बुन्देली लोकगीतों में नारी के अव्यक्त मनोभावों की अभिव्यक्ति अंगना में बिछ गयी खटिया हाय राम टोटे में होय गयी बिटिया बिटिया भये की सस...
बुन्देली लोकगीतों में नारी के अव्यक्त मनोभावों की अभिव्यक्ति
अंगना में बिछ गयी खटिया हाय राम टोटे में होय गयी बिटिया
बिटिया भये की ससुरा ने सुन लयी हाथ से छूट गयी लठिया
हाय राम टोटे में होय गयी बिटिया
बिटिया भये की जेठा ने सुन लयी हाथ से छूट गयी लुटिया
हाय राम टोटे में होय गयी बिटिया
जिस समाज में लड़की के होने पर ये गीत गाया जाता हो निश्चित ही उस समाज में नारी की क्या स्थिति हो सकती है यह हम अंदाजा लगा सकते हैं। हमारा समाज पुरुष प्रधान रहा है यहाँ तक कि जिस घर में भाई नहीं होता था उस घर में लड़के वाले विवाह करने से कतराते थे। स्त्री को समाज में वो अधिकार और स्थान प्राप्त नहीं थे, जो उसे प्राप्त होना थे। बाल-विवाह, पर्दा-प्रथा, और वैधव्य के बन्धनों से आबद्ध नारी जीवन, घर के आँगन की चारदीवारी में सिसकता रहता था। 1
बुन्देली' सभ्यता के दूषित प्रभाव से मुक्त ग्राम्य, वन-प्रांतर की यह सरस भाषा है। ‘बुन्देली' ग्रामांचलों के लोकमानस को सहजता से प्रकट करने की भाषा है। ‘‘कोस-कोस पै बदले पानी चार कोस पै बानी''। यह लोकोक्ति यहां सार्थक परिलक्षित नहीं होती क्योंकि ‘बुन्देली' का अपना एक विस्तृत क्षेत्र और समृद्ध साहित्य है। ‘बुन्देली' एक सुविस्तृत क्षेत्र की लोक भाषा है। इसे लगभग 67,500 वर्गमील में निवास करने वाले लगभग एक करोड़ से भी अधिक नर-नारी बोलते हैं। बुन्देली लगभग चार सौ वर्षों तक राजभाषा के रूप में व्यवहृत रही है। 2
स्त्री प्रतिदिन घर परिवार और रिश्तेदारों की मानसिक प्रताड़ना और दबाव का शिकार होती थी, उस समय वह इन सबका खुलकर विरोध नहीं कर पाती थी फलतः उसके मन में कई प्रकार की धारणा बैठ जाती थी, जिन्हें वह गीतों के माध्यम से प्रकट करती थीं कई प्रकार के रिश्ते-नाते व्यक्ति के जीवन में रहते हैं। नारी तो और भी अधिक मायके और ससुराल के रिश्ते-नातों का निर्वाह करती है। मायके में उसे फिर भी अपने भावों को व्यक्त करने के अवसर प्राप्त हो जाते हैं पर ससुराल में तो वह मूक और निरीह हो जाती थी। वह प्रताड़ित होती थी पर उन भावों को अभिव्यक्त नहीं कर पाती थी, और व्यक्त करे भी तो किस से ? ऐसे भाव उसके मन के भीतरी कोने में जा बैठते। क्रोध का अतिरेक और भावनाओं का आवेग सब कुछ भीतर ही उमड़ता रहता था। ऐसी परिस्थितियों में लोकगीत उस पीड़ा की अभिव्यक्ति का सबसे सशक्त माध्यम बना, जिसमें उसने अपने ससुराली जनों को हंसी-ठिठोली के साथ अपने भावों का निशाना बनाया। अभिव्यक्ति का कोई मार्ग उनके पास नहीं था और न ही उनकी औकात थी, कुछ महिलाएँ ऐसा करने का प्रयास करतीं तो उन्हें कुल्टा आदि की संज्ञा प्रदान कर दी जाती थी।
दादरे गीतों में सास-ससुर, जेठ-जेठानी, देवर-देवरानीए, ननद-ननदेऊ और काल्पनिक सौत तक पर टीका टिप्पणी और व्यंग्य के द्वारा अपने भावों को व्यक्त करती थी।
दादरा - सरौंता कहाँ भूल आये प्यारे नन्देउआ
सास खाए लड्डू ननद खाए पेड़ा
मैं बिचारी रबड़ी खाऊं दोना चाटे सैंया ...सरौंता ..
