मराठी कहानी – साहब, दीदी और ग़ुलाम

SHARE:

साहब, दीदी और गुलाम मूल मराठी कहानी – दया पवार अनुवाद – डॉ. विजय शिंदे (मूल कहानी मराठी के प्रसिद्ध दलित साहित्यकार दया पवार की है। ...

साहब, दीदी और गुलाम

मूल मराठी कहानी – दया पवार

अनुवाद – डॉ. विजय शिंदे

(मूल कहानी मराठी के प्रसिद्ध दलित साहित्यकार दया पवार की है। इनका पूरा नाम दगडू मारुती पवार है, साहित्यिक जगत् में दया पवार के नाम से इनकी पहचान बनी हैं। इनका जन्म अहमदनगर जिले के धामणगांव में इ. स. 1935 में हुआ। दलित जाति के भीतर जन्म पाने के कारण बचपन से दलितों के साथ होने वाले अन्याय-अत्याचार से भलिभांति वाकिफ थे। इनके ‘बलुतं’ नामक पहली आत्मकथात्मक साहित्य कृति के कारण मराठी साहित्य एवं दलित साहित्य में नया मोड आ गया। लेखक ने प्रस्तुत कृति में अपने आपको केंद्र में रखा और सारे दलितों के जीवन को वाणी देने का प्रयास किया है। इनकी इस कृति से प्रेरणा पाकर मराठी साहित्य में दलित लेखकों की एक बडी फौज निर्माण हो गई। ‘बलुतं’ आत्मकथन के बाद कहानीसंग्रह - ‘जागल्या’, ‘पासंग’, कवितासंग्रह – ‘कोंडवाडा’ ‘धम्मपद’, अन्य - ‘पाणी कुठंवर आलं गं बाई’, ‘विटाळ’ आदि भी इनकी रचनाएं काफी चर्चित रही है।)

●●

उदासी की हालत में सड़क से चल रहा था। कलम घिसाई करते पीठ में दर्द होने लगा था। सोच रहा था कि कब घर पहुंच जाऊंगा। इतने में एक टैक्सी मेरे सामने आकर हठात् रुक गई। पिछली सीट से आवाज आई, "हाय, अबे वामन, कितने बरसों बाद मिल रहा है रे तू!"

मैंने पीछे मुड़कर देखा। मोहन था। इतना बदल गया था कि पहचानना मुश्किल हो रहा था। उसकी आवाज से ही मैं उसे पहचान सका। वह पहले छरहरा था अब कबूतर जैसे फुल गया था। चेहरे पर से मानो ताजगी टपक रही थी। सुंदर रोबदार पोषाक में आकर्षक दीख रहा था। उसने टैक्सी का दरवाजा झट से खोल दिया और मुझे बैठने का अनुरोध करने लगा। मैं भूल गया था कि मुझे घर लौटना है। किसी कठपुतली की तरह मैं उसके पास सिट पर जाकर बैठ गया। टैक्सी सरपट दौड़ने लगी। मेरे कंधे पर हाथ रखते हुए उसने कहा, "अबे वामन, अच्छा हो गया कि तू मिल गया। मुझे भी कंपनी की जरूरत थी।"

"तुम्हारा बिझनेस कैसे चल रहा है।" मैंने ऐसे ही कुछ पूछना चाहिए इसलिए पूछ लिया।

अब उसने सिगरेट सुलगा दी। धुआं छोड़ते हुए बोला, "इमरजंसी में डाऊन हो गया था, अब तेजी है। नई मुंबई में दूसरी फैक्ट्री लगा रहा हूं।" अपने कारोबार के बारे में वह काफी उत्तेजना के साथ बताते जा रहा था। सरकारी टेंडर, रॉ मटेरिअल ऐसे कई शब्द उसके होठों से झर रहे थे। टैक्सी ने अब रफ्तार पकड़ी थी। इमारतें, लोग पीछे छूटते जा रहे थे। और मेरे दिमाग में कॉलेज के दिनों के मोहन की याद ताजा हो रही थी। अमीर बाप की इकलौती औलाद। कॉलेज आता था तो बिल्कुल साफ-सुथरा, टकाटक। उसके सामने हम बड़े भौंड़े और गंवार लगते थे। लेकिन उसने हमारे सामने कभी अमीर होने की शेखी दिखाई नहीं। हमारे साथ वह काफी घुलमिल गया था। वैसे हमारी हालत हमेशा खस्ता रही थी। लेकिन मोहन को रोज उसके घर से पांच-दस रुपए पॉकेटमनी के तौर पर मिला करते थे और इन्हीं रुपयों को वह खुले दिल से हम पर खर्च करता था।

उसके मन में हमारे प्रति कभी एहसान या उपकार का भाव नहीं रहता था। मुझ पर उसकी अन्यों की अपेक्षा ज्यादा मर्जी रहा करती थी। कॉलेज के दिनों में एक-दो बार पिकनिक के लिए मेरे पास पैसे नहीं थे, मोहन ने दिए और बड़े प्यार के साथ मुझे अपने साथ लेकर गया था। फिर हम राष्ट्र सेवा दल में जाने लगे। हममें से कई तो इस आशा से बढ़-चढ़कर हिस्सेदारी लेते थे कि किसी ब्राह्मण लड़की को पटाने का आसान मौका मिल जाएगा। मोहन भी हमारे साथ रहता था। राष्ट्र सेवा दल के गीतों की धून उसके सर पर चढ़कर बोल रही थी। वह बहुत अच्छा गा लेता था। राष्ट्र सेवा दल में बौद्धिक पाठ हुआ करते थे। नई चेतना मिल रही थी। शायद, यहीं वजह थी कि मोहन में धीरे-धीरे परिवर्तन हो रहा था। ठाटबाट वाले कपड़े पहनना उसने छोड़ दिए। वह खादी के कपड़े पहनने लगा। हाथ में झाडू लेने लगा। अपने बेटे की भिकारियों जैसी हरकतों को देखकर उसके पिता जी नाराज हो गए। बातों-बातों में जब उसके पिता का जिक्र होता तो मोहन चिढ़ जाता था। "साला, अपना बाप तो महाचोर है। मजदूरों के साथ ऐसे पेश आता है जैसे मुर्गी को दाने डाल रहा हो। उन्हें आपस में लड़वाता है। इसलिए टेंपररी और परमानेंट मजदूरों की कभी पटती नहीं है। दस-पंद्रह बरस नौकरी करने के बावजूद भी टेंपररी रखा गया मजदूर चूं नहीं कर सकता।" बाप की यह तोड़-फोड़ की नीति मोहन को पसंद नहीं थी। बाप के प्रति उसका यह विद्रोह देखकर हम चकित होते थे।

इन सारी बातों की याद आने पर मैंने उसे पूछ लिया, "क्यों रे, तेरा सोशल वर्क कैसे चल रहा है?"

