रचना समय अक्तूबर 2015 - सुरजीत पातर : डायरी के पन्ने - मे आई कम इन मैडम

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सुरजीत पातर डायरी के पन्ने मे आई कम इन मैडम   कैनेडा के शहर कैल्गरी की बात है। सुरिंदर गीत ने मुझे अपनी नई ग़ज़लें इसलाह के लिए दिखाईं...

सुरजीत पातर

डायरी के पन्ने

मे आई कम इन मैडम

 

कैनेडा के शहर कैल्गरी की बात है। सुरिंदर गीत ने मुझे अपनी नई ग़ज़लें इसलाह के लिए दिखाईं। एक शेर में उसने लोमड़ लिखा था। शायद यह कहना चाहिए कि लोमड़ बांधा हुआ था। मैंने कहा : सुरिंदर, लोमड़ तो मुझे ग़ज़ल में अजीब लगता है। लोमड़ कहीं ग़ज़ल में आ सकता।

कौन कौन से जानवर ग़ज़ल में आ सकते हैं भाई साहब? सुरिंदर ने मुझे इतनी मासूमियत से पूछा कि मुझे हँसी आ गई। मैं सोचने लगा और अपना पढ़ा विचारने लगा। सचमुच यह बहुत दिलचस्प और सही प्रश्न है। कौन कौन से जानवर आ सकते हैं ग़ज़ल में?

मुझे याद आया कि ग़ज़ल के पीर मिर्ज़ा ग़ालिब तो ग़ज़ल में कुत्ता भी ले आए थे। वह तो घोड़ा भी ले आए थे। मैंने एक पल में नतीजा निकाला कि जो जानवर घरों, हवेलियों में आ सकते हैं, वह ग़ज़ल में भी आ सकते हैं। फिर मुझे ख़्याल आया कि ग़ालिब ने तो कुत्ते और घोड़े को ग़ज़ल में लाते समय फ़ारसी में छुपा लिया था। यानी उनको सग और तौसन बना लिया था :

पानी से सग गुज़ीदा डरे जिस तरह असद

डरता हूँ आईने से कि मर्दुम गुज़ीदा हूँ

तेरे तौसन को सबा बांधते हैं

हम भी मज़मूं की हवा बांधते हैं

 

फ़ारसी में छुपाकर तो मिर्ज़ा गा़लिब घड़ियाल के जबड़ों को भी ग़ज़ल में ले आए थे। यानी उन्हें हलक-ए-सद कामे नहीं बनाकर :

दामे-हर-मौज में है हलका ऐ सद कामे नहंग

देखे क्या गुज़रे है कतरे पे गुहर होने तक

 

मैंने सुरिंदर को कहा : आ सकता है लोमड़ ग़ज़ल में। क्यों नहीं आ सकता? पर लाते समय उसको कुछ इस तरह छुपाना पड़ेगा कि आम लोग उसको तब ही पहचाने जब वह आ ही चुका हो।

फिर मुझे याद आया कि बाबा बुल्हे शाह तो कुत्तों को बिना छुपाए ही ले आए थे। बहुत शान- शौकत से; उन्हें इनसान से भी ऊंचा रुतबा देकर :

बुल्लिया रातीं जागें ज़ुहद कमावें

रातीं जागण कुत्ते, तैथों उत्ते

मालक दा दर कदी ना छोड़न

भावें सौ सौ वज्जण जुत्ते, तैथों उत्ते

उठ बुल्लिया उठ यार मना लै

नहीं तां बाज़ी ले गए कुत्ते, तैथों उत्ते।

 

बाबा बुल्ले शाह से हम सब साहित्यकारों को सबक लेना चाहिए कि जब भी हम किसी जानवर को साहित्य में लेकर आएँ तो पूरा आदर देकर लाएँ।

हम मानव पता नहीं क्यों अपने आप को जानवरों से हर तरह उत्तम समझते हैं, जबकि हकीकत यह है कि हम लोमड़ों से ज्यादा चालाक, साँपों से ज्यादा ज़हरीले और शेरों से ज्यादा ख़ूंखार हैं। एक बार राजिंदर सिंह बेदी साहब ने कहा था कि अगर कुत्तों को पता चल जाए कि हम उनकी तुलना बंदों से करते हैं तो वह इतनी बेइज्ज़ती महसूस करें कि हमें फाड़ कर खा जाएँ।

देखो तो हिंदी कवि अज्ञेय साँप से कितने प्यार से बातें करते हैं :

अरे साँप

तुम सभ्य तो हुए नहीं

शहर में बसना भी

तुम्हें नहीं आया

फिर ये डंक कहाँ से सीखा

ये ज़हर कहाँ से पाया?

 

लोमड़ से बात शुरू हुई थी तो मुझे लोमड़ी के बारे में कवि हरियौन की लिखी कविता याद आ गई जो मैंने मंगलेश डबराल की किताब ‘एक बार आयोवा’ में पढ़ी थी :

कुछ साल पहले की बात है

एक बार मैं सुन्न हो गई

लोमड़ी की एक पेंटिंग देखकर

एक जाल में फंसी लोमड़ी

दर्द से कराहती आसमान की ओर देखकर

जीवन में पहली बार

मैंने अपने आप को

फंसे हुए देखा

दुनिया के जाल में

यह बारह पूछों वाली लोमड़ी

जो जहाँ चाहे दौड़ी फिरती थी

पहाड़ों और खेतों में

खेलती खाती

चार ऋतुओं में

अब यह कैद है

कलाकार के जाल में

कितनी देर में खड़ी रही मैं वहाँ पर

बेजान सी

कैनवस में खींच कर लाई गई

उस बेजान सी लोमड़ी को देखती

हैरान होती

रब ने क्यों बना दिया

संसार को अपना जाल?

 

हरियौन की कविता में लोमड़ी और बुल्ले शाह की काफ़ी में कुत्ते तो माने पर बात तो ग़ज़ल की हो रही थी। जिसे बहुत ही नाज़ुक सिनफ़ माना जाता है। वैसे अगर सोचा जाए तो जानवरों का सभी काव्य रूपों में ज्यादा हक तो ग़ज़ल पर ही बनता है क्योंकि इसने तो अपना नाम ही एक प्यारे जानवर हिरन से लिया है। तेरहवीं सदी के फ़ारसी आलम के हवाले से विद्वान बताते हैं कि ग़ज़ल का एक शाब्दिक अर्थ है शिकारियों में घिरे हिरन की दर्दीली पुकार। ठीक है हिरन को पेरशान करने वाले जानवरों की तो ग़ज़ल में मनाही चाहिए ही।

ग़ज़ल का दूसरा शाब्दिक अर्थ है, औरतों से बातचीत। यह अर्थ भी ग़ज़ल की नज़ाकत की ओर ही इशारा करता है। पर अब जब कि औरतें मुक्त हो रही हैं और हर क्षेत्र में हिस्सा ले रही हैं तो उनसे हर विषय पर बात की जा सकती है। तो ग़ज़ल में भी आ सकता है हरियौन की लोमड़ी के साथ लोमड़। शायद साहित्य के लिए कोई भी शब्द, कोई भी वस्तु वर्जित नहीं। कोई जानवर साहित्य में आए तो इस तरह आए कि यूं लगे कि इसके बग़ैर इस रचना का यज्ञ संपूर्ण नहीं हो सकता था।

मैं सोचने के लिए सुरिंदर से कुछ और वक्त मांगता हूँ और उसको कहता हूँ : सुरिंदर तू ग़ज़ल में लोमड़ ज़रूर लेकर आना है? उसे किसी कविता में ले जा। ग़ज़ल की तंग-ज़र्फी से तो ग़ालिब जैसे उस्ताद ग़ज़लगो भी तंग आ गये थे और एक दिन कहने लगे :

बकदरि शौक नहीं ज़र्फ़ तंगहाय ग़ज़ल

कुछ और चाहिए वुसयत मेरे ब्यां के लिए

 

यानी ग़ज़ल का तंग वृत्त मेरे शौक के काबिल नहीं। मेरे बयान के लिए कोई और रूप चाहिए जिसमें मेरे ख़्यालों को समेटने की विशालता हो।

लोमड़ ग़ज़ल के दरवाज़े पर खड़ा है, जैसे ग़ज़ल से पूछ रहा हो :

मे आई कम इन मैडम?

 

पर हज़ारों और खुशफहमियों की तरह यह भी कवियों की एक खुशफहमी ही है। असल में लोमड़ को ग़ज़ल की कोई ज़रूरत नहीं है। उसने ग़ज़ल में आकर क्या करना है? हाँ, ग़ज़ल को और वसीह होने के लिए लोमड़ की ज़रूरत हो सकती है?

मुझे पूरी उम्मीद है कोई शायर होगा जो लोमड़ को पूरी शानोशौकत से ग़ज़ल में लेकर आएगा।

अंकू के नर्सरी गीत

1999 की बात है। अमरजीत ग्रेवाल ‘पंज दरिया’ का संपादन कर रहा था। पंज दरिया का शिक्षा अंक निकालने की योजना बनी। स्कूलों के अध्यापकों से मिलने और आम स्कूल का माहौल देखने के ख़्याल से हम अपने नज़दीक के गाँव बाड़ेवाल के सरकारी स्कूल में गए। वहाँ पंजाबी कवि बलबीर आतिश की पत्नी अध्यापिका थी। उसने हमें बताया कि इस स्कूल में अब प्रवासी मज़दूरों के बच्चे पढ़ते हैं या गाँव के गरीब लोगों के, किसी खाते पीते घर का बच्चा यहाँ पढ़ने नहीं आता। वह सब कान्वेंट स्कूलों में जाते हैं।

मैंने उस स्कूल के आँगन में शीशम की छाँव में बैठी एक साँवली सी लड़की तख़्ती लिखती देखी। वह यू.पी. या बिहार के किसी प्रवासी मज़दूर की बेटी थी। वह तख़्ती पर लिख रही थी : श्री गुरु नानक देव जी का जन्म राय भोय की तलबंडी के स्थान पर हुआ। मिले जुले भावों से मेरी आँखें नम हो गईं। उन दिनों मैंने यह कविता लिखी :

पीछे पीछे रिज़क के

आया नंद किशोर

चलकर दूर बिहार से

गाड़ी बैठ स्यालदा

संग बहुतेरे और

राम कली भी साथ थी

सुघड़ लुगाई नंद की

लुधियाना के पास ही

गांओं बाड़ेवाल में

जड़ें लगीं और अंकुरीं

राम कली का कोख से

जन्मी बेटी नंद की

नाम रखा था माधुरी

कल मैं देखी माधुरी

उसी गाँव के स्कूल में

चोटी बाँधकर रिब्बन में

सुंदर तख़्ती पोंछकर

ऊड़ा ऐड़ा लिख रही

बेटी दंन किशोर की?

कितना गहरा रिश्ता है

अक्षरों का और रिज़क का

इसी गाँव के लाडले

पोत्र अच्छ सिंह के

बैठ बापू की कार में

लुधियाना आते हैं

कौन्वेंट में पढ़ रहे

ए बी सी डी सीखते

पौत्र अच्छर सिंह के?

कितना गहरा रिश्ता है

अक्षर और आकांक्षा?

 

इससे आगे की बात भी एक कविता से ही शुरू करता हूँ :

एक पंजाबी लेखक

आख़िरी साँसें ले रहा था

घर में से सिसकने की आवाज़ें आईं :

हम भी तेरे साथ चिता में जलना चाहती हैं

तेरे बाद हमें इस घर में

किसने पूछना है?

यह आवाज़ें उसके घर में पड़ी

पंजाबी किताबों की थीं...

 

यह कविता काल्पनिक है पर इसके बीच का डर बहुत हद तक सच्चा है। क्योंकि सिर्फ़ अच्छ सिंह के पौत्र ही नहीं बहुत सारे पंजाबी लेखकों की बेटियाँ बेटे भी अंग्रेज़ी स्कूलों में पढ़ते हैं। इसके कई कारण हैं मगर एक कारण यह भी है कि सरकार को अपने स्कूलों की कोई प्रवाह नहीं। रब के घरों को संगमरमर से सजाया जाता है मगर रब के नन्हे मुन्ने बेटों बेटियों के सिरों पर छतें चूती हैं।

कौन पिता यह सहन कर सकता है? रब कैसे सहन करता होगा? सह जाता होगा, जहाँ इतना और कुछ सहन करता है। ज्यादा अध्यापक...। चलो छोड़ो अध्यापकों को कुछ क्यों कहना। जब जल के स्रोत, हमारे सियासी नेता ही इतने गंदल चुके हैं, फिर नदी नालियों के गंदले पानियों को क्यों कोसना?

