महादेवी वर्मा के काव्य में करुण रस की अभिवव्यक्ति दुःख वस्तुतः एक बड़ी तीब्र अनुभूति है, जो मनुष्य को आत्मोपलब्धि अथवा आत्मा-सम्...
महादेवी वर्मा के काव्य में करुण रस की अभिवव्यक्ति
दुःख वस्तुतः एक बड़ी तीब्र अनुभूति है, जो मनुष्य को आत्मोपलब्धि अथवा आत्मा-सम्प्राप्ति की ओर ले जाती है। दुःख अप्रिय नहीं हैं , इसका प्रमाण स्वयं साहित्य है। ‘‘ एको रसः करूण एव निमित भेदात् ,'' कहकर कवि भवभूति ने करूण रस को प्रधानता दी । क्रौंच- वध ने आदि कवि के हृदय के शोक को श्लोक में परिणत किया ः शोकः श्लोकत्वमाप्नुयात् । लांगफेलो ने प्रत्येक व्यक्ति के जीवन में करूणा के आपात् की संभावना की है कवि श्ौली की दृष्टि में तो दुखमय भावनाओं के वाहक गीत ही मधुमय होते है -
“ Our sweetest songs are those which tell our saddest thought.”
दुःख एक ऐसी उत्कृष्ट अनुभूति है जो हमें सदा सचेत बनाये रखती है।इसलिए महादेवी के काव्य में यदि दुःख का प्राधान्य है तो कोई आश्चर्य की बात नहीं और फिर उन पर तो भगवान बुद्ध के दुःखवाद का बड़ा प्रभाव है , जिसे वे अपने शब्दों में स्वीकार कर चुकी हैं - ‘‘बचपन से ही भगवान बुद्ध के प्रति एक भक्तिमय अनुराग होने के कारण उनके संसार को दुःखात्मक समझने वाले दर्शन से मेरा असमय ही परिचय हो गया था।''1
हिन्दी साहित्य की सर्वश्रेष्ठ कवयित्री महादेवी वर्मा की प्रतिभा ने अपनी सहजात सजलता तथा मधुर वेदना से काव्य के शत् -शत् श्रृंगार किये हैं। ‘‘ नीहार '' से लेकर ‘‘ दीपशिखा '' तक महादेवी की कविता में पीड़ा की एकरसता विद्यमान है। दुःख को अत्यधिक महत्व देते हुए उन्होंने ‘‘ यामा '' की भूमिका में लिखा - ‘‘ दुःख मेरे निकट जीवन का ऐसा काव्य है जो सारे संसार को एक सूत्र में बाँधने की क्षमता रखता है ।''2
कुछ विद्वान इनकी वेदना का कारण भौतिक मानते हैं तो कुछ विद्वान आध्यात्मिक।3 महादेवी के वेदना भाव में आध्यत्मिकता ही अधिक है।4 पीड़ा उन्हें सतत् प्रिय है । उन्हें तो ‘ वेदना में जन्म , करूणा में मिला आवास '' तथा ‘‘ इस मीठी सी पीड़ा में'' उनके जीवन का प्याला डूबा है केवल आँसुओं की माला लिपटी - सी उतराती है । उसका ‘‘सर्वस्व छिपा है इन दीवानी चोटों में '' उनकी दृष्टि में तो दर्द सहना प्रिय की प्राप्ति के लिए परमावश्यक है - ‘‘ क्या हार बनेगा वह जिसने सीखा न हृदय को बिधवाना । '' यह पीड़ा मन में इतनी बढ़ी की साधिका आराध्य में भी उस पीड़ा की खोज करने लगी -
पर श्ोष नही होगी यह, मेरे प्राणों की क्रीड़ा,
तुमको पीड़ा में ढूँढा, तुममें ढूँढूगीं पीड़ा।5
इस पीड़ा में उन्हें कष्ट नहीं, वो पीड़ा चरमता तक पहुँच चुकी हैं - ‘‘ है पीड़ा की सीमा यह दुःख का चिर सुख बन जाना '' दुःख सुख से अधिक बड़ा और मूल्यवान् है। सुख की सीमाएँ है, किन्तु दुःख असीम है। एक क्षणित है तो दूसरा शाश्वत । सुख के साझे में वैसे मानवीय मूल्यों की सृष्टि नहीं होती जैसे दुःख को बाँट लेने की रीति में । दया , करूणा और सहानुभूति ये सभी मूल्य हैं और यह दुःख की साझेदारी में जन्म