हिन्दी भाषा : क्षेत्र, स्वरूप तथा विकास

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प्रोफेसर महावीर सरन जैन 1.भाषा-क्षेत्र एवं हिन्दी भाषा प्रत्येक भाषा के अनेक भेद होते हैं। किसी भी भाषा-क्षेत्र में एक ओर भाषा-क्षेत्र की...

प्रोफेसर महावीर सरन जैन

1.भाषा-क्षेत्र एवं हिन्दी भाषा

प्रत्येक भाषा के अनेक भेद होते हैं। किसी भी भाषा-क्षेत्र में एक ओर भाषा-क्षेत्र की क्षेत्रगत भिन्नताओं के आधार पर अनेक भेद होते हैं (यथा – बोली और भाषा) तो दूसरी ओर सामाजिक भिन्नताओं के आधार पर भाषा की वर्गगत बोलियाँ होती हैं। भाषा-व्यवहार अथवा भाषा-प्रकार्य की दृष्टि से भी भाषा के अनेक भेद होते हैं। (यथा- मानक भाषा, उपमानक भाषा अथवा शिष्टेतर भाषा, अपभाषा, विशिष्ट वाग्व्यवहार की शैलियाँ, साहित्यिक भाषा आदि)। विशिष्ट प्रयोजनों की सिद्धि के लिए प्रयोजनमूलक भाषा के अनेक रूप होते हैं जिनकी चर्चा लेखक ने प्रकार्यात्मक भाषाविज्ञान के संदर्भ में की है।1

जब भिन्न भाषाओं के बोलने वाले एक ही क्षेत्र में निवास करने लगते हैं तो भाषाओं के संसर्ग से विशिष्ट भाषा प्रकार विकसित हो जाते हैं। (यथा -पिजिन, क्रिओल)। भाषा के असामान्य रूपों के उदाहरण गुप्त भाषा एवं कृत्रिम भाषा आदि हैं।

इस आलेख का उद्देश्य भाषा-क्षेत्र की अवधारणा को स्पष्ट करना तथा हिन्दी भाषा-क्षेत्र के विविध क्षेत्रीय भाषिक-रूपों के सम्बंध में विवेचना करना है। यहाँ यह कहना अप्रासंगिक न होगा कि इस सम्बंध में न केवल सामान्य व्यक्ति के मन में अनेक भ्रामक धारणाएँ बनी हुई हैं प्रत्युत हिन्दी भाषा के कतिपय अध्येताओं, विद्वानों तथा प्रतिष्ठित आलोचकों का मन भी तत्सम्बंधित भ्रांतियों से मुक्त नहीं है। हिन्दी कभी अपने भाषा-क्षेत्र की सीमाओं में नहीं सिमटी। यह हिमालय से लेकर कन्याकुमारी और द्वारका से लेकर कटक तक भारतीय लोक चेतना की संवाहिका रही। सम्पर्क भाषा हिन्दी की एक अन्य विशिष्टता यह रही कि यह किसी बँधे बँधाए मानक रूप की सीमाओं में नहीं जकड़ी। यहाँ यह उल्लेखनीय है कि केवल बोलचाल की भाषा में ही यह प्रवृत्ति नहीं है; साहित्य में प्रयुक्त हिन्दी में भी यह प्रवृत्ति मिलती है।

हिन्दी साहित्य की समावेशी एवं संश्लिष्ट परम्परा रही है, हिन्दी साहित्य के इतिहास की समावेशी एवं संश्लिष्ट परम्परा रही है और हिन्दी साहित्य के अध्ययन और अध्यापन की भी समावेशी एवं संश्लिष्ट परम्परा रही है। हिन्दी की इस समावेशी एवं संश्लिष्ट परम्परा को जानना बहुत जरूरी है तथा इसे आत्मसात करना भी बहुत जरूरी है तभी हिन्दी क्षेत्र की अवधारणा को जाना जा सकता है और जो ताकतें हिन्दी को उसके अपने ही घर में तोड़ने का कुचक्र रच रही हैं तथा हिन्दी की ताकत को समाप्त करने के षड़यंत्र कर रही हैं उन ताकतों के षड़यंत्रों को बेनकाब किया जा सकता है तथा उनके कुचक्रों को ध्वस्त किया जा सकता है।

वर्तमान में हम हिन्दी भाषा के इतिहास के बहुत महत्वपूर्ण मोड़ पर खड़े हुए हैं। आज बहुत सावधानी बरतने की जरूरत है। आज हिन्दी को उसके अपने ही घर में तोड़ने के जो प्रयत्न हो रहे हैं सबसे पहले उन्हे जानना और पहचानना जरूरी है और इसके बाद उनका प्रतिकार करने की जरूरत है। यदि आज हम इससे चूक गए तो इसके भयंकर परिणाम होंगे। मुझे सन् 1993 के एक प्रसंग का स्मरण आ रहा है। मध्य प्रदेश के तत्कालीन शिक्षा मंत्री ने भारत सरकार के मानव संसाधन मंत्री को मध्य प्रदेश में ‘मालवी भाषा शोध संस्थान’ खोलने तथा उसके लिए अनुदान का प्रस्ताव भेजा था। उस समय भारत सरकार के मानव संसाधन मंत्री श्री अर्जुन सिंह थे जिनके प्रस्तावक से निकट के सम्बंध थे। मंत्रालय ने उक्त प्रस्ताव केन्द्रीय हिन्दी संस्थान के निदेशक होने के नाते लेखक के पास टिप्पण देने के लिए भेजा। लेखक ने सोच समझकर टिप्पण लिखा: “भारत सरकार को पहले यह सुनिश्चित करना चाहिए कि मध्य प्रदेश हिन्दी भाषी राज्य है अथवा बुन्देली, बघेली, छत्तीसगढ़ी, मालवी, निमाड़ी आदि भाषाओं का राज्य है”। मुझे पता चला कि उक्त टिप्पण के बाद प्रस्ताव को ठंढे बस्ते में डाल दिया गया।

एक ओर हिन्दीतर राज्यों के विश्वविद्यालयों और विदेशों के लगभग 176 विश्वविद्यालयों एवं संस्थाओं में हजारों की संख्या में शिक्षार्थी हिन्दी के अध्ययन-अध्यापन और शोध कार्य में समर्पण-भावना तथा पूरी निष्ठा से प्रवृत्त तथा संलग्न हैं वहीं दूसरी ओर हिन्दी भाषा-क्षेत्र में ही अनेक लोग हिन्दी के विरुद्ध साजिश रच रहे हैं। सामान्य व्यक्ति ही नहीं, हिन्दी के तथाकथित विद्वान भी हिन्दी का अर्थ खड़ी बोली मानने की भूल कर रहे हैं। हिन्दी साहित्य को जिंदगी भर पढ़ाने वाले, हिन्दी की रोजी , खाने वाले रोटी हिन्दी की कक्षाओं में हिन्दी पढ़ने वाले विद्यार्थियों को विद्यापति, जायसी, तुलसीदास, सूरदास जैसे हिन्दी के महान साहित्यकारों की रचनाओं को पढ़ाने वाले अध्यापक तथा इन पर शोध एवं अनुसंधान करने एवं कराने वाले आलोचक भी न जाने किस लालच में या आँखों पर पट्टी बाँधकर यह घोषणा कर रहे हैं कि हिन्दी का अर्थ तो केवल खड़ी बोली है। भाषा विज्ञान के भाषा-भूगोल एवं बोली विज्ञान (Linguistic Geography and Dialectology) के सिद्धांतों से अनभिज्ञ ये लोग ऐसे वक्तव्य जारी कर रहे हैं जैसे वे इन विषयों के विशेषज्ञ हों। क्षेत्रीय भावनाओं को उभारकर एवं भड़काकर ये लोग हिन्दी की समावेशी एवं संश्लिष्ट परम्परा को नष्ट करने पर आमादा हैं।

जब लेखक जबलपुर के विश्वविद्यालय के स्नातकोत्तर हिन्दी एवं भाषाविज्ञान विभाग का प्रोफेसर था, उसके पास विभिन्न विश्वविद्यालयों से हिन्दी की उपभाषाओं / बोलियों पर पी-एच. डी. एवं डी. लिट्. उपाधियों के लिए प्रस्तुत शोध प्रबंध जाँचने के लिए आते थे। लेखक ने ऐसे अनेक शोध प्रबंध देखें जिनमें एक ही पृष्ठ पर एक पैरा में विवेच्य बोली को उपबोली का दर्जा दिया दिया गया, दूसरे पैरा में उसको हिन्दी की बोली निरुपित किया गया तथा तीसरे पैरा में उसे भारत की प्रमुख भाषा के अभिधान से महिमामंडित कर दिया गया।

इससे यह स्पष्ट है कि शोध छात्रों अथवा शोध छात्राओं को तो जाने ही दीजिए उन शोध छात्रों अथवा शोध छात्राओं के निर्देशक महोदय भी भाषा-भूगोल एवं बोली विज्ञान (Linguistic Geography and Dialectology) के सिद्धांतों से अनभिज्ञ थे।

सन् 2009 में, लेखक ने नामवर सिंह का यह वक्तव्य पढ़ाः

“हिंदी समूचे देश की भाषा नहीं है वरन वह तो अब एक प्रदेश की भाषा भी नहीं है। उत्तरप्रदेश, बिहार जैसे राज्यों की भाषा भी हिंदी नहीं है। वहाँ की क्षेत्रीय भाषाएँ यथा अवधी, भोजपुरी, मैथिल आदि हैं”। इसको पढ़कर मैने नामवर सिंह के इस वक्तव्य पर असहमति के तीव्र स्वर दर्ज कराने तथा हिन्दी के विद्वानों को वस्तुस्थिति से अवगत कराने के लिए लेख लिखा। हिन्दी के प्रेमियों से लेखक का यह अनुरोध है कि इस लेख का अध्ययन करने की अनुकंपा करें जिससे हिन्दी के कथित बड़े विद्वान एवं आलोचक डॉ. नामवर सिंह जैसे लोगों के हिन्दी को उसके अपने ही घर में तोड़ डालने के मंसूबे ध्वस्त हो सकें तथा ऐसी ताकतें बेनकाब हो सकें। जो व्यक्ति मेरे इस कथन को विस्तार से समझना चाहते हैं, वे मेरे ‘क्या उत्तर प्रदेश एवं बिहार हिन्दी भाषी राज्य नहीं हैं’ शीर्षक लेख का अध्ययन कर सकते हैं।2

भाषा क्षेत्र

एक भाषा का जन-समुदाय अपनी भाषा के विविध भेदों एवं रूपों के माध्यम से एक भाषिक इकाई का निर्माण करता है। विविध भाषिक भेदों के मध्य सम्भाषण की सम्भाव्यता से भाषिक एकता का निर्माण होता है। एक भाषा के समस्त भाषिक-रूप जिस क्षेत्र में प्रयुक्त होते हैं उसे उस भाषा का ‘भाषा-क्षेत्र’ कहते हैं। प्रत्येक ‘भाषा क्षेत्र में भाषिक भिन्नताएँ प्राप्त होती हैं। यहाँ यह उल्लेखनीय है कि भाषा की भिन्नताओं का आधार प्रायः वर्णगत एवं धर्मगत नहीं होता। एक वर्ण या एक धर्म के व्यक्ति यदि भिन्न भाषा क्षेत्रों में निवास करते हैं तो वे भिन्न भाषाओं का प्रयोग करते हैं। हिन्दू मुसलमान आदि सभी धर्मावलम्बी तमिलनाडु में तमिल बोलते हैं तथा केरल में मलयालम। इसके विपरीत यदि दो भिन्न वर्णों या दो धर्मां के व्यक्ति एक भाषा क्षेत्र मे रहते हैं तो उनके एक ही भाषा को बोलने की सम्भावनाएँ अधिक होती हैं। हिन्दी भाषा क्षेत्र में ब्राह्मण, क्षत्रिय, वैश्व आदि सभा वर्णों के व्यक्ति हिन्दी का प्रयोग करते हैं। यह बात अवश्य है कि विशिष्ट स्थितियों में वर्ण या धर्म के आधार पर भाषा में बोलीगत अथवा शैलगत प्रभेद हो जाते हैं। कभी-कभी ऐसी भी स्थितियाँ विकसित हो जाती हैं जिनके कारण एक भाषा के दो रूपों को दो भिन्न भाषाएँ समझा जाने लगता है।3

प्रश्न यह उपस्थित होता है कि हम यह किस प्रकार निर्धारित करें कि उच्चारण के कोई दो रूप एक ही भाषा के भिन्न रूप हैं अथवा अलग-अलग भाषाएँ हैं ? इसका एक प्रमुख कारण यह है कि भाषिक भिन्नताएँ सापेक्षिक होती हैं तथा दो भिन्न भाषा क्षेत्रों के मध्य कोई सीधी एवं सरल विभाजक रेखा नहीं खींची जा सकती। यही कारण है कि भाषिक-भूगोल पर कार्य करते समय बहुधा कठिनाइयों का सामना करना पड़ता है। भारत का भाषा-सर्वेक्षण करते समय इसी प्रकार की कठिनाई का अनुभव ग्रियर्सन को हुआ था। उन्होंने लिखा है कि ‘‘ सर्वेक्षण का कार्य करते समय यह निश्चित करने में कठिनाई पड़ी कि वास्तव में एक कथित भाषा स्वतंत्र भाषा है, अथवा अन्य किसी भाषा की बोली है। इस सम्बन्ध में इस प्रकार का निर्णय देना जिसे सब लोग स्वीकार कर लेंगे, कठिन है। भाषा और बोली मे प्रायः वही सम्बन्ध है जो पहाड़ तथा पहाड़ी में है। यह निःसंकोच रूप से कहा जा सकता है कि एवरेस्ट पहाड़ है और हालबर्न एक पहाड़ी, किन्तु इन दोनों के बीच की विभाजक रेखा को निश्चित रूप से बताना कठिन है।-- - - सच तो यह है कि दो बोलियों अथवा भाषाओं में भेदीकरण केवल पारस्परिक वार्ता सम्बन्ध पर ही निर्भर नहीं करता। वैज्ञानिक दृष्टिकोण से इस सम्बन्ध में विचार करने के लिए अन्य महत्वपूर्ण तथ्यों को भी दृष्टि में रखना आवश्यक है।4

व्यावहारिक दृष्टि से जिस क्षेत्र में भाषा के विभिन्न भेदों में पारस्परिक बोधगम्यता होती है, वह क्षेत्र उस भाषा के विभिन्न भेदों का ‘भाषा-क्षेत्र’ कहलाता है। भिन्न भाषा-भाषी व्यक्ति परस्पर विचारों का आदान-प्रदान नहीं कर पाते। इस प्रकार जब एक व्यक्ति अपनी भाषा के माध्यम से दूसरे भाषा-भाषी को भाषा के स्तर पर अपने विचारों, भावनाओं, कल्पनाओं, संवेदनाओं का बोध नहीं करा पाता, तब ऐसी स्थिति में उन दो व्यक्तियों के भाषा रूपों को अलग-अलग भाषाओं के नाम से अभिहित किया जाता है। इस बात इस तथ्य से समझा जा सकता है कि जब कोई ऐसा तमिल-भाषी व्यक्ति जो पहले से हिन्दी नहीं जानता, हिन्दी-भाषी व्यक्ति से बात करता है, तो वह हिन्दी-भाषा व्यक्ति द्वारा कही गई बात को भाषा के माध्यम से नहीं समझ पाता, भले ही वह कही गई बात का आशय संकेतो, मुख मुद्राओं, भाव-भंगिमाओं के माध्यम से समझ जाए। इसके विपरीत यदि कन्नौजी बोलने वाला व्यक्ति अवधी बोलने वाले से बातें करता है, तो दोनों को विचारों के आदान-प्रदान करने में कठिनाइयाँ तो होती हैं, किन्तु फिर भी वे किसी न किसी मात्रा में विचारों का आदान-प्रदान कर लेते हैं। भाषा रूपों की भिन्नता अथवा एकता का यह व्यावहारिक आधार है।भिन्न भाषा रूपों को एक ही भाषा के रूप में अथवा अलग अलग भाषाओं के रूप में मान्यता दिलाने में ऐतिहासिक, सामाजिक, सांस्कृतिक, मनोवैज्ञानिक एवं उन भाषिक रूपों की संरचना एवं व्यवस्था आदि कारण एवं तथ्य अपनी महत्त्वपूर्ण भूमिका का निर्वाह करते हैं, तथा कभी-कभी ‘पारस्परिक बोधगम्यता’ अथवा ‘एक तरफा बोधगम्यता’ के व्यावहारिक सिद्धांत की अपेक्षा अधिक निर्णायक हो जाते हैं। इस दृष्टि से कुछ उदाहरण प्रस्तुत किए जा सकते हैं।ऐतिहासिक कारणों से वैनिशन (Venetian) तथा सिसिली (Sicily) को इटाली भाषा की बोलियाँ माना जाता है, यद्यपि इनमें पारस्परिक बोधगम्यता का प्रतिशत बहुत कम है। इसी प्रकार लैपिश (Lappish) को एक ही भाषा माना जाता है। इसके अन्तर्गत परस्पर अबोधगम्य भाषिक रूप समाहित हैं। इसके विपरीत राजनैतिक कारणों से डेनिश, नार्वेजियन एवं स्वेडिश को अलग-अलग भाषाएँ माना जाता है। इनमें पारस्परिक बोधगम्यता का प्रतिशत वैनिशन (Venetian) तथा सिसिली (Sicily) के पारस्परिक बोधगम्यता के प्रतिशत से कम नहीं है। भारतवर्ष के संदर्भ में हिन्दी भाषा के पश्चिमी वर्ग की उप-भाषाओं तथा बिहारी वर्ग की उप-भाषाओं के मध्य बोधगम्यता का प्रतिशत कम है। ‘बिहारी वर्ग’ की उप-भाषाओं पर कार्य करने वाले भाषा-वैज्ञानिकों ने उनमें संरचनात्मक भिन्नताएँ भी पर्याप्त मानी हैं। इतना होने पर भी सांस्कृतिक, राष्ट्रीय एवं ऐतिहासिक कारणों से भोजपुरी एवं मगही बोलने वाले अपने को हिन्दी भाषा-भाषी मानते हैं। ये भाषिक रूप हिन्दी भाषा-क्षेत्र के अन्तर्गत समाहित हैं। इसके विपरीत यद्यपि असमिया एवं बांग्ला में पारस्परिक बोधगम्यता एवं संरचनात्मक साम्यता का प्रतिशत कम नहीं है तथापि ऐतिहासिक, सांस्कृतिक एवं मनोवैज्ञानिक कारणों से इनके बोलने वाले इन भाषा रूपों को भिन्न भाषाएँ मानते हैं। इसी कारण कुछ विद्वानों का मत है कि भाषा-क्षेत्र उस क्षेत्र के प्रयोक्ताओं की मानसिक अवधारणा है। भाषा-क्षेत्र में बोली जाने वाली विभिन्न बोलियों के प्रयोक्ता अपने अपने भाषिक-रूप की पहचान उस भाषा के रूप में करते हैं। विशेष रूप से जब वे किसी भिन्न भाषा-भाषी-क्षेत्र में रहते हैं तो वे अपनी अस्मिता की पहचान उस भाषा के प्रयोक्ता के रूप में करते हैं।

यदि दो भाषा-क्षेत्रों के मध्य कोई पर्वत या सागर जैसी बड़ी प्राकृतिक सीमा नहीं होती अथवा उन क्षेत्रों में रहने वाले व्यक्तियों के अलग अलग क्षेत्रों में उनके सामाजिक सम्पर्क को बाधित करने वाली राजनैतिक सीमा नहीं होती तो उन भाषा क्षेत्रों के मध्य कोई निश्चित एवं सरल रेखा नहीं खींची जा सकती। प्रत्येक दो भाषाओं के मध्य प्रायः ऐसा ‘क्षेत्र’ होता है जिसमें निवास करने वाले व्यक्ति उन दोनों भाषाओं को किसी न किसी रूप में समझ लेते हैं। ऐसे क्षेत्र को उन भाषाओं का ‘संक्रमण-क्षेत्र कहते हैं।

