धर्म का बिगड़ता स्वरुप

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डॉ. बी.सी. जोशी भक्त , ध्वनि-विस्तारक यंत्रों के माध्यम से लोगों को यह अवगत कराते हैं कि यह पूजा-पाठ मेरे यहाँ हो रहा है। यह धार्मिक कार्...

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डॉ. बी.सी. जोशी

भक्त, ध्वनि-विस्तारक यंत्रों के माध्यम से लोगों को यह अवगत कराते हैं कि यह पूजा-पाठ मेरे यहाँ हो रहा है। यह धार्मिक कार्य मैं करा रहा हूँ। भजन संध्या का आयोजन भी कराया जा रहा है। वास्तव में यह भक्ति नहीं है।

ध्वनि-विस्तारक यंत्रों के साथ धार्मिक कार्य सम्पन्न कराने का प्रमुख उद्देश्य है अपने 'मैं' यानी अहंकार का प्रदर्शन।

ध्वनि विस्तारक यंत्र का उपयोग कई बार सात्त्विक भक्त भी देखा-देखी में कर लेते हैं। इसके पीछे सबसे बड़ा कारण अल्पज्ञता हो सकता है, 'मैं' अर्थात् अहंकार की भावना नहीं। इस तरह की पूजा-पाठ और भजन संध्याओं के आयोजन से अड़ौस-पड़ौस में रह रहे बच्चों, बूढ़ों, बीमार व्यक्तियों एवं अध्ययनरत छात्रों को बहुत परेशानी होती है। किसी को परेशान करना हमारा उद्देश्य नहीं होना चाहिये। धनाढ्य, साधन सम्पन्न अहंकारी व्यक्ति जगह-जगह इस तरह के धार्मिक आयोजन करा कर ''मैं'' यानी अपने अहंकार का प्रदर्शन करते रहते हैं।

धार्मिक कार्य हो या किसी मंदिर का निर्माण, अहंकारी भक्त दानदाताओं की सूची में अपना नाम सबसे ऊपर देखना चाहते हैं। मंदिर में लगे पत्थर के शीर्ष पर अपना नाम खुदा हुआ देख कर खुश होते हैं। हर अहंकारी व्यक्ति दिये गये दान की सूची देखने मंदिर में आता है। कथा सुनना, भजनों का आनन्द लेना या मंदिर में भगवान का दर्शन करना उसका उद्देश्य नहीं होता। अहंकार को प्रभु का नाम याद नहीं आता। वह तो सभी के मुँह से अपना नाम सुनना चाहता है, अपना नाम (अहंकार) ढूँढ़ता रहता है। यह धार्मिक कार्य ''मैंने'' सम्पन्न कराया है, यह मंदिर 'मैंने' बनाया है, 'हमने' बनाया है, अपने वैभव और कालेधन के बलबूते पर हमने भगवान को अपने वश में कर लिया है। अहंकारी को जीवन में औंकार नहीं मिल सकते, यह एक कटु सत्य है। प्रभु तो उसी भक्त को मिलते हैं जिसका मन निर्मल हो, अहंकार रहित हो। अहंकारी व्यक्ति पर यदि प्रभु की कृपा हो जाए तो उसका अहंकार धीरे-धीरे कम होकर अन्ततः समाप्त हो जाता है। यदि प्रभु की कृपा नहीं होती है तो उसका अहंकार निरन्तर बढ़ता ही रहता है और उसे जीवन में सत् (परमात्मा) नहीं मिलता।

धनाढ्य व्यक्ति यदि परोपकारी है, निरभिमान है, तो अपार सम्पत्ति पाकर भी विनय से झुका रहता है।

फल भारन नमि बिटप सब रहे भूमि निअराइ। पर उपकारी पुरुष जिमि नवहिं सुसंपति पाइ।। रा.च.मा. ३/४०

फलों के बोझ से झुक कर सारे वृक्ष पृथ्वी के पास आ लगे हैं, जैसे परोपकारी पुरुष बड़ी सम्पत्ति पाकर विनय से झुक जाते हैं।

