चॉम्स्की का रचनांतरणपरक व्याकरण एवं सार्वभौमिक व्याकरण और उसकी सीमाएँ प्रोफेसर महावीर सरन जैन हॉकेट एवं चॉम्स्की ने वर्णनात्मक एवं संरचना...
चॉम्स्की का रचनांतरणपरक व्याकरण एवं सार्वभौमिक व्याकरण और उसकी सीमाएँ
प्रोफेसर महावीर सरन जैन
हॉकेट एवं चॉम्स्की ने वर्णनात्मक एवं संरचनात्मक भाषाविज्ञान के अध्ययनों में केवल बाह्य संरचना को जानने की सीमा को पहचाना। हॉकेट ने बाह्य संरचना (surface structure) के स्तर पर समानता किन्तु गहन संरचना (deep structure) के स्तर पर अन्तर होने के उदाहरण अपनी पुस्तक में दिए हैं। इसको हिन्दी के संदर्भ में दो वाक्यों के उदाहरणों से समझा जा सकता है। (1) अच्छा लड़का एवं (2) अच्छा घर – इन दो वाक्यों में लड़का और घर संज्ञा पद हैं। मगर हम यह तो कह सकते हैं कि लड़का आता है, लड़का जाता है, लड़का पढ़ रहा है आदि आदि। मगर हम यह नहीं कह सकते कि घर आता है, घर जाता है, घर पढ़ रहा है। केवल बाह्य संरचना को जानना ही पर्याप्त नहीं है, गहन संरचना को जानना भी आवश्यक है।
चॉम्स्की का चिंतन सन् 1960 से भाषावैज्ञानिक अध्ययन का केन्द्रक रहा है। गहन संरचना को जानने के लिए चॉम्स्की ने रचनांतरणपरक व्याकरण (Transformational Grammar) का मॉडल प्रस्तुत किया। रचनांतरणपरक व्याकरण के नियमों से किसी भाषा की गहन संरचना की खोज की जा सकती है। रचनांतरणपरक व्याकरण के स्तर पर हिन्दी के उपर्युक्त उदाहरणों से हम यह ज्ञात कर पाते हैं कि ‘लड़का’ सजीव वर्ग या चेतन वर्ग की संज्ञा है, जबकि ‘घर’ निर्जीव वर्ग या अचेतन वर्ग की संज्ञा है। डॉ. एम. के. वर्मा ने अपने एक लेख में बाह्य संरचना एवं गहन संरचना का अन्तर हिन्दी की दो क्रियाओं से स्पष्ट किया है। (1) चाहना (2) सोचना। बाह्य संरचना के स्तर पर दोनों क्रिया रूप समान हैं। मगर हम यह तो कह सकते हैं कि "वह जाना चाहता है" मगर हम यह नहीं कह सकते कि "वह जाना सोचता है"। हिन्दी का व्याकरणसम्सत वाक्य होगा कि "वह जाने की सोच रहा है"। इसी प्रकार इनके निषेधात्मक वाक्यों में हम यह कह सकते हैं कि "वह नहीं जाना चाहता, मगर हम यह नहीं कह सकते कि "वह नहीं जाना सोचता"।
(द्रष्टव्य – M.K.Verma : Implication of Transformational Grammar for Language Teaching (भाषा शिक्षण तथा भाषाविज्ञान, पृष्ठ 108-117, केन्द्रीय हिन्दी संस्थान, आगरा (1969))
रचनांतरणपरक व्याकरण में सामान्यतः वाक्य का विभाजन सबसे पहले दो भागों में किया जाता है। वाक्य = (1) संज्ञा पदबंध (NP) (2) क्रिया पदबंध (VP)। ये परम्परागत व्याकरण के उद्देश्य और विधेय कोटियों के समानान्तर हैं। रचनांतरण अनेक प्रकार से होता है। यह सामान्य कथन अथवा आधार-वाक्य के किसी अंश/ किन्हीं अंशों में योजन (addition), लोप (deletion) एवं परिवर्तन (change) के द्वारा होता है। सामान्य कथन अथवा आधार-वाक्य से रचनांतरित होने वाले वाक्यों के अनेक प्रकार सम्भव हैं। हिन्दी के संदर्भ में रचनांतरित होने वाले वाक्यों के उदाहरण निम्न हैं