मोहन ने जोश के साथ कहा, "मैं रोटरी कल्ब का मेंबर हूं। पिछले हप्ते हमने वरली के मामानगर झोपड़पट्टी वालों को लाश ढोने की एक गाड़ी दी है। डॉक्टर का एक घुमंतू दल बना लिया है। पंद्रह अगस्त को रक्तदान शिबिर का आयोजन किया था।" सोशल वर्क की बातें करते-करते वह फिर बिजनेस की बातें करने लगा, "अब महाराष्ट्रीयन लोगों को बिजनेस करना चाहिए। कलमघिसाई के दिन अब लद गए हैं।"

इन सारी बातों को सुनते वक्त मेरे मन को अंदर से कुछ कुरेदते जा रहा था।

मैंने बाहर झांककर देखा। अलेकजंड्रा सिनेमा के कोने से होते हुए टैक्सी फरोस रोड की दिशा में जा रही थी। मैं सहसा सहम गया। मैंने उसे पूछा, "क्यों रे, हम लोग कहां जा रहे हैं? यह कोई अच्छी बस्ती तो है नहीं।" वह खिलखिलाकर हंसते जा रहा था। उसकी हंसी मेरे लिए अजनबी थी।

"डरो मत! दीदी के पास जा रहे हैं।"

"कौन-सी दीदी।" मेरा दमघोंटू सवाल।

"कोठे वाली है। कमाल का गाती है। ठगे से रह जाओगे। मराठी रंगमंच के कुछ मशहूर अभिनेता भी दीदी के यहां आते हैं।"

मुझसे रहा नहीं गया तो पूछ लिया, "कोठे के गाने सुनने का शौक तू कब से पालने लगा?"

"हमारी सत्रह पीढ़ियों के खून में गाना रच-बस गया है।" उसकी बातों में परंपरा का अभिमान झांक रहा था। मुझे अचरज था कि राष्ट्र सेवा दल के गानों में रममान होने वाली उसकी रुचि में अचानक बदलाव कैसे आ गया?

फरोस रोड के माहौल से मैं पहले से ही परिचित था। मेरा बचपन इसी इलाके में गुजरा था। पूरे दस-पंद्रह बरस के बाद मैं इस तरफ आ रहा था। ऊपर की मंजिलों पर टंगे हुए कई नंबर वाले कमरे थें। नीचे वेश्याओं के लोहे के पिंजड़े। उनकी भूखी नजरें। पुलिस की नजरों से बचकर फुटपाथ के पास, बिखरे चेहरे को रंगों में छिपाकर खड़ी औरतें। सब वैसा ही था। दस-पंद्रह बरसों में कोई खास बदलाव नहीं हुआ था। अपवाद थी आस-पास उठी कुछ ऊंची इमारतें और उसके नीचे मारवाड़ी दुकान जो नई लग रह थी। मैं जब यहां के स्कूल में पढ़ता था तब मेरे कुछ दोस्त मुझे इस गली मे घुमाने ले आते थे। उन दिनों मैं उन पर बहुत नाराज होकर गुस्सा करता था। कहता था, "मेरे दोस्तों, ताड़ी के पेड़ के नीचे बैठकर छाछ भी पिओ तो लोग कहेंगी कि ताड़ी ही पी रहे हो।" मेरी इन सीधी बातों का वे मजाक उड़ाते थें। मैं चिढ़ जाता था, इसीलिए जानबूझकर वे इन्हीं रास्तों से हमेशा जाया करते थें। यह यादें ताजा होते ही मैं हंस पड़ा। दस-पंद्रह बरसों में मैं भी कितना बदल गया था।

"क्यों हंस रहे हो?" मुझे सहसा हंसते हुए देखकर मोहन ने पूछ लिया।

"मैं इसलिए हंस रहा हूं कि तू कोठे वाली बाई को दीदी कह रहा है।" यह कहते हुए मैं मेरे मन में उठी बातों को छिपाने की कोशिश कर रहा था।

टैक्सी फुटपाथ के पास एक इमारत के सामने खड़ी हो गई। हमारी बातचीत बीच में ही थम गई। मोहन के साथ मैं भी नीचे उतर गया। मोहन ने टैक्सी वाले को रुकने के लिए कह दिया। मोहन की शिकायत थी कि वापसी के दौरान इस गली में टैक्सी नहीं मिलती है। मैं टैक्सी के बढ़ रहे बिल के लिए चिंतित था।