जिस प्रकार अपभ्रंश और हिन्दी के बीच किसी एक वर्ष की ‘काल रेखा’ निर्धारित नहीं की जा सकती, फिर भी एक युग ‘अपभ्रंश-युग’ कहलाता है और दूसरा हिन्दी, मराठी, गुजराती आदि ‘नव्यतर भारतीय आर्य भाषाओं का युग’ कहलाता है उसी प्रकार यद्यपि हिन्दी और मराठी के बीच (अथवा अन्य किन्हीं दो भाषाओं के बीच) हम किलोमीटर या मील की कोई रेखा नहीं खींच सकते फिर भी एक क्षेत्र हिन्दी का कहलाता है और दूसरा मराठी का। ऐतिहासिक दृष्टि से अपभ्रंश और हिन्दी के बीच एव ‘सन्धि-युग’ है जो इन दो भाषाओं के काल-निर्धारण का काम करता है। संकालिक दृष्टि से दो भाषाओं के बीच ‘संक्रमण-क्षेत्र’ होता है जो उन भाषाओं के क्षेत्र को निर्धारित करता है।

प्रत्येक भाषा-क्षेत्र में भाषिक भेद होते हैं। हम किसी ऐसे भाषा क्षेत्र की कल्पना नहीं कर सकते जिसके समस्त भाषा-भाषी भाषा के एक ही रूप के माध्यम से विचारों का आदान-प्रदान करते हों। यदि हम वर्तमानकाल में किसी ऐसे भाषा-क्षेत्र का निर्माण कर भी लें जिसकी भाषा में एक ही बोली हो तब भी कालान्तर में उस क्षेत्र में विभिन्नताएँ विकसित हो जाती हैं। इसका कारण यह है कि किसी भाषा का विकास सम्पूर्ण क्षेत्र में समरूप नहीं होता। परिवर्तन की गति क्षेत्र के अलग-अलग भागों में भिन्न होती है। विश्व के भाषा-इतिहास में ऐसा कोई भी उदाहरण प्राप्त नहीं है जिसमें कोई भाषा अपने सम्पूर्ण क्षेत्र में समान रूप से परिवर्तित हुई हो।

भाषा और बोली के युग्म पर विचार करना सामान्य धारणा है। सामान्य व्यक्ति भाषा को विकसित और बोली को अविकसित मानता है। सामान्य व्यक्ति भाषा को शिक्षित,शिष्ट, विद्वान एवं सुजान प्रयोक्ताओं से जोड़ता है और बोली को अशिक्षित, अशिष्ट, मूर्ख एवं गँवार प्रयोक्ताओं से जोड़ता है। भाषाविज्ञान इस धारणा को अतार्किक और अवैज्ञानिक मानता है। भाषाविज्ञान भाषा को निम्न रूप से परिभाषित करता है - "भाषा अपने भाषा-क्षेत्र में बोली जाने वाली समस्त बोलियों की समष्टि का नाम है"5

हम आगे भाषा-क्षेत्र के समस्त सम्भावित भेद-प्रभेदों की विवेचना करेंगे।

व्यक्ति बोलियाँ

एक भाषा क्षेत्र में ‘एकत्व’ की दृष्टि से एक ही भाषा होती है, किन्तु ‘भिन्नत्व’ की दृष्टि से उस भाषा क्षेत्र में जितने बोलने वाले निवास करते हैं उसमें उतनी ही भिन्न व्यक्ति-बोलियाँ होती हैं। प्रत्येक व्यक्ति भाषा के द्वारा समाज के व्यक्तियों से सम्प्रेषण-व्यवहार करता है। भाषा के द्वारा अपने निजी व्यक्त्वि का विकास एवं विचार की अभिव्यक्ति करता है। प्रत्येक व्यक्ति के निजी व्यक्तित्व का प्रभाव उसके अभिव्यक्तिकरण व्यवहार पर भी पड़ता है।

प्रत्येक व्यक्ति के अनुभवों, विचारों, आचरण पद्धतियों, जीवन व्यवहारों एवं कार्यकलापों की निजी विशेषताएँ होती हैं। समाज के सदस्यों के व्यक्तित्व की भेदक भिन्नताओं का प्रभाव उनके व्यक्ति-भाषा-रूपों पर पड़ता है और इस कारण प्रत्येक व्यक्ति बोली (idiolect) में निजी भिन्नताएँ अवश्य होती हैं। व्यक्ति बोली के धरातल पर एक व्यक्ति जिस प्रकार बोलता है, ठीक उसी प्रकार दूसरा कोई व्यक्ति नहीं बोलता। यही कारण है कि हम किसी व्यक्ति भले ही न देखें मगर मात्र उसकी आवाज़ को सुनकर उसको पहचान लेते हैं।

यदि भिन्नताओं को और सूक्ष्म दृष्टि से देखें तो यह बात कही जा सकती है कि स्वनिक स्तर पर कोई भी व्यक्ति एक ध्वनि को उसी प्रकार दोबारा उच्चारित नहीं कर सकता। यदि एक व्यक्ति ‘प’, ध्वनि का सौ बार उच्चारण करता है तो वे ‘प्’ ध्वनि के सौ स्वन होते हैं। इन स्वनों की भिन्नताओं को हमारे कान नहीं पहचान पाते। जब भौतिक ध्वनि विज्ञान के अन्तर्गत ध्वनि-यन्त्रों की सहायता से इसका अध्ययन किया जाता है तो ध्वनि यन्त्र इनके सूक्ष्म अन्तरों को पकड़ पाने की क्षमता रखते हैं। ‘स्वनिक स्तर’ पर प्रत्येक ध्वनि का प्रत्येक उच्चारण एक अलग स्वन होता है।

जिस प्रकार दार्शनिक धरातल पर बौद्ध दर्शन के अनुसार इस संसार के प्रत्येक पदार्थ में प्रतिक्षण परिवर्तन होता है उसी प्रकार भाषा के प्रत्येक व्यक्ति की प्रत्येक ध्वनि का प्रत्येक उच्चार यत्किंचित भिन्नताएँ लिए होता है तथा जिस प्रकार अद्वैतवादी के अनुसार इस सम्पूर्ण ब्रह्माण्ड में एक ही परमात्म-तत्त्व की सत्ता है उसी प्रकार एक भाषा क्षेत्र में व्यवहृत होने वाले समस्त भाषिक रूपों को एक ही भाषा के नाम से पुकारा जाता है।

यदि उच्चारण की स्वनिक भिन्नताओं को छोड़ दें तो एक भाषा-क्षेत्र में उस भाषा-जन-समुदाय के जितने सदस्य होते हैं उतनी ही उसमें व्यक्ति-बोलियाँ होती हैं। उन समस्त व्यक्ति-बोलियों के समूह का नाम भाषा है।

बोली

भाषा-क्षेत्र की समस्त व्यक्ति-बोलियों एवं उस क्षेत्र की भाषा के मध्य प्रायः बोली का स्तर होता है। भाषा की क्षेत्रगत एवं वर्गगत भिन्नताओं को क्रमशः क्षेत्रगत एवं वर्गगत बोलियों के नाम से पुकारा जाता है। इसको इस प्रकार भी कहा जा सकता है कि भाषा की संरचक बोलियाँ होती हैं, तथा बोली की संरचक व्यक्ति बोलियाँ।

इस प्रकार तत्त्वतः बोलियों की समष्टि का नाम भाषा है। ‘भाषा क्षेत्र’ की क्षेत्रगत भिन्नताओं एवं वर्गगत भिन्नताओं पर आधारित भाषा के भिन्न रूप उसकी बोलियाँ हैं। बोलियाँ से ही भाषा का अस्तित्व है। इस प्रसंग में, यह सवाल उठाया जा सकता है कि सामान्य व्यक्ति अपने भाषा-क्षेत्र में प्रयुक्त बोलियों से इतर जिस भाषिक रूप को सामान्यतः ‘भाषा’ समझता है वह फिर क्या है। वह असल में उस भाषा क्षेत्र की किसी क्षेत्रीय बोली के आधार पर विकसित ‘उस भाषा का मानक भाषा रूप’ होता है।

इस दृष्टि के कारण ऐसे व्यक्ति ‘मानक भाषा’ या ‘परिनिष्ठित भाषा’ को मात्र ‘भाषा’ नाम से पुकारते हैं तथा अपने इस दृष्टिकोण के कारण ‘बोली’ को भाषा का भ्रष्ट रूप, अपभ्रंश रूप तथा ‘गँवारू भाषा’ जैसे नामों से पुकारते हैं। वस्तुतः बोलियाँ अनौपचारिक एवं सहज अवस्था में अलग-अलग क्षेत्रों में उच्चारित होने वाले रूप हैं जिन्हें संस्कृत में ‘देश भाषा’ तथा अपभ्रंश में ‘देसी भाषा’ कहा गया है। भाषा का ‘मानक’ रूप समस्त बोलियों के मध्य सम्पर्क सूत्र का काम करता है। भाषा की क्षेत्रगत एवं वर्गगत भिन्नताएँ उसे बोलियों के स्तरों में विभाजित कर देती हैं। यहाँ यह उल्लेखनीय है कि बोलियों के स्तर पर विभाजित भाषा के रूप निश्चित क्षेत्र अथवा वर्ग में व्यवहृत होते हैं जबकि प्रकार्यात्मक धरातल पर विकसित भाषा के मानक रूप, उपमानक रूप, विशिष्ट रूप (अपभाषा, गुप्त भाषा आदि) पूरे भाषा क्षेत्र में प्रयुक्त होते हैं, भले ही इनके बोलने वालों की संख्या न्यूनाधिक हो।

प्रत्येक उच्चारित एवं व्यवहृत भाषा की बोलियाँ होती हैं। किसी भाषा में बोलियों की संख्या दो या तीन होती है तो किसी में बीस-तीस भी होती है। कुछ भाषाओं में बोलियों का अन्तर केवल कुछ विशिष्ट ध्वनियों के उच्चारण की भिन्नताओं तथा बोलने के लहजे मात्र का होता है जबकि कुछ भाषाओं में बोलियों की भिन्नताएँ भाषा के समस्त स्तरों पर प्राप्त हो सकती हैं। दूसरे शब्दों में, बोलियों में ध्वन्यात्मक, ध्वनिग्रामिक, रूपग्रामिक, वाक्यविन्यासीय, शब्दकोषीय एवं अर्थ सभी स्तरों पर अन्तर हो सकते हैं। कहीं-कहीं ये भिन्नताएँ इतनी अधिक होती हैं कि एक सामान्य व्यक्ति यह बता देता है कि अमुक भाषिक रूप का बोलने वाला व्यक्ति अमुक बोली क्षेत्र का है।

किसी-किसी भाषा में क्षेत्रगत भिन्नताएँ इतनी व्यापक होती हैं तथा उन भिन्न भाषिक-रूपों के क्षेत्र इतने विस्तृत होते हैं कि उन्हें सामान्यतः भाषाएँ माना जा सकता है। इसका उदाहरण चीन देश की मंदारिन भाषा है, जिसकी बोलियों के क्षेत्र अत्यन्त विस्तृत हैं तथा उनमें से बहुत-सी परस्पर अबोधगम्य भी हैं। जब तक यूगोस्लाविया एक देश था तब तक क्रोएशियाई और सर्बियाई को एक भाषा की दो बोलियाँ माना जाता था। यूगोस्लाव के विघटन के बाद से इन्हें भिन्न भाषाएँ माना जाने लगा है। ये उदाहरण इस तथ्य को प्रतिपादित करते हैं कि पारस्परिक बोधगम्यता के सिद्धांत की अपेक्षा कभी-कभी सांस्कृतिक एवं राजनैतिक कारण अधिक निर्णायक भूमिका अदा करते हैं।

हिन्दी भाषा क्षेत्र में भी ‘राजस्थानी’ एवं ‘भोजपुरी’ के क्षेत्र एवं उनके बोलने वालों की संख्या संसार की बहुत सी भाषाओं के क्षेत्र एवं बोलने वालों की संख्या से अधिक है। ´हिन्दी भाषा-क्षेत्र' में, सामाजिक-सांस्कृतिक समन्वय के प्रतिमान के रूप में मानक अथवा व्यावहारिक हिन्दी सामाजिक जीवन में परस्पर आश्रित सहसम्बन्धों की स्थापना करती है। सम्पूर्ण हिन्दी भाषा क्षेत्र में मानक अथवा व्यावहारिक हिन्दी के उच्च प्रकार्यात्मक सामाजिक मूल्य के कारण ये भाषिक रूप ‘हिन्दी भाषा’ के अन्तर्गत माने जाते हैं। इस सम्बंध में आगे विस्तार से चर्चा की जाएगी।

भाषा-क्षेत्र की क्षेत्रगत भिन्नताओं के सम्भावित स्तर –

अभी तक हमने किसी भाषा-क्षेत्र में तीन भाषिक स्तरों की विवेचना की है:-

(1.) व्यक्ति-बोली

(2.) बोली

(3.) भाषा

व्यक्ति-बोलियों के समूह को ‘बोली’ तथा बोलियों के समूह को ‘भाषा’ कहा गया है। जिस प्रकार किसी भाषा के व्याकरण में शब्द एवं वाक्य के बीच अनेक व्याकरणिक स्तर हो सकते हैं उसी प्रकार भाषा एवं बोली एवं व्यक्ति-बोली के बीच अनेक भाषा स्तर हो सकते हैं। इन अनेक स्तरों के निम्न में से कोई एक अथवा अनेक आधार हो सकते हैं –

I. भाषा क्षेत्र का विस्तार एवं फैलाव

II. उस भाषा क्षेत्र के विविध उपक्षेत्रों की भौगोलिक, ऐतिहासिक, सामाजिक, सांस्कृतिक, राजनैतिक स्थितियाँ

III. भाषा-क्षेत्र में निवास करने वाले व्यक्तियों के पारस्परिक सामाजिक और भावात्मक सम्बन्ध

उपभाषा

यदि किसी भाषा में बोलियों की संख्या बहुत अधिक होती है तथा उस भाषा का क्षेत्र बहुत विशाल होता है तो पारस्परिक बोधगम्यता अथवा अन्य भाषेतर कारणों से बोलियों के वर्ग बन जाते हैं। इनको ‘उप भाषा’ के स्तर के रूप में स्वीकार किया जा सकता है।

उपबोली

यदि एक बोली का क्षेत्र बहुत विशाल होता है तो उसमें क्षेत्रगत अथवा वर्गगत भिन्नताएँ स्पष्ट दिखाई देती हैं। इनको बोली एवं व्यक्ति-बोली के बीच ‘उपबोली’ का स्तर माना जाता है। उपबोली को कुछ भाषा वैज्ञानिकों ने पेटवा, जनपदीय बोली अथवा स्थान-विशेष की बोली के नाम से पुकारना अधिक संगत माना हैं।

इसको इस प्रकार भी व्यक्त किया जा सकता है कि किसी भाषा क्षेत्र में भाषा की संरचक उपभाषाएँ, उपभाषा के संरचक बोलियाँ, बोली के संरचक उपबोलियाँ तथा उपबोली के संरचक व्यक्ति बोलियाँ हो सकती हैं। व्यक्ति-बोली से लेकर भाषा तक अनेक वर्गीकृत स्तरों का अधिक्रम हो सकता है।

हिन्दी भाषा-क्षेत्र के क्षेत्रीय भाषिक-रूप

हिन्दी भाषा के संदर्भ में विचारणीय है कि अवधी, बुन्देली, छत्तीसगढ़ी, ब्रज, कन्नौजी, खड़ी बोली को बोलियाँ माने या उपभाषाएँ ?

यहाँ यह द्रष्टव्य है कि इनके क्षेत्र तथा इनके बोलने वालों की संख्या काफी विशाल है तथा इनमें बहुत अधिक भिन्नताएँ हैं जिनके कारण इनको बोली की अपेक्षा उपभाषा मानना अधिक संगत है। उदाहरण के रूप में यदि बुन्देली को उपभाषा के रूप में स्वीकार किया जाता है तो पंवारी , लोधान्ती, खटोला, भदावरी, सहेरिया तथा ‘छिन्दवाड़ा बुन्देली’ आदि रूपों को बुन्देली उपभाषा की बोलियाँ माना जा सकता है। इन बोलियों में एक या एक से अधिक बोलियों की अपनी उपबोलियाँ हैं। उदाहरण के रूप में बुन्देली उपभाषा की ‘छिन्दवाड़ा बुन्देली’ बोली की पोवारी, गाओंली, राघोबंसी, किरारी आदि उपबोलियाँ है। इस प्रकार बुन्देली के संदर्भ में व्यक्तिगत बोली, उपबोली, बोली, एवं उपभाषा रूप प्राप्त हैं। यहाँ यह उल्लेखनीय है कि जिस प्रकार बुन्देली में बोलियाँ एवं उनकी उपबोलियाँ मिलती हैं उसी प्रकार कन्नौजी की बोलियाँ एवं उनकी उपबोलियाँ अथवा हरियाणवी की बोलियाँ एवं उपबोलियाँ प्राप्त नहीं होती। किन्तु हरियाणवी एवं कन्नौजी को भी वही दर्जा देना पड़ेगा जो हम बुन्देली को देंगे। यदि हम बुन्देली को हिन्दी की एक उपभाषा के रूप में स्वीकार करते हैं तो कन्नौजी एवं हरियाणवी भी हिन्दी की उपभाषाएँ हैं। इस दृष्टि से हिन्दी के क्षेत्रगत रूपों के स्तर वर्गीकरण में कहीं उपभाषा एवं बोली के अलग-अलग स्तर हैं तथा कहीं उपभाषा एवं बोली का एक ही स्तर हैं। यह बहुत कुछ इसी प्रकार है जिस प्रकार मिश्र एवं संयुक्त वाक्यों में वाक्य एवं उपवाक्य के स्तर अलग-अलग होते हैं किन्तु सरल वाक्य में एक ही उपवाक्य होता है।

हिन्दी भाषा के संदर्भ में विचारणीय है कि क्या उपभाषा एवं भाषा के बीच भी कोई स्तर स्थापित किया जाना चाहिए अथवा नहीं।इसका कारण यह है कि जिन भाषा रूपों को हमने उपभाषाएँ कहा है उन उपभाषाओं को ग्रियर्सन ने भाषा-सर्वेक्षण में ऐतिहासिक सम्बंधों के आधार पर 05 वर्गों में बाँटा है तथा प्रत्येक वर्ग में एकाधिक उपभाषाओं को समाहित किया है। ये पाँच वर्ग निम्नलिखित है:-

(1.) पश्चिमी हिन्दी

(2.) पूर्वी हिन्दी

(3.) राजस्थानी

(4.) बिहारी

(5.) पहाड़ी

इस सम्बंध में लेखक का मत है कि संकालिक भाषावैज्ञानिक दृष्टि से इस प्रकार के वर्गीकरण की आवश्यकता नहीं है। जो विद्वान ग्रियर्सन के ऐतिहासिक भाषाविज्ञान की दृष्टि से इन वर्गों को कोई नाम देना ही चाहते हैं तो वे हिन्दी के सन्दर्भ में उपभाषा एवं भाषा के बीच उपभाषा की समूह गत इकाइयों को अन्य किसी नाम के अभाव में ‘उपभाषावर्ग’ के नाम से पुकार सकते हैं।

इस प्रकार जिस भाषा का क्षेत्र अपेक्षाकृत छोटा होता है वहाँ भाषा के केवल 3 क्षेत्रगत स्तर होते हैं:-

1.व्यक्ति बोली

2.बोली

3.भाषा

हिन्दी जैसे विस्तृत भाषा-क्षेत्र में निम्नलिखित क्षेत्रगत स्तर हो सकते हैं:-

व्यक्ति बोली

उपबोली

बोली

उपभाषा

उपभाषावर्ग

भाषा

जो विद्वान हिन्दी भाषा की कुछ उपभाषाओं को हिन्दी भाषा से भिन्न भाषाएँ मानने के मत एवं विचार प्रस्तुत कर रहे हैं उनके निराकरण के लिए तथा जिज्ञासु पाठकों के अवलोकनार्थ एवं विचारार्थ निम्न टिप्पण प्रस्तुत हैं –

‘हिन्‍दी भाषा क्षेत्र' के अन्‍तर्गत भारत के निम्‍नलिखित राज्‍य एवं केन्‍द्र शासित प्रदेश समाहित हैं –