लेते हैं और इस तरह की साझेदारी एकता के सत्य पर ही आधारित है। लेकिन सुख व्यष्टिकेन्द्र में बँधकर एकता से दूर ही रहता है , फिर उसमें अंतिम सत्य की परिणति और अभिव्यक्ति कैसे संभव हो सकती है ? एक कारण और भी है । दुःख जितना तीव्र ,सक्रि्र्र्र्र्र्र्र्र्र्र्र्र्रय और सचेतन होता है उतना ही सुख अपने विकास में विस्मृति लिए हुए होता है और निष्किय होता जाता है। सुख में अगर विस्मृति पलती है तो दुःख में सजीवता । दर्द और दाह कहाँ नहीं हैं ? वे विश्व से विषाद, क्लेंश और ताप को दूर करके उल्लास, आनंद और शीतलता की रचना करने को उत्सुक हैं।6
प्रकृति के सभी जगह ताप और मानव के सभी व्यापारों में स्थूल से सूक्ष्मतम धरातल तक सभी जगह ताप और पीड़ा पायी जाती है। दुःख का महत्व एक दृष्टि से और भी है। वह सुख की संभावना को सत्य बनाये रखता है और उसे सार्थकता प्रदान करता है। सुख ,साधें और स्वप्न सभी पीड़ा के सत्य से सत्य हुए हैं।
1 लौ ने वर्ती को जाना है
वर्ती ने यह स्नेह ,स्नेह ने
रज का अंचल पहचाना है। (दीपशिखा)
2 रूदन में सुख की कथा है,
विरह मिलने की प्रथा है।(दीपशिखा)
सुख, स्नेह और मिलन, क्रन्दन ,ज्वाला और विरह से ही सत्य हुए । अभिलाषाएँ और स्वप्न अभाव से ही जनमते हैं। वेदना के जल में ही स्वप्नों के फूल खिलते हैं जगत और जीवन को पीड़ा ,करूणा और सहानुभूति के माध्यम समझना आवश्यक है । अतः पीड़ावाद पीड़ा के द्वारा जीवन और जगत के एकात्मतत्व को तथा एकानुभूति के सत्य को ही व्यक्त करने का प्रयास करता है , और इस निराशावाद की छाया भी उस पर नहीं पड़ सकती जो जीवन की समस्त गति को निस्पंद बना देता है।
जले दीप को फूल का प्राण दे दो,
शिखा लय-भरी,साँस को दान दे दो,
खिले अग्नि -पथ में सजल मुक्ति जलजात!
अब धरा के गान ऊबे,
मचलते हैं गगन छूने,
किरण -रथ दो,
सुरभि पथ दो,
और कह दो अमर मेरा हो चुका सन्देश।
महादेवी दीपशिखा में आँसुओं के देश में पहुँच जाती हैं आँसू महादेवी के काव्य का प्राण है और पीड़ा आत्मा । उनके काव्य में वेदना , अभाव ,करूणा और टीस काव्य के मूल स्त्रोत है। कवयित्री की रचनाओं में वेदना और दुःख के विविध रूप दृष्टिगोचर होते हैं। महादेवी ने जीवन की नश्वरता के चित्र भी खींचें है।
मैं नीर भरी दुख की बदली।
विस्तृत नभ का कोई कोना, मेरा न कभी अपना होना ।
परिचय इतना इतिहास यही, उमड़ी कल थी मिट आज चली।
स्वयं कवयित्री के शब्दों में ‘‘ जीवन के प्रति मेरे दृष्टिकोण में निराशा का फुहार है या व्यथा की आर्द्रता ,यह दूसरे ही बता सकेगें, परन्तु हृदय में आज निराशा का कोई स्पर्श नहीं पाती, केवल एक गम्भीर करूणा की छाया ही देखती हूँ । '' जीवन में संभवतः इसीलिए महादेवी जी मिलन की अपेक्षा विरह को अधिक महत्व देती हैं -
मिलन का मत नाम ले, मैं विरह में चिर हूँ ।
एक ज्वाला के बिना मैं राख का घर हूँ ।
