सुरजीत पातर कविताएँ मेरी माँ और मेरी कविता मेरी माँ मेरी कविता को समझ न पाई बेशक़ मेरी माँ-बोली (मातृ-भाषा) में लिखी हुई थी वह तो के...
सुरजीत पातर
कविताएँ
मेरी माँ और मेरी कविता
मेरी माँ मेरी कविता को समझ न पाई
बेशक़ मेरी माँ-बोली (मातृ-भाषा) में लिखी हुई थी
वह तो केवल इतना समझी
पुत्र की रूह को दुःख है कोई
पर इसका दुःख
मेरे होते कहाँ से आया
बड़े ग़ौर से देखी
मेरी अनपढ़ माँ ने मेरी कविता :
देखो लोगो
कोख से जन्मे
माँ को छोड़
दुःख काग़ज़ों से कहते हैं
मेरी माँ ने काग़ज़ उठा सीने से लगाया
शायद ऐसे ही कुछ मेरे क़रीब आ जाए
मेरा जाया।
वह दिन
वह दिन यदि अब कभी मिले
मैं उसकी श्वेत हंस जैसी काया पर
मरहम लगा दूँ
पर दिन कोई घर से रूठ कर गया जना तो नहीं
जिसके बारे में कभी पता चले यहाँ है, कभी पता चले वहाँ
और फिर किसी शाम
वह फ़टे हाल घर आ जाए
या किसी स्टेशन पर
गाड़ी का इंतज़ार करता मिल जाए
दिन कोई घर से रूठ कर गया जना तो नहीं
दिन तो हमारे हाथों से मरे हुओं के
कराहते प्रेत हैं
जिनके घावों तक अब हमारे हाथ नहीं पहुँचते
अभी गुज़री कल तक
सदियों तक नहीं पहुँचती
आज की चीख
बांसुरी वृत्तांत
कोई बाँसों का जंगल जल रहा था
हरे नयनों से काजल झर रहा था
इक आई बांसुरी
सहने लगी जब
अग्नि का ताप
यूँ कहने लगी तब :
मेरे बांसों के जंगल शांत हो जा
मेरी ओर देख
मैं तेरी ही जाई हूँ
तू जलता है तो मैं समझाने आई हूँ
जलते जंगल ने देखा बांसुरी की ओर
उसकी सुर्ख आँखों में अंगारे दहकते थे :
हमें तुम मत सुनाओ अपने यह उपदेश आकर
हवा से कहो जाकर
जो एक ओर तुम्हारे जैसे को
ज़मीं से टूटे हुओं को
ऐसे नग़मे सिखाती है
दूसरी ओर झंझा बनकर आती है
हमारी आग में ही
वह हमारे वंश को
लट लट जलाती है।
हवा के पास आई बाँसुरी :
बात सुन री ऐ हवा
बुरा लगता है
जब कुछ बुरा
तेरे बारे में
मेरे होंठों पे आये
पर आज तुम बहुत ही बेरहम लगती हो
जलाती हो जो तुम बांसों के जंगल
इतना तेज़ बहती हो
हवा फुँफकार उट्ठी :
अरे, तुम सात आँखों वाली होते हुए भी अंधी हो
अंधी बांसुरी रोए हवा को।
नहीं तुम जानती
मेरा नहीं है वश कोई इस पर
यह धरती है
कहीं से ठंडी और कहीं से गर्म
ठंडी से गर्म की ओर जाना ही है मेरा धर्म
जाओ पूछो धरती से जाकर।
धरती ने कहा :
मेरे बांसों की बेटी
ओ मेरी वंशी
मैं तुम्हारा दुःख समझती हूँ
पर मैं सूरज के आकर्षण में बँधी हूँ
घूमती हूँ
इसी कारण
कहीं है छाँव कहीं धूप
कहीं ठंडा कहीं गर्म मेरा रूप
तो मैं सूरज के पास जाऊँ?
बांसुरी ने पूछा
तो हँसी धरती :
उस संतपित से तुम क्या प्रश्न पूछोगी
झुलस जाओगी
यदि उस के पास जाओगी।
तो रब के पास जाऊं?
