प्रश्न अभी शेष है - 4 / कहानी संग्रह / जड़ी - बूटी / राकेश भ्रमर

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(पिछले अंक से जारी…) कहानी 4 जड़ी - बूटी अ पनी विधवा सलहज को अपने नाम की चूड़ियां पहनाकर जिस दिन सन्तलाल घर लाया था, वह दिन उसकी पत्नी और...

(पिछले अंक से जारी…)

कहानी 4

जड़ी - बूटी

पनी विधवा सलहज को अपने नाम की चूड़ियां पहनाकर जिस दिन सन्तलाल घर लाया था, वह दिन उसकी पत्नी और दो जवान हो रहे बेटों के लिए बड़ा भारी था. घर में सन्नाटा पसरा था, जैसे सबने किसी भूत का साया देख लिया हो. सन्तू की नई दुल्हन सस्ती, किन्तु नई चमकदार साड़ी में आंगन के एक कोने में गुमसुम सी बैठी थी. उसकी ब्याहता औरत मन ही मन कुढ़ती हुई, आक्रोश को मन की पर्तों के नीचे दबाए हुए कोठरी के अन्दर घुसी हुई थी कि कोई बात चले तो अपने दिल में बह रहे गर्म लावे को सामने वाले के ऊपर उड़ेल दे. दोनों लड़के घर के बाहर इधर-उधर पैंतरेबाजी कर रहे थे. दुनियादारी की उनमें समझ तो आ गई थी, परन्तु इतने बड़े नहीं हुए थे कि बाप द्वारा की गयी दूसरी शादी का विरोध कर सकते और सन्तू निश्चिन्त अपने आप में मगन बैलों को चारा-सानी कर रहा था. उनकी पीठ सहला रहा था, जैसे बहुत बड़ा मैदान मारकर लाए हों. मैदान तो मारा ही था. सन्तू ने भी और बैलों ने भी. सन्तू अपनी जवान और सुन्दर सलहज को अपनी दूसरी बीवी बनाकर ले आया था, तो बैल उसे छकड़ा गाड़ी में ढोकर लाए थे.

 

शाम धीरे-धीरे गांव में अपने पैर पसारती जा रही थी. अब तक सन्तू के दूसरी बीवी लाने की खबर पूरे गांव में फैल चुकी थी. लोग आते, आश्चर्य व्यक्त करते और उससे पूछते, कि इस उमर में उसे यह क्या सूझी कि एक जवान विधवा औरत को घर लाकर बिठा दिया, तो वह खरा जवाब देकर सबको शान्त कर देता, ‘‘हां, लाया हूं. तो...? मेरी सलहज है. उसका कोई सहारा नहीं था. जवान औरत का कोई खूंटा न हो, तो सभी उसे भेड़िए की तरह नोचने के लिए तत्पर रहते हैं. बूढ़े-जवान सभी उसे अपनी बांहों में समेटने के लिए आतुर दिखते हैं. बहला-फुसलाकर उसकी जवानी का मजा लूटना चाहते हैं और बाद में उसके ऊपर थूक कर चल देते हैं. मैंने उसे सहारा दिया, एक ठौर से लगा दिया, इज्जत दी तो क्या बुरा किया. पराए मर्दों की बांहों में डोलती फिरती तो क्या जात-बिरादरी में बदनामी नहीं होती?’’ सन्तू के तर्क में दम था. उसकी खरी बात सुनकर सब चुप लगा जाते, क्या कहते? यूं तो कहने के लिए बहुत सारी बातें थीं, परन्तु यह सन्तू का निजी मामला था. वह जाने, उसकी घरवाली जाने और जाने उसके लड़के. अगर सब राजी तो क्या करेगा काजी. जानवर मरेगा, तभी तो गिद्ध मांस खाएंगे. उसकी सलहज विधवा न होती, तो क्यों सन्तू उसे अपने चंगुल में फंसाता या वही उसकी बांहों का सहारा ढूंढ़ती. सन्तू का मन अपनी विधवा सलहज से जुड़ गया था और उसकी सलहज भी उसके साथ रहने को तैयार थी, तो इसमें गांववालों को क्या एतराज हो सकता था? लेकिन सामाजिक रीति-रिवाज भी तो कोई चीज होती है. शादीशुदा होते हुए भी अगर कोई मर्द दूसरी औरत को अपने घर में बिठा ले तो क्या गांव-समाज और जाति-बिरादरी के लोग चुप बैठे रहेंगे? गांव-समाज के लोग कुछ कहें, या चुप बैठे रहें, तब भी कुछ नहीं बिगड़ता है, परन्तु जाति-बिरादरी के लोग कहां मानने वाले थे? दूसरी बीवी लाना और सम्मान के साथ उसे घर में रख लेना क्या इतना आसान था? जाति-बिरादरी के सख्त कानून क्या कोई इतनी आसानी से तोड़ सकता है? सन्तू का हुक्का-पानी बंद हो जाएगा? रीति-रिवाज के सामने कोई अपनी मनमानी नहीं कर सकता है. लोग इस तरह अनर्गल करने लगें, तो समाज ध्वस्त नहीं हो जाएगा? पारिवारिक व्यवस्था टूट नहीं जाएगी? सबके घर में बहू-बेटियां हैं. सन्तू की तरह सब करने लगेंगे तो...?

