ओम प्रभाकर की ग़ज़लें और गीत

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प्रकाशकीय इस अंक में हम ओम प्रभाकर की ग़ज़लें और उनके गीतों को प्रस्तुत कर रहे हैं। ग़ज़ल या गीत काव्य की मुख्यधारा में है या नहीं- इसकी चिंता क...

प्रकाशकीय

इस अंक में हम ओम प्रभाकर की ग़ज़लें और उनके गीतों को प्रस्तुत कर रहे हैं।

ग़ज़ल या गीत काव्य की मुख्यधारा में है या नहीं- इसकी चिंता किए बग़ैर ओम प्रभाकर विगत पचास वर्षों से सृजनरत् हैं। हिन्दी में ही नहीं वरन् वे उर्दू में भी लिखते हैं और उतने ही समादृत।

ओम प्रभाकर की ग़ज़ल-गीतों से गुज़रने पर लगता है कि वे मुख्यतः प्रेम के कवि हैं। ऐसा प्रेम नहीं जो जिस्मानी हो वरन् प्रेम उनके लिए सम्पूर्ण जीवन है जिसमें सुख भी है, दुःख भी है, आशा भी है, निराशा भी- और इसी द्वंद्वात्मकता को वे अभिव्यक्ति देते हैं। ग़ैरमामूली-सी बात में वे समूचा जीवन प्रस्तुत कर देते हैं। जिससे लगता है कि कवि पल-पल घट रही जीवन-स्थितियों के प्रति कितना सचेत है- कितना दृष्टिसम्पन्न है।

अपने ग़ज़ल-गीतों में ओम प्रभाकर किस हद तक जीवन को प्रस्तुत कर पाए हैं? कितना काव्य-परम्परा से जुड़े हैं? ऐसे बहुत सारे सवाल उठ खड़े हो सकते हैं- और इन सारे सवालों का जवाब रचना से गुज़रकर ही प्राप्त हो सकता है।

विश्वास है, पाठक जब इन्हें पढ़ेंगे ख़ुद-ब-ख़ुद उन्हें इनका जवाब मिल जाएगा।

5 अगस्त 1941 में जन्में ओम प्रभाकर पिछले पचास वर्षों से क़लम चला रहे हैं। भिण्ड में प्रोफ़ेसर रहे। सेवानिवृत्ति के बाद देवास में अब ठीहा बनाया है। अज्ञेय का कथा साहित्य, पुष्प चरित, कंकाल राग, काले अक्षर भारतीय, तिनके में अशियाना आदि सैकड़ों पुस्तकें प्रकाशित हैं और प्रकाशनाधीन। पत्नी इंदिरा के अनन्य भक्त प्रभाकर जी प्रकाशकांत, बहादुर पटेल जैसे बहुत सारे साथियों के साथ युवा हैं और मगन।

 

ग़ज़लें

1

कब तलक दीवार से सर टेककर बैठे रहें

चन्द लफ्ज़ों को उधेड़ें और घर बैठे रहें।

 

कब तलक कुछ लोग उठते जाएँ सूरज की तरह

और कब तक कुछ किए नीची नज़र बैठे रहें।

 

अब तो दरवाज़ा तिरे मक़्तल का खुलना चाहिए

कब तलक हम ले के हाथों में ये सर बैठे रहें।

 

गुज़रों वक़्तों के वो लम्हें फिर जनम लेकर मिले

इन परीज़ादों को घेरे रात भर बैठे रहें।

 

तू भी मेरे साथ हो इस फ़िक्र में घुलती हुई

किस तरह बेफ़िक्र होकर उम्र भर बैठे रहे।

 

2

धुंध के पार कहीं रौशनी उछलती है

ग़ोशःए-गुम1 में कोई ज़िन्दगी उछलती है।

 

मैं देखता हूँ कि दरिया जहाँ पे गिरता है

उसी ढलान से मछली कोई उछलती है।

 

सभी हैं घर में बमामूल1 अपनी-अपनी जगह

कि सिसकता है कोई बेकली2 उछलती है।

 

हवा की छेड़ से बलखाते हुए दरया में

चाँद को साथ लिए चाँदनी उछलती है।

 

ये सिर्फ़ जानता है नग़्मागर3 कि नग़्मे में

कहाँ पे चीख, कहाँ ख़ामुशी उछलती है।

 

नहीं है जिस पे सिवा जिस्म के कोई पूँजी

उसी के हाथों नई ज़िन्दगी उछलती है।

 

बज़्में इशरत4 के उबलते हुए हंगामे में

आग को सर पे रखे तीरगी उछलती है।

 

3

कल तलक था जहाँ बख़ूबी साफ़

अब नहीं है नज़र में कुछ भी साफ़।

 

कुछ मकाँ थे वहाँ तमछुन5 के

हो चुकी है उधर की बस्ती साफ़।

 

लम्हा दर लम्हा बेहिसी6 तारी7

दर्द इसको न उसका ग़म ही साफ़।

 

गिर चुके हैं सुतूनो-बामो-दर8

सारे मेहराब, दिल-हवेली साफ़।

 

जो भी हासिल था छुट गया सब कुछ।

कुछ देखे दुनिया मेरी हथेली साफ़।

 

और अब आख़िरिश ये सूरत है

तू भी बेशक्ल ज़िन्दगी भी साफ।

 

4

इस ख़काबे से कुछ उठा लेता

जिस को सीने से मैं लगा लेता।

 

कहने-सुनने को मोहब्बत रहती

फ़ासला और कुछ बढ़ा लेता।

 

फूल सारे किसी को दे देता

एक पत्ती हरी बचा लेता।

 

जितनी धरती थी, उतने घर भी थे

मैं कहाँ अपना घर बना लेता।

 

ये जहाँ होता गर तेरी सूरत

अपने दिल में इसे बसा लेता।

 

5

मैंने जब अपने कपड़े लहू में भिगो लिए

यूं ही बहुत से लोग मेरे साथ हो लिए।

 

जलता हुआ मकान भी अपनी गली में था

जब हो चुका वो ख़ाक तो कुछ हम रो लिए।

 

कुछ अश्क तेरी याद के कासे में डालकर

बाकी से अपने दिल के सभी दाग़ धो लिए।

 

ख़्वाबों के चंद टुकड़े थे कुछ लफ़्ज नीलू गूँ

यूँ ही पड़े हुए थे ग़ज़ल में पिरो लिए।

 

कुछ बातचीत हो न सकी वक़्ते रुख़्सती

दो थरथराते होंठ नज़र में समो लिए।

 

6

जैसे तैसे थका-माँदा तन लिए

शाम आ पहुँची अकेलापन लिए।

 

पेड़-पौदे सींचता रहता हूँ मैं

अपने अन्दर इक सुलगता वन लिए।

 

अब भी मुझको रास आती है बहुत

ज़िंदगी ढलता हुआ जोबन लिए।

 

कब तलक बैठे रहें यूँ बुत बने

दरम्याँ छोटी सी इक अनबन लिए।

 

तू ख़िजाँ है तो भी आएगी क़रीब

मैं हूँ तेरा मुन्तज़िर गुलशन लिए।

 

गिरते-पड़ते तेरे दर तक आ गया

मैं अक़ीदे का दिया रोशन लिए।

 

देख तो गुम्बद पे वो सूरज-किरन

अपने हाथों में तिरे कंगन लिए।

 

7

कोहनियाँ, घुटने मोड़ कर सो जा

अपनी ख़िल्वत को ओढ़कर सो जा।

 

थोड़े गुज़रे हैं, थोड़े गुज़रेंगे

माहों-सालों को जोड़कर सो जा।

 

चाहतें छोड़ और बदल करवट

अपने दिल को सिकोड़कर सो जा।

 

आज भी तो गुज़र गया यूँ ही

कल की उम्मीदें छोड़कर सो जा।

 

