ये दुनिया बहुत बड़ी है - डॉ. दीपक आचार्य dr.deepakaacharya@gmail.com ये पृथ्वी गृह बहुत बड़ा और खुबसूरत है। दुनिया का वैभव और नजारे ...
ये दुनिया बहुत बड़ी है
- डॉ. दीपक आचार्य
ये पृथ्वी गृह बहुत बड़ा और खुबसूरत है। दुनिया का वैभव और नजारे आक्षितिज पसरे हुए हैं। एक से बढ़कर एक सौन्दर्य, ज्ञान और नैसर्गिक बिम्बों का महासागर हमारे आस-पास हमेशा विद्यमान रहता ही है जो जिज्ञासाओं के ज्वालामुखियों को शांत करता है, हमारे ज्ञान और जानकारी का अपरिमित विस्तार करता है और नित नूतनता का आनंद भी देता है।
ईश्वर ने आत्मा के साथ परिपुष्ट सुन्दर सा शरीर नवाजा है और वह इसलिए कि दुनिया में जाकर आदमी पूरे विश्व को देखे, विश्व के लिए कुछ करे और दुनिया भर में नाम कमाने लायक कुछ न कुछ करके ही लौटे।
यह पूरी की पूरी दुनिया परिभ्रमण, पर्यटन, देखने और आनंद पाने के लिए है, कुछ करने के लिए भावभूमि और प्रेरणा देती है और इतना कुछ हमारे लिए परोस कर रखती है कि हमारे लिए हजार जन्म भी कम पड़े।
बावजूद इतने सारे अपार वैभव और अनंत संभावनाओं के हम बंधकर कैद हो जाते हैं कुछ बिम्बों, कुछ स्थानों और कुछ जड़त्व भरे प्रतिबिम्बों के आभामण्डल में।
हमारे भीतर का मोह कहें या मूर्खता, अज्ञान कहें या पागलपन या फिर आत्महीनता या कछुवाई स्वभाव कि हम विराट और व्यापक को छोड़कर अंधकार के सायों को अपना बना लिया करते हैं और ईश्वरीय सत्ता द्वारा सौंपी गई सृष्टि को छोड़कर अपनी ही कोई संकीर्ण सृष्टि बना कर कूपमण्डूक होकर जीने का अपना लक्ष्य मान लिया करते हैं।
सूक्ष्म से विराट की सृष्टि करने तक का सभी प्रकार का सामथ्र्य रखने के बावजूद हम अंधे होकर सूरज से दूर भागने लगे हैं। कभी हम स्वार्थ के मारे अंधे हो जाते हैं, कभी लोभांध, मुद्रांध, कभी मदांध और कभी कामान्ध होकर ऎसे विचरण करने लगते हैं जैसे कि हम जो कुछ कर रहे हैं वही दुनिया की मर्यादा का अंग है, हम जो कुछ कह रहे हैं वही सत्य का संविधान है और हम जो कुछ सोच रहे हैं वही ईश्वर चाहता है।
हमारी मनोवृत्ति के अनुरूप तरह-तरह के चश्मे भी हमारी आँखों पर चढ़े हुए हैं जिनकी वजह से हम जगत और परिवेश में वही सब अनुभव करते हैं जो हम सोचते या करते हैं।
यह अलग बात है कि जमाना हमारे बारे में कुछ अलग ही सोचता है और जमाने का सोचना सत्य के करीब भी हो सकता है। बावजूद इसके हम निर्लज्ज और उन्मुक्त होकर वही सब कुछ करने को आमादा रहते हैं जो हमें आनंदित करता है, आनंद देता है चाहे वह बैक डोर से प्राप्त होने वाला आनंद हो या फिर झूठ-फरेब और छल-कपट से हासिल होने वाला।
अपनी इन संकीर्ण परिधियों और संकुचित बिम्बों का आनंद पाने के लिए हम हमेशा इतने अधीर, उतावले और आतुर बने होते हैं कि हमें हर क्षण अपना आयातित आनंद ही सूझता है, न हमें धर्म, सत्य और कुटुम्बियों से कोई सरोकार होता है, न समाज से और न ही हमारे किसी कत्र्तव्य कर्म से।
