प्रो.सी.बी. श्रीवास्तव ‘‘विदग्ध‘‘ मन की सच्ची सुख शांति तब भौतिक सुख साधन निर्धारित सीमा तक तो आवश्यक है किंतु उन्हीं में सुख है कह...
प्रो.सी.बी. श्रीवास्तव ‘‘विदग्ध‘‘
मन की सच्ची सुख शांति तब
भौतिक सुख साधन निर्धारित सीमा तक तो आवश्यक है
किंतु उन्हीं में सुख है कहना बडी भूल होगी जीवन में
भौतिकता में चकाचौंध है आकर्षण है यह भी सच है
किंतु ऊपरी चमक दमक ही तो ले जाती अधोपतन में
पष्चिम की रूपसी सभ्यता धन के मोह जाल में उलझी
अपने कल्पित सुख सागर में लगती है अतिशय डूबी है
किंतु वास्तविकता यह अपनी केलि तरंगों में क्रीडा रत
अंतर मन है अति प्यासी अपने वैभव से उबी है
भौतिकवादी दृष्टिकोण उपयोग वाद पर आधारित है
यह केवल व्यापारिक विनिमय नहीं कोई शुभ जीवन दर्शन
एक समस्या का हल्का हल सृष्ट नई समस्याओं का
जो भडकाता प्यास सदा नई पाता नहीं तृप्ति इससे मन
लिये बोझ की गठरी सिर पर थके शांति पाने को आकुल
औं हम ताक रहे है उनको उनसा सुख संसार बसाने
भूल भारतीय जीवन दर्शन भटक रहे धन की उलझन में
अटपट भूल भुलैया है यह दोनों भटके भारी भ्रम में
समझ रहे दूसरा सुखी है मन में एक अज्ञान लिये है
दोनों कम समझे जीवन को वास्तविक सुख से दूर बहुत है
क्योंकि सही समझ के ही बिन व्यर्थ बडा अभिमान लिये है
भौतिक बाह्य अध्यात्मिक अंतर इस जीवन के हैं दो पहलू
एक अंलकृत मलिन दूसरा तो मन को सुख शांति नहीं है
सच्चा सुख पाना हरेक को तब तक बहुत कठिन है
जब तक भौतिकता को आध्यात्मिक छाया में विश्रांति नहीं है
मार महंगाई की
बढ़ रही रोज महंगाई कुछ इस तरह
आदमी क्या करे समझ आता नहीं
उठ गई जिंदगी से हंसी औ खुशी
रोज चिंताओं में कुछ सुहाता नहीं
आदमी अपने घर में भी मेहमान सा
जी रहा उलझनों में परेशान सा
मार महंगाई की पड़ रही रात दिन
जिंदगी का मजा कोई आता नहीं
रंग औ रूप की बस सजावट है अब
सारी चीजों से ही स्वाद गायब है सब
सजी संवरी तो दिखती दुकानें कई
डर है हर कोई अब वहां जाता नही
जिसने देखा है सस्ता जमाना गया
उनको लगता है अटपट से रस्ता नया
थैले भर पैसे दे मुटठी भर माल ले
खाने में स्वाद अब वैसा आता नहीं
कैसी सरकार है आज त्यौहार है
मंहगे बाजार में मन गिरफ्तार है
तेल शक्कर मिठाई घी कुछ भी नहीं
तीज त्यौहार अब कुछ सुहाता नहीं
हठ है बच्चों को उनको खिलौने मिले
खाने पकवान मीठे सलोने मिले
होता मन का न उनके सिसकते है वे
बडे बूढों से जो देखा जाता नहीं
मिलावट से भी बिगडा है वातावरण
बिगड़े ईमान व्यवहार औ आचरण
चार आश्वासनों की मिली चटपटी
भूख तो पेट की कुछ बुझाती नहीं
नई सरकार लाये थे हम जिसलिये
आशा पूरी हो ऐसा दिखाता नहीं
बिन दिये दाम ज्यादा कही भी कभी
काम अपना करा कोई पाता नहीं।
शूरवीर महाराणा प्रताप
है जिसका इतिहास पुराना और विश्व में ख्याति महान
भारत की वह वीर भूमि है नाम है उसका राजस्थान
जिसकी परंपरायें अनूठी उंची आन बान औ शान
शूरवीरता, दृढता साहस निष्ठा बल उसकी पहचान
रखने अपनी बात जहां है हंसी खेल दे देना जान
धर्म न्याय कर्तव्य देश हित लाखों हुये वहॉ बलिदान
ऐसी रक्त स्नात माटी में पल के करते विनत प्रणाम
महाराणा प्रताप ने अपना शुरू किया जीवन संग्राम
वंषज थे राणा सॉगा के थी जिनकी अजेय तलवार
युद्ध विजय था जीवन जिनका कभी न देखी कोई हार