ख़ैर, पंजाबी लेखक यह ताना सुनकर शर्मिंदे ज़रूर होते हैं कि उनके बच्चे अंग्रेज़ी स्कूलों में पढ़ते हैं। उनको होना भी चाहिए। सियासतदान कोई ताना सुनकर शर्मिंदे नहीं होते। शायद चुनाव हारकर थोड़ा सा ज़रूर होते हों।

मैं अपने हिस्से की शर्मिंदगी अपने सिर पर लेकर इसकी जड़ें तलाश रहा हूँ। यह जड़ें सरकारी स्कूलों के मंदे हाल से लेकर बच्चों के अच्छे भविष्य की झूठी सच्ची उम्मीद तक फैली हुई हैं। रोज़गार के ग़म भी काफ़ी दिलफ़रेब होते हैं जिन की वजह से पंजाबी का मण्डी-मूल्य अंग्रेज़ी के मुकाबिले बहुत कम है :

अंग्रेज़ी वाले सर

जब कोई नया लफ़्ज सिखाते हैं

तो मालूम होता है कि काम आएगा

आलमी मण्डी में यह सिक्का

सम्हालकर रख लेते हैं

पंजाबी वाले सर के लफ़्ज

जैसे कंकड़, कौड़ियां, ठीकरे, घोघे

यह तो

देखकर यहाँ ही छोड़ने वाला माल है

पंजाबी वाले सर तो अजायब घर हैं

अंग्रेज़ी वाले सर टकसाल हैं

 

यह 1984 की बात है। मेरे बेटे अंकुर के कोर्स में नर्सरी राइम्ज लगी हुई थीं। उनके लफ़्ज़ उसे पानी की तरह याद थे पर वह उनके अर्थ नहीं जानता था। मैंने सोचा और नहीं तो इन सारी राइम्ज का पंजाबी अनुवाद ही कर दूँ ताकि अंकू की कल्पना में इन सभी की तसवीरें बन सकें। जानता तो था कि यह बस मायूस कोशिश है क्योंकि इनके बीच की तसवीरें पराई धरती की हैं मगर फिर भी जैसे कहते हैं, समथिंग इज़ बैटर दैन नथिंग, जाते चोर की तड़ागी सही, मैंने उनका अनुवाद किया :

पूसी कैट पूसी कैट

व्येहर हैव यू बीन

आई हैड बीन टू लण्डन

टू सी द कुईन...

(माणो बिल्ली माणो बिल्ली

कित्थे गई से तूं

मैं गई सी लण्डन नूं

महाराणी देखण

माणो बिल्ली माणो बिल्ली

ओथे कीता की

मैंने डराया चूहा

कुर्सी थल्ले बैठा सी)

बा बा ब्लैक शीप

हैव यू ऐनी वूल

यैस सर, यैस सर

थ्री बैग्ज़ फुल्ल...

(कालीए कालीए भेड़े

तेरे कोल उन्न एं

हां जी, हां जी तिन्न थैले

भरे तुन्न तुन्न के

इक मेरे साहब जी दा

इक उनां दी वहुटी दा

इक गली दे मुंडे दा

शैतान दी टूटी दा)

जैक एण्ड जिल्ल

वैंट अप टू द हिल्ल...

(सोनू अते मोनू पहाड़ ते चढ़े

लैण गए पहाड़ उत्ते

पाणी दे घड़े

डिग पिआ सोनू

उहदी भज्ज गई टोटणी

पिछे पिछे मोनू आया

खांदा आया लोटणी)

हार्क हार्क...

(सुनो सुनो जी टौंक रहे

कुत्ते किद्दां भौंक रहे

शहर के वल्ल फ़कीरां ने

पाईआं अज वहीरां ने

गल विच लीरां लमकदीआं

उत्ते टाकीआं कमकदीयां

कईआं गलीं परोल़े ने

मंगण वाले झोल़े ने

देखो देखो कईआं पाए

गली मखमली चोल़े ने)

हिक्करी डिक्करी...

(टिक टिक टक टक

टिक टिक टक टक

पट के चूआ

गया घड़ी तक

जदों घड़ी ने इक बजाया

चूहा दौड़ के थल्ले आया)

 

चार सालों का अंकू नर्सरी राइम्ज का पंजाबी अनुवाद सुनता, कभी गंभीर हो जाता, कभी हँसकर लोट पोट हो जाता। यह पंक्तियां उसे ख़ास करके अच्छी लगीं :

जदो घड़ी ने इक वजाया

चूहा दौड़ के थल्ले आया

उसकी कल्पना झिंझोड़ी गई। वह इस पंक्ति के भाव से मिलती जुलती पंक्तियों का अपने आप सृजन करने लगा :

एक घण्टी बजी तो टी.वी. गिर पड़ा

एक घण्टी बजी तो दीवार गिर पड़ी

एक घण्टी बजी तो टेबुल गिर पड़ा

एक घण्टी बजी तो चेयर गिर पड़ी

 

मैं सोच रहा था यह गीत कहाँ खत्म होगा? एक घण्टी के साथ एक वस्तु गिरती रहेगी। न दुनिया की चीज़ें खत्म हों न यह गीत खत्म हो। पर अंकुर ने कविता का अंत इतना बढ़िया किया कि मैं हैरान हो गया। उसने बहुत सारी वस्तुएँ गिराने के बाद कहा :

एक घण्टी बजी

और घण्टी गिर पड़ी

 

मुझे तीव्रता से एहसास हुआ कि मातृ भाषा क्या चीज़ है, इसकी क्या महानता है। इसमें पढ़ना लिखना हमें कितना रचनात्मक बना सकता है। हमारी कैसी सांझ बनती है, चीज़ों से। कैसी समझ बनती है संसार के बारे में। पर साथ ही मुझे यह भी ख़्याल आया कि बच्चों को रचनात्मक बनाने के लिए उनके कोर्स में लगीं किताबें भी तो रचनात्मक होनी चाहिए।

अंग्रेज़ी माध्यम वाले बच्चों की आठवीं जमात के कोर्स में लगी एक किताब पढ़ रहा था। उसमें एक दिलचस्प कहानी इस तरह थी कि राजे की बेटी बीमार है और ज़िद करती है कि मैंने तो चाँद लेना है। राजा अपने वज़ीरों को बुलाता है। सारे वज़ीर अपनी अक्ल के घोड़े दौड़ाते हैं। कोई चाँद की दूरी का ज़िक्र करता है कोई उसके भार का। कोई यह कहता है कि अगर हम चंद्रमा ले भी आएँ तो राजकुमारी मानेगी नहीं कि यह चंद्रमा है, वह पास से इतना सुंदर नहीं जितना दूर से दिखाई देता है। कहानी के इस हिस्से में कहानीकार बहुत दिलचस्प ढंग से अपने बाल पाठकों को चंद्रमा के बारे में पूर्ण वैज्ञानिक ज्ञान दे देता है। फिर दरबारी मस्ख़रा आता है वह कहता है कि यह तो बहुत आसान काम है। मैं राजकुमारी को चंद्रमा ला दूँगा। वह अमावस की रात को राजकुमारी के लिए बहुत बड़ा चाँदी का चंद्रमा लेकर आता है। धीरे धीरे बीमार बच्ची ठीक होने लगती है। उसकी अक्ल भी बढ़ने लगती है और अंत में वह चाँद की असलियत जान लेती है और अपने बचपन पर हँसती है।

इसके विपरीत हमारी कोर्स की किताबें ‘मैं अपने देश पर ज़िंदगी वार दूँगा’ जैसी रचनाओं से ही भरी होती हैं। कल्पना की इस कंगाली के लिए इन पुस्तकों के संपादक भी जिम्मेदार होंगे, मगर ज्यादा जिम्मेदार हम लेखक हैं जो बच्चों के लिए लिखने के नाम पर अपरिपक्व रचनाएँ लिख रहे हैं; न सुर न ताल न कल्पना न मानसिक स्तर। असल बात तो यह है कि हमारे पास बच्चों और अल्हड़ उम्र वालों के लिए पढ़ने योग्य साहित्य न होने के बराबर है। हम लेखकों को इस तरफ़ ध्यान देना चाहिए।

मनोवैज्ञानिक और भाषा-वैज्ञानिक बेशक बहुत से प्रयोगों का हवाला देकर यह साबित करते हैं कि प्रत्येक बच्चे को पहली चार पाँच जमातों में सिर्फ़ उसकी मातृ-भाषा ही पढ़ाई जानी चाहिए। उसके बाद ही अंग्रेज़ी या कोई और भाषा पढ़ाई जाए। मगर यह बातें गरीब माता-पिता के दिलों को कैसे कायल करें जब कि खाते पीते लोग अपने बच्चों को सिर्फ़ अंग्रेज़ी पढ़ा रहे हों। वह सोचते हैं अंग्रेज़ी उनका तो कुछ नहीं बिगाड़ती बल्कि संवारती ही है, फिर यह हमें क्यों कहते हैं कि माँ-बोली जे भुल्ल जाओगे कक्खां वांगूं रुल जाओगे (मातृ-भाषा, अगर भूल जाओगे तो तिनकों की तरह रौंदे जाओगे।) वह तो हम पहले ही रौंदे जा रहे हैं, मातृ-भाषा को न भूलने के बावजूद।

इस सीना-बींधने वाले सवाल का जवाब क्या है?

शायद यह कि पंजाब में बहुत बड़े स्तर पर शिक्षा सुधार की लहर चले। सरकारी स्कूलों की सूरत और सीरत का कायाकल्प हो। वहाँ प्रोफैसरों जितनी तनख्वाह देकर बहुत ही योग्य अध्यापक भर्ती किए जाएँ जो बालकों के कोमल मनों में प्यार और ज्ञान के अक्षर बो सकें। मातृ-भाषा को सर्व प्रथम जगह दी जाए। निजी और सरकारी स्कूलों दोनों में मातृ-भाषा को इसका रुतबा दिया जाए। हिन्दी और अंग्रेज़ी को भी उनका योग्य स्थान दिया जाए। कोर्स की किताबों की रचनाएँ सही अर्थों में कलामय, कल्पनाशील और संवेदनशील हों। सारे पंजाब, बल्कि समूचे भारत में एक तरह की शिक्षा नीति लागू की जाए। यह निश्चित किया जाए कि बारहवीं (प्लस टू) तक प्रत्येक विद्यार्थी के लिए एक जैसी सहूलतें हों। उसके बाद ही दाखिले के मुकाबिला शोभा देते हैं। ऐसी शिक्षा लहर में मापे (अभिभावक) ज़रूर लेखकों के साथ होंगे, वह मटका चौक में अकेले नहीं बैठे होंगे और न ही आख़िरी साँस लेते वक़्त किसी लेखक को यह आवाज़ सुनाई देगी :

हम भी तेरे साथ चिता में जलना चाहती हैं

हमें तेरे बाद इस घर में

कौन पूछेगा?

 

संगीत

मालवे के प्रसिद्ध सारंगीनवाज़ मोदन सिंह नगीना की महिमा महाराजा तक पहुँची। महाराजा ने कासिद भेजा। कासिद मोदन सिंह के पास आया, कहने लगा : मोदन सिंआं, महाराज तेरी सारंगी सुनना चाहते हैं। मोदन सिंह हँसा, कहने लगा : ‘‘हला (अच्छा)! महाराजा को सारंगी सुनना आती है?’’ कासिद हैरान हुआ, कहने लगा, यह है तो सुना था कि भई किसी को सारंगी बजाना आती है कि नहीं है, पर यह बात तो पहली बार सुन रहा हूँ कि सारंगी सुनना भी आती है कि नहीं। मोदन सिंह कहने लगा : हाँ, हज़ूर यह भी बात होती है। तुम आज़मायश कर लेना। किसी कोने में रेत बिछा देना। मैं सारंगी पर ‘‘सस्सी’’ बजाऊँगा। अगर महाराज को सारंगी सुनना आती हुई तो रेत पर सस्सी के नंगे पैरों के निशान दिखा दूँगा। अगर न सुनना आती हुई तो रेत उड़ उड़ कर सब की आँखों में पड़ेगी।

अगर सुनना आता हो तो खंड ब्रह्मंड भी गाते हैं :

गावनि तुधनों खंड मंडल ब्रह्मंडा करि करि रखे तेरे धारे॥

(तुझको खंड मंडल ब्रह्मांड भी गाते हैं, जो तेरे बनाए हुए हैं)

यह तो ख़ैर गुरु-वाक्य है। लोक-वाक्य भी यही गवाही देता है :

बिरखां दा गीत सुण के

मेरी रूह विच चानण होया

(वृक्षों का गीत सुनकर

मेरी रूह में रोशनी हो गई)

 

2

वैसे तो सारे भगत कवि संगीत से बहुत गहरे जुड़े हुए थे। किसी के हाथ में एकतारा था, किसी के पाँव में घुंघरू थे। अनाहत नाद (वह संगीत जो बिन बजाए बजता है) हर भगत की उच्चतम मंज़िल थी। भगत नाम देव लिखते हैं : मैं एन अनमढ़ा मृदंग बजता सुन रहा हूँ :