सामने देखा! इमारत की सूरत बेहाल थी। नजदीकी होटलों से फिल्मी गानों की चीख सुनाई पड़ रही थी, शोरगुल इतना था कि पता ही नहीं चल रहा था कि कौन-सा गाना बज रहा है? मोहन के पीछे-पीछे मैं भी एक गलियारे से होकर अंदर चला गया। शींककबाब की भुनी हुई खुशबू आ रही थी। मैं खुशबू को भूल गया था, दूबारा वह ताजा हो गई। मैंने देखा कि सीढ़ियों के नीचे जलते हुए अंगारों पर लोहे की छड़े सेंकी जा रही थी। सीढ़ी के लकड़ी वाले तख्त टूटी-फूटी हालत में थे। ऊपर चढ़ते वक्त पैर फिसलने का भय था। हम पहले माले पर पहुंच गए। वहां एक से एक जुड़कर गाने वाली औरतों की कोठियां थीं। कुछ कोठियां बहुत छोटी थी। आठ बाई बारह की। साजिंदे, बाजे वाले कोने में सहमकर बैठे थे। उनके सामने कुछ औरतें बैठकर मेकअप कर रही थी, तो कुछ पान के बीड़े लगा रही थी। उनमें से एक चेहरा अच्छे से याद है; उसने एक तरफ से मेकअप किया था, दूसरी तरफ आंखों के आसपास काले धब्बे जमा हो गए थें। एक घनी काली दाढ़ी वाला फकीर अपने हाथ में अंगारे से भरा बर्तन संभालता हुआ उसमें लोबान डालते हुए कोठी-दर-कोठी घूम रहा था। उसके उग्र दर्प से माहौल भरा हुआ था। कहीं से गाने की कोई दर्दभरी तान सुनाई पड़ रही थी। साथ में घुंघरुओं की आवाजें। मोहन शायद हमेशा यहां आता होगा। किसी न किसी कोठी के सामने रुक जाता था, थोड़ी बात करते आगे बढ़ जाता था। मैं भी उसके पीछे-पीछे घसिटते जा रहा था। कुछ मदहोश जवान गदराई हई लड़कियां हंसकर उसे आदाब फर्मा रही थी, ‘साब, गाना सुनके जाना!’ अनुरोध कर रही थी। उनके अनुरोध में मुझे विवशता का भाव दिखाई पड़ रहा था।

ऊपरी मंजिल पर आ गए। मोहन ने रेशमी पर्दे को हटाया। मैंने अंदर झांका, लंबा-चौड़ा हॉल था। दूसरे कोठियों की अपेक्षा यह कोठी बेहतर सजी थी। दीवारों पर हरा रंग था। दीवारों से सटकर भारी कोच लगे थे। बीच में बेहद लाल रंग की कालीन बिछी थी। कोने में साजिंदे अपने साज-सूरों को मिला रहे थे। हमें देखकर तीस-चालीस साल की औरत सामने आ गई। मोहन को देखकर उसके चेहरे पर मुस्कान छाई। हमें कोच पर बैठने के लिए उसने इशारा किया। कोच पर बैठते ही मोहन ने बड़े लाड़ से कहा, "दीदी हम आ गए हैं।"

उसने शरारत भरे लहजे में कहा, "साब, बहुत दिनों बाद आ गए। मैं तो सोच रही थी कि दीवाली पर आ जाएंगे।"

"हम दीवाली भूले नहीं है।" कहते हुए मोहन ने एक ब्रीफकेस खोली और उसमें से एक बक्सा दीदी के हाथ पर रख दिया। बक्सा मिठाई का था। दीदी को दिली खुशी हो गई

उसने बैठे-बैठे बक्सा पास में बैठी बुढ़िया को दे दिया। बुढ़िया काफी गोरे रंग की थी। बुढ़ापे की वजह से चेहरे पर झुर्रियां थी। उसके बाल मेहंदी से रंगे हुए थे। उनमें से कुछ सफेद बाल झांक रह थे। इस उम्र में भी बुढ़िया ने आंखों में काजल लगाया था। उसके सामने पान का डिब्बा था। वह नाखून से पत्तों को साफ कर रही थी। उसकी तुलना में दीदी बहुत सीधी-सादी लग रही है। कुछ सावली-सी भी। मेकअप भी नहीं था। सुंदर भी नहीं थी। बुढ़िया के साथ उसका रिश्ता कौन-सा है पता नहीं चल रहा था! सहसा मेरा ध्यान सामने वाले कोच के नीचे चला गया। वहां किसी छोटे बच्चे के स्कूल का बस्ता पड़ा था। पास में फिरकी और पतंग भी था। मैं अकारण ही अनमना हो गया। माहौल असहनीय लगने लगा।

दीदी बाजे वाले के सामने बैठ गई। सारंगी और तबले की जुगलबंदी शुरू हो गई। अभी तक लोग नहीं आए थे। गाना सुनने के लिए हॉल में बस हम दो ही थे। दीदी ने गाना शुरू कर दिया। दीदी की आवाज बेहद दर्दभरी, कलेजे को चीरने वाली थी –

"हर एक बात पे कहते हो कि तू क्या है।

तुम ही कहो कि ये अंदाजे गुफ्तगू क्या है?"

मोहन ने मुझे धीरे से बताया कि यह गालिब की गजल है। शायद यह उसकी पसंदीदा गजल हो। अगला अंतरा सुनकर मेरा कलेजा भर आया।

"रंगों में दौड़ने फिरने के हम नहीं कायल।

जब आंख ही से न टपका तो लहू क्या है?"

दीदी बार-बार इन पंक्तियों को जी जान से गा रही थी। मैं पल भर के लिए गाना भूल गया। लग रहा था बरसात हो रही है। जंगल में शिकारियों की पुकारे सुनाई पड़ रही है। उन आवाजों में सहसा एक चीत्कार उस हीरनी की जो जान बचाने के लिए भागी जा रही है। मैंने मोहन की ओर देखा। उसके चेहरे पर खुशी दौड़ रही थी। वह गाने के रंग में रंग गया था। पीकदान संभाले हुए खड़ी औरत को उसने इशारा किया। दस-दस के नोट तश्तरी में रखे गए। अब मोहन साजिंदों की जुगलबंदी में खो गया। जब अच्छी तोड़ हो जाती थी तब दस के नोट को कागज की तरह गोल–गोल मोड़कर कभी सारंगी वाले को, कभी हारमोनियम वाले को तो कभी तबलची के पास फेंकने लगा। बाजा बजाते हुए वे भी नोट पकड़ रहे थें। दीदी का गाना खत्म हो गया। उसके माथे पर पसीने की बूंदे चमक रही थी। दीदी की सांस फूली हुई थी। वह अपने पल्लू से पसीना पोंछने लगी।