उत्‍तर प्रदेश

उत्‍तराखंड

बिहार

झारखंड

मध्‍यप्रदेश

छत्‍तीसगढ़

राजस्‍थान

हिमाचल प्रदेश

हरियाणा

दिल्ली

चण्डीगढ़।

भारत के संविधान की दृष्‍टि से यही स्‍थिति है।भाषाविज्ञान का प्रत्‍येक विद्‌यार्थी जानता है कि प्रत्‍येक भाषा क्षेत्र में भाषिक भिन्‍नताएँ होती हैं। हम यह प्रतिपादित कर चुके हैं कि प्रत्येक ‘भाषा क्षेत्र' में क्षेत्रगत एवं वर्गगत भिन्‍नताएँ होती हैं तथा बोलियों की समष्‍टि का नाम ही भाषा है। किसी भाषा की बोलियों से इतर व्‍यवहार में सामान्‍य व्‍यक्‍ति भाषा के जिस रूप को ‘भाषा' के नाम से अभिहित करते हैं वह तत्‍वतः भाषा नहीं होती। भाषा का यह रूप उस भाषा क्षेत्र के किसी बोली अथवा बोलियों के आधार पर विकसित उस भाषा का ‘मानक भाषा रूप'/'व्‍यावहारिक भाषा रूप' होता है। भाषा विज्ञान से अनभिज्ञ व्‍यक्‍ति इसी को ‘भाषा' कहने लगते हैं तथा ‘भाषा क्षेत्र' की बोलियों को अविकसित, हीन एवं गँवारू कहने, मानने एवं समझने लगते हैं।

हम इस संदर्भ में, इस तथ्य को रेखांकित करना चाहते हैं कि भारतीय भाषिक परम्‍परा इस दृष्‍टि से अधिक वैज्ञानिक रही है। भारतीय परम्‍परा ने भाषा के अलग अलग क्षेत्रों में बोले जाने वाले भाषिक रूपों को ‘देस भाखा’ अथवा ‘देसी भाषा' के नाम से पुकारा तथा घोषणा की कि देसी वचन सबको मीठे लगते हैं - ‘ देसिल बअना सब जन मिट्‌ठा।'6

हिन्‍दी भाषा क्षेत्र में हिन्‍दी की मुख्‍यतः 20 बोलियाँ अथवा उपभाषाएँ बोली जाती हैं। इन 20 बोलियों अथवा उपभाषाओं को ऐतिहासिक परम्‍परा से पाँच वर्गों में विभक्‍त किया जाता है - पश्‍चिमी हिन्‍दी, पूर्वी हिन्‍दी, राजस्‍थानी हिन्‍दी, बिहारी हिन्‍दी और पहाड़ी हिन्‍दी।

पश्चिमी हिन्‍दी – 1. खड़ी बोली 2. ब्रजभाषा 3. हरियाणवी 4. बुन्‍देली 5. कन्‍नौजी

पूर्वी हिन्‍दी – 1. अवधी 2. बघेली 3. छत्‍तीसगढ़ी

राजस्‍थानी – 1. मारवाड़ी 2. मेवाती 3. जयपुरी 4.मालवी

बिहारी – 1. भोजपुरी 2. मैथिली 3. मगही 4. अंगिका 5. बज्जिका

पहाड़ी - 1. कूमाऊँनी 2. गढ़वाली 3. हिमाचल प्रदेश में बोली जाने वाली हिन्‍दी की अनेक बोलियाँ जिन्‍हें आम बोलचाल में ‘ पहाड़ी ' नाम से पुकारा जाता है।

टिप्पण –

मैथिली –

मैथिली को अलग भाषा का दर्जा दे दिया गया है हॉलाकि हिन्‍दी साहित्‍य के पाठ्‌यक्रम में अभी भी मैथिली कवि विद्‌यापति पढ़ाए जाते हैं तथा जब नेपाल में मैथिली आदि भाषिक रूपों के बोलने वाले मधेसी लोगों पर दमनात्‍मक कार्रवाई होती है तो वे अपनी पहचान ‘हिन्‍दी भाषी' के रूप में उसी प्रकार करते हैं जिस प्रकार मुम्‍बई में रहने वाले भोजपुरी, मगही, मैथिली एवं अवधी आदि बोलने वाले अपनी पहचान ‘हिन्‍दी भाषी' के रूप में करते हैं।

छत्तीसगढ़ी एवं भोजपुरी –

जबसे मैथिली एवं छत्तीसगढ़ी को अलग भाषाओं का दर्जा मिला है तब से भोजपुरी को भी अलग भाषा का दर्जा दिए जाने की माँग प्रबल हो गई है। हिन्दी को उसके अपने ही घर में तोड़ने का सिलसिला मैथिली एवं छत्तीसगढ़ी से आरम्भ हो गया है। मैथिली पर टिप्पण लिखा जा चुका है। छत्तीसगढ़ी एवं भोजपुरी के सम्बंध में कुछ विचार प्रस्तुत हैं। जब तक छत्तीसगढ़ मध्य प्रदेश का हिस्सा था तब तक छत्तीसगढ़ी को हिन्दी की बोली माना जाता था। रायपुर विश्वविद्यालय के भाषा विज्ञान के प्रोफेसर डॉ. रमेश चन्द्र महरोत्रा का सन् 1976 में एक आलेख रायपुर से भाषिकी प्रकाशन से प्रकाशित हुआ जिसमें हिन्दी की 22 बोलियों के अंतर्गत छत्तीसगढ़ी समाहित है।7

लेखक भोजपुरी के सम्बंध में भी कुछ निवेदन करना चाहता है। लेखक को जबलपुर के विश्वविद्यालय में डॉ. उदय नारायण तिवारी जी के साथ काम करने का सौभाग्य प्राप्त हुआ। भोजपुरी की भाषिक स्थिति को लेकर अकसर हमारे बीच विचार विमर्श होता था। उनके जामाता डॉ. शिव गोपाल मिश्र उनकी स्मृति में प्रतिवर्ष व्याख्यानमाला आयोजित करते हैं। दिनांक 26 जून, 2013 को मुझे हिन्दुस्तानी एकाडमी, इलाहाबाद के श्री बृजेशचन्द्र का ‘डॉ. उदय नारायण तिवारी व्याख्यानमाला’ निमंत्रण पत्र प्राप्त हुआ। व्याख्यान का विषय था - ‘भोजपुरी भाषा’। लेखक ने उसी दिन व्याख्यान के सम्बंध में डॉ. शिव गोपाल मिश्र को जो पत्र लिखा उसका व्याख्यान के विषय से सम्बंधित अंश पाठको के अवलोकनार्थ अविकल प्रस्तुत हैं –

डॉ. उदय नारायण तिवारी जी ने भोजपुरी का भाषावैज्ञानिक अध्ययन किया। उनके अध्ययन का वही महत्व है जो सुनीति कुमार चटर्जी के बांग्ला पर सम्पन्न कार्य का है। इस विषय पर हमारे बीच अनेक बार संवाद हुए। कई बार मत भिन्नता भी हुई। जब लेखक भाषा-भूगोल एवं बोली-विज्ञान के सिद्धांतों के आलोक में हिन्दी भाषा-क्षेत्र की विवेचना करता था तो डॉ. तिवारी जी इस मत से सहमत हो जाते थे कि हिन्दी भाषा-क्षेत्र के अंतर्गत भारत के जितने राज्य एवं केन्द्र शासित प्रदेश समाहित हैं, उन समस्त क्षेत्रों में जो भाषिक रूप बोले जाते हैं, उनकी समष्टि का नाम हिन्दी है। खड़ी बोली ही हिन्दी नहीं है अपितु यह भी हिन्दी भाषा-क्षेत्र का उसी प्रकार एक क्षेत्रीय भेद है जिस प्रकार हिन्दी भाषा-क्षेत्र के अन्य अनेक क्षेत्रीय भेद हैं। मगर कभी-कभी उनका तर्क होता था कि खड़ी बोली बोलने वाले और भोजपुरी बोलने वालों के बीच बोधगम्यता बहुत कम होती है। इस कारण भोजपुरी को यदि अलग भाषा माना जाता है तो इसमें क्या हानि है। जब लेखक कहता था कि भाषाविज्ञान का सिद्धांत है कि संसार की प्रत्येक भाषा के ‘भाषा-क्षेत्र’ में भाषिक भिन्नताएँ होती हैं। हम ऐसी किसी भाषा की कल्पना नहीं कर सकते जिसके भाषा-क्षेत्र में क्षेत्रगत एवं वर्गगत भिन्नताएँ न हों। इस पर डॉ. तिवारी जी असमंजस में पड़ जाते थे। अनेक वर्षों के संवाद के अनन्तर एक दिन डॉ. तिवारी जी ने मुझे अपने मन के रहस्य से अवगत कराया। उनके शब्द थेः

“जब मैं ऐतिहासिक भाषाविज्ञान के अपने अध्ययन के आधार पर विचार करता हूँ तो मुझे भोजपुरी की स्थिति हिन्दी से अलग भिन्न भाषा की लगती है मगर जब मैं संकालिक भाषाविज्ञान के सिद्धांतों की दृष्टि से सोचता हूँ तो पाता हूँ कि भोजपुरी भी हिन्दी भाषा-क्षेत्र का एक क्षेत्रीय रूप है”।8

बहुत से विद्वान यह तर्क देते हैं कि डॉ. उदय नारायण तिवारी ने "भोजपुरी भाषा और साहित्य" शीर्षक ग्रंथ में "भोजपुरी" को भाषा माना है। इस सम्बंध में, लेखक विद्वानों को इस तथ्य से अवगत करना चाहता है कि हिन्दी में प्रकाशित उक्त ग्रंथ उनके डी. लिट्. उपाधि के लिए स्वीकृत अंग्रेजी भाषा में लिखे गए शोध-प्रबंध का हिन्दी रूपांतर है। डॉ. उदय नारायण तिवारी ने कलकत्ता में सन् 1941 ईस्वी में पहले ‘तुलनात्मक भाषाविज्ञान’ में एम. ए. की परीक्षा पास की तथा सन् 1942 ईस्वी में डी. लिट्. उपाधि के लिए शोध-प्रबंध पूरा करके इलाहाबाद लौट आए तथा उसे परीक्षण के लिए इलाहाबाद विश्वविद्यालय में जमा कर दिया। आपने अपना शोध-प्रबंध अंग्रेजी भाषा में डॉ. सुनीति कुमार चाटुर्ज्या के निर्देशन में सम्पन्न किया तथा डी. लिट्. की उपाधि प्राप्त होने के बाद इसका प्रकाशन ‘एशियाटिक सोसाइटी’ से हुआ। इस शोध-प्रबंध का शीर्षक है - ‘ए डाइलेक्ट ऑफ भोजपुरी’। डॉ. उदय नारायण तिवारी ने इस तथ्य को स्वयं अपने एक लेख अभिव्यक्त किया है।9

राजस्थानी –

“श्रीमद्जवाहराचार्य स्मृति व्याख्यानमाला” के अन्तर्गत “विश्व शान्ति एवं अहिंसा” विषय पर व्याख्यान देने सन् 1987 ईस्वी में लेखक का कलकत्ता (कोलकोता) जाना हुआ था। वहाँ श्री सरदारमल जी कांकरिया के निवास पर लेखक का संवाद राजस्थानी भाषा की मान्यता के लिए आन्दोलन चलाने वाले तथा राजस्थानी में “धरती धौरां री” एवं “पातल और पीथल” जैसी कृतियों की रचना करने वाले कन्हैया लाल सेठिया जी से हुआ। उनका आग्रह था कि राजस्थानी को स्वतंत्र भाषा का दर्जा मिलना चाहिए। लेखक ने उनसे अपने आग्रह पर पुनर्विचार करने की कामना व्यक्त की और मुख्यतः निम्न मुद्दों पर विचार करने का अनुरोध किया –

(1) ग्रियर्सन ने ऐतिहासिक दृष्टि से विचार किया है। स्वाधीनता आन्दोलन में हमारे राष्ट्रीय नेताओं के कारण हिन्दी का जितना प्रचार प्रसार हुआ उसके कारण हमें ग्रियर्सन की दृष्टि से नहीं अपितु डॉ. धीरेन्द्र वर्मा आदि भाषाविदों की दृष्टि से विचार करना चाहिए।

(2) राजस्थानी भाषा जैसी कोई स्वतंत्र भाषा नहीं है। राजस्थान में निम्न क्षेत्रीय भाषिक-रूप बोले जाते हैं –

1. मारवाड़ी

2.मेवाती

3.जयपुरी

4. मालवी (राजस्थान के साथ-साथ मध्य-प्रदेश में भी)

राजस्थानी जैसी स्वतंत्र भाषा नहीं है। इन विविध भाषिक रूपों को हिन्दी के रूप मानने में क्या आपत्ति हो सकती है।

(3) यदि आप राजस्थानी का मतलब केवल मारवाड़ी से लेंगे तो क्या मेवाती, जयपुरी, मालवी, हाड़ौती, शेखावाटी आदि अन्य भाषिक रूपों के बोलने वाले अपने अपने भाषिक रूपों के लिए आवाज़ नहीं उठायेंगे।

(4) भारत की भाषिक परम्परा रही है कि एक भाषा के हजारों भूरि भेद माने गए हैं मगर अंतरक्षेत्रीय सम्पर्क के लिए एक भाषा की मान्यता रही है।

(5) हिन्दी साहित्य की संश्लिष्ट परम्परा रही है। इसी कारण हिन्दी साहित्य के अंतर्गत रास एवं रासो साहित्य की रचनाओं का भी अध्ययन किया जाता है।

(6) राजस्थान की पृष्ठभूमि पर आधारित हिन्दी कथा साहित्य एवं हिन्दी फिल्मों में जिस राजस्थानी मिश्रित हिन्दी का प्रयोग होता है उसे हिन्दी भाषा क्षेत्र के प्रत्येक भाग का रहने वाला समझ लेता है।

(7) मारवाड़ी लोग व्यापार के कारण भारत के प्रत्येक राज्य में निवास करते हैं तथा अपनी पहचान हिन्दी भाषी के रूप में करते हैं। यदि आप राजस्थानी को हिन्दी से अलग मान्यता दिलाने का प्रयास करेंगे तो राजस्थान के बाहर रहने वाले मारवाड़ी व्यापारियों के हित प्रभावित हो सकते हैं।

(8) भारतीय भाषाओं के अस्तित्व एवं महत्व को अंग्रेजी से खतरा है। संसार में अंग्रेजी भाषियों की जितनी संख्या है उससे अधिक संख्या केवल हिन्दी भाषियों की है। यदि हिन्दी के उपभाषिक रूपों को हिन्दी से अलग मान लिया जाएगा तो भारत की कोई भाषा अंग्रेजी से टक्कर नहीं ले सकेगी और धीरे धीरे भारतीय भाषाओं के अस्तित्व का संकट पैदा हो जाएगा।10

पहाड़ी –

डॉ. सर जॉर्ज ग्रियर्सन ने ‘पहाड़ी' समुदाय के अन्‍तर्गत बोले जाने वाले भाषिक रूपों को तीन शाखाओं में बाँटा –

(अ) पूर्वी पहाड़ी अथवा नेपाली

(आ) मध्‍य या केन्‍द्रीय पहाड़ी

(इ)पश्‍चिमी पहाड़ी।

हिन्‍दी भाषा के संदर्भ में वर्तमान स्‍थिति यह है कि हिन्‍दी भाषा के अन्‍तर्गत मध्‍य या केन्‍द्रीय पहाड़ी की उत्‍तराखंड में बोली जाने वाली 1. कूमाऊँनी 2. गढ़वाली तथा पश्‍चिमी पहाड़ी की हिमाचल प्रदेश में बोली जाने वाली हिन्‍दी की अनेक बोलियाँ हैं जिन्‍हें आम बोलचाल में ‘ पहाड़ी ' नाम से पुकारा जाता है।

हिन्‍दी भाषा के संदर्भ में विचारणीय है कि अवधी, बुन्‍देली, ब्रज, भोजपुरी, मैथिली आदि को हिन्‍दी भाषा की बोलियाँ माना जाए अथवा उपभाषाएँ माना जाए। सामान्‍य रूप से इन्‍हें बोलियों के नाम से अभिहित किया जाता है किन्‍तु लेखक ने अपने ग्रन्‍थ ‘ भाषा एवं भाषाविज्ञान' में इन्‍हें उपभाषा मानने का प्रस्‍ताव किया है। ‘ - - क्षेत्र, बोलने वालों की संख्‍या तथा परस्‍पर भिन्‍नताओं के कारण इनको बोली की अपेक्षा उपभाषा मानना अधिक संगत है। इसी ग्रन्‍थ में लेखक ने पाठकों का ध्‍यान इस ओर भी आकर्षित किया कि हिन्‍दी की कुछ उपभाषाओं के भी क्षेत्रगत भेद हैं जिन्‍हें उन उपभाषाओं की बोलियों अथवा उपबोलियों के नाम से पुकारा जा सकता है। 11

यहाँ यह भी उल्‍लेखनीय है कि इन उपभाषाओं के बीच कोई स्‍पष्‍ट विभाजक रेखा नहीं खींची जा सकती है। प्रत्‍येक दो उपभाषाओं के मध्‍य संक्रमण क्षेत्र विद्‌यमान है।

विश्‍व की प्रत्‍येक भाषा के विविध बोली अथवा उपभाषा क्षेत्रों में से विभिन्न सांस्‍कृतिक कारणों से जब कोई एक क्षेत्र अपेक्षाकृत अधिक महत्‍वपूर्ण हो जाता है तो उस क्षेत्र के भाषा रूप का सम्‍पूर्ण भाषा क्षेत्र में प्रसारण होने लगता है। इस क्षेत्र के भाषारूप के आधार पर पूरे भाषाक्षेत्र की ‘मानक भाषा' का विकास होना आरम्‍भ हो जाता है। भाषा के प्रत्‍येक क्षेत्र के निवासी इस भाषारूप को ‘मानक भाषा' मानने लगते हैं। इसको मानक मानने के कारण यह मानक भाषा रूप ‘भाषा क्षेत्र' के लिए सांस्‍कृतिक मूल्‍यों का प्रतीक बन जाता है। मानक भाषा रूप की शब्‍दावली, व्‍याकरण एवं उच्‍चारण का स्‍वरूप अधिक निश्चित एवं स्‍थिर होता है एवं इसका प्रचार, प्रसार एवं विस्‍तार पूरे भाषा क्षेत्र में होने लगता है। कलात्‍मक एवं सांस्‍कृतिक अभिव्‍यक्‍ति का माध्‍यम एवं शिक्षा का माध्‍यम यही मानक भाषा रूप हो जाता है। इस प्रकार भाषा के ‘मानक भाषा रूप' का आधार उस भाषाक्षेत्र की क्षेत्रीय बोली अथवा उपभाषा ही होती है, किन्‍तु मानक भाषा होने के कारण चूँकि इसका प्रसार अन्‍य बोली क्षेत्रों अथवा उपभाषा क्षेत्रों में होता है इस कारण इस भाषारूप पर ‘भाषा क्षेत्र' की सभी बोलियों का प्रभाव पड़ता है तथा यह भी सभी बोलियों अथवा उपभाषाओं को प्रभावित करता है। उस भाषा क्षेत्र के शिक्षित व्‍यक्‍ति औपचारिक अवसरों पर इसका प्रयोग करते हैं। भाषा के मानक भाषा रूप को सामान्‍य व्‍यक्‍ति अपने भाषा क्षेत्र की ‘मूल भाषा', केन्‍द्रक भाषा', ‘मानक भाषा' के नाम से पुकारते हैं। यदि किसी भाषा का क्षेत्र हिन्‍दी भाषा की तरह विस्‍तृत होता है तथा यदि उसमें ‘हिन्‍दी भाषा क्षेत्र' की भाँति उपभाषाओं एवं बोलियों की अनेक परतें एवं स्‍तर होते हैं तो ‘मानक भाषा' के द्वारा समस्‍त भाषा क्षेत्र में विचारों का आदान प्रदान सम्‍भव हो पाता है। भाषा क्षेत्र के यदि आंशिक अबोधगम्‍य उपभाषी अथवा बोली बोलने वाले परस्‍पर अपनी उपभाषा अथवा बोली के माध्‍यम से विचारों का समुचित आदान प्रदान नहीं कर पाते तो इसी मानक भाषा के द्वारा संप्रेषण करते हैं। भाषा विज्ञान में इस प्रकार की बोधगम्‍यता को ‘पारस्‍परिक बोधगम्‍यता' न कहकर ‘एकतरफ़ा बोधगम्‍यता' कहते हैं। ऐसी स्‍थिति में अपने क्षेत्र के व्‍यक्‍ति से क्षेत्रीय बोली में बातें होती हैं किन्‍तु दूसरे उपभाषा क्षेत्र अथवा बोली क्षेत्र के व्‍यक्‍ति से अथवा औपचारिक अवसरों पर मानक भाषा के द्वारा बातचीत होती हैं। इस प्रकार की भाषिक स्‍थिति को फर्गुसन ने बोलियों की परत पर मानक भाषा का अध्‍यारोपण कहा है। 12 गम्‍पर्ज़ ने इसे ‘बाइलेक्‍टल' के नाम से पुकारा है।13