सास चाबे लौंगें ननद चाबे लायची
मैं बिचारी बीड़ा चाबूं चूना चाटे सैंया .. सरौंता ..
सास पौढ़े खटिया ननद पौढ़े पलका
मैं बिचारी सेजा पौढ़ूं धरती लोटे सैंया ... सरौंता ..
ये लोकगीत सुगंधित हवाओं का झोंका-सा होते हैं, जिन्हें लोग आसमान से झटक लेते हैं। मुखड़ा एक गाँव में बना, अंतरा दूसरे में, गीत कहीं और पूरा हुआ। इसीलिए लोकगीत लोगों की सही तर्जुमानी करते हैं। जो बहू-बेटी घर में जबान नहीं खोल सकती, वह लोकगीतों में सबकुछ कह जाती है। मैं सोचती हूँ कि भारत की हर भाषा में रचे गये हजारों लोकगीत जरूर औरत ने रचे होंगे। न ाह सकने वाली ज्यादा बातें ही लोकगीतों में हैं। जो चक्की से पिसकर बहता है वह सिर्फ आटा नहीं होता, उपलों पर रोटी सेंकती स्त्री का हृदय भी कभी-कभी अंगारों पर सिंककर फूल उठता है। 3
सासरे को कोई मत जाना घूंघट पर्दा हो जायेगा
मैंने दिल में सोच लिया है भूखों मरना हो जायेगा।
आगे आगे चले ननदिया पीछे चलना हो जायेगा
सात बरस के लड़के से लाला जी कहना हो जायेगा
जेठा जी कमरे में आए थाली परोसना हो जायेगा
काली काली कल्लू से माताजी कहना हो जायेगा
घर बाहर दोनों जगह उसे पुरुषों के समान अधिकार प्राप्त नहीं हैं।श्रम संगठन(संयुक्त राष्टृ) की रिपोर्ट के अनुसार ‘‘दुनिया की 98 प्रतिशत पूंजी पर पुरुषों का कब्जा हैं। पुरुषों के बराबर आर्थिक और राजनीतिक सत्ता पाने में औरतों को अभी हजार वर्ष और लगेंगे'' सामाजिक आचरणों के बाद उन्नीसवीं शती में समस्त यूरोप में समानता, प्रजातंत्र मानवीय अधिकारों का जो आंदोलन उठ खड़ा हुआ था, जिसके अंतर्गत स्वतंत्र चुनाव, मजदूर संगठन और सामाजिक सुधारों की जो लहर पश्चिम में चली थी उससे वे पूर्व को मुक्त रखना चाहते थे। 4
भारतीय स्त्रियों के समक्ष खड़ी बाधा प्राचीनता है। कहने को उसके पास लोकतान्त्रिक और आर्थिक अधिकार हैं। 5
पर ये अधिकार कहने भर को हैं क्योंकि आज भी कोई बेटी को पैतृक संपत्ति में हिस्सा पुरुषों के मुकाबले बराबर नहीं है। हमारे समाज में सम्पत्ति मे से हिस्सा न देकर अनेक प्रकार से बेटी को धन देने का प्रचलन है यथा- बेटी की शादी के समय दहेज के रूप में, बच्चे होने पर पछ के रूप में और उसके यहाँ विवाह के समय भात के रूप में धन व उपहार दिये जाने का प्रचलन है। बहन के यहाँ विवाह होने पर भाई भात लेकर जाता है इसलिए वो विनती करती है-
सुनो भैया करुं विनती समय पर भात ले आना
सास को साड़ी और जम्फर ससुर को सूट सिलवाना
अगर इतना न हो भैया तो खाली हाथ आ जाना