अणमढ़ेया मंदल बाजै

बिन सावण घनहर, गाजै

बादल बिन बरखा होई

जउ तत विचारै कोई

(एक अनमढ़ा मृदंग बज रहा है

सावन के बिना घनहर गर्ज रही है

बादल के बिना बरसात हुई है

अगर कोई तत्व में ध्यान दे)

 

पर नानक के दर का संगीत से और भी बहुत गहरा रिश्ता है। ‘जनमसाखी’ में जगह जगह पर यह वाक्य आता है : मरदाना रबाब बजाओ। मरदाने रबाब बजाया। गुरू नानक ने राग में शब्द उठाया। बेशक सारी दुनिया ही संगीत को प्यार करती है, सारी मानवता ही सुरों और शब्दों के संगम से मोहित होती है। पर गुरु ग्रंथ साहब में सुर और शब्द एक सदैव संजोग में जुड़ गए हैं। इस बाणी का प्रत्येक शब्द किसी राग से प्राणाया हुआ है। गुरबाणी में संगीत सिर्फ़ कला नहीं, दर्शन है। यह राग नाद शब्द उस अनाहत से जोड़ने के लिए हैं जो सारी कायनात में विद्यमान हैं और जो सिर्फ़ उन पावन मनों को सुनाई देता है जो नाद से एकसुर होते हैं। गुरबाणी में मिथ्यों का खंडन है पर संगीत को बहुत ऊंची जगह प्राप्त है क्योंकि मिथ्य तर्कहीन या तर्क विरोधी हुए बगैर तर्क से पार नहीं जा सकती। पर संगीत तर्क का विरोधी हुए बगैर तर्क से पार जा सकता है।

गुरू नानक बाणी में ब्रह्मांड वृंदगान का अनूठा दृश्य है, इस में गावनहारे (गायक) और वावनहारे (साज़िंदे) शामिल हैं, इस में पवन, पानी और अग्नि भी गा रहे हैं :

सो दर् केहा सो घरु केहा जितु सरब समाले॥

वाजे तेरे नाद अनेक असंखा केते तेरे वावनहारे॥

केते तेरे राग परी सिउ कहीअहि केते तेरे गावनहारे॥

गावनि तुधनो पवणु पाणी बैसंतरु गावै राजा धर्मु बीचारे॥

गावनि तुधनो ईसरु ब्रह्मा देवी सोहनि तेरे सदा सहारे॥

गावनि तुधनो इंद्र इंद्रासणि बैठे देवतिया दरि नाले॥

गावनि तुधनो सिद्ध समाधि अंदर गावनि तुधनो साध बीचारे॥

गावनि तुधनो जती सती संतोखी गावनि तुधनो वीर करारे॥

गावनि तुधनो पंडित पढ़न रखीसुर जुगु जुगु वेदा नाले॥

गावनि तुधनो मोहणिया मनु मोहन सुरगु मछु पइयाले॥

गावनि तुधनो रतन उपाये तेरे अठसठि तीर्थ नाले॥

गावनि तुधनो जोध महाबल सूरा गावनि तुधनो खाणी चारै॥

सेई तुधनो गावनि जो तुधु भावनि रत्ते तेरे भगत रसाले॥

होर केते तुधनो गावनि से मैं चिति न आवनि नानक क्या बीचारे॥

 

अनुवाद :

वह घर कैसा है वह दर कैसा है जिसमें सर्वजन बैठते हैं॥

तेरे अनेक नाद बजते हैं अनेक असंख्य तेरे साज़िंदे हैं॥

कितने तेरे राग हैं कितने तेरे गायक हैं॥

तुझको पवन पानी अग्नि और धर्म द्वार में राजा गाता है॥

तुझके बारे में चित्रगुप्त लिखता है धर्म लिख लिख कर विचार करता है॥

तुझको ईश्वर ब्रह्मा देवी गाते हैं तेरे दरवाजे पर देवियाँ हमेशा सजती हैं॥

तुझको इंद्र इंद्रासन पर बैठा देवतों के साथ दरवाजे पर गाता है॥

तुझको सिद्ध समाधि अंदर गाते हैं और साधु भी गाते हैं॥

तुझको जती सती संतोषी और करारे वीर गाते हैं॥

तुझको पंडित और सुरों के ऋषि युग युग से वेदों में पढ़ते हैं॥

तुझको मोहनियाँ मनमोहने वाली और स्वर्ग में और पाताल में मच्छ गाते हैं॥

तुझको रतनों से जड़ित आठसठ तीर्थ भी गाते हैं।।

तुझको योद्धे और महाबली शूरबीर भी गाते हैं।

तुझको खंड मंडल ब्रह्मांड, जो तुम्हारे सृजे हैं, भी गाते हैं॥

तुझे वही गाते हैं, जो तुम्हें अच्छे लगते हैं, तेरे रंग में रंगे भगत रसाले॥

और भी तुझको गाते हैं, जो मेरे चित में नहीं आते हैं, नानक क्या बीचार करे॥

3

सुनो, प्रसिद्ध वैज्ञानिक, आईनस्टाईन क्या कहता है :

बीधोवन संगीत की रचना करता था, उसे ईजाद करता था। पर मोज़ार्ट इतना पावन था कि उसका संगीत सुनते समय ऐसा लगता था कि यह संगीत ब्रह्माण्ड में हमेशा से था, इंतज़ार कर रहा था मोज़ार्ट का, कि वह आए और उसे ढूंढ ले। बीधोवन का संगीत आविष्कार (पदअमदजपवद)है और मोज़ार्ट का संगीत खोज (कपेबवअमतल)।

आईनस्टाईन भौतिक विज्ञान के बारे में भी यही कहता है : दृष्टि और सिद्धांतों से पार मंडलों का संगीत था, जिस में मुझे युगों युगों से चिन्हित हुई एकसुरता मिली और उस एकसुरता में हैरान करने वाली तरतीबें।

4

जो ब्रहमंडे सोई पिंडे॥

(जो ब्रहमाण्ड में वही काया में है)

कबीर जी अपनी ही रगों का राग सुनते हैं। वह कहते हैं :

मेरा सारा वजूद रबाब है

रगें मेरी तारें हैं

विरह उन्हें बजाता है

इनकी आवाज़ मेरा साईं सुनता है

या मेरा चित :

(कबीर सब रंग तंत, रबाब तन

बिरहा बजाए नित्य

और न कोऊ सुन सके,

या साईं या चित्त)

 

भगतों सूफ़ियों की देहियाँ संगीतक देहियाँ हो जाती हैं। भगत तो भगत वारिस शाह की हीर देही भी संगीतक देही हो चुकी है :

इशक बोलता है

राग निकले ज़ील की तार में से

उसके सुंदर वजूद के रोएं रोएं में

जैसे ज़ील की तार से राग निकलता है

(इशक बोलदा मढ्ढी दे थांओं थाई

रोग निकले जीत दी तार विचों)

5

सुंदर

असल में हर बंदा ही साज़ है

खुशी, उदासी, प्यार, नफ़रत, कामना, मोह, करुणा, अहंकार, ख़ौफ़, चाव, संताप, परमानंद। यह उस साज़ की सुरें हैं।

दुनिया में कहीं चले जाओ

हर कौम देश धर्म के बंदे की यही सुरें होंगी।

यही बंदे की आदि युगादि सरगम है। इसीलिए साहित्य किसी भी काल में किसी भी देश में रचा गया हो, वह हर देश काल के मानव को झिंझोड़ता है क्योंकि उसका संबंध, बाकी सब सरोकारों से ज़्यादा मानव-मन की विश्वव्यपी और आदि युगादि सरगम से होता है।

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भाषा और संगीत का स्रोत नाद है, यह दोनों मानव के वजूद की थरथराहट से बने। भर्तृहरि ने कहा : हमारा हर अनुभव हमारे वजूद को थरथराहट देता है। शब्द बनने से पहले हर शब्द एक थरथराहट ही था। प्रा, पश्यंती, माध्यमा और वैखरी अवस्थओं में से गुजरकर यह थरथराहट शब्द बनती है :

संगीत भी बंदे के वजूद की थरथराहट से पैदा हुआ, निःशब्द आवाज़ के रूप में।

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भाषा के पास लाख करोड़ शब्द हैं

संगीत के पास गिनती की सुरें हैं।

भाषा भावों के साथ साथ विचार, विश्लेषण और काम काज के साथ भी जुड़ गई, संगीत सिर्फ़ भावों के साथ जुड़ा रहा।

इसलिए शब्द अनेक बन गए, सुरें उतनी ही रहीं। भाषा ने अपने आप को अदृश्य संसार के साथ साथ दृश्य संसार से भी जोड़ लिया, हर एक चीज़ का नाम रखा। हमारे देखते देखते बाहरला संसार कितना बदल गया। कितना कुछ नया आ गया। पर भीतर के संसार में वही कुछ रहा : खुशी, उदासी, प्यार, नफ़रत, कामना, मोह, करुणा, अहंकार, ख़ौफ़, चाव, संताप, परमानंद। इसी लिए भाषा के पास नित्य दिन बढ़ रहे लाख करोड़ शब्द हैं। संगीत के पास वही गिनती की सुरें। मगर गिनती की सुरें अनंत तर्ज़ें सृजती हैं।

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शब्द अपने जन्म के स्रोतों से दूर होते गए। हम भूल गए कि शब्द हड़ताल हाटों को ताले लगने से बना है। पर संगीत अपने स्रोतों से जुड़ा रहा। संगीत गाने के वक्त हमारा पूरा वजूद शामिल होता है। शरीर साज़ बन जाता है :

एक साज़ रगों का साज़िंदे पास था

गज़ की तरह उस पर फिर रहा अपना ही श्वास था

ग़ालिब यों ही नहीं कहता था :

पुहूं शिकवे से, ऐसे राग से जैसे बाजा

इक ज़रा छेड़िए फिर देखिए क्या होता है

गायन ऐन्द्रियक (ेमदेनवने) होता है पर बहुत गुप्त और पावन।

मैं गाता हूँ....

गायन

एक कर देता है

मन तन रूह को

तर्क अतर्क को

मानव कुदरत को

भाषा अभाषा को

अर्थों से बेमोहताज

आज़ाद

सृजता है संसार

जो हो सकता है

भाषा से पार

या जो

भाषा में कहा

लगे बहुत अजीब

जिसने आना है अभी भाषा में

वह सुलग रहा है

मेरे गायन में

भाषाा और अभाषा के दरम्यान

वह है मेरे गायन में

जो तड़पता है अभी

तन मन

प्रकृति और संस्कृति के दरम्यान

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संगीत का संसार मूल रूप में भावों का संसार है, सूचना का संसार नहीं। बेशक ढोलों की आवाज़ से अफ़रीकन लोग अलग अलग संदेश देने का काम भी लेते रहे हैं पर यह काम ढोलों ने तब तक ही किया जब तक संदेश भेजने का कोई बेहतर तरीका नहीं था। पर ताल देने का काम ढोल सदियों तक करते रहेंगे।

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सुरों का प्रत्येक संयोग सुरीला नहीं होता। सुरों का कौन सा संयोग सुरीला होगा और कौन सा बेसुरा। यह बहुत बड़ा रहस्य है।

11

संगीत सारी मानवता की एकता के बहुत बड़ा प्रमाण है क्योंकि सारे विश्व में वही सुरें हैं। एक दूसरे से अनजान पले सभ्याचारों में भी संगीत के सुरीले संयोग एक से हैं।

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बिजली चली गई थी

जैसे जानबूझकर।

दरख़्तों के गले लगी हुई थी

गहरी साँवली संध्या

मोमबत्ती की लौ में

रसोई छनक रही थी

माँ की चूड़ियों से

पिता की आदत थी

बिजली चली जाती तो वह

किताब छोड़कर

हार्मोनियम की सुरें छेड़ लेते

आज भी ऐसे ही हुआ

अंधेरे में हार्मोनियम की सुरें घुलने लगीं

और अंधेरे की लौ में

वह आई चुप चाप चोरी चोरी

मुझे ढूंढती

जैसे पंछी शाम को ढूंढते घोंसले

वह आई

और मेरे पास खड़ी हो गई

नंगे पांव

अंधेरे में

उसका चेहरा

जैसे चाँद डोलता हो

नीले पानी में

वह आ गई मेरे बहुत करीब

मेरा दिल धड़का

पिता को

जैसे पता हो

उन्होंने छेड़ दीं

हार्मोनियम पर

एक दूसरी में घुलतीं तरंगों जैसी सुरें

जब तक

सुरें बजती हैं

तब तक पिता अंदर हैं

अंधेरे में

सुरें बजा रहे

सुरें जो दे रही हैं

हम दोनों को प्यार

हमें कर रही हैं

पास पास सुरें

हम दोनों को

आशीष दे रही हैं सुरें

कभी दूर न होना

कह रही हैं सुरें

तुम फूल हो प्यारे

कह रही हैं सुरें

तुम तरंगें हो

तुम मेरे चिराग़ हो

मेरे गीत की सुरें हों तुम

कह रही हैं सुरें

पिता जो बात

बोलकर कभी न कह सकते

सुरों में कह रहे हैं

बहुत साफ़

लफ़्ज़ों में कहते

तो उलझ जाते

अटक जाते

झिझक आते

सुरों में कह रहे हैं

बहुत साफ़

शफ़्फ़ाफ़

बिना उलझन

बिना झिझक

बिना ख़ौफ़

और इतने प्यार से

जैसे वह समंदर हों और हम तरंगें

जैसे वह सुरें हों

और हम राग

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मज़ाक से कहा जाता है कि सिर्फ़ कव्वालों की आवाज़ रब को सुनाई देती है।