कहते है शरीर में उनके युद्धों के थे अस्सी घाव
सदा जीत पाई युद्धों में कभी न हारा कोई दॉव
खडा आज भी गढ चित्तौड में याद सजाये कीर्तिस्तंभ
उस गढ के स्वामी प्रताप थे अकबर को था अपना दम्भ
सारे राजपूत राजाओं को अपने चंगुल में फॉस
महाराणा प्रताप को भी वश में करने को थी उसकी आस
था किरकिरी आंख की अकबर को प्रताप का एकल राज
जे स्वतंत्र ध्वज फहराता था इससे थे अकबर नाराज
राजपूत को राजपूत के हाथों ही देने को मात
विजय योजना बना भेज दी सेना मानसिंह के साथ
मानसिंह अकबर के साले थे साम्राज्ञी के भाई
छोटे से मेवाड राज्य पर शाही सेना चढ आई
अरावली की हल्दी घाटी में प्रताप का था डेरा
अकबर की भारी सेना ने उन्हें वही पा आ घेरा
युद्ध हुआ घनघोर वही पर दो बिलकुल असमानों मे
पर छक्के छुडवाये शत्रु के भालो तीर कमानों ने
था प्रताप का घोडा चेतक स्वामिभक्त औ बलशाली
ले उडता था जहां कही वह वार न जाता था खाली
थे प्रताप घोडे पर अपने मान हाथी के हौदे मे
पर चेतक ने कसर न छोडी कहीं जान के सौदे मे
मानसिंह दब दुबक बच गया राणा वाले भाले से
सारी सेना दंग रह गई आफत के पर काले से
लिखता है इतिहास अनोखी घटनाये कई नामो पै
फिर भी किंतु पंरतु प्रमुख हो जाते है परिणामो मे
वार प्रबल था चेतक ने रख दी थी हाथी पर निजटाप
मरा महावत बचा मानसिंह सफल कर था विफल प्रताप
राणा का बचाव कर चेतक कूद गया नाले के पार
घायल था निहार स्वामी को गिरकर त्याग गया संसार
अपने स्वामिभक्त चेतक को खो राणा थे दुखी अपार
खडी समाधि आज भी जो तट पै करती दुखी पुकार
टूट गये राणाजी धन जन हानि से पर छोडी न आन
मन की निष्ठा यत्न और श्रम ही है शौर्य की सच पहचान
व्यर्थ नहीं जाते है जग में वीरों के कोई बलिदान
करता है इतिहास युगों युग सच्चे वीरों का सम्मान
राणा के संग भील लडाके थे और सेठ थे भामाशाह
जिन्हें राज्य औं राणा की रक्षा की थी मन से परवाह
भामा शाह ने थैली खोली भील हुये लडने तैयार
राणा ने उनकी कृतज्ञता के बदले माना आभार
किंतु सुअवसर जेा भी आते आते जीवन में एकबार
अगर चूक गये तो भर जाते मन में दुख का बडा गुबार
राणा के आदर्श आज भी है भारत के बच्चों मे
सबसे ऊपर नाम है उनका देषभक्ति के सच्चों मे
गाता है इतिहास आज भी उनकी गौरव गाथायें
ऐसा पुत्र यशस्वी पाने मन्नत करती मातायें
एक नहीं कई एक हुए नर नारी राजस्थानी है
जिनके जीवन की अलबेली पानी दार कहानी है
मानवता की गुण गरिमा को जिनने सदा सजाया है
निभा कठिन कर्तव्य स्वतः का सबका आदर पाया है
यश जिनका धन होता जग में वे ही पूजे जाते है
धन बल वाले भी उनके चरणों में शीष झुकाते है
शौर्य रहा भारतवासी के सादे तीर कमानों में
पर ममता के भाव भी रहे अनुपम उनके प्राणों में
नहीं पराजय जय महत्व की बडा सदा मन का अनुराग
उससे ही लिख पाता मानव जीवन में खुद अपना भागा
कभी जीत भी लाती अपयश कभी सुयश दे जाती हार
यश अपयश ईश्वर के हाथो मनुज का न उन पर अधिकार
दुख केा भी सुख समझा करते जो होते दृढ व्रत वाले
कभी नहीं डिगते वचनों से चाहे जो कोई कर डाले
दुख को मान कसौटी मन की बढते जाते है मानी
उन्हें नहीं विचलित कर पाती कभी कोई भी हैरानी
ऐसे ही जंगल में रह प्रताप ने अपना व्रत पाता
सदा हाथ में राह वीर के उनका निर्मोही भाला
