अपनी-अपनी धर्मशालाएँ

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डॉ दीपक आचार्य बस्तियों, महकमों और दुकानों के जंगलों में भटकते हुए हर तरफ और कुछ लगे न लगे, इनमें धर्मशालाओं की पक्की छाप जरूर दिखती है। ...

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डॉ दीपक आचार्य

बस्तियों, महकमों और दुकानों के जंगलों में भटकते हुए हर तरफ और कुछ लगे न लगे, इनमें धर्मशालाओं की पक्की छाप जरूर दिखती है।

इन धर्मशालाओं में सब कुछ फ्री-स्टाईल ही है।

सारी की सारी मर्यादाएँ, संस्कार और संवेदनशीलताएं आस-पास के परिसरों या पार्कों में पार्किंग करती नज़र आती हैं।

और भीतर वह सब कुछ होता रहता है जो धर्मशालाओं की तासीर में होता है।

धर्मशालाओं से हमारी आसक्ति न पहले कभी रही है, न रहने वाली।

पर इतना जरूर है कि ये धर्मशालाएं हमारे लिए ही बनी हैं।

इनका साजो-सामान, हवाएं, परिसर, गंध और हर एक चीज पर हम अपना अधिकार मानते हैं तभी तो बिना किसी भय के उन्मुक्त होकर यूज करते हैं और यूज एण्ड थ्रो का नारा लगाते हुए उसे ठिकाने पहुंचा देते हैं।

धर्मशालाओं का अपना अनुशासन और समय तो होता है, इनमें आने और जाने वालों का न कोई समय है, न अनुशासन।

जिसकी जब मर्जी होती है, चला आता है, जब इच्छा होती है चुपचाप खिसक लेता है।

कोई पूछने वाला नहीं है।

हो भी कैसे जब आने-जाने वालों में हम सारे के सारे लोग शुमार हैं। हमसे नीचे वाले भी हमारी तरह ही हैं, और ऊपर वाले भी। पुराने वाले भी इनसे कौन से कम थे। इन्हीं परंपराओं का निर्वाह हम भी कर रहे हैं।

ऎसे में कौन किससे, किसकी और क्यों शिकायत करे।

फिर हर इंसान आजकल अपना नहीं रहा।

सबके बारे में लोग खुले आम कहते हैं - यह अपना आदमी है, यह उसका आदमी है ...।

जैसे कि हम चोर बाजार में थड़ी लगाकर सामान बेच रहे हों और दूसरे चोर बाजार के कोई गुण्डे छाप दादा या भाई लोग आ जाएं तब हम अपने बारे में नहीं, अपने आकाओं के बारे में बताते हुए गर्व और गौरव का अनुभव करते हैं।

हमारी स्थिति ठीक उस मुक्ताकाशी अजायबघर या अभयारण्य के पालतु मवेशी की तरह हो गई है जिसके जिस्म पर टैग बांध दिया गया हो इसकी पहचान का।

अब हमारी अपनी कोई पहचान नहीं रही, खूंटों, पट्टों, टैग, नेम प्लेटों या बत्तियों से हमारी पहचान होने लगी है। किसी को पड़ी नहीं है धर्मशाला के वजूद को बनाए रखने या इसके भविष्य के बारे में चिन्ता करने की।

हम सभी को पता है कि पुराने लोग भी हमारी ही तरह थे और आने वाली फसल भी तकरीबन ऎसी ही है। धर्मशालाओं का वजूद हर युग में रहेगा, आज यह तो कल इसकी जगह दूसरी बन जाएगी।

हमें तो बस मौका मिलना चाहिए।

नाम धर्मशालाओं का, और काम .... राम-राम, अपना मुँह गंदा क्यों करें।

अपना कोई धर्म नहीं है फिर भी धर्म के नाम पर हम वो सब कुछ कर गुजर रहे हैं जो धर्मशालाओं में रहकर किया या कराया जा सकता है।