रब? वह तो खुद है एक सवाल
पता नहीं आदमी उसका या वह है आदमी का ख़्याल
वे कहते हैं रब तो सब कुछ है
दहकता वन भी, बजती बांसुरी भी
झुलसती धरती भी वर्षा बरसती भी
रब अपनी रब्बता की भाषा में ही बोलता है
सिर्फ़ बंदा ही उसके भेद कुछ कुछ खोलता है
आई बांसरी बन्दे के होंठों से जुड़ गई
हवा में मल्हार की धुन गूंज उठी
कलेजा बांसुरी का चाहे बिंधा हुआ था
दहकते जंगलों का तेज़ तीखा ताप भी था
कुछ रिमझिम के थे इमकान भी
और किसी इलाही राज़ के खुलने का आह्वान भी
कवि बच गया
नदी चढ़ी थी
बलि मांगती थी
कंगण, नत्थ, सुहाग के चूड़े
मृत्यु की उस अटल घड़ी में
दोनों में से एक को मरना ही मरना था
होणी अपना कारा कर गई
कवि बच गया
कविता मर गई
अंधकार में लट लट जलती
उसकी कविता
कवि के लिए हरदम ख़तरा थी
कवि की डरी हुई साँसों में
उस पल ऐसी दहशत भर गई
कवि बच गया
कविता मर गई
भेस बदलता
रूप पलटता
सहक रही देहों के पास से
रेंगने वाला कीड़ा बन कर
दीपक बन कर बुझा हुआ
हांफता हांफता
बचा हुआ वह
अपने दर पर पहुँचा
उस के घर की मुंडेरों पर
घी के दिए जले
पर उसकी कविता के मंदिर में
सब जलती ज्योतियाँ बुझ गयीं
उस के घर में जय जय हुई
काव्य - लोक में ह्य ह्य हुई
एक समय था
उसका मुख ज्वाला का मुख था
उसके मुख में से धरती ने
उस पल अपना सच कहना था
उसकी ज्वाला उसके भीतर
अंतिम बार की दस्तक दे कर
तड़प तड़प कर धुआँ कर गई
बोलने के पल में चुप रह कर
कवि बच गया
कविता मर गई।
बेदावा
हर बार, लोगो, बेदावे
कागज़ पर नहीं लिखे जाते
ना खौफ और दुःख से सुलगते लफ़्ज़ों में
कहे जाते हैं
वे लोग तो सच्चे थे
जो लिख कर बेदावा दे गए थे
और फिर स्याही में लिखे उन हर्फों को
अपने रक्त से धो गए थे
हम रोज़ ही दीनों और दुखियों को सहकते छोड़कर
अपने अपने घर चले जाते हैं
यह भी तो एक बेदावा है
जो हम अपने पाँवों से लिख जाते हैं
हर पद-चिह्न एक अक्षर
और हर रास्ता पन्ना हो गया है
लगता है सारी धरती पर बेदावा लिखा हुआ है
हम कब सुर्ख़रू होंगे
हम कब मुक्ते कहलवाएँगे
या हम अपने पाँवों से बेदावा लिखते लिखते ही
इस दुनिया से चले जाएंगे।
शब्द और अर्थ
शब्द और अर्थ
एक ही दिन
एक ही क्षण नहीं जन्मे थे दोनों
कितनी रातें और दिन
अकेला अर्थ तड़पा था
धारण करने के लिए वजूद
नारों और पुरुषों के रक्त में
परा
पश्यन्ति
मध्यमा
वैखरी की सीढ़ियाँ चढ़ता
कांपा एक दिन होंठों पर
हो के इंजर पिंजर से आज़ाद
बना वाष्प से जल-कण
यूँ शब्द बना
अर्थ के बहुत दिनों बाद
अर्थ नहीं है शब्द की परछाईं
या शब्द की लौ
अर्थ तो है वह
ताप, सामान, सामग्री
जिस में से कशीद हो के
क़तरा क़तरा
टपकते हैं शब्द
कदमों से स्थान में चलता है आदमी
शब्दों में समय में
शब्द शब्द ब्रह्माण्ड नापता
शब्द शब्द मन में उतरे
शब्द शब्द सिरजे नरक स्वर्ग पुण्य पाप
पर हाँ
शब्द पाप
और इसका अर्थ
एक ही क्षण में नहीं जन्मे थे दोनों
बहुत दिन तड़पा कोई
किसी दुःख के संताप में
चढ़ा रहा उसकी आत्मा को ताप
तो फिर वह बड़बड़ाया
एक रात : पा ... प
शब्द और अर्थ
एक ही दिन
एक ही क्षण नहीं जन्मे थे दोनों
शब्दकोश की दहलीज़ पर
दुबला सा कवि
टांग अड़ा कर बैठ गया
शब्दकोश की दहलीज़ पर :
मैं नहीं आने दूंगा इतने अंग्रेज़ी शब्द
पंजाबी शब्दकोश में
अरे आने दे कवि आने दे
न आने देना अपनी कविता में
शब्दकोश में तो आने दे।
पहले नहीं आई लालटेन!
रेल, टाइमपीस, रेडियो, क्लॉक
एक्स-रे, टी वी, वीडियो
टेस्ट ट्यूब!
ये सब तो तेरी कविता में आ गए।
हुज़ूर, ये कोई शब्द थोड़े ही हैं
ये तो चीज़ें हैं।
चीज़ों को तो मैं अब भी कहाँ रोकता हूँ
धूम धाम से आएं इन्कूवेटर
इनहेलर, अकुएरियम
इन्वर्टर, डिश, सीडी
वीसीडी, डीवीडी
शान से आएं
अपने पिताओं
माताओं
निर्माताओं के दिए हुए नामों सहित
मैं कब रोकता हूँ!