आनंद चुराने के चक्कर में हम इतने बड़े डकैत हो जाते हैं कि जहाँ अवसर दिखा, वहाँ समय चुरा लिया करते हैं। इस आनंद के आगे हमारे सारे के सारे राजधर्म, समाजधर्म और कुटुम्ब धर्म गौण हो जाया करते हैं और तब तक उपेक्षित रहा करते हैं जब तक कि हमारी आँखों के आगे छाये मलीन परदे नीचे नहीं गिर जाते या अनुभवों के किसी बड़े गड्ढे या पोखर की कोई अविस्मरणीय यात्रा पूर्ण नहीं हो जाती।
हममें से अधिकांश लोग इतने विराट और व्यापक कैनवास भरी सतरंगी और सुकूनदायी दुनिया होने के बावजूद कुछ गैर जरूरी बिम्बों और स्थानों के अंधे मोह से ग्रस्त होकर उन्हीं के इर्द-गिर्द परिभ्रमण करते हुए उन्हीं को संसार मान बैठते हैं, उन्हीं के बारे में सोचने और समझने की कोशिश करते रहते हैं और उन्हीं पर निगाह रखने की कोशिश करते रहते हैं।
हमारी यही आसक्ति और वैचारिक कर्षण अपने आप में मोहांध और अंधकार का प्रतीक है जो हमेंं शेष विराट दुनिया से दूर करने की भरसक कोशिश करता रहता है और हम मोहमाया या अंध कूपों के महीन संगीत को सुनने के फेर में उनके आस-पास बने रहने की कोशिशों में जगत का आनंद भुला बैठते हैं।
यह सामान्य मनुष्य के लिए स्वाभाविक ही है और यही वह अवस्था है जब गुरु या सत्संगी की जरूरत पड़ती है जो हमें सत्य का अहसास कराकर ज्ञान और विवेक की नदी में नहलाता हुआ वैश्विक दिशा-दृष्टि का बोध कराता है और तब कहीं जाकर हम मकड़जालों की माया से मुक्त होते हैं और दुनिया को जानने का प्रयास करते हैं, विश्व भर को अपना मान कर उसका आनंद पाने की यात्रा आरंभ करते हैं।
यह बात हम सभी पर लागू होती है। कुछ ही कुछ बिम्बों, परिधियों और स्थानों, बंद कमरों और चहारदीवारियों से बाहर निकलें और देखें।
पूरी दुनिया को हमारी प्रतीक्षा है। विश्व भर का आँगन हमारा अपना है, पूरा आसमान हमारा है और यह प्रकृति तो हमें अपनी गोद में खिलाने और खिलखिलाने को उत्सुक है ही।
बिम्बों, स्थानों और दालानों के दायरों में हो रही हलचलों को होने दें, तमाम हरकतों की ओर आँखें मूँद लें और बाहर निकलें। जमाने को देखें, सीखें और हमेशा ताजगी का अहसास करते हुए जमाने भर के लिए कुछ ऎसा करें कि आने वाली पीढ़ियाँ चंद फीट के घेरों और मायावी बिम्बों भरे निन्यानवें के फेर और फिगर के मोहजाल से ऊपर उठकर वैश्विक छवि बनाते हुए मनुसृष्टि को धन्य करें, विधाता को भी प्रसन्न होने का मौका दें और अपने अवतरण को गौरवशाली इतिहास का अंग बना सकें।
पर इन सभी के लिए जरूरी है सूक्ष्म से विराट की ओर अपने आपको मोड़ना। यह पूरी दुनिया बहुत बड़ी और खुबसूरत है जिसका कोई पार नहीं।
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