पीड़ा और उनका जीवन परस्पर पूरक बन गए हैं । पीड़ा के बिना उनका जीवन अधूरा है । जीवन में यदि विरह की ज्वाला बुझ गयी तो खाक के सिवाय और रह ही क्या जायेगा ? सूर्यातप से तप -तप कर धरती श्स्य-श्यामल बनती है, आग में जलने पर ही धूप में से गन्ध फूटती है , अभितप्त होने पर लोहा भी मृदुता धारण कर लेता है , कच्चा घट ललनाओं का शिरोधार्य नहीं बनता , आग में पकाये जाने पर ही वह उपयोगी सिद्ध होता है, भस्म होने पर ही काष्ठ विभूति के रूप में मस्तक पर चढ़ाया जाता है, सिर काटने पर ही दीपरूप वत्तिका का प्रकाश बुद्धि को प्राप्त होता है, बड़वानल में जलने पर ही समुद्र अपनी मर्यादा की रक्षा कर पाता है , दुःख की ज्वाला में गलने पर ही मानव -मन की निष्ठुरता दूर हो पाती है। इसलिए महादेवी भी अपने जीवन दीपक को मधुर -मधुर जलने के लिए कह रही हैं -
मधुर -मधुर मेरे दीपक जल ।
युग -युग प्रतिदिन प्रतिक्षण प्रतिपल।
प्रियतम का पथ आलोकित कर ।
वेदना के महत्व और उसकी व्यापकता का उद्घोष चराचर सृष्टि में सर्वत्र सुनायी पड़ता है। जिस लोक में वेदना नहीं , जिसमें अपवाद नहीं , जिसमें ज्वाला नहीं , जिसमें मिटने का स्वाद नहीं, करूणा के उपहार के रूप में महादेवी जी उस अमरों के लोक को नहीं चाहतीं। उस लोक की अपेक्षा उन्हें यह मर्त्यलोक ही पसन्द है -
ऐसा तेरा लोक, वेदना नहीं , नहीं जिसमें अपवाद,
जलना जाना नहीं ,नहीं जिसने जाना मिटने का स्वाद।
क्या अमरों का लोक मिलेगा तेरी करूणा का उपहार ?
रहने दो हे देव, अरे, यह मेरा मिटने का अधिकार।
वेदना महादेवी के काव्य की भाव-सीमा है।7 सच कहा जाये तो वेदना और विषाद में बड़ी शक्ति पायी जाती है। मनुष्य के बीच में जो खाई पड़ जाती है उसे पाट देने का पुनीत कार्य दुःख द्वारा ही सम्पन्न होता है ,सुख तो इस प्रकार की खाई को और गहरा कर देता है। वेदना के कारण मनुष्य यह इच्छा करने लगता है कि मुझे भले ही दुःख मिलता रहे, किन्तु संसार सुखी रहे। जगत् को सुखी बनाने के लिए वह सहर्ष आत्मबलिदान करता रहता है। महादेवी जी अपने आराध्यदेव को सम्बोधित करती हुई कहती हैं -
मेरे हँसते अधर नहीं , जग की आँसू -लड़ियाँ देखो ।
मेरे गीले पलक छुओ मत, मुर्झाई कलियाँ देखो।
बादल मिटता -मिटता इन्द्रधनुष के रूप में हँस देता है , दिन ढलता -ढलता विश्व को राग से रंजित कर देता है, झरता -झरता पुष्प संसार को सुरभिमय कर जाता है, । झरता झरता पुष्प संसार को सुरभिमय कर जाता है लघु -बीज अपने को गलाकर असंख्य बीजों को जन्म देता है पुराना पत्ता अपने को गिराकर नये पत्तों को विकसित करता है उसी तरह महादेवी की वेदना करूणा और आत्मदान से तरंगायित है ,जो दूसरों कें संताप केा शीतल चंदन का रूप देने के लिए आकुल -व्याकुल है।
वेदना दुखमूलक अवश्य है किन्तु प्रत्येक स्थिति में दुखजनक नहीं होती ।8 सर्वभूतहितेरताः के कारण भी महादेवी दुःख को अपनाती हैं क्योंकि वह कवि का मोक्ष है दुःख भक्ति और अध्यात्म की ओर भी उन्मुख होता है। दुःख महादेवी जी को इसलिए प्रिय है कि इसमें व्यक्ति का अभिमान समाप्त हो जाता है, कालुष्य मिट जाता है। महादेवी की वेदना वैयक्तिक हैं; किनतु युग की सार्वजनीनता और सार्वदेशिकता की अनन्तता भी उन्हें सहज सम्प्राप्त हों गई है। यह पीड़ा ,यह टीस महादेवी के काव्य में स्वयंमेव ही आ गई है, जिसे वे सँजोती और सँवारती चलती हैं। वे अपने को वेदना की रानी कहती हैं -
