ईबुक - सरहदों की कहानियाँ -8 / चौराहे से उत्तर की ओर अब्दुल रहमान सियाल / अनुवाद व संकलन - देवी नागरानी

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  चौराहे से उत्तर की ओर अब्दुल रहमान सियाल सुबह का वक़्त है, बस से उतरकर रोज़ की तरह चार कमरों तक महदूद उस कॉलेज की बिल्डिंग की ओर रुख़ कि...

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चौराहे से उत्तर की ओर

अब्दुल रहमान सियाल

सुबह का वक़्त है, बस से उतरकर रोज़ की तरह चार कमरों तक महदूद उस कॉलेज की बिल्डिंग की ओर रुख़ किया और हर रोज़ की तरह जल्दी- जल्दी सीढ़ियाँ फलांगते हुए क्लास रूम में पहुँचकर किताब कॉपियों को सीट पर फेंकते हुए बरांडे में आकर खड़ा हो गया। यहाँ वहाँ नज़र फिराई, देखा अभी तक कॉलेज का दरबान भी नहीं आया था। रोज़ की तरह सामने ‘कोर्ट व्यू’ बिल्डिंग पर लगे अंग्रेज़ी पोर्स्टस को चाह के साथ देखने लगा, कि उनमें कौन से नये पोस्टरों का इज़ाफ़ा हुआ है। जिस्म को उभारते पोस्टर शायद परीक्षा लेने के लिये लगाये गये हैं। पोस्टरों के पीछे कोर्ट के बाहर झोपड़ियों के नीचे मुनीमों की टेबल व कुर्सियाँ ऊपर से देखीं जो रोज़ की तरह उलट कर रखी गई थीं। यह सब देखने के बाद नीचे उतर आया। कॉलेज की बिल्डिंग का चक्कर लगाया पर कोई भी ऐसा आदमी नहीं पहुँचा था जिस के साथ बैठकर पल भर भी वक़्त गुज़ारा जा सके। कभी कभी कोई मुझसा सीधा-सादा कोई स्टूडैंट आ जाता तो फिर अच्छी कचहरी हो जाती थी और काफ़ी समय भी गुज़र जाता था।

पर आज कोई भी स्टूडैंट नहीं आया था। बस मैं अकेला ही था। पर अकेला बोर हो रहा हूँ क्या करूँ? कहाँ जाऊँ? अभी इन्हीं ख़यालों में गुम था कि अचानक घड़ियाल की घंटी बज उठी। नज़र उठाकर देखा तो साढ़े सात बजे थे। टाइम देखकर और भी ज़्यादा बोर होने लगा। कॉलेज शुरू होने में पूरा एक घंटा बाक़ी था। पहला पीरियड मिस जमाल का होता है। वैसे तो पहला पीरियड अटैंड करना किसी को भी याद नहीं होता था। अक्सर कई स्टूडैंट्स का मिस हो जाता था। पर जब से मिस रोज़ी जमाल हमारे कॉलेज में आई हैं, तब से स्टूडैंट्स क्लास शुरू होने के पहले आ जाते हैं। हर एक भली-भांति तैयार होकर आ जाता।

क्लास शुरू होने में पूरा एक घंटा बाक़ी था। मन में बहुत गुस्सा भर गया। जब कुछ और न कर सका तो मन ही मन में स्कूल बस के ड्राइवर को पहले तो कोसने लगा और फिर गालियाँ देने लगा, क्योंकि जो ठंडक गालियाँ देने से मिलती है, वह कोसने से नहीं मिलती। साला..... कहीं का। सुबह साढ़े पाँच बजे नींद से उठना पड़ता है, सिर्फ़ स्कूल बस तक पहुँचने के लिये। बेबस होकर स्कूल की सीढ़ी पर एक खंभे का सहारा लेकर बैठ गया। दस-पंद्रह मिनट गुज़र गए पर कोई भी दोस्त नहीं आया जिसके साथ बैठ कर वक्त गुज़ारने की ख़ातिर कोई इश्क की दास्तां की बात करूँ। दिल में ख़याल आया, किसको फ़ुर्सत है कि साढ़े सात बजे कॉलेज आए! शहर वालों के लिये तो जैसे सूरज अभी भी निकला ही नहीं है। आठ के पहले कौन आता है? जहाँ भी नज़र जाती हैं वहाँ वीराना दिखाई देता है, जैसे किसी राक्षस के डर से लोग घरों में छुपकर बैठे हों। स्कूल की सीढ़ी से उठकर बाहर की बड़ी गेट पर आकर खड़ा हो गया। हलका यातायात प्रवाहित हो रहा था।