मध्यकाल में महिलाओं की सामाजिक स्थिति प्राचीनकाल की तुलना में ठीक नहीं रही। उपनिवेशवाद के समय उनकी स्थिति और भी अधिक बिगड़ीें। समाज के निर्माण में स्त्रियों की भागीदारी महत्वपूर्ण होती है। किसी समाज के विकास के स्तर का आकलन ही इसी बात से किया जाता है कि उसमें स्त्रियों की स्थिति क्या है ? प्रायः एक समुदाय के सदस्य किसी अन्य संस्कृति के मूल्यों के साथ और एक संस्कृति में पलने वाला व्यक्ति किसी अन्य संस्कृति के मूल्यों के साथ उचित समायोजन नहीं स्थापित कर पाता। जब तक वह नए सामाजिक वातावरण के मूल्यों को स्वीकृत नहीं कर लेता, उसे मानसिक द्वंद्व का अनुभव होता रहा है। 6
उसकी पहुँच पति तक है
बहुत सही राजा, मैं अब न सहूंगी
बहुत सुनी राजा मैं फैसला करूंगी
सुसराजी लड़ेंगे उनसे कछु न कहूंगी
सासुजी बोल बोलें घुंघटा खोल के लड़ूंगी
इसी तरह वो जेठानी से कम्मर बांध के लड़ने की और देवरानी को घूंसा चार छह जड़ने की धमकी देती है।
गारी गीत- लड़की के ससुराल वालों पर न सिर्फ लड़की ही वरन् उसके मायके पक्ष के लोग भी मन ही मन नाराज रहते हैं। प्रत्यक्ष रूप से तो वो लोग कुछ कह नहीं सकते फलतः गारी गीतों के माध्यम से समधी व अन्य ससुराली जनों को खरी-खोटी सुनाई जाती हैं।
मन को एकऊ नें आओ
बड़ी-बड़ी मूछों के आये
बड़ी बड़ी नाकों के आये
बड़े बड़े पेटोंं के आये
सदियों से चारदीवारियों में रहकर औरत ने जो लोकगीतों के भंडार भरे हैं, वही उसकी असली आवाज है। इन लोगीतों को उसने ब्याह के जोड़ों की तरह तहा-तहा कर रखा। इनमें उस समय की सामाजिक, मानसिक और लोकलहर की धड़कनों को मातियों की तरह पूरे भारत में बिखेर दिया। 7
अखती खेलन कैसे जाऊँ री बरा तरे मोरे लिबऊआ
पैलऊ लिबऊआ नौआ जी आओ, नौआ के संग नई जाऊँगी
दूजे लिबऊआ ससुरा जी आओ, ससुरा के संग नई जाऊँगी
तीजे लिबऊआ देवरा जी आओ, देवरा के संग नई जाऊँगी
चौथे लिबऊआ राजा जी आये, राजा के संग चली जाऊँगी 8
ये सफर जो स्त्री ने तय किया, इस राह में आने वाली कुंठाएँ उसके साथ आज भी चिपकी हुई हैं और यदा-कदा उसकी लेखनी से झरती रहती हैं।
समधी जी अजब सिपाही मैं नौकर रख लेती जी रख लेती
मेरे बच्चों को लाते खिलाय , फुलकियाँ दो देती जी दो देती
मेरे बच्चों से करो दगाबाजी, धमूका दो देती जी दो देती
3 हरी रंगीली बांसुरी तू बोलत काहे नैयां
समधी के पेट में ईतर बोलें तीतर बोलें
मैना चार कबूतर बोलें, कैसे बोलें, ऐसे बोलें
टें टें टें टें ...
4 बब्बा के घर में न करियो सगाई अगर चाहो भलाई
जब जे बब्बा के टीका फलदान भए
नेगों की बेर इनने जेबे हलाई
5 तुमे कौने मारे कहो तो, तुमे कौने कूटे कहो तो ?