आ गयी रात, कारे दुनिया की

रस्सियाँ सारी तोड़ कर सो जा।

 

कुछ नहीं होगा रोने-धोने से

अपनी पलकें निचोड़कर सो जा।

 

8

कभी आँगन, कभी ज़ीना, कभी कमरा महकता है

हमारे दरम्याँ इक फूल ना दीदा महकता है।

 

ठिठक कर रह गया जो तेरे सरहाने अभी आकर

तेरी रौशन जबीं वो धूप का टुकड़ा महकता है।

 

तू मेरे साथ है, इतना बहुत है, सिर्फ इतने से

मिरें घर का हर इक गोशा, हर इक ज़र्रा महकना है

 

न जाने कौन उसमें झूलता होगा बहुत पहले

वो रस्सी हिल रही है और गहकारा महकता है

 

खिला सहरा में मेरे दिल की सूरत एक गुलतन्हा

झुलसता जा रहा फिर भी वो बेचारा महकता है।

 

बता सकती हो नक़्शे में, कहाँ है वो नगर जिसमें

गली के पार दर खुलता है गलियारा महकता है।

 

9

तुम्हारे बाद भी ये ज़िन्दगी महसूस होती है

शबे फ़ुरकत1 में भी कुछ रौशनी महसूस होती है।

 

बहुत कुछ दूर रहती है जो शब मेरे शबिस्ता.1 से

सहर2 उस रात की काफ़ी नई महसूस होती है।

 

वो ज़ीनों और कोठों के बरहना सर्द गोशों3 में

अभी भी इक सुलगती तीरगी4 महसूस होती है।

 

कभी अहसास होता है कि मैं बेकार ज़िन्दा हूँ

तभी दुनिया मुझे मरती हुई महसूस होती है।

 

रिदाए शर्म सर पर डालकर वो चल दिए, फिर भी

मुझे बिस्तर पे इक शर्मिन्दगी महसूस होती है।

 

गए सालों के सुब्हो-शाम की रंगीन-सी चिड़िया

अभी भी जब कभी उड़ती हुई महसूस होती है।

 

यहाँ शायद खुदा के नेक बंदों की रिहाइश थी

यहाँ आकर मुझे कुछ ताज़गी महसूस होती है।

 

10

बेज़ार5 आजकल हूँ पहले से कुछ ज़ियादा

मरने से थोड़ा कम-कम जीने से कुछ ज़ियादा।

 

यूँ तो नहीं हूँ वैसा जैसा था साथ तेरे

फिर भी बचा-खुचा हूँ थोड़े से कुछ ज़ियादा।

 

तुम दे गई थीं मुझको जो फूल कल या परसों

अब भी महक रहे हैं पहले से कुछ ज़ियादा।

 

ख़ुशबू सा उड़ रहा है जो दरमियान अपने

मुझसे भी है सिवा कुछ, तुमसे भी कुछ ज़ियादा।

 

इस गुलबदन को अपने कुछ फ़ासले पे रक्खो

इसकी तपिश है मुझको शोले से कुछ ज़ियादा।

 

कुछ और भी है तुझमें चेहरे से खूबसूरत

मैं उसको देखता हूँ चेहरे से कुछ ज़ियादा।

 

11

उड़ानों से अम्बर बचा ही नहीं

परिन्दे को लेकिन मिला ही नहीं।

 

किसी से कहूँ भी तो मैं क्या कहूँ

मेरा तो कोई मुद्दआ ही नहीं।

 

शबो-रोज़1 भटके है दर-दर हवा

हवा का कहीं घर बसा ही नहीं।

 

अलहदा हुआ हमसे किस दिन ख़ुदा

किताबों में हमने पढ़ा ही नहीं।

 

कहा माँ ने बेटा, ख़ुदा से डरो

वो ‘डर’ ज़िन्दगी भर गया ही नहीं।

 

12

न होगा जब ज़मीं पर घर का नक़्शा।

ख़ला,2 में होगा बाम-ओ-दर3 का नक़्शा।

 

तेरी दीवार पर ये सुर्ख़ छींटे

है इन छींटों में बाल-ओ-पर4 का नक़्शा।

 

गुज़िश्ता शब5 कोई चिपका गया है

किवाड़ों पर हमारे, डर का नक्शा।

 

वो हाथों में लिए था फाख़्ताएँ6

रखे था जेब में खण्डहर का नक़्शा।

 

वो इक पैकर7 जो किरनें फेंकता है

है उसकी ज़द8 में दुनियाँ भर का नक़्शा।

 

13

वो पहले से बहुत आगे बढ़ा है

हदे-बस्ती पे अब तन्हा खड़ा है।

 

मैं आजिज़9 आ गया हूँ उस ख़ुदा से

जो क़ामत10 में कहीं तिरछा अड़ा है।

 

वो मैं हूँ या हमारा दौरे-हाज़िर

सड़क पर कौन वो औंधा पड़ा है?

 

मवेशी हैं न दाना है न पानी

कभी थे, इसलिए खूँटा गड़ा है।

 

कुल आलम अक्स है मेरी ज़ुबाँ का

मेरे लफ़्ज़ों में आईना जड़ा है।

 

न मैंने और न की इमदाद तुमने

ये सूरज चर्ख़1 पर कैसे चढ़ा है?

 

14

ख़्वाब में ही मगर दिए होते

बेठिकानों को घर दिए होते।

 

अपने गुलशन के चार-छः गुंच2

नाम पतझर के कर दिए होते।

 

मैं भी कहता कभी सुब्हानअल्लाह!3

दो निवाले तो तर दिए होते।

 

मेरी बस्ती के कुछ दरख़्तों को

खाने लायक़ समर4 दिए होते।

 

इतना बेसिम्त5 आसमाँ देकर

दो से ज़ाइद6 तो पर दिए होते।

 

15

बुर्जो-गुम्बद हिला रही है हवा

किस ख़राबे7 से आ रही है हवा?

 

बाँस-वन में बजा रही सीटी

मुझको शायद बुला रही है हवा।

 

क्यूँ हैं पानी में इतने पेचो-ख़म8

क्या नदी में नहा रही है हवा?

 

वो जो परबत नदी में बैठा है

उसकी क़श्ती चला रही है हवा।

 

अपने टाँगों में दबा कर बादल

ख़ूब ढोलक बजा रही है हवा।

 

16

भूला- बिसरा वक़्त फिर मेहमान है

फिर वही आँगन, वही दालान है।

 

एक कमरा है कहीं जिसमें निहाँ9

मेरे बचपन का सरो-सामान है।

 

बुतक़दे1 में जो भी है, पत्थर का है

और पत्थर का खुदा इंसान है।

 

बेतरह मुश्किल है तुझको देखना

सोचना लेकिन बड़ा आसान है।

 

जल उठा क्यूँकर मेरे दिल का चिराग़

जब कि सालों से ये घर वीरान है।

 

कब तुझे भूला, नहीं याद आ रहा

हाँ, तेरे होने का मुझको ध्यान है।

 

17

दुनिया देखी बहुत दिनों के बाद

ठीक ही थी, बहुत दिनों के बाद।

 

फिर भी मेरे लिए हसीं ठहरी

शक्ल तेरी बहुत दिनों के बाद।

 

पढ़ ही लूँगा मैं हर्फ़-हर्फ़2 कभी

तेरी चिट्ठी बहुत दिनों के बाद।

 

एक तस्वीर थी वो गुंचा-लब3

ढूँड ही ली बहुत दिनों के बाद।

 

बात क्या है कि तू मेरे नज़्दीक

आ के बैठी बहुत दिनों के बाद।

 

अब न जाओ कि फिर खिज़ाओं में

तुम मिलोगी बहुत दिनों के बाद।

 

सब मनाज़र4 हैं लुक़्म ए-माज़ी5

और हम भी बहुत दिनों के बाद।

 

