तक हाई वॉल्यूम में संगीत बजाकर मदहोश नाचते गाते कालेजी विद्यार्थी या बेचलर एम्लॉईज को कोई फर्क नही पड़ता. किसी को भोर सुबह उठने की आदत है, किसी को सुबह की फ्लाईट पकड़नी है या किसी की तबीयत खराब है – इससे किसी को क्या लेना देना. हम तो अपने घर में पार्टी कर रहे हैं – आवाज आपके घर जाए तो हम क्या करें ? कुछ गलतियाँ इन फिल्म वालों की भी है. आजकल के गाने शायद लो वॉल्यूम में अच्छे भी नहीं लगते. पुराने गीत तो लो वॉल्यूम में ही सुने जाते हैं. वेस्टर्न कल्टर की देन है या कहें महत्ता है यह सब.

यदि आप पार्टियों के शौकीन हैं तो गौर कीजिए कि नशा चढ़ते चढ़ते आपकी श्रवण क्षमता घटती जाती है. इसका अंदाज आप इससे लगा सकते हैं कि नशा आते ही बोलने की आवाज बढ़ जाती है, क्योंकि कान कम सुनते हैं. इस लिए यह समझ कर कि धीरे बोला जा रहा है, तेज बोला जाता है. सामान्य से तेज बोलने से ही नशेड़ी सुनेगा.

आप यदि सड़क पर निकलते रहते हैं तो अक्सर देखते होंगे कि स्कूटर या मोटर सायकिल पर सवार लोग (सायकिल वालों की बात क्या करें) अपना एक कंधा उठाकर कानों से लगा लेते हैं और एक झलक में ही आप भाँप जाते हैं कि वह मोबाईल पर बिजी है. उसे आपके गाड़ी की हॉर्न क्या सुनाई देगी. यही आदते सड़क दुर्घटनाओं का कारण बन रही हैं. यह बात और है कि इसी कारण उसे सर्विकल स्पोंडेलाइटिस हो जाएगा और वह डॉक्टरों के इर्द-गिर्द घूमता रहेगा.

यह खबर अखबारों में आ ही चुकी है कि छत्तीसगढ में बिलासपुर के पास उसलापुर स्टेशन के नजदीक एक लड़का ईयर फोन पर गाने सुनते सुनते रेल्वे ट्रेक पर चलते हुए अपने घर की तरफ (शायद) जा रहा था. पीछे से दिल्ली जाने वाली संपर्क क्रांति एक्सप्रेस आई. जैसे ही चालक को व्यक्ति नजर आया, उसने ब्रेक लगाना और हॉर्न बजाना शुरु किया, पर उस लड़के को सुनाई नहीं पड़ा. ब्रेक लगते-लगाते भी लड़के को जान से हाथ धोना पड़ा. यह तो एक है. पता नहीं कितने और होंगे. शायद यह आईडिया वालों का विज्ञापन था – वॉक द टॉक”. लेकिन आज भी कान में स्पीकर प्लग डालकर पैदल चलते, दुपहिया या चारपहिया चलाते चालकों की संख्या में कमी नहीं आई है. कार वाले तो समझते हैं कि हम चार पहियों पर सुरक्षित हैं और बेबाक मेबाईल पर बात करते रहते हैं. ध्यान हटा और हॉर्न न सुने जाने की वजह से कोई टक्कर लग गई तो वे चार पहिए ही कंधों का रूप धारण कर सकते हैं इसका उनको भान भी नहीं रहता. ध्यान के भटकाव को कम करने के लिए, यातायात अधिकारियों ने इस पर भारी जुर्माना भी कर रखा है, पर किसे पड़ी है चिंता – जान ही तो जाएगी.

आप किसी न्यायालय, स्कूल या अस्पताल के पास जाकर खड़े हो जाईए. वहाँ एक संदेश पटल दिखेगा - हॉर्न बजाना मना है (NO HORN). पर हर एक गुजरती गाड़ी हॉर्न जरूर बजाकर जाएगी, जैसे मानो लिखा हो कि हॉर्न बजाना है. इसके ठीक विपरीत अंधे मोड़ों पर विशेषकर चमकदार अक्षरों में लिखा होता है हॉर्न बजाईए (Horn Please), वहाँ लोग हॉर्न बजाने से परहेज करते हैं. यह अपनी सुरक्षा के प्रति अवहेलना का भाव है या कानून की अवहेलना का - यह मेरे समझ से परे है. हम मनुष्य औरों के दर्द से दूर क्यों हो रहे हैं. अपने दर्द को भी पहचान नहीं पा रहे हैं - यह कौन सी मानसिकता है.