भावुक मन पर होते जब भी क्रूर काल के कठिन प्रहार
आता याद अचानक सबको तब अपना घर औ परिवार
छोटी घटनायें भी कर जाती मन में भारी बदलाव
पर मनस्वी के दृढ निश्चय पर पडता कभी न कोई प्रभाव
वन विलाव ने भूखी बिटिया से भी जब रोटी छीनी
मॉ बेटी के आंसू तब लाये केवल चिंता झीनी
किंतु दूसरे क्षण संयत हो उनने निश्चय कर डाला
पी डालेगे शंकर के सम वे हर एक विष का प्याला
हारे लेकिन कभी न टूटे अपने अडिग विचारों से
गिरा हिमालय सिर पर फिर भी हटे न निज आधारों से
हर कठिनाई रौंद कुचल रखी प्रताप ने अपनी शान
वहीं दिया जग मे प्रसिद्ध है जिस व्रत के हित राजस्थान
महाराणा प्रताप के जीवन औ उनके आदर्श महान
जिस पर है गौरवान्वित हर भारत वासी औ सारा हिंदुस्तान
मुगल सल्तनत से लड़ निर्भय कर सब सुख सुविधा बलिदान
अकबर से भी गया सराहा वह वीर प्रताप महान
शौर्य सत्य संकल्प धर्म गुण है भारत के पानी में
मातृभूमि की भक्ति सहित जो दिखते हर बलिदानी में
सदियों बाद आज भी राणा करते हरेक हृदय पै राज
जबकि मिट गया कुछ ही सालो बाद ही अकबर का साम्राज्य
प्रो.सी.बी. श्रीवास्तव ‘‘विदग्ध‘‘
ओबी 11 एमपीईबी कालोनी
रामपुर, जबलपुर 482008
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मोहसिन 'तनहा'
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ग़ज़ल - १
रंग हरा हिन्दू और केसरी मुसलमान हो जाए।
आरती मस्जिद में, मन्दिर में अज़ान हो जाए।
मैं करूँ पाठ मानस, गीता का रोज़ तेरी तरह,
तुझको भी हिफ़्ज़ मेरा कुरआन हो जाए।
मुझमें देखे राम तू तुझमें महसूस हो अल्लाह,
कुछ इस तरह का अब अपना ईमान हो जाए।
तू झुकता है वहाँ और मैं सर नवाता हूँ यहाँ,
तेरा तिलक मेरे सजदों की पहचान हो जाए।
नस्लों, कौमों, मज़हबों से बँट गई ज़मीं सारी,
मिट जाएँ सारे फ़ल्सफ़े एक आसमान हो जाए।
'तनहा' लेकर चला तहज़ीबें मश्रिक़ - मग्रिब,
फ़ासला कुछ कम तेरे मेरे दरमियान हो जाए।
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ग़ज़ल - २
ज़मीन देती है रिज़्क इनसान को, वही ग़िज़ा बन जाती है।
परिन्दा खाता है चीटी को फिर चीटी उसे ही खाती है।
एक दरख़्त से बनती हैं माचिस की लाखों तीलियाँ,
एक माचिस की तीली लाखों दरख्तों को जलाती है।
हर चीज़ में मौजूद है फ़नाह होने की कोई ख़ास वज्ह,
अब समझा, कायनात इसीलिए तो चल पाती है।
दोस्तों इनसान की कोई बिसात नहीं वक्त के सामने,
तभी तो हर कोशिश और ताक़त कमतर हो जाती है।
'तनहा' कश्ती समन्दर में भले ही तैरा करे दिन-रात,
पानी को न ज़्यादा दोस्ती, न ज़्यादा दुश्मनी भाती है।
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ग़ज़ल - ३
ताक़त में कम, तादात में सबसे ज़ियादा हूँ मैं।
शतरंज की बिसात का बस एक पियादा हूँ मैं।
मेरी ज़िन्दगी से ही खिलवाड़ करते रहे आप,
जबके आपकी हिफ़ाज़त में तो आमादा हूँ मैं।
हरेक क़दम पे मौत चुनी है आपने मेरे लिए,
आपकी नाकाम चालों का बोना इरादा हूँ मैं।
सीधा सा रास्ता है मेरा, टेड़ा कभी चला नहीं
भीड़ ही मेरी शक्ल है और थोड़ा सादा हूँ मैं।
'तनहा' खेल कुछ यूँ खेला होकर ग़ैरमहफ़ूज़,
उन्हें ललकारा खुलेआम जिनका आ'दा हूँ मैं।
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ग़ज़ल - ४