18

हमारी ख़िल्वतों6 की धुन दरो-दीवार सुनते हैं।

चमन में रंगो-बू की बंदिशों को खार7 सुनते हैं।

 

हवा सरगोशियाँ8 करती हैं जो चीड़ों के कानों में

उसे उड़ते हुए रंगीन गुल परदार9 सुनते हैं।

 

सभी सुनते हैं घर में सिर्फ़ अपनी-अपनी दिलचस्पी

धसकते बामो-दर की सिसकियाँ बीमार सुनते हैं।

 

हवाएँ हादिसों के जो इशारे लेके आती हैं

उन्हें हम अनसुना कर दें मगर अश्जार1 सुनते हैं।

 

ज़ुबाँ जो दिल में रहती है कभी लब पर नहीं आती

उसे कोई नहीं सुनता मगर फनकार सुनते हैं।

 

19

कितनी खुशलफ़्ज2 थी तेरी आवाज़

अब सुनाये कोई वही आवाज़।

 

ढूँडता हूँ मैं आज भी तुझ में

काँपते लब, छुईमुई आवाज़।

 

शाम की छत पे कितनी रोशन थी

तेरी आँखों की सुरमई3 आवाज़।

 

जिस्म पर लम्स4 चाँदनी शब का

लिखता रहता था मखमली आवाज़।

 

ऐसा सुनते हैं, पहले आती थी

तेरे हँसने में नुक्रई5 आवाज़।

 

अब इसी शोर को निचोड़ूँगा

मैं पियूँगा छनी हुई आवाज़।

 

20

भूख के और प्यास के मारे परिन्दे

मर गए जज़्बात6 के सारे परिन्दे।

 

कब तलक ढोते हवा का बोझ यूँ ही

आ गए वापस थके-हारे परिन्दे?

 

शाम को लौटे हैं लेकर एक दाना

और क्या लाते ये बेचारे परिन्दे?

 

इनकी परवाज़ों7 में सुब्हो-शब8 नहीं है

ये तसव्वुर9 के हैं बन्जारे परिन्दे।

 

क्या तिरे आँगन में गन्दुम10 सूखते हैं

तेरी छत पर आ फिरे सारे परिन्दे।

 

21

इस ज़मीं का कितना टुकड़ा है मिरे घर के लिए

कितना अम्बर है मिरे बाज़ू1 मिरे पर के लिए?

 

ये मिरा सर है कि जो हर दौर में कटता रहा

और कितने दौर बाक़ी हैं मिरे सर के लिए?

 

सिर्फ़ मेरा जिस्म ही महफूज2 रक्खे है मुझे

वरना मुझ पर क्या है उस ठण्डे दिसम्बर के लिए?

 

और जो कुछ था, वो जिसका था, उसी को दे दिया

बस ज़मी दो गज़ रखी है अपने बिस्तर के लिए।

 

घुटने मोड़े, सर झुकाए सुबह से बैठा हूँ मैं

जिस्म आदी कर रहा हूँ छोटी चादर के लिए।

 

वो हैं मेरे नक़्शे-पा3 और ये रहा वख़्ते-सफ़र4

और क्या हाज़िर करूँ मैं अपने रहबर के लिए?

 

22

शज़र5 हैं मुंतज़िर6 आएँ परिन्दे

गुलों के रंगो-बू गाएँ परिन्दे।

 

दबा कर चौंच में रंगीन तिनके

हमारी छत पे रख जाएँ परिन्दे।

 

तसव्वुर7 के मैं जब दाने बिखेरूँ

हसीं लफ्ज़ों के फँस जाएँ परिन्दे।

 

नज़र सय्याद8 की पड़ने से पहले

मिरे दिल में उतर जाएँ परिन्दे।

 

कभी फल-फूल से शाखों पे लटकें

कभी आँचल से लहराएँ परिन्दे।

 

बग़ीचे में जो आए शाहज़ादी

हवा में घुल के उड़ जाएँ परिन्दे।

 

बनके शाम जब सूरज कहे तो

पलट कर अपने घर जाएँ परिन्दे।

 

23

भली किसी को, किसी को है जो बुरी दुनिया

बहुत दिनों से मेरे साथ है वही दुनिया।

 

शिकस्ता1 ख़्वाबों के बिखरे हुए मनाज़र2 से

कोई बनाए किसी तौर इक नई दुनिया।

 

मिली है मुझको विरासत में क्या करूँ इसका

इधर से चटख़ी, उधर से कटी-फटी दुनिया।

 

हैं चन्द हाथ यहीं पर कि जिनकी मुट्ठी में

न जाने कब से दबी है मुड़ी-तुड़ी दुनिया।

 

बिखर गया था सभी कुछ तिरे पलटते ही

पड़ी थी चार तरफ इक लुटी-पिटी दुनिया।

 

उजड़ते वक़्त में कैसे सम्हाल कर रक़्खूँ

बसी है दिल में मिरे जो हरी-भरी दुनिया।

 

24

मिरा ये वक़्त मुझे किस तरह से मारेगा

ज़ुबान खींचेगा मेरी कि सर उतारेगा?

 

सराब3 की है नदी फिर भी इश्क है तो नदी

जो इसमें डूबा उसे क्या कोई उबारेगा?

 

सहर से शाम तलक ढूँडता फिरूँगा उसे

वो शब की छत से मुझे बेनवा4 पुकारेगा।

 

असीरे-जुल्फ़5 तो चौखट पे आके बैठ गए

सवाल ये कि वो ज़ुल्फ़ कब सँवारेगा?

 

अगर ये दुनिया है उसकी लिखत तो फिर किस दिन

वो आके अपनी इबारत को कुछ सुधारेगा।

 

25

यूँ ही गर्दन झुकाए बैठा हूँ

अपनी ख़िल्वत6 बिछाए बैठा हूँ।

 

तुझको दिल में समो7 लिया कब का

तुझको कब से भुलाए बैठा हूँ।

 

क्यूँ नहीं गिरता टूटकर अम्बर

दोनों बाज़ू उठाए बैठा हूँ?

 

किसको आया हूँ अलविदा कहकर

किसको दिल से लगाए बैठा हूँ?

 

शब के जंगल में सूखी यादों की

कब से धूनी रमाए बैठा हूँ?

 

26

वो बद्दुआ का हाथ है या है दुआ का हाथ

रहता है मेरे सर पे हमेशा हवा का हाथ।

 

सदियों से जो दबा है किसी पाँव के तले

या तो हमारा हाथ है या फिर तुम्हारा हाथ।

 

क्या है जो मेरे दिल पे है ना दीदा1 बोझ-सा

मेरे ख़याल में तो वही है ख़ुदा का हाथ।

 

बरसों से एक सिलसिला जारी है शामो-शाम

आता दस्तरस2 में मिरी इक फ़सुर्दा3 हाथ।

 

आँखों में तैरती हैं दो आँखें भरी-भरी

सर पर रखा है मेरे कोई थरथराता हाथ।

 

जलने लगा था जिस्म किसी का अलाव-सा

छू कर गया था उसको कोई मेहँदी लगा हाथ।

 

चेहरा बुझा-बुझा है कोई काँपते-से लब

सहला रहा है पीठ कोई रूखा-सूखा हाथ।

 

27

तीरगी4 है न रोशनी आवाज़

टूटे दिल की है ख़ामुशी आवाज़।

 

अब भी ठहरी है दिल के गुम्बद में

जाने किसकी ये गूँजती आवाज़।

 

सुन रहे हैं परिन्दे पेड़ों की

चरमराती, कराहती आवाज़।

 

बढ़ती जाती है रोशनी की हवस

होती जाती है अँधेरी आवाज़।

 

लग गए पेट जिनकी पीठों से

कैसे देंगे वे ज़ोर की आवाज़?