हिन्‍दी भाषा क्षेत्र में अनेक क्षेत्रगत भेद एवं उपभेद तो है हीं; प्रत्‍येक क्षेत्र के प्रायः प्रत्‍येक गाँव में सामाजिक भाषिक रूपों के विविध स्‍तरीकृत तथा जटिल स्‍तर विद्‌यमान हैं और यह हिन्दी भाषा-क्षेत्र के सामाजिक संप्रेषण का यथार्थ है जिसको जाने बिना कोई व्यक्ति हिन्दी भाषा के क्षेत्र की विवेचना के साथ न्याय नहीं कर सकता। ये हिन्‍दी पट्‌टी के अन्दर सामाजिक संप्रेषण के विभिन्‍न नेटवर्कों के बीच संवाद के कारक हैं। इस हिन्‍दी भाषा क्षेत्र अथवा पट्‌टी के गावों के रहनेवालों के वाग्‍व्‍यवहारों का गहराई से अध्‍ययन करने पर पता चलता है कि ये भाषिक स्‍थितियाँ इतनी विविध, विभिन्‍न एवं मिश्र हैं कि भाषा व्‍यवहार के स्‍केल के एक छोर पर हमें ऐसा व्‍यक्‍ति मिलता है जो केवल स्‍थानीय बोली बोलना जानता है तथा जिसकी बातचीत में स्‍थानीयेतर कोई प्रभाव दिखाई नहीं पड़ता वहीं दूसरे छोर पर हमें ऐसा व्‍यक्‍ति मिलता है जो ठेठ मानक हिन्‍दी का प्रयोग करता है तथा जिसकी बातचीत में कोई स्‍थानीय भाषिक प्रभाव परिलक्षित नहीं होता। स्‍केल के इन दो दूरतम छोरों के बीच बोलचाल के इतने विविध रूप मिल जाते हैं कि उन सबका लेखा जोखा प्रस्‍तुत करना असाध्‍य हो जाता है। हमें ऐसे भी व्‍यक्‍ति मिल जाते हैं जो एकाधिक भाषिक रूपों में दक्ष होते हैं जिसका व्‍यवहार तथा चयन वे संदर्भ, व्‍यक्‍ति, परिस्‍थियों को ध्‍यान में रखकर करते हैं। सामान्‍य रूप से हम पाते हैं कि अपने घर के लोगों से तथा स्‍थानीय रोजाना मिलने जुलने वाले घनिष्‍ठ मित्रों से व्‍यक्‍ति जिस भाषा रूप में बातचीत करता है उससे भिन्‍न भाषा रूप का प्रयोग वह उनसे भिन्‍न व्‍यक्‍तियों एवं परिस्‍थितियों में करता है। सामाजिक संप्रेषण के अपने प्रतिमान हैं। व्‍यक्‍ति प्रायः वाग्‍व्‍यवहारों के अवसरानुकूल प्रतिमानों को ध्‍यान में रखकर बातचीत करता है।

हम यह कह चुके हैं कि किसी भाषा क्षेत्र की मानक भाषा का आधार कोई बोली अथवा उपभाषा ही होती है किन्‍तु कालान्‍तर में उक्‍त बोली एवं मानक भाषा के स्‍वरूप में पर्याप्‍त अन्‍तर आ जाता है। सम्‍पूर्ण भाषा क्षेत्र के शिष्‍ट एवं शिक्षित व्‍यक्‍तियों द्वारा औपचारिक अवसरों पर मानक भाषा का प्रयोग किए जाने के कारण तथा साहित्‍य का माध्‍यम बन जाने के कारण स्‍वरूपगत परिवर्तन स्‍वाभाविक है। प्रत्‍येक भाषा क्षेत्र में किसी क्षेत्र विशेष के भाषिक रूप के आधार पर उस भाषा का मानक रूप विकसित होता है, जिसका उस भाषा-क्षेत्र के सभी क्षेत्रों के पढ़े-लिखे व्‍यक्‍ति औपचारिक अवसरों पर प्रयोग करते हैं। हम पाते हैं कि इस मानक हिन्‍दी अथवा व्‍यावहारिक हिन्‍दी का प्रयोग सम्‍पूर्ण हिन्‍दी भाषा क्षेत्र में बढ़ रहा है तथा प्रत्‍येक हिन्‍दी भाषी व्‍यक्‍ति शिक्षित, सामाजिक दृष्‍टि से प्रतिष्‍ठित तथा स्‍थानीय क्षेत्र से इतर अन्‍य क्षेत्रों के व्‍यक्‍तियों से वार्तालाप करने के लिए इसी को आदर्श, श्रेष्‍ठ एवं मानक मानता है। गाँव में रहने वाला एक सामान्‍य एवं बिना पढ़ा लिखा व्‍यक्‍ति भले ही इसका प्रयोग करने में समर्थ तथा सक्षम न हो फिर भी वह इसके प्रकार्यात्‍मक मूल्‍य को पहचानता है तथा वह भी अपने भाषिक रूप को इसके अनुरूप ढालने की जुगाड़ करता रहता है। जो मजदूर शहर में काम करने आते हैं वे किस प्रकार अपने भाषा रूप को बदलने का प्रयास करते हैं - इसको देखा परखा जा सकता है।

सन् 1960 में लेखक ने बुलन्द शहर एवं खुर्जा तहसीलों (ब्रज एवं खड़ी बोली का संक्रमण क्षेत्र) के भाषिक रूपों का संकालिक अथवा एककालिक भाषावैज्ञानिक अध्ययन करना आरम्भ किया।14 सामग्री संकलन के लिए जब लेखक गाँवों में जाता था तथा वहाँ रहने वालों से बातचीत करता था तबके उनके भाषिक रूपों एवं आज लगभग 55 वर्षों के बाद के भाषिक रूपों में बहुत अन्तर आ गया है। अब इनके भाषिक-रूपों पर मानक हिन्दी अथवा व्यावहारिक हिन्दी का प्रभाव आसानी से पहचाना जा सकता है। इनके भाषिक-रूपों में अंग्रेजी शब्दों का चलन भी बढ़ा है। यह कहना अप्रासंगिक होगा कि उनकी जिन्दगी में और व्यवहार में भी बहुत बदलाव आया है।

मानक हिन्दी अथवा व्यावहारिक हिन्दी का सम्पूर्ण हिन्दी भाषा क्षेत्र में व्‍यवहार होने तथा इसके प्रकार्यात्‍मक प्रचार-प्रसार के कारण, यह हिन्दी भाषा-क्षेत्र में प्रयुक्त समस्‍त भाषिक रूपों के बीच संपर्क सेतु की भूमिका का निर्वाह कर रहा है।

हिन्‍दी भाषा का क्षेत्र बहुत विस्‍तृत है। इस कारण इसकी क्षेत्रगत भिन्‍नताएँ भी बहुत अधिक हैं।‘खड़ी बोली' हिन्‍दी भाषा क्षेत्र का उसी प्रकार एक भेद है ; जिस प्रकार हिन्‍दी भाषा के अन्‍य बहुत से क्षेत्रगत भेद हैं। हिन्‍दी भाषा क्षेत्र में ऐसी बहुत सी उपभाषाएँ हैं जिनमें पारस्‍परिक बोधगम्‍यता का प्रतिशत बहुत कम है किन्‍तु ऐतिहासिक एवं सांस्‍कृतिक दृष्‍टि से सम्‍पूर्ण भाषा क्षेत्र एक भाषिक इकाई है तथा इस भाषा-भाषी क्षेत्र के बहुमत भाषा-भाषी अपने-अपने क्षेत्रगत भेदों को हिन्‍दी भाषा के रूप में मानते एवं स्‍वीकारते आए हैं। कुछ विद्वानों ने इस भाषा क्षेत्र को ‘हिन्‍दी पट्‌टी’ के नाम से पुकारा है तथा कुछ ने इस हिन्‍दी भाषी क्षेत्र के निवासियों के लिए 'हिन्‍दी जाति' का अभिधान दिया है।

वस्‍तु स्‍थिति यह है कि हिन्‍दी, चीनी एवं रूसी जैसी भाषाओं के क्षेत्रगत प्रभेदों की विवेचना यूरोप की भाषाओं के आधार पर विकसित पाश्‍चात्‍य भाषाविज्ञान के प्रतिमानों के आधार पर नहीं की जा सकती।

जिस प्रकार अपने 29 राज्‍यों एवं 07 केन्‍द्र शासित प्रदेशों को मिलाकर भारतदेश है, उसी प्रकार भारत के जिन राज्‍यों एवं शासित प्रदेशों को मिलाकर हिन्‍दी भाषा क्षेत्र है, उस हिन्‍दी भाषा-क्षेत्र के अन्‍तर्गत जितने भाषिक रूप बोले जाते हैं उनकी समाष्‍टि का नाम हिन्‍दी भाषा है। हिन्‍दी भाषा क्षेत्र के प्रत्‍येक भाग में व्‍यक्‍ति स्‍थानीय स्‍तर पर क्षेत्रीय भाषा रूप में बात करता है। औपचारिक अवसरों पर तथा अन्‍तर-क्षेत्रीय, राष्‍ट्रीय एवं सार्वदेशिक स्‍तरों पर भाषा के मानक रूप अथवा व्‍यावहारिक हिन्‍दी का प्रयोग होता है। आप विचार करें कि उत्तर प्रदेश हिन्‍दी भाषी राज्‍य है अथवा खड़ी बोली, ब्रजभाषा, कन्‍नौजी, अवधी, बुन्‍देली आदि भाषाओं का राज्‍य है। इसी प्रकार मध्‍य प्रदेश हिन्‍दी भाषी राज्‍य है अथवा बुन्‍देली, बघेली, मालवी, निमाड़ी आदि भाषाओं का राज्‍य है। जब संयुक्‍त राज्‍य अमेरिका की बात करते हैं तब संयुक्‍त राज्‍य अमेरिका के अन्‍तर्गत जितने राज्‍य हैं उन सबकी समष्‍टि का नाम ही तो संयुक्‍त राज्‍य अमेरिका है। विदेश सेवा में कार्यरत अधिकारी जानते हैं कि कभी देश के नाम से तथा कभी उस देश की राजधानी के नाम से देश की चर्चा होती है। वे ये भी जानते हैं कि देश की राजधानी के नाम से देश की चर्चा भले ही होती है, मगर राजधानी ही देश नहीं होता। इसी प्रकार किसी भाषा के मानक रूप के आधार पर उस भाषा की पहचान की जाती है मगर मानक भाषा, भाषा का एक रूप होता है ः मानक भाषा ही भाषा नहीं होती। इसी प्रकार खड़ी बोली के आधार पर मानक हिन्‍दी का विकास अवश्‍य हुआ है किन्‍तु खड़ी बोली ही हिन्‍दी नहीं है। तत्‍वतः हिन्‍दी भाषा क्षेत्र के अन्‍तर्गत जितने भाषिक रूप बोले जाते हैं उन सबकी समष्‍टि का नाम हिन्दी है। हिन्‍दी को उसके अपने ही घर में तोड़ने के षडयंत्र को विफल करने की आवश्‍कता है तथा इस तथ्‍य को बलपूर्वक रेखांकित, प्रचारित एवं प्रसारित करने की आवश्‍यकता है कि सन् 1991 की भारतीय जनगणना के अन्तर्गत भारतीय भाषाओं के विश्‍लेषण का जो ग्रन्‍थ प्रकाशित हुआ है उसमें मातृभाषा के रूप में हिन्‍दी को स्‍वीकार करने वालों की संख्‍या का प्रतिशत उत्‍तर प्रदेश (उत्‍तराखंड राज्‍य सहित) में 90.11, बिहार (झारखण्‍ड राज्‍य सहित) में 80.86, मध्‍य प्रदेश (छत्‍तीसगढ़ राज्‍य सहित) में 85.55, राजस्‍थान में 89.56, हिमाचल प्रदेश में 88.88, हरियाणा में 91.00, दिल्‍ली में 81.64, तथा चण्‍डीगढ़ में 61.06 है। 15

हिन्दी भाषा-क्षेत्र एवं मंदारिन भाषा-क्षेत्र –

जिस प्रकार चीन में मंदारिन भाषा की स्थिति है उसी प्रकार भारत में हिन्दी भाषा की स्थिति है। जिस प्रकार हिन्दी भाषा-क्षेत्र में विविध क्षेत्रीय भाषिक रूप बोले जाते हैं, वैसे ही मंदारिन भाषा-क्षेत्र में विविध क्षेत्रीय भाषिक-रूप बोले जाते हैं। हिन्दी भाषा-क्षेत्र के दो चरम छोर पर बोले जाने वाले क्षेत्रीय भाषिक रूपों के बोलने वालों के बीच पारस्परिक बोधगम्यता का प्रतिशत बहुत कम है। मगर मंदारिन भाषा के दो चरम छोर पर बोले जाने वाले क्षेत्रीय भाषिक रूपों के बोलने वालों के बीच पारस्परिक बोधगम्यता बिल्कुल नहीं है। उदाहरण के लिए मंदारिन के एक छोर पर बोली जाने वाली हार्बिन और मंदारिन के दूसरे छोर पर बोली जाने वाली शिआनीज़ के वक्ता एक दूसरे से संवाद करने में सक्षम नहीं हो पाते। उनमें पारस्परिक बोधगम्यता का अभाव है। वे आपस में मंदारिन के मानक भाषा रूप के माध्यम से बातचीत कर पाते हैं। मंदारिन के इस क्षेत्रीय भाषिक रूपों को लेकर वहाँ कोई विवाद नहीं है। पाश्चात्य भाषावैज्ञानिक मंदारिन को लेकर कभी विवाद पैदा करने का साहस नहीं कर पाते। मंदारिन की अपेक्षा हिन्दी के भाषा-क्षेत्र में बोले जाने वाले भाषिक-रूपों में पारस्परिक बोधगम्यता का प्रतिशत अधिक है। यही नहीं सम्पूर्ण हिन्दी भाषा-क्षेत्र में पारस्परिक बोधगम्यता का सातत्य मिलता है। इसका अभिप्राय यह है कि यदि हम हिन्दी भाषा-क्षेत्र में एक छोर से दूसरे छोर तक यात्रा करे तो निकटवर्ती क्षेत्रीय भाषिक-रूपों में बोधगम्यता का सातत्य मिलता है। हिन्दी भाषा-क्षेत्र के दो चरम छोर के क्षेत्रीय भाषिक-रूपों के वक्ताओं को अपने अपने क्षेत्रीय भाषिक-रूपों के माध्यम से संवाद करने में कठिनाई होती है। कठिनाई तो होती है मगर इसके बावजूद वे परस्पर संवाद कर पाते हैं। यह स्थिति मंदारिन से अलग है जिसके चरम छोर के क्षेत्रीय भाषिक-रूपों के वक्ता अपने अपने क्षेत्रीय भाषिक-रूपों के माध्यम से कोई संवाद नहीं कर पाते। मंदारिन के एक छोर पर बोली जाने वाली हार्बिन और मंदारिन के दूसरे छोर पर बोली जाने वाली शिआनीज़ के वक्ता एक दूसरे से संवाद करने में सक्षम नहीं हैं मगर हिन्दी के एक छोर पर बोली जाने वाली भोजपुरी और मैथिली तथा दूसरे छोर पर बोली जाने वाली मारवाड़ी के वक्ता एक दूसरे के अभिप्राय को किसी न किसी मात्रा में समझ लेते हैं।

यदि चीन में मंदारिन भाषा-क्षेत्र के समस्त क्षेत्रीय भाषिक-रूप मंदारिन भाषा के ही अंतर्गत स्वीकृत है तो उपर्युक्त विवेचन के परिप्रेक्ष्य में हिन्दी भाषा-क्षेत्र के अन्तर्गत समाविष्ट क्षेत्रीय भाषिक-रूपों को भिन्न-भिन्न भाषाएँ मानने का विचार नितान्त अतार्किक और अवैज्ञानिक है। लेखक का स्पष्ट एवं निर्भ्रांत मत है कि हिन्दी को उसके अपने ही घर में तोड़ने के षड़यंत्रों को बेनकाब करने और उनको निर्मूल करने की आवश्यकता असंदिग्ध है। हिन्दी देश को जोड़ने वाली भाषा है। उसे उसके ही घर में तोड़ने का अपराध किसी को नहीं करना चाहिए। 16

2.हिन्दी भाषा का स्वरूप एवं विकास: दशा और दिशा

हिन्दी भाषा को राष्ट्रीय तथा अन्तरराष्ट्रीय भूमिकाओं के निर्वहण के लिए विकसित करने की जरूरत है। इसके लिए भाषा की प्रकृति एवं स्वरूप के परिप्रेक्ष्य में विकास के प्रतिमानों का निर्धारण जरूरी है। आधुनिक भाषाविज्ञान के परिप्रेक्ष्य में ये प्रतिमान निम्न हैं –

(1) भाषा के ऐतिहासिक स्वरूप की अपेक्षा एककालिक अथवा संकालिक स्तर पर उस भाषा समाज के पढ़े लिखे लोगों के द्वारा बोली जाने वाली मानक भाषा के स्वरूप एवं प्रकृति को महत्व दिया जाना चाहिए। इस दृष्टि से भारतीय वैयाकरणों ने काल विशेष की भाषा के पढ़े लिखे लोगों के द्वारा बोले जाने वाले भाषा-रूप को महत्व दिया। पणिनी के समय में वैदिक भाषा का आदर होता था। उसे सम्माननीय माना जाता था। मगर पाणिनी ने अपने व्याकरण के नियमों का निर्धारण करने के लिए वैदिक भाषा को आधार नहीं बनाया। पाणिनी ने उदीच्य भाग के गुरुकुलों में उनके समय में बोली जाने वाली लौकिक संस्कृत को प्रमाण मानकर अपने ग्रंथ में संस्कृत व्याकरण के नियमों का निर्धारण किया।

(2) भाषा की प्रकृति बदलना है। “भाखा बहता नीर" है। नदी की प्रकृति गतिमान होना है। भाषा की प्रकृति प्रवाहशील होना है है।संस्कृति में परिवर्तन होता है, हमारी सोच तथा हमारी आवश्कताएँ परिवर्तित होती हैं उसी अनुपात में शब्दावली में परिवर्तन होता रहता है।

(3) कोई भी जीवंत एवं प्राणवान भाषा ‘अछूत’ नहीं होती। कोई भी जीवंत एवं प्राणवान भाषा अपने को शुद्ध एवं निखालिस बनाने के व्यामोह में अपने घर के दरवाजों एवं खिड़कियों को बंद नहीं करती। यदि किसी भाषा को शुद्धता की जंजीरों से जकड़ दिया जाएगा, निखालिस की लक्ष्मण रेखा से बाँध दिया जाएगा तो वह धीरे धीरे सड़ जाएगी और फिर मर जाएगी।

(4) राजतंत्रात्मक शासन व्यवस्था में राजा महाराजाओं द्वारा बोली जाने वाली भाषा को महत्व दिया जाता है। लोकतंत्रात्मक शासन व्यवस्था में आम आदमी के द्वारा बोली जाने वाली जन-प्रचलित-भाषा को महत्व दिया जाना चाहिए। बोलचाल की सहज, रवानीदार एवं प्रवाहशील भाषा पाषाण खंडों में ठहरे हुए गंदले पानी की तरह नहीं होती। पाषाण खंडों के ऊपर से बहती हुई अजस्र धारा की तरह होती है।

(5) प्रत्येक भाषा की प्रकृति अलग होती है। प्रत्येक भाषा की अपनी व्यवस्था और संरचना होती है। "भिन्नत्वं हि प्रकृतिः"। भाषा की पद रचना एवं वाक्य रचना की प्रकृति के अनुरूप भाषा का प्रयोग होना चाहिए।