यह सब हो ही रहा था कि कहीं से पांच-छः लड़कियों का एक झुंड़ आ गया। सारी लड़कियां बेहद सुंदर, हसीन और कमसीन थी! गोरा-मुलायम बदन। जरूरत से ज्यादा सजी-संवरी। ऊंची और मंहगी साड़ियां पहने हुई! बाहर सड़कों पर चलें तो लगे कि बड़े-कुलीन घर की लड़कियां जा रही हो। नजरें शोख चंचल। उनमें से एक लड़की ने मेरी नजरों को बांधे रखा था। उम्र होगी कोई सोलह-सत्रह साल की। उसकी और टकटकी लगाए देखते हुए मैं जो सोचे जा रहा था वह ध्यान आते ही मानो झटका लग जाता है। वह लड़की हुबहू मेरे बेटी जैसे दिखाई दे रही थी। चेहरे का रखरखाव, मुस्कुराने की अदा, सारा कुछ उसके जैसा ही। वहां बैठना मुश्किल हो गया। मोहन को अपने मन की बात कैसे बता सकता था? वह तो मुझे मुर्ख और पागल करार देता! मैं बड़ी बेसब्री और व्याकुलता से चाहने लगा कि यह धरती फट जाए और मैं उसमें समा जाऊं!

नए गाने का आरंभ होते ही मेरा ध्यान टूट गया। लड़कियां अपने धून में नाचने लगी थी। उनमें से कुछ ने तालियों से ठेका पकड़ा था। हल्का फिल्मी गाना था –

"आएगीS आएगीS आएगीSS

तुमको हमारी याद आएगी।"

गाने के टुकड़े फेंकती हुए वे मोहन के सामने अदाएं कर रही थी। उनकी नजरों में मैं नाचीज था। मोहन दूसरा नोट निकालता तब तक उनमें से एक मोहन के सामने आकर बैठ गई। आंखों से इशारे करते हुए तालियों का संगीत बजाती रही और मोहन ने उसके हाथ में दस का नोट दे दिया। बहुत देर तक इस तरीके से ठुमके लगाए गए। मैंने नोटों को गिनना बंद कर दिया। सहसा मोहन का ध्यान दरवाजे के पास बैठे गजरे वाले की ओर चला गया। उसने गजरे खरीद लिए। लड़कियों की कलाई में बांधे। नाचते-नाचते एक गदराई बदन वाली लड़की का पल्लू पेट से नीचे खिसक गया। मैंने जैसे ही देखा, दंग रह गया। वह लड़की पेट से थी। उसका गोरा पेट मकई की कलगी जैसा फूला हुआ था। शायद पांचवा या छठा महिना चल रहा होगा। मैं मोहन के कान में फुसफुसाया। वह भी सहम गया। उसने उस लड़की को नाचने से मना किया और कोच पर बैठने के लिए कहा। उसको पता नहीं चला कि उसकी क्या गलती हो गई। अतः वह मायूस होकर कोच पर बैठ गई।

फिल्मी गानों के कारण लोग थोड़ी देर के लिए रुक जाते थे, पलभर के लिए बैठ जाते थे और फिर चले जाते थे। एक आदमी के कारण तो वहां का पूरा माहौल ही बदल गया। उसके आते ही लड़कियों ने नाचना बंद कर दिया। उसकी ओर देखकर लड़कियां मुस्कुराई और फिर नाचने लगी। वह आदमी हमारे सामने ही आकर बैठा था। उसने लखनवी कुर्ता पहन रखा था। बुजुर्ग था। तोंद चढ़ी हुई थी, कोयले के समान काला रंग था। हंसते ही उसके दांत जरूरत से ज्यादा चमक उठते थे। शायद कोई बड़ा रईस आदमी था। उसके एक हाथ की उंगलियों में हीरे की तीन-चार अंगूठियां झलक रही थी।

उसने आते ही नाचने वाली लड़की में से एक को इशारे से बुलाया। उसके हाथ में नोट रख दिए। बहुत देर से जो गाना चल रहा था वह तार की तरह टूट गया और उससे मुखातिब होकर लड़कियों ने एक सूर में नया गाना शुरू किया –

"हमें तो लूट लिया मिल के हुस्न वालों ने।

गोरे-गोरे गालों ने काले-काले बालों ने।"

मोहन को अब सचमुच गुस्सा आ गया था। गुस्से से उसका चेहरा तन गया। अब तक हम जो पैसे लूटा रहे थे उसकी कोई कीमत नहीं और अब यह कौन न जाने कहां से चला आया है, चंद रुपए देकर हमारा गाना तोड़ रहा है। इन्हीं भावों के साथ उसका चेहरा तमतमाया था। मोहन बहुत गुस्से में था। क्रोध से उसने दीदी की ओर देखा। कहा, "दीदी हमारा गाना पूरा होना चाहिए।" यह वाक्य सुनते ही उस आदमी ने हमारी ओर ठंड़ी नजर से देखा; जैसे कुछ हुआ ही नहीं। दीदी ने भी मोहन की ओर ध्यान दिया नहीं। गाना बड़े जोश के साथ चलता रहा। ‘हमे तो लूट लिया...’ मोहन अब गैरजरूरी हो गया था। उसका आहत चेहरा मैं ज्यादा देर तक देख नहीं सका।

गाना खत्म होते ही वह उठ गया। पीकदानी संभालने वाली औरत के सामने कुछ फुसफुसाया और चल पड़ा। मैंने खिड़की के बाहर झांककर देखा। कोठे के किनारे एक घोड़ागाड़ी खड़ी थी। मैंने फिर हॉल में देखा। वह सोलह-सत्रह साल की लड़की जिसकी तरफ मैं कब से देख रहा था, झूंड़ में नहीं थी। मेरे मन में अनचाहे संदेह पैदा होने लगे। मेरा मन जैसे सड़ गया हो।

उस आदमी के चले जाने के बाद मोहन दीदी के साथ लगभग झगड़े पर उतर आया। शायद उसे किसी हिंदी फिल्म का सीन याद आया हो। आखिरकार उसने कह ही दिया, "मैं आपको दीदी कहता हूं, हमें क्या आपके यहां ऐसा ही सम्मान मिलेगा?"