दार रांधी भटा बघारे, बेला भर घी डारे
बधावा गीत- भाई के यहाँ संतानोत्पत्ति (विश्ोषतः पुत्र) होने पर बहन बधावा लेकर आती है। बदले में वह नेग आदि की मांग करती है। भाभी ससुराल पक्ष पर वह अपना अधिकार मानने लगी है और वह ननद को कोई भी नेग देने को तैयार नहीं है।
ककनवा मांगे ननदी लाल की बधाई
ये तो ककनवा मेंरे हाथों की शोभा
रुपइया ले जा ननदी लाल की बधाई.....
ये तो रुपइया मेंरे ससुरा की कमाई, अठन्नी ले जा ननदी लाल की बधाई ...
ये तो अठन्नी मेरे जेठा की कमाई, चवन्नी ले जा ननदी लाल की बधाई....
ये तो चवन्नी मेरे देवर की कमाई, दोअन्नी ले जा ननदी लाल की बधाई ...
ये तो दोअन्नी मेरे ननदेऊ की कमाई, इकन्नी ले जा ननदी लाल की बधाई
ये तो इकन्नी मेरे पिया की कमाई, सिंधट्टा ले जा ननदी लाल की बधाई
ये तो सिंघट्टा मेरे हाथों की शोभा,दो धक्के ले जा ननदी लाल की बधाई
इसके अतिरिक्त ननद ने जो कुछ भाभी के साथ बर्ताव किया है वह उसे भूली नहीं है। इसलिए वह ननद का स्वागत कुछ इस तरह से करना चाहती हैं-
हम घर नई थे ननद घर आय गयीं
हम घर होते तो गोभी मंगवाते, गोभी के पत्तों का लहंगा सिलवातेकृ
हम घर होते तो केले मंगवाते, केले के पत्तों की चूनर बनवाते
हम घर होते तो बिच्छू मंगवाते, बीबीजी की चूनर में फूल टंकवाते
हम घर होते तो सांप मंगवाते, बीबीजी के लहंगे में नाड़ा डलवाते
जच्चा- ससुराल पक्ष के सामने महिलायें संकोचवश कुछ भी कहने से कतराती हैं इसलिए अपनी जंचगी के समय वह अपनी माँ-भाभी, भाई और बहन को बुलाने की इच्छा रखती है।
सुन री सखी इक पलंग बिछाओ मेरी दूखन लागी कमरिया
शीश्ो के कमरे में पलंग बिछाओ मेरी सासु को कर दो खबरिया
सासु ने आयें नहीं आने दो मेरी मैया को कर दो खबरिया
कई गीत ऐसे हैं जिनमें सास, जेठानी, ननद को नेग देने में आनाकानी की गयी है और इनकी जगह मैया, भाभी, और बहन को नेग देने में तत्परता दिखायी गयी है।
सृष्टि निर्माण की प्रक्रिया प्रकृति से पूरी तरह विज्ञान-सम्मत है, जिसके अनुसार प्राकृतिक रूप से स्त्री-पुरुष से अधिक सशक्त, अधिकार सम्पन्न और वैभव युक्त है। इस नियम से सुष्टि की रचनाकार व पुरुष की माँ होने के नाते अध्यात्म-प्रेरित समाज में स्त्री का दर्जा पुरुष से ऊपर होना चाहिए।
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संदर्भ-सूची
1 पृ. 94 आधी आबादी का संघर्ष- ममता जैतली और श्रीप्रकाश शर्मा
2 पृ. 111- बुन्देली भाषा और साहित्य- सं. अशोक शर्मा
3 पृ. 37 आज भी औरत मोमबत्ती की मानिंद जल रही है- पद्मा सचदेव
4 पृ. 119 आधुनिकताः साहित्य के संदर्भ में, गंगाप्रसाद विमल
5 पृ 53 वसुधाः स्त्री मुक्ति का सपना सं प्रो कमला प्रसाद
6 पृ 273 मानव विकास का मनोविज्ञान
7 पृ. 41 इक्कीसवीं सदी की ओर- सं. सुमन कृष्णकांत
8 पृ 98-बुन्देली लोक साहित्य-डॉ. रामस्वरूप श्रीवास्तव
डॉ पद्मा शर्मा
एफ-1, प्रोफेसर कॉलोनी
शिवपुरी म. प्र. 473551
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