‘‘कहते तो तुम ठीक है, परन्तु काम खोटा किया है. दण्ड तो भरना ही पड़ेगा...’’ किसी बुजुर्ग ने उसकी बात पर कहा.

‘‘तो भर देंगे..’’ सन्तू ने ऐंठकर कहा, ‘‘कोई फांसी तो नहीं लगा देगा.’’ सन्तू जानता था कि जाति-बिरादरी के लोग पंचायत करेंगे. हजार-दो हजार का जुर्माना लगाएंगे. साथ ही सारी बिरादरी के लोगों को भोज देना पड़ेगा. दण्ड भर देगा और भोज भी दे देगा, इसकी उसे चिन्ता नहीं थी. थोड़ी बहुत चिन्ता थी तो अपनी पत्नी की. अभी तक तो चुप बैठी थी, परन्तु रात में न जाने क्या हंगामा करे? वैसे तो उसकी बीवी शान्त स्वभाव की थी और उससे दबती थी, परन्तु घर में सौत लाने पर भी चुप बैठी रहेगी और उसकी ज्यादती बर्दाश्त कर लेगी, यह कहना जरा मुश्किल था. औरत अगर सती-सावित्री है, तो दुर्गा और चण्डी भी. क्या पता कब उसका दिमाग उलट जाए और वह ज्वालामुखी बनकर लावा उगलने लगे. अभी तक तो सब कुछ शान्त चल रहा था. लेकिन गहरे पानी के ऊपर सब कुछ शान्त रहने से यह नहीं समझना चाहिए कि अन्दर गहराई में भी सब कुछ शान्त है. पानी की गहराई और मन की गहराई के अन्दर बहुत भयानक हलचल हो सकती है, जो ऊपर से किसी को दिखाई नहीं देती.

जो भी आता, सन्तू से एक जैसा सवाल करता और वह भी उनको एक जैसा जवाब देता. सब सुनकर चले जाते, परन्तु अड़ोस-पड़ोस की औरतों को कौन समझाता? वह तो अंधी भेड़ों की तरह घर के अन्दर घुस गयी थीं और नई दुल्हन को घेरे खड़ी थीं. कुछ उम्रदराज औरतें तो जैसे वही पर धरना देकर बैठ गयी थीं. तरह-तरह की बातें, तरह-तरह के सवाल...परन्तु सवालों का जवाब कौन देता? नई दुल्हन शर्म और संकोच के मारे चुप थी, तो सन्तू की बीवी पुनीता मान किए कोठरी के दरवाजे पर बैठी थी, जैसे नई दुल्हन कहीं कोठरी के अन्दर न घुस जाए.