और मैं उन में से नहीं हूँ
जो नाइट्रोजन को भूयाति
हाइट्रोजन को उडजन
आक्सीजन को जार्क
कहने का मशविरा देते हैं
वैसे मुझे दिलचस्प और सृजनात्मक लगता है
उनका बीयर को यविरा
रम को फणिरा
और वाइन को दक्षिरा कहना
पर जब आप
सूचना के होते हुए इन्फर्मेशन के साथ
सतह के होते हुए सरफेस के साथ
इकरारनामे के होते हुए एग्रीमैंट के साथ
असर और प्रभाव के होते हुए इफैक्ट के सथ
आँख-मिचौली करते हो
तो मुझे अजीब लगता है
अविवाहितों के लिए ले आओ मेमें
भले ही कुदेसनें
पर अच्छे भले विवाहितों के घरों में
सौंतनें क्यों घुसाते हो?
बसते रसते घर क्यों उजाड़ते हो?
अरे बौरे कवि
हम कोई बिचौलिए नहीं
हम तो सिर्फ़ गिनती करते हैं
कि लोग किसी शब्द को कितनी बार लिखते पढ़ते बोलते हैं
इसी आधार पर उस शब्द को
शब्दकोश में जगह देने का फ़ैसला करते हैं
इसको फ़्रीकुएंसी कहते हैं
तुम इसे बारंबारता कहो
या कोई नया शब्द गढ़ों
और जाओ जाकर अख़बार पढ़ो
हमसे लड़ने की बजाय लोगों से लड़ो
जो आभू, रोड और खिल्लें खाने की बजाय
पॉपकॉर्न खाने पसंद करते हैं
और वो देखो आलू
सड़कों पर रुल रहे हैं
और पटैटो चिप्स कारों में चढ़े फिरते हैं
तब कहीं बात कवि की समझ में आई
कि असल में कहाँ लड़ रही है भाषा
ज़िन्दगी और मौत की लड़ाई
उसने शब्दकोश की दहलीज़ से
टांग हटाई
और लफ़्ज़ों को कहने लगा :
अंदर आ जाओ भाई
जो करते हैं कुआलिफाई
कवि पे राज़ खुला
कि भाषा को भाषाविज्ञानी नहीं
वे लोग बनाते हैं
जो जूझते हैं
खेतों में
कारखानों में
घरों में
दफ़्तरों में
अपने मनों में
आत्माओं में
और सिर्फ़ भाषा को बचाने से
नहीं बचती भाषा
भाषा बचती है सदा
किसी महान ख़्याल
महा करुणा
किसी महा लहर का
सरगुण सरूप बन के
कवि को याद आए वे लोग
जिनों ने बुरे वक़्तों में
मकई को बसंत कौर
गाजरों को गोबिंदीया
रात को काली देवी
नींद को धर्मराज की पुत्री
ताज़ा हवा की रुमकनी को
इन्द्राणी देवी की गलबहियां कह के
हँस हँसा लिया
अपना जहान रंगला बना लिया
बुरे वक्ताओं को भले बना लिया।
वह जो जूते को अथक स्वारी
बुखार को धर्मराज का पुत्र
चिता को काठ गढ़
रोने बिलखने का मारू राग
टूटी छपरी को शीश महल
सिक्कों को ठीकर
गजा करने को मामले की उगाही करना कह के
शहंशाह बन बैठते
हमेशा चढ़़ती कला में रहते
वह जो मछली को जलतोरी
बोले को चौबारे - चढ़ा
हुक्का पीने को स्तन - पान
भांग छानने वाले कपड़े की कन्नियों को
शेर के कान
चूल्हे की लकड़ों को मिशालें कह के
अपना जहान रुशना लेते
जिन्होंने
ईख को ब्रह्म रस
हल्दी को केसर
बैंगन को इकटंगा बटेरा कह के
रूखे सूखे को
अत्यंत स्वादिष्ट बना कर खा लिया
चिलचिलाती धूप में
पेड़ को सब्ज़ मंदिर बना लिया
जो शब्दों की छाँव में
दुःख के थलों को हँस कर पार कर गए
वे हँसमुख। हाज़िरजवाब
हौसले वाले कलाधारी
बड़े करामाती लोग थे
उनकी टक्साल
शब्द क्या घड़ती
नये इन्सान घड़ती
नये लोक परलोक सिरजती
उन के मुँह से
अपने नए नाम सुन के
चीज़ें हँस पड़तीं
पैरों की धूल बना लीं