रोज़ वक़्त गुज़ारने के लिये कहीं न कहीं राहों पर निकल पड़ता हूँ। आज भी फिरदोस सिनेमा से होता हुआ चौराहे पर आकर खड़ा हो गया। दिल में यही पीड़ा रही कि सुबह के समय शायद किसी अपने का दीदार हो जाए पर वहाँ भी यही लगा जैसे कोई राक्षस सुबह-सुबह वहाँ से होकर गया हो। एक मैं ही था जो इस वक़्त ऐसी बेकार बातें सोच रहा था। जाने क्यों आज बेचैनी हद से ज़्यादा बढ़ गई थी। आज भी क़दम अपने आप किसी ओर बढ़ने लगे। चौराहे से होकर सीधा ‘सीमाब ड्राई क्लीनर्स’ के सामने से फिरते हुए उत्तर में जाती गली की ओर बढ़ा।

ऐसे भी दिन थे जब मैं हर रोज़ उस गली में से गुज़रता था, पर आज बहुत दिनों के बाद उस गली में दाख़िल हुआ हूँ। गली में नज़र दौड़ाई, और कुछ तो नहीं, बस राह में कोई पत्थर पड़ा था। फुटबॉल का शौक़ीन हूँ, आदत से मजबूर होकर जूते से एक ज़ोरदार ठोकर लगाई। पत्थर उछलता हुआ दूर जा पहंचा। गर्दन उठा कर देखा तो वह सामने किसी दरवाज़े पर खड़ी लड़की के क़रीब जाकर गिरा था। बहुत शर्मसार हुआ। दिल में सोचा- ‘लड़की क्या सोचेगी... शायद यही सोचेगी कि पागल हूँ.... या यही कि मैं उसे छेड़ने के लिये कर रहा हूँ। सोचा.... कहीं अपने माता-पिता को बुलाकर मार न पिटवाए कि दिमाग़ से इश्क का धुआँ निकलता रहे। पीछे हटने की कोशिश की। दिल में आया कि दौड़कर वहाँ से भाग निकलूँ ताकि वह मुझे देख भी न पाए। पर जाने क्यों एक क़दम भी पीछे हटा न सका। सामने बैठी लड़की अपने ख़्यालों में गुम थी। सफ़ेद पोशाक और सर पर काले रंग की रजाई ओढ़ रखी थी। कालापन तो मायूसी की निशानी है या फिर प्यार में शिकस्त की, पर आजकल काला कपड़ा आमतौर पर फैशन की माँग रहा है, फिर चाहे क्यों न पहनने वाला ख़ुद भी कोयले सा काला हो। लड़की ने गर्दन उठाकर मेरी ओर देखा.... यह चेहरा तो सौंदर्य का प्रतीक लगा, जैसे जाना-पहचाना, जैसे देखा-भाला। उसने मुझे देखते ही शायद पहचान लिया और मैं घबराहट के मारे गर्दन ऊपर उठाकर बिल्डिंग पर लिखा ‘इंगलिश टीचिंग स्कूल’ का नाम पढ़ने लगा।

दूसरी बार निहारा। दिल का दर्द उमड़ने लगा। पुराने ज़ख़्म जैसे रिसने लगे। ख़ुद-ब-ख़ुद बिना किसी इरादे वहीं खड़े सोचता रहा कि आगे चला जाऊँ? बात करूँ या न करूँ? क्या करूँ क्या न करूँ? वह मेरी ओर देखकर मुस्करा दिया, शायद मेरा हालत पर। मैं अभी भी सोचों में गुम था। फिर यहाँ वहाँ देखा कि कोई देख तो नहीं रहा। पर कोई भी नहीं था। वह अपने स्कूल के दरवाज़े के पास सीढ़ी में बैठी है। अभी तक कोई भी बच्चा नहीं आया था। हिम्मत नहीं होती कि मैं उससे बात कर सकूँ। शांत खड़ा हूँ।

"आज कैसे सवेरे सवेरे राह भूल गए हो?" ख़ुद बात की पहल करके उसने मेरी मुश्किल आसान कर दी।

"बस! आज कोई दक्षिण की हवा खींच लाई है, नहीं तो आने का कोई इरादा नहीं था।" मैंने कहा।

"हवाएँ अगर किसी को अपने साथ ले आतीं तो फिर शायद मैं भी किसी तरफ खिंची चली जाती।" उसने कहा।

"हवाएँ हर इंसान को तो नहीं खींचतीं, वे सिर्फ़ कमज़ोरों को खींच कर ले जाती हैं।" मैंने कहा।

उसने घूरकर मेरी ओर देखा, कुछ मुस्करा दिया और फिर यहाँ वहाँ ऐसे देखा जैसे किसी को ढूँढ रही हो। आँखे जैसे किसी को देखने के लिये आतुर थीं।

"किसे ढूँढ रही हो?" मैंने पूछा।

"उस गुज़रे वक़्त को ढूँढ रही हूँ जब मैं और तुम...." उसने बात आधे में काटते हुए कहा और फिर मुझपर अपनी नज़रें गाढ़ दीं जैसे पूछ रही हो

- कहाँ थे? कैसे थे?

