सूर्यकांत मिश्रा बढ़ती जनसंख्या और घटती उत्पादन क्षमता ने हमें प्रसिद्ध अर्थशास्त्री मॉल्थस के जनसंख्या सिद्धांत की ओर पुनः आकर्षित किया ह...
सूर्यकांत मिश्रा
बढ़ती जनसंख्या और घटती उत्पादन क्षमता ने हमें प्रसिद्ध अर्थशास्त्री मॉल्थस के जनसंख्या सिद्धांत की ओर पुनः आकर्षित किया है। सदियों पूर्व मॉल्थस ने जनसंख्या सिद्धांत पर विचार करते हुए लिख दिया था कि हमें प्रकृति के विरूद्ध बढ़ रही जनसंख्या में नियंत्रण करना होगा। मॉल्थस ने स्पष्ट करते हुए कहा था कि जनसंख्या की गति 2, 4, 8, 16...जैसी गति से बढ़ रही है, जबकि खाद्यान्न उत्पादन 1, 2, 3 एवं 4... के अनुपात में आगे बढ़ता है। तब एक समय ऐसा आयेगा जब हम सीमित लोगों को ही भोजन करा पायेंगे, बाकि लोगों को भूखा ही रहना होगा। आज उक्त सिद्धांत सच्चाई की धरातल पर स्पष्ट देखा जा सकता है। इसी समस्या से निपटने हम प्रकृति के विरूद्ध आचारण करते हुए खाद्यान्न उत्पादन के लिये कीटनाशकों का प्रयोग बढ़ चढ़कर कर रहे है, जो निश्चित रूप से मानवीय शरीर के लिये दुष्परिणाम बनकर सामने आ रहा ही है। साथ ही जमीन की उर्वरा शक्ति को समाप्त कर कीटनाशकों और अधिक उत्पादन देने वाली खादों पर निर्भर कर रहा है। एक ओर जहां कीटनाशकों का प्रयोग हमारी फसलों की रक्ष्ज्ञा कर रहा है, वहीं दूसरी ओर जहरीले रसायनों का उपयोग पर्यावरण पर अनेक प्रकार के हानिकारक प्रभाव भी छोड़ रहा है।
समाप्त नहीं होता है असर
कृषि कार्यों में प्रयोग आने वाले कीटनाशकों की श्रेणियां अलग-अलग होती है। अकॉर्बनिक कीटनाशकों का प्रयोग बहुत लंबे समय से किया जा रहा है। इसमें विशेष रूप से सोडियम फ्लोराईट, सोडियम फ्लोसिलिकेट, साइरोलाईट, लाईन, सल्फर आदि शामिल है। अकॉर्बनिक रसायानों का जहां कीटनाशकों पर दुष्प्रभाव पड़ रहा है। वहीं जीव जंतुओं तथा मनुष्यों के स्वास्थ्य पर पड़ने वाला नकारात्मक प्रभाव अपना असर दिखाने लगा है। यही कारण है कि अब मनुष्य इन कीटनाशकों के उपयोग पर सचेतता बरतने लगा है। इसी तरह कॉर्बनिक कीटनाशक प्रकृति में कम समय तक अपना प्रभाव रखते हैं, इसलिये इनका उपयोग बढ़ रहा है। वास्तव में ये कीटनाशक आधुनिक है तथा विभिन्न प्रकार के कीटों के विरूद्ध अपना प्रभाव दिखाते हैं। सर्वाधिक रूप से उपयोग में लाया जाने वाला कीटनाशक डीडीटी, बीएचसी, एल्ड्रिन आदि है। बार बार इनका छिड़काव करते रहने से ये प्राकृतिक रूप से विघटित नहीं हो पाते हैं। यही कारण है कि इनका प्रभाव भोजनीय सामग्री में प्रत्यक्ष रूप से प्रवेश कर जाता है। भोजन के साथ मानव रक्त में मिलते हुए अपने विषैले प्रभाव को आंतरिक रूप से शारीरिक दोष के रूप में ला दिखाते हैं।
पशुओं और मिट्टी के लिये भी हानिकाकर है। कीटनाशकों का हानिकारक प्रभाव मानव जाति के लिये ही नहीं, वरन पशुओं एवं उपजाऊ मिट्टी पर भी अपना दुष्परिणाम दिखाता आ रहा है। डीडीटी तथा इसी के सामान अन्य यौगिकों का छिड़काव पक्षियों के प्राकृतिक आवासों को नष्ट करने के साथ स्तनपाईयों की मौत का कारण भी बन रहा है। इन्हीं कीटनाशकों का प्रयोग पक्षियों के चूजों को जीवन मिलने से पूर्व एवं पैदा होने के साथ ही मौत की नींद सुला देता है। इन दुष्परिणामों के अलावा ये कीटनाशक भोजन के माध्यम से पक्षियों के शरीर में प्रवेश कर जाते हैं। सारस, बगुले