‘‘अरे पुनितिया, तू इस तरह मुंह फुलाए बैठी है. आखिर तरी भौजाई है. माना कि सन्तू ने बुरा किया, तेरी भौजी को सौत बनाकर ले आया, परन्तु होनी को कौन टाल सकता है? आखिर मर्द का दिल है, इस पर आ गया. घर ही लेकर आया है, कहीं और भगा ले जाता तो तुम लोग कहां के रहते? बताओ...?’’ एक बुजुर्ग महिला ने समझदारी का परिचय देते हुए कहा. पुनीता आंधी की तरह उठकर आंगन में आ खड़ी हुई, ‘‘भौजाई है, तो क्या मेरा ही घर लूटने के लिए बचा था. मेरा खसम कौन सा ऐसा जवान है, जिस पर इसकी आंखें फूट गयीं. इतनी जवान है, सुन्दर है तो कोई अपनी उमर के मर्द का हाथ थामती. मेरे मरद के ढीले मांझे में इसने क्या देखा? क्या सारे कुंवारे मर्द मर गए थे? कितने सारे रंडुए ठरकी मारते घूमते रहते हैं, क्या उनको नहीं फंसा सकती थी?’’ वह आंगन के चबूतरे पर बैठकर सियापा करने लगी.

‘‘अब इन दोनों के बीच क्या बात थी, यह तो यहीं दोनों जानें. तुम तो बहना समझदारी से काम लो, वरना इसके चक्कर में तुम्हें ही सन्तू घर से निकाल बाहर न कर दे. न घर की रहोगी न घाट की. मर्द जात का कोई भरोसा नहीं. गनीमत है कि अभी तक सब कुछ घर के अन्दर है. ज्यादा हंगामा न करना. जाति वाले तो सन्तू से निपट ही लेंगे.’’

‘‘ऐसे कैसे निकाल देगा घर से...ब्याहकर आई हूं इस घर में. जाति-बिरादरी के लोग साखी हैं कि मैं सन्तू की ब्याहता हूं. दो बच्चे जने हैं इस कोख से. उनका कोई हक नहीं बनता है क्या इस घर में? यह रांड़ आई है तो क्या यहां रानी बनकर रहेगी और हम चौका-बर्तन करेंगे. इसके पैर धोकर मालिश करेंगे. अरी, कैसी भौजाई है तू जो मेरा ही घर उजाड़ने के लिए चली आई’’ उसका रोना और तेज हो गया था.

‘‘तुम्हारा कहना अपनी जगह सही है, परन्तु तुम जानो, सौत के सामने ब्याहता की क्या दुर्दशा होती है?’’ एक और महिला ने सच्चाई की आग उगली.

उसकी बात सुनकर पुनीता और ज्यादा भड़क उठी, ‘‘मेरी दुर्दशा करवाएगी यह? उसके पहले ही इस घर को आग न लगा दूंगी और इस मुंहझौसी रांड़ को उस आग में झोंक दूंगी. जलकर खाक हो जाएगी, तब मेरे कलजे को ठण्डक पड़ेगी.’’

‘‘वह तो तुम बाद में करना. अभी से उसका दिल क्यों जला रही हो. बेचारी न जाने कितने अरमान लेकर आई है. जब से आई है, भूखी-प्यासी बैठी है. बातें न करो, परन्तु एक गिलास पानी तो दे दो. बैलगाड़ी में बैठकर आई है, बदन दुःख रहा होगा. कुछ तो ख्याल करो. दुश्मन भी भूले से घर में आ जाता है, तो उसको प्यार से बिठाकर पानी-पत्ता के लिए पूछते हैं.’’

‘‘क्यों नहीं, बड़ी समझा रहो हो, काकी तुम्हारे ऊपर पड़ती तो पता चलता. इस तरह समझदारी की बातें मुंह से न निकलती. यह मेरी पटरानी बनके आई है न! जो मैं इसकी सेवा करूं.’’

‘‘यह तो कुछ समझ ही नहीं रही है. ये फुल्लो, तू जा नलके से ताजा पानी भरकर ले आ और एक गिलास पिला इसको. यह बेचारी अपने आप क्या बोलेगी? डरी-सहमी तो बैठी है.’’