जिन्होंने सल्तनतें
कोड़ियां कर दिए मोतियों जड़े ताज
तिनकों से हल्के कर के
जिन्होंने आलमगरी शहंशाह
कह के अपने गुरु को सच्चा पातशाह
कवि को याद आया महाकवि
जिसने एक नज़र डाल के
गगन को
ब्रह्माण्ड में चल रही आरती का थाल बना दिया
कवि को याद आए
अभिधा
लक्षणा
व्यंजना
स्फोट
और नौ रस
जो शान से जाते हैं
देस विदेस के सैमिनारों में
अपनी भाषा बोलते
कवि को याद आया नारा :
माँ-बोली जो भूल जाओगे
तिनकों की तरह रुल जाओगे
साथ ही याद आए वे लोग
जो माँ-बोली तो नहीं भूले
फिर भी तिनकों की तरह रुल रहे हैं
कवि उठ के चला गया
शब्दकोश की दहलीज़ से
सोचता हुआ
कि तिनकों की तरह रुल रहों को
यदि
दे सकें
कोई महान ख़्वाब
ख़याल
लहर
यदि दे सकें
अपमानितों को मान
शक्तिहीनों को शक्ति
नियोटों को ओट
निआसरों को आसरा
तब शायद माँ-बोली बच जाए
तिनकों की तरह रुल रहे
अपनों जायों के सहारे
यदि संभाल सकें असहायों को
तो शायद हो जाए
नदर की बख्शीश
हो जाएं
तन मन और सबद रहे।
मर रही है मेरी भाषा - एक संवाद
मर रही है मेरी भाषा शब्द शब्द
मर रही है मेरी भाषा वाक्य वाक्य
अमृत वेला
नूर पहर
मुँह अँधेरा
पहु फुटाला
छाह वेला
सूरज सवा नेज़े
टिकी दोपहर
डीगर वेला
लोए लोए
सूरज खड़े खड़े
तरकालां
डूघीआं शामां
आथण
दीवा वट्ठी
खौपीआ
कौड़ा सोता
ढलीदीयां खित्तियां
तारे दा चढ़ाय
चिड़ी चूकणा
साझरा
सुवख्या
वड्डा वेला
सर्घी वेला
घड़ियां, पहर, बिंद, पल छिण, निमख बेचारे
मारे गए अकेले टाइम के हाथों
ये शब्द सारे।
शायद इसलिए
कि टाइम के पास टाइम पीस था
हरहट की माला
गाटी के हूटे
कांजण, निसार चक्कलियां, बूडे
भर भर के छलकती टिंडे
इन सब को तो बह ही जाना था
टय्बवैल की तेज़ धार में
मुझे कोई हैरानी नहीं
हैरानी तो यह है
कि अम्मी और अब्बा भी नहीं रहे
बी जी और भाषा जी भी गायब हो गए
ददेसों ममेसों फफेसों ननेसों की तो बात ही छोड़ो
और कितने रिश्ते
अकेले अंकल आंटी ने कर दिए हालों बेहाल
और
कल एक गाँवों के आंगन में
कह रहा था
एक छोटा सा बाल :
पापा, अपने ट्री के सारे लीव्ज़ कर रहे हैं फाल
हाँ पुत्तर
अपने ट्री के सरे लीव्ज़ कर रहे हैं फाल
मर रही है अपनी भाषा पत्ता पत्ता
शब्द शब्द
अब तो रब्ब ही रखा है
अपनी भाषा का।
पर रब्ब?
रब्ब तो ख़ुद पड़ा है मरनहार
दौड़ी जा रही है
उसकी भूखी संतान
उसे छोड़ के
गॉड की पनाह में
मर रही है और भाषा
मर रही है बाई गॉड
2
मर रही है मेरी भाषा
क्योंकि जीवित रहना चाहते हैं
मेरी भाषा के लोग
जीवित रहना चाहते हैं
मेरी भाषा के लोग
इस शर्त पर भी
कि मरती है तो मर जाए भाषा
क्या बंदे का जीवित रहना
ज़्यादा ज़रूरी है
कि भाषा का?
हाँ, जानता हूँ
आप कहेंगे
इस शर्त पर जो बंदा जीवित रहेगा
वह जीवित तो रहेगा
पर क्या बंदा रहेगा?
आप मुझे जज़्बाती करने की कोशिश न करें
आप ही बताएं
अब जब
दाने दाने ऊपर
खाने वाले का नाम भी
आप का रब्ब अंग्रेज़ी में लिखता है
तो कौन बेरहम माँ बाप चाहेगा
कि उसकी संतान
डूबती भाषा के जहाज़ में बैठी रहे!