मानव के कान निश्चित तीव्रता और फ्रीक्वेंसी रेंज के लिए ही बने हैं और इसमें आवाज की एक हद तक ही सहनशीलता है. इसे डेसीबल्स में नापा जाता है. 85 डेसीबल्स से ज्यादा की आवाज (शोर) कान को खराब करने की क्षमता रखती है. आवाज की तीव्रता बढ़ने से कम समय में ही तकलीफ शुरु हो जाती है. ज्यादा देर तक उस आवाज के दायरे में रहने से परमानेंट नुकसान भी हो सकता है. इसके लिए सरकारी तौर पर भी नियम बनाए गए है. लेकिन कान हमारे हैं- आदत हमारी है–कौन बदल सकता है.

बड़े खराखानों में अक्सर शोर की समस्या रहती है सो वहां ईयर प्लग या मफलर का प्रयोग किया जाता है. जैसे सर की सुरक्षा हेलमेट से होती है वैसे ही कानों की सुरक्षा ईयरप्लग या मफलर से होती है. ईयरप्लग (स्पाँज के बने) कानों में ठूँसकर रखने के लिए होते हैं और ईयर मफलर, हेडफोन स्पीकर (फुल कवर–क्लोज्ड) की तरह पूरे कान को ढँक कर रखते हैं जिससे पास पड़ोस का शोर कानों में नहीं जाता और कान के पर्दों पर हाईफ्रीक्वेंसी या तीव्रता का कोई असर नहीं हो पाता. हमेशा हिदायत दी जाती है कि कभी भी अधिक शोर शराबे वाले इलाके में जाने से पहले कानों में मफलर (कम से कम ईयर प्लग) लगा लेना चाहिए. रकवस क असर नह हत. हमश हदयत द जत ह कफपपप

एक बार हम सब अपने कार्यालय की तरफ से मेडीकल जाँच करवाने गए. जब मेरे कान को जाँचने की बारी आई तो नर्स ने कहा यह रिमोट हाथ में रखो और जब भी बीप की आवाज सुनाई दे, दबा दिया करना. इससे यह मालूम हो जाएगा कि आपको आवाज सुनाई दी है. जाँच के बाद रिपोर्ट डॉक्टरके पास आई. मुझे देखकर ही डाक्टर हैरान हो गए. मेरी समझ में कुछ नहीं आया. मुझसे मेरा नाम, उम्र, पता, काम सब पूछ लिया. बोल पड़े 53 वर्ष और इतने अच्छे कान ? मैंने खुलकर उनसे पूछ लिया आप कहना क्या चाहते हैं ? उनने पूछा क्या आप पंपशेड में नहीं जाते हैं. मैने बताया कि रखरखाव के लिए मुझे पंप शेड में ज्यादा ही जाना पड़ता है. उनने मुझसे साझा किया कि मेरे कानों की श्रवण क्षमता उम्र के सापेक्ष में बहुत ही अच्छी है. फिर सवाल किया कि पंप शेड में जाते हुए भी आपके कान इतने अच्छे कैसे हैं, जबकि आपके सारे साथियों के कानों में कुछ न कुछ तकलीफ तो हैं ? मुझे खुशी हो रही थी कि मेरी कोशिश रंग लायी और ईयर मफलर के प्रयोग ने मेरे कानों को बचाकर रखा.

मैंने डॉक्टरों को बताया कि मैं कभी भी बिना ईयर मफलर के एंजिन-पंप शेड के पास भी नहीं जाता – यह निश्चित है. नौकरी तो 58-60 साल की उम्र तक रहेगी, पर कानों को तो मेरी जिंदगी भर साथ देना है. नौकरी के लिए मैं अपने कान नहीं गँवा सकता. डॉक्टर मेरी बातों से बहुत खुश हुए और कहने लगे आपके और साथियों को क्यों नहीं समझाते. समझाएं किसे. सब तो जानकार हैं. जानबूझ कर भी कोई अपने कानों को खोने का खतरा मोलना चाहे, तो कोई क्या कर सकता है ?