दीदी की आवाज भी ऊंची हो गई। "देखिए साब, दीदी का रिश्ता तो घर में होता है। दीदी कहते हो और बाजार में आते हो? यह तो बाजार है। अगर यहां कोई भी अठन्नी फेंकेगा तो हमें इज्जत करनी पड़ती है। पेट के खातिर यह सब करना ही होता है।" एक सांस में दीदी बोले जा रही थी। बोलते हुए लग रहा था उसके होंठ कांप रहे हैं।

मोहन गुस्से से बाहर निकल पड़ा। अपने अपमान को वह सहन नहीं कर सका।

हम सीढ़ियों से होकर नीचे चले गए। टैक्सी वाला सो गया था। दरवाजे के खुलने की आवाज से वह हड़बड़ाकर उठा। मोहन का और मेरा वापस जाने का रास्ता अलग-अलग था। उसने मुझे नजदीकी स्टेशन के पास छोड़ दिया।

अब मुझे होश आया कि रात बहुत हो चुकी है। मैं दौड़ते-भागते स्टेशन पर चला गया। स्टेशन की सीढ़ियों से उतर ही रहा था कि लोकल रेलगाड़ी मेरे आंखों के सामने से गति पकड़कर चली गई। सुनसान प्लेटफॉर्म पर मैं खड़ा था। वह आखिरी लोकल थी। अब तड़के तक कोई गाड़ी नहीं थी। मैंने बेंच पर अपना शरीर फैला दिया। प्लेटफॉर्म की धीमी रोशनी के बावजूद आस-पास का अंधेरा अजगर के भांति निगलते जा रहा था। उस अंधेरे में भी थोड़ी देर पहले देखी लड़की का चेहरा दिख रहा था और मेरी लड़की के चेहरे के साथ घुलमिल रहा था

image

अनुवादक – डॉ. विजय शिंदे

देवगिरी महाविद्यालय, औरंगाबाद - 431005 (महाराष्ट्र)

ब्लॉग - साहित्य और समीक्षा डॉ. विजय शिंदे

COMMENTS

BLOGGER: 2
  1. भावपूर्ण प्रस्तुति.... सुन्दर अनुवाद

    जवाब देंहटाएं
  2. बेनामी10:14 am

    आपने पूरा वातावरण जमाया है। अनुवाद में भी सफल प्रतीत होता है। हिन्दी के शब्द प्रयोग भी कहानी के अनुरूप चुने हैं। मुम्बई के गोलपीठा जैसा परिवेश लगा। मूल मराठी कहानी न जानते हुए भी इतना अवश्य कह सकता हूँ। ---धन्यवाद।

    जवाब देंहटाएं
रचनाओं पर आपकी बेबाक समीक्षा व अमूल्य टिप्पणियों के लिए आपका हार्दिक धन्यवाद.

स्पैम टिप्पणियों (वायरस डाउनलोडर युक्त कड़ियों वाले) की रोकथाम हेतु टिप्पणियों का मॉडरेशन लागू है. अतः आपकी टिप्पणियों को यहाँ प्रकट होने में कुछ समय लग सकता है.