देखे नहीं जाते हैं मुझसे मुल्क के हालात अब तो।
वतन परस्ती की करता नहीं कोई बात अब तो।
देखो बिक रहा है तिरंगा सरेआम बाज़ारों में यहाँ,
ख़रीदने लगे हैं लोग सस्ते में जज़्बात अब तो।
कौन देगा जवाब यहाँ तो सब गूँगे और बहरे हैं,
मुझको सोने नहीं देते चैन से सवालात अब तो।
माँग के भीख अमीरों की बस्ती से हो गया रईस,
वो बाँटने लगा है मज़लूमों में ख़ैरात अब तो।
जश्न क्या मनाएँ मुल्क की आज़ादी का 'तनहा',
नोच के खागई मुल्क को गिद्धों की जमात अब तो।
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ग़ज़ल - ५
हमारे मुल्क में ग़ुलामी की पहचान अभी बाक़ी है।
अँगरेज़ चले गए अँगरेज़ी ज़ुबान अभी बाक़ी है।
हिकारत की नज़रों से देखा अपनी तहज़ीब को,
उनके ढँग, तमीज़ों की दास्तान अभी बाक़ी है।
मिटा के ख़ुद ही की हस्ती बहरूपिए हो गए हम,
उनकी तरह बनने का अरमान अभी बाक़ी है।
बड़े कामयाब रहे नकल करने में आप तो साहब,
पर कुछ रंग और नस्ल का निशान अभी बाक़ी है।
हैं आगे और भी बहोत दुश्वारियों के साए 'तनहा',
अपने ही दिलों में बना हुआ गुमान अभी बाक़ी है।
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ग़ज़ल - ६
जबतक रहा, मैं रहा बहोत रुआब से।
जहाँ मौसम थे अजीब, कुछ ख़राब से।
उस शहर के जंगल में भटक के पाया,
कुछ काँटे थे लोग, थे कुछ गुलाब से।
बेशुमार सवालों से कबतक मुँह मोड़ते,
मसले हल हो गए, मेरे कुछ जवाब से।
तुमने उठाए पत्थर तो मैंने चुने आईने,
हो गए ख़फ़ा लोग कुछ इंतेख़ाब से ।
'तनहा' सहीं हैं दुनिया की सारी तोहमतें,
वो दिन ज़िदगी के थे ही कुछ अज़ाब से।
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ग़ज़ल - ७
चाहे कोई हद न हो इस आसमान की।
कोशिशें ख़त्म नहीं कीं मैंने उड़ान की।
जलाए हैं जो दिए माँ ने रौशनी के लिए,
बुझा दे उन्हें औक़ात नहीं तूफ़ान की।
ज़ख्म पाँव के मत देख मंज़िल को देख,
मिलती ही रहेंगी ठोकरें चट्टान की।
मिलेंगे कई दर्रे पहाड़ों के सीने में तुझे,
तू तय्यारी तो कर ज़रा चढ़ान की।
'तनहा' भटक रहा हूँ इन राहों पे बेखौफ़,
ज़रूरत नहीं मुझे किसी भी निशान की।
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ग़ज़ल - ८
ऐ ख़ुदा तू मुझे कभी ऐसी ऊँचाई न दे।
जहाँ से कोई अपना ही दिखाई न दे।
मैंने देखा है लोगों को रिश्ते जताते हुए,
तू अपने बारे में ज़्यादा सफ़ाई न दे।
पानी के हर्फ़ों से लिखी ख़ुदा ने तक़दीर,
इन आँखों से चाहे हमें दिखाई न दे।
मुझपे लग जाए न तोहमतें ज़माने की,
इतनी ज़्यादा भी मुझको बुराई न दे।
हिक्मत हो या हो जादूगरी बेफ़ायदा,
मुझको मेरे मर्ज़ की कोई दवाई न दे।
'तनहा' हूँ तो जानता हूँ असरात इसके,
ख़ुदा किसी को कभी ऐसी तनहाई न दे।
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लेफ़्टिनेंट डॉ. मोहसिन ख़ान
स्नातकोत्तर हिन्दी विभागाध्यक्ष
एवं शोध निर्देशक
( रा. कै. को. अधिकारी )
जे.एस.एम. महाविद्यालय,
अलीबाग (महाराष्ट्र) 402201
khanhind01@gmail.com
Blog- www.sarvahara.blogspot.com
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डॉ. प्रेम दान भारतीय
ग़ज़ल
वो कहते हैं ग्यारह ,पंद्रह ,ईक्कीस से कम में सगाई न करेंगे
रोटी दाल ,मकान- मृत्यु दवाई खर्च के बाद बचता क्या है ?