जीते रहें मेरे बच्चे
मरती है तो मर जाए
आपकी बूढ़ी भाषा
3
नहीं, इस तरह नहीं मरेगी मेरी भाषा
इस तरह नहीं मरती कोई भाषा
कुछ शब्दों के मरने से
नहीं मरती भाषा
असल में शब्द कभी मरते भी नहीं
मर भी जाएं
तो आते जाते रहते हैं
लोक परलोक में।
आदमियों के लोक परलोक से अलग होता है
शब्दों का लोक परलोक।
हम भी आ जा सकते हैं
शब्दों के परलोक में
वहाँ उनके परिवार बसे होते हैं
मेले लगे होते हैं
मरे हुओं की जीवित किताबों में
बसा होता है शब्दों का परलोक।
रब्ब नहीं तो ना सही
सतगुरु सहाई होंगे
मेरी भाषा को बचाएंगे सूफ़ी संत फ़कीर
शायर
नाबर (बागी)
आशिक़
योद्धे
मेरे लोग, आप, हम
इन सब के मरने के बाद ही मरेगी
मेरी भाषा।
बल्कि यह भी हो सकता है
कि मारनहार माहौल में घिर के
मारणहारों का टाकरा करने के लिए
और भी जीवंत हो उठे
मेरी भाषा
और भी जीणजोगी हो जाए
एह मरजणी।
बूढ़ी जादूगरनी कहती है
तेरा भी नाम रक्खेंगे
तेरी छाती पे भी खंजर या तमगा धर देंगे
ज़रा जीवंत तो हो
तेरी भी हत्या कर देंगे।
मैं बूढ़ी जादूगरनी बड़े मंत्र जानती हूँ
मैंने जिस छाती पे तमगा सजाया है
वही बस घड़ी बन कर रह गई है
मैंने जिस बन्दे के गले में हार डाला है
वही बुत बन गया है
मैंने जिसे अपना पुत्र कहा है
उसे अपनी माँ का नाम भूल गया है
मैंने जिस हाथ को
अपने हाथ में दबाया
वह हाथ पेड़ की टहनी हो गया है
और हर दिशा की हवा में डोलने लगा है
मैं मन ही मन हँसी हूँ :
शीश झूठ कहता है
जादूगरनियां कभी बूढ़ी नहीं होतीं
बस अदमियों की क़िस्में होती हैं
किसी का सीना तमगे से ठर जाता है
किसी का स्पर्श के निघास से
और जो बाकी बचता है
उसके लिए
मेरे हाथों में भी बस खंजर ही बचता है
तू यूँ ही अभिमान न कर
यूँही उतावला न हो
तेरी क़िस्म भी बूझ लेंगे हम
तेरे योग होनी से तुम्हें भी वर देंगे
तेरी छाती पे भी खंजर या तमगा धर देंगे
ज़रा जीवंत तो हो
तेरी भी हत्या कर देंगे।
घरर घरर
मैं एक छाते जितना आकाश हूँ
गूँजता हुआ
हवा की सांय सांय का पंजाबी में अनुवाद करता
अजीबो गरीब दरख्त हूँ
हज़ारों रंग-बिरंगे वाक्यों बिंधा
छोटा सा भीष्म पितामा हूँ
मैं आप के प्रश्नों का
क्या उत्तर दूँ?
महात्मा बुद्ध और गुरु गाबिंद सिंह
परमो धर्म अहिंसा और बेदाग लिशकती शमशीर की
मुलाकात के वैल्यू के लिए
मैं बहुत गलत शहर हूँ
मेरे लिए तो बीवी की गलबहियाँ भी कटघरा हैं
क्लास रूम का लैक्चर स्टैंड भी
चौराहे की रेलिंग भी
मैं आप के प्रश्नों का
क्या उत्तर दूँ?
मुझ में से नेहरू भी बोलता है, माओ भी
कृष्ण भी बोलता है काम भी
वॉइस ऑफ अमेरिका भी, बी बी सी भी।
मुझ में से बहुत कुछ बोलता है
नहीं बोलता तो बस मैं ही नहीं बोलता
मैं 8 बैंड का शक्तिशाली बुद्धिजीवी
मेरी रगों की घरर घर शायद मेरी है
मेरी हड्डियों का ताप संताप शायद मौलिक है
मेरा इतिहास वर्षों में बहुत लम्बा है
कार्यों में बहुत छोटा
जब माँ को ख़ून की ज़रूरत थी
मैं किताब बन गया
जब पिता को डंगोरी चाहिए थी
मैं बिजली की लकीर की तरह कौंधा और बोला :
कपिलवस्तु के शुद्धोदन का ध्यान धरो
माछीवाडे की तरफ़ नज़र करो
गीता पढ़ी है तो विचारो भी :
कुरु कर्माणि संगम तिकत्वा
ऐसा बहुत कुछ
जो मेरी भी समझ से बाहर था
मैंने कहा और घर से निकल पड़ा
रास्ते में रूपोश साथी मिले
उन्होंने पूछा :
हमारे साथ सलीब तक चलोगे?
हत्यारों की हत्या को अहिंसा समझोगे?
गुमनाम पेड़ से उलटे लटके हुए
मसीही अंदाज़ में
सरकंडे को भाषण दोगे?