 

28

 

चंद अल्फ़ाज़1 कुछ अहवाल2 थे, अब वो भी नहीं

तेरी यादों के ख़दो-ख़ाल थे, अब वो नहीं।

 

रात तो रात कभी दिन में भी सो लेते थे

कैसे अच्छे वो महो-साल3 थे, अब वो नहीं।

 

कितने अफ़्लाक4 हैं, ये मुझसे पूछिए, साहब

क्या तो बाज़ू ओ परो-बाल5 थे, अब वो भी नहीं।

 

याद आती हैं गए वक़्तों अपनी बातें

जुम्ले-जुम्ले में सुरो-ताल थे, अब वो भी नहीं।

 

रोज़ो-शब याद तेरी, खोज तेरी, बस ये ही

अपने दो-एक ही एमाल6 थे, अब वो भी नहीं।

 

29

इस बस्ती में मेरे जैसे भी होंगे दो-चार आदमी

जीवन से बेजार7 आदमी, जीने को तय्यार आदमी।

 

मेरी बस इतनी चाहत है हर घर में, हर आँगन में

गुलमेहँदी सी औरत महके, झूमें हरसिंगार आदमी।

 

मारे तो सब ही जाएँगे इस जंगे-सरमाया8 में

अव्वल वो मारा जाएगा जो होगा लाचार आदमी।

 

रोज़ो-शब का भेद न माने, सुख-दुख से बेपरवा हो

या तो कोई मज्नू9 होगा या होगा बेदार10 आदमी।

 

इसी शहर में कहीं छिपा है काला जादूगर, वरना

मामूली इंसा बन जाता है कैसे खूँखार आदमी?

 

30

 

क्या टूटा, किस चीज़ के टुकड़े बिखरे हैं

पता करो, शीशे कैसे, दिल कैसे हैं?

 

बर्फ़-रात में भी शायद तुम आ जाओ

दिया जले से आग जलाए बैठे हैं।

 

ज़ियादातर को पता नहीं अपनी मंज़िल

ज़ियादातर रोज़ो-शब1 चलते रहते हैं

 

वो परबत मुझमें है या मैं परबत में

बादल मेरे काँधों पर ही ठहरे हैं।

 

बारिश में कोहसार2 देख, छत पर आकर

तेरा सब्ज़3 दुपट्टा ही सब ओढ़े हैं।

 

31

कब तलक बैठा रहेगा ये जहाँ दर पर मेरे

और कितने दिन रहेगा आस्माँ सर पर मेरे।

 

मोजिज़ा4 किस्मत का है या है ये हाथों का हुनर

आ गिरा मेरा जिगर ही आज नश्तर पर मेरे।

 

छटपटाता है बेचारा रेग़ज़ारों5 से घिरा

कोई तो दस्ते-करम6 होता समन्दर पर मेरे।

 

जो जहाँ पर है वहीं पर घुल रहा है दिन-ब-दिन

छा गई है बेहिसी7 की गर्द मंज़र पर मेरे।

 

गो कि रखता हूँ मैं दुश्मन से हिफ़ाजत के लिए

नाम तो मेरा मगर लिक्खा है खंजर पर मेरे।

 

ढूँडता रहता हूँ अपना घर मैं शहरे-ख्वा़ब

रात भर सोता है कोई और बिस्तर पर मेरे।

 

32

मैं गहरी नींद में था जब कि ये भेजी गई दुनिया

अब इस्तेमाल करनी है मुझे दे दी गई दुनिया।

 

बवक़्ते सुबह लगता था कि कुछ-कुछ दस्तरस8 में है

जो आई शाम, हाथों से मिरे ले ली गई दुनिया।

 

पड़ी है जा-ब-जा1 टूटे हुए शीशे के टुकड़ों-सी

किसी अनजान खिड़की से कभी फेंकी गई दुनिया।

 

मेरे दर पर नए दिन को महकते फूल की सूरत

सहर2 जो रख गई थी शाम को लेती गई दुनिया।

 

ये अपना देश है, आ जाएँगे वापस यहीं, फिर भी

चलो, ढूँडें उसे जो ख़्वाब में देखी गई दुनिया।

 

33

कभी ज़मीं से, कभी आस्माँ से आते हैं

गज़ल के शेर तो दोनों जहाँ से आते हैं।

 

वो चन्द लफ्ज़ धड़कते रहें जो दिल की तरह

मेरी ज़ुबान में तेरी ज़ुबाँ से आते हैं।

 

चले जो दर ते तेरे, खो गई सभी सिम्तें3

बताएँ कैसे कि अब हम कहाँ से आते हैं?

 

जहाँ पहुँच के न लौटें कभी फ़रिश्ते भी

वो ख़ुल्द4 हो कि न हो, हम वहाँ से आते हैं।

 

वो हमसफ़र कि जो रहते हैं अखिरी दम तक

बहुत पुरानी किसी दास्ताँ से आते है।

 

34

खुशबू का भी वही है जो है चलन हवा का

उसका बदन हवा का है पैराहन5 हवा का।

 

कल रात यादे जानाँ या चाँदनी के बाइस6

बेहद चमक रहा था सीमाब-तन7 हवा का।

 

सदियों गया वो उसके पीछे, हदे जहाँ तक

लेकिन न ढूँड पाया मुल्को-वतन हवा का।

 

अपने बदन से हटके महसूस कर सको तो

तुमको दिखाई देगा उरियाँ8 बदन हवा का।

 

मेरे करीब आई ख़ुशबू हवा पहनकर

पलटी तो बन गई थी ख़ुद पैराहन हवा का।

 

तूफाँ के बाद देखा गुलशन के हर शज़र ने

बेदम पड़ी थी ख़ुशबू ओढ़े क़फन हवा का।

 

35

सर पे दस्ते1 हवा है सदियों से

ग़ैब2 का आसरा है सदियों से।

 

चश्मे इंसां3 है आजतक पुरनम4

ये भी इक मुद्दआ5 है सदियों से।

 

है कमोबेश6 नीलगूँ7 हर शै

दर्द का सिलसिला है सदियों से।

 

जैसे पानी हवा हवा पानी

मुझमें तू मुब्तिला8 है सदियों से।

 

सिर्फ़ दो पाँव और वसीअ9 ज़मीं

ज़िन्दगी आबला10 है सदियों से।

 

36

मुमकिन है वो भी हो तन्हा, यहीं कहीं होगा

अपना सबसे उम्दा लम्हा11 वहीं कहीं होगा।

 

ये कैसी आवाज़ कहीं कुछ टूटा है शायद

यहीं कहीं दिल होगा, सदमा12 यहीं कहीं होगा।

 

वो रुख़्सत13 का लम्हा, दिन में चाँद गहन14 गोया

उस लम्हे का धुँधला चेहरा यहीं कहीं होगा।

 

यहीं बैठकर हमने घण्टों बातें की चुपचाप

उस चुप्पी का गूँगा नग़्मा यहीं कहीं होगा।

 

इसी जगह बैठा था वो, ये जगह धड़कती है

ढूँडों तो, मिट्टी में जज़्बा15 यहीं कहीं होगा।

 

37

चन्द अल्फ़ाज़16 कुछ अहवाल17 बचा रक्खे हैं

हमने दो-एक ही ऐमाल18 बचा रक्खे हैं।

 

पहले गाते थे, बजाते थे हवाओं के मिज़ाज

अब तो टूटे हुए सुर-ताल बचा रक्खे हैं।

 

उड़ गए हुस्नो-जवानी के परिन्दे कब के

हाँ, तसव्वुर1 में ख़दो-ख़ाल2 बचा रक्खे हैं।

 

बैठा करता था कभी आके जो तायर3 उसके

इक दरीचे4 ने परो-बाल5 बचा रक्खे हैं।

 

एक ना दीदा सनम6 भी हैं कहीं तेरे सिवा

उसकी ख़ातिर ये महो-साल7 बचा रक्खे हैं।

 

39

कुछ अगर होना था तो यूँ भी ज़रा होना था

तेरे जैसा ही कोई तेरे सिवा होना था।

 