उपर्युक्त प्रतिमानों के अनुरूप, हिन्दी भाषा के विकास के सम्बंध में लेखक के दो लेख प्रवक्ता डॉट कॉम पर प्रकाशित हुए हैं जिनमें लेखक ने हिन्दी भाषा के स्वरूप, प्रगति एवं विकास से सम्बंधित सभी पहलुओं की विस्तार से चर्चा की है।17 उपर्युक्त संदर्भित लेखों में से लेखक का जो लेख 12 जून, 2014 को प्रकाशित हुआ, उस पर अनेक विद्वानों की प्रतिक्रियाएँ प्रकाशित हुईं। प्रस्तुत लेख में लेखक सबसे पहले उन सभी प्रकाशित प्रतिक्रियाओं के संदर्भ में, हिन्दी भाषा-विकास के सम्बंध में पुनः अपने विचारों को विद्वानों के विचारार्थ व्यक्त करना चाहता है। लेख पर जिन विद्वानों ने प्रतिक्रियाएँ व्यक्त कीं, उन सबके प्रति लेखक यथायोग्य स्नेह, आदर, अत्मीय भाव व्यक्त करता है। हम सबका एक ही लक्ष्य है - हिन्दी का विकास हो। हम सबके रास्ते अलग हो सकते हैं। हम सबकी सोच भिन्न हो सकती है। लेखक ने अपने अब तक के पूरे जीवन में हिन्दी की प्रगति और विकास के लिए काम किया है। लेख पर प्रतिक्रिया देने वाले विद्वानों ने भी यही किया है। इस दृष्टि से हम सब एक ही पथ के पथिक हैं। लेखक स्थानाभाव के कारण सबके अलग अलग बिन्दुवार उत्तर नहीं देना चाहता। वह भाषा विकास और लेख पर प्राप्त टिप्पणों के बारे में अपने चिंतन के कुछ विचार सूत्र पाठकों के विचार के लिए प्रस्तुत कर रहा है –

भारतीय संस्कृति का स्वरूप एवं भाषा-प्रयोग

भारत में भाषाओं, प्रजातियों, धर्मों, सांस्कृतिक परम्पराओं एवं भौगोलिक स्थितियों का असाधारण एवं अद्वितीय वैविध्य विद्यमान है। मेरे दिमाग में दिनकर की पंक्तियाँ गूँजती रही हैं कि भारतीय संस्कृति समुद्र की तरह है जिसमें अनेक धाराएँ आकर विलीन होती रही हैं। कुछ विद्वान आगत धाराओं को गंदे नालों के रूप में देखते हैं। इस सम्बंध में लेखक का विचार अलग है। उन समस्त आगत धाराओं को जिनको कुछ विद्वान गंदे नालों एवं ´मल' के रूप में देखते हैं, उनको लेखक 'ऐसे मल´ की श्रेणी में नहीं रखना चाहता जो हमारी भाषा, धर्म, एवं संस्कृति रूपी गंगा को ´गंदा नाला' बनाते हैं। आगत धाराएँ हमारी गंगा की मूल स्रोत भागीरथी में आकर मिलने वाली अलकनंदा,धौली गंगा,अलकन्दा, पिंडर और मंदाकिनी धाराओं की श्रेणी में आती हैं। भाषा के मामले में, लेखक की सोच है कि हिन्दी समाज के प्रयोक्ता जिस बोलचाल की सहज, रवानीदार एवं प्रवाहशील भाषा का प्रयोग करते हैं, उनमें प्रयुक्त होने वाले समस्त शब्दों को स्वीकार कर लेना चाहिए। इसी परिप्रेक्ष्य में लेखक का विचार है कि हम अपने रोजाना के व्यवहार में अंग्रेजी के जिन शब्दों का धड़ल्ले से प्रयोग करते हैं, उनको अपनाने पर आपत्ति नहीं होनी चाहिए। अंग्रेजी के जिन शब्दों को हिन्दी के अखबारों एवं टी. वी. चैनलों ने अपना लिया है तथा जो जनजीवन एवं लोक में प्रचलित हो गए हैं, उनको अपना लेना चाहिए।

प्रजातंत्र एवं लोकतंत्र में हिन्दी भाषा का स्वरूप

लेखक ने अपने लेख में लिखा था कि “प्रजातंत्र में शुद्ध हिन्दी, क्लिष्ट हिन्दी, संस्कृत गर्भित हिन्दी जबरन नहीं चलाई जानी चाहिए”। एक विद्वान ने टिप्पण किया : “प्रजातंत्र में शुद्ध हिन्दी, क्लिष्ट हिन्दी, संस्कृत गर्भित हिन्दी जबरन नहीं चलाई जानी चाहिए -लेखक महोदय ने ऐसा लिखा। परन्तु क्या अशुद्ध फारसी-अरबी-अंग्रेजी़ गर्भित-भाषा लिखनी चाहिये- यह कौन सी, कहाँ की और कैसी विचित्र परिभाषा है प्रजातन्त्र की”। एक दूसरे विद्वान का टिप्पण था: “ संस्कृताधारित शब्द अपना पूरा परिवार लेकर भाषामें प्रवेश करता है, अंग्रेज़ी अकेला आता है, उर्दू भी अकेला आता है।नया गढ़ा हुआ, संस्कृत शब्द भी प्रचलित होने पर सरल लगने लगता है।भाषा बदलती है, स्वीकार करता हूँ। पर उसे सुसंस्कृत भी की जा सकती है,और विकृत भी। संस्कृत रचित शब्द सहज स्वीकृत होकर कुछ काल के पश्चात रूढ हो जाएंगे। अंग्रेज़ी के शब्द जब हिंदी में प्रायोजित होते हैं, तो लुढकते लुढकते चलते हैं। उनमें बहाव का अनुभव नहीं होता।और कौनसा स्वीकार करना, कौनसा नहीं, इसका क्या निकष? आज प्रदूषित हिंदी को उसी के प्रदूषित शब्दों द्वारा विचार और प्रयोग करके शुद्ध करना है। जैसे रक्त का क्षयरोग उसी रक्त को शुद्ध कर किया जाता है”।18 लेखक का इन विद्वानों से निवेदन है कि वे संदर्भ को ध्यान में रखकर “शुद्ध” शब्द का अभिधेयार्थ नहीं अपितु व्यंग्यार्थ ग्रहण करने की अनुकंपा करें। प्रजातंत्र में और जबरन चलाने पर विशेष ध्यान देंगे तो शब्द प्रयोग का व्यंग्यार्थ स्वतः स्पष्ट हो जाएगा।

नाम रखने अथवा नामकरण तथा जन प्रचलित शब्द के स्थान पर नया शब्द बनाने´ अथवा ‘गढ़ने´ में अन्तर

भारत सरकार के वैज्ञानिक एवं तकनीकी शब्दावली आयोग के द्वारा शब्द निर्माण पर लेखक ने अपने लेख में निम्न टिप्पण किया था –

“उन्होंने जन-प्रचलित शब्दों को अपनाने के स्थान पर संस्कृत का सहारा लेकर शब्द गढ़े।शब्द बनाए नहीं जाते। गढ़े नहीं जाते। लोक के प्रचलन एवं व्यवहार से विकसित होते हैं।” इस पर एक विद्वान ने जो प्रतिक्रिया व्यक्त की वह नीचे उद्धृत है –

“प्रो. जैन जो कहते हैं, उसे दो अंशों में बाँट कर सोचते हैं। क और ख।

(क) “उन्होंने जन प्रचलित शब्दों को अपनाने के स्थान पर संस्कृत का सहारा लेकर शब्द गढ़े।

(ख) शब्द बनाए नहीं जाते। गढ़े नहीं जाते। लोक के प्रचलन एवं व्यवहार से विकसित होते हैं।”

(क) “जन प्रचलित” – यह जन कोई एक व्यक्ति नहीं है। और अनेक व्यक्ति यदि प्रचलित करते हैं, तो, क्या वे एक ही शब्द जो सर्वमान्य हो, ऐसा शब्द प्रचलित कर सकते हैं?

(क१) और प्रचलित कैसे करेंगे? जब प्रत्येक का अलग शब्द होगा, तो, अराजकता नहीं जन्मेगी? और यदि ऐसा होता है, तो वैचारिक संप्रेषण कैसे किया जाए?

(ख) शब्द बनाए नहीं जाते। गढे नहीं जाते?”।

इस लेख में, लेखक विद्वान महोदय की उपर्युक्त आपत्तियों का निराकरण करना चाहता है –

किसी व्यक्ति, स्थान, वस्तु का ‘नाम रखने´ अथवा ´नामकरण करने’ तथा जन प्रचलित शब्द के स्थान पर नया शब्द ‘बनाने´ अथवा ‘गढ़ने´ में अन्तर है। ये भिन्न ´विचारों’ के वाचक हैं; भिन्न ‘संकल्पनाओं´ के बोधक हैं।

नामकरण करना अथवा नाम रखना –

(क) व्यक्ति का नामकरण – घर में जब किसी शिशु का जन्म होता है, वह भगवान के घर से कोई नाम लेकर पैदा नहीं होता। उसका ´नामकरण’ होता है। उसका हम नाम रखते हैं। उसके लिए नाम बनाते नहीं हैं। उसके लिए नाम गढ़ते नहीं हैं। जो नाम रखते हैं, वह समाज में उस शिशु के लिए प्रचलित हो जाता है। लोक उसे उसके रखे नाम से पहचानता है। नाम व्यक्तित्व का अंग हो जाता है। नाम व्यक्ति से जुड़ जाता है।

(ख) नई व्यवस्था, नई वस्तु, नए आविष्कार के लिए नामकरण – भारत ने गुलामी की जंजीरों को काटकर स्वतंत्रता प्राप्त की। स्वाधीन होने के पहले से ही हमारे राष्ट्रीय नेताओं ने स्वतंत्र भारत के संविधान के लिए ‘संविधान सभा´ का गठन कर दिया था। हमारे देश की संविधान सभा ने राजतंत्र के स्थान पर लोकतंत्र को ध्यान में रखकर संविधान बनाया। राजतंत्र में सर्वोच्च पद राजा का होता है। लोकतंत्र के लिए उन्होंने ´राष्ट्रपति’ का पद बनाया। राष्ट्रपति शब्द इस कारण प्रचलित हो गया। उसके लिए कोई दूसरा शब्द जनता में प्रचलित नहीं था। पद ही नहीं था तो उसका वाचक कैसे होता। लोकतंत्रात्मक शासन व्यवस्था में इसी कारण बहुत से नए शब्दों का नामकरण किया। उनके लिए लोक में कोई अन्य नाम प्रचलित नहीं थे। आपने अपने टिप्पण में जो उदाहरण प्रस्तुत किए हैं, उनमें से अधिकतर इसी कोटि के अन्तर्गत आते हैं। कुछ अन्य उदाहरण देखें- (1) भारत की सरकार ने जब पद्म पुरस्कारों की नई योजना बनाई तो पुरस्कारों की तीन श्रेणियाँ बनाई तथा उनके नाम रखे – (अ) पद्म विभूषण (आ) पद्म भूषण (इ) पद्म श्री । इसके लिए कोई अन्य नाम प्रचलित नहीं थे। प्रचलित नहीं थे, क्योंकि ये पुरस्कार ही नहीं थे। इस कारण रखे गए नाम चले। इनका प्रचलन हो गया। (2) भारत की सरकार ने जब पूर्वोत्तर भारत में नए राज्यों का गठन किया तो उनके लिए नाम रखे। (अ) अरुणाचल प्रदेश (आ) मणिपुर (इ) मेघालय (ई) मिज़ोरम (उ) नगालैण्ड आदि। इन नए गठित राज्यों के लिए पहले से कोई शब्द नहीं थे। शब्द इस कारण नहीं थे क्योंकि राज्य ही नहीं थे। इन नए राज्यों का नामकरण किया गया। इन राज्यों को सब इनके नाम से पुकारते हैं। (3) अभी हाल में ‘आन्ध्र प्रदेश´ को दो भागों में बाँटा गया है। एक राज्य का नामकरण किया गया – तेलंगाना । दूसरे राज्य का नामकरण किया गया – सीमान्ध्र। ये नाम चलेंगे। लोक प्रचलित हो जाएँगे। (4) भारत के अंतरिक्ष वैज्ञानिकों ने चन्द्रमा पर भेजे जाने वाले अंतरिक्ष प्रेक्षण उपग्रह का नाम ‘चन्द्रयान´ तथा मंगल पर भेजे जाने वाले अंतरिक्ष प्रेक्षण उपग्रह का नाम ‘मंगलयान´ रखा। इनका नामकरण ´चन्द्रयान’ एवं ‘मंगलयान’ किया। ये नाम चल रहे हैं। संसार की किसी भी देश का वैज्ञानिक जब किसी भी भाषा में इनका उल्लेख करेगा तो उसे ‘चन्द्रयान´ एवं ‘मंगलयान´ शब्दों का प्रयोग करना पड़ेगा।

शब्द बनाना अथवा शब्द गढ़ना –

शब्द बनाने अथवा शब्द गढ़ने को निम्न उदाहरण से स्पष्ट किया जा सकता है। अंग्रेजों ने भारत में ‘रेलवे नेटकर्क´ शुरु किया। रेल की पटरियों का जाल बिछाने का काम किया। रेल से जुड़े अंग्रेजी के सैकड़ों शब्द जन प्रचलित हो गए। उदाहरण देखें- (1) इंजन (2) रेलवे (3) एक्सप्रेस (4) केबिन (5) गॉर्ड (6) स्टेशन (7) जंक्शन (8) टाइम टेबिल (9) टिकट (10) टिकट कलेक्टर (11) डीजल इंजन (12) प्लेटफॉर्म (13) बोगी (14) बुकिंग (15) सिग्नल (16) स्टेशन (17) स्टेशन मास्टर ।

इन जैसे जन प्रचलित शब्दों के स्थान पर इनके लिए नए शब्द बनाने अथवा गढ़ने वालों से लेखक सहमत नहीं हो सकता। भारतीय भाषाविज्ञान की महान परम्परा के अध्ययन के बाद लेखक को जो ज्ञान प्राप्त हुआ है उसके आधार पर वह यह बात कह रहा है। आचार्य रघुवीर जी ने जो कार्य किया है वह स्तुत्य है मगर उन्होंने भी अंग्रेजी के जन प्रचलित शब्दों के स्थान पर जिन शब्दों को गढ़ा है उनसे सहमत नहीं हूँ। उदाहरण के लिए रेलगाड़ी के स्थान पर उन्होंने संस्कृत की धातुओं एवं परसर्गों एवं विभक्तियों की सहायता से शब्द बनाया जो उपहास का कारक बना। ऐसे ही उदाहरणों के कारण ´रघुवीरी हिन्दी’ हास्यास्पद हो गई। लोक में रेल ही चलता है और चलेगा। गढ़ा शब्द नहीं चलेगा। इसी संदर्भ में, लेखक का मत है कि जो शब्द जन-प्रचलित हैं उनके स्थान पर शब्द गढ़े नहीं। आप नया आविष्कार करें और उसका नामकरण करें, यह ठीक है। जो शब्द जन-प्रचलित हो गए हैं उनके स्थान पर नए शब्द बनाना अथवा गढ़ना श्रम का अपव्यय है। हमें किसी विचार शाखा से अपने को जकड़ना नहीं चाहिए। भाषा की प्रवाहशील प्रकृति को आत्मसात करना चाहिए।

संस्कृत भाषा तथा हिन्दी भाषा

संस्कृत और आधुनिक भारतीय भाषाएँ भिन्न कालों की भाषाएँ हैं। एक काल की भाषा पर दूसरे काल की भाषा के नियमों को नहीं थोपा जा सकता। संस्कृत और आधुनिक भारतीय आर्य भाषाओं की व्यवस्थाओं एवं संरचनाओं के अन्तर को हमें जानना चाहिए। किसी भाषा के व्याकरण के नियमों को दूसरी किसी अन्य भाषा पर थोपना गलत है।भाषाविज्ञान का यह सार्वदेशिक एवं सार्वकालिक नियम है। लेखक ने लिखा कि ´भाषा की प्रकृति नदी की धारा की तरह होती है'। इस पर कुछ विद्वानों ने सवाल उठाया कि क्या नदी की धारा को अनियंत्रित, अमर्यादित एवं बेलगाम हो जाने दें। लेखक का उत्तर है - नदी की धारा अपने तटों के द्वारा मर्यादित रहती है। भाषा अपने व्याकरण की व्यवस्था एवं संरचना के तटों के द्वारा मर्यादित रहती है। भाषा में बदलाव एवं ठहराव दोनों साथ साथ रहते हैं। ‘शब्दावली’ गतिशील एवं परिवर्तनशील है। व्याकरण भाषा को ठहराव प्रदान करता है। ऐसा नहीं है कि ‘व्याकरण’ कभी बदलता नहीं है। बदलता है मगर बदलाव की रफ़तार बहुत धीमी होती है। ‘शब्द’ आते जाते रहते हैं। हम विदेशी अथवा अन्य भाषा से शब्द तो आसानी से ले लेते हैं मगर उनको अपनी भाषा की प्रकृति के अनुरूप ढाल लेते हैं। ‘शब्द’ को अपनी भाषा के व्याकरण की पद रचना के अनुरूप विभक्ति एवं परसर्ग लगाकर अपना बना लेते हैं। हम यह नहीं कहते कि मैंने चार ‘फिल्म्स’ देखीं; हम कहते हैं कि मैंने चार फिल्में देखीं।

संस्कृत भाषा का महत्व और पाणिनी तथा पतंजलि का भाषावैज्ञानिक चिंतन

लेखक के लेख को पढ़कर जिन विद्वानों ने प्रतिक्रियाएँ व्यक्त कीं, उनमें से कुछ विद्वानों ने लेखक को संस्कृत की व्याकरण परम्परा के महत्व से परिचित कराना चाहा। लेखक सम्प्रति यह निवेदन करना चाहता है कि वह संस्कृत के महान वैयाकरणों एवं निरुक्तकारों के योगदान से सर्वथा अनभिज्ञ नहीं है। वह इससे अवगत है कि प्रातिशाख्यों तथा शिक्षा-ग्रंथों में भाषाविज्ञान और विशेष रूप से ध्वनि विज्ञान से सम्बंधित कितना सूक्ष्मदर्शी और गहन विचार सन्निहित है। भारतीय भाषाविज्ञान की परम्परा बड़ी समृद्ध है और उसमें न केवल वैदिक संस्कृत और लौकिक संस्कृत के भाषाविद् समाहित हैं अपितु प्राकृतों एवं अपभ्रंशों के भाषाविद् भी समाहित है। पाणिनी ने अपने काल के पूर्व के 10 आचार्यों का उल्लेख किया है। उन आचार्यों ने वेदों के काल की छान्दस् भाषा पर कार्य किया था। पाणिनी ने वैदिक काल की छान्दस भाषा को आधार बनाकर अष्टाध्यायी की रचना नहीं की। उन्होंने अपने काल की जन-सामान्य भाषा संस्कृत को आधार बनाकर व्याकरण के नियमों का निर्धारण किया। वाल्मीकीय रामायण में इस भाषा के लिए ‘मानुषी´ विशेषण का प्रयोग हुआ है। पाणिनी के समय संस्कृत का व्यवहार एवं प्रयोग बहुत बड़े भूभाग में होता था। उसके अनेक क्षेत्रीय भेद-प्रभेद रहे होंगे। पाणिनी ने भारत के उदीच्य भाग के गुरुकुलों में बोली जानेवाली भाषा को आधार बनाया। पाणिनी के व्याकरण का महत्व सर्वविदित है। उस सम्बंध में लिखना अनावश्यक है। पाणिनी के व्याकरण की विशिष्टता को अनेक विद्वानों ने रेखांकित किया है। संस्कृत भाषा को नियमबद्ध करने के लिए पाणिनी के सूत्र बीजगणित के जटिल सूत्रों की भाँति हैं´।

पतंजलि ने भाषा प्रयोग के मामले में भाषा के वैयाकरण से अधिक महत्व सामान्य गाड़ीवान (सारथी) को दिया। महाभाष्यकार पतंजलि के ´पतंजलिमहाभाष्य' से एक प्रसंग प्रस्तुत कर रहा हूँ जिसमें उन्होंने भाषा के प्रयोक्ता का महत्व प्रतिपादित किया है। प्रयोक्ता व्याकरणिक नियमों का भले ही जानकार नहीं होता किन्तु वह अपनी भाषा का प्रयोग करता है। व्याकरणिक नियमों के निर्धारण करने वाले तथा भाषा का प्रयोग करनेवाले का पतंजलि-महाभाष्य में रोचक प्रसंग मिलता है। वैयाकरण तथा रथ चलानेवाले के बीच के संवाद का प्रासंगिक अंश उद्धृत है-“वैयाकरण ने पूछा – इस रथ का 'प्रवेता´ कौन है?