फुल्लो एक तेरह-चौदह साल की लड़की थी, दौड़ कर गई और आनन-फानन में एक बाल्टी पानी भर लाई. फिर उस बुजुर्ग महिला ने नई दुल्हन को पानी से भरा गिलास पकड़ाया ता वह ले नहीं रही थी, न उसके मुंह से बोल फूट रहे थे. तब महिला ने दाएं हाथ से उसका घूंघट उठाकर बाएं हाथ से गिलास उसके मुंह की तरफ बढ़ाया. अब तक किसी ने उसका मुंह नहीं देखा था. जैसे ही उसके मुंह से घूंघट हटा, लगा जैसे बिजली चमक गयी थी. औरतों के मुंह से एक साथ निकला, ‘‘अई दइया, ये तो बड़ी सुन्दर है, जैसे पूनम का चांद.’’ सच में सुभागी बहुत सुन्दर थी. औरतों की बात सुनकर पुनीता के हृदय पर सांप लोट गया. नागिन की तरह फुंफकारती हुई बोली, ‘‘हां, हां, स्वर्ग की अप्सरा है, तभी तो बूढ़े की आंखों में बिजली गिर पड़ी. उठाकर घर ले आया. अब मेरे घर पर गाज गिराएगी, मेरी छाती में मूंग दलेगी. मेरे बच्चों का हक मारेगी, और क्या?’’ जब तक औरतें रहीं, उनके बीच नोंक-झोंक चलती रही. रात गहराने लगी तो एक-एक करके औरतें अपने घर चली गयीं. पुनीता अपनी सौत के साथ घर में रह गयी. उसका भुनभुना जारी था, परन्तु उसकी बातों में कोई तारतम्य नहीं था, न कोई सार...एक विक्षुब्ध औरत का अनर्गल प्रलाप था, जो धीरे-धीरे शान्त हो जाना था. दोनों लड़के पता नहीं कहां भटक रहे थे. अभी तक घर नहीं लौटे थे.

सन्तू भी बाहर छप्पर के नीचे चारपाई पर लेटा उधेड़बुन में लगा हुआ था. अन्दर जब औरतों के बीच पुनीता अपना गुबार निकाल रही थी, तब पिछले दिनों की सारी घटनाएं एक-एक कर उसके मस्तिष्क से गुजर रही थीं और वह उनमें

डूबकर मगन हो रहा था. पिछले साल की ही तो बात है. बरसात का मौसम था और घटाओं ने धरती को डुबोने का अच्छा खासा अभियान चला रखा था. दिन-रात झमाझम बारिश हो रही थी. नदी-नाले उफनाकर अपनी ताकत दिखा रहे थे, तो खेत और ताल लबालब भरकर एक दूसरे के गले मिल रहे थे. खरीफ की फसल बाढ़ में चौपट हो चुकी थी. धान की बेड़ पानी में डूब चुकी थी और रोपाई पूरी तरह से ठप्प पड़ी थी. बारिश का अगर यही हाल रहा तो धान की फसल भी चौपट होने वाली थी. इन्द्र देवता पता नहीं क्यों इस कदर नाराज थे कि बादलों को निचोड़े दे रहे थे. मजदूरों के घरों में रोटी के लाले पड़े थे तो किसानों के घर में पड़ा अन्न सीलन से खराब हो रहा था. पूजा-पाठ और हवन-कीर्तन भी इन्द्र देवता को मनाने में असमर्थ थे. जिन नदी-नालों में पूरे वर्ष एक बूंद पानी नजर नहीं आता था, वह एक दूसरे से मिलकर समुद्र हो रहे थे. उनका ओर-छोर नजर नहीं आता था. सन्तू की ससुराल के गांव के किनारे से ऐसी ही एक बरसाती नदी बहती थी. सन्तू के इकलौते साले रतनलाल की खेती की जमीन नदी के किनारे थी. पता नहीं कौन सी अशुभ घड़ी थी कि भरी बारिश के बीच वह खेतों का जायजा लेने पहुंच गया. नदी का पानी उफनाकर खेतों से होकर बह रहा था. रतनलाल होशियारी से मेड़ पर धीरे-धीरे कदम बढ़ाकर चल रहा था, परन्तु होनी को कौन टाल सकता था. पानी के उफान का जोर था ही, नदी के साथ चिकनी मिट्टी भी नीचे अपनी चादर बिछा चुकी थी. अचानक रतन का पैर फिसला और वह नदी की तरफ जा गिरा. उसने हाथ-पांव मारे, परन्तु पानी का बहाव तेज था. जब मौत आती है, तो मनुष्य के सारे प्रयत्न और दांव-पेंच विफल हो जाते हैं. रतनलाल पानी के साथ बह गया और फिर उसकी लाश भी नहीं मिली. दो साल की ब्याहता सुभागी विधवा हो गयी. घर में सास-ससुर न थे, कोई देवर भी नहीं था. एक बड़ी ननद थी, जो सन्तू को ब्याही थी. परिवार के नाम पर केवल पटटीदार थे, जिनकी नजरें रतनलाल की उपजाऊ जमीन पर गड़ी हुई थीं. रतनलाल की मृत्यु के बाद उनकी आंखों में अनोखी चमक आ गयी थी, परन्तु उसकी जमीन हड़प कर पाना इतना आसान न था. अभी सुभागी जिन्दा थी और मदद करने के लिए उसके मायके के लोग मौजूद थे. सन्तू भी उसका सगा था.