ये ज़मीं गोद में होनी थी तेरी बच्ची सी

आसमाँ आँख में सुरमे सा लगा होना था।

 

तुझ से मिलकर मैं ज़माने की तरफ़ से लौटा

टोपी गिरनी थी, गरीबान फटा होना था।

 

तेरे आने की ख़बर से तेरे दीवानों के

शहर के शहर को चीखों से भरा होना था।

 

ओढ़ कर शब तू मिरे साथ सफ़र में होती

बोझ दिन का मिरे शानों पे रखा होना था।

 

40

है तो सब कुछ मगर नहीं-सा है

शाने दोनों हैं, सर नहीं-सा है।

 

घर से निकला तो हो गया बेघर

अब ख़ुदा का भी डर नहीं-सा है।

 

चाँद है तू शफ़क़ की साअत का

है तो मौजूद पर नहीं-सा है।

 

घर की छत पर है इक बड़ी सी छत

छत के नीचे का घर नहीं-सा है।

 

इश्क़ ऐसा मकान है जिसमें

आने-जाने का दर नहीं-सा है।

 

41

सुब्ह घर से निकल के जाते हैं

शाम तक सब को ढूँड लाते हैं।

 

जो पहनते हैं रेगज़ारों को

वो ही बारिश को खींच लाते हैं।

 

बाग़ के सारे बर्गो-गुल मिलकर

ओस की पालकी सजाते हैं।

 

बात करना तो जानते होंगे

फिर वो तलवार क्यूँ उठाते हैं?

 

वक़्त रहता है आईने में कहीं

अपने चेहरे हमें बताते हैं।

 

ज़िक्र करते हैं ज़ख्मे-दिल का मगर

दिल किसी का कहाँ दिखाते हैं।

 

42

जितने रस्ते वा1 थे हम सब पर गए

फिर कहाँ जाते सो अपने घर गए।

 

जो फ़रिश्ते थे किताबों में निहाँ2

ज़िल्द से बाहर हुए तो मर गए।

 

वक़्त के बदलाव की सौगात थे

ज़ख़्म अपने आप सारे भर गए।

 

मेरे दस्तो-पा तो बजंज़ीर थे

किस तरह इल्ज़ाम मेरे सर गए।

 

लफ़्ज़ तो दो थे खुदा हाफ़िज़, मगर

तुम न जाने किस तरह कहकर गए।

 

गीत

सुनो, करें

सुनो, करें अब तय्यारी

चलने की हम-तुम।

बने हुए को भले न तोड़ें

लेकिन जो जोड़ा वो छोड़ें।

शेष हुआ जाता है यह पथ

खीचें वल्गाएँ, मोड़ें रथ।

अस्ताचलगामी सूरज के संग

करें अब तय्यारी ढलने की हम-तुम।

अपने सँग जो आए चलकर

आहत पग हैं वे संवत्सर।

रख दें जो कुछ लाए ढो कर

निर्विकार-निर्मल मन होकर।

इस जलती संध्या के सँग-सँग

सुनो, करें अब तय्यारी जलने की हम-तुम।

 

अपना संग

अपना संग यहीं तक था

अब तुम भी जाओ, हम भी जाएँ।

अपने-अपने कर्म समेटें।

शेष रहे धारण करने को

वे सब लौकिक धर्म समेटें।

और प्रवाहित करके सबको

बहती काल-नदी में

हम-तुम, बहते जाएँ- बहते जाएँ।

कौन यहाँ पर रहा हमेशा

राजा-रानी, ज्ञानी-ध्यानी

बिखरे होकर रेशा-रेशा।

हम तुम भी बिखरें अब ऐसे

जैसे बिखरी हुई हवाएँ।

 

इस कठिन समय

इस कठिन समय में भी

हम कोमल कैसे हों?

हम घास

सुबह की ओस बनें

हम बन जाएँ पानी।

हम जलें अलावों में

हम उड़ें चिनगियों से

चमके कबीरबानी।

इस मलिन समय में भी

हम उज्ज्वल कैसे हों?

घर गिरा, खेत उजड़ा

बूढ़ा बरगद खुद ही

अपने थल से उखड़ा।

हम ख़बरें सुना करें

गर्दन नीची करके

बस, तिनके चुना करें।

इस गझिन समय में भी

हम कोंपल कैसे हों?

 

आओ बैठो...

आओ बैठो, कुछ कहो-सुनो।

तुम घर-परिजन की कथा कहो

मैं दुनिया का पुरान बाँचूँ।

ऐसे ही कुछ-कुछ तुम मुझको

और मैं तुमको समझूँ-जाँचूँ।

जो वक़्त कहे वो मैं समझूँ

जो मैं बोलूँ तुम उसे गुनो।

अब तक काफ़ी-कुछ किया धरा

अब करना-धरना कम कर दो।

जो रिसता है वो रिसने दो

अब मन-घट भरना कम कर दो।

सुख-दुख के ताने-बाने की

झीनी चादर अब नहीं बुनो।

आओ, अपने अंतर-स्वर से

फिर मंगल-वचन उचारो तुम

फिर दीवारों-दरवाज़ों पर

हाथों की छाप उभारो तुम।

जैसा भी है जीवन-उपवन

इसमें से ही रस गंध चुनो।

आओ बैठो, कुछ कहो-सुनो।

 

अब हमारे

अब हमारे बीच

ये संसार क्यों है?

अगर पत्ते झरे हैं

हम भी झरे हैं

खो गईं सब प्रार्थनाएँ

उन दिनों के देवता

अब अधमरे हैं।

अब यहाँ हम-तुम बचे हैं

अब हमारे बीच

कारोबार क्यों हैं?

सिर्फ फन्दे खोलते-बुनते रहे हैं

आज तक हम

किताबों को बाँचते

और बुजुर्गों को रात-दिन

सुनते रहे हैं आज तक हम।

आज तो अपनी कहें

अपनी सुनें हम

अब हमारे बीच

ये घर द्वार क्यों हैं?

 

जो चले गए

जो चले गए

वो भी तो हैं।

यादों में हैं

चीज़ों में हैं

कपड़ों में उनकी गंध भरी।

घर भर में है उनकी आहट

खूँटी पर टँगी हुई छतरी।

अब नहीं रहे जिनके शरीर

उनकी चिट्ठी-पत्री तो हैं।

जो चले गए

वो कहाँ गए

ये भेद किसी को नहीं पता।

फिर भी उनका कुछ हिस्सा है

जो मेरे-तेरे बीच रखा।

उस हिस्से को तौलें कैसे

मन भर, माशा, रत्ती तो हैं।

 

जैसे हूँ वैसे

जैसे हूँ

वैसे रहना अब मुश्किल है।

अन्दर सन्नाटा है।

बाहर आवाज़ें

किसको अपने हाथों सींचें

हम किसको आग लगा दें?

जो है

वो हमसे ही निकला, पर उसको

इससे ज़्यादा तो

सहना अब मुश्किल है।

बोली-बानी है एक

एक है पानी

फिर भी हो जाती है

सबसे नादानी।

हमसे कहती है हवा

और कुछ पंछी भी कहते हैं

उससे पुख़्ता सच

यहाँ किसी का कहना अब मुश्किल है।

कुछ नदियाँ हैं पानी की

कुछ नदियाँ हैं भावों की

जिनसे बहता है ख़ून

अदेखी नदियाँ हैं घावों की।

पानी में बहना ठीक, मगर

भावों-घावों की नदियों में तो

बहना अब मुश्किल है।

 

मैं तुमको सोचूँ

मैं तुमको सोचूँ

तुम मुझको।

हम दोनों की बातचीत में

दुनिया आएगी

जितनी आएगी

कुछ-कुछ अपनी हो जाएगी।

मैं दुनिया को समझूँ

तुम मुझको।

चलो, ज़रा अगली सुबहों को

बच्चों को देखें

किन रंगों के हैं

हम उनके सपनों को देखें।

मैं सपनों को खोलूँ

तुम मुझको।

तुम मुझको कब तक देखोगी

सोचो तो

मेरे घटते छिन-पल

क्या तुम रोक सकोगी

सोचो तो?