कव्वाली इतना ऊँचा गाते हैं कि अपनी आवाज़ से सितारों को छू लेते हैं।

अमृतसर विरासत मेले की बात है

कव्वाल गा चुके थे

मंच संचालक ने कहा : अब जगजीत सिंह गाएँगे।

मैंने सोचा अब जगजीत सिंह क्या करेंगे, कव्वाल तो सितारों को छू चुके हैं।

जगजीत सिंह आया

उसने धीमी सुरों में आलाप लिया

मनों के पानी ऐसे निथर गए

कि सितारे ज़मीन पर उतर आए

मनों के पानियों में॥

 

एक नाटक का आलेख

कवि लिखता है :

‘‘मेरे साथ ऐसा कुछ नहीं हुआ

पर मेरे अंदर भी एक भरथरी कांपता है

क्या पता हुआ ही हो’’

तोता मैना के किस्से में एक किस्सा मैना सुनाती है पुरुष की बेवफ़ाई का। एक किस्सा तोता सुनाता है नार की बेवफ़ाई का।

लूणा सलवान से बेवफ़ाई करती है

कोकिलां रसालू से

पिंगलां भरथरी से

मगर लूणा कोकिलां पिंगलां...

पता नहीं इनके पति राजाओं की और कितनी कितनी रानियां थीं। इनकी बेवफ़ाई क्या बेवफ़ाई है!

 

मगर जिस नाटक के आलेख की मैं बात करने लगा हूँ और जो दक्षिणी अफ्रीका की लेखिका कैन थेम्बा की कहानी पर आधारित है, उसकी नायिका सचमुच अपने पति से बेवफ़ाई करती है।

नीलम मान सिंह चौधरी का शुमार इस वक्त भारत के तीन चार सबसे बड़े नाटक निर्देशकों में होता है। वह अंग्रेजी स्कूलों में पढ़ी हुई हैं और उच्च वर्ग के लोगों में रहने वाली

बहुत रोशन ज़मीर नाट्य-निर्देशिका हैं, हर वक्त नाटकीय सर्जन-शक्ति से प्रज्ज्वलित और बेचैन। वह नाटक मंचन पंजाबी में करती हैं। उनकी नाटक मंडली के लिए मैंने बहुत से रूपांतरण किए, कई कहानियों के नाटक बनाए, सखियो री मैं अंतहीन संध्या, नीचे बहे दरिया, नाग लीला, किचन कथा, सीबो इन सुपरमार्कीट। मैं अक्कर कहता हूँ : नीलम के सारे नाटक एक्सपोर्ट क्वालिटी के होते हैं। लंडन, टोकियो, पैरिस के बहुत बड़े नाटक उत्सवों में नीलम ने अपने पंजाबी नाटकों से भारत की नुमाइंदगी की। नीलम अपने नाटकों में बिंब सर्जन की माहिर हैं। उनके साथ काम करना मुझे बहुत अच्छा लगता है क्योंकि काम करते आप से संचार कर रही होती है या अपने जैसे लोगों के साथ। इस बार मैं जिस कहानी का नाटक बना रहा था, उसका नाम है : सूट।

मियां बीवी हँसी खुशी से ज़िंदगी बसर कर रहे हैं। चुलबुला सा पति अपनी पत्नी को प्यार करने वाला, उसके नाज़ नख़रे उठाने वाला।

मैंने नाटक का आरंभ इस तरह किया : पति सुबह जाग पड़ता है, पत्नी अभी सोयी हुई है। वह उसे जगाता नहीं, चाय बनाता है और अपने आप से बातें करता है :

‘‘ज़रा और सो ले। सोई हुई यह मुझे बहुत अच्छी लगती है और भी मासूम, शान्त और तृप्त। मैंने इसे सोई हुई को कभी जगाया नहीं। सिर्फ़ एक बार जगाया था। उस रात हम किसी बात पर नाराज़ हो गए थे। यह रोती रोती सो गई थी। मैं देर तक जागता रहा था। मुझे अचानक किसी का शेयर याद आया :

वह जो प्यासा सो गया है

उसे चूमकर जगा लो

कहीं ख़्वाब जगह जगह भटकता न हो

मैंने इसको चूमकर जगा लिया और वह मुस्कुरा कर फिर सो गई।

कई बार कोई तुम्हारे कितना पास सोया होता है, तुम्हारे साथ सटकर। पर तुम्हें क्या पता कि वह अपने सपनों में कहाँ हो। वह किसी ने कहा है न :

बहुत करीब सही फिर भी फासिला रखना

मिलन की रात में भी हिजर जागता रखना

वह तेरे पहलू में ही सोया हुआ है बेशक

कहाँ वह होता है ख़्वाबों में कुछ पता रखना

एक बार इसने भी मुझको सोये हुए को अचानक जगा लिया था। यह सपने में डर गई थी। कहने लगी : मुख़्तार कोई उजाड़ बियाबान था। मैं अकेली डर गई थी। मैंने तुझको बहुत आवाज़ें दीं : मुख़्तार! मुख़्तार! पर तुम कहीं से न बोले। तुम कहाँ चले गए थे।

यह क्या इसका कसूर था कि मेरा? मैं क्यों नहीं था इसके ख़्वाब में? मुझे क्या पता था कि इस ख़्वाब में कैसे ऐंटर करूँ?

मैं बस दुआ ही कर सकता हूँ कि इसके साथ मैं ही सोऊं

इसके ख़्वाबों में भी मैं ही होऊं

रब जी मैं तो तुझसे यही मांगता सवेरे सवेरे।

ख़ैर, इसके ख़्वाब में ऐंटर करने का यही तरीका है कि चाय का प्याला लेकर इसकी नींद के दरवाजे पर दस्तक दी जाए।

(बीवी के लिए चाय लेकर जाता है।)

जागो मोहन प्यारे

जागो ये चादर के बादल हटाओ

चांद सा मुखड़ा हम को दिखाओ

चाय का प्याला पुकारे

जागो मोहन प्यारे’’

कोरस में से एक जना दर्शकों को संबोधित होता है :

‘‘साहिबान! इस हँसी खुशी से गुज़र बसर करती दम्पत्ति में से किसी को भी नहीं पता कि ऊपर सितारे इनके बारे में क्या मशवरे कर रहे हैं। आज जिस बस पर सवार होकर मुख़्तार काम के लिए जाएगा, वही होगी जो कल थी। तकरीबन वही सवारियाँ होंगी जो कल थीं। वही सड़क होगी जो कल थी, वही होगा बेबाक स्वभाव वाला बावा इक्बाल, मुख़्तार का कई वर्षों के साथी, पर आज उसके बोलों में थोड़ी सी झिझक होगी। वह थोड़े कांपते से बोलों में मुख़्तार से एक ऐसी बात कहेगा कि मुख़्तार के लिए सितारे स्याह हो जाएंगे, चाँद काला हो जाएगा, घर में लगी फूलों की बेल नागिन हो जाएगी, पेड़ चलने लगेंगे।’’

पीला प्रेत बना मुख़्तार अपने घर जाएगा। अपने ही घर में चोरों की भांति प्रवेश करेगा, खिड़की द्वारा।

उसके पैरों की आहट सुनकर उसकी पत्नी के पास से कोई ग़ैर मर्द नाग की भांति दौड़ जाएगा पर वह अपनी केंचुली वहीं छोड़ जाएगा, अपना सूट।

मुख़्तार उस सूट को उठा लेता है और कहता है :

‘‘बावा इकबाल मुझे बस में कहने लगा : बेटा, मेरा यकीन करना। मेरे वश में होता तो मैं यह बात तुम्हें कभी न बताता पर तेरी ताई ने मेरा जीना हराम कर दिया था। मुझे प्रतिदिन पूछती थी तुमने मुख़्तार को उसकी पत्नी के बारे में बताया कि नहीं। बावा इकबाल के चेहरे पर, जैसे कि कहते हैं, एक घायल मुस्कान थी। उसके माथे पर से एक परछाई गुज़री और वह कहने लगा : मुख़्तार बेटा मुझे लगता है तेरी गैर हाज़िरी में कोई ग़ैर मर्द तेरे घर आता है।’’

(उपरोक्त जो कुछ मैंने लिखा, कहानी तो कहानीकार की है, पर बयान मेरा है। मुख़्तार नींद से जागकर क्या बातें करता है, यह भी मैंने स्वयं सोचीं। पर आगे जो मैं लिखने लगा हूँ वह बिलकुल कहानीकार का है। जब मुख़्तार बावा इकबाल के मुँह से अपनी बीवी के बारे में यह बात सुनता है तो उस पर क्या गुज़री, यह बयान मैंने कहानीकार से ही लिया है। मुख़्तार बताता है (कहानीकार के ही शब्दों में) :

‘‘यह ख़बर मेरे लिए बम फटने की भांति नहीं थी। किसी अत्यंत कोमल मैकेनिज़्म के ब्रेक डाउन की भांति थी। बाहर से सिर्फ़ यही लगता था कि कोई मशीन मर गई है। पर अंदर गहरे कोनों में कोई चीज़ जगह जगह चिंगारियां छोड़ रही थी, एक तार से दूसरी तार तक फुदकती कोई पिघली हुई उबलती घातु ईंधन की टंकी के ऊपर से चू रही थी। कितनी गरारियां मैंने अपने दिमाग में गरर गरर करती और चींखती सुनीं।’’

(यह बयान मुझे बहुत आर्कषक लगा और कलामय भी। मुख़्तार जो पेशे से मैकेनिक है, वह इसे इस तरह ही बयान कर सकता है। मेरे पास इससे बेहतर कुछ नहीं था, मैंने इसे इस तरह ही रखा।)

इससे आगे कहानी यूं चलती है कि मुख़्तार अपनी पत्नी को कुछ नहीं कहता, सिर्फ़ यही कहता है कि आज से यह सूट हमारा मेहमान होगा। अब यह हमेशा हमारे साथ रखेगा।

यह कैसा प्रतिकर्म है?

कोरस में से एक दूसरे से पूछता है : अगर तुम्हारी पत्नी तुम्हारे साथ यूं करे तो तुम क्या करोगे?

...मैं उसकी हत्या कर दूंगा या फिर आप मर जाऊंगा। नहीं मैं कुछ नहीं करूंगा, मैं भर्तृहरि की तरह संन्यास ले लूंगा और सारी उम्र सोचूंगा कि ज़िंदगी क्या है वफ़ा क्या है, प्यार क्या है?