भजन कीर्तन करो, सत्संग करो। सत् (परमात्मा), संग (सत्पुरुषों का सानिध्य)। यदि जीवन में परमात्मा का साथ पाना है तो संत पुरुषों, महापुरुषों की वाणी सुनो, शास्त्रों का अध्ययन करो, धर्म-ग्रंथों का अध्ययन करो। आजकल मंदिरों में जाने वाले अधिकतम भक्त गर्व और अहंकार से परिपूर्ण है। उनमें सेवा और भक्ति की भावना नहीं है। ये अपने समय का दुरुपयोग कर स्वयं को दुःखी कर रहे हैं, साथ ही मानवता के साथ खिलवाड़ भी कर रहे हैं। इस घारे कलयुग में अधिकतम लोगों ने भय को धर्म बना दिया है। भय के कारण लोग भगवान का भजन कर रहे हैं। भय के कारण समृद्ध व्यक्ति भागवत् कथा कराते हैं, अखंड रामायण पाठ कराते हैं। अतिसमृद्ध व्यक्ति यज्ञ का आयोजन कराते हैं। इन सभी आयोजनों में ध्वनि विस्तारक यंत्रों का उपयोग किया जाता है। सच्चा प्रेम ही धर्म है, शुद्ध अन्तःकरण से अपने प्रभु से प्रेम करना ही धर्म है। भय के कारण किये जा रहे सभी धार्मिक आयोजनों में भावना का पूर्ण अभाव है, धर्म का पूर्ण अभाव है। यह बात प्रत्येक मनुष्य के समझ में आनी चाहिये। क्या दिखावा करने से भगवान मिलते हैं? इसका उत्तर खोजने के लिये धर्म के दस लक्षणों पर विशेष ध्यान देने की आवश्यकता है।

धृतिः क्षमा दमोऽस्तेयं शौचमिन्द्रियनिग्रहः।

धीर्विद्या सत्यमक्रोधो दशकं धर्मलक्षणम्।।

(1) धृत (धैर्य)

(2) क्षमा (क्षमाभाव)

(3) दम (मन, बुद्धि आदि का निग्रह)

(4) अस्तेय (चोरी न करना)

(5) शौच (बाह्याभ्यान्तर की शुद्धि)

(6) धी (आस्तिक्य बुद्धि)

(7) विद्या (सा विद्याया विमुक्तये) विद्या वही है जो मुक्ति प्रदान करे

(8) सत्य

(9) अक्रोध (क्रोध का सर्वथा अभाव)

(10) इन्द्रिय निग्रह

धर्म को हम मानवता का मेरुदण्ड भी कहते हैं। धर्म मानवता को तोड़ने का नहीं जोड़ने का काम करता है। 'वसुधैव कुटुम्बकम' - विश्वबन्धुत्व स्थापित करता है। मंदिर में भक्त कानफोड़ आवाज में ढोलक मंजीरे व तालियाँ बजा कर चीख रहे हैं। मंदिरों के आस-पास रहने वाले लोग ध्वनि प्रदूषण के कारण मानसिक एवं शारीरिक कष्ट झेल रहे हैं। क्या आप ऐसा करके सामाजिक व्यवस्था का पालन कर रहे हैं? ध्वनि प्रदूषण के कारण मानसिक एवं शारीरिक कष्ट झेल रहे इन सभी पड़ौसियों में उसी परमपिता परमेश्वर की छवि है, जिसे प्रसन्न करने के लिये आप भजन कर रहे हैं। आप दूसरों को कष्ट देकर आनन्द का अनुभव कर रहे हैं। सर्वव्यापी प्रभु भी इस बात को भलीभांति समझ रहे हैं कि ऐसे कर्म करने वाले भक्तों को मेरी सर्वव्यापकता की जानकारी नहीं है।

हरि ब्यापक सर्बत्र समाना। प्रेम तें प्रगट होहिं मैं जाना।। रा.च.मा. १/१८५/५

भगवान सब जगह समानरुप से व्यापक हैं। प्रेम से वे प्रकट हो जाते हैं।

जो भक्त मंदिर में जाकर प्रभु का सम्मान करते हैं उन्हें मंदिर में बैठे हुए अन्य भक्तों का, मंदिर के आसपास रहने वालों का, बीमार, बूढ़े, असहाय और लाचार लोगों के साथ ही अध्ययनरत विद्यार्थियों का महासम्मान करना चाहिये। यदि ये एसे ा नहीं करते हैं तो इनकी भक्ति निरर्थक है। ऐसे भक्तों को जीवन में भगवान प्राप्त नहीं हो सकता। यह मैं नहीं कह रहा हूँ, परमपूज्य मोरारी बापू अक्सर अपने प्रवचनों में इस बात का जिक्र करते रहते हैं। प्रत्येक भक्त का कर्तव्य दूसरों की सेवा व सामाजिक व्यवस्था का पालन करना होना चाहिये। दूसरों को कष्ट पहुँचा कर भक्ति करने का अर्थ तो यही हुआ कि हम प्रभु की सृष्टि एवं व्यवस्था में अवरोध उत्पन्न कर, उसकी सर्वव्यापकता को संदेह की दृष्टि से देख रहे हैं।