फिर भी जब तक हैं

तब तक तो

मैं तुमको देखूँ

तुम मुझको।

 

हम जहाँ हैं

हम जहाँ हैं

वहीं से आगे बढ़ेंगे!

देश के बंजर

समय के बाँझपन में

या कि अपनी लालसाओं के

अँधेरे सघन वन में

या अगर हैं

परिस्थितियों की तलहटी में

तो वहीं से

बादलों के रूप में

ऊपर उठेंगे।

हम जहाँ हैं वहीं से आगे बढ़ेंगे!

ये हमारी नियति है

चलना पड़ेगा

रात में दीपक

दिवस में सूर्य बन जलना पड़ेगा।

जो लड़ाई

पूर्वजों ने छोड़ दी थी

हम लड़ेंगे।

हम जहाँ हैं वहीं से आगे बढ़ेंगे!

 

अपने स्वप्न अधूरे

अपने स्वप्न अधूरे

अपनी बातें रख लो।

बच्चों के पहले जो गुज़रीं

दर्द भरी वे रातें रख लो।

कुछ चीज़ों के चेहरे रख लो

कुछ चेहरों की यादें रख लो

ओठों तक आकर ठिठकी

वह सिसकी रख लो

सुनो ग़ौर से

यहीं कहीं होगी

अम्मा की हिचकी रख लो।

फिर भी, चलते-चलते थोड़ा और देख लो

कोने - अंतरे में शायद कुछ छूट गया हो?

आँखों में कुछ अक़्श बसा लो

कल परसों जो गए सफ़र पर

उन कदमों के नक़्श उठा लो।

चला चली की बेला है ये

सबसे क्षमा याचना कर लो

अपने घर में, क्या कुछ शीशे जैसा था

कोने अंतरे मैं शायद, कुछ छूट गया हो

तू घर में बच्चों में डूबी

तू घर में, बच्चों में डूबी

थकी-थकी सी, ऊबी-ऊबी

आई मेरे पास

आज कुछ कहने को।

जब तू आई थी इस घर में

तब सब कुछ था टँगा अधर में।

पल-पल तूने किया इकट्ठा

नए देस में तिनका-तिनका।

सुबह-शाम फिर सरल हो गए

जमे हुए दुख तरल हो गए।

तू कुछ छलकी, मैं कुछ रोया

दोनों ने मिलकर सब धोया।

अब जो है वो सब है सुन्दर

तू, मैं, बच्चे और सुघड़ घर।

फिर भी थोड़ी खींच-तान हो।

इधर-उधर का हमें ध्यान हो।

हाँ, ये भी है बहुत ज़रूरी

वरना कैसे होगी पूरी

कथा-कहानी तेरी-मेरी

ओर-पास की

फूल-घास की

बाट जोहती आँखों की

उस तरल आस की

जिसने सावन-भादों काटे

राह देखते-धान रोपते

रोते-रोते सब सहने को।

चुप रहने को

तू आई मेरे पास

आज कुछ कहने को।

 

अभी यही

अभी यहीं रहने दो

अपने पास मुझे।

रोकें हम अपना कर्तापन

अच्छे और ज़रूरी काम

कुछ दिन यूँ ही रहें ओढ़ कर

हल्का, नीला अल्प विराम।

सुनो, और गहरा होने दो

पीड़ा का अहसास मुझे।

बाहर कातर समय

और पशुओं की जमघट

सुनो, वक़्त की चीख़

और गिरने की आहट।

बस, थोड़ा सा और

संकलित करने दो विश्वास मुझे।

 

रातें विमुख

रातें विमुख

दिवस बेगाने

समय हमारा हमें न माने।

लिखें अगर

बारिश में पानी

पढ़ें

बाढ़ की करूण कहानी।

नहीं रहे अब

पहले जैसे

ऋतुओं के रंग-रूप सुहाने।

दिन में सूरज

रात चन्द्रमा

दिख जाता है याद आने पर।

हम गुलाब की चर्चा करते हैं

गुलाब के झर जाने पर।

हमने

युग ने

या चीज़ों ने

बदल लिए है ठौर-ठिकाने।

 

अपने अपने

अपने-अपने चेहरे खोलें

और परस्पर दरपन हो लें।

तुम अपने हथियार दिखाओ

हम दिखलाएँ घाव

शायद ऐसे चाल-चलन से

आए कुछ बदलाव।

एक-दूसरे के अन्तर में

उतरें, रहें, वहीं से बोलें।

घर के सब दरवाज़े खोलें

परदे सब उतार कर रख दें

मैले, बदबूदार, पुराने

कपड़े सब उतार कर रख दें।

एक-दूसरे के दृग-जल से

अपने-अपने धब्बे धो लें।

 

अपने सारे

अपने सारे सहजन छूटे।

बूढ़ा मंदिर और बावड़ी

वो फूटा, वो सूख चुकी है।

लोगों में, चीज़ों में

जो धुन बजती थी

वो टूट चुकी है।

दृश्य और उनके वे गायक

कोमल-सुन्दर अक्षर रूठे।

शेष रहे हैं अब हम-तुम

तो हम-तुम भी कितने दिन के हैं?

वक़्त-शाख के पीले पत्ते

इस पल के या उस छिन के हैं।

देखो तो अपने चेहरों पर

युग-रेखाओं के गुल-बूटे।

 

आओ ये चिह्न

आओ, ये चिह्न गिनें

कहें सूख गयी नदी की कथा।

पल दो पल को ही

फिर लौट चलें

जीवित नावों वाली धार।

फिर हो लें एक बार फेन-फूल

फिर झलकें दियना उस पार।

आओ, इतिहास बनें, कि-

यहीं एक मंदिर भी था।

यह जुड़ता क्षण

हम को बेबस कर

डूब गया किरनों के संग।

डूब गयी गन्ध-कुलाचें-बातें

डूब गए हिरनों के रंग।

आओ, अनुगूंज सुनें

भरे मौन से

होने की व्यथा।

 

चलो बन्धु

चलो बन्धु लौट चलें

दिन नीला पड़ गया।

वृक्षों ने ओढ़ लिये साये

आकाश किसको दुहराये?

कैसे जीवित हों आकार, आह!

मोड़ों पर अंधकार

सूली-सा गड़ गया।

सहसा ही टूट गये

हमें जोड़ने वाले सूर्यमुखी निमिष

आह! हाथों से छूट गये।

कहे-सुने क्या होगा

बोलो में दुर्निवार

पत्थर-सा अड़ गया।

 

चलें, अब तो

चलें, अब तो यहाँ से भी चलें

उठ गए हिलते हुए

रंगीन कपड़े सूखते

अपाहिज़ हैं छत-मुंडेरें।

एक स्लेटी सशंकित आवाज़

आने लगी सहसा दूर से।

चलें, अब तो पहाड़ी उस पार

बूढ़े सूर्य बनकर ढलें।

पेड़-मंदिर-पंछियों के रूप

कौन जाने कहाँ रखकर जा छिपी

वह सोनियातन-करामाती धूप।

चलें, अब तो बंद कमरों में

सुलगती लकड़ियों से जलें।

 

सब चले गए

सब चले गए

सूनापन है।

कातर हाथों की छुअन

छोर रुमालों के

हिलते हैं बोल हवा में

जाने वालों के।

सन्नाती पटरी

थर्राता स्टेशन है।

सन्नाती पटरी

थर्राते स्टेशन को

जो छोड़ गये

मेरे इस एकाकी जन को

वे कौन लोग थे

मुझे नहीं मालूम हाय!

फिर भी व्याकुल मन

कितना है मासूम : हाय!