(1) नकारात्मक (2) प्रश्नार्थक (3) सम्भावनार्थक (4) संदेहार्थक (5) आज्ञार्थक (6) प्रेरणार्थक – प्रथम प्रेरणार्थक तथा द्वितीय प्रेरणार्थक (7) कर्मवाच्य (8) भाववाच्य (9) पूर्णकालिक (10) सातत्यबोधक (11) आवश्यतादि बोधक (12) कर्तृलोप वाले वाक्य।
प्रत्येक भाषा में सामान्य कथन अथवा आधार-वाक्यों से रचनांतरित होने वाले वाक्यों के नियम होते हैं। हिन्दी से नकारात्मक रचनांतरण के एक उदाहरण द्वारा इसे स्पष्ट किया जा सकता है।
नकारात्मक वाक्य – इसके भी अनेक उपभेद हैं। उदाहरण -
सामान्य नकारात्मक रचनांतरण
लड़का सोता है <=> लड़का नहीं सोता
नकारात्मक भाववाच्य रचनांतरण
लड़का सोता है <=> लड़के से सोया नहीं जाता
हिन्दी से बाह्य संरचना एवं गहन संरचना के अन्तर को निम्न उदाहरण द्वारा स्पष्ट किया जा सकता है।
लड़का | सोता है |
गाड़ी | चली |
चोर | घबड़ाया |
बाह्य संरचना की दृष्टि से तीनों वाक्यों की संरचना में उद्देश्य + विधेय का समान क्रम है। मगर इनका जब हम भाववाच्य रचनांतरण करते हैं तो गहन संरचना के स्तर पर इनका अन्तर स्पष्ट हो जाता है। तालिका के प्रथम वाक्य का हिन्दी में भाववाच्य रचनांतरण होता है, अन्य वाक्यों का नहीं होता।
सामान्य अथवा आधार वाक्य | भाववाच्य रचनांतरण |
लड़का सोता है। | लड़के से सोया नहीं जाता। |
हिन्दी में "गाड़ी से चला नहीं जाता" एवं "चोर से घबड़ाया नहीं जाता" जैसे वाक्य प्रयुक्त नहीं होते। इसी प्रकार का अन्तर अन्य प्रकार के वाक्यों के रचनांतरण से स्पष्ट होता है।
इसी कड़ी में चॉम्स्की ने प्रजनक व्याकरण (Generative Grammar) का मॉडल प्रस्तुत किया। वे केवल प्राप्य भाषिक सामग्री के विश्लेषण और विवेचन करने तक ही नहीं रुके। उन्होंने यह विचार दिया कि भाषावैज्ञानिक का लक्ष्य यह पता लगाना होना चाहिए कि किसी भाषा में एक वाक्य से अन्य कितने सम्भावित वाक्यों का प्रजनन हो सकता है।
चॉम्स्की ने संरचनात्मक भाषावैज्ञानिकों की भाँति अर्थ को नहीं नकारा। उन्होंने संरचनात्मक भाषावैज्ञानिकों की भाँति अर्थ की उपेक्षा नहीं की। मगर प्रकार्यवादियों की भाँति उन्होंने अर्थ को केन्द्रक भी नहीं बनाया। उनका मत है कि किसी भाषा में ऐसे व्याकरण सम्मत वाक्यों की रचना हो सकती है जो अर्थ की दृष्टि से संगत न हों। चॉम्स्की ने यह विचार प्रस्तुत किया कि प्रत्येक भाषा का देशीय भाषा-भाषी (native speaker) अपनी भाषा के अर्थ सम्मत वाक्यों का ही आभ्यंतरीकरण (internalization) करता है। हमको भाषा के देशीय भाषा-भाषी (native speaker) से प्राप्त भाषिक सामग्री का विश्लेषण करना चाहिए। इस कारण अर्थ की दृष्टि से असंगत वाक्य हमारी विवेच्य सामग्री में नहीं आएँगे। बाह्य स्तर पर जिन वाक्यों का अर्थ भेद अथवा प्रकार्य स्पष्ट नहीं होता, उनका अर्थ भेद अथवा प्रकार्य उनके रचनांतरण से स्पष्ट हो जाता है। इस प्रकार चॉम्स्की अर्थ की व्याख्या को वाक्य-विश्लेषण में अन्तर्निहित मानते हैं। वे संरचनात्मक भाषावैज्ञानिकों की भाँति अर्थ को नकारते तो नहीं हैं मगर हैलिडे आदि प्रकार्यवादियों की भाँति उसकी प्रधानता भी स्वीकार नहीं करते। इसकी विवेचना आगे की जाएगी।