उत्तर तौर पर मेरे अंदर
अनेक तस्वीरें उलझ गईं
मैं कई फ़लसफ़ों का कोलाज सा बन गया
और आजकल कहता फिरता हूँ :
सही दुश्मन की तलाश करो
हरेक आलमगीर औरंगज़ेब नहीं होता
जंगल जल रहे हैं
बांसुरी पर मल्हार बजाओ
प्रेत बंदूकों से नहीं मरते
मेरी हरेक कविता प्रेतों को मारने का मंत्र है
मसलन वह भी
जिस में मोहब्बत कहती है :
मैं घटना-ग्रस्त गाड़ी का अगला स्टेशन हूँ
मैं मर चुके बच्चे की तली पर
लंबी उम्र की रेखा हूँ
मैं एक नहीं रही नदी पर बना पुल हूँ
मैं मर चुकी औरत की रिकॉर्ड की हुई
हँसती आवाज़ हूँ :
हम अब कल मिलेंगे।
प्यारा
मैं जिन्हें कविता पढ़ाता था
किताबों में छपे काले अक्षरों से
रंग निकालने सिखाता था
और जो
जब कभी कोई कविता
प्रेम कविता होती
तो मुझ से छुप कर
एक दूसरे को देख कर चोरी चोरी मुस्कराते थे
और कोई नज़्म
जब तेवर बदलती थी
तो उन के निखरे, निर्मल और लैरे चेहरों पर
बदलते रंग मुझे बताते थे :
सर, हम कविता समझते हैं।
उन नई फूटी शाखाओं जैसे लड़कों में
एक का नाम प्यारा था
वह सब की आँख का तारा था
मैंने उस तारे को आसमान होते देखा था
मैंने प्यारे को जवान होते देखा था
वह गाता था
तो काली रात में दिए जलाता था
मैंने उसकी आवाज़ को ऊपर उठते सुना
और फिर सुना कुछ वर्षों बाद
कि प्यारे को किसी ने मार डाला है
यह कोई और होगा
कोई डाकू या कोई चोर होगा
कोई खूंखार बद्लेखोर होगा
उस प्यारे को किसी ने क्यों मारना था
मैंने सोचा ही ना
कि यह वो ही प्यारा था
जो गाता था
तो काली रात में दिए जलाता था
इसी से ही खफ़ा होकर
अँधेरे के ख़ुदाओं ने
प्यारे को मार डाला था
अब जब कभी
नयी लगरों (नाजुक डाल) जैसों को
मैं कविता पढ़ाता हूँ
तो मुझे लगता है
इन में प्यारा भी बैठा है
मैं कविता पढ़ाता थिड़क जाता
सोचता हूँ :
क्या पढ़ाता हूँ?
अँधेरे ख़ुदाओं के बुझाने के लिए
दिए बनता हूँ?
अँधेरे का कर्मचारी
अँधेरे मन्दिरों का मैं पुजारी
है हर प्यारे से बढ़कर
जिस को अपनी जान प्यारी।
मैं कविता पढ़ाता हूँ
हज़ारों परिंदे
हज़ारों परिंदे
मेरे मन में क़ैदी
सुनूँ रात दिन मैं
ये देते दुहाई :
रिहाई
रिहाई
रिहाई
रिहाई
भले ही कहीं जा के हम बिंध जाएं
बहें अपनी काया से रक्त के फुहारे
भले ही कहीं जा के हम झुलस जाएँ
जलें अपने पंखों के टसरी किनारे
बस अब जाने दे तू
कहीं भी किधर भी
तेरी क़ैद से तो वो बेहतर ही होंगे
शिकारी निर्दई माँसखोरे कसाई
रिहाई
रिहाई
रिहाई
रिहाई
बृहत वृक्ष थे तुम
जब उतरे थे आके तेरी टहनियों पर
तो तुमने कहा था :
उड़ो आसमानों में
थक जाओ जब तो मेरे पास आओ
कभी ऊब जाओ तो फिर पंख तौलो
हवाओं में पंखों से ख़त लिखते जाओ
पर अब तुम
हमारी उड़ानों के डर से
कि हम उड़ न जाएं सदा के लिए ही
और अपने ही पत्तों की सर सर से डरते
कि यह झड़ न जाएं सदा के लिए ही
हरे पेड़ से पिंजरा हो गए हो
बदलती ऋतुओं के बदलने के डर से
तुम अपने ही अंतःकरण के दरों पर
किसी सहम का सांकला हो गए हो
तेरे शब्द हैं हम
तेरे बोल हैं हम
तेरी क़ैद में हम पड़े जल रहे हैं
विदा कर हमें तो
और अब पिंजरे से तो फिर पेड़ हो जा
फ़िज़ा में थिरकने दे
आज़ाद नगमे
तेरे सूने अंबर को रंगों से भर दें
जो मातम सी चुप है
उसे हम तरन्नुम तरन्नुम सी कर दें
तू क्यों अपने रस्ते में
ख़ुद ही खड़ा है?
हृदय खुलने से
तू क्यों डर रहा है?