भगवान की उपासना, भजन कीर्तन, सत्संग आदि आत्मा के लिये अतिआवश्यक एवं सर्वोत्तम आहार है। इस आहार को पाकर उपासना करने वाला निरभिमान हो जाता है। उसके विचार सात्विक हो जाते हैं। सत्संग का अर्थ है अविनाशी का संग। लेकिन आज प्रायः सभी मंदिरों में सत्संग का स्वरुप बदल गया है। मानवीय विकारों के कारण सत्संग, असत्संग हो चुका है। असत्संग का दूसरा नाम मानवीय विकार है। आजकल मंदिरां के पुजारी भगवान की आरती कानफोड़ स्वचालित ड्रम व घंटियों से कर रहे हैं। वेदों में कहा गया है, तीखी तेजध्वनि स्वास्थ्य के लिये हानिकारक होती है। सारे दिन कान फाड़ने वाली ध्वनि के साथ भजन कीर्तन करने से सिरदर्द, तनाव, अनिद्रा व बहरापन होने का खतरा बराबर बना रहता है। संकीर्तन करते समय भक्ति संगीत की ध्वनि धीमी हो, मधुर हो। जिuUÊया अग्रे मधु मे जिuUÊमूले मधूलकम्।

ममेदह क्रतावसो मम चित्तमुपायसि।।

अथर्ववेद १/३४/२ अर्थात् मेरी जीभ से मधुर शब्द निकले, भगवान का भजन कीर्तन करते समय मूल में मधुरता हो। मधुरता मेरे कर्म में निश्चय से रहे। मरे े चित्त में मधुरता बनी रहे। इसलिये भक्तगण इस बात को हमेशा ध्यान में रखें कि भक्ति प्रधान भजनों में मधुरता हो। भजन करते समय भद्रपुरुषों के समान मधुरता से भजनकीर्तन किया जावे ताकि चारों तरफ शांति का वातावरण यथावत बना रहे।

तृणादपि सुनीचेन तरोरपि सहिष्णुना।

अमानिना मानदेन कीर्तनीयः सदा हरिः।।

(महाप्रभु चैतन्य-शिक्षाष्टक)

अपने को तृण से भी अत्यन्त तुच्छ समझ कर, वृक्ष की तरह सहनशील होकर, स्वयं अमानी रह कर और दूसरों को मान देते हुए सदा श्रीहरि का कीर्तन करना चाहिये। सत्य युग में ध्यान से, त्रेतायुग में यज्ञ से, द्वापर में देवताओं की विधिवत पूजा करने से भगवान मिलते थे। लेकिन कलयुग में तो भगवान का नाम लेने से, प्रभुनाम का संकीर्तन करने से व संत महात्माओं का सानिध्य पाकर प्रभु नाम लेने मात्र से ही भगवान की कृपा प्राप्त हो जाती है। भक्त को इच्छित फल-प्राप्त हो जाते हैं, और उसका चित्त शुद्ध हो जाता है।

कृतजुग त्रेताँ द्वापर पूजा मख अरु जोग। जो गति होइ सो कलि हरिनाम ते पावहिं लोग।। रा.च.मा. ७/१०२ख सत्ययुग, त्रेता और द्वापर में जो गति पूजा, यज्ञ और योग से प्राप्त होती है वही गति कलयुग में लोग केवल भगवान के नाम से पा लेते  हैं।

कलयुग में इस भवसागर को पार करने के लिये भगवन्नाम का नित्यप्रति स्मरण, ध्यान, यज्ञ, तीर्थ, व्रत, दान आदि से अधिक प्रभावी है। भगवान की कृपा बनी रहे, भगवान का सानिध्य प्राप्त होता रहे, इसके लिये इस घोर कलयुग में शुद्ध अन्तःकरण से शान्तिपूर्वक हरिनाम, संकीर्तन, हरिनाम का पठन व श्रवण किया जाए, लेकिन इससे आसपास की शांति भंग नहीं हो, ध्वनि प्रदूषण नहीं हो, इस बात का विशेष ध्यान रखा जावे। सभी भक्त विनम्र एवं निरभिमान हो कर भजनभाव करें इसी में हम सभी की भलाई है। कल्याण में प्रकाशित इस शिक्षाप्रद कथा को प्रत्येक भक्त अवश्य पढ़ें-