अगले चरण में चॉम्स्की जैसे भाषावैज्ञानिकों ने यह प्रतिपादित किया है कि मनुष्य में भाषा अर्जन की जन्मजात सामर्थ्य होती है। चॉम्स्की ने यह प्रतिपादित किया कि पृथ्वी ग्रह पर हर सामान्य बच्चे में संज्ञानात्मक प्रतिभा होती है। इस संज्ञानात्मक प्रतिभा के कारण प्रत्येक मनुष्य बालक भाषाई सामर्थ्यवान प्राणी है। चॉम्स्की ने यह प्रतिपादित किया कि मनुष्य के डीएनए में व्याकरण ज्ञान के जीन्स विद्यमान होते हैं। वे यहीं नहीं रुके। उन्होंने 'सार्वभौमिक व्याकरण' (Universal Grammar) के सिद्धांत का प्रतिपादन किया। उन्होंने संसार को यह ज्ञान दिया कि अंग्रेजी और फ्रेंच आदि भाषाओं का भेद सतही है। दुनिया भर की सभी भाषाओं में अन्तर्निहित 'सार्वभौमिक व्याकरण' है। भाषा सामर्थ्य के कारण मनुष्य के शिशुओं के लिए भाषा को सीखना एक वृत्ति है। चॉम्स्की ने 'सार्वभौमिक व्याकरण' के जिन नियमों का निर्धारण किया वे यूरोपीय भाषाओं पर लागू हो जाते हैं। इस कारण चॉम्स्की के विचारों से लगभग चार दशकों तक भाषाविज्ञान आक्रांत रहा।
यह तो स्वीकार्य है कि मनुष्य प्रजाति में ‘भाषा’ के लिए स्पष्ट जैविक गुण विद्यमान हैं जो उसे पशु जगत से अलग कर देते हैं। मानव के मस्तिष्क में 'भाषा सीखने की सामर्थ्य’ है। यह सामर्थ्य पशु जगत से अलग है। मनुष्य भाषा के केवल शब्दों को सीखने तक सीमित नहीं रह जाता। वह वाक्य-स्तर के वाक्यों की रचना प्रक्रिया को आत्मसात कर लेता है। रचना में एक स्थान पर आने वाले उसी कोटि के शब्द प्रतिस्थापन्न कर पाता है। वह एक वाक्य से दूसरे वाक्य का प्रजनन भी कर लेता है। उसके मस्तिष्क में भाषा के व्याकरण के नियम रहते हैं। वह उन नियमों को भले ही बताने में समर्थ नहीं होता। चॉम्स्की ने तर्क दिया कि किसी भाषा का बोलने वाला जब अपनी भाषा के ऐसे वाक्य को सुनता है जो उस भाषा के व्याकरण के नियमों से मेल नहीं खाता तो उसे ऐसा वाक्य सुनना अटपटा लगता है। चॉम्स्की ने प्रतिपादित किया कि वह भले ही अपनी भाषा के व्याकरण के नियमों का प्रतिपादन करने में समर्थ नहीं होता मगर वे नियम उसके मस्तिष्क में विद्यमान रहते हैं। इसी आधार पर उसने भाषिक-सामर्थ्य अथवा भाषिक-क्षमता (Linguistic competence) एवं भाषायी-निष्पादन (Linguistic Performance) में भेद किया। मनुष्य का मस्तिष्क अपनी स्मृति क्षमता के कारण हजारों शब्दों एवं जटिल व्याकरण के नियमों को याद कर पाता है। मनुष्य में ही प्रतीकों का उपयोग करने का गुण विद्यमान है। मनुष्य के शरीर के वाग्यंत्र के विभिन्न अवयव भी अपनी भूमिका का निर्वाह करते हैं। हमारे गले में स्थित घोषतंत्री फेफडों से आगत वायु को विभिन्न प्रकार से नियंत्रित कर पाती हैं। हमारी जीभ भी विभिन्न स्थानों पर गतिशील होकर विभिन्न ध्वनियों के उच्चारण में कारक बनती है। अलिजिह्वा के नियंत्रण के कारण निरनुनासिक, अनुनासिक और अनुनासिकता की भेदक ध्वनियों का उच्चारण सम्भव हो पाता है। हमने "मानव भाषा का निर्माण एवं विकास" शीर्षक आलेख में इसकी विवेचना की है।
