दीपक आचार्य का प्रेरक आलेख - जिनके उसूल नहीं वे किसी के नहीं

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प्रत्येक परमाणु, अणु और तत्व से लेकर मिश्रण, जड़-चेतन आदि सभी  के अपने-अपने सिद्धान्त हैं जिन पर चलकर ही वे अपनी मौलिकता को बरकरार रखते हुए ...

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प्रत्येक परमाणु, अणु और तत्व से लेकर मिश्रण, जड़-चेतन आदि सभी  के अपने-अपने सिद्धान्त हैं जिन पर चलकर ही वे अपनी मौलिकता को बरकरार रखते हुए अपना प्रभाव दिखाते हैं और अपना अस्तित्व व औचित्य सिद्ध कर सकने का सामथ्र्य रखते हैं।

यही वजह है कि इंसानों को छोड़कर किसी भी प्राणी, वस्तु, तत्व या मिश्रण के गुण धर्म और उसके प्रभावों की शत-प्रतिशत सत्य एवं सटीक व्याख्या की जा सकती है। एक इंसान ही इस धरती पर ऎसा जीव है जो पैदा होने से लेकर समझदार होने तक ही अपनी आत्मस्थिति और मौलिकता में रहता शुद्ध-बुद्ध रहता है और इंसानी खाल एवं खोल में बना रहता है।

जरा सा समझदार हो जाने के बाद वह जीवन भर के लिए इंसानियत से मुक्त हो जाता है और कहीं भी कुछ भी करने-करवाने की स्थिति में आ जाता है। जैसे-जैसे वह संसार में आसक्त होने लगता है वैसे-वैसे उसके भीतर का मनुष्यत्व पलायन करने लगता है, मौलिकता का ह्रास होना शुुरू हो जाता है, मानवीयता के क्षरण के सारे रास्ते खुल जाते हैं और उसकी जगह उसके भीतर वह सब कुछ भरना शुरू हो जाता है जिसे इंसानियत का धुर विरोधी माना जाता रहा है।

एक इंसान तभी तक इंसान बना रह सकता है  जब तक कि उसके भीतर इंसान होने का गुणधर्म सहेजने वाली मौलिकता है। यही कारण है कि पूरी दुनिया में इंसानों की मनोवृत्ति के अनुरूप काफी श्रेणियां हो गई हैं।

बहुत कम संख्या में लोग हैं जो पूरी जिन्दगी अपने मानवीय गुणधर्म को बचाए रख पाते हैं। अधिकांश लोग देश, काल और परिस्थितियों के अनुरूप अपने स्वार्थों और कामों को तवज्जो देते हुए हर साँचे में ढल जाया करते हैं।

बहुत सारे ऎसे हैं जो अपने भीतर की इंसानियत को परे धकेल कर शैतानियत को अपना लेते हैं और जमाने भर के लिए मरते दम तक नासूर बने रहते हैं। इंसान के रूप में पैदा होना जितना सरल है उतना जीवन भर के लिए इंसानियत को सहेज कर रखना और मानवीय उसूलों पर चलना असहज और दुष्कर है।

ईश्वरीय अनुकंपा और पूर्व जन्म के संस्कारों के साथ ही वंशाुनगत चारित्रिक आनुवंशिक गुणों के होने पर ही इंसान अपने आपको इंसान के रूप में प्रकट कर सकता है अन्यथा बहुत सारे लोग हम रोजाना ऎसे देखते हैं जो कि ऎसे फब कर निकलते हैं, ऎसी लच्छेदार और लुभावनी बातें करते हैं कि लगता है जैसे इनके मुकाबले का कोई महान इंसान मिलना हमारा और जगत का परम सौभाग्य ही हो, लेकिन इनके इंसानी गुणधर्म की खोज करते हैं तब हमें निराशा ही होती है।

आजकल जो जैसा दिखता-दिखाता है, वैसा होता नहीं है, अधिकांश लोग अंदर-बाहर में जमीन-आसमान के अंतर से भरे होते हैं। यह स्थिति बड़े-बड़े लोगों का वह आभूषण हो गई है जिसके सहारे वे दुनिया भर में अपने आपको श्रेष्ठतम और महान सिद्ध करते रहने के सारे जतन करते रहते हैं और लोगों को भ्रमित करने के तमाम हथकण्डों का सहारा लेते हुए बहुरूपियों और स्वाँगियों तक को पीछे छोड़ देने के करिश्माई करतब दिखाते रहते हैं।

असल में देखा जाए तो पूरी दुनिया के इंसानों को साफ-साफ दो भागों में विभक्त किया जा सकता है। सिद्धान्तहीन और सिद्धान्तवादी। केवल एक सिद्धान्त ही हैं जो इंसान को इंसान बनाए रखकर धरती के संचालन में मददगार होते हैं।

सिद्धान्तहीन लोग मानवता के हत्यारे भी हैं और जगत के लिए घातक भी, क्योंकि इनकी पूरी जिन्दगी सिद्धान्तहीनता को समर्पित होती है। स्वार्थ पूरे करने के लिए ये लोग किसी भी हद तक जा सकते हैं, अपने कद को ऊँचा दिखाने के लिए किसी को भी गिरा सकते हैं और खुद को ऊँचा उठाने के लिए किसी भी सीमा तक गिर भी सकते हैं, औरों के सामने सारी लाज-शरम छोड़कर पूर्ण समर्पण और श्रद्धा भाव से पसर भी जाते हैं।

सिद्धान्तों के मामले में कभी कोई समझौता नहीं किया जा सकता। या तो सिद्धान्तों का शत-प्रतिशत पालन किया जाए अथवा सिद्धान्तहीनता का अनुगमन। यह संभव नहीं है कि कोई इंसान पांच-दस फीसदी कोई सिद्धान्त मानता रहे और अपने आपको सिद्धान्तवादी सिद्ध करता रहे। किसी भी अंश में सिद्धान्तों का क्षरण आदमी को सिद्धान्तहीनता की श्रेणी में ला खड़ा करेगा।

वर्तमान काल का सबसे बड़ा दुर्भाग्य यही है कि आदमी मुखौटा संस्कृति के पाखण्ड को अपना चुका है। जहाँ उसका कोई स्वार्थ सिद्ध होने वाला हो, वहाँ सिद्धान्तों को दरकिनार करके भी आगे बढ़ जाएगा। जहाँ उसे कोई काम नहीं करना हो, उसका कोई उल्लू सीधा नहीं हो रहा हो, वहाँ वह ऎसा बर्ताव करने लग जाता है जैसे कि उसके जैसा दूसरा कोई सिद्धान्तवादी संसार भर में हो ही नहीं।

जो इंसान एक बार सिद्धान्त छोड़ देता है वह  दुर्घटनाग्रस्त होकर पटरी से उतर गई रेलगाड़ी की तरह हो जाता है, उससे दुबारा इंसानियत की उम्मीद करना एकदम व्यर्थ है। सिद्धान्तों के परित्याग का सीधा मतलब है इंसानयित से पल्ला झाड़ लेना।

जो सिद्धान्त छोड़ देता है वह किसी भी रिश्ते-नाते, मित्रता, संबंधों या सेवा-परोपकार के काम का नहीं रहता क्योंकि उसके जीवन का एकमात्र लक्ष्य स्वार्थसिद्धि ही हो जाता है। ऎसे इंसानों पर भरोसा करना मूर्खता के सिवा कुछ भी नहीं है।

यही कारण है कि सिद्धान्तहीन लोगों का कोई स्थायी संबंधी या मित्र नहीं हो सकता। ये लोग जब कोई स्वार्थ सिद्ध करना होता है तब किसी से भी हाथ मिला सकते हैं, किसी के भी पाँव पकड़ सकते हैं और कोई सा जायज-नाजायज काम कर सकते हैं।

सिद्धान्तहीनों के लिए विश्वासघात, मित्रद्रोह, राष्ट्रद्रोह, विघ्नसंतोष और अपने मामूली लाभ के लिए औरों की जिन्दगी तक तबाह कर देने की नकारात्मक मानसिकता का होना सामान्य बात है। ऎसे सिद्धान्तहीनों को मनुष्य की श्रेणी से पृथक मानकर बर्ताव करें, इनकी उपेक्षा करते रहें, इनसे संबंध न रखें और संवाद करने का पाप भी मोल न लेंं इन लोगों का सामीप्य भी महान पातक देता है।

जीवन में आनंद पाना चाहें तो इन सिद्धान्तहीनों से दूरी बनाए रखें क्योंकि पीठ पीछे वार करने वाले ये षड़यंत्रकारी लोग हिंसक जानवरों और क्रूर असुरों से भी घातक हैं। धरती इन्हीं लोगों के भार के कारण त्रस्त है। अब सिद्धान्तहीनों की तादाद इतनी अधिक मात्रा में बढ़ गई है कि धरती के पाप हरने के लिए भगवान के अवतार का समय नजदीक आ गया है, यह माना जा सकता है। पर इससे पहले हमारी जिम्मेदारी है कि इनका खात्मा करने के लिए अपने अभियान का श्रीगणेश करें।

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दीपक आचार्य के प्रेरक आलेख inspirational article by deepak aacharya

- डॉ0 दीपक आचार्य

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