तथा जल कौंए जैसे पक्षियों की विलुप्ति पर जाने का कारण भी कीटनाशक ही बन रहे हैं। वैज्ञानिकों के अनुसार इन पक्षियों के अंडों के खोलों पर कीटनाशकों के गंभीर दुष्परिणामों को विभिन्न सर्वे एवं परीक्षणों में पाया गया है। ऐसे ही कीटनाशकों के कारण अंडों के खोल कमजोर पड़ जाते हैं तथा अंडों में से बच्चों के पोषित होकर बाहर आने से पूर्व ही अंडे फुट जाते हैं। भूमि अथवा मृदा के एक वर्ग मीटर क्षेत्र में लगभग 9 लाख बिना रीढ़ की हड्डी वाले जीव निवास करते हैं। यही वे जीव है तो उत्पादन करने वाले मृदा को उपजाऊ शक्ति प्रदान करते हैं। ऐसे ही जीवों में केचुआ भी शामिल है, जो कीटनाशकों के प्रयोग से मार जाता है। यही कारण है कि उपजाऊ भूमि कुछ वर्षों में अनुपजाऊ हो जाती है। इसके साथ ही नाईट्रोजन को संशोधित करने वाले जीवाणु भी इनके प्रयोग से मर जाते हैं।
वायुमंडल भी हो रहा प्रदूषित
कीटनाशकों का लंबे समय तक वायु मंडल में बना रहना भी अपना दुष्प्रभाव दिखा जाता है। ऐसे कीटनाशक धीमी गति से अपना असर दिखाते हुए डीडीटी की तुलना में अत्यधिक विषैला रूप अख्तियार करते है। एक बार इनका उपयोग कर लेने के बाद डीडीटी का विषैला प्रभाव दिनों दिन बढ़ता ही जाता है। अधिकांश कीटनाशक न तो सहजता से नष्ट होते है और न ही पशुओं द्वारा पचाये जा सकते हैं। इनके प्रयोग से ऐसी प्रजातियां एवं जीव भी नष्ट हो जाते हैं जो लाभदायी होते हैं। इससे प्राकृतिक परजीवियों के समूल नष्ट होने का खतरा पैदा हो जाता है। कीटनाशकों के निरंतर प्रयोग से कीटों की प्रतिरोधक शक्ति भी बढ़ती जाती है, जो आगे चलकर हर प्रकार से वायु मंडल के लिये घातक सिद्ध होती है। खेतों में कीटनाशकों का उतना ही उपयोग अच्छा माना जा सकता है, जितना की फसल को नुकसान पहुंचाने वाले कीटों पर नियंत्रण के लिये जरूरी हो, न की अधिक उत्पादन की लालच में बहुतेरा उपयोग।
पानी से लेकर खाद्य पदार्थों में हो रहा उपयोग
21वीं शताब्दी में भागती दौड़ती जिंदगी ने कीटनाशकों के प्रयोग को बे-इंतहा बढ़ा दिया है। अब खेतों और खलिहानों से बाहर निकलते हुए कीटनाशकों के प्रयोग ने सामान्य खाने पीने की वस्तुओं तक अपना दायरा बढ़ा दिया है। सभी प्रकार के पेय पदार्थों से लेकर बोतल बंद पानी में भी इनका प्रयोग किया जा रहा है। पानी की बोतल महीने भर या उससे भी अधिक उस पानी को शुद्ध बताती है, जो हम पहले कभी दूसरे दिन भी उपयेाग नहीं करते थे। बड़ी शान से हम पाऊच और बोलत बंद पानी पी रहे हैं और रहन सहन के स्तर की डींगे हाक रहे हैं, जबकि प्रतिदिन आपूर्ति किया जाना वाला पानी इससे कहीं अधिक बेहतर होता है। इसी तरह कोल्ड्रिंग्स से लेकर डिब्बा बंद भोजन भी इन्हीं कीटनाशकों (प्रेस्टिसाईट्स) के दम पर बेचे जा रहे हैं। बड़े शान से पूरा परिवार ऐसे ही डिब्बा बंद खाद्य सामग्रियों का उपयोग कर अपने उच्च जीवन स्तर पर ढिंढोरा पीट रहा है, जो वास्तव में हमारे स्वास्थ्य के लिये ताजे और गर्म भोजन की तुलना में श्रेष्ठ नहीं कहा जा सकता है। प्रेस्टिसाईट्स से युक्त भोजन और पेय पदार्थ हमारे शरीर की रोग प्रतिरोधक क्षमता के लिये भी उपयुक्त नहीं माना जा सकता है।
(डॉ. सूर्यकांत मिश्रा)
जूनी हटरी, राजनांदगांव (छत्तीसगढ़)
मो. नंबर 94255-59291
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