(आगे पढ़ें: रचनाकार: महावीर सरन जैन का आलेख - मानव भाषा का निर्माण एवं विकास
http://www.rachanakar.org/2014/10/blog-post_87.html#ixzz3GtPCdIHh)
चॉम्स्की ने यह प्रतिपादित किया कि मनुष्य प्रजाति में ‘भाषा’ के लिए स्पष्ट जैविक गुण विद्यमान हैं जो उसे पशु जगत से अलग कर देते हैं। चॉम्स्की अपने इस प्रतिपादन तक ही नहीं रुके। इससे आगे बढ़कर उन्होंने यह दावे किया कि प्रत्येक मनुष्य का बच्चा भाषा का सॉफ्टवेयर लेकर पैदा होता है। उनके इस दावे ने अनेक विवादों को जन्म दिया। संसार की समस्त भाषाओं में अन्तर्निहित व्याकरण के नियमों के सभी सम्भव सेट के रूप में प्रस्तुत चॉम्स्की का 'सार्वभौमिक व्याकरण' भी विवादास्पद है।
हम पाते हैं कि हिन्दी क्षेत्र में पैदा बच्चा हिन्दी सीखता है। टोक्यो में पैदा बच्चा जापानी सीखता है। लंदन में पैदा हुआ बच्चा अंग्रेजी सीखता है। मगर चॉम्स्की का मानना है कि यह अन्तर सतही हैं। सतह पर ये भाषाएँ बहुत अलग लगती हैं। लेकिन भाषाओं के गहन संरचना के स्तर पर एक सार्वभौमिक व्याकरण ऑपरेटिंग सिस्टम काम करता है। सार्वभौमिक व्याकरण की आधारभूत अवधारणा है कि संसार की विभिन्न भाषाओं में सार्वभौम नियम विद्यमान हैं। भाषा का वाक्य मानव मस्तिष्क में विद्यमान अमूर्त संकल्पना है। उसका व्यक्त रूप उच्चार है।
मगर चॉम्स्की ने सार्वभौमिक व्याकरण के जिन नियमों का प्रतिपादन किया वे नियम यूरोपीय भाषाओं पर तो सटीक बैठते हैं मगर बहुत सी गैर यूरोपीय भाषाओं पर लागू नहीं होते। चॉम्स्की का भाषा सामर्थ्य का सिद्धांत तो स्वीकार्य है। भाषा सीखने की सामर्थ्य केवल मनुष्य में ही होती है। मानवेतर प्राणी भाषा की कुछ ध्वनियों, शब्दों एवं वाक्यों को बोलना तो सीख सकते हैं। मगर उनमें मनुष्य के समान भाषा के वाक्यों को प्रजनन करने की क्षमता नहीं होती। किन्तु यह भी उतना ही सत्य है कि मनुष्य का बच्चा उसी भाषा को सीखता है जिस भाषा के बोलने वालों के बीच उसका पालन पोषण होता है। हमें यह स्वीकार करना होगा कि मनुष्य के बच्चे में भाषा सीखने की सामर्थ्य जन्मजात होती है मगर वह उस भाषा को सीखता है जिनके बीच उसका पालन पोषण होता है।
भारोपीय परिवार की यूरोपीय भाषाओं के अतिरिक्त अन्य भाषा परिवारों की भाषाओं के अध्येता जब 'सार्वभौमिक व्याकरण' के नियमों के आलोक में अपनी अपनी भाषा का अध्ययन सम्पन्न करने की दिशा में कदम बढ़ा रहे हैं तो उनको चॉम्स्की के 'सार्वभौमिक व्याकरण' की कमियाँ उजागर हो रही हैं।
प्रोफेसर महावीर सरन जैन
सेवानिवृत्त निदेशक, केन्द्रीय हिन्दी संस्थान, भारत सरकार
123, हरि एन्कलेव
बुलन्दशहर – 203001
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