पि छले कई महीनों से इस देश के लोगों ने एक नया शगल पाल लिया है. खासकर बुद्धिजीवियों ने...पता नहीं बैठे-बिठाये अपना काम छोड़कर वह बेसुरी डफल...
पिछले कई महीनों से इस देश के लोगों ने एक नया शगल पाल लिया है. खासकर बुद्धिजीवियों ने...पता नहीं बैठे-बिठाये अपना काम छोड़कर वह बेसुरी डफली क्यों बजाने लगे हैं. शायद उनके पास अब कोई काम नहीं है, या उनको कोई काम नहीं दे रहा है या वह चुक गये हैं?
पहले देश की राजनीतिक पार्टियों के नेता जनता को लुभाने के लिए अपनी-अपनी डफली बजाते रहते थे और उनसे बेसुरे राग निकाल कर जनता के मत हासिल करने के बेढंगे प्रयास करते दिखाई देते थे. हर दल की अपनी डफली होती थी और उनका अलग ही राग होता था. मसलन, कांग्रेस पार्टी का एक स्थायी राग है, महंगाई, गरीबी और बेरोजगारी. इसी राग को गाते-गाते उन्होंने देश को 68 साल पीछे धकेल दिया. न महंगाई दूर हुई, न गरीबी और बेरोजगारी. जो डालर देश के आजादी के समय एक रुपये के बराबर था, वह अब 67-68 रुपये के बराबर हो गया है. फिर भी हम कह रहे हैं कि देश की अर्थव्यवस्था अच्छी चल रही है.
यह पार्टी आजकल सत्ता से दूर है, परन्तु उसके युवराज इसी राग को हर तरफ गाते दिखाई देते हैं. उनके मुंह से केवल गरीबी, महंगाई और बेरोजगारी ही निकलती है.
मैं शायद मुद्दे से भटक रहा हूं. यहां मैं राजनीतिक दलों की डफली और उनके राग के बारे में बताने नहीं आया हूं. यहां तो मैं आम आदमी की बात कर रहा हूं. मैं यहां बता रहा था कि आम आदमी के बीच में जो एक बुद्धिजीवी नाम का प्राणी रहता है, और वह अपने को कुछ खास कहता है. कई बार वह अपने चेहरे पर काला चश्मा लगाकर आम आदमी से अलग दिखने की कोशिश करता है. उसे पता नहीं कहां से एक फूटी हुई डफली मिल गई और कि वह साहित्य लेखन छोड़कर उसे बजाकर देखने लगा. वह ठीक से नहीं बजी, तो रोने की आवाज में गाने लगा कि देखिए देश में अराजकता और असहिष्णुता का माहौल है. आम जनता मरी-पिसी जा रही है. सरकार असहनशील हो गयी है. यह देश रहने के काबिल नहीं रह गया है.
सबसे पहले यह राग हमारे देश के कुछ लेखकों ने गाया, फिर कुछ और लेखकों ने गाया और देखते-देखते बहुत सारे लेखक और साहित्यकार यह राग गाते हुए दिखाई देने लगे. जब उनके राग से किसी के कान में जूं नहीं रेंगी, तो उन्होंने अपने पुरस्कार वापस करने की घोषणा कर दी. उनसे पूछा गया कि वह अपने पुरस्कार क्यों वापस कर रहे हैं तो उनका जवाब था कि देश में असहिष्णुता बढ़ गयी है. वह सभी साहित्यकार पानी पी-पीकर सरकार को कोसने में जुट गये. टी.वी. पर बड़ी-बड़ी बहसें छिड़ गयीं. मजे की बात तो यह कि असहिष्णुता पर सभी सरकार को भद्दी-भद्दी गालियां दे रहे थे और सरकार उनको कुछ नहीं कह रही थी. भला बताइए, अगर सरकार असहिष्णु होती तो उनको जेल में बंद न कर देती. फिर भी तथाकथित साहित्यकार असहनशीलता और असहिष्णुता का राग अलाप रहे थे.
साहित्यकारों की देखा-देखी कुछ फिल्मकार भी इसी राग को गाने में जुट गये. अब उन चुके हुए साहित्यकारों और फिल्मकारों को कौन बताए, कि उन्होंने जैसा साहित्य लिखा और जिस प्रकार की फिल्में बनाई, उन पर तो कभी का बैन लग जाना चाहिए था. दूसरे देश में लग भी जाता, परन्तु भारत जैसे देश में कोई किसी को कुछ भी कह ले, कोई विरोध नहीं होता. यहां भगवान को गाली देते हैं और उसके भक्त चुपचाप मुंह फेर लेते हैं.
लेकिन असहिष्णुता और असहनशीलता की डफली बजाने और बेसुरे राग गानेवाले भूल जाते हैं कि भारत देश में ही अल्पसंख्यकों के प्रति सहिष्णुता बर्दाश्त की जाती है, किसी और देश में नहीं. अपने पड़ोसी देशों में जिस प्रकार अल्पसंख्यक समुदायों की संख्या घट रही है, वह शोचनीय है. हमारे देश में जिन्हें लोग अल्पसंख्यक कहकर प्रशय देते हैं, वह कितने असहिष्णु हैं, यह क्या कोई लुकी-छिपी बात है. इसी देश में अल्पसंख्यकों को हर प्रकार की सुविधा प्राप्त है, उनको अपने धर्म के अनुसार रहने की आजादी है, परन्तु वही लोग हिन्दू समुदाय के जुलूसों पर पत्थरबाजी करते हैं, दंगा भड़काते हैं. अभी मालदा में जो हुआ, वह छोटी घटना नहीं है; परन्तु ममता बनर्जी की सरकार ने उसे छोटी-मोटी घटना कहकर मामले को दबाने का प्रयास किया. दसियों सरकारी वाहन जला दिये गये, करोड़ों की सरकारी सम्पत्ति जला दी गयी, सरकारी दस्तावेज फूंक दिये गये और सरकार कह रही है कि यह एक छोटी-सी घटना थी. यही काम अगर इस देश के बहुसंख्यक करते तो तथाकथित बुद्धिजीवी असहिष्णुता का राग गाने लगते. परन्तु आज सभी चुप हैं. कोई कुछ नहीं कह रहा, न सरकार, न विपक्षी नेता, न मीडिया.