नाम

 आलेख ,1, कविता ,1, कहानी ,1, व्यंग्य ,1,14 सितम्बर,7,14 september,6,15 अगस्त,4,2 अक्टूबर अक्तूबर,1,अंजनी श्रीवास्तव,1,अंजली काजल,1,अंजली देशपांडे,1,अंबिकादत्त व्यास,1,अखिलेश कुमार भारती,1,अखिलेश सोनी,1,अग्रसेन,1,अजय अरूण,1,अजय वर्मा,1,अजित वडनेरकर,1,अजीत प्रियदर्शी,1,अजीत भारती,1,अनंत वडघणे,1,अनन्त आलोक,1,अनमोल विचार,1,अनामिका,3,अनामी शरण बबल,1,अनिमेष कुमार गुप्ता,1,अनिल कुमार पारा,1,अनिल जनविजय,1,अनुज कुमार आचार्य,5,अनुज कुमार आचार्य बैजनाथ,1,अनुज खरे,1,अनुपम मिश्र,1,अनूप शुक्ल,14,अपर्णा शर्मा,6,अभिमन्यु,1,अभिषेक ओझा,1,अभिषेक कुमार अम्बर,1,अभिषेक मिश्र,1,अमरपाल सिंह आयुष्कर,2,अमरलाल हिंगोराणी,1,अमित शर्मा,3,अमित शुक्ल,1,अमिय बिन्दु,1,अमृता प्रीतम,1,अरविन्द कुमार खेड़े,5,अरूण देव,1,अरूण माहेश्वरी,1,अर्चना चतुर्वेदी,1,अर्चना वर्मा,2,अर्जुन सिंह नेगी,1,अविनाश त्रिपाठी,1,अशोक गौतम,3,अशोक जैन पोरवाल,14,अशोक शुक्ल,1,अश्विनी कुमार आलोक,1,आई बी अरोड़ा,1,आकांक्षा यादव,1,आचार्य बलवन्त,1,आचार्य शिवपूजन सहाय,1,आजादी,3,आत्मकथा,1,आदित्य प्रचंडिया,1,आनंद टहलरामाणी,1,आनन्द किरण,3,आर. के. नारायण,1,आरकॉम,1,आरती,1,आरिफा एविस,5,आलेख,4288,आलोक कुमार,3,आलोक कुमार सातपुते,1,आवश्यक सूचना!,1,आशीष कुमार त्रिवेदी,5,आशीष श्रीवास्तव,1,आशुतोष,1,आशुतोष शुक्ल,1,इंदु संचेतना,1,इन्दिरा वासवाणी,1,इन्द्रमणि उपाध्याय,1,इन्द्रेश कुमार,1,इलाहाबाद,2,ई-बुक,374,ईबुक,231,ईश्वरचन्द्र,1,उपन्यास,269,उपासना,1,उपासना बेहार,5,उमाशंकर सिंह परमार,1,उमेश चन्द्र सिरसवारी,2,उमेशचन्द्र सिरसवारी,1,उषा छाबड़ा,1,उषा रानी,1,ऋतुराज सिंह कौल,1,ऋषभचरण जैन,1,एम. एम. चन्द्रा,17,एस. एम. चन्द्रा,2,कथासरित्सागर,1,कर्ण,1,कला जगत,113,कलावंती सिंह,1,कल्पना कुलश्रेष्ठ,11,कवि,2,कविता,3239,कहानी,2360,कहानी संग्रह,247,काजल कुमार,7,कान्हा,1,कामिनी कामायनी,5,कार्टून,7,काशीनाथ सिंह,2,किताबी कोना,7,किरन सिंह,1,किशोरी लाल गोस्वामी,1,कुंवर प्रेमिल,1,कुबेर,7,कुमार करन मस्ताना,1,कुसुमलता सिंह,1,कृश्न चन्दर,6,कृष्ण,3,कृष्ण कुमार यादव,1,कृष्ण खटवाणी,1,कृष्ण जन्माष्टमी,5,के. पी. सक्सेना,1,केदारनाथ सिंह,1,कैलाश मंडलोई,3,कैलाश वानखेड़े,1,कैशलेस,1,कैस जौनपुरी,3,क़ैस जौनपुरी,1,कौशल किशोर श्रीवास्तव,1,खिमन मूलाणी,1,गंगा प्रसाद श्रीवास्तव,1,गंगाप्रसाद शर्मा गुणशेखर,1,ग़ज़लें,550,गजानंद प्रसाद देवांगन,2,गजेन्द्र नामदेव,1,गणि राजेन्द्र विजय,1,गणेश चतुर्थी,1,गणेश सिंह,4,गांधी जयंती,1,गिरधारी राम,4,गीत,3,गीता दुबे,1,गीता सिंह,1,गुंजन शर्मा,1,गुडविन मसीह,2,गुनो सामताणी,1,गुरदयाल सिंह,1,गोरख प्रभाकर काकडे,1,गोवर्धन यादव,1,गोविन्द वल्लभ पंत,1,गोविन्द सेन,5,चंद्रकला त्रिपाठी,1,चंद्रलेखा,1,चतुष्पदी,1,चन्द्रकिशोर जायसवाल,1,चन्द्रकुमार जैन,6,चाँद पत्रिका,1,चिकित्सा शिविर,1,चुटकुला,71,ज़कीया ज़ुबैरी,1,जगदीप सिंह दाँगी,1,जयचन्द प्रजापति कक्कूजी,2,जयश्री जाजू,4,जयश्री राय,1,जया जादवानी,1,जवाहरलाल कौल,1,जसबीर चावला,1,जावेद अनीस,8,जीवंत प्रसारण,141,जीवनी,1,जीशान हैदर जैदी,1,जुगलबंदी,5,जुनैद अंसारी,1,जैक लंडन,1,ज्ञान चतुर्वेदी,2,ज्योति अग्रवाल,1,टेकचंद,1,ठाकुर प्रसाद सिंह,1,तकनीक,32,तक्षक,1,तनूजा चौधरी,1,तरुण भटनागर,1,तरूण कु सोनी तन्वीर,1,ताराशंकर बंद्योपाध्याय,1,तीर्थ चांदवाणी,1,तुलसीराम,1,तेजेन्द्र शर्मा,2,तेवर,1,तेवरी,8,त्रिलोचन,8,दामोदर दत्त दीक्षित,1,दिनेश बैस,6,दिलबाग सिंह विर्क,1,दिलीप भाटिया,1,दिविक रमेश,1,दीपक आचार्य,48,दुर्गाष्टमी,1,देवी नागरानी,20,देवेन्द्र कुमार मिश्रा,2,देवेन्द्र पाठक महरूम,1,दोहे,1,धर्मेन्द्र निर्मल,2,धर्मेन्द्र राजमंगल,1,नइमत गुलची,1,नजीर नज़ीर अकबराबादी,1,नन्दलाल भारती,2,नरेंद्र शुक्ल,2,नरेन्द्र कुमार आर्य,1,नरेन्द्र कोहली,2,नरेन्‍द्रकुमार मेहता,9,नलिनी मिश्र,1,नवदुर्गा,1,नवरात्रि,1,नागार्जुन,1,नाटक,152,नामवर सिंह,1,निबंध,3,नियम,1,निर्मल गुप्ता,2,नीतू सुदीप्ति ‘नित्या’,1,नीरज खरे,1,नीलम महेंद्र,1,नीला प्रसाद,1,पंकज प्रखर,4,पंकज मित्र,2,पंकज शुक्ला,1,पंकज