मेरे पास उसके किसी भी सवाल का जवाब नहीं था।

"क्या देख रही हो?" मैंने फिर पूछा।

"देख रही हूँ कि.... कितना बदलाव आया है उन आँखों में जो हमेशा ख़ुमार में डूबी रहती थीं और वह चेहरा जो हमेशा दुखों के बावजूद भी मुस्कराता रहता था, वह सब कुछ आज पता नहीं क्यों...." वह आगे कुछ भी न कह पाई। मैं शांत खड़ा रहा। कुछ कहना चाहता था, कुछ पूछना चाहता था, कुछ बीते हुए समय को दोहराना चाहता था। पर वे सभी बातें कहनी व्यर्थ थीं। किससे बात करता? उससे, जिसकी डगर मुझसे बिलकुल अलग थी। जिसकी मंज़िल मुझसे बहुत दूर थी।

"कितने दिनों के बाद मिले हो, फिर भी ख़ामोश!" उसने पूछा।

"बात करने के लिये कुछ बाक़ी बचा भी नहीं है।" मैंने कहा।

"जिन के पास बात करने के लिये कुछ नहीं बचता, उन्हें बीते हुए कल के कुछ पल और कुछ यादें ज़रूर तड़पाती हैं।" उसने कहा।

"जब तड़पने की कोई संभावना ही न हो तो माज़ी के वो पल, वो यादें कहाँ तड़पेंगी?" मैंने कहा।

"पता नहीं क्यों, वक़्त अपनी रफ़्तार के साथ-साथ इन्सान को भी बदल देता है।" उसने कहा।

"वक़्त अगर इन्सान को बदल देता तो फिर शायद आज कोई किसी को पहचान न पाता।" मैंने कहा।

वह ख़ामोश बैठी रही। पता नहीं क्यों उसने मुझसे वह सब कुछ फिर पूछना चाहा, जो गुज़र चुका था। पर मैं नहीं चाहता था कि माज़ी को फिर से याद किया जाय। हमारी राहें अलग थीं और उन राहों पर चलने वाले दूसरे थे। हमारे हाथों की कनिष्ठिकाएँ दूसरों के हाथों में थीं। शायद हम बूढ़े हो जाएंगे तब भी हमारी लगाम हमेशा औरों के हाथों में होगी। दूर तक नज़र फिराई, बच्चों ने स्कूल में आना शुरू कर दिया था। मैं उस के पास खड़ा रहा, उसकी तरह मैं भी ख़ामोश था। हमारे बीच में वहीं एक सी ख़ामोशी थी। दूर से शायद कोई और टीचर आ रही थी और मैं घबराकर बिना कुछ कहे आगे बढ़ा। पता नहीं क्यों वक़्त ने उसे समुद्र की

एक लहर की तरह किसी दूसरे किनारे पर फेंक दिया है। हमारे बीच में फ़ासला इतना बढ़ गया है कि मैं उस तक पहुँच नहीं पाया। उसे छोड़कर मैं आगे बढ़ा। सीमाब ड्राईक्लीनर की ओर से चौराहे के गिर्द घूमकर कॉलेज की ओर बढ़ा। कुछ पल पहले वही क़दम जल्दी जल्दी चौराहे की ओर बढ़े थे, पर अब वह चुस्ती बिल्कुल ख़त्म हो गई थी। ऐसे महसूस कर रहा हूँ जैसे सारी दुनिया का बोझा मेरे कंधों पर आकर लद गया हो। कॉलेज की बाहर वाली बड़ी गेट से अंदर दाखिल हुआ। इससे पहले सुबह जहाँ वीरानगी के सिवा कुछ भी नहीं था, अब वहीं चहल पहल लगी हुई थी। स्कूल और कॉलेज के स्टूडैंट अपनी अपनी कक्षाओं में जा चुके थे। मैं कॉलेज की सीढ़ी से चढ़ते हुए वरांडे में दाख़िल हुआ। पौने नौ बज चुके थे। मैं अपनी कक्षा के पिछले दरवाज़े से इजाज़त लिये बिना चुपचाप जाकर पिछली सीट पर बैठा। मिस जमाल उस वक़्त पढ़ा रही थी और मैं अपनी सोचों में गुम था। वे बातों में चालाक और चुस्त ज़रूर है पर पढ़ाने में इतनी होशियार नहीं। अंग्रेजी में मास्टर्ज़ की डिग्री है उसके पास। कॉलेज के सभी स्टूडैंट मिस रोज़ी जमाल का नाम लेकर आहें भरते हैं, पर मुझे वह बिल्कुल नहीं भाती.... शायद ग़ैर होने के नाते और अपने फैशन के तौर तरीक़े और नखरों के कारण। पूरे कॉलेज की तीन लेडी टीचर्स में से सिर्फ़ एक टीचर मेरी आदर्श हैं, क्योंकि वह हमेशा चुप रहती हैं, मेरी तरह, या शायद अपनी सी लगती है।