यह केवल भारत देश में संभव है कि यहां सहिष्णुता और सहनशीलता के मापदण्ड धर्म और सम्प्रदाय के आधार पर तय किये जाते हैं? पता नहीं नेता कब तक वोट की राजनीति के लिए देश और इसमें रहने वाले सम्प्रदयों और समुदायों को अलग-थलग करने का प्रयास करते रहेंगे? हम क्यों नहीं एक देश में एक जैसा कानून लागू करने का साहस करते? क्यों
धर्म और सम्प्रदाय के आधार पर अलग-अलग कानून और नियम बनाते हैं?
देश स्वतंत्र है और हमारे संविधान के अनुसार इस देश के नागरिकों को कुछ भी करने और कहने का अधिकार है, परन्तु क्या किसी को यह अधिकार मिल जाता है कि वह एक सम्प्रदाय को खुश करने के लिए दूसरे सम्प्रदाय को दबाने के लिए अनुचित प्रयास करे. जब-जब ऐसा होगा, देश के नागरिकों की सहिष्णुता और सहनशीलता का ह्रास होगा, आपस में वैमनस्यता बढ़ेगी और परिणामस्वरूप देश में दंगे-फसाद होते ही रहेंगे. इसके लिए सिर्फ और सिर्फ देश के नेता जिम्मेदार होंगे, जो सत्ता प्राप्त करने के लिए तरह-तरह के हथकंडे अपनाते हैं और धर्म-सम्प्रदाय के नाम पर लोगों को बांटने का प्रयास करते हैं.
तो मेरे कहने का तात्पर्य यह है कि साम्प्रदायिकता और असहिष्णुता की नई-नई डफलियां बाजार में आ गयी हैं. अब लोगों को इनको बजाने की आदत तो है नहीं, सो वह इनसे तरह-तरह के राग निकाल रहे हैं. शाहरुख खान और आमिर खान जैसे अभिनेता जो गरीब जनता के पैसों से अरब-खरबपति बने हैं, वह अगर देश में असहिष्णुता और असहनशीलता का राग अलापने लगें, तो समझ लीजिए कहीं न कहीं दाल में कुछ काला है. यह लोग फिल्मों मे रटे-रटाये संवाद बोलते हैं और सामाजिक मंचों पर राजनीतिक आकाओं द्वारा दिये गये संवाद बोलकर उनको खुश करने का प्रयास करते हैं.
बात यही नहीं रुकनेवाली...देश में डफलियां बजाने का राग आरंभ हो चुका है. यह जल्दी रुकने वाला नहीं है. मौसमी हवा तो थोड़ी-थोड़ी देर में अपना रुख बदल देती है. कभी
इधर बहती है, तो कभी उधर; परन्तु साम्प्रदायिकता का विष घोलनेवाली हवायें बहुत टिकाऊ होती हैं, क्योंकि यह स्पांसर्ड होती हैं और स्पांसरर्स के पास ढेर सारा काला धन होता है, इसलिए इस तरह की हवाओं को हवा देने के लिए उनके पास धनरूपी ढेर सारी सहिष्णुता और सहनशीलता होती है.
हमारे देश का माहौल बिगाड़ने के लिए इस देश में कुछ गैरसरकारी संस्थाएं भी काम कर रही हैं. डोनेशन के नाम पर इनको विदेश से अनाप-शनाप पैसा मिलता है. इसका कोई लेखा-जोखा नहीं होता. विदेश से आया काला धन देश को कमजोर बनाने के लिए किया जाता है. तरह-तरह के दुष्प्रचार किये जाते हैं, सरकार के खिलाफ अदालतों में आवेदन दिये जाते हैं; ताकि आम जनता को भरमाया जा सके. गुजरात दंगों के बाद इसी तरह की गैरसरकारी संस्थायें काम कर रही थीं, जो एक राजनीतिक पार्टी के प्रशय के तहत राज्य सरकार के विरुद्ध अलग-अलग मामले दर्ज करवा रही थीं.
देश के बुद्धिजीवियों से मेरा एक ही निवेदन है, कि अगर वह सक्षम हैं तो अपनी कलम और कला से देश में सहिष्णुता और सहनशीलता का माहौल बनाने का प्रयास करें. सरकार को गाली देने से कुछ नहीं होनेवाला. निष्पक्ष रहकर समान
अधिकारों के लिए लड़ें, न कि किसी विशेष सम्प्रदाय को झूठी खुशी दिलाने के लिए राजनीतिक दलों की तरह व्यवहार करें. इस देश के तथाकथित नेता, अपने व्यक्तिगत हितों के लिए जिस प्रकार देश को विनाश के कगार पर ले जा रहे हैं, उसका खामियाजा एक दिन इस देश की भावी पीढ़ी को भुगतना पड़ेगा. यह अभी किसी की समझ में नहीं आ रहा है, क्योंकि विनाश के चिह्न धीरे-धीरे नहीं, एकायक प्रकट होते हैं.
अपनी डफली, अपना राग छोड़कर देश का राग छेडें और उससे एकता, समानता और भाईचारे की मधुर धुन निकालें, तो हम सब साथ हैं.
- राकेश भ्रमर
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