सुबीर,3,परसाई,1,परसाईं,1,परिहास,4,पल्लव,1,पल्लवी त्रिवेदी,2,पवन तिवारी,2,पाक कला,23,पाठकीय,62,पालगुम्मि पद्मराजू,1,पुनर्वसु जोशी,9,पूजा उपाध्याय,2,पोपटी हीरानंदाणी,1,पौराणिक,1,प्रज्ञा,1,प्रताप सहगल,1,प्रतिभा,1,प्रतिभा सक्सेना,1,प्रदीप कुमार,1,प्रदीप कुमार दाश दीपक,1,प्रदीप कुमार साह,11,प्रदोष मिश्र,1,प्रभात दुबे,1,प्रभु चौधरी,2,प्रमिला भारती,1,प्रमोद कुमार तिवारी,1,प्रमोद भार्गव,2,प्रमोद यादव,14,प्रवीण कुमार झा,1,प्रांजल धर,1,प्राची,367,प्रियंवद,2,प्रियदर्शन,1,प्रेम कहानी,1,प्रेम दिवस,2,प्रेम मंगल,1,फिक्र तौंसवी,1,फ्लेनरी ऑक्नर,1,बंग महिला,1,बंसी खूबचंदाणी,1,बकर पुराण,1,बजरंग बिहारी तिवारी,1,बरसाने लाल चतुर्वेदी,1,बलबीर दत्त,1,बलराज सिंह सिद्धू,1,बलूची,1,बसंत त्रिपाठी,2,बातचीत,2,बाल उपन्यास,6,बाल कथा,356,बाल कलम,26,बाल दिवस,4,बालकथा,80,बालकृष्ण भट्ट,1,बालगीत,20,बृज मोहन,2,बृजेन्द्र श्रीवास्तव उत्कर्ष,1,बेढब बनारसी,1,बैचलर्स किचन,1,बॉब डिलेन,1,भरत त्रिवेदी,1,भागवत रावत,1,भारत कालरा,1,भारत भूषण अग्रवाल,1,भारत यायावर,2,भावना राय,1,भावना शुक्ल,5,भीष्म साहनी,1,भूतनाथ,1,भूपेन्द्र कुमार दवे,1,मंजरी शुक्ला,2,मंजीत ठाकुर,1,मंजूर एहतेशाम,1,मंतव्य,1,मथुरा प्रसाद नवीन,1,मदन सोनी,1,मधु त्रिवेदी,2,मधु संधु,1,मधुर नज्मी,1,मधुरा प्रसाद नवीन,1,मधुरिमा प्रसाद,1,मधुरेश,1,मनीष कुमार सिंह,4,मनोज कुमार,6,मनोज कुमार झा,5,मनोज कुमार पांडेय,1,मनोज कुमार श्रीवास्तव,2,मनोज दास,1,ममता सिंह,2,मयंक चतुर्वेदी,1,महापर्व छठ,1,महाभारत,2,महावीर प्रसाद द्विवेदी,1,महाशिवरात्रि,1,महेंद्र भटनागर,3,महेन्द्र देवांगन माटी,1,महेश कटारे,1,महेश कुमार गोंड हीवेट,2,महेश सिंह,2,महेश हीवेट,1,मानसून,1,मार्कण्डेय,1,मिलन चौरसिया मिलन,1,मिलान कुन्देरा,1,मिशेल फूको,8,मिश्रीमल जैन तरंगित,1,मीनू पामर,2,मुकेश वर्मा,1,मुक्तिबोध,1,मुर्दहिया,1,मृदुला गर्ग,1,मेराज फैज़ाबादी,1,मैक्सिम गोर्की,1,मैथिली शरण गुप्त,1,मोतीलाल जोतवाणी,1,मोहन कल्पना,1,मोहन वर्मा,1,यशवंत कोठारी,8,यशोधरा विरोदय,2,यात्रा संस्मरण,31,योग,3,योग दिवस,3,योगासन,2,योगेन्द्र प्रताप मौर्य,1,योगेश अग्रवाल,2,रक्षा बंधन,1,रच,1,रचना समय,72,रजनीश कांत,2,रत्ना राय,1,रमेश उपाध्याय,1,रमेश राज,26,रमेशराज,8,रवि रतलामी,2,रवींद्र नाथ ठाकुर,1,रवीन्द्र अग्निहोत्री,4,रवीन्द्र नाथ त्यागी,1,रवीन्द्र संगीत,1,रवीन्द्र सहाय वर्मा,1,रसोई,1,रांगेय राघव,1,राकेश अचल,3,राकेश दुबे,1,राकेश बिहारी,1,राकेश भ्रमर,5,राकेश मिश्र,2,राजकुमार कुम्भज,1,राजन कुमार,2,राजशेखर चौबे,6,राजीव रंजन उपाध्याय,11,राजेन्द्र कुमार,1,राजेन्द्र विजय,1,राजेश कुमार,1,राजेश गोसाईं,2,राजेश जोशी,1,राधा कृष्ण,1,राधाकृष्ण,1,राधेश्याम द्विवेदी,5,राम कृष्ण खुराना,6,राम शिव मूर्ति यादव,1,रामचंद्र शुक्ल,1,रामचन्द्र शुक्ल,1,रामचरन गुप्त,5,रामवृक्ष सिंह,10,रावण,1,राहुल कुमार,1,राहुल सिंह,1,रिंकी मिश्रा,1,रिचर्ड फाइनमेन,1,रिलायंस इन्फोकाम,1,रीटा शहाणी,1,रेंसमवेयर,1,रेणु कुमारी,1,रेवती रमण शर्मा,1,रोहित रुसिया,1,लक्ष्मी यादव,6,लक्ष्मीकांत मुकुल,2,लक्ष्मीकांत वैष्णव,1,लखमी खिलाणी,1,लघु कथा,288,लघुकथा,1340,लघुकथा लेखन पुरस्कार आयोजन,241,लतीफ घोंघी,1,ललित ग,1,ललित गर्ग,13,ललित निबंध,20,ललित साहू जख्मी,1,ललिता भाटिया,2,लाल पुष्प,1,लावण्या दीपक शाह,1,लीलाधर मंडलोई,1,लू सुन,1,लूट,1,लोक,1,लोककथा,378,लोकतंत्र का दर्द,1,लोकमित्र,1,लोकेन्द्र सिंह,3,विकास कुमार,1,विजय केसरी,1,विजय शिंदे,1,विज्ञान कथा,79,विद्यानंद कुमार,1,विनय भारत,1,विनीत कुमार,2,विनीता शुक्ला,3,विनोद कुमार दवे,4,विनोद तिवारी,1,विनोद मल्ल,1,विभा खरे,1,विमल चन्द्राकर,1,विमल सिंह,1,विरल पटेल,1,विविध,1,विविधा,1,विवेक प्रियदर्शी,1,विवेक रंजन श्रीवास्तव,5,विवेक सक्सेना,1,विवेकानंद,1,विवेकानन्द,1,विश्वंभर नाथ शर्मा कौशिक,2,विश्वनाथ प्रसाद तिवारी,1,विष्णु नागर,1,विष्णु प्रभाकर,1,वीणा भाटिया,15,वीरेन्द्र सरल,10,वेणीशंकर पटेल ब्रज,1,वेलेंटाइन,3,वेलेंटाइन डे,2,वैभव सिंह,1,व्यंग्य,2075,व्यंग्य के बहाने,2,व्यंग्य