मानो बिम्बों से पीड़ित

कोई दरपन है।

 

क्या करें!

क्या करें

कहाँ जायें?

हम निस्सहाय निरुपाय

हीनताओं के पुतले।

क्यों हैं

हम इतने निरीह, इतने बौने

इतने उथले?

क्या हुआ हमें

जो असर नहीं करते हैं हम पर

मंत्र

सुभाषित-स्तोत्र

ऋचाएँ।

हम समझ नहीं पाए अब तक

अपना होना

हम नहीं जानते आह!

और कितना ढोना?

कितने जंगल

कितने पहाड़

कितने मरुथल हैं और

जिन्हें मरने तक दुहराएँ।

 

रात हो गई सो जा

रात हो गई, सो जा।

नहीं जला तो नहीं जला चूल्हा

माँ बैठी ऊँघे।

बापू रह-रह खाँसे

बोले राम-सुमिरिनी सूंघे।

भइया अभी न लौटे

भाभी साँस-साँस पथ जोहे।

बेटू को सपने में भी

रोटी की खुशबू मोहे।

ये तस्वीर रोज़ की

कब तक देखेगा, जागेगा

रात हो गई, सो जा।

सो जा, झरे हुए पत्ते-सा

दिन भर तू भटका है।

सो जा, ऐसे में कैसे सोना है

तुझे पता है।

सो जा, कुछ ना होगा

सूरज कल फिर वही उगेगा।

 

चन्द्रमा है

चन्द्रमा है

नीम के पीछे।

जालियों में कटा-सा

या झाड़ में अटका

धुला बरसात में

कोई दुपट्टा फटा सा।

या कि केशों-तले

गोरा मुख तुम्हारा

आँख मींचे

चन्द्रमा है।

नीम योगी

प्रभामंडल चन्द्रमा है

जटाओं में झलकता-सा

स्फटिक-कुंडल चन्द्रमा है।

चन्द्रमा है एक बालक

शाम से जो बादलों की

सीढ़ियाँ चढ़ता रहा

अब उतरता नीचे।

नीम के पीछे।

 

अब हमारे बीच

अब हमारे बीचे चीज़ें आ गयीं।

हो गए हम और थोड़ी दूर

और तुम कुछ और दुनियादार।

फूल खिलते थे जहाँ अपने

आ गया है वहाँ तक संसार।

रंगराची दृष्टियाँ धुँधला गयीं।

बन गए हम किनारे के पेड़

क्या करें इस बीच के पथ का।

क्या करें अन्तःपुरों में दौड़ते

इस अदेखे-अप्रतिहत रथ का?

तितलियाँ थीं जहाँ चीलें छा गयीं।

 

कहीं कोई है

कहीं कोई है

हमें हर क्षण ग़लत करता हुआ।

हम तुम्हारे पास आने को

चले घर से।

लौट आए बीच से ही

काँपते डर से।

कौन था वह अमंगल संकेत

मन में निराशा भरता हुआ?

शान्त मन से रह सकें घर में

नहीं मुमकिन।

कौंचता रहता अदेखा प्रेत

हमको रात-दिन।

और दिखता स्वप्न में असहाय

कोई पंखधर मरता हुआ।

 

मेरी लिखी हर

मेरी लिखी हर गंध-पत्ती मिट गई

उफ्! हवा कितनी तेज़ है।

मिट गईं सब अल्पनाएँ

उड़ गए सब रंग।

बुझ गए जलते दिए से

हमारे सुख-संग।

बीच कमरे में बहुत दिन से लगी थी

तुम्हारी तस्वीर-सहसा गिर गई

उफ्! हवा कितनी तेज़ है

इन्द्रधनु आकाश

धरती फूल फूले झर गए।

गंध-रंग-रस-रूप वाले

दृश्य जीवित मर गए।

मोर के दो पंख, कुछ कलियाँ जुही की

रखी थी जिसमें

वही पुस्तक अचानक फट गई

उफ्! हवा कितनी तेज़ है।

 

अब वे हाथ

अब वे हाथ नहीं हैं

अपने साथ नहीं हैं।

जिन हाथों ने कल

खोले दरवाज़े

आज वही दीवार हो गए हैं।

वे छांदिक व्यवहार

कि जो कल पुल थे

आज कंटीले तार हो गए हैं।

कहीं सफ़र में, घर में या सपने में

जो अक्सर तन को सहला जाते थे

वे अहसास नहीं हैं।

अपने साथ नहीं हैं।

अपने साथ अरक्षा,

शंका और धुँधलका है।

भीतर गहरी जड़ता

बाहर थमा तहलका है।

और अंधेरे को धमकाती हुई मुट्ठियाँ हैं

लेकिन उसको चीर उभरते उजले माथ नहीं हैं।

अपने साथ नहीं हैं।

अब वे हाथ नहीं हैं।

 

जलते हुए देश में

जलते हुए देश में आएँ

फिर जलभरी हवाएँ!

ताल कमल

खेतों में हल

घर में त्यौहार जगें।

द्वार पर

बन्दनवार लगें।

जलते हुए देश में छाएँ

फिर जलपरी घटाएँ।

निर्मल हों आकाश हमारे

धरती धान्य धरे।

एक-दूसरे के दुख-सुख से

हों मन-प्रान भरे।

जलते हुए देश में

जन-जन

करें यही प्रार्थनाएँ।

 

यात्रा के बाद

यात्रा के बाद भी

पथ साथ रहते हैं हमारे

यात्रा के बाद भी।

खेत खम्भे-तार

सहसा टूट जाते हैं

हमारे साथ के सब लोग

हमसे छूट जाते हैं।

मगर

फिर भी

हमारी बाँह-गरदन-पीठ

को छूतें

गरम दो हाथ रहते हैं

हमारे साथ रहते हैं।

पहुँच कर घर भी

न होतीं खत्म यात्राएँ

बराबर गूँजती हैं सीटियाँ

अब हम कहाँ जायें

कहाँ जायें

कहाँ जायें?

जहाँ जायें वहीं

सूखे, झुके मुख-माथ रहते हैं।

हमारे साथ रहते हैं।

यात्रा के बाद भी।

 

सूखे में झुलसें

सूखे में झुलसें

और बाढ़ में बहें

प्यासे हम-तुम

यूँ ही प्यासे रहें।

पीठों पर खण्डहर

पैरों में मरुथल

हाथों में खालीपन

आँखों में जल।

बीहड़ों-पहाड़ों के

यात्री हम-तुम

केवल दृश्यों के ही

आसरे रहें।

अंधकार में जनमे

धुँध में जिएँ।

भाषा को खाएँ

उम्मीद को पिएँ।

जाने कब के

नंगे-भूखे हम-तुम

जाने कब तक

नंगे-भूखे रहें।

 

रातरानी रात में

रातरानी रात में

दिन में खिले सूरजमुखी

किन्तु फिर भी आजकल

हम भी दुखी

तुम भी दुखी।

हम लिए बरसात

निकले इन्द्रधनु की खोज में

और तुम

मधुमास में भी

हो सघन संकोच में

और चारों ओर

उड़ती है समय की बेरुखी।

सिर्फ़ आँखों से छुआ

बूढ़ी नदी रोने लगी

शर्म से जलती सदी

अपना ‘बरन’ खोने लगी।

ऊब कर खुद मर गए

जो थे कमल सबसे सुखी।

 

ये फैले-खुले दो हाथ

ये फैले-खुले दो हाथ!

ये करें तो क्या करें

छिली-कुचली-कसमसाती अंजुरियों में

धुंआ-कोहरा रेत

ये कैसे भरें?

रहें सहलाते

पीड़ा से चटकता माथ।

या कि बँध कर

मुट्ठियाँ हों, तनें

तड़पें-गिरें

जैसे गाज।

लेकिन आज

ये फैले खुले दो हाथ

केवल : कौन इनके साथ?