यह तो हुई कान को जरूरत के समय बंद रखने के विभिन्न गलत तरीके जो आजकल के युवा अपना रहे हैं, और सही तरीके जिनकी अवहेलना हो रही है. ऐसे लोग अक्सर अलग एकाकी जीवन जीने के पक्ष में होते हैं. पता तब चलेगा जब बीबी चीखेगी कि बहरे हो गए हो क्या. या फिर जब साथी की जरूरत होगी, अकेलापन खाने को दौड़ेगा और कोई साथ देने वाला नहीं होगा.

दूसरी प्रजाति है जो बैठे बिठाए निठल्ले की तरह हाथ में जो कुछ भी हो जैसे माचिस की तीली. गाड़ी की चाबी, छोटा स्क्रू-ड्राईवर या ऐसी पतली चीजों से कान कुरेदते रहते हैं. कभी कोई झटका लगा या फिर गलती हो गई तो कान से खून निकलने लगता है और फिर डर लग जाता है कि कहीं कान तो खराब नहीं हो गए. वैसे जॉन्सन के इयर बड्स काफी चल पड़े हैं लेकिन मेरा मानना है कि कानों में तेल के अलावा कुछ न डालें तो ही बेहतर होगा. दैविक सृष्टि के कारण कान का मैल तेल डालते रहने से अपने आप बाहर आ जाता है.

मेरे एक पढ़े लिखे मित्र ने एक कमाल दिखाया. कभी स्कूल में पढ़ा था कि कानों को हाईड्रोजन पराक्साईड से साफ किया जाता है (धोया भी जाता है) सो जनाब खुद डाक्टर बन गए और बाजार से लाकर हाईड्रोजन पराक्साईड को कानों में डाल लिया. फलस्वरूप उसका एक कान खराब हो गया और दूसरा कम सुनता है. इलाज के लिए सारी दुनियाँ घूम चुका है. अपने लिए खुद मुसीबत मोल ली. जब अक्ल ज्यादा हो जाती है तो ऐसे ही होता है. खैर गनीमत है कि वह अभी भी कम सुनने वाले कान में मोबाईल लगाकर बात कर पाता है.

एक अतिरिक्त समस्या है - गुस्से को काबू में न रख पाना और कनपटी पर खींच कर चपत लगाना. यदि सही कनपटी पर पड़ गया तो आँसू छलक जाते हैं. चपत के जोर पर निर्भर करता है कि श्रवणशक्ति बची या गई. जोर की मार से कान के पर्दे झन्ना जाते हैं और कभी कभार फट भी जाते हैं. ऐसा गुस्सा न ही करें तो ही अच्छा है. अच्छा हुआ कि अब स्कूल व घर में बच्चों को पीटना जुर्म की श्रेणी में आ गया है. एक अन्य स्थिति उत्पन्न होती है, हवाई सफर में. टेक ऑफ व लेंडिंग के समय कानों के पर्दों के दोनों तरफ हवा के दबाव की असमानता के कारण दर्द होने लगता है. ऐसे वक्त जम्हाई लेते रहें या फिर मुँह से श्वास लें तो दर्द जाता रहेगा. इसी लिए पहले पहल वायुयात्रा में टॉफियाँ दी जाती थी. बच्चे समझते थे कि परिचारिका कितनी अच्छी है. इसके लिए अब फ्रूट जूस दिया जाता है पर यात्री इसे तुरंत पी जाते हैं.

अंततः उन सिरफिरे ड्राईवरों का जिक्र तो करना ही होगा जिनको हॉर्न बजाते रहने की आदत है. ये ट्राफिर हो न हो सारे रास्ते हॉर्न बजा बजाकर आपके कान खाते रहेंगे. दूसरे वे जिनकी गाडी में रिवर्स हॉर्न है. चाहे जरूरत हो-न हो,बजेगा ही, कोई कंट्रोल नहीं होता. रात के तीसरे पहर भी गाड़ी पार्क करते या निकालते वक्त भी हॉर्न से सबको परेशान करना जरूरी होता है.

इन सब बातों का जिक्र कर मैंनें उन सब हालातों को दोहराया है जिससे आपके या किसी और के कानों को तकलीफ होती हो. अब परहेज करना न करना - आप पर निर्भर करता है... ये आपके ही कान है... दीवारों के नहीं. जरा सोचें.

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एम.आर.अयंगर.

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रचनाकार: एम. आर. अयंगर का आलेख - बचिए, कान खाए जा रहे हैं
एम. आर. अयंगर का आलेख - बचिए, कान खाए जा रहे हैं
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