जुगलबंदी,17,व्यथित हृदय,2,शंकर पाटील,1,शगुन अग्रवाल,1,शबनम शर्मा,7,शब्द संधान,17,शम्भूनाथ,1,शरद कोकास,2,शशांक मिश्र भारती,8,शशिकांत सिंह,12,शहीद भगतसिंह,1,शामिख़ फ़राज़,1,शारदा नरेन्द्र मेहता,1,शालिनी तिवारी,8,शालिनी मुखरैया,6,शिक्षक दिवस,6,शिवकुमार कश्यप,1,शिवप्रसाद कमल,1,शिवरात्रि,1,शिवेन्‍द्र प्रताप त्रिपाठी,1,शीला नरेन्द्र त्रिवेदी,1,शुभम श्री,1,शुभ्रता मिश्रा,1,शेखर मलिक,1,शेषनाथ प्रसाद,1,शैलेन्द्र सरस्वती,3,शैलेश त्रिपाठी,2,शौचालय,1,श्याम गुप्त,3,श्याम सखा श्याम,1,श्याम सुशील,2,श्रीनाथ सिंह,6,श्रीमती तारा सिंह,2,श्रीमद्भगवद्गीता,1,श्रृंगी,1,श्वेता अरोड़ा,1,संजय दुबे,4,संजय सक्सेना,1,संजीव,1,संजीव ठाकुर,2,संद मदर टेरेसा,1,संदीप तोमर,1,संपादकीय,3,संस्मरण,730,संस्मरण लेखन पुरस्कार 2018,128,सच्चिदानंद हीरानंद वात्स्यायन,1,सतीश कुमार त्रिपाठी,2,सपना महेश,1,सपना मांगलिक,1,समीक्षा,847,सरिता पन्थी,1,सविता मिश्रा,1,साइबर अपराध,1,साइबर क्राइम,1,साक्षात्कार,21,सागर यादव जख्मी,1,सार्थक देवांगन,2,सालिम मियाँ,1,साहित्य समाचार,98,साहित्यम्,6,साहित्यिक गतिविधियाँ,216,साहित्यिक बगिया,1,सिंहासन बत्तीसी,1,सिद्धार्थ जगन्नाथ जोशी,1,सी.बी.श्रीवास्तव विदग्ध,1,सीताराम गुप्ता,1,सीताराम साहू,1,सीमा असीम सक्सेना,1,सीमा शाहजी,1,सुगन आहूजा,1,सुचिंता कुमारी,1,सुधा गुप्ता अमृता,1,सुधा गोयल नवीन,1,सुधेंदु पटेल,1,सुनीता काम्बोज,1,सुनील जाधव,1,सुभाष चंदर,1,सुभाष चन्द्र कुशवाहा,1,सुभाष नीरव,1,सुभाष लखोटिया,1,सुमन,1,सुमन गौड़,1,सुरभि बेहेरा,1,सुरेन्द्र चौधरी,1,सुरेन्द्र वर्मा,62,सुरेश चन्द्र,1,सुरेश चन्द्र दास,1,सुविचार,1,सुशांत सुप्रिय,4,सुशील कुमार शर्मा,24,सुशील यादव,6,सुशील शर्मा,16,सुषमा गुप्ता,20,सुषमा श्रीवास्तव,2,सूरज प्रकाश,1,सूर्य बाला,1,सूर्यकांत मिश्रा,14,सूर्यकुमार पांडेय,2,सेल्फी,1,सौमित्र,1,सौरभ मालवीय,4,स्नेहमयी चौधरी,1,स्वच्छ भारत,1,स्वतंत्रता दिवस,3,स्वराज सेनानी,1,हबीब तनवीर,1,हरि भटनागर,6,हरि हिमथाणी,1,हरिकांत जेठवाणी,1,हरिवंश राय बच्चन,1,हरिशंकर गजानंद प्रसाद देवांगन,4,हरिशंकर परसाई,23,हरीश कुमार,1,हरीश गोयल,1,हरीश नवल,1,हरीश भादानी,1,हरीश सम्यक,2,हरे प्रकाश उपाध्याय,1,हाइकु,5,हाइगा,1,हास-परिहास,38,हास्य,59,हास्य-व्यंग्य,78,हिंदी दिवस विशेष,9,हुस्न तबस्सुम 'निहाँ',1,biography,1,dohe,3,hindi divas,6,hindi sahitya,1,indian art,1,kavita,3,review,1,satire,1,shatak,3,tevari,3,undefined,1,
ltr
item
रचनाकार: मराठी कहानी – साहब, दीदी और ग़ुलाम
मराठी कहानी – साहब, दीदी और ग़ुलाम
http://lh6.ggpht.com/-6jY2Yx6PuUs/U-TCzB7RUSI/AAAAAAAAZ4Y/dk_f_AEXd64/image_thumb.png?imgmax=800
http://lh6.ggpht.com/-6jY2Yx6PuUs/U-TCzB7RUSI/AAAAAAAAZ4Y/dk_f_AEXd64/s72-c/image_thumb.png?imgmax=800
रचनाकार
https://www.rachanakar.org/2014/08/blog-post_51.html
https://www.rachanakar.org/
https://www.rachanakar.org/
https://www.rachanakar.org/2014/08/blog-post_51.html
true
15182217
UTF-8
Loaded All Posts Not found any posts VIEW ALL Readmore Reply Cancel reply Delete By Home PAGES POSTS View All RECOMMENDED FOR YOU LABEL ARCHIVE SEARCH ALL POSTS Not found any post match with your request Back Home Sunday Monday Tuesday Wednesday Thursday Friday Saturday Sun Mon Tue Wed Thu Fri Sat January February March April May June July August September October November December Jan Feb Mar Apr May Jun Jul Aug Sep Oct Nov Dec just now 1 minute ago $$1$$ minutes ago 1 hour ago $$1$$ hours ago Yesterday $$1$$ days ago $$1$$ weeks ago more than 5 weeks ago Followers Follow THIS PREMIUM CONTENT IS LOCKED STEP 1: Share to a social network STEP 2: Click the link on your social network Copy All Code Select All Code All codes were copied to your clipboard Can not copy the codes / texts, please press [CTRL]+[C] (or CMD+C with Mac) to copy Table of Content