सारथी का उत्तर – आयुष्मान्, मैं इस रथ का 'प्राजिता´ हूँ।

(प्राजिन् = सारथी, रथ-चालक, गाड़ीवान)

वैयाकरण – ´प्राजिता' अपशब्द है।

सारथी का उत्तर – (देवानां प्रिय) आप केवल 'प्राप्तिज्ञ´ हैं; 'इष्टिज्ञ´ नहीं।

('प्राप्तिज्ञ´ = नियमों का ज्ञाता; 'इष्टिज्ञ´ = प्रयोग का ज्ञाता)

वैयाकरण – यह दुष्ट 'सूत´ हमें ´दुरुत' (कष्ट पहुँचाना) रहा है।

सूत- आपका ´दुरुत' प्रयोग उचित नहीं है। आप निंदा ही करना चाहते हैं तो ´दुःसूत' शब्द का प्रयोग करें।

लेखक इस तथ्य से अवगत है कि प्रत्याहार, गणपाठ, विकरण, अनुबंध आदि की विपुल तकनीक से अलंकृत पाणिनीय सूत्र उनकी अद्वितीय प्रतिभा को प्रमाणित करते हैं।

लेखक को संस्कृत भाषा के व्यवहार एवं प्रसार की भी थोड़ी बहुत जानकारी है। उत्तर-वैदिक काल में संस्कृत भारत की सभी दिशाओं में चारों ओर फैलती गई। संस्कृत का यह प्रसार केवल भौगोलिक दिशाओं में ही नहीं हो रहा था; सामाजिक स्तर पर मानक संस्कृत से भिन्न अनेक आर्य एवं अनार्य भाषाओं के बोलने वाले समुदायों में भी हो रहा था।19

संस्कृत भाषा के भारत के विभिन्न भागों एवं विभिन्न सामाजिक समुदायों में व्यवहार एवं प्रसार के कारण दो बातें घटित हुईं –

1. संस्कृत ने अपने प्रसार के कारण भारत के प्रत्येक क्षेत्र की भाषा को प्रभावित किया।

2. संस्कृत भाषा स्वयं भी भारत में अन्य भाषा-परिवारों की भाषाओं से तथा संस्कृत युग में भारतीय आर्य परिवार की संस्कृतेतर अन्य लोक भाषाओं / जनभाषाओं से प्रभावित हुई। लेखक यह स्पष्ट करना चाहता है कि संस्कृत काल में अन्य लोक भाषाओं / जनभाषाओं का व्यवहार होता था। 20

संस्कृत के प्रभाव से तो संस्कृत के विद्वान परिचित हैं मगर संस्कृत पर संस्कृतेतर अन्य लोक भाषाओं / जनभाषाओं के प्रभाव से शायद परिचित नहीं हैं अथवा इस पक्ष को अनदेखा कर जाते हैं। लेखक ने इन दोनों पक्षों पर अपनी पुस्तक में विस्तार से लिखा है।21 यह भी विवेचित किया है कि पाणिनी के बाद के संस्कृत साहित्य में प्रयुक्त किन धातुओं का (शब्दों का नहीं) प्रयोग हुआ है जिनका उल्लेख पाणिनी की अष्टाध्यायी में नहीं हुआ है। वस्तुतः संसार की प्रत्येक भाषा में अन्य भाषा / भाषाओं से आगत शब्दों का व्यवहार होता है। हिन्दी में अंग्रेजी शब्दों का प्रयोग हो रहा है। संसार की प्रत्येक भाषा अन्य भाषा से शब्द ग्रहण करती है और उसे अपनी भाषा में पचा लेती है। संसार की प्रत्येक प्रवाहशील भाषा में परिवर्तन होता है।

हिन्दी के समाचार पत्रों, टी. वी. चैनलों एवं फिल्मों की भाषा
समाचार पत्रों में तथा टी. वी. के हिन्दी चैनलों एवं हिन्दी की फिल्मों में उस भाषा का प्रयोग हो रहा है जिसे हमारी संतति बोल रही है। भविष्य की हिन्दी का स्वरूप हमारे प्रपौत्र एवं प्रपौत्रियों की पीढ़ी के द्वारा बोली जानेवाली हिन्दी के द्वारा निर्धारित होगा जिसका निर्धारण उनके अपने काल में भाषा के वैयाकरण करेंगे। । ऐतिहासिक भाषाविज्ञान एवं एककालिक अथवा संकालिक भाषाविज्ञान की दृष्टियाँ समान नहीं होती। उनमें अन्तर होता है। शब्द प्रयोग के संदर्भ में जब ऐतिहासिक भाषाविज्ञान की दृष्टि से विचार किया जाता है तो यह पता लगाने की कोशिश की जाती है कि भाषा के शब्द का स्रोत कौन सी भाषा है। शब्द प्रयोग के संदर्भ में जब एककालिक अथवा संकालिक भाषाविज्ञान की दृष्टि से विचार किया जाता है तो भाषा का प्रयोक्ता जिन शब्दों का व्यवहार करता है, वे समस्त शब्द उसकी भाषा के होते हैं। उस धरातल पर कोई शब्द स्वदेशी अथवा विदेशी नहीं होता। प्रत्येक जीवन्त भाषा में अनेक स्रोतों से शब्द आते रहते हैं और उस भाषा के अंग बनते रहते हैं।भाषा में शुद्ध एवं अशुद्ध का, मानक एवं अमानक का, सुसंस्कृत एवं अपशब्द का तथा आजकल भाषा के मानकीकरण एवं आधुनिकीकरण के बीच वाद-विवाद होता रहा है और होता रहेगा। भारत में ऐसे विद्वानों की संख्या अपेक्षाकृत अधिक है जो केवल मानक भाषा की अवधारणा से परिचित हैं। जो भाषाएँ इन्टरनेट पर अधिक विकसित एवं उन्नत हो गयीं हैं, उनके भाषाविद् मानक भाषा से ज्यादा महत्व भाषा के आधुनिकीकरण को देते हैं। वैयाकरण प्रयोक्ता द्वारा बोली जाने वाली भाषा को आधार मानकर व्याकरण के नियमों का निर्धारण करता है। परम्परा से चिपके रहने वालों की नजर में कुछ शब्द सुसंस्कृत होते हैं एवं कुछ अपशब्द होते हैं। भाषा की प्रकृति बदलना है। भाषा बदलती है। परम्परावादियों को बदली भाषा भ्रष्ट लगती है। मगर उनके लगने से भाषा अपने प्रवाह को, अपनी गति को, अपनी चाल को रोकती नहीं है। बहती रहती है। बहना उसकी प्रकृति है। इसी कारण कबीर ने कहा था - 'भाखा बहता नीर´।भाषा का अन्तिम निर्णायक उसका प्रयोक्ता होता है। दूसरे काल की भाषा के आधार पर उस काल का वैयाकरणिक संकालिक भाषा के व्याकरण के पुनः नए नियम बनाता है। व्याकरण के नियमों में भाषा को बाँधने की कोशिश करता है। भाषा गतिमान है। पुनः पुनः नया रूप धारण करती रहती है।भाषा वह है जो भाषा के प्रयोक्ताओं द्वारा बोली जाती है। लेखक इस बात को दोहराना चाहता है कि भविष्य में हिन्दी भाषा का रूप वह होगा जो लेखक के एवं हिन्दी समाज के प्रपौत्रों तथा प्रपौत्रियों के काल की पीढ़ी द्वारा बोला जाएगा। भाषा का मूल आधार उस के समाज के पढ़े लिखे द्वारा बोली जानेवाली भाषा ही होती है। इसी के आधार पर किसी काल का वैयाकरण मानक भाषा के नियमों का निर्धारण करता है।

सामान्य जनता द्वारा बोली जाने वाली सरल, बोधगम्य हिन्दी का प्रयोग

यहाँ इसको रेखांकित करना अप्रसांगिक न होगा कि स्वाधीनता संग्राम के दौरान हिन्दीतर भाषी राष्ट्रीय नेताओं ने जहाँ देश की अखंडता एवं एकता के लिए राष्ट्रभाषा हिन्दी के प्रचार प्रसार की अनिवार्यता की पैरोकारी की वहीं भारत के सभी राष्ट्रीय नेताओं ने एकमतेन सरल एवं सामान्य जनता द्वारा बोली जाने वाली हिन्दी का प्रयोग करने एवं हिन्दी उर्दू की एकता पर बल दिया था। इसी प्रसंग में, लेखक यह जोड़ना चाहता है कि प्रजातंत्र में शुद्ध हिन्दी, क्लिष्ट हिन्दी, संस्कृत गर्भित हिन्दी जबरन नहीं चलाई जानी चाहिए। जनतंत्र में ऐसा करना सम्भव नहीं है। ऐसा फासिस्ट शासन में ही सम्भव है। हमें सामान्य आदमी जिन शब्दों का प्रयोग करता है उनको अपना लेना चाहिए। यदि वे शब्द अंग्रेजी से हमारी भाषाओं में आ गए हैं, हमारी भाषाओं के अंग बन गए हैं तो उन्हें भी अपना लेना चाहिए। यह सर्वविदित है कि प्रेमचन्द जैसे महान रचनाकार ने भी प्रसंगानुरूप किसी भी शब्द का प्रयोग करने से परहेज़ नहीं किया। उनकी रचनाओं में अंग्रेजी शब्दों का भी प्रयोग हुआ है। अपील, अस्पताल, ऑफिसर, इंस्पैक्टर, एक्टर, एजेंट, एडवोकेट, कलर, कमिश्नर, कम्पनी, कॉलिज, कांस्टेबिल, कैम्प, कौंसिल, गजट, गवर्नर, गैलन, गैस, चेयरमेन, चैक, जेल, जेलर, टिकट, डाक्टर, डायरी, डिप्टी, डिपो, डेस्क, ड्राइवर, थियेटर, नोट, पार्क, पिस्तौल, पुलिस, फंड, फिल्म, फैक्टरी, बस, बिस्कुट, बूट, बैंक, बैंच, बैरंग, बोतल, बोर्ड, ब्लाउज, मास्टर, मिनिट, मिल, मेम, मैनेजर, मोटर, रेल, लेडी, सरकस, सिगरेट, सिनेमा, सिमेंट, सुपरिन्टेंडैंट, स्टेशन आदि हजारों शब्द इसके उदाहरण हैं। प्रेमचन्द जैसे हिन्दी के महान साहित्यकार ने अपने उपन्यासों एवं कहानियों में अंग्रेजी के इन शब्दों का प्रयोग करने में कोई झिझक नहीं दिखाई है। जब प्रेमचंद ने उर्दू से आकर हिन्दी में लिखना शुरु किया था तो उनकी भाषा को देखकर छायावादी संस्कारों में रँगे हुए आलोचकों ने बहुत नाक भौंह सिकौड़ी थी तथा प्रेमचंद को उनकी भाषा के लिए पानी पी पीकर कोसा था। मगर प्रेमचंद की भाषा खूब चली। खूब इसलिए चली क्योंकि उन्होंने प्रसंगानुरूप किसी भी शब्द का प्रयोग करने से परहेज़ नहीं किया। उन्होंने शब्दावली आयोग की तरह इसके लिए विशेषज्ञों को बुलाकर यह नहीं कहा कि पहले इन अंग्रेजी के शब्दों के लिए शब्द गढ़ दो ताकि मैं अपना साहित्य सर्जित कर सकूँ। उनके लेखन में अंग्रेजी के ये शब्द ऊधारी के नहीं हैं; जनजीवन में प्रयुक्त शब्द भंडार के आधारभूत, अनिवार्य, अवैकल्पिक एवं अपरिहार्य अंग हैं। फिल्मों, रेडियो, टेलिविजन, दैनिक समाचार पत्रों में जिस हिन्दी का प्रयोग हो रहा है वह जनप्रचलित भाषा है। जनसंचार की भाषा है। समय समय पर बदलती भी रही है। पुरानी फिल्मों में प्रयुक्त होनेवाले चुटीले संवादों तथा फिल्मी गानों की पंक्तियाँ जैसे पुरानी पीढ़ी के लोगों की जबान पर चढ़कर बोलती थीं वैसे ही आज की युवा पीढ़ी की जुबान पर आज की फिल्मों में प्रयुक्त संवादों तथा गानों की पंक्तियाँ बोलती हैं। फिल्मों की स्क्रिप्ट के लेखक जनप्रचलित भाषा को परदे पर लाते हैं। उनके इसी प्रयास का परिणाम है कि फिल्मों को देखकर समाज के सबसे निचले स्तर का आम आदमी भी फिल्म का रस ले पाता है। लेखक का सवाल यह है कि यदि साहित्यकार, फिल्म के संवादों तथा गीतों के लेखक, समाचार पत्रों के रिपोर्टर जनप्रचलित हिन्दी का प्रयोग कर सकते हैं तो भारत सरकार का शासन ´प्रशासन की राजभाषा हिन्दी' को जनप्रचलित क्यों नहीं बना सकता। विचारणीय है कि हिंदी फिल्मों की भाषा ने गाँवों और कस्बों की सड़कों एवं बाजारों में आम आदमी के द्वारा रोजमर्रा की जिंदगी में बोली जाने वाली बोलचाल की भाषा को एक नई पहचान दी है। फिल्मों के कारण हिन्दी का जितना प्रचार-प्रसार हुआ है उतना किसी अन्य एक कारण से नहीं हुआ। आम आदमी जिन शब्दों का व्यवहार करता है उनको हिन्दी फिल्मों के संवादों एवं गीतों के लेखकों ने बड़ी खूबसूरती से सहेजा है। राजभाषा के संदर्भ में यह संवैधानिक आदेश है कि संघ का यह कर्तव्य होगा कि वह हिंदी भाषा का प्रसार बढ़ाए, उसका विकास करे जिससे वह भारत की सामासिक संस्कृति के सभी तत्वों की अभिव्यक्ति का माध्यम बन सके और उसकी प्रकृति में हस्तक्षेप किए बिना हिंदुस्थानी में और आठवीं अनुसूची में विनिर्दिष्ट भारत की अन्य भाषाओं में प्रयुक्त रूप, शैली और पदों को आत्मसात करते हुए और जहाँ आवश्यक या वांछनीय हो वहाँ उसके शब्द-भंडार के लिए मुख्यतः संस्कृत से और गौणतः अन्य भाषाओं से शब्द ग्रहण करते हुए उसकी समृद्धि सुनिश्चित करे। भारत सरकार का शासन राजभाषा का तदनुरूप विकास कर सका है अथवा नहीं यह सोचने विचारने की बात है। इस दृष्टि से भी लेखक फिल्मों में कार्यरत सभी रचनाकारों एवं कलाकारों का अभिनंदन करता है।हिन्दी सिनेमा ने भारत की सामासिक संस्कृति के माध्यम की निर्मिति में अप्रतिम योगदान दिया है। बंगला, पंजाबी, मराठी, गुजराती, तमिल आदि भाषाओं एवं हिन्दी की विविध उपभाषाओं एवं बोलियों के अंचलों तथा विभिन्न पेशों की बस्तियों के परिवेश को सिनेमा की हिन्दी ने मूर्तमान एवं रूपायित किया है। भाषा तो हिन्दी ही है मगर उसके तेवर में, शब्दों के उच्चारण के लहजे़ में, अनुतान में तथा एकाधिक शब्द-प्रयोग में परिवेश का तड़का मौजूद है। भाषिक प्रयोग की यह विशिष्टता निंदनीय नहीं अपितु प्रशंसनीय है। लेखक को प्रसन्नता है कि देर आए दुरुस्त आए, राजभाषा विभाग ने प्रशासनिक हिन्दी को सरल बनाने की दिशा में कदम उठाने शुरु कर दिए हैं। जैसे प्रेमचन्द ने जनप्रचलित अंग्रेजी के शब्दों को अपनाने से परहेज नहीं किया वैसे ही प्रशासनिक हिन्दी में भी प्रशासन से सम्बंधित ऐसे शब्दों को अपना लेना चाहिए जो जन-प्रचलित हैं। उदाहरण के लिए एडवोकेट, ओवरसियर, एजेंसी, ऍलाट, चैक, अपील, स्टेशन, प्लेटफार्म, एसेम्बली, ऑडिट, केबिनेट, केम्पस, कैरियर, केस, कैश, बस, सेंसर, बोर्ड, सर्टिफिकेट, चालान, चेम्बर, चार्जशीट, चार्ट, चार्टर, सर्किल, इंस्पेक्टर, सर्किट हाउस, सिविल, क्लेम, क्लास, क्लर्क, क्लिनिक, क्लॉक रूम, मेम्बर, पार्टनर, कॉपी, कॉपीराइट, इन्कम, इन्कम टैक्स, इंक्रीमेंट, स्टोर आदि। इसी प्रसंग में, लेखक भारत सरकार के राजभाषा विभाग को यह सुझाव भी देना चाहता है कि जिन संस्थाओं में सम्पूर्ण प्रशासनिक कार्य हिन्दी में शतकों अथवा दशकों से होता आया है वहाँ की फाइलों में लिखी गई हिन्दी भाषा के आधार पर प्रशासनिक हिन्दी को सरल बनाएँ। जब कोई रोजाना फाइलों में सहज रूप से लिखता है तब उसकी भाषा का रूप अधिक सरल और सहज होता है बनिस्पत जब कोई सजग होकर भाषा को बनाता है। सरल भाषा बनाने से नहीं बनती; सहज प्रयोग करते रहने से बन जाती है, ढल जाती है।

सन् 2014 में, राष्ट्रपति के अभिभाषण पर धन्यवाद प्रस्ताव पर हुई बहस का जो उत्तर भारत के प्रधान मंत्री श्री नरेन्द्र मोदी ने संसद के दोनों सदनों में दिया उसको लेखक ने सुना तथा प्रयुक्त अंग्रेजी के शब्दों को अपनी शक्ति-सीमा के दायरे में लिखता गया। बहुत से शब्द छूट भी गए। लेखक उक्त संदर्भित भाषण में बोले गए अंग्रेजी के जिन शब्दों को लिख पाया, वे शब्द निम्नलिखित हैं: 1.स्कैम इंडिया 2. स्किल इंडिया 3. एंटरप्रेन्योरशिप 4. स्किल डेवलपमेंट 5. एजेंडा 6. रोडमैप 7. रेप 8. एफ आई आर 9. रेंज 10. कॉमन 11. ब्रेक 12.इंडस्ट्रीज़ 13. फोकस 14. मार्केटिंग 15. प्रोडक्ट । लेखक ने प्रवक्ता डॉट कॉम पर 12 जून, 2014 को प्रकाशित अपने लेख में मोदी जी के इस भाषण में प्रयुक्त अंग्रेजी के शब्दों का उल्लेख जानबूझ कर किया। ऐसा लेखक ने इस कारण किया जिससे वह उन विद्वानों को उत्तर देने में समर्थ हो सके जो मूल धारा की शुद्धता को बनाए रखने के नाम पर केवल संस्कृताधारित शब्दों के प्रयोग के हिमायती हैं। प्रधान मंत्री श्री नरेन्द्र मोदी अपने भाषणों में जिस हिन्दी का प्रयोग करते हैं, वह अनुकरणीय है। मोदी जी अपने भाषणों में अंग्रेज़ी के जन प्रचलित शब्दों का प्रयोग करते हैं और यह भी एक कारण है कि उनके भाषणों को सुनकर देश और विदेश के श्रोतागण करतल ध्वनि से स्वागत करते हैं। भाषा की प्रयोजनशीलता संप्रेषणीयता है। भारत सरकार के अधिकारियों को तथा विशेष रूप से गृह मंत्रालय के राजभाषा विभाग के अधिकारियों को इस पर विचार करना चाहिए और तदनुरूप भाषा प्रयोग की नीति का निर्धारण करना चाहिए। राजभाषा हिन्दी में अरबी-फारसी एवं अंग्रेज़ी के जन प्रचलित शब्दों का प्रयोग करने से परहेज नहीं करना चाहिए। जिन शब्दों का हिन्दी भाषा-क्षेत्र का प्रयोक्ता अपनी जिन्दगी में रोजाना प्रयोग करता है, वे समस्त शब्द एककालिक स्तर पर हिन्दी भाषा के शब्दकोश के अंग हैं। एककालिक स्तर पर प्रयुक्त शब्द देशी अथवा विदेशी नहीं होता।