धर्मशालाओं में हमारा आना-जाना या रहना भी बड़ा अजीब किस्म का है।

फेरी वालों की तरह आते हैं, गपियाते हैं, चाय-कॉफी की चुस्कियाँ लेते हैं।

दिन में कई-कई बार अपने पापी पेट को कुछ खाते-पीते रहने की इच्छा हो जाती है।

ऎसे में चाय की थड़ियों और होटलों की तरफ रूख कर देते हैं।

पहले तलाशते हैं कोई न कोई मुर्गा मिले, जिसकी जेब तराश ली जाए, मिल जाए तो भगवान का शुक्रिया अदा कर लेते हैं, न मिल पाए तो एकाध दिन अपनी जेब से ही सही, किसी से भी वसूल लेंगे।

घूमने-फिरने और खाते-पीते रहने से ही तो हमारी सेहत अभी तक एकदम हिट एण्ड फिट बनी हुई है।

धर्मशालाओं की हर चीज पर हम लोगों का सर्वाधिकार सुरक्षित लिखा हुआ है, जो औरों को कभी नहीं दिखाई देता। इसे देखने के लिए दिव्य चक्षुओं का होना जरूरी है, और वे सिर्फ हमारे पास ही हैं।

जब मर्जी हुई धर्मशाला का टीवी ऑन कर दिया और घण्टों जम गए।

हमारे पास खूब सारे संसाधन हैं जिनकी वजह से हमें धर्मशालाएं रास आती हैं।

और कुछ नहीं तो मुफत का फोन भी तो है। जब दाव लगा, मौका मिला नहीं कि फोन का चोगा उठाकर लग गए बतियाने, वह भी नॉन स्टॉप।

अपने मोबाइल से काल लोग्स को खंगाल-खंगाल कर नंबर तलाशी करते हुए ऎसे भिड़े रहते हैं जैसे कि अचानक कोई राष्ट्रीय आपदा आ गई हो और जल्द से जल्द सूचित करना पड़ रहा हो।

फिर लंच का समय हो तब तो फोन हथियाने को उतावली भेड़छाप कतारों की आतुरता देखते ही बनती है।

और आजकल तो इंटरनेट ने हमारी पूरी जिन्दगी को ही एंटरटेनमेंट बना डाला है। मुफ्त का नेटवर्क इस्तेमाल करो और व्हाट्सएप, फेसबुक और दूसरे रास्तों पर चलते हुए रमे रहो, पूरी दुनिया को मुट्ठी में और दुनिया भर की हलचलों को अपने दिमाग में चक्कर लगवाते रहो।

हमें अपने काम-धाम में उतना आनंद नहीं आता जितना रोज कुछ न कुछ बटोर कर घर ले जाने के ताने-बाने बुनने या कि हमारी ही तरह के गपोड़ियों से घण्टों बैठकर चर्चाएं करते रहने में।

हम सभी लोग भगवान के आभारी हैं जिसने दिन-रात बोलने, चर्चाएं करने वाले और हर घटना-दुर्घटना या हलचल पर बिना थके समीक्षा, आलोचना और निन्दा करने वाले संगी-साथी भरपूर संख्या में हमें दिए हैं वरना ये धर्मशालाएँ मौनघरों के रूप में अभिशप्त ही हो जाती।

फिर हमारा क्या होता, हमारे उन बतरसियों का क्या होता, जो अपनी और घर-परिवार या अपने काम-काज की बजाय पूरी दुनिया की चिन्ता करते हैं और संसार भर के कचरे को जमा कर सूंघना, पकाना और परोसना करते रहे हैं।

हे भगवान .... सबकी अपनी-अपनी धर्मशालाओं को आबाद रखना।

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- डॉ. दीपक आचार्य

9413306077

dr.deepakaacharya@gmail.com

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रचनाकार: अपनी-अपनी धर्मशालाएँ
अपनी-अपनी धर्मशालाएँ
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