मुख़्तार इनमें से कुछ भी नहीं करता। वह अपनी पत्नी से कहता है : इस घर में कोई हिंसा नहीं होगी। मैं सिर्फ़ यही कहता हूँ कि तुम इस मेहमान का ख़्याल रखोगी, पूरी मान मर्यादा से।

यहां कोरस अपने गीत से मुख़्तार के प्रतिकर्म को समझने की कोशिश करता है :

सुना

जो कभी सुना न था

देखा

जो कभी देखा न था

मेरे सोये सोये समयों में

पहला जागा हुआ पल मेरा

एकढंके ढंके से जीवन में

एक नंगा दिन व्याकुल मेरा

इस दिन को मैंने जाने नहीं देना

इस सूरज को अस्तने नहीं देना

इसको उठाये रखना है हाथों पर

इसकी आग में पल पल जलना है

इसका दफ़न कफ़न नहीं करना है

(सूट को हाथों में उठाकर)

यह वेश है, केंचुली है, क्या है यह

यह भूत है, प्रेत है, क्या है यह

यह खाल है, चर्म है, क्या है यह

यह किसकी लाश है, क्या है यह

यह है मेरा आहट अहंकार

यह मेरा मरा हुआ पौरुष है

इसका दफ़न कफ़न नहीं करना

इसकी आग में पल पल जलना

 

इसके बाद वह सूट हमेशा उनके साथ रहता है। खाने के वक्त मिन्ना (पत्नी) को उसे खाना परोसना पड़ता है। कुर्सी पर सूट को ऐसे टांगना पड़ता है कि वह किसी आदमी की मौजूदगी सा लगे। कभी कभी मुख़्तार के कहने पर मिन्ना सूट को बाहर घुमाने को भी ले जाती है। मिन्ना के लिए यह सब निरादर पूर्ण है। पर धीरे धीरे वह इसकी आदी हो रही है।

मिन्ना ने मुख़तार से बेवफ़ाई क्यों की? इस बारे में कहानीकार चुप है। मुझे बरटन्ड रस्सल याद आता है जो भविष्य के विवाहों में ऐसे सम्बंधों को जायज़ ठहराता है। इस का विचार है कि ऐसे सम्बंध ही विवाह की प्रथा को मालिकी की भावना से मुक्त करेंगे। मार्क्स याद आता है जो परिवार के सिस्टम को तोड़ने का हामी है। सार्त्र और सिमोन याद आते हैं अपने अनेक सम्बंधों समेत। ग़ज़ल याद आती है :

दिल में रह रह के किसी का जो ख़्याल आता है

यह बुरी बात है ख़्याल यह भी तो साथ आता है।

मैं हूँ वह नींद-नदी, जिस में हैं ऐसे सपने

ख़ौफ़ आता है किनारे पे जो जाल आता है

है बहुत ऊंचा सदाचार का गुंबद, फिर भी,

डूब ही जाता है जब मन में उछाल आता है

क्या तेरा मन भी है बेसिदक मेरे मन जैसा

कांप जाता हूँ जो जी में यह सवाल आता है

 

इस बारे में कहानीकार चुप है। मिन्ना भी चुप है। वह फिर कभी उस पराए पुरुष को याद करती जो उसके लिए उदास भी दिखाई नहीं देती। पर मेरे आलेख में इक दिन वह इस बारे में सोचती है कि उसने यह क्यों किया : शायद मैं मुख़तार से प्यार नहीं करती... शायद मुख़तार मुझ से प्यार नहीं करता, शायद... पता नहीं जब वह अपने आपसे बातें करती है तो कोरस गाता है :

चुप कर सखी री चुप कर

सागर की गहराई के पास

थाहरे छिछले बोल न बोल

सूरज चाँद सितारे जलते

यह धूली मत फोल

चुप कर सखी री चुप कर

बोलें तो

सच झूठा हो जाता है

सागर से जो क़तरा निकले वह

जूठा हो जाता है

चुप कर सखी री चुप कर

रहने दे ढंके चाँद सितारे

रहने दे ढंकी नदियां

पल भी हमारी समझ न आया

बीत बीत गई सदियां

चुप कर सखी री चुप कर

पल पल पावन, पल पल गंघला

अब ताज़ा अब बासी

माटी का क्या धोप स्वामी

मानस की गत एहा

चुप कर सखी री चुप कर

अपनी काया ही है सूली

अपनी होंद कसूर

चुप मुनसिफ़ का हुकम मानकर

मर जाना मंज़ूर

चुप कर सखी री चुप कर

ए माटी में दफ़नाई माटी

फूल पत्तियां बन खिल जा

ये ही तेरा वेश री कन्या

ये ही तेरी नग्नता

चुप कर सखी री चुप कर

पहन ले फिर से वेश रंगीले

पावन तेरा खिलना

एक आँसू में धोए जाना

और क्या तीर्थ करना

चुप कर सखी री चुप कर।

 

सोचता हूँ लाशों का कफ़न दफ़न कर देना चाहिए अपने आंसुओं में धोये गए बंदों को माफ़ कर देना चाहिए। शुरू में मिन्ना दोषी मालूम होती है। पर अंत तक पहुँचते हुए मुख़्तार दोषी मालूम होने लगता है। वह प्रत्येक खाने के वक्त सूट को याद रखता है। अगर मिन्ना भूल जाए या जान बूझकर भूलना चाहे तो वह कानाफूसी करता है :

मिन्ना, अपना मेहमान?

अगर मिन्ना फिर भी उठकर सूट को मेज़ कुर्सी पर हाज़िर न करे तो वह इस तरह गर्जता है कि मिन्ना ज़ड़ों तक काँप जाती है। कई बार मिन्ना सोचती है कि वह इस घर को छोड़कर चली जाए। पर सोचती है कहाँ जाए?

मिन्ना अपनी ज़िंदगी को अर्थ देने के लिए औरतों का एक क्लब ज्वाइन कर लेती है। उसका फौर्म भरने के वक्त यह व्यंग्यात्मक गीत चलता है :

तुम्हारा नाम क्या है?

तुम्हारे नाम पर इल्ज़ाम क्या है?

तुम जन्मे कब थे?

कब मरोगे?

दोगे दर्द कितने दुःख सहन करोगे?

पति का नाम क्या है?

तुम्हारे दोनों के दरम्यान झगड़ा आम क्या है?

कोई संतान है या कि नहीं है?

तुम्हारे रिश्तों में जान है या कि नहीं है?

तुम्हारा शौक क्या है, शग़ल क्या है?

तुम्हारे जीने के क्या हैं बहाने

तुम्हें मरने में उज्र क्या है

 

और फिर आती है वह आख़िरी शाम जब मिन्ना के लिए ज़िल्लत और अपमान की इंतहा हो जाती है। मिन्ना अपने क्लब की सहेलियों को पार्टी पर बुलाती है।

मिन्ना टेबुल सजा रही है।

मेहमान आ रहे हैं

मेहमान कुर्सियों पर बैठ जाते हैं। खाना शुरू करने लगते हैं मुख़्तार मिन्ना की ओर रमज़ भरी निगाहों से देखता है। मिन्ना उससे नज़र बचाने की कोशिश करती है। मुख़्तार उसके कानों में घुसर पुसर करता है : अपना ख़ास मेहमान।

मिन्ना कहती है : प्लीज़ मुख़्तार आज रहने दो। बस आज एक बार।...

जब मिन्ना फिर भी नहीं उठती तो, वह गर्जता है : अब तुम्हें उससे शर्म आती है?

मिन्ना डर से पीली ज़र्द हो जाती है। उठती है, सूट को लाकर कुर्सी पर सजा देती है और उसके आगे खाना परोस देती है। सारे मेहमान हैरान हो जाते हैं फिर अचानक बोलने लगते हैं :

यह क्या हो रहा है?

यह सूट के आगे खाना परोसने का क्या मतलब?

इसका क्या मतलब?

मुख़्तार कहने लगा : मिन्ना से पूछो। वही इस शख़्स को सबसे ज्यादा जानती है।

कुछ पल तो मिन्ना कुछ बोल न सकी। फिर बेयकीन ढंग से कहने लगी : यह बस एक खेल है जो मैं और मुख़्तार खाना खाने के वक्त हर बार खेलते हैं।

सारे ऊंची ऊंची हँसने लगे और खाना खाने लगे।

खाने के बाद नृत्य शुरू होता है। सब नाचने लगते हैं। अपने अपने साथी के साथ। मुख़्तार और मिन्ना भी नाचने लगते हैं। मुख़्तार के मन में पता नहीं क्या आया, वह सूट को उठा लाया। और सूट को मिन्ना के साथ नचाने लगा।

मूल कहानी के मुताबिक इस पार्टी से अगली शाम जब मुख़्तार काम से वापस आता है तो मिन्ना अपने बिस्तर पर मरी होती है।

पर हमारे नाटक में अभिनय करने वाली लड़कियां और नीलम कहती हैं हमें यह अंत मन्ज़ूर नहीं। मिन्ना को मरना नहीं चाहिए...

स्क्रिप्ट में पार्टी से पहले एक रात जोड़ी जाती है, जिस रात के दौरान शराबी मुख़्तार मिन्ना को प्यार करता हुआ अचानक सूट को बीच में ले आता है और वह मिन्ना को मजबूर करता है कि वह सूट से प्यार करे...

फिर पार्टी की शाम के दौरान वह मिन्ना को सूट के साथ नाचने के लिए मजबूर करता है। मिन्ना दौड़कर सूट को अंदर रख जाती है। मुख़्तार फिर सूट उठा लाता है। यही बात तीन दफा दोहराई जाती है। मिन्ना अनायास ही सूट को पकड़कर अंदर चली जाती है। मुख़्तार गुस्से से आवाज़ें देता है : मिन्ना ! मिन्ना!

मिन्ना बाहर आती है, उसने सूट पहना हुआ है, वह बिलकुल अलग मानसिक दशा में है, मेहमान उसकी अदा पर खुश होते हैं।

मुख़्तार हक्का बक्का है।

वह उसका सूट उतारने की कोशिश करता है, मिन्ना नहीं उतारती :

अब यह पहरावा नहीं मेरी चमड़ी है, मिन्ना के इस वाक्य से नाटक एक नयी शिखर का सर्जन करके ख़त्म हो जाता है। यह वाक्य मूल कहानी का हिस्सा नहीं है।

 

हे कविता के तीर्थ

एक शाम जब टेलिफ़ोन पर कोलंबिया से मुझे अंतर्राष्ट्रीय कविता उत्सव में शामिल होने का निमंत्रण मिला तो मैंने खुशी खुशी स्वीकार कर लिया। पर जब बाद में मुझे पता चला कि यह कोलंबिया न तो कोलंबिया यूनिवर्सिटी वाला अमेरिकन शहर है न यह कैनेडा का प्रांत ब्रिटिश कोलंबिया है, यह तो दक्षिणी अमरीका का एक देश है जो इस वक्त हिंसा और नशीली दवाइयों के लिए बदनाम है तो मेरी खुशी आधी रह गई। पर मुझे यह भी याद आया कि यह महान उपन्यासकार गेब्रियल गार्सिया मारकेस का देश है। मैंने मिश्रित भावनाओं से प्रबंधकों के कहने मुताबिक अपनी बीस कविताओं का अंग्रेज़ी अनुवाद, जीवन-ब्यौरा और फ़ोटो उन्हें भेज दिये।

उड़ानों और इंतज़ार का समय जोड़कर दिल्ली से उत्सव के शहर मैदेयिन तक 28 घंटे लगने थे। पहले लंडन फिर बोगोटा से जहाज़ बदलना था। लंडन हीथ्रो एयरपोर्ट पर गोरे प्रवास अधिकारी ने मुझे पूछा- कोलंबिया क्या करने जा रहे हो? मैंने कहा अंतर्राष्ट्रीय कविता उत्सव में हिस्सा लेने के लिए। गोरे ने हकारत भरे व्यंग्य से कहा- क्या देश चुना है कविता उत्सव के लिए ! मेरा दिल और बुझ गया। लंडन से बोगोटा और फिर बोगोटा से मैदेयिन जाने वाले जहाज़ों में पगड़ी वाला मैं अकेला ही था। लंडन तक तो पगड़ियों और चुन्निओं का ही बोलबाला था। मैदेयिन जाते मेरे साथ वाली सीट पर एक हँसमुख और हाज़िर जवाब कोलंबियन वकील मुझे पगड़ी, दाढ़ी और कड़े के बारे में पूछने लगा। मैंने पूरन सिंघ की भाषा में उसको कहा- यह मेरे गुरू के प्यार की निशानियां हैं।

फिर वह पूछने लगा- तेरे धर्म के मुताबिक मौत के बाद बंदा कहाँ जाता है?

मैंने कहा- अगर उसकी आत्मा शुद्ध हो तो वह परमात्मा में विलीन हो जाता है, नहीं तो उसे दोबारा दुनिया में आना पड़ता है, इस परीक्षा में रीअपीयर होने के लिए।

-तेरी आत्मा शुद्ध है?