दूध -दूल्हा सब्जी -गेंहू पेट्रोल शिक्षा एक साइकिल ही लेलो
सभी तो बहुत ही मेंहगे हैं आप कहिए न जनाब सस्ता क्या है ?
माना युग की भौतिकता इस आदमी की जान लेके ही रहेगी
हैरानी ,परेशानी ,नादानी ठीक हैं लेकिन इन का रस्ता क्या है ?
शिक्षित हैरान हैं तो अनपढ़ भी किसान भी मजदूर लेखक को
योग्यता कितनी ही क्यों हों लेकिन इस युग में मिलता क्या है ?
उन्हें कोई मलाल नहीं जिनके घर में आती हों हराम की दौलत
ये अपने ही युग की हैं त्रासदी भारी इसे सुनकर तू हँसता क्या है?
न मन मैं चैन ,न दिल में सुकून न रिश्तों में जिंदापन दिखता
ये हालत हैं आदमी की अच्छी हैं इस से हालत खस्ता क्या है ?
यूं ही यह दौर चला आदमी की हैरानी का तो मुश्किल होगा ही
कुछ कर आज के आदमी यू इस कदर इतना सोचता क्या है ?
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डॉ.सुनील जाधव, नांदेड
1.
प्रात: बेला...
एक साथ उड़ते एक साथ मुड़ते
पुन: एक साथ वृक्ष पर बिराजते
बगुलों की पंक्ति नभ तीर चलाते
कबूतर गुटर गूं का राग अलापते ।
पीपल के पत्ते यों तालियाँ बजाते
अशोक-निम-निलगिरी उल्हासते
श्वेत-लाल-पीले पुष्प मगन डोलते
प्रात: की बेला मधुरगीत गुनगुनाते ।
घास के शीश पर ओस बूंद हँसते
पंच्छी जोड़ियों में खेल नया खेलते
ओसमोती आपस में शरारतें करते
सिद्धि हेतु निकले पक्षी दाने चुगते ।
बबूल के फूल कैसे आकर्षित करते
कतार बद्ध तरु एक ताल में नाचते
सुरभी को फैलाकर शुद्धता को लाते
प्रभा मंदिर यों कौन घंटियाँ बजाते ?
2.
प्रभात की आयी है बहार
...
प्रभा के पंख पर पवन सवार
शीतल उत्साह का कर संचार
नई उमंग नई तरंग की बौछार
प्रात:पुष्प की हैं महक अपार ।
यह उत्सव कौनसा बार-बार ?
वृक्ष मुस्कुरा रहे जिस प्रकार
पक्षियों का मधुर गान साकार
जागो प्रकृति कर रही सत्कार ।
बटेर लो खुशियों का उपहार
आँखे खोलो देखो निज द्वार
नींद पर करो पुन: पुन: प्रहार
निकल पडो हर्ष खड़ा बाहर ।
हाथों में लिए रथ कुसुम हार
पहन सका वही व्यक्ति स्वीकार
विजय होगी प्रति पल साभार
देखो प्रभात की आयी है बहार।
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पद्मा मिश्रा
कहाँ तुम खो गई हिंदी?
कहाँ तुम खो गई हिंदी?
न जाने कितने चौराहे,गली सड़कों ,दीवारों में,
इन उंची पट्टिकाओं पर ,टंगे बेशर्म नारों में,
विचारों में,विमर्शों में ,भाषायी प्रहारों में
कहाँ तुम खो गयी हिंदी !
कहीं गुम है तुम्हारी अस्मिता,इन संविधानो में,
कहीं हो राष्ट्र की भाषा,चुनावी प्रावधानों में.
किताबो के धुआंते अक्षरों में,सो गयी हिन्दी .
कहाँ तुम खो गयी हिन्दी?