तू आलाप ले
कि बहें फिर से नदियाँ
तू आलाप ले
कि हवा फिर से रुमके
तू फिर घोल प्याले में
जीवन और मृत्यु
तू फिर ठग ले
उस छलिऐ ठग्गों के ठग को
अरे पिंजरे से तू फिर पेड़ बन जा
ख़ुशी और उदासी में हो जा शौदाई
रिहाई
रिहाई
रिहाई
रिहाई
कपास
खेत में
खिल कर हँसती तो ख़ैर
मैंने अक्सर देखी थी
पर वह दिन था शायद कोई ख़ास
कि बातें भी करने लगी कपास
कहने लगी :
मैं गेहूं, ज्वार, बाजरा से अलग
फूलों फलों से भी अलग
जड़ी बूटियों से भी अलग
मैं न खाए जाने में
न देखे जाने में हूँ ख़ास
फिर भी खड़ी हूँ
कितने स्वाभिमान से ठन कर
मैं आई हूँ दुनिया में
मानव का लिबास बन कर
और देखिए
अपने आप को ढाँपने का ख़्याल
मानव को ही नहीं आया
कुदरत को भी पता था
एक ऐसा भी होगा जीव अजीब जिसमें होगी
कोई ऐसी ख़ूबी या करतूत
कि उसको पड़ेगी लिबास की ज़रूरत
यानी
कुदरत भी सोचती है
यदि आप को इस में ज़रा भी शक है
तो फिर मैं दुनिया में किसलिए आई हूँ
मुझे भी पूछने का हक्क है
मैं कुदरत और सभ्यता के दरम्यान
सूत्र से बनी कड़ी हूँ
सर पे
कपड़ों की एक छोटी सी गठड़ी उठाए
एक हँसती हुई बुझारत बन के खड़ी हूँ।
एक पशु-कथा
चली है गाड़ी
गाड़ी के डिब्बों में बैठे
कुछ हैं मेमने
कुछ हैं भेड़िए
गाड़ी लांघती गई स्टेशन
नदियां जंगल खेत पहाड़
गाँव नगर पुल शहर उजाड़
कुछ घंटे चलने के बाद
क्या देखा डिब्बों के अंदर
सभी भेड़िए बने मेमने
सभी मेमने बने भेड़िए
आप यक़ीन करें या ना
यह सब अपने देश में हुआ
और बंदों के भेस में हुआ।
आज फिर बहुत उदास है आत्माराम
आज फिर बहुत उदास है आत्माराम
वैसे तो वह अपने को ए आर कपूर ही कहता है
ढका ढका सा दूर दूर ही रहता है
अंग्रेजी बोलता
ऊँचा सा बैठता है
पर ऐसे उदास पलों में
वह आत्माराम बन कर
मन के अँधेरे में पीछे लौट जाता है
चढ़ी सीढ़ियाँ उतरता है
पंजाबी में बुदबुदाता
नीचे ही नीचे फिसलता है
और अपने आप को गाँवों के कच्चे से घर में ‘पाता’ है
जहाँ दीए की लौ में
उसकी मृत माँ उल्टा चरखा घुमाती है
बुने हुए को उधेड़ती है
निपट चुकी को छेड़ती है
बूढ़ी आँखों से पहचान कर कहती है :
आ गिआं आतमा रामां?
कहती है और बहुत कुछ कहती रहती है
पता नहीं क्या क्या दुखड़े रोती है
कभी कौशल्या, कभी इच्छरां बन जाती है
उसकी बातों का गीला ईंधन सुलगता है
जिसमें ए आर कपूर का दम घुटता है
आत्माराम को सकून सा मिलता है
कि आज उसे माँ मिल गई
जो उसे देखने को तरसती ही चली गई
जब वह शहर में रहता था
अपने को ए आर कपूर कहता था
ढका ढका सा दूर दूर ही रहता था
वह करता भी क्या
मोहिणी मुखमणी यही चाहती थी
माँ की ममता उसे कब्र की तरह डराती थी
माँ की ममता
घर की चौखट
मढ़ियाँ और मंदिर
सब कुछ अतीत के जल में बह गया था
और वह शहर की ऊँची इमारत में बैठ के बच गया था
पर कभी कभी उसके सीने में शूल सी उठती है
और वह शहर की ऊँची इमारत से इस तरह लुढ़कता है
कि सौ कोस दूर
अपने गाँवों के बिक चुके घर में
गिरता है
जहाँ उसकी मृत माँ उल्टा चरखा घुमाती है
बुने हुए को उधेड़ती है
निपट चुकी को छेड़ती है
आत्माराम बार बार यहीं क्यों आता है
शायद इसलिए
कि शायद यहीं से वह एक ऐसा मोड़ मुड़ा था
कि फिर खुद से नहीं मिला था।
कवि की हत्या पर
मैं पहली पंक्ति लिखता हूँ
तो डर जाता हूँ राजा के सिपाहियों से
पंक्ति को काट देता हूँ
दूसरी पंक्ति लिखता हूँ
तो डर जाता हूँ मैं बागी गुरिल्लों से
पंक्ति को काट देता हूँ
अपने प्राणों की खातिर
मैंने यूँ अपनी हज़ारों पंक्तियों की
हत्या की है
उन सभी पंक्तियों की आत्माएं
मेरे अक्सर चुफेरे घूमती हैं
और मुझे पूछती हैं :
कवि साहिब
कवि हो आप
या कविता के कातिल हो?