मैंने कहा- नहीं, इसमें बहुत सारी अशुद्धियां हैं।

वह कहने लगा- फिर तो हम अगले जन्म में भी मिलेंगे, मेरी आत्मा में भी बहुत अशुद्धियां हैं।

मैदेयिन एयरपोर्ट से एल ग्रैन होटल पहुंचे। ग्यारह बजे थे। होटल की लॉबी में बैठे नौजवान लड़के लड़कियां दौड़कर मेरी ओर आए, मुझे आगोश में लेकर मिले- टूटी-फूटी अंग्रेज़ी में अपनी खुशी प्रकट करने के लिए व्याकुल होने लगे। उनमें एक बहुत सुंदर लड़की थी जो काम चलाने लायक अंग्रेज़ी जानती थी। उसने सबसे मेरी जान-पहचान करवाई, यह पैड्रो है, यह रफ़ेल है, यह जमीला, यह लूचो है- मेरा प्रेमी मेरा पति, मैं ऐन्जी हूँ। यह देखो बियर की बोतलें, यह सारी तुम्हारे इंतजार में ख़ाली कीं। अब इतनी ही तेरे आने की खुशी में ख़ाली करेंगे।

पलों क्षणों में माहौल गर्मजोशी और अपनत्व से भर गया। 28 घंटे के सफ़र की सारी थकान दूर हो गई। ऐन्जी कहने लगी : यह लूचो मेरा प्रेमी है पर मेरा दोस्त नहीं। मैंने कहा : यह कैसे हो सकता है? - हो सकता है। यह मुझे जानता नहीं, बस मेरी सुंदरता से आकर्षित है। हमारा रिश्ता सिर्फ़ इस उत्सव तक निभना है। यह उत्सव हमारा बच्चा है, हम इसके जन्म के लिए मेहनत कर रहे हैं। इसको जन्म देकर हमें बिछुड़ जाना है।

कविता उत्सव परसों शुरू होना था। आहिस्ता आहिस्ता कवि पहुँच रहे थे। पाँच महाद्वीपों के पच्चास देशों से कवियों को शामिल होना था। इटली से अल्बा दोनाती, जापान से कासूको शीरायसी, फ्रांस से बेनत अचियारी, ब्रतानिया से केन स्मिथ, कैनेडा से ऐमिली मार्तेल, फिलस्तीन से ज़करिया मोहम्मद, नाईजीरिया से नीयी ओमेंद्रे, वियतनाम से न्गुएन तरंग दुए, ईरान से फ़ातिमा राकी, ब्राज़ील से ऐनिबल बेका, रोमानिया से पीटर स्रागेर, जमायका से तौमलिन ऐल्लि, इंडोनेशिया से रैंद्रा, सेनेगल से अमादु लमीने सल्ल...।

एक लंबी पतली मेम ने मेरे पास आकर कहा, ‘‘सत श्री अकाल, आई ऐम जूडिथ बेवेरिज ़रौम ओस्ट्रेलिया। माई हस्बैंड इज़ ़रौम पंजाब; हिज़ नेम इज़ सुरिंदर सिंघ जोसन। हमारे विवाह को बीस साल हो गये।’’ मुझे बहुत खुशी हुई कि इतनी संवेदनशील शायरा और एक पंजाबी बीस साल से इतनी ख़ूबसूरत ज़िंदगी जी रहे हैं।

यह अंतर्राष्ट्रीय कविता उत्सव पिछले बारह साल से हर साल मैदेयिन शहर में होता है। प्रोमतियो नाम की कवियों की एक संस्था इसका आयोजन करती है।

उत्सव का उद्घाटन एक बहुत बड़े ओपन एयर थियेटर में हुआ। एक गायक ने लोर्का का गीत गाकर इसका आरंभ किया।

इसके बाद सात दिनों का यह कविता उत्सव आरंभ हुआ। इसकी रूप-रेखा इस तरह थी कि हरेक ग़ैर-स्पैनिश भाषी कवि की बीस बीस कविताओं का स्पैनिश में अनुवाद हो चुका था। हरेक कवि की कविताओं के स्पैनिश पाठ के लिए एक एक उच्चारणकर्ता भी निश्चित हो चुका था। मेरी कविताओं का स्पैनिश पाठ हायमे ऐंदरिस को करना था, वह नौजवान टी.वी. अदाकार था। और कविता का बहुत शौकीन था। अंग्रेज़ी बिलकुल नहीं जानता था। उसकी पत्नी लौली अंग्रेज़ औरत थी जो स्पैनिश भी बहुत अच्छी जानती थी। वह हमारे दरम्यान दुभाषिया का काम करती थी। हायमे ने मुझे मेरी कविताएं स्पैनिश में पढ़कर सुनाईं- साज़िंदा, बंसरी- वृतांत, घरों को वापसी, मेरी मां और मेरी कविता... और मुझ से पूछा- आपको किस तरह लगी मेरी आवाज़, गति और रवानी?

-मुझे यह बहुत अच्छा लगा।

मैदेयिन शहर में कविता उत्सव के लिए छह वैन्यू बनाए गए, एक वैन्यू पास वाले गाँव में था। एक ही वक्त सात जगहों पर चल रहा था यह कविता मेला। प्रतिदिन हरेक कवि का वैन्यू और संगी कवि बदल जाते थे। प्रतिदिन हरेक कवि नये लोगों और नये कवियों के दरम्यान कविताएँ पढ़ता था। कवि अपनी मूल-भाषा में पढ़ता था और उसका स्पेनी पाठ उसके जादू को स्पैनिश में खोलता था।

अपनी पहली रीडिंग के वक्त मुझे बहुत शिद्दत से तीन बातों का एहसास हुआ। एक यह कि मेरी कविताओं का स्पैनिश उच्चारणकर्ता हायमे ऐद्रिस कविता को बहुत एहसास से पढ़ता है। दूसरा यह कि स्पैनिश श्रोता कविता के महरम हैं और कविता को दिलोजान से सुनते हैं और वे बहुत जज़्बाती, और बेबाक लोग हैं। तीसरा यह कि स्पेनी बोली की ध्वनियां बहुत कशिश वाली हैं। सुनने वाले ज़्यादा जवान लड़के लड़कियां थे। बहुत लोग मेरे पास आए और मुझे कहने लगे : आप अपनी लिपि में अपनी कविता हमारी डायरी में लिख दो।

एक शाम मेरा दिल करने लगा कि मैं भी स्पेनी बोलूं। मैंने अपनी दुभाषिया दम्पत्ति को कहा कि मैं अपने कविता पाठ से पहले कुछ बातें स्पैनिश में कहना चाहता हूँ। मैंने अपनी भावनाएं अंग्रेज़ी में लिख दीं और लौली ने उन्हें स्पैनिश में अनुवाद करके पढ़ा। जब मैंने अपने कविता पाठ से पहले यह स्पैनिश वाक्य बोते तो बहुत सारे लोग मेरे शुद्ध स्पैनिश उच्चारण पर हैरान थे। असल में यह गुरमुखी लिपि का कमाल था। (हमारी लिपियों में देवनागरी में गुरमुखी में जैसा बोलो वैसा लिखा जा सकता है) मैंने कहा :

बुएनस्स नौचिस केरिदेस आमिगोस

सालूदो आसूतिएर्रा

ई आ सू ख़ैनते

आंबोस बेजोस

पोर्फाबोर आस्सैपत्न मी आमोर्र

ई मीं रैस्सपेतो

अन्वेस दे लेयर मीस पोएमास रेस्सो के मी

पोयेस्सिया उमीलदे॥ कोमोऊन राज्जो देसोल

पोनिएनते पूएदा दर्र सू कोलोर आ

लास ओ लास देल मर्र दे सूस कोड़ासोन्निस

रेस्सो पाड़ा केल्लयाविस पिआहे रस दे-मीस

पा लावरस्स एनकू एनतरेन अलथिरगे

एल लोस अर्रबोलेस

दे सूस मेनतेस

दीगा बीवा कोलंबिया

ई के बीवा नुएस्त्रा आमी स्तद

ई के बीवा ला पेयेसिया

ई बीवन्न उस्त-देस लोस ग्रांदे

किरिया-दोरेस ई ओयीदोरोस देला पोयेसिया

(शुभ संध्या प्यारे दोस्तो

मैं तुम्हारी सुंदर धरती और सुंदर लोगों को नमस्कार करता हूँ

मेहरबानी करके मेरा प्यार और आदर प्रवान करो

अपनी कविताएँ सुनाने से पहले मैं दुआ करता हूँ कि मेरी हलीम शायरी तुम्हारे दिलों के समंदर की लहरों में डूबते सूरज की किरणों की भांति रंग दे।

मैं दुआ करता हूँ कि मेरे लफ़्ज़ों के भटकते पक्षियों को कुछ देर तुम्हारे मनों के पेड़ों की शाखाओं में पनाह मिले।

मैं दुआ करता हूँ कोलंबिया जुग-जुग जिए

जुग-जुग जिए हमारी दोस्ती

जुग-जुग जिए कविता

जुग-जुग जियो तुम सभी कविता के सर्जक और श्रोता)

स्पैनिश लोग बहुत उत्साह से भारी तादाद में कविता सुनने आते, सांस रोककर सुनते और जब कोई बात उनके दिल को प्रभावित करती, समंदर की लहर भांति उफन पड़ते। प्रत्येक वैन्यू पूरा भरा होता। एक जगह तो यह भी हुआ कि पूरा हॉल भर गया और सौ से ज्यादा श्रोते सड़क पर खड़े रह गए। प्रबंधकों को उनकी यह मांग माननी पड़ी कि जो कवि अंदर अपनी कविताएँ पढ़ ले, वह बाहर आकर उनके लिए पढ़ें।

जिस तरह पंजाब में श्रोते किसी लोक गायक को सुनने जाते हैं, मैदेयिन में इस तरह उत्साह से बड़ी तादाद में कवियों को सुनने आते हैं। फिर सुनने के बाद कवियों के पीछे पीछे, कवियों से उनकी भाषा में कविता लिखवाते, आटोग्राफ़ लेते हुए उनके प्रति अपना प्यार और प्रशंसा प्रकट करते- ऐक्सेलैंता, परफ़ैक्ता, बिग पोयता... इन लोगों को देखकर समझ आता है कि पिछले कुछ दशकों से स्पैनिश भाषा संसार ने कैसे पाब्लो नेरूदा और आक्तावियो पाज़ जैसे कवि और गैब्रियल गार्सिया मारकेस जैसे गल्पकार पैदा किए।

मुझे अंदाज़ा नहीं था कि मैदेयिन शहर, इसके लोग और वहां का यह अंतर्राष्ट्रीय कविता उत्सव इतना हसीन और इतना शानदार होगा कि मुझे यह कविता का तीर्थ मालूम होगा। मैं तो अनमने भावों वाली कन्या सा डोली में बैठा था।

एक कविता पाठ से पहले मैं, मेरा स्पैनिश रीडर हायमे ऐंदरिस और उसकी पत्नी लौली एक पार्क में टहल रहे थे। एक आठ दस साल का बच्चा साईकिल चलाता हमारे पास रुक गया। उसने स्पैनिश में कुछ पूछा, जिस पर वह दोनों हँस पड़े। लौली ने मुझे बताया कि यह बच्चा स्पैनिश में कह रहा था- एरेस इन मागो? यानी कि क्या यह आदमी जादूगर है? मैंने कुछ न कहा पर मेरे मन में एक कविता शुरू हो गयी :

लातीनी अमरीका के

कोलंबिया देश में

मैदेयिन शहर की

औबरेरो पार्क में

कविता उत्सव के दिनों में

एक बच्चा साईकिल चलाता

मेरे पास आया

मेरी पगड़ी और दाढ़ी देखकर

पूछने लगा-

एरेस उन मागो

तुम जादूगर हो?

मैं कहने लगा था नहीं

पर उस चाव से भरे बच्चे को मुझ से कहा ना गया नहीं।

मैंने कहा : हाँ।

मैं आसमान से सितारे तोड़कर

लड़कियों के लिए हार बना सकता हूँ

मैं पेड़ों को साज़ों में बदल सकता हूँ

पत्तियों को सुर बना सकता हूँ

और हवा को साज़िंदे के पोटे

मैं ज़ख़्मों को फूलों में बदल सकता हूँ

बच्चे ने हैरान होकर कहा- अच्छा?

तो फिर तुम मेरे साईकिल को घोड़ा बना दो

मैंने एक पल सोचकर कहा

मैं बच्चों का जादूगर नहीं

बड़ों का जादूगर हूँ

अच्छा, तो फिर तुम मेरे माँ बाप के घर को महल में बदल दो

मैंने कुछ शर्मसार होते हुए कहा

दरअसल मैं चीज़ों का जादूगर नहीं

लफ़्ज़ों का जादूगर हूँ

अच्छा समझ गया

तुम पोयटा है पोयटा

बच्चा हँसता मुस्कुराता

हाथ हिलाता

साईकिल चलाता

पार्क से बाहर चला गया

और दाख़िल हो गया

मेरी कविता में।

 

मैं अपनी कविता में तो उस कोलंबियन बच्चे के लिए मागो से पोयटा, यानी जादूगर से कवि बन गया पर दरअसल मागो ही रहा होऊंगा। लौली ने उसी दिन उसी कविता का स्पैनिश में अनुवाद कर दिया और एक कविता-पाठ में हायमे ने पढ़कर भी सुना दी और अगले दिन एक चित्रकार मेरा एक स्कैच बना लाया जिसके नीचे लिखा हुआ था- मागो ला पलाबरा, यानी लफ़्ज़ों का जादूगर।

अलग-अलग देशों से गुज़रते हुए पगड़ी अलग अलग अर्थ धारण करती है। कहीं तुम्हें अरब का मुसलमान और कहीं मागो बना देती है। कहीं कहीं तुम्हें कोई राजा या शहजादा भी समझ लिया जाता है। मुझे 86-87 में लिखी एक लंबी कविता का हिस्सा याद आया :