अंग्रेजी में भारतीय भाषाओं के शब्दों का प्रयोग

ऐसा नहीं है कि केवल हिन्दी एवं अन्य भारतीय भाषाओं में ही अंग्रेजी के शब्दों का प्रयोग होता है और अंग्रेजी बिल्कुल अछूती है। अंग्रेजी में संसार की उन सभी भाषाओं के शब्द प्रयुक्त होते हैं जिन भाषाओं के बोलने वालों से अंग्रेजो का सामाजिक सम्पर्क हुआ। चूँकि अंग्रेजों का भारतीय समाज से भी सम्पर्क हुआ, इस कारण अंगेजी ने हिन्दी एवं अन्य भारतीय भाषाओं के शब्दों का आदान किया है। यदि ब्रिटेन में इंडियन रेस्तरॉ में अंग्रेज समोसा, इडली, डोसा, भेलपुरी खायेंगे, खाने में ‘करी’, ‘भुना आलू’ एवं ‘रायता’ मागेंगे तो उन्हें उनके वाचक शब्दों का प्रयोग करना पड़ेगा। यदि भारत का ‘योग’ करेंगे तो उसके वाचक शब्द का भी प्रयोग करना होगा और वे करते हैं, भले ही उन्होंने उसको अपनी भाषा में ‘योगा’ बना लिया है जैसे हमने ‘हॉस्पिटल’ को ‘अस्पताल’ बना लिया है। जिन अंग्रेजों ने भारतविद्या एवं धर्मशास्त्र का अध्ययन किया है उनकी भाषा में अवतार, अहिंसा, कर्म, गुरु, तंत्र, देवी, नारद, निर्वाण, पंडित, ब्राह्मन, बुद्ध, भक्ति,भगवान, भजन, मंत्र, महात्मा, महायान, माया, मोक्ष, यति, वेद, शक्ति, शिव, संघ, समाधि, संसार, संस्कृत, साधू, सिद्ध, सिंह, सूत्र, स्तूप, स्वामी, स्वास्तिक, हनुमान, हरि, हिमालय आदि शब्दों का प्रयोग हुआ है। भारत में रहकर जिन अंग्रेजों ने पत्र, संस्मरण, रिपोर्ट, लेख आदि लिखे उनकी रचनाओं में तथा वर्तमान इंगलिश डिक्शनरी में अड्डा, इज्जत, कबाब, कोरा, कौड़ी, खाकी, खाट, घी, चक्कर, चटनी, चड्डी, चमचा, चिट, चोटी, छोटू, जंगल, ठग, तमाशा, तोला, धतूरा, धाबा, धोती, नबाब, नमस्ते, नीम, पंडित, परदा, पायजामा, बदमाश, बाजार, बासमती, बिंदी, बीड़ी, बेटा, भाँग, महाराजा, महारानी, मित्र, मैदान, राग, राजा, रानी, रुपया, लाख, लाट, लाठी चार्ज, लूट, विलायती, वीणा, शाबास, सरदार, सति, सत्याग्रह, सारी(साड़ी), सिख, हवाला एवं हूकाह(हुक्का) जैसे शब्दों को पहचाना जा सकता है।

हिन्दी भाषा की प्रकृति के अनुरूप वाक्य रचना

लेखक ने अपने लेख में लिखा था कि राजभाषा हिन्दी का प्रयोग करते समय वाक्य रचना अंग्रेजी की वाक्य रचना के अनुरूप नहीं होनी चाहिए। यह रचना हिन्दी की प्रकृति के अनुरूप होनी चाहिए। भारत सरकार के मंत्रालय के राजभाषा अधिकारी का काम होता है कि वह अंग्रेजी के मैटर का आयोग द्वारा निर्मित शब्दावली में अनुवाद करदे। अधिकांश अनुवादक शब्द की जगह शब्द रखते जाते हैं। हिन्दी भाषा की प्रकृति को ध्यान में रखकर वाक्य नहीं बनाते। इस कारण जब राजभाषा हिन्दी में अनुवादित सामग्री पढ़ने को मिलती है तो उसे समझने के लिए कसरत करनी पड़ती है। लेखक जोर देकर यह कहना चाहता है कि लोकतंत्र में राजभाषा आम आदमी के लिए बोधगम्य होनी चाहिए। सरकारी अधिकारियों ने इस बात पर जोर दिया है कि राजभाषा सामान्य भाषा से अलग दिखनी चाहिए। वह गरिमामय लगनी चाहिए। उसको सुनकर सत्ता का आधिपत्य परिलक्षित होना चाहिए। राजभाषा अधिकारी हिन्दी में अंग्रेजी की सामग्री का अनुवाद अधिक करता है। मूल टिप्पण हिन्दी में नहीं लिखा जाता। मूल टिप्पण अंग्रेजी में लिखा जाता है। अनुवादक जो अनुवाद करता है, वह अंग्रेजी की वाक्य रचना के अनुरूप अधिक होता है। हिन्दी भाषा की रचना-प्रकृति अथवा संरचना के अनुरूप कम होता है। उदाहरणार्थ, जब कोई पत्र मंत्रालय को भेजते हैं तो उसकी पावती की भाषा की रचना निम्न होती है –

´पत्र दिनांक - - - , क्रमांक - - - प्राप्त हुआ'।

सवाल यह है कि क्या प्राप्त हुआ। क्रमांक प्राप्त हुआ अथवा दिनांक प्राप्त हुआ अथवा पत्र प्राप्त हुआ। अंग्रेजी की वाक्य रचना में क्रिया पहले आती है। हिन्दी की वाक्य रचना में क्रिया बाद में आती है। इस कारण जो वाक्य रचना अंग्रेजी के लिए ठीक है उसके अनुरूप रचना हिन्दी के लिए सहज, सरल एवं स्वाभाविक नहीं है। क्रिया (प्राप्त होना अथवा मिलना) का सम्बंध दिनांक से अथवा क्रमांक से नहीं है। पत्र से है। एक विद्वान को इसमें कोई दोष नजर नहीं आता। लेखक उनका ध्यान इस ओर आकर्षित करना चाहता है कि हिन्दी एवं अंग्रेजी की वाक्य संरचना में अन्तर हैं। हिन्दी एवं अंग्रेजी के व्यतिरेकी अध्ययन(Contrastive study) पर अनेक विद्वानों ने कार्य किया है। उन ग्रंथों को पढ़ा जा सकता है। सामान्य पाठक के लिए लेखक यह स्पष्ट करना चाहता है कि उपर्युक्त उदाहरण की वाक्य रचना हिन्दी की रचना प्रकृति के हिसाब से निम्न होनी चाहिए - ´आपका दिनांक - - - का लिखा पत्र प्राप्त हुआ। उसका क्रमांक है - - - - ' ।

हिन्दी की वाक्य रचना भी दो प्रकार की होती है। एक रचना सरल होती है। दूसरी रचना जटिल एवं क्लिष्ट होती है। सरल वाक्य रचना में वाक्य छोटे होते हैं। संयुक्त एवं मिश्र वाक्य बड़े होते हैं। सरल वाक्य रचना वाली भाषा सरल, सहज एवं बोधगम्य होती है। संयुक्त एवं मिश्र वाक्यों की रचना वाली भाषा जटिल होती है, कठिन लगने लगती है, क्लिष्ट लगने लगती है और इस कारण अबोधगम्य हो जाती है।

अंत में, लेखक यह निवेदन करना चाहता है कि हिन्दी के विकास के लिए सरल, सहज, पठनीय, बोधगम्य भाषा-शैली का विकास करना अपेक्षित है। इससे हिन्दी लोक में प्रिय होगी। लोकप्रचलित होगी।

विज्ञान और प्रौद्योगिकी का विकास एवं हिन्दी

अर्थव्यवस्था के भूमंडलीकरण और उदारीकरण के दबाव के कारण आज प्रौद्योगिकी की आवश्यकता पहले से और अधिक बढ़ गई है। प्रौद्योगिकीय गतिविधियों को बनाए रखने के लिए, लोकतंत्रात्मक दर्शन एवं मूल्यों के अनुरूप सामान्य नागरिक एवं शासनतंत्र के बीच सार्थक संवाद के लिए ई-गवर्नेंस के प्रसार तथा सामाजिक-आर्थिक चुनौतियों के समाधान के लिए भारतीय जन मानस में वैज्ञानिक चेतना एवं प्रौद्योगिकी के उपयोग का विकास अनिवार्य है। देश की सम्पर्क भाषा हिन्दी में वैज्ञानिक तथा प्रौद्योगिकीय ज्ञान के सतत विकास और प्रसार के लिए हिन्दी में वैज्ञानिक लेखन एवं प्रौद्योगिकी विकास के लिए वैज्ञानिकों, प्रौद्योगिकविदों एवं हिन्दी भाषा के विशेषज्ञों को मिलकर निरन्तर कार्य करना होगा।

हिन्दी में विज्ञान सम्बन्धी साहित्य का लेखन-कार्य

हिन्दी में विज्ञान सम्बन्धी साहित्य का लेखन-कार्य भारतेन्दु काल से प्रारम्भ हो गया था। 19वीं शताब्दी से इस दिशा में यत्र तत्र हुए प्रयास बिखरे हुए मिलते हैं। स्कूल बुक सोसायटी, आगरा (सन् 1847), साइंटिफिक सोसायटी, अलीगढ़ (सन् 1862), काशी नागरी प्रचारिणी सभा, वाराणसी (सन् 1898), गुरुकुल कांगड़ी, हरिद्वार (सन् 1900) विज्ञान परिषद, इलाहाबाद (सन् 1913), वैज्ञानिक तथा तकनीकी शब्दावली मण्डल (सन् 1950), वैज्ञानिक तथा तकनीकी शब्दावली आयोग (सन् 1961) आदि ने वैज्ञानिक साहित्य के निर्माण में उल्लेखनीय कार्य किया है । यह जरूर है कि इस वैज्ञानिक-लेखन की भाषिक स्थिति के सम्बन्ध में अपेक्षित विचार सम्भव नहीं हो सका। हिन्दी में जो पुस्तकें वैज्ञानिक विषयों पर उच्चतर माध्यमिक एवं इन्टरमीडिएट कक्षा के विद्यार्थियों को ध्यान में रखकर लिखी गई हैं उनकी संख्या बहुत अधिक है । उनकी भाषा-शैली भी अपेक्षाकृत सहज एवं बोधगम्य है । किन्तु जिन ग्रन्थों का निर्माण ‘‘मानक ग्रन्थ अनुवाद योजना’’ के अंतर्गत किया गया उनकी भाषा-शैली में अपेक्षाकृत अस्पष्टता एवं अस्वाभाविकता है तथा अंग्रेजी के वाक्य-विन्यासों की छाया दिखाई देती है।

विज्ञान और प्रौद्योगिकी का विकास एवं हिन्दी

इस दृष्टि से हिन्दी भाषा के विकास में नए आयाम जोड़ने की आवश्यकता असंदिग्ध है। यह निम्न उद्देश्यों एवं लक्ष्यों की प्राप्ति के लिए जरूरी हैः

सुगम एवं बोधगम्य तकनीकी लेखन की शैली का तीव्र गति से अधिकाधिक विकास होना।

जन-सामान्य के लिए विज्ञान और प्रौद्योगिकी को सुबोध और सम्प्रेषणीय बनाना।

जन-सामान्य में जिज्ञासा, तार्किकता एवं विवेकशीलता की प्रवृत्तियों का स्वाभाविक रूप से विकास करना

उनमें विश्लेषणात्मक चिंतन शक्ति का विकास ।उनमें प्रकृति की प्रक्रियाओं के बोध की दृष्टि उत्पन्न करना।

हिन्दी के वैज्ञानिक लेखन को बच्चों और किशोरों के लिए आकर्षक एवं बोधगम्य बनाना।

वयस्कों को उस लेखन का ज्ञान सहज ढंग से उपलब्ध कराना।

विद्वानों को वैज्ञानिक लेखन की विषय-वस्तु और उसके प्रस्तुतीकरण, सरलीकरण, मानकीकरण, शैलीकरण आदि पर विचार-विमर्श करना चाहिए। इस सम्बंध में एक स्पष्ट नीति एवं योजना बनाने की आवश्यकता है। इस दृष्टि से लेखक का व्यक्तिगत विचार यह है कि हिन्दी के वैज्ञानिक लेखन के प्रसार के लिए भाषा के मानकीकरण की अपेक्षा भाषा के आधुनिकीकरण पर अधिक बल देने की आवश्यकता है।

सूचना प्रौद्यौगिकी के संदर्भ में हिन्दी की स्थिति पर भी विचार अपेक्षित है। आने वाले समय में वही भाषायें विकसित हो सकेंगी तथा ज़िन्दा रह पायेंगी जिनमें इन्टरनेट पर सूचनायें उपलब्ध होंगी। भाषा वैज्ञानिकों का अनुमान है कि इक्कीसवीं शताब्दी के उत्तरार्द्ध तक भाषाओं की संख्या में अप्रत्याशित रूप से कमी आएगी।22 अनुमान है कि वे भाषाएँ ही टिक पायेंगी जिनका व्यवहार अपेक्षाकृत व्यापक क्षेत्र में होगा तथा जो भाषिक प्रौद्योगिकी की दृष्टि से इतनी विकसित हो जायेंगी जिससे इन्टरनेट पर काम करने वाले उपयोगकर्ताओं के लिए उन भाषाओं में उनके प्रयोजन की सामग्री सुलभ होगी।

केन्द्रीय हिन्दी संस्थान एवं हिन्दी सूचना एवं प्रौद्योगिकी

केन्द्रीय हिन्दी संस्थान ने सन् 1990 ईस्वी के बाद से हिन्दी सूचना एवं प्रौद्योगिकी के क्षेत्र में कार्य करने की दिशा में कारगर कदम उठाने शुरु किए। सन् 1992 में, संकाय संवर्धन कार्यक्रम के अन्तर्गत भाषा प्रौद्योगिकी पाठ्यक्रम और कम्प्यूटर परिचय की कार्यशाला आयोजित हुई। विदेशी भाषा के रूप में हिन्दी भाषा का कम्प्यूटर साधित अध्ययन एवं शिक्षण परियोजना का कार्य सम्पन्न हुआ। संस्थान ने सन् 2000 में, हिन्दी विश्वकोश की समस्त सामग्री को 6 खण्डों में तैयार करके उसे इन्टरनेट पर डालने की योजना बनाई तथा इसके जीरो वर्जन का विमोचन इंदिरा गाँधी राष्ट्रीय कला केन्द्र के तत्कालीन अध्यक्ष डॉ. लक्ष्मी मल्ल सिंघवी ने किया। सन् 1991 में, भारत सरकार के तत्कालीन ‘सूचना प्रौद्योगिकी मंत्रालय’ की 'भारतीय भाषाओं में प्रौद्योगिकी विकास' सम्बंधित योजना के अन्तर्गत ‘हिन्दी कॉर्पोरा’ परियोजना का काम आरम्भ हुआ। इस परियोजना के अन्तर्गत विविध विषयों के 3 करोड़ से अधिक शब्दों का संग्रह कर लिया गया है। इसकी टैगिंग के नियमों का निर्धारण सन् 2000 ईस्वी तक हो गया था। समस्त शब्दों की टैगिंग होने से कम्प्यूटर पर हिन्दी में और अधिक सुविधाएँ सुलभ हो जाएँगी। टैगिंग से मतलब शब्द के केवल अधिकतर समझे जानेवाले वाग् भाग (Part of speech) के निर्धारण से ही नहीं है अपितु भाषा में उसके समस्त प्रयोगो एवं संदर्भित अर्थों के आधार पर उसके समस्त वाग् भागों (संज्ञा , क्रिया , विशेषण , पूर्वसर्ग , सर्वनाम , क्रिया विशेषण , अव्यय, संयोजन , विस्मयादिबोधक) तथा समस्त व्याकरणिक कोटियों (वचन, लिंग, पुरुष, कारक आदि) को स्पष्ट करना है, उसके सहप्रयोगों को स्पष्ट करना है। यदि उसके प्रयोग में संदिग्धार्थकता की सम्भावनाएँ हैं तो उन्हें भी बताना है। उदाहरण के लिए सामान्यतः ‘पत्थर’ शब्द संज्ञा समझा जाता है मगर इसका प्रयोग संज्ञा, क्रिया, विशेषण, अव्यय के रूप में भी होता है। निम्न वाक्यों से यह स्पष्ट हो जाएगा।

(1) यह पत्थर बड़ा चमकीलाहै।

(2) वह तो बिलकुल ही पथरा गया है।

(3) पत्थर दिल नहीं पसीजते।

(4) तुम मेरा काम क्या पत्थर करोगे।

इसके अलावा टैगिंग में विवेच्य भाषा में प्रयुक्त उस शब्द के संदर्भित अर्थ प्रयोगो का आवृतिपरक अथवा सांख्यिकीय तकनीक से अध्ययन किया जाता है। मशीनी अनुवाद की सटीकता के लिए गतिशील प्रोग्रामिंग एल्गोरिदम का विकास जरूरी है। कम्प्यूटरीकृत भाषा विश्लेषण के लिए टैगिंग की वह तकनीक अधिक सटीक हो सकती है जहाँ शब्द की टैगिंग उसके समस्त वाग्भागों की पूरी पूरी जानकारी प्रदान करे, प्रयोगों की आवृति का साख्यिकीय तकनीक से अध्ययन सम्पन्न करे तथा वाक्य विन्यास और अर्थ विज्ञान के सिद्धांतों के परिप्रेक्ष्य में उसके समस्त प्रयोगो को स्पष्ट करे।

फॉण्ट

यह संतोष का विषय है कि इलेक्ट्रॉनिक माध्यमों ने अब धीरे धीरे हिन्दी में अपनी जगह बनानी शुरु कर दी है। आज से एक दशक पहले तक फॉंण्ट की बहुत बड़ी समस्या थी। मुझे याद आ रहा है, लेखक ने एक लेख कृतिदेव फॉंण्ट में टाइप कराकर एक साइट पर प्रकाशन के लिए भेजा था। जब लेख पढ़ने को मिला तो लेख में जिन शब्दों में ‘श’ वर्ण था उसके स्थान पर ‘ष’ वर्ण छप गया तथा जिन शब्दों में ‘ष’ वर्ण था उसके स्थान पर ‘श’ छप गया। ‘भाषा’ का रूप ‘भाशा’ हो गया। देवनागरी यूनिकोड के कारण अब स्थिति बदल गई है। हिन्दी में देवनागरी में टाइपिंग के लिए अनेक प्रकार के साधन उपलब्ध हैं। मंगल, रघु, संस्कृत 2003, अपराजिता आदि में से किसी फॉण्ट में टाइप किया जा सकता है। जो हिन्दी टाइपिंग नहीं जानते वे क्विलपैड, गूगल इण्डिक लिप्यन्तरण आदि में से किसी साइट पर जाकर रोमन लिपि में टाइप कर सकते हैं। रोमन वर्ण देवनारी वर्ण में बदल जाएगा अर्थात लिप्यन्तरित(transliterate) हो जाएगा।