रहें सहलाते

पीड़ा से चटकता माथ?

 

लगता है

लगता है

आगे मरुथल है।

बीहड़ टूटे, बंजर डूबे

फिर क्यों हैं ये गर्म हवाएँ।

ये चिंचियाते पंछी क्यों हैं

धुआँ उगलती हुई दिशाएँ?

जब मन में मधुबन है तो फिर

पैरों में ये कम्पन क्यों है?

लगता है

आगे दलदल है।

बाहर आते ही सुरंग के

डूब गए क्यों चक्रवात में।

क्या ये इत्तिफ़ाक है, जो हम

आ पहुँचे हैं खण्डहरात में?

ऊपर-ऊपर बादल हैं तो फिर

नीचे ये मरुथल क्यों है?

लगता है

आगे मृगजल है।

 

बीत गए दिन

बीत गए दिन

फूल खिलने के।

होती हैं केवल वनस्पतियाँ

हरी-हरी सी।

फूल धरती पड़ी है मरी-सी।

बीत गए दिन

अब हवाओं में गंध-केतु हिलने के।

फूल खिलने के।

ढोती हैं काले पहाड़ दृष्टियाँ

सूर्य झर गए।

दृश्य घाटी में गहरे उतर गए।

बीत गए दिन

उठी बाँहों से बाँहों के मिलने के।

फूल खिलने के।

 

है कहीं कुछ

है कहीं कुछ और भी है

परे, तुमसे परे।

एक सूखी भूमि

दो सूनी निगाहें

अजन्मी पदचाप सुनतीं

बंद राहें।

हवा व्याकुल है तभी से

पात जब से झरे।

सुनो, तुमसे टूट कर भी

दिशाओं के छोर

दृष्टियाँ छूती रहेंगी

भविष्यत् की कोर।

हैं, अभी भी हैं कहीं कुछ

दृश्य बिल्कुल हरे।

 

कटने लगेंगे खेत

कटने लगेंगे खेत

बीते फरवरी।

हम पहन कर उजले-सरल कपड़े

सड़कों-पार्कों में वक़्त काटेंगे।

हम नहीं सोचेंगे कि

दिन हो जायेंगे भारी

और उड़ने लगेगी रेत

बीते फरवरी।

हरियल ज़मीनें सूख का पीली

फिर मटियार होंगी।

उपज-सुख की याद भर रह जायेगी

हो जायेंगी सब हवाएँ अनिकेत

बीते फरवरी।

कटने लगेंगे खेत...।

 

कहीं कोई भी

कहीं कोई भी नहीं हैं

सिर्फ़ पत्ते डोलते हैं।

कँपकँपाता है छतों का मौन

मुंडेरों से उभरती हैं सिसकियाँ

थरथराती हवाओं के साथ

विचारों में उतरती हैं सिसकियाँ।

अँधरे में ऊँघते कोने

गुमसुम बोलते हैं।

किवाड़ों की चरमराहट

दृष्टियों का डबडबाना

एक लम्बी साँस लेकर

बिखरना : फिर लौट जाना।

अकेलेपन के इशारे

मुँदे पन्ने खोलते हैं।

 

उफ्, यह समय

उफ्, यह समय झरता हुआ।

हम अकारण ही

अयाचित युद्ध में हो ग्रस्त

काल के बेडौल हाथों

हुए खुद से त्रस्त।

कहीं कोई है

हममें कँपकँपी भरता हुआ।

बनते हुए ही टूटते हैं हम

पठारी नदी के तट से

हम विवश हैं

फोड़ने को माथ अपना

निजी चौखट से।

कहीं कोई है

हमें हर क्षण

ग़लत करता हुआ।

 

इस क्षण

इस क्षण

यहाँ शांत है जल।

पेड़ गड़े हैं

घास जड़ी

हवा, सामने के खण्डहर में

मरी पड़ी।

कहीं नहीं कोई हलचल।

याद तुम्हारी

अपना बोध

कहीं अतल में जा डूबे हैं।

सारे शोध।

जम कर पत्थर है हर पल।

इस क्षण

यहाँ शांत है जल।

 

एक सड़क धरती

एक सड़क धरती

खिड़की भर आकाश।

लेकर जाऊँ तो जाऊँ किसके पास?

कौन किए बैठा है सिन्धु

निजी जेबों में बंद।

प्यासे हैं लोग सभी... भूले हैं

फागुन के शब्द बँधे बरखा के छंद।

जीवित अधरों पर

जड़ता के इतिहास

लेकर जाऊँ तो जाऊँ किसके पास?

रहूँ : जहाँ हूँ : जैसा हूँ

करके दरवाज़े बंद।

खुद ही घुट-घुटकर मर जायेंगे

आँखों के सपनों से

फूलों के गन्धों से उजले सम्बन्ध।

झरते मौसम में

खिलने के अहसास

लेकर जाऊँ तो जाऊँ किसके पास?

 

ये पथ अब

ये पथ अब छोड़ दें!

खेत, वही बंजर सुनसान

रेत हुए ताल

भूखे-प्यासे मकान

गिरते-गिरते अकाल।

इनसे होकर जाता

यह रथ अब तोड़ दें।

अंधी होती आँखें

खुली हुई

टूट रही हैं पाँखें

उड़ने को तुली हुयी।

देखें, या

अश्वों को अन्य दिशा मोड़ दें।

जा बैठें कहीं किसी कौने में

अपनी यात्राएँ लिए

मौन-पराजित-इच्छाहीन

आँख बंद किए।

और

शेष इन लोहित निमिषों में

अपने अन्तर का

घन अंधकार जोड़ दें।

--

(शब्द संगत से अनुमति से साभार प्रकाशित)

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पाटील,1,शगुन अग्रवाल,1,शबनम शर्मा,7,शब्द संधान,17,शम्भूनाथ,1,शरद कोकास,2,शशांक मिश्र भारती,8,शशिकांत सिंह,12,शहीद भगतसिंह,1,शामिख़ फ़राज़,1,शारदा नरेन्द्र मेहता,1,शालिनी तिवारी,8,शालिनी मुखरैया,6,शिक्षक दिवस,6,शिवकुमार कश्यप,1,शिवप्रसाद कमल,1,शिवरात्रि,1,शिवेन्‍द्र प्रताप त्रिपाठी,1,शीला नरेन्द्र त्रिवेदी,1,शुभम श्री,1,शुभ्रता मिश्रा,1,शेखर मलिक,1,शेषनाथ प्रसाद,1,शैलेन्द्र सरस्वती,3,शैलेश त्रिपाठी,2,शौचालय,1,श्याम गुप्त,3,श्याम सखा श्याम,1,श्याम सुशील,2,श्रीनाथ सिंह,6,श्रीमती तारा सिंह,2,श्रीमद्भगवद्गीता,1,श्रृंगी,1,श्वेता अरोड़ा,1,संजय दुबे,4,संजय सक्सेना,1,संजीव,1,संजीव ठाकुर,2,संद मदर टेरेसा,1,संदीप तोमर,1,संपादकीय,3,संस्मरण,730,संस्मरण लेखन पुरस्कार 2018,128,सच्चिदानंद हीरानंद वात्स्यायन,1,सतीश कुमार त्रिपाठी,2,सपना महेश,1,सपना मांगलिक,1,समीक्षा,847,सरिता पन्थी,1,सविता मिश्रा,1,साइबर अपराध,1,साइबर क्राइम,1,साक्षात्कार,21,सागर यादव जख्मी,1,सार्थक देवांगन,2,सालिम मियाँ,1,साहित्य समाचार,98,साहित्यम्,6,साहित्यिक गतिविधियाँ,216,साहित्यिक बगिया,1,सिंहासन बत्तीसी,1,सिद्धार्थ जगन्नाथ 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रचनाकार: ओम प्रभाकर की ग़ज़लें और गीत
ओम प्रभाकर की ग़ज़लें और गीत
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