सुने मुन्सिफ़ बहुत इन्साफ के क़ातिल
बड़े मज़हब के रखवाले
ख़ुद ही मज़हब की मुकद्दस आत्मा को
कत्ल करते भी सुने थे
बस यही सुनना ही बाकी था
हमारे व़क्त में
अब ख़ौफ़ के मारे
कवि भी हो गए
कविता के हत्यारे।
शायरी
मैं चाँद सितारों का क्लर्क हूँ
हवाओं का स्टेनोग्राफर
अपनी आत्मा का अदना सा गुलाम
हर रोज़ ढोता हूँ अँधेरा और रौशनी
सुबह शाम
और कोई छुट्टी नहीं मेरे लिए
आधी रात को आता है
हवा में लिखा
मेरे लिए फ़रमान
मेरी आत्मा में मिला कर हादिसे, ख़बरें, दंगे
और नेताओं के बयान
कोई करता है कशीद उस में से शब्द
और मुझे एक पल भी नहीं आराम
मुझे हर पल पढ़ना पड़ता है
धूप का टेलीप्रिंटर
मुझे ही लड़ने होते हैं मुक़दमें
मृतकों, बिछड़ों, पितरों, प्रेतों की अदालत में
उठाए फिरता हूँ दिनों की फ़ाइल में
रातों के काग़ज़ात
कभी आता है
कोई ताज़ा बना प्रेत
कहता है ज़रा उठो
मेरे साथ चलो
मेरी अभी सजाई सिड़ी तक
मैं थक गया हूँ
कभी कभी जी करता है
अपनी जामुनी कमर में
दूज का तीखा चाँद घोप लूँ।
मेरी प्रतीक्षा
लगता है
कहीं और हो रही है मेरी प्रतीक्षा
और मैं यहाँ बैठा हूँ
लगता है
मैं ब्रह्मांड के संकेत नहीं समझता
पल पल की लाश
पुल बन कर
मेरे आगे बिछ रही है
और मुझे लिए जा रही है
किसी ऐसी दिशा में
जो मेरी नहीं
गिर रहा है
मेरी उम्र का क्षण क्षण
कंकड़ों की तरह
मेरे ऊपर
बन रही है
एक ऊँची ढेरी
नीचे से सुनती नहीं
मुझे ही
आवाज़ मेरी
आधी रात को
कभी नींद टूटती है
सुनता हूँ कायनात
तो लगता है
बहुत बेसुरा जी रहा हूँ मैं
उखड़ गया हूँ
सच के सा से
मुझे रौंदने पड़ेंगे अपने पदचिह्न
वापिस लेने होंगे अपने बोल
उल्टा टांगना होगा अपनी इबारतों को
घूम रहे नक्षत्रों के बीच
घूम रहे ब्रह्माण्ड के बीच
सुनाई देती है
किसी माँ की लोरी
लोरी से बड़ा नहीं कोई उपदेश
चूल्हे में जलती आग से नहीं बड़ी
कोई रौशनी
लगता है
कहीं और हो रही है मेरी प्रतीक्षा
और मैं यहाँ बैठा हूँ।
ऐ मेरे शब्दो
ऐ मेरे शब्दो
चलो छुट्टी करो
जाओ घरों को
लौट जाओ शब्दकोशों के सफों में जा छुपो
पुस्तकालयों की कतारों में सजो
भाषणों
नारों
ब्यानों
और ऐलानों में मिल कर
जाओ कर लो लीडरों की नौकरी
गर अभी भी है बची थोड़ी नमी
जाओ माँओं और बहनों बेटियों के
क्रंदनों में जा मिलो
डूब कर आँखों में उनकी
जाओ कर लो ख़ुदकुशी
गर बहुत ही तंग हो
तो और पीछे लौट जाओ
फिर से चीख और चिंघाड़ बनो
वह जो इन दिनों
आपको मैंने कहा था
हम हरेक अंधी गली में
दीपकों की पंक्ति बन कर जगेंगे
राहियों के सरों पर
उड़ रही शाखाएं बन कर चलेंगे
लोरियों में जुड़ेंगे
गीत बन कर उत्सवों में जायेंगे
और दीयों की फ़ौज बन कर
रात लौटा करेंगे
क्या पता था तब मुझे
कि आंसुओं की धार से
वार गहरा होता है तलवार का
क्या पता था तब मुझे
कहने वाले
सुनने वाले
खौफ से कुछ इस तरह पथराएँगे
शब्द सब बेमायना हो जायेंगे।
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