क्लास में मिस जमाल की आवाज़ संगीत की तरह फैल रही है और मेरी गर्दन ज़मीन की ओर झुकी हुई थी। किसी गहरी सोच में डूबा हुआ था। क्लास में लेक्चर की तरफ़ कोई ध्यान ही न रहा। सीट पर ख़ुद को मवाली की तरह आज़ाद छोड़ दिया है। सोचों का सिलसिला जारी है। आज की मुलाक़ात अनोखी और अचानक हुई, बिलकुल सपनों की तरह मिस जमाल की आवाज़ ने अचानक सपनों से जगा दिया।

आज भी कल की तरह बस ने जल्दी लाकर छोड़ दिया है। सब कुछ रोज़ की तरह सामान्य है। मैं कॉलेज की इमारत से निकलकर चौराहे की ओर बढ़ता हूँ, कहीं-कहीं सोचों में खो जाता हूँ- मैं आज उससे मिलूँ या न मिलूँ?

सारी रात जागते उसी सोच में गुज़ारी है। कोई फ़ैसला नहीं कर पाया हूँ। चौराहे पर खड़ा हो जाता हूँ। एक दो क़दम आगे बढ़ता हूँ। हाँ, वह मेरा इंतज़ार करती होगी, मैं मन में सोचता हूँ। हाँ, मेरा इंतजार करती रहे। जब संजोग ही नहीं होना तो फिर क्यों किसी से मिला जाय। वह अलग, मैं अलग। फिर मिलना कैसा? मेरे मिलने से कहीं उसकी ज़िन्दगी ज़हर न बन जाए। मैं उसके लिये सोचता रहता हूँ। आज अपने आप ही उत्तर की तरफ जाने की बजाय दक्षिण की तरफ़ निकल आया हूँ। यहाँ कोई भी स्कूल नहीं, कोई भी लड़की नहीं। सिवा गैरेज के जहाँ लड़के और मिस्तरी हैं जो सुबह से आते ही ठक ठक करने लग गए हैं।

एक कार मेरे पास से गुज़रते हुए थोड़ा आगे जाकर गैरेज के पस रुक जाती है। ड्राइवर दरवाज़ा खोलकर मिस्त्री से बात करने लगता है। कार की पिछली सीट पर कोई सुंदर लड़की बैठी है। अपने आप से आँखें उठ जाती हैं। मैं आंखे रगड़ने लगता हूँ और ग़ौर से देखने की कोशिश करता हूँ। आँखों पर विश्वास नहीं होता, नज़र वहीं अटक जाती है। पुष्टि करना चाहता हूँ

वह बैठी है। तिरछे कोण से चेहरा नज़र आ रहा है। पता नहीं उसने भी मुझे देखा है या नहीं? उलटे पैर लौटता हूँ जैसे किसी ने बदन को डस लिया हो। दीर्घ श्वास की क्रिया जारी रहती है। लगता है उसने मुझे देखा नहीं है, वर्ना मुड़कर मेरी ओर ज़रूर देखती। पर वह कार किसकी हो सकती थी?

कार और अध्यापिका- परिकल्पना नहीं कर पाया। अब दृढ़ निश्चय कर लिया है कि उत्तर की तरफ़ चला जाऊँगा। बस यही दो भाग रह गए हैं। पर अगर वह उस तरफ़.... सोच कर चौंक उठता हूँ, शायद मैं उससे डर गया हूँ- मेरे लिये हर दिशा सीमित हो चुकी है। आज मैं ड्राइवर की बजाय ख़ुद को कोसने लगता हूँ- काश! मैं उत्तर की तरफ़ न गया होता। अपने आप से बतियाता हूँ।

मैं उससे बच नहीं सकता। ऐसा लगता है, मैं सारी उम्र उससे दूर भागता रहूँगा, पर वह किसी न किसी मोड़ पर ज़रूर आ पहुँचेगी। 

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Devi Nangrani

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(क्रमशः अगले अंकों में जारी…)

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रचनाकार: ईबुक - सरहदों की कहानियाँ -8 / चौराहे से उत्तर की ओर अब्दुल रहमान सियाल / अनुवाद व संकलन - देवी नागरानी
ईबुक - सरहदों की कहानियाँ -8 / चौराहे से उत्तर की ओर अब्दुल रहमान सियाल / अनुवाद व संकलन - देवी नागरानी
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