पता नहीं कैसे लग रही होगी

तुम्हें मेरी पगड़ी

पर मां की आँखों ने मेरी ओर देखते हुए

इसके बारे में

कुछ ऐसा ख़ामोश गीत गाया था

रश्मिों का ताना

किरणों का बाना

रबाब की रंगत

शमशीर का अबरक

ममता की माया

आशीष की ख़ुशबू

यह सब कुछ समेटकर

मैंने तेरी दस्तार बनाई

पिता ने तेरे सिर पर सजाई

गाँव में बैठी माँ को क्या पता

देश देश में से

काल काल में से

शहर शहर में से गुज़रते हुए

क्या क्या कुछ बनती रहती है मेरी पगड़ी

कहीं से गुज़रते हुए

मेरे सिर पर बहादुरी का ताज बन जाती है मेरी पगड़ी

और कहीं से गुज़रते

यह बन जाती है

मेरे सिर पर गुनाहों की गठरी

एक बार भोपाल में

मैंने पूरन सिंह को रंग में कहा था

यह जो मेरी दस्तार है

मेरे सिर पर मेरे गुरू का प्यार है

मेरी बात सुनकर रघुवीर सहाय

अपनी व्यंग्यात्मक कविता के अंदाज़ में मुस्कुराए

उन्होंने कुछ नहीं कहा,

पर मुझे लगा वह कह रहे थे :

यदि नहीं है तेरे मस्तक में

निर्भयता, सच्चाई, कुर्बानी और प्यार

तेरे गुरू जैसा बेकिनार

तो क्यों है तेरे सिर पर

तेरे गुरू की निशानी

तेरी दस्तार

कुछ इस तरह मुस्कुराए

रघुवीर सहाय

कि मेरी आँखों में से आँसू निकल आए

वह आँसू सिर्फ़ दुःख के ही नहीं थे

खुशी के भी थे

कि मेरा प्रिय कवि जानता है

मेरी दस्तार और मेरे गुरू का रिश्ता

जबकि वह रिश्ते भूलने के दिन थे

जानकर भी

अनजान बनने के दिन थे

 

एक दिन कविता उत्सव का वैन्यू एक गाँव था। कविता-पाठ के बाद सवाल-जवाब के लिए भी समय रखा गया था। हमारी दुभाषिया लौली की सहायता से एक बुज़ुर्ग और मेरे दरम्यान यह बातचीत हुई। बुज़ुर्ग ने मुझे मेरी पगड़ी के बारे में भी पूछा और यह भी कि कोलंबिया में इतनी हिंसा है, आपको यहाँ आने से डर नहीं लगा? मैंने कहा जहाँ से मैं आया हूँ, उस धरती ने भी बहुत हिंसा देखी है। उस धरती को पाँच दरियायों की धरती के तौर पर जाना जाता है। उस धरती का जो हाल हुआ उसके बारे में मैं आपको एक कविता सुनाता हूँ :

मातम हिंसा ख़ौफ़ बेबसी और अन्याय

यह है आजकल मेरे दरियायों के नाम...

कविता उत्सव में शामिल जापानी शायिरा की उम्र सत्तर के आस पास थी, पर वह मेक-अप बिलकुल नवयुवतियों जैसा करती थी। उसने बहुत मोटे मोटे अक्षरों में अपनी कविता लिखी होती ताकि मंच पर चश्मा लगाकर न आना पड़े। एक कविता के सारे कागज़ों को जोड़कर वह बहुत लंबा एक ही कागज़ बना लेती थी। वह डायस पर खड़ी कविता पढ़ती रहती और उसकी कविता कपड़े के थान की भांति खुलती जाती, डायस से खिसकती, फर्श पर गिरती रहती। कविता का एक थान खत्म होता तो वह दूसरा खोल लेती।

एक दिन अरबी के एक कवि ने कहा मेरे सिर्फ़ अनुवाद ही पढ़े जाएँ। पर श्रोताओं को यह बात मंज़ूर नहीं थी। प्रत्येक कवि को उसकी मूल-भाषा में सुनना एक विलक्षण अनुभव होता है। मरकज़ी सहरा से आया मोहम्मद हवद हमेशा अपने कविता-पाठ की रिहर्सल करता रहता। वह जब अपनी कविता का उच्चारण करता था तो बहुत मुश्किल और अभी तक अनसुनी ध्वनियां निकालता था। वह कहता था कि मेरे उच्चारण के दौरान किसी शब्द में मेरा अंगूठा भी बोलता है, किसी में मेरे पैरों के तलवे भी, किसी में मेरे सिर के बाल। किसी लफ़्ज़ के अर्थ के जाने बिना उसकी ध्वनियों को सुनना एक अलौकिक अनुभव होता था। उसकी ध्वनियां अजीब भावनाएँ जगाती थीं, अकेलेपन की, रब की बेरहमी की, आधी रात के सहरा के सिर पर चमकते सितारों की।

कैनेडा से आया पाल दत्तो कभी कभी निरार्थक ध्वनियों से ही अपना कविता-पाठ करता था, वे ध्वनियां किसी भाषा के लफ़्ज़ नहीं थे, वह सिर्फ़ अजीबोगरीब ध्वनियां थीं। एक दिन कविता-पाठ का वैन्यू पागलख़ाना रखा गया। पाल दत्तो भी उस वैन्यू के कवियों में शामिल था। दूसरे दिन उसके कविता-पाठ के बारे में सुर्ख़ी थी, ‘‘पागलख़ाने में पागलों से भी बड़े पागल।’’

एक शाम जमायकिन कवि तौमलिन ऐल्लिस का कविता-पाठ एक बियर बार के सामने था। बहुत बड़ी गिनती में लोग जुड़े हुए थे तौमलिन ऐल्लिस अंग्रेज़ी में गा रहा था, उसके साथ एक साज़िंदा गिटार बजा रहा था, उसका अनुवादक स्पैनिश में गिटार पर गा रहा था।

उत्सव की आख़िरी शाम कवियों ने एक ओपन एयर थियेटर में इकट्ठे होना था। ज़ोरों से बारिश हो रही थी। बारिश के बावजूद थियेटर भरा हुआ था। लोग छाते तानकर (प्लास्टिक की सीटों के नीचे छुपकर पोयेसिया पोयेसिया के नारे लगा रहे थे। बारिश थम गई। पच्चास कवियों ने अपनी एक-एक दो-दो कविताएँ पढ़ीं, गैर-स्पेनी कविताओं के स्पेनी अनुवाद भी पढ़े गये। लगभग छह घंटे का प्रोग्राम था, श्रोता कम नहीं हुए, बढ़ते ही गए। जब कोई कवि कविता पढ़ता था तो इस तरह ख़ामोशी होती थी कि गिरते पत्ते की खटकन भी सुनाई दे, पर जब कोई पंक्ति दिलों को प्रभावित करती तो श्रोता समुद्र की भांति उफनते।

कविता-पाठ ख़त्म होने के बाद होटल आए तो दो बज चुके थे। सवेरे चार बजे एयरपोर्ट के लिए जाना था।

इस उत्सव के दौरान मेरी वाकिफ़ बनी नौजवानों की एक टोली मेरे साथ होटल आई। चाय पीकर सभी जाने लगे तो ऊंची लंबी डील-डौल पर बहुत मीठी और संवेदनशील आवाज़ वाली लीना मारिया और उसके घुंघराले बालों वाले सुंदर दोस्त यूआन सारडोना ने कहा- हम चार बजे तक यहाँ रहेंगे। हम तुम्हें विदा करके ही घर जाएँगे। उन सब में सिर्फ़ लीना ही थी जिसे अंग्रेज़ी आती थी। लीना ने मुझे अपने ख़ूबसूरत स्कैच दिखाए, अपनी स्पैनिश कविताओं के अंग्रेज़ी अनुवाद सुनाए। मेरी कविताओं के अंग्रेज़ी और स्पैनिश अनुवादों की कापियां करवाईं। चार बजे जब उन्होंने मुझे विदा किया तो मुझे लगने लगा कि उनके रूप के कोलंबिया की ख़ूबसूरत रूह, वहां का शायराना प्यार भरा दिल मुझे विदा कर रहा है। मेरी ज़िंदगी की यह अत्यंत हसीन विदा थी।

मियामी एयरपोर्ट पर अकेले बैठे हुए मुझे मैदेयिन शहर, वहाँ का कविता उत्सव, वहाँ के लोग, उन्हीं से मिला प्यार, इतने याद आए कि मेरी आँखें नम हो गईं और मैं डायरी खोलकर लिखने लगा :

तुम मुझे बहुत याद आते हो

ओ कविता के तीर्थ मैदेयिन

ओ श्रोतों के रंगीले, रसीले, सुरीले समंदर

ओ कविता के हरेक शब्द के साथ बजते महान साज़

मैं तुम्हें बहुत याद करता हूँ

तुमने मुझे किस तरह लपेट लिया था

अपनी हज़ार हज़ार बाहों में

तुम एक एक शब्द के साथ

समंदर की तरह उफने

ओ मैदेयिन

तेरी भोली हिरनों जैसी हज़ारों आँखें

मेरे साथ नम हुई उदासी और खुशी से

एक वाक्य के मोड़ से

मेरे श्रोता हरी आँखों वाले पेड़ बन गये

एक सतर के तेवर से

तेरे वृक्ष फलों से भर गये

ओ मैदेयिन मैं तेरा नन्हा सा मागो

मियामी के एयरपोर्ट पर बैठा तुम्हें याद करता हूँ

जहाँ मुझे कोई नहीं जानता

सच्ची बात तो यह है कि

तेरे जितना तो मुझे मेरा शहर भी नहीं जानता

तुम्हें भी याद तो आता होगा

अपना नन्हा सा मागो

ओ कविता के तीर्थ मैदेयिन!!!

 

चुप चीज़ों की आवाज़

(भारत भवन में विश्व कविता उत्सव)

1990 की बात है। भोपाल में विश्व कविता उत्सव था। झील के किनारे बने सुंदर भारत भवन में सात दिन अनेक देशों की कविता गूंजती रही। यह अशोक वाजपेयी का सपना था जो उसने अपनी योग्यता, साधनों और काव्यात्मकता के ज़रिये साकार किया। दीवारों पर कविता, हवा में कविता, समाचार-पत्रों में कविता, मगर सड़कों पर नारे ला रहा जुलूस भी था : हमें कविता नहीं रोटी की ज़रूरत है। कविता भी तो यही कहती है : ‘‘चूल्हे में जल रही आग से बड़ी नहीं कोई रोशनी...।’’ भोपाल गैस कांड का शहर है। इसलिए कविता के सामाजिक और राजनीतिक रोल का प्रश्न भी अपनी तीव्र गंध समेत मनों में चुभता रहा।

दुनिया में लिखी जा रही कविता को उसके सर्जकों के मुख से सुनने का, कविता के बारे में सोचने का, विश्व की 20-25 भाषाओं में धरती और मानव दिल को धड़कते सुनने का एक दुर्लभ अवसर था। चिल्ली से निकानोर पारा, ब्रतानिया से स्टीफ़न स्पेंडर, निकारागुआ से अर्नेस्तो कार्देनाल, चैकोस्लोवाकिया से मीरोस्लाव होलुब, चीन से सू तिंग। इसी तरह अर्जनटाईना, नाइजीरिया, दक्षिणी कोरिया, इंडोनेशिया, हंगरी, तुर्की, घाना और आस्ट्रेलिया आदि देशों से एक एक प्रतिनिधि कवि इस कविता उत्सव में शामिल हुआ।

भारत की तरफ़ से शामिल हुए कवियों में रघुवीर सहाए, अख़्तर-उल-ईमान, अरुण कोलाटकर, रमाकांत रथ, अय्यपा पणिक्कर और डॉ. हरिभजन सिंह प्रमुख थे। इसके अलावा भरतीय भाषाओं के और बहुत सारे चर्चित कवि, अनुवादकों और विशेष

दर्शकों की हैसियत में हाज़िर थे। पंजाबी वालों में मौजूद थे डॉ. नेकी, प्रतीम सिंह सफ़ीर, संतोख सिंह धीर व सुखचैन।

पंजाबी कविता के लिए यह उत्सव विशेष महत्त्व का सबब बना क्योंकि उत्सव के दौरान पंजाबी के प्रमुख कवि डा. हरिभजन सिंह को मध्य प्रदेश सरकार की तरफ से ‘कबीर सम्मान’ प्रदान किया गया। कबीर सम्मान को हमारे देश का सबसे बड़ा काव्य-पुरस्कार माना जाता है। इससे पहले यह सम्मान कन्नड़ कवि गोपाल कृष्ण अडिग ने प्राप्त किया था। डा. हरिभजन सिंह को डेढ़ लाख रुपये का यह सम्मान देने की रस्म चैकोस्लोवाकिया के प्रसिद्ध कवि मीरोस्लाव होलुब के हाथों से सम्पन्न हुई। इस अवसर पर बोलते हुए डा. हरिभजन सिंह ने कहा, ‘‘यह सम्मान मुझे नहीं, बल्कि पंजाब को मिला है। पंजाबी भाषा की गौरवशाली काव्य परम्परा को मिला है। कबीर मेरा है, सम्मान आपका है।’’