नरोत्तम नाम का ब्राह्मण तपस्वी बन गया और अपने माता-पिता को घर में अकेला छोड़ कर तीर्थयात्रा पर निकल गया। तपस्या और तीर्थयात्रा के प्रभाव से उसके गीले कपड़े आकाश में ही सूख जाते थे। इस चमत्कार को देख कर उसके मन में अभिमान उत्पन्न हो गया। उसने आकाश की ओर देखा और कहा, 'है ऐसा कोई दूसरा तपस्वी जिसके गीले कपड़े आकाश में ही सूख जाते हों।' वाक्य पूरा होने से पहले ही एक बगुले ने उसके मुँह में बींट कर दी। क्रोधित तपस्वी ने बगुले को शाप दे दिया। बगुला जल कर भस्म हो गया। बगुले के भस्म होते ही ब्राह्मण की तपस्या और तीर्थयात्रा का प्रभाव पूर्णतः नष्ट हो गया। उसके गीले कपड़े आकाश में सूखने बंद हो गये। तभी आकाशवाणी हुई। हे तपस्वी ब्राह्मण! तुरन्त मूक चाण्डाल के घर चले जाओ, वहाँ तुम्हें धर्म का

ज्ञान होगा। ब्राह्मण, मूक चाण्डाल के घर पहुँचा। चाण्डाल का घर बिना खम्भों के ही आकाश में टिका था और उसके घर में एक ब्राह्मण बैठा था। नरोत्तम ब्राह्मण ने चांडाल से कहा, 'मुझे धर्म का ज्ञान दो।' चाण्डाल ने बहुत ही विनम्र होकर उत्तर दिया, 'अभी मैं अपने माता-पिता की सेवा कर रहा हूँ।' यह सुन कर ब्राह्मण को क्रोध आ गया। क्रोधित ब्राह्मण को देख कर चाण्डाल ने कहा, 'मैं बगुला नहीं हूँ, आपके शाप से नहीं जलूँगा। यदि इतनी ही जल्दी है तो पतिव्रता के घर चले जाइये।' नरोत्तम आगे बढ़ा तो चाण्डाल के घर में बैठा हुआ ब्राह्मण भी उसके साथ हो लिया। नरोत्तम ने ब्राह्मण से पूछा, 'ब्राह्मण होकर आप चाण्डाल के घर में क्यों रहते हैं?' ब्राह्मण ने उत्तर दिया, 'अन्तःकरण शुद्ध होते ही तुम सब कुछ समझ जाओगे। जिस पतिव्रता के घर तुम जा रहे हो वह असीम शक्तियों से परिपूर्ण है।' यह कह कर वह ब्राह्मण अदृश्य हो गया। पतिव्रता के घर में प्रवेश करते ही नरोत्तम ने यहाँ भी उसी ब्राह्मण को बैठे देखा। नरोत्तम ने पतिव्रता से कहा, 'हे देवी! मुझे धर्म का ज्ञान दो।' पतिव्रता ने कहा, 'पुत्र के लिये माता-पिता की सेवा से बढ़कर दूसरा धर्म नहीं है। एक पत्नी के लिये पति सेवा से बढ़ कर दूसरा धर्म नहीं है। आप मेरे अतिथि हैं। पति की सेवा पूरी होते ही मैं आपकी सेवा करुंगी और धर्म का ज्ञान भी दूँगी।

यदि आपको जल्दी है तो तुलाधार वैश्य के घर चले जाइये।' नरोत्तम तुलाधार वैश्य के घर की तरफ बढ़ा तो वही ब्राह्मण फिर साथ हो लिया और वैश्य का घर आते ही अदृश्य हो गया। नरोत्तम ने वैश्य से कहा, 'मुझे धर्म का ज्ञान दो।' वैश्य ने कहा,

'व्यापार ही मेरा मुख्य धर्म है, अभी मैं व्यापारियों की सेवा कर रहा हूँ। इनमें समरुप से व्याप्त

भगवान की ही सेवा कर रहा हूँ। इस परमधर्म का निर्वाह करने के बाद ही मैं आपकी सेवा करुँगा।