तेरहवीं के बाद जब घर में केवल सुभागी के मायके वाले और संतू अपनी बीवी के साथ रह गया, तो सब लोगों ने मिल बैठकर सुभागी के भविष्य के बारे में विचार-विमर्श किया. सब ने सुभागी से पूछा कि वह क्या चाहती है?

‘‘मेरी तो समझ में कुछ नहीं आता. आप लोग ही सोच-विचार कर बतायें.’’ उसने अपने हथियार डालते हुए कहा. अभी-अभी उसके जवान पति की मौत हुई थी. खुद उसकी उमर ही कितनी थी. अभी ब्याह न हुआ होता तो अल्हड़ लड़की के समान घर-बाहर चौकड़ी भर रही होती.

‘‘पति के बाद पत्नी का ही ससुराल में पहला हक होता है. सुभागी अकेली है और अपने पति की जमीन-जायदाद की अकेली वारिस...लेकिन वह अकेली इतनी बड़ी जायदाद कैसे संभाल सकती है?’’ सुभागी के पिता ने कहा.

‘‘बापू, मैं तो कहता हूं कि दीदी को यहां रहने की जरूरत क्या है? जब यहां की खेती और घर-बार को न कोई संभालने वाला है, न कोई बंटाने वाला, तो सब कुछ बेच-बांच कर दीदी को अपने घर ले चलते हैं. वहां इसके लिए अलग से एक घर बनवा देंगे और कुछ खेती की जमीन खरीद देंगे. मजे से गुजारा होता रहेगा. फिर अगर दीदी का मन हुआ तो कहीं अच्छा लड़का देखकर दूसरी शादी भी कर देंगे.’’ सुभागी के भाई सोहन ने सुझाव दिया.

‘‘ये अच्छा नहीं होगा. इतनी जल्दी अगर हम जमीन जायदाद बेचकर सुभागी को अपने घर ले गए तो इसके पट्टीदार विरोध करेंगे. पहले तो जमीन बेचने में अड़ंगा लगाएंगे और उसे आसानी से बिकने नहीं देंगे. फिर खुद ही उसे औने-पौने दाम में खरीदने की कोशिश करेंगे.’’ ‘‘तो फिर...?’’ सोहन ने पूछा.

सन्तू अभी तक चुप बैठा उनकी बातें सुन रहा था. अब बोला, ‘‘बाबू जी, आप ठीक कह रहे हैं. जमीन बेचना आसान नहीं होगा.’’

‘‘लेकिन यहां रहकर खेती कौन करेगा? अकेले सुभागी के वश का तो है नहीं.’’ सोहन बोला.

‘‘अगर मेरी मानो, तो एक बात कहूं?’’ सन्तू ने गंभीरता से कहा‘‘हां, बच्चा, बोