विनीता शुक्ला की कहानी - दायरे

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कहानी दायरे -विनीता शुक्ला --   “पता है, वर्माइन का बेटा, आजकल किसी लड़की के साथ रह रहा है” “अच्छा! ये किसने कहा तुमसे “अजी कहना सुनना क्...

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कहानी

दायरे

-विनीता शुक्ला

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“पता है, वर्माइन का बेटा, आजकल किसी लड़की के साथ रह रहा है”
“अच्छा! ये किसने कहा तुमसे “अजी कहना सुनना क्या...सब जानते हैं. ऋषिकेश गया था, डाक्टरी पढने… वहीं दिल लगा बैठा”

“अरे!” धीमे बोलते हुए भी, उत्तेजना उभर आई, “लेकिन वर्मा जी तो डॉ. बहू की तलाश में लगे हैं.”

“तलाश पूरी होने तक तो बेटा बुढ़ा जाता...” कुनिका ने ठोड़ी पर हाथ रखकर, दार्शनिक जैसा चेहरा बनाया.

“ठसक तो देखो –मियाँ- बीवी की! कहते थे, “बहू बिलकुल ठोंक- बजा के लायेंगे...”

“इन्हें लड़की देगा कौन...?!”

“इनको तो मिल ही जाएगा... अपने जैसा- कोई नकटा” अस्फुट संवादों के बीच, महिलाओं की दबी- छुपी हंसी मुखरित हुई. सुमित्रा ने हैरानी से कुनिका को देखा. इसके अपने घर में, सत्यनारायण की कथा चल रही थी और ये दूसरी ही कथा बांचने लगी! हॉल के दूसरे छोर पर, पंडितजी कहानी कह रहे थे. कुनिका की सास और नन्द, प्रसाद की व्यवस्था कर रही थीं. इस सबसे संपृक्त ये स्त्रियाँ- नख से शिख तक, परपंच में डूबी !! मतिमंद लोगों को वह, दूर से ही प्रणाम करती; फिर भी यहाँ आना पड़ा. पतिदेव ने ताकीद की थी, “सुमी, तुम कुनिका के यहाँ हो आना. घरघुसरू मत बनो...चार लोगों में उठो बैठो; तभी तुमको कोई पूछेगा”

इन औरतों की सोच- घरबार, तीज- त्यौहार और अंधश्रद्धा से उबर नहीं पाती... देश- दुनियां, समाज, राजनीति, ज्ञान- विज्ञान– सब बेकार... इनके दायरे, गली- मुहल्ले की हलचलों तक सिमटे हुए... यदा- कदा उसको भी, उलझाने वाले दायरे; पर सुमी ने, ये कब चाहा!! उसने तो चाहा- अपनी अलग दुनियां... सामाजिक- परिधि को रचना. किन्तु ऐसा हुआ कहाँ! बी. ए. थर्ड- इयर की परीक्षा दी ही थी कि बुआ उसके लिए रिश्ता लेकर आ गयीं, “बड़ा लायक लड़का है. इतनी कम उमर में, बड़ा सरकारी अफसर बन गया... हाँ परिवार से कुछ कमजोर है तो क्या- घी का लड्डू टेढ़ा भला!!” वह कच्ची उमर में ही, गृहस्थन बन गयी. अनाड़ी बालिका...घर चलाने की सूझबूझ नदारद! पति रमन शर्मा- बैंक में पी. ओ. के सम्मानित पद पर विराजमान थे; किन्तु वे स्त्रियों का आंकलन, बौद्धिक स्तर से नहीं करते. उनके लिए, पुरुष को रिझाने की क्षमता और सुघड़ता ही नारी की कसौटी थे.

पत्नी मजबूत घर से आई थी, परिष्कृत अभिरुचियों और अभिजात्य को संजोये. यहाँ वह पति से बीस बैठती थी. रमन यह जानकर भी, स्वीकारना नहीं चाहते. उनकी मानसिकता, उनके कस्बे जैसी ही पिछड़ी थी- स्त्रियों को लेकर अनुदार. कुटुंब में ज्यादातर औरतें अपढ़ थीं. पढ़ी- लिखी बीवी के लिए, वे अपनी सोच नहीं बदल पाते. अवचेतन पर पुराने संस्कार, गर्द से जमे थे. ‘घर का मुखिया सदा पुरुष ही रहता है; एक रिंगमास्टर की तरह, स्त्री और बच्चों का निर्देशक’- ये पूर्वाग्रह नहीं तो और क्या था!

“अरे तनिक दरवाजा खोलो श्रीमती जी; देखो तो हम क्या लाये हैं!” विचारों का बादल छंट गया था. सुमित्रा औचक ही मुस्करा दी. रमन के लिए कोई कुछ भी कहे पर प्रेम- प्रदर्शन में, वे किसी से पीछे नहीं. उनके अनगढ़ व्यक्तित्व की खिल्ली उड़ाने वाले बहुत थे परन्तु मेधा के प्रशंसक कम. उन कम लोगों में, एक सुमित्रा भी थी. पति के ‘सेल्फ मेड मैन’ होने पर उसे गर्व था. विषम परिस्थितियों और सीमित अवसरों के बावजूद, वे उच्च- पद तक पहुंचे; यह तो बिरले ही, कर पाते हैं! भारतीय नारी के भेजे की ‘कंडीशनिंग’ ही कुछ ऐसी है. सदा वह पति को, औरों से ऊपर रखती है.

रमन के हाथों में एक चमचमाता हुआ पैकेट था; साथ ही मोंगरे का महमहाता गजरा. देखकर मन में पुलक- भरी तरंग दौड़ गयी. “चलो जी जल्दी तैयार हो जाओ...आज हम, हमारे ख़ास दोस्त से मिलवायेंगे आपको!...अरे हाँ!.. ज़रा ये साड़ी तो पहनकर दिखाओ ” सुमित्रा ने लपककर पैकेट खोला. चटक सिंदूरी चमकउआ रंग! ऐसे रंग – जिन्हें देखते ही, वह नाक- भौं सिकोड़ लेती थी- “ओह कैसे गंवारू रंग है!” याद आया- अपनी ड्रेस खरीदने में, वह कितना समय लगाती थी. माँ और बहनें बेसबर हो उठतीं- “सुमी! तू फ्रेंड्स के साथ ही शॉपिंग किया कर...कित्ता समय बर्बाद करती है!!” किन्तु कपड़ों को लेकर, उसकी सूक्ष्म, उत्कृष्ट परख, सराहना योग्य थी- अद्भुत, आकर्षक, गरिमामय परिधान! वह सायास अतीत से बाहर आई. रमन की आंखें, उसका घेराव कर रही थी...अनगिनत प्रश्नों के साथ!! असहज होकर सुमी, सज्जाकक्ष में घुस गयी. जल्दी- जल्दी साड़ी लपेटकर, फूलों को केशों में उलझाकर निकली.

पति की मुग्ध दृष्टि, उसे विभोर कर गयी. अब साड़ी का गंवारू रंग, खल नहीं रहा था. रमन के मित्र सुदर्शन वर्मा उन्हीं की तरह, ग्रामीण परिवेश में पले –बढ़े... संघर्ष की जमीन से उठकर, ऊंचाइयों को छूने वाले इंसान. सुदर्शन भाई को पहली ही भेंट में, सुमी एक शालीन और सौम्य महिला लगी. तब उनकी आँखों में प्रशंसा का जो भाव उभरा- उनकी ‘बेटर हाफ’ ने अनिच्छा से लपक लिया. सुदर्शन और नंदा की जोड़ी, प्रथम- दृष्टया ठीक ही लगती. दोनों स्थूलकाय और बातचीत में भद्दर देहाती.

यह और बात थी कि ‘श्रीमती जी’ के देसी गेट- अप में, ‘बिदेसी’ घालमेल कुछ यूँ लगता मानों छछूंदर के सर पे चमेली का तेल!! हरी शिफॉन की सारी के साथ- ‘खादीनुमा’ सलेटी ब्लाउज...वह भी कटस्लीव्स ! ब्लाउज के काज वाले बटन, मर्दाना किस्म के थे. आंचल रह रह कर सरकता( या फिर जानकर सरकाया जाता!) जिसे वे बड़ी अदा से ओढ़ लेतीं. तिस पर भी पति का ध्यान, पराई स्त्री की तरफ...! यह उन्हें कुछ जमा नहीं. वे हाथ पकड़, उसे भीतर ले गयीं, “चलो, हम यहाँ बात करते हैं. उन लोगों को, गप- सड़ाका करने दो”

कुछ देर वे पड़ोसियों की बुराई करती रहीं फिर अपनी महानता का बखान- कैसे कैसे वे पति से अलग रहकर, बच्चों को पालती पोसती रहीं. जब पति की नौकरी लगी, बच्चे गाँव के स्कूल में पढ़ रहे थे. पति शहर में थे. उधर स्कूलों में डोनेशन चलता था और अंग्रेजी माध्यम से पढ़ाई होती थी. इतने पैसे खर्च कर, वहां दाखिला दिलवाना सम्भव न था; बच्चे हिंदी मीडियम में पढ़े- एडजस्ट भी नहीं कर पाते. गाँव में सास- ससुर, नन्द- देवर सबकी जिम्मेवारी उठानी थी. उनकी सेवा –भावना से गदगद होकर ससुर जी कहते हैं- “हमरी ई बहुरिया तो देवी है देवी!” अपने मुंह मियां मिट्ठू- सुमी ने मन में सोचा!

थोड़ी ही देर में, सुमित्रा जान गयी कि वे हद दर्जे की घमंडी और आत्ममुग्ध महिला हैं. पतिदेव की ताकीद पर, वे चाय बनाने को उठीं; कुछ यूँ- मानों नई- नवेली दुल्हन, पकवान छूने का शगुन करने वाली हो. बड़े नखरे से उन्होंने पतीला चढ़ाया और देर तक पानी और चाय की पत्ती खौलाती रहीं. इस बीच प्रलाप जारी रहा, “बुरा मत मानना- आपके चेहरे पर, कील मुंहांसे कुछ ज्यादा हो रहे हैं; सूरत भी संवला गयी है... यहाँ मौसम ही कुछ ऐसा है- उमस भरा. मैं कुछ उपाय बताऊंगी...आजमाकर देखना; फायदा जरूर होगा”

बात बात में पता चला था कि वे बैद्य की बिटिया हैं. सुमी ने सोचा, इसी के चलते- विद्वता झाड़ रही होंगी.(कूपमंडूक स्त्री, भला ज्ञान क्या देती !) किन्तु माथा तब ठनका जब वे उसकी रंगत को कठघरे में ले आयीं. “देवरजी” बैठक में चाय रखते हुए उन्होंने रमन को संबोधित किया, “ हमारी देवरानी का रंग, कुछ दबा सा लग रहा है... इन्हें एक नुस्खा बताऊँगी- घरेलू उबटन बनाने का, मुल्तानी मिट्टी और चंदन से...” सुमित्रा मन ही मन उबल पड़ी, “ये कुदरत का दिया चेहरा है... इसमें जो सांवली लुनाई, जो सलोनापन है- वो तुम्हारे सपाट थोबड़े में कहाँ... नंदा सुदर्शन! न कोई नाक- नक्श, न चमक...गोरी खाल ही तो सब कुछ नहीं होती!!!”

लौटते समय, दिल में कोई मलाल था- हारने के जैसा. वह भी नंदा की, तम्बूरेनुमा बाँहों का मजाक बना सकती थी; थुलथुल शरीर से, झूलती चर्बी और पान से रंगे दांतों की भद्द पीट सकती थी! कभी कभी सभ्य होना भी खल जाता है...सभ्यता आपको बेबस कर देती है, कायरता की हद तक!! और तो और रमन ने भी, उस दुर्भावना को न समझा. उन्हें क्या लगा- भौजी बहनापे के कारण, पट्टी पढ़ा रही थी?! या वे जानकर, अनजान बने थे...दोस्ती की खातिर!!

रमन पर ‘सोशलाइजेशन’ का भूत सवार हो गया था. इस बार वे अपने एक जूनियर, मोहन राव के घर ले गये. कहने को तो वे उनके कनिष्ठ सहकर्मी थे पर उम्र में बड़े. वह अपने छोटे से घर को, बड़े करीने से सजाकर रखते थे. उनके हाव- भाव से लगा कि उनके मन में रमन को लेकर, एक हीनभावना सी थी- कम उमर का लड़का... उनसे पद और प्रतिष्ठा में, कहीं बड़ा! राव मेहमानों को, घर के हर कमरे में ले गये- कुल जमा, तीन छोटे छोटे कमरे थे. अलमारियां और फ्रिज तक खोलकर दिखाए. दालान पर बिछी दरी पर, धुले हुए आलू सुखाने के लिए डाले थे. चमचमाते हुए आलू! रमन मुग्ध हो रहे थे. अलमारियों में कपड़े कायदे से प्रेस करके रखे हुए...फ्रिज में खाने के सामान, मक्खन आदि प्लास्टिक के साफ़- सुथरे कंटेनरों में.

ऐसा करते हुए, मोहन राव तो अपनी हीनता से उबरने लगे पर रमन शायद अपनी ‘नौसिखिया’ घरवाली को लेकर, छोटा महसूस कर रहे थे. उनके भीतर का देहाती पुरुष, जाग उठा. गाँव में लोग अपनी अशिक्षित बीबी को, बैल की तरह हांकते हैं...लताड़ते हैं... दूसरी औरतों से तुलना करते हैं- ताकि उनकी जहालत कुछ कम हो. पर यहाँ तो पढ़ी- लिखी सहधर्मिणी का प्रश्न था. किसकी पत्नी, कितनी बेहतर नौकरानी है- इस बात का नहीं! मोहन के घर में, बच्चे तक व्यवस्थित हैं. अपने खिलौने, किताबें आदि नहीं बिखराते. किन्तु यह क्या बात हुई कि दूसरे लापरवाह बच्चों पर, फब्ती कसी जाए!! राव की पत्नी यही तो कर रहीं थीं. और फिर आलू आदि धोने में, वक्त क्यों जाया करना?! उन्हें यथावत, टोकरी में रखा जा सकता है.

डब्बों को क्रमवार, साइज़ के हिसाब से, सजाने का समय भी चाहिए. इससे तो स्टील के बर्तन भले. प्लास्टिक वैसे भी, स्वास्थ्य के लिए बुरा है. दिखावे मात्र को भोजन, पारदर्शी पात्र में रखना- कहाँ की समझ है ?! अनचाहे ही सुमित्रा, रुग्ण आशंका से घिर गयी. रमन की अर्थपूर्ण दृष्टि, अभी भी उसका पीछा कर रही थी- आईना दिखाने के लिए! नंदा भौजी, कुनिका के गाँव से थीं. उसने बताया, “बड़ी पहुँची हुई औरत है नंदा! बच्चों को ख़ाक पाला होगा इसने- छुटपन में ही हॉस्टल भेज दिया!! पति इसे ले नहीं गया; दूसरे अफसरों की पत्नियों में जो सलीका, अंग्रेजी बोलने की समझ थी, वह इसमें नहीं थी.

पीठ पीछे देवर से दिल लगा बैठी. सास –ससुर को अंदेशा हुआ तो उन्होंने देवर का ब्याह, कच्ची उम्र में ही करवा दिया. देवरानी के आते ही, इसका खेल ख़त्म हो गया. मन मारकर, पति के पास आना पड़ा. इधर सुदर्शन भी, अकेलेपन से ऊब गये थे; सो परिस्थिति से समझौता कर लिया.” सुमी के मन में कौंधा, ‘नवदम्पति को देख, नंदा की कुंठा मुखर हो उठती है... उस विवाहिता को, नीचा दिखाने पर तुल जाती है.’ रमन कपड़े बदल रहे थे, साथ कुछ गुनगुना भी रहे थे. ‘और किसी ‘सोशल- विजिट’ की, योजना तो नहीं है ...?!’- सुमित्रा ने कुढ़कर सोचा.

जल्द वह नौबत भी, आ ही गयी!! शहर के बाहरी इलाके में, रजत के कोई दूर के रिश्तेदार थे; उनके वहां भी हाजिरी बजानी पड़ी! उस घर की स्त्री, अत्यंत वाचाल थी. नये जोड़े की टांग खींचती रही- अपनी ‘नॉन वेज’ चुटकियों से. सुमित्रा संकोच और बेचारगी से, बेहाल हुई जा रही थी. पर रमन को कोई अंतर नहीं. वे तो ‘हो हो’ करके हंस रहे थे. स्त्री के पति भी, तटस्थ भाव से बैठे, मंद मंद मुस्करा रहे थे. इन सबके लिए, यह सामान्य बात थी- गाँव में बारातियों को, कैसी कैसी अश्लील गालियाँ दी जाती हैं!!! सुमी पर ये मुलाकातें, भारी पड़ने लगीं. पति चाहते थे, वह समायोजन करे- नंदा भौजी के फार्मूले के साथ...श्रीमती राव की नसीहतों के साथ....निरर्थक सामाजिक आयोजनों के साथ... रिश्तेदारों की बेबाकी के साथ!

लेकिन वह उस दबाव, उस घुटन के संग, जीना नहीं चाहती. वह शिक्षित है- उसकी अपनी सोच, अपने तर्क, अपनी प्राथमिकताएं हैं...उसे स्पेस चाहिए. हमेशा पत्नी ही क्यों समझौता करे? पति ही, क्यों तय करे कि पत्नी को क्या पहनना/ किससे बोलना -बतियाना है?? स्त्री की जड़ें कहीं नहीं. मायके में पिता और भाई उसके सूत्रधार और ससुराल में पति- परमेश्वर! रमन पिछड़े समाज से थे. उन लोगों के साथ, सहज महसूस करते थे. निम्न मानसिक- बौद्धिक स्तर से, उन्हें समस्या नहीं होती! इसी समाज ने - एक ‘इम्फिरियोरिटी’ रमन को भी दी. बराबर के अफसरों से, मेल- मुलाक़ात न करके वे ‘नीचेवालों’ के साथ, खुश रहते. उस हीनता को, सुमी पर भी थोप देते! यह सब, उनसे कहे तो कैसे कहे?!!

खयालों की कशमकश के बीच, फोन की घंटी सुनाई दी. उसकी सखी मल्लिका का फोन था, “ सुमी तेरे ही शहर में एक वेकेंसी है- डांस टीचर की. जीजी भी वहीँ हैं...उन्हीं से बात कर. तेरी क्वालिफिकेशन एकदम फिट है...नौकरी बिलकुल पक्की समझ!!” उत्तेजना में मल्लिका ने, सांस भी नहीं ली. सुमित्रा खिल उठी. शास्त्रीय नृत्य की ट्रेनिंग, अब काम आएगी. रमन उसे जॉब करने से, नहीं रोक सकते- उन्होंने वादा किया था...वह स्टेज शो करवा सकती है...कुछ सीख, कुछ सिखा सकती है... रचनात्मकता के नये आयाम छू सकती है और सबसे अहम बात- घिसे पिटे दायरों को लांघकर, खुद अपने दायरे गढ़ सकती है!!!

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नाम- विनीता शुक्ला

शिक्षा – बी. एस. सी., बी. एड. (कानपुर विश्वविद्यालय)

परास्नातक- फल संरक्षण एवं तकनीक (एफ. पी. सी. आई., लखनऊ)

अतिरिक्त योग्यता- कम्प्यूटर एप्लीकेशंस में ऑनर्स डिप्लोमा (एन. आई. आई. टी., लखनऊ)

कार्य अनुभव-

१- सेंट फ्रांसिस, अनपरा में कुछ वर्षों तक अध्यापन कार्य

२- आकाशवाणी कोच्चि के लिए अनुवाद कार्य

सम्प्रति- सदस्य, अभिव्यक्ति साहित्यिक संस्था, लखनऊ

सम्पर्क- फ़ोन नं. – (०४८४) २४२६०२४

मोबाइल- ०९४४७८७०९२०

प्रकाशित रचनाएँ-

१- प्रथम कथा संग्रह’ अपने अपने मरुस्थल’( सन २००६) के लिए उ. प्र. हिंदी संस्थान के ‘पं. बद्री प्रसाद शिंगलू पुरस्कार’ से सम्मानित

२- ‘अभिव्यक्ति’ के कथा संकलनों ‘पत्तियों से छनती धूप’(सन २००४), ‘परिक्रमा’(सन २००७), ‘आरोह’(सन २००९) तथा प्रवाह(सन २०१०) में कहानियां प्रकाशित

३- लखनऊ से निकलने वाली पत्रिकाओं ‘नामान्तर’(अप्रैल २००५) एवं राष्ट्रधर्म (फरवरी २००७)में कहानियां प्रकाशित

४- झांसी से निकलने वाले दैनिक पत्र ‘राष्ट्रबोध’ के ‘०७-०१-०५’ तथा ‘०४-०४-०५’ के अंकों में रचनाएँ प्रकाशित

५- द्वितीय कथा संकलन ‘नागफनी’ का, मार्च २०१० में, लोकार्पण सम्पन्न

६- ‘वनिता’ के अप्रैल २०१० के अंक में कहानी प्रकाशित

७- ‘मेरी सहेली’ के एक्स्ट्रा इशू, २०१० में कहानी ‘पराभव’ प्रकाशित

८- कहानी ‘पराभव’ के लिए सांत्वना पुरस्कार

९- २६-१-‘१२ को हिंदी साहित्य सम्मेलन ‘तेजपुर’ में लोकार्पित पत्रिका ‘उषा ज्योति’ में कविता प्रकाशित

१०- ‘ओपन बुक्स ऑनलाइन’ में सितम्बर माह(२०१२) की, सर्वश्रेष्ठ रचना का पुरस्कार

११- ‘मेरी सहेली’ पत्रिका के अक्टूबर(२०१२) एवं जनवरी (२०१३) अंकों में कहानियाँ प्रकाशित

१२- ‘दैनिक जागरण’ में, नियमित (जागरण जंक्शन वाले) ब्लॉगों का प्रकाशन

१३- ‘गृहशोभा’ के जून प्रथम(२०१३) अंक में कहानी प्रकाशित

१४- ‘वनिता’ के जून(२०१३) और दिसम्बर (२०१३) अंकों में कहानियाँ प्रकाशित

१५- बोधि- प्रकाशन की ‘उत्पल’ पत्रिका के नवम्बर(२०१३) अंक में कविता प्रकाशित

१६- -जागरण सखी’ के मार्च(२०१४) के अंक में कहानी प्रकाशित

१८-तेजपुर की वार्षिक पत्रिका ‘उषा ज्योति’(२०१४) में हास्य रचना प्रकाशित

१९- ‘गृहशोभा’ के दिसम्बर ‘प्रथम’ अंक (२०१४)में कहानी प्रकाशित

२०- ‘वनिता’, ‘वुमेन ऑन द टॉप’ तथा ‘सुजाता’ पत्रिकाओं के जनवरी (२०१५) अंकों में कहानियाँ प्रकाशित

२१- ‘जागरण सखी’ के फरवरी (२०१५) अंक में कहानी प्रकाशित

२२- ‘अटूट बंधन’ मासिक पत्रिका ( लखनऊ) के मई (२०१५) अंक में कहानी प्रकाशित

२३- ‘वनिता’ के अक्टूबर(२०१५) अंक में कहानी प्रकाशित

पत्राचार का पता-

टाइप ५, फ्लैट नं. -९, एन. पी. ओ. एल. क्वार्टस, ‘सागर रेजिडेंशियल काम्प्लेक्स, पोस्ट- त्रिक्काकरा, कोच्चि, केरल- ६८२०२१

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जोशी,1,सी.बी.श्रीवास्तव विदग्ध,1,सीताराम गुप्ता,1,सीताराम साहू,1,सीमा असीम सक्सेना,1,सीमा शाहजी,1,सुगन आहूजा,1,सुचिंता कुमारी,1,सुधा गुप्ता अमृता,1,सुधा गोयल नवीन,1,सुधेंदु पटेल,1,सुनीता काम्बोज,1,सुनील जाधव,1,सुभाष चंदर,1,सुभाष चन्द्र कुशवाहा,1,सुभाष नीरव,1,सुभाष लखोटिया,1,सुमन,1,सुमन गौड़,1,सुरभि बेहेरा,1,सुरेन्द्र चौधरी,1,सुरेन्द्र वर्मा,62,सुरेश चन्द्र,1,सुरेश चन्द्र दास,1,सुविचार,1,सुशांत सुप्रिय,4,सुशील कुमार शर्मा,24,सुशील यादव,6,सुशील शर्मा,16,सुषमा गुप्ता,20,सुषमा श्रीवास्तव,2,सूरज प्रकाश,1,सूर्य बाला,1,सूर्यकांत मिश्रा,14,सूर्यकुमार पांडेय,2,सेल्फी,1,सौमित्र,1,सौरभ मालवीय,4,स्नेहमयी चौधरी,1,स्वच्छ भारत,1,स्वतंत्रता दिवस,3,स्वराज सेनानी,1,हबीब तनवीर,1,हरि भटनागर,6,हरि हिमथाणी,1,हरिकांत जेठवाणी,1,हरिवंश राय बच्चन,1,हरिशंकर गजानंद प्रसाद देवांगन,4,हरिशंकर परसाई,23,हरीश कुमार,1,हरीश गोयल,1,हरीश नवल,1,हरीश भादानी,1,हरीश सम्यक,2,हरे प्रकाश उपाध्याय,1,हाइकु,5,हाइगा,1,हास-परिहास,38,हास्य,59,हास्य-व्यंग्य,78,हिंदी दिवस विशेष,9,हुस्न तबस्सुम 'निहाँ',1,biography,1,dohe,3,hindi 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रचनाकार: विनीता शुक्ला की कहानी - दायरे
विनीता शुक्ला की कहानी - दायरे
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