अपने इस सूनेपन की मैं हूँ रानी मतवाली,
प्राणों का दीप जलाकर करती रहती रखवाली।
वेदना की आँच से उनकी हृद्यगत अनुभूतियाँ तरल होकर मोम की तरह पिघलकर बाहर आई हैं। इसीलिए अपनी साधना की सफलता में महादेवी पीड़ा को आलोक -दीप मानकर चलती हैं। पीड़ा को ही वह कभी -कभी आराध्य मानती हैं। वह अपने को पीड़ामय देखती हैं। यह पीड़ा ही उनके लिए सुख मार्ग हो गया है। यह अभाव ही उनके लिए सम्पन्नता में परिवर्तित हो गया है।
सम्भवतः महादेवी को वेदना इसलिए भी प्रिय है कि इससे इनके जीवन के साधना पक्ष के लिए एक नवलोक मिलता हो और जीवन के लक्ष्य बिन्दु तक पहुँचने में इन्हें आसानी हो। पीड़ा उन्हें सर्वाधिक प्रिय है, और वे एकाकारता की स्थिति में हैं । पीड़ा ही उनकी बड़ी निधि है। इस पीड़ा में दृढ़ता है, माधुर्य है , प्रेरणा है ,आत्मीयता है, और है चिरन्तन तक पहुँचने का मूक संकेत भी।
मैं कण -कण में ढाल रही अलि का ,
आँसू के मिस प्यार किसी का,
मैं पलको में पाल रही हूँ ,
यह सपना सुकुमार किसी का ।
वर्तमान हिन्दी कवियों में यदि दुख को सर्वाधिक गौरव प्रदान किया है तो महादेवी वर्मा ने ।9 उनकी वेदना अपनी सहज विवृति में विश्व चेतना सी बन गयी है जिसमें सम्पूर्ण मानवता का शोक भरा हुआ है। 10 महादेवी के इस दुःखवाद में जीवन की धड़कन है। इसमें उनका तन-मन धुल गया है। वे मनसा -वाचा-कर्मणा इस अभाव की उपासिका बन बैठी हैं। महादेवी की वेदनानुभूति की गहराई प्रशान्त सागर की गहराई है। सागर के ऊपर तरंगें हैं पर अतल में तो शान्ति का साम्राज्य है। महादेवी के अधरोष्ठों पर भी हँसी नाचती रहती है, किन्तु अन्तप्रदेश में एक शून्य का हाहाकार छिपा रहता है। वेदनावादिनी, अमर साधिका ,अभावों की रानी, महाश्वेता महादेवी इस युग की ही नहीं, युग - युग की उपासिका के रूप में मान्य बनी रहेंगी। उनका सम्पूर्ण जीवन पीड़ा का आश्रुसिक्त महाकाव्य है और उनके गीत इस महाकाव्य के पृष्ठ ।
संदर्भ सूची
1- पृष्ठ 5 - भूमिका-रश्मि - महादेवी वर्मा
2- भूमिका - यामा - महादेवी वर्मा
3- पृष्ठ 233 - सन्धिनी - डॉ. राजेश्वर प्रसाद चतुर्वेदी
4- पृष्ठ 51 - महादेवी का काव्य वैभव - रमेशचद्र गुप्त
5- पृष्ठ 38 - नीहार - महादेवी वर्मा
6- पृष्ठ 27 - महादेवी वर्मा - गंगाप्रसाद पाण्डेय ।
7- पृष्ठ 118 - महादेवी - सं. इन्द्रनाथ मदान।
8- पृष्ठ 45 -महादेवी वर्मा काव्य, कला और जीवन दर्शन-शचीरानी गुर्टू
9- पृष्ठ 60 - महादेवी -अभिनन्दन ग्रंथ - पं. मदनमोहन मालवीय
10- पृष्ठ 327 - हिन्दी के आधुनिक प्रतिनिधि कवि - द्वारिकाप्रसाद सक्सैना
डॉ. पद्मा शर्मा
हिन्दी विभाग
एफ-1 प्रोफेसर कॉलोनी
शिवपुरी (म0प्र0) 473551
dr.padma_sharma@rediffmail.com
क्रौंच- वध ने आदि कवि के हृदय के शोक को श्लोक में परिणत किया
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सहज
सुन्दर
उदात्त प्रस्तुति
आभार
डॉ.चन्द्रकुमार जैन