यदि आप को जल्दी है तो धर्माकर के घर चले जाइये।' नरोत्तम धर्माकर के घर की तरफ बढ़ा तो वही ब्राह्मण फिर साथ हो लिया। नरोत्तम ने ब्राह्मण से पूछा, 'यह धर्माकर कौन है?' ब्राह्मण ने बताया, 'एक राजकुमार छह महीने के लिये बाहर चला गया और अपनी सुन्दर नवयौवना पत्नी को धर्माकर के पास छोड़ गया। ब्रह्मचारी धर्माकर ने पूर्ण ब्रह्मचर्य का पालन कर उसकी सेवा की। लेकिन लोग उसके बारे में तरह-तरह की बातें करने लगे। छह महीने बाद राजकुमार वापस आया तो उसने भी धर्माकर के बारे में बहुत कुछ सुना। धर्माकर ने अपने घर के मुख्य द्वार पर लकड़ियाँ इकट्ठी की और उसमें आग लगा दी। तभी राजकुमार वहाँ पहुँच गया तो उसे देखकर उसकी पत्नी बहुत खुश हुई लेकिन धर्माकर चिंतित हो गया। जैसे ही राजकुमार ने पूछा, मित्र कैसे हो! धर्माकर धधकती आग में कूद गया। उसका बाल भी बाँका नहीं हुआ। जिन लोगों ने उसे शंका की दृष्टि से देखा था उनके मुँह पर कोढ़ हो गया। धर्माकर का ब्रह्मचर्यव्रत व परस्त्री की सवे ा को देख कर देवता प्रसन्न हो गये और धर्माकर सज्जनाद्रोहक हो गया। किसी से वैर नहीं, शत्रु से भी प्रेम उसका धर्म बन गया। राजकुमार अपनी पत्नी को लेकर राजमहल को चला गया।' यह कहानी सुनाते-सुनाते अद्रोहक धर्माकर का घर आ गया, ब्राह्मण फिर अदृश्य हो गया। नरोत्तम, अद्रोहक धर्माकर से मिला तो उसने वैष्णव सज्जन के पास जाने की सलाह दी। अद्रोहक के घर से बाहर निकलते ही वही ब्राह्मण फिर साथ हो लिया तो नरोत्तम ने उससे वैष्णव की विशेषताएं पूछी। ब्राह्मण ने बताया, 'वैष्णव भगवान से बहुत प्रेम करता है इसलिये भगवान हमेशा उसके निज मंदिर में निवास करते हैं।' वैष्णव का घर आते ही ब्राह्मण फिर गायब हो गया। नरोत्तम वैष्णव से मिला तो उसने कहा,'अन्दर जाकर-भगवान के दर्शन करो, सभी मनोकामनाएँ पूर्ण हो जायेंगी।' नरोत्तम मंदिर के पास गया तो देखता है कि वही ब्राह्मण यहाँ आसन पर विराजमान है। बार-बार साथ चलने वाले व बार-बार अदृश्य होने वाले इस ब्राह्मण से नरोत्तम ने कहा, 'प्रभो! यदि आप मुझसे प्रसन्न हैं तो अपने दिव्य स्वरुप का दर्शन कराए।' ज्योंही भगवान ने दिव्य दर्शन दिये, नरोत्तम धन्य हो गया।

भगवान ने नरोत्तम से कहा,'तपस्वी हो, धर्म कर्म में प्रवीण हो लेकिन अपने माता-पिता का आदर नहीं करते हो, स्वभाव से बहुत क्रोधी हो। तुम्हारे माता-पिता दुःखी हैं। उनके दुःख के कारण ही तुम्हारी तपस्या पूरी नहीं होती। जिस पर माता पिता का कोप हो वह सीधा नरक में जाता है। अपने क्रोध का त्याग करो, घर जाओ और अपने माता-पिता की सेवा करो। उनमें मेरा स्वरुप देख कर उनकी पूजा करो।' साक्षात् भगवान ने ब्राह्मण का रुप धारण कर नरोत्तम को मूक चाण्डाल के यहाँ पितृतीर्थ, पतिव्रता के यहाँ पतितीर्थ, तुलाधारी वैश्य के यहाँ समता तीर्थ, धर्माकर के यहाँ अद्रोह तीर्थ और वैष्णव के यहाँ धर्मतीर्थ के दर्शन कराये। तपस्वी नरोत्तम इन तीर्थों का महत्त्व समझ गया और अपने माता-पिता का सम्मान कर, उनकी सेवा करने लगा और मूक चाण्डाल की तरह उनकी सेवा कर परमगति को प्राप्त हुआ।

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रचनाकार: धर्म का बिगड़ता स्वरुप
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