विविध भाषा, विविध धर्मा,ये अपना देश है पावन,
तुम्हारे लोक गीतों में,कभी बरसा था ये सावन.
मगर इन रैप गीतों में,अंग्रेजी के सलीकों में
विदेशी भाव-भाषा में कहीं गुम हो गयी हिन्दी.
कहाँ तुम खो गयी हिन्दी?
कभी कुरुक्षेत्र की पीड़ा मेंसाझीदार थी हिंदी -
कहीं पर उर्वशी के रूप का,श्रृंगार थी हिंदी ,
कभीमीरा कभी गिरधर ,कभी रसखान है हिंदी,
बनी वह सूर की कृष्णा ,सु-गीता ज्ञान है हिंदी,
हमारी संस्कृति से दूर कैसे हो गई हिंदी?
कहाँ तुम खो गयी हिन्दी?--
समूचे विश्व कीसंपर्क भाषा मान है हिन्दी.
अजानी वीथिकाओं में कोई पहचान है हिन्दी.
है सींचा सृजन को जिसने,बनी वह पावनी गंगा.
अँधेरे रास्तों पर,मधुरतम सहगान है हिन्दी.
क्यों विकृत हो गयी है आज,माँ के भाल की बिंदी .
कहाँ तुम खो गयी हिन्दी?--
--पद्मा मिश्रा -जमशेदपुर
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सन्तोष कुमार सिंह
जिसकी लाठी भैंस उसी की
चोर, उचक्के, गिरहकटों का, जोर हो गया अब भारी।
बिना घूस के काम न बनता, कैसी है यह लाचारी??
दानवता हँस रही यहाँ पर, मानवता लाचार दिखी।
सत्यवादियों की गर्दन पर, हिंसा की तलवार दिखी।।
जाति-धर्म के खिंचे अखाड़े, प्रेम, अमन की चूल हिली।
नफरत की हर चिंगारी को, राजनीति की हवा मिली।।
चंदनवन सारे के सारे, अब सर्पों के नाम हुए।
द्रोपदियों के चीर खिंच रहे, ओझल भी घनश्याम हुए।।
यत्र, तत्र, सर्वत्र सभी क्षण, होते हैं संहार यहाँ ।
मानव-अंग और अस्मत के , होते हैं व्यापार यहाँ।।
छापे तिलक लगाकर बैठे, कहते खुद को योगी हैं।
स्वर्ण कलश यों भरा हुआ विष, नारी-तन के भोगी हैं।।
गाँव-नगर की गली-गली में, सजी हुईं अब मधुशाला।
है उपलब्ध सभी को आसां, हाला का भी अब प्याला।।
जिसकी लाठी भैंस उसी की, पहले थी और अब भी है।
लूट विदेशों को ले जाते, पहले धन और अब भी है।।
मिले नहीं सहयोग बताओ, बम से यहाँ मरें कैसे?
अपने बीच छुपे नागों की, हम पहचान करें कैसे??
ऐसा कोई जतन करो अब, प्रेम-प्रीति के सुमन खिलें।
भय और भ्रष्टाचार मुक्त हों, आपस में सब गले मिलें।।
सन्तोष कुमार सिंह
(कवि एवं बाल साहित्यकार)
मोतीकुंज कॉलौनी, मथुरा।
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कामिनी कामायनी
1 एक तिनका ।
एक तिनका /बूंद कोई प्यार का /
ढूँढने निकला है वह /रातों का चादर फाड़ कर/
है भरम सब ओर घेरे रास्ते को /
कब मिलेगा /प्यास अंतस की बुझाने ।
रात मे छुप जाते हैं जाने क्यों तारे /
कोई आहट/कुछ खड़क पाता नहीं/
मौन हैं सब जानवर /या सो रहे हैं /
क्यों यहाँ सन्नाटे की महफिल सजी है ?
क्यों परिंदे भी नहीं कुछ बोलते हैं ?
एक तिनका /पाँव कितना भी बढ़ा ले /छोर क्या पाएगा इस चलती हवा का /
कौन समझा है भला /उन आहटों को /
ख्वाब छोटे दम जहां पर तोड़ते हैं ।
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सीमा असीम
तुम ही बताओ हमें
सब कुछ कह कर भी लगे अभी कुछ कहा ही नहीं
इतना सुनकर भी लगे अभी कुछ सुना ही नहीं
जी भर कर रोये हम याद करके तुम्हारी
भीतर भरे सागर से एक गागर भर बहा नहीं
दिन भर तपाता कंदील सा आकाश में टंगा सूरज
खुद अपने ही ताप से वह क्यों तपा नहीं
सब कुछ है मेरे पास, क्यों ये दर्द, घुटन, बैचेनी
इतना पाकर भी लगे कुछ पाया ही नहीं
क्या करें अब हम, तुम ही बताओ हमें
न जिया जाता है और मरा भी जाता नहीं!!