इस उत्सव में शामिल प्रत्येक कवि को तकरीबन डेढ़ घंटा मिलता था जिस दौरान वह अपनी भाषा में कविताएं सुनाता जिनका हिंदी या अंग्रेज़ी अनुवाद पढ़ा जाता। कवि अपने काव्य सिद्धांत सर्जन-प्रक्रिया के बारे में बातचीत करता, प्रश्न उत्तर सैशन होता जो दुभाषिये की सहायता से सम्पूर्ण होता। कई दफा सवाल जवाब काफी तीक्ष्ण भी हो जाते और कई दफा हल्के फुल्के। डैनमार्क के कवि हेनरिक नोर्डब्रांट से किसी ने पूछा कि आप कवि क्यों बने? तो उसने कहा, ‘‘मुझे सुबह उठने की आदत नहीं थी, इसी वजह से मैं और कुछ बन ही न सका और कवि बन गया।’’ पंजाबी कवि प्रीतम सिंह सफ़ीर इस जवाब के हल्केपन से खीझ गए और कहने लगे, जो कवि अमृत बेले नहीं जागता वह कैसे देख सकता है कविता का हुस्न। स्पेनी कवि हुआरोज़ की तकरीबन सभी कविताएं मौत के बारे में थीं। एक कविता की पंक्तियां थीं :

‘‘जिस जगह तुम्हारा कोई भी इंतज़ार नहीं करता

वह जगह मरने के लिए सही जगह है।’’

एक और कविता इसी तरह थी :

‘‘कोई मौत मुकम्मल मौत नहीं

कब्रें नकली कंगालों से भरी पड़ी हैं

और गलियां प्रेतों से।’’

 

हुआरोज़ के कविता-पाठ के बाद किसी ने उससे पूछा कि आप कविताओं में इतनी दफा मरते क्यों हो? जवाब में हुआरोज़ ने आक्तावियो पाज़ की एक पंक्ति पेश करते हुए कहा कि कविता मौत से मुलाकात है। पंजाबी कवि डा. हरिभजन सिंह से किसी ने पूछा कि ‘कबीर सम्मान’ लेते समय आप उस सरकार के बारे में क्या सोचते थे जिसके बारे में नीला तारा अप्रेशन के वक्त आप ने कहा था : ‘‘फौजां कौण देश तों आईयां?’’ (यह सेना किस देश से आई हैं)। तो डा. साहब ने कहा कि यूं तो मैं फासिला पसंद कवि हूँ, पर उस वक्त यही लिख सकता था क्योंकि :

‘खामोश रहना भी ताना है बावफ़ा के लिए’

दिल्ली में हुए सिख विरोधी दंगों के बारे में कुछ कहने के लिए कहा गया तो उन्होंने कहा :

‘तू मेरा यार था प्यारा कि कहूँ कि मैं न कहूँ

जो सहने में है नमोशी सहूँ कि मैं न सहूँ’

 

कागज़ों पर प्रकाशित कविता को अकेले चुपचाप पढ़ना और श्रोताओं के बीच बैठकर कवि के मुख से कविता सुननी दो अलग अनुभव हैं। यह बात हर कोई जानता है। मगर इस बात का बहुत ही तीव्र एहसास मुझे पहली बार तब हुआ जब इंडोनेशिया के कवि डबल्यू.एस. रैंद्रा ने इस उत्सव में अपनी कविताएं पढ़ीं। रैंद्रा कविता जैसे सुनाता नहीं था, कविता को हमारे सामने जीता था, उसकी आवाज़ के उतराव चढ़ाव, उसका चेहरा, उसकी आँखें, उसके लंबे ठहराव, अलग अलग भावों का स्वयं पर आरोपण, सब कुछ इस तरह लगता था जैसे किसी पर आत्मा का पहरा हो, जैसे कोई कविता के भीतर के किरदार के प्रेत की पकड़ में हो। उसको सुनना एक अद्भुत अनुभव था। उसकी पेशकारी में कोई गैर-ज़रूरी अभिनय नहीं था। वह अपनी जगह पर अडोल खड़ा था, उसका चेहरा, उसकी आँखें, आवाज़, लंबी चुप और ऊपर को उठते हाथ ही सारी करामात करते थे, उसकी भाषा का एक भी शब्द समझ नहीं आ रहा था, फिर भी श्रोते जादू में बंधे बैठे थे। जब उसकी कविता का अनुवाद हिंदी में पढ़ा जाता तो श्रोते जादू के एक खण्ड से दूसरे खण्ड में प्रवेश करते :

जल रहे जंगलों को शांत करता है

सीला संध्या-प्रकाश

गहरे भूरे आकाश से उतरते हैं

ख़ून चूसने वाले चमगादड़

वातावरण में युद्ध-सामग्री की गंध

लाशों की दुर्गंध....

जंगली कुत्तों का एक झुंड

खा रहा है हज़ारों मरे

अधमरे मानव शरीर....

स्वर्ग में से उतरते हैं बीस फ़रिश्ते

उनके शुद्धिकर्ण के लिए

जो बर्दाश्त कर रहे हैं तीव्र मृत्यु वेदना...

धीरे धीरे प्रवाहित होती

जीती हवा

लाशों की घुंघराली लटों को छेड़ती

ख़ून की झील में भंवर बनाती है

 

यह जादुई कविता पाठ ख़त्म हुआ तो शाहाना पहरावे वाली प्रसिद्ध नावेलकारा कृष्णा सोबती रैंद्रा के लिए गुलाब का फूल लेकर आईं और पेश करते हुए कहने लगीं, ‘तुम मेरे शायर हो।’

निकारागुआ का कवि अर्नेस्तो कार्देनल छोटी-छोटी दूधिया दाढ़ी वाला, मुस्कुराते चेहरे वाला छबीला बुज़ुर्ग था। उसकी कविताओं में प्रचण्ड राजनीतिक समझ, प्रतिबद्धता और तीक्ष्ण व्यंग्य-विनोद ने सब को प्रभावित किया। एक प्रश्न के उत्तर में कार्देनल ने कहा कि क्रांतिकारी कविता, जो कलात्मक प्रभा-मण्डल से विरक्त है, कदाचित क्रांतिकारी कविता नहीं है।

कार्देनल की एक कविता थी, ‘‘मैरेलिन मुनरो के लिए प्रार्थना।’’ इस कविता में मैरेलिन मुनरो मरने के बाद जब प्रेमात्मा के सामने पेश होती है तो कवि रब को कहता है :

हे प्रभु!

इस लड़की को अपनी शरण में ले लो

जो मैरेलिन मुनरो के नाम से

जानी-पहचानी जाती है दुनिया में

यद्यपि यह नहीं था उसका असली नाम

मगर तुम तो जानते हो इसका असली नाम

नौ साल की उम्र में

बलात्कार का शिकार हुई

दुकान में काम करने वाली उस लड़की का

जिसने उम्र के सोलहवें साल में

आत्महत्या की कोशिश की

जो अब तुम्हारे सामने बिना

मेक-अप आई है...

जब वह बच्ची थी

तो सपने में देखा था उसने

कि वह गिरजे में नंगी खड़ी है...

तुम तो बेहतर जानते हो सपनों को

मनोवैज्ञानिकों से भी

गिरजा, घर, गुफ़ा सभी प्रतिनिधित्व करते हैं गर्भ की सुरक्षा की...

 

इस कविता उत्सव में कवियों ने अपने ही तौर तरीके से कविता और इसके मनोर्थ को प्रभाषित करने की कोशिश की है। स्पैनिश कवि रोबरेज़ ने कहा, ‘‘कविता मौजूदगी का सर्जन करती है।’’ चैकोस्लोवाकिया के कवि मीरोस्लाव होबुल ने कहा, ‘‘मैं उन लोगों के लिए कविता लिखना पसंद करूँगा जो कविता से प्रभावित नहीं होते। मैं चाहता हूँ लोग कविता को भी इतनी स्वाभाविकता से पढ़ें, जैसे वह समाचार-पत्र पढ़ते हैं।’’

जर्मन कवि गुंटर कर्ने की एक कविता, कविता के बारे में ही थी :

झूठ बोलने पर मजबूर

कविता ज़र्द पड़ जाती है

डर जाती है

और उसके बाद

न वह स्वयं बेचैन हो सकती है

न दूसरों को कर सकती है

 

हमारे कवि डा. हरिभजन सिंह को उस दिन कबीर सम्मान मिला था। उस पर जैसे कबीर का पहरा था, उन्होंने कबीर का एक श्लोक पढ़ा :

कबीर न हम कीया न करिएंगे

न कर सकै शरीर

क्या जानओ किछु हरि कीया

भयो कबीर कबीर

और उसी रंग में अपना कविता-पाठ शुरू किया :

हरि जी और लिखो तुम बाणी

बोध विचारो सोध सुधारो

जो लिखा अब तक

सोच कहे तो पोच भी

तख़्ती फेरो पानी

उम्र गुज़ारी, स्तर जो लिखी

अब तक अभिमानी

इस लकीर के बनो न कैदी

उतारो केंचुली पुरानी

यह पंडिताई यह चतुराई

कहीं न आवण जाणी

महाज्ञानी तत्व समझ ले

जीवन है अज्ञानी

न बोलो तुम धुर पाताल से

न बोलो आसमानी

धुर आपे से बोलो हरि जी

छोड़ो बात बेगानी

 

एक तरफ़ धुर आपे से बोलने की बात थी और दूसरी तरफ हंगरी के कवि फेरेनत्रस का यह कथन : ‘‘हमारे इर्द गिर्द चुप चीज़ें लगातार हमारी तरफ देखती रहती हैं। वह आशा करती हैं कि हम उन्हें आवाज़ प्रदान करेंगे।’’ धुर आपे में से बोलना और इर्द गिर्द की चीज़ों को आवाज़ प्रदान करना दोनों कवि से एकाग्रता की मांग करते हैं। चुप चीज़ों को आवाज़ देने की कोशिश कवि को ‘दूसरे’ के साथ जोड़ती है, वह कुछ कम अहंकार-केंद्रित होता है। उसकी कविता बहु-ध्वनियां धारण करती है, आत्म-दया से बचती है। धुर स्वयं से बोलना भी मानव की उस पर्त को मुखरित करता है, जिस में वह अपने स्वयं को किसी ‘दूसरे’ की भांति देखता है, किसी चुप चीज़ को आवाज़ देता है।

 

समस्त गद्य रचनाओं का

अनुवाद : सुखचैन

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पाटील,1,शगुन अग्रवाल,1,शबनम शर्मा,7,शब्द संधान,17,शम्भूनाथ,1,शरद कोकास,2,शशांक मिश्र भारती,8,शशिकांत सिंह,12,शहीद भगतसिंह,1,शामिख़ फ़राज़,1,शारदा नरेन्द्र मेहता,1,शालिनी तिवारी,8,शालिनी मुखरैया,6,शिक्षक दिवस,6,शिवकुमार कश्यप,1,शिवप्रसाद कमल,1,शिवरात्रि,1,शिवेन्‍द्र प्रताप त्रिपाठी,1,शीला नरेन्द्र त्रिवेदी,1,शुभम श्री,1,शुभ्रता मिश्रा,1,शेखर मलिक,1,शेषनाथ प्रसाद,1,शैलेन्द्र सरस्वती,3,शैलेश त्रिपाठी,2,शौचालय,1,श्याम गुप्त,3,श्याम सखा श्याम,1,श्याम सुशील,2,श्रीनाथ सिंह,6,श्रीमती तारा सिंह,2,श्रीमद्भगवद्गीता,1,श्रृंगी,1,श्वेता अरोड़ा,1,संजय दुबे,4,संजय सक्सेना,1,संजीव,1,संजीव ठाकुर,2,संद मदर टेरेसा,1,संदीप तोमर,1,संपादकीय,3,संस्मरण,730,संस्मरण लेखन पुरस्कार 2018,128,सच्चिदानंद हीरानंद वात्स्यायन,1,सतीश कुमार त्रिपाठी,2,सपना महेश,1,सपना मांगलिक,1,समीक्षा,847,सरिता पन्थी,1,सविता मिश्रा,1,साइबर अपराध,1,साइबर क्राइम,1,साक्षात्कार,21,सागर यादव जख्मी,1,सार्थक देवांगन,2,सालिम मियाँ,1,साहित्य समाचार,98,साहित्यम्,6,साहित्यिक गतिविधियाँ,216,साहित्यिक बगिया,1,सिंहासन बत्तीसी,1,सिद्धार्थ जगन्नाथ 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रचनाकार: रचना समय अक्तूबर 2015 - सुरजीत पातर : डायरी के पन्ने - मे आई कम इन मैडम
रचना समय अक्तूबर 2015 - सुरजीत पातर : डायरी के पन्ने - मे आई कम इन मैडम
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