ऑपरेटिंग सिस्टम में हिन्दी

विण्डोज के संस्करणों में हिन्दी में काम करने के लिए दो तरीके हैं। कुछ विण्डोज में उसके कंट्रोल पैनल में जाकर हिन्दी समर्थन सक्षम करना होता है जबकि कुछ विण्डोज में हिन्दी भाषा का पैक पहले से इंस्टॉल्ड होता है अर्थात वे हिन्दी के लिए स्वतः समर्थन सक्षम होते हैं। उदाहरण के लिए माइक्रोसॉफ्ट विण्डोज के विण्डोज ऍक्सपी, विण्डोज 2003 में कंट्रोल पैनल में जाकर हिन्दी समर्थन सक्षम करना होता है (इनमें कंट्रोल पैनल में जाकर रीजनल लैंग्वेज ऑप्शन्स में यूनिकोड को एक्टिवेट किया जाता है। हिन्दी (देवनागरी इंस्क्रिप्ट) का चयन करने के बाद कम्प्यूटर पर हिन्दी में वैसे ही काम किया जा सकता है जैसे रोमन लिपि से होता है। विण्डोज विस्ता, विण्डोज 7 में भारतीय भाषाओं के लिए स्वतः समर्थन सक्षम व्यवस्था है। भारतीय भाषाओं को ध्यान में रखकर सी-डेक ने बॉस लिनक्स निर्मित किया है। लिनक्स के सभी नए संस्करणों का ऑपरेटिंग सिस्टम हिन्दी भाषा में काम करने के लिए स्वतः समर्थन सक्षम है।

फॉंण्ट परिवर्तक एवं लिप्यन्तरण

मेरे बहुत से लेख कृतिदेव फॉंण्ट में हैं। अब इस फॉंण्ट की सामग्री को फॉंण्ट परिवर्तक साइट पर जाकर यूनिकोड में बदलना आसान हो गया है। फॉण्ट परिवर्तक की कई साइटें हैं जिन पर जाकर पुराने फॉण्टों में टाइप की हुई पाठ सामग्री को यूनिकोड में बदला जा सकता है। लिप्यन्तरण के औजारों से किसी एक भारतीय भाषा की लिपि में टाइप सामग्री को किसी अन्य भारतीय भाषा की लिपि में ऑनलाइन बदलकर पढ़ा जा सकता है।

शब्दकोश

अब हिन्दी में प्रत्येक प्रकार के शब्दकोश उपलब्ध हैं। हिन्दी शब्द तंत्र, शब्दमाला, विक्षनरी, ई-महाशब्दकोश, वर्धा हिन्दी शब्दकोश के अलावा हिन्दी विश्वकोश, हिन्दी यूनिकोड पाठ संग्रह, अरविंद समान्तर कोश आदि हैं।‘प्रबोधमहाशब्दकोश‘ के बाद नया महाशब्दकोश विकसित करने का काम प्रगति पर है। केन्द्रीय हिन्दी संस्थान ने श्री अरविन्द कुमार और उनकी पत्नी श्रीमती कुसुम कुमार से ’संस्थान अरविंद लेक्सीकॉन‘ बनवाया है जिसमें नौ लाख से अधिक अभिव्यक्तियाँ हैं।

वर्तनी की जाँच (स्पैल चैकर), ईमेल, मोबाइल, चेट, सर्च इंजन

वर्तनी की जाँच (स्पैल चैकर) के लिए ‘कुशल हिन्दी वर्तनी जाँचक’, ‘सक्षम हिन्दी वर्तनी परीश्रक’ तथा ‘ओपन सोर्स यूनिकोड वर्तनी परीक्षक तथा शोधक’ हैं। ईमेल, मोबाइल, चेट, सर्च इंजन आदि पर हिन्दी उपलब्ध है। ईमेल के लिए जीमेल मे हिन्दी की सुविधा सबसे अधिक हैं। निर्देश भी हिन्दी में हैं। चेट के लिए गूगल टॉक एवं याहू मैसेंजर में हिन्दी सुविधा है।

सी-डेक एवं राजभाषा के लिए सुविधाएँ

हम पूर्व में, एक अलग लेख में, पुणें की सी-डेक के द्वारा राजभाषा विभाग के लिए प्रबोध, प्रवीण तथा प्राज्ञ स्तर की परीक्षाओं के लिए कम्प्यूटर की सहायता से मल्टी मीडिया पद्धति से प्रशिक्षण सामग्री के निर्माण के सम्बंध में उल्लेख कर चुके हैं।प्रशिक्षण सामग्री का नाम लीला हिन्दी प्रबोध, लीला हिन्दी प्रवीण, लीला हिन्दी प्राज्ञ है। यह सामग्री भारत सरकार के राजभाषा विभाग की वेबसाइट पर सर्व साधारण के उपयोग के लिए उपलब्ध है। इस संस्था ने अन्य काम भी किए हैं। इसके द्वारा निर्मित 'मंत्र' सॉफ़्टवेयर में अनुवाद की सुविधा है। हिंदी पाठ की किसी भी फाइल को 'प्रवाचक' हरीश भिमानी की आवाज़ मे पढ़कर सुना देता है। ‘श्रुतलेखन’ आपकी आवाज में बोले हुए पाठ को देवनागरी में रूपांतरित कर देता है। इस प्रकार राजभाषा हिन्दी के लिए अब पाठ से वाक (टैक्स्ट टू स्पीच) तथा वाक से पाठ (स्पीच टू टैक्स्ट) दोनों सुविधाएँ मौजूद हैं। श्रुतलेखन-राजभाषा तथा वाचान्तर-राजभाषा सॉफ्टवेयर बन गए हैं।

मशीनी अनुवाद, ओसीआर, हिन्दी भाषा शिक्षण, देवनागरी शिक्षण

मशीनी अनुवाद की सुविधा गूगल, बैबीलॉन, विकिभाषा पर उपलब्ध है। हम पहले उल्लेख कर चुके हैं कि सी-डेक ने भारत सरकार के कार्यालयों में राजभाषा के प्रयोग के लिए अंग्रेजी पाठ का हिन्दी में अनुवाद के लिए मशीनी अनुवाद की व्यवस्था कर दी है। इसके लिए ‘मंत्र-राजभाषा’ सॉफ़्टवेयर निर्मित हो गया है।

मशीनी अनुवाद को सक्षम बनाने के लिए यह जरूरी है कि इन्टरनेट पर प्रत्येक विषय की सामग्री उपलब्ध हो। मशीनी अनुवाद सूचना निष्कर्षण ( Information Extraction) पद्धति पर आधारित होता है अर्थात मशीन किसी भाषा में जो डॉटा उपलब्ध होता है उसे याद कर लेती है और उस स्मृति क्षमता के आधार पर अनुवाद करती है। उसे जिस भाषा की जितनी अधिक सामग्री मिलती जाती है वह उस भाषा में अनुवाद करने के अपने मॉडल को उसी अनुपात में बदलती जाती है। सीखने एवं याद करने की प्रक्रिया सतत जारी रहती है। इस कारण जिस भाषा की जितनी सामग्री इन्टरनेट पर उपलब्ध होगी, उस भाषा का मशीनी अनुवाद उतना ही प्रभावी और सक्षम होगा।

देवनागरी वर्ण चिन्हक ( OCR) बन गया है। हिन्दी के पाठ में शब्दों की आवृति के लिए पहले शोधक वर्षों मेहनत करके हजारों लाखों चिटें बनाने का श्रम करते थे। अब सॉफ्टवेयर इस काम को बहुत कम समय में सहज सम्पन्न कर देता है। हिन्दी भाषा सीखने के लिए ‘हिन्दी गुरु’ है तथा देवनागरी लिपि सीखने के लिए ‘अच्छा’ है। देवनागरी में लिखे शब्दों अथवा शब्द समूहों को देवनागरी वर्ण-क्रम के अनुसार व्यवस्थित करने का ऑनलाइन प्रोग्राम मौजूद है। पाठ को तरह तरह से संसाधित करने के ऑनलाइन प्रोग्राम भी मौजूद हैं।

शब्द संसाधन एवं डाटाबेस प्रबंधन

देवनागरी में लिखे शब्दों अथवा शब्द समूहों को देवनागरी वर्ण-क्रम के अनुसार व्यवस्थित करने के ऑनलाइन प्रोग्राम मौजूद है। पाठ को तरह तरह से संसाधित करने के ऑनलाइन प्रोग्राम भी मौजूद हैं।

प्रकाशन, वेबसाइट, ज्ञानकोष

डीटीपी प्रकाशन के लिए माइक्रोसॉफ्ट पब्लिशर अच्छा है। प्रकाशन सॉफ्टवेयर पैकेज उपलब्ध हैं। हिन्दी में वेबसाइट बनाना आसान हो गया है। वेबदुनिया, जागरण, प्रभासाक्षी और बीबीसी हिंदी के दैनिक पाठकों की संख्या बीस लाख से अधिक हो गई है। श्री आदित्य चौधरी ने विकीपीडिया की तरह ’भारतकोष‘ नामक पॉर्टल बनाया है। इसमें इतिहास, भूगोल, विज्ञान, धर्म, दर्शन, संस्कृति, पर्यटन, साहित्य, कला, राजनीति, जीवनी, उद्योग, व्यापार और खेल आदि विषयों पर पर्याप्त सामग्री है। जो काम महात्मा गाँधी अन्तर्राष्ट्रीय विश्वविद्यालय को करना चाहिए था उसे भारतकोश की टीम कर रही है। यह संतोष का विषय है कि केन्द्रीय हिन्दी संस्थान में "लघु हिन्दी विश्वकोश परियोजना" पर काम हो रहा है।

सूचना प्रौद्यौगिकी के संदर्भ में हिन्दी की प्रगति एवं विकास

सूचना प्रौद्यौगिकी के संदर्भ में हिन्दी की प्रगति एवं विकास के लिए लेखक एक बात की ओर ध्यान आकर्षित करना चाहता है। व्यापार, तकनीकी और चिकित्सा आदि क्षेत्रों की अधिकांश बहुराष्ट्रीय कम्पनियाँ अपने माल की बिक्री के लिए सम्बंधित सॉफ्टवेयर ग्रीक, अरबी, चीनी सहित संसार की लगभग 30 से अधिक भाषाओं में बनाती हैं मगर वे हिन्दी भाषा का पैक नहीं बनाती। उनके प्रबंधक इसका कारण यह बताते हैं कि हम यह अनुभव करते हैं कि हमारी कम्पनी को हिन्दी के लिए भाषा पैक की जरूरत नहीं है। हमारे प्रतिनिधि भारतीय ग्राहकों से अंग्रेजी में आराम से बात कर लेते हैं अथवा हमारे भारतीय ग्राहक अंग्रेजी में ही बात करना पसंद करते हैं। यह स्थिति कुछ उसी प्रकार की है जैसी लेखक तब अनुभव करता था जब वह रोमानिया के बुकारेस्त विश्वविद्यालय में हिन्दी का विजिटिंग प्रोफेसर था। उसकी कक्षा के हिन्दी पढ़ने वाले विद्यार्थी बड़े चाव से भारतीय राजदूतावास जाते थे मगर वहाँ उनको हिन्दी नहीं अपितु अंग्रेजी सुनने को मिलती थी। हमने अंग्रेजी को इतना ओढ़ लिया है जिसके कारण न केवल हिन्दी का अपितु समस्त भारतीय भाषाओं का अपेक्षित विकास नहीं हो पा रहा है। जो कम्पनी ग्रीक एवं अरबी में सॉफ्टवेयर बना रही हैं वे हिन्दी में सॉफ्टवेयर केवल इस कारण नहीं बनाती क्योंकि उसके प्रबंधकों को पता है कि भारतीय उच्च वर्ग अंग्रेजी मोह से ग्रसित है। इसके कारण भारतीय भाषाओं में जो सॉफ्टवेयर स्वाभाविक ढंग से सहज बन जाते, वे नहीं बन रहे हैं। भारतीय भाषाओं की भाषिक प्रौद्योगिकी पिछड़ रही है। इस मानसिकता में जिस गति से बदलाव आएगा उसी गति से हमारी भारतीय भाषाओं की भाषिक प्रौद्योगिकी का भी विकास होगा। हम हिन्दी के संदर्भ में, इस बात को दोहराना चाहते हैं कि हिन्दी में काम करने वालों को अधिक से अधिक सामग्री इन्टरनेट पर डालनी चाहिए। लेखक ने मशीनी अनुवाद के संदर्भ में, यह निवेदित किया था कि मशीनी अनुवाद को सक्षम बनाने के लिए यह जरूरी है कि इन्टरनेट पर हिन्दी में प्रत्येक विषय की सामग्री उपलब्ध हो। यह हिन्दी की भाषिक प्रौद्योगिकी के विकास के व्यापक संदर्भ में भी उतनी ही सत्य है। जब प्रयोक्ता को हिन्दी में डॉटा उपलब्ध होगा तो उसकी अंग्रेजी के प्रति निर्भरता में कमी आएगी तथा अंग्रेजी के प्रति हमारे उच्च वर्ग की अंध भक्ति में भी कमी आएगी।

वर्तमान की स्थिति भले ही उत्साहवर्धक न हो किन्तु हिन्दी प्रौद्योगिकी का भविष्य निराशाजनक नहीं है। हिन्दी की प्रगति एवं विकास को अब कोई ताकत रोक नहीं पाएगी। वर्तमान में, कम्प्यूटरों के कीबोर्ड रोमन वर्णों में हैं तथा उनका विकास अंग्रजी भाषा को ध्यान में रखकर किया गया है। आम आदमी को इसी कारण कम्प्यूटर पर अंग्रेजी अथवा रोमन लिपि में काम करने में सुविधा का अनुभव होता है। निकट भविष्य में कम्प्यूटर संसार की लगभग तीस चालीस भाषाओं के लिखित पाठ को भाषा में बोलकर सुना देगा तथा उन भाषाओं के प्रयोक्ता की भाषा को सुनकर उसे लिखित पाठ में बदल देगा। ऐसी स्थिति में, कम्प्यूटर पर काम करने में भाषा की कोई बाधा नहीं रह जाएगी। एक भाषा के पाठ को मशीनी अनुवाद से दूसरी भाषा में भी बदला जा सकेगा, उन भाषाओं में परस्पर वाक से पाठ तथा पाठ से वाक में अंतरण बहुत सहज हो जाएगा। भाषा विशेष के ज्ञान का रुतबा समाप्त हो जाएगा।

इस दिशा में प्रक्रिया को तेज बनाने के लिए यह उचित होगा कि भारतीय सॉफ्टवेयरों का निर्माण करने वाले उपक्रम तथा संगठन गूगल जैसी बहुराष्ट्रीय कम्पनियों के साथ मिलकर काम करें। भारतीय जनमानस में जागरूकता की रफ्तार को बढ़ाने की भी जरूरत हैं। कितने आम भारतीय हैं जिन्हें सी-डेक जैसे संगठनों तथा उनके द्वारा निर्मित सॉफ्टवेयरों का ज्ञान है। कितने हिन्दी प्रेमी हैं जो हिन्दी प्रौद्योगिकी के सॉफ्टवेयरों से अनजान हैं। उनको यह ज्ञान भी नहीं है कि यूनिकोड में हिन्दी में काम करना कितना आसान और सुगम है।

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संदर्भ –

1.प्रकार्यात्मक भाषाविज्ञान (Functional Linguistics) (हैलिडे के व्यवस्थागत प्रकार्यात्मक भाषाविज्ञान (SFL) के विशेष संदर्भ में) http://www.rachanakar.org/2015/03/functional-linguistics-sfl.html#ixzz3U41DdhAX

2. क्या उत्‍तर प्रदेश एवं बिहार हिन्‍दी भाषी राज्‍य नहीं हैं? (नामवर सिंह ने हाल ही में यह धमाकेदार वक्तव्य दिया - हिंदी समूचे देश की भाषा नहीं है वरन वह तो अब एक प्रदेश की भाषा भी नहीं है। उत्तरप्रदेश, बिहार जैसे राज्यों की भाषा भी हिंदी नहीं है। वहाँ की क्षेत्रीय भाषाएँ यथा अवधी, भोजपुरी, मैथिल आदि हैं।क्या सचमुच? नामवर के इस वक्तव्य पर असहमति के तीव्र स्वर दर्ज कर रहे हैं केन्द्रीय हिन्दी संस्थान के पूर्व निर्देशक प्रोफेसर महावीर सरन जैन) रचनाकार: महावीर सरन जैन का आलेख : क्‍या उत्‍तर प्रदेश एवं बिहार हिन्‍दी भाषी राज्‍य नहीं हैं? http://www.rachanakar.org/2009/09/blog-post_08.html#ixzz3WJTL8oNS

3.http://www.scribd.com/doc/22142436/Hindi-Urdu

4. ग्रियर्सन – भारत का भाषा सर्वेक्षण, अनुवादक – डॉ. उदयनारायण तिवारी, पृष्ठ 42-44 (1959)

5. (क) प्रोफेसर महावीर सरन जैन : हिन्दी भाषा का बदलता स्वरूप, क्षितिज, (भाषा-संस्कृति विशेषांक), अंक -8, पृष्ठ 15-19, भारतीय प्रौद्योगिकी संस्थान, बम्बई (मुम्बई) (1996)

(ख) प्रोफेसर महावीर सरन जैन : अलग नहीं हैं भाषा और बोली, अक्षर पर्व, अंक -6, (पूर्णांक – 23), वर्ष -2, पृष्ठ 15-16, देशबंधु प्रकाशन, रायपुर (दिसम्बर, 1999)

6. विशेष अध्‍ययन के लिए देखें - प्रोफेसर महावीर सरन जैन ः भाषा एवं भाषा विज्ञान, अध्‍याय 4 - भाषा के विविधरूप एवं प्रकार, लोकभारती प्रकाशन, इलाहाबाद (1985)

7. डॉ. रमेश चन्द्र महरोत्रा : “ Distance among Twenty-Two Dialects of Hindi depending on the parallel forms of the most frequent sixty-two words of Hindi” भाषिकी प्रकाशन, रायपुर (1976)

8. लेखक द्वारा दिनांक 26 जून, 2013 को विज्ञान परिषद्, प्रयाग (इलाहाबाद) के प्रधान मंत्री डॉ. शिव गोपाल मिश्र को लिखा पत्र

9. श्री उदय नारायण तिवारी : आचार्य सुनीति कुमार चटर्जी – व्यक्तित्व तथा वैदुष्य, सरस्वती, पृष्ठ 169-171 (अप्रैल, 1977)।

10. भारत में भारतीय भाषाओं का सम्मान और विकास (http://www.sahityakunj.net/LEKHAK/M/MahavirSaranJain/bharat_mein_Bhartiya_bhashaon_ka_samman_vikaas_Alekh.htm)

11. डॉ. महावीर सरन जैन : भाषा एवं भाषाविज्ञान, पृष्‍ठ 60, लोकभारती प्रकाशन, इलाहाबाद (1985)

12. डायग्‍लोसियाः वॅर्ड, 15, पृष्‍ठ 325 – 340.

13. स्‍पीच वेरिएशन एण्‍ड दः स्‍टडी ऑफ इंडियन सिविलाइज़ेशन, अमेरिकन एनथ्रोपोलोजिस्‍ट, खण्‍ड 63,पृष्‍ठ 976- 988.

14. डॉ. महावीर सरन जैन : बुलन्दशहर एवं खुर्जा तहसीलों की बोलियों का संकालिक अध्ययन (ब्रजभाषा एवं खड़ी बोली का संक्रान्ति क्षेत्र, हिन्दी साहित्य सम्मेलन, इलाहाबाद (1967)

15. http://www.rachanakar.org/2012/09/blog-post_3077.html#ixzz2eqRRA0uA

16. हिन्दी देश को जोड़ने वाली भाषा है; इसे उसके अपने ही घर में मत तोड़ो

http://www.pravakta.com/hindi-is-the-language-of-hindustan
17. http://www.pravakta.com/thoughts-to-development-of-hindi http://www.pravakta.com/reflections-in-relation-to-hindi-language

18. http://www.pravakta.com/75901

19. Burrow. T.: The Sanskrit Language, P. 63, Faber & Faber, London.

20. प्रोफेसर महावीर सरन जैन का आलेख- संस्कृत भाषा काल में विभिन्न समसामयिक अन्य लोकभाषाओं/ जनभाषाओं का व्यवहार http://www.rachanakar.org/2013/05/blog-post_5218.html

21. भारत की भाषिक एकता तथा हिन्दी, लोक भारती प्रकाशन, इलाहाबाद (2015)

22. Harrison, K. David. (2007) When Languages Die: The Extinction of the World’s Languages and the Erosion of Human Knowledge. New York and London: Oxford University Press.

प्रोफेसर महावीर सरन जैन

सेवानिवृत्त निदेशक, केन्द्रीय हिन्दी संस्थान, भारत सरकार

123, हरि एन्कलेव, चाँदपुर रोड

बुलन्द शहर – 203001

mahavirsaranjain@gmail.com

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