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नीर बहाया नैनों ने इतना
बन गया सागर
भर गया ऊपर तक लबालब
फिर खुद डूबने लगी
डूबती गयी, डूबती गयी
अतल गहराईयों में
बना लिया वसेरा वहीँ पर
भुला कर सब कुछ
मिटाने लगी खुद को
दिशा ज्ञान तक न रहा मुझे
अब बन के आ जाओ तुम
धुवतारा
कराते रहना दिशा ज्ञान
ताकि बच सकूँ भटकने से
इस भटकन से, निजात तो मिले !!
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सुरेन्द्र कुमार अरोड़ा
वो जीवन भी क्या जीवन है
उसको साथी कभी न कहना
जो हानि - लाभ के गणित को पढ़ता
दोस्ती उससे कभी न करना
जो अहंकार के जंगल में बसता
उसका साथ कभी न देना
जो धोखे से महलों को रचता
उस पर कभी विशवास न करना
जो गिरगिट जैसे रंग बदलता
जीवन में उसको आने न देना
जो अपनेपन का पाठ न सुनता
हर दिन उससे बच कर रहना
जो देह में सब दिन खोया रहता
मन की उससे बात न करना
जो प्यार को सीढ़ी जैसा समझता
मेरे मालिक मुझको तुम भी माफ़ न करना
जो मैं किसी से नफरत करता
वो जीवन भी क्या जीवन है
जो कभी किसी के काम न आता
( सुरेन्द्र कुमार अरोड़ा) ( 18/09/2014 )
डी - 184 , श्याम पार्क एक्स्टेनशन साहिबाबाद - 201005 ( ऊ . प्र . )
(arorask1951@yahoo.com)
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विश्वम्भर पाण्डेय 'व्यग्र'
मन करता है एक बार फिर ,
मिलूं तुम्हें ओ मेरी माँ
तेरे आँचल की छाँव में ,
सुस्ताऊं मैं , मेरी माँ ।
तेरे पल्लू की ओट में ,
धीरे - धीरे आँख लगे
तुम सहलाओ माथा मेरा,
और सुनाओ, लोरी माँ ।
करूँ शरारत फिर आंगन में,
टोको मुझको बार -बार तुम
नहीं मानूं मैं फिर भी कहना,
चपत लगाऔ, मेरी माँ ।
कहते ईश्वर बड़े दयालु ,
ये राज ,आज भी बना हुआ
ऐसा कैसे हो सकता है,
छीनी जिसने, मेरी माँ ।
आने-जाने की चिन्ता ,
वो भी तेरे साथ गई
पल-पल आँखें ढूँढ रही है,
कब, आओगी मेरी माँ ।
तुम गई हो ऐसे रस्ते ,
नहीं कोई भी लौट सका
फिर खेलूँ तेरी गोदी में,
ऐसा वर दो , मेरी माँ ।
रिस्ते सब ना टिक पाते,
माँ की तुलना के आगे
वे समुन्दर से खारे है ,
गंगा जल सी, मेरी माँ ।
--
कर्मचारी कालोनी, गंगापुर सिटी ,
स. मा. , (राज)322201
000000000000000
बलबीर राणा "अडिग"
****मैं हिन्दी हूँ ****
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अतुल्य स्वर व्यजंनों की तान रही हूँ
एक सभ्य समाज की पहचान रही हूँ
ठुकरायी जा रही हूँ अब अपने ही घर से
अपने नहीं अपनों के लिए परेशान रही हूँ।
अडिग हिमालय की शान रही हूँ
विश्व बन्धुत्व की मिशाल रही हूँ
शुद्ध अक्षतों में मिलावट से
पहचान अपनी नित्य खो रही हूँ।
दुत्कार की पीड़ा हर पल दुखाती
मात्र मुँहछुवाई अब नहीं सुहाती
घर की जोगणी बाहर की सिद्धेश्वरी
सौतन की डाह अब सह नहीं जाती।
राष्ट्र भाषा हिन्दी हूँ आपकी गैर नहीं
सीखो जग की भाषा उनसे मेरा बैर नहीं
मेरे देश में मेरा पूर्ण अधिकार दे दो
अस्तित्व संसार में तुम्हारा मेरे बगैर नहीं।
वर्ष में एक दिन मेरे नाम का मनाकर
कर्तव्यों की इति श्री आखरी कब तक
फिरंगी अंग्रेजी को सर्वमान्य मान कर
मेरी बेरोजगाऱी आखरी कब तक
मेरे साथ मेरी बहनों को मान देना होगा
मेरे देश में मेरी शिक्षा को सम्मान देना होगा।
रस, छंद, अलंकार की अलौकिकता मत भूलो
सूर कबीर की अमृत वाणी मत भूलो
कितने जतन से संवारा महादेवी ने
भारुतेंदु, मुंशी प्रेमचन्द का सृजन मत भूलो।
सुन लो भारत वासी मेरी पुकार
मैं हिन्दी हूँ भारत की बिन्दी हूँ
सजता है भाल भारत माँ का मुझसे
अडिग कलमकार की जिन्दगी हूँ।
रचना:- बलबीर राणा "अडिग"
©सर्वाधिकार सुरक्षित
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अंजलि अग्रवाल
बचपन
मिट्टी के टीलों सा था वो बचपन......
जहाँ हजारों सपनों के महल बनते और बिखरते थे......
जहाँ हर रोज एक नया सपना आँखों में लिये चलते थे हम....
जहाँ दोस्तों और अपनों से घिरी रहती थी जिन्दगी.......
जहाँ बडों के साये में महफूज़ थी जिन्दगी...........
न समय का ठिकाना था न अपना बस, खुशियों से खिल-खिलाती थी जिन्दगी...........
दर्द क्या होता है ये माँ ने कभी बताया नहीं और पापा कहते थे कि खुशी का दूसरा नाम है जिन्दगी...........
हम सब बडा होना चाहते थे और एक नयी पेंन्सिल के लिए भगवान से फरियाद करते थे.........
वो दोस्तों से नोंक झोंक और टीचर की मार भी खुशी देती थी, क्योंकि उदास चेहरे को खुशी में बदलने के लिए, माँ जो पास रहती थी..............
डर तो उस चिड़िया का नाम था, जो टूटे हुए मकानों में रहती थी..
माँ को बताने लायक हर बात होती थी और भाई-बहनों से लड़ने की, कोई वजह नहीं होती थी..............
पैसे तो बस चाकलेट खरीदने के काम आते थे और इससे ज्यादा अहमियत तो पैसों की, पता ही नहीं थी..........
हम सब बड़े होकर कुछ बनना चाहते थे पर आज पता लगा कि हम तो बच्चा बनना चाहते थे........
लाखों सुनहरी यादों से भरा, बेफिक्री का था वो बचपन..........
मिट्टी के टीलों सा था वो बचपन......
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अमित कुमार गौतम 'स्वतन्त्र'
पत्थर
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क्या,
मैं इतना कठोर हूँ?
जिससे पत्थर
पड़ गया
मेरा नाम
और
देखने लगे मुझे
निर्दई लोग!!
कितना मेरा
उपयोग यहाँ
फिर भी
प्रेम न करता
मुझसे कोई!
आदिमानव ने मुझे
रगड़-रगड़ कर
आग लगा दी!
नदिया घिस-घिस कर
बालू का
रूप दिया!
चूना-सुर्की से
जोड़ मुझे
भवन का निर्माण
कर दिया!
यदि खेतों में
मिलजाऊं
तो किसान
मेढ बांध दिया!
इंसानी ठेकेदारों ने
मेरी
सड़क बना दी!
मैं
अच्छे इन हाथों में आकर
अच्छे कर्म किया!
यदि,
गलत जगह पहुंच गया
तो संगत कर्म किया!!
क्यों,
पत्थर पड़ गया
मेरा नाम?
क्यों,
पत्थर पड़ गया
मेरा नाम?
---अमित कुमार गौतम 'स्वतन्त्र'
ग्राम-रामगढ न.२,तहसील-गोपद बनास,
जिला-सीधी,मध्य प्रदेश,पिन कोड-486661
बहुत ही सुन्दर संकलन जो ढेर सारे विषयों को छुते हैं। राणा प्रताप पर आधारित कवित बहुत अच्छी लगी। स्वयं शून्य
जवाब देंहटाएंSundar sundar dhero kavitayen rachnkar ko aur un sabhi kaviyon
जवाब देंहटाएंjinke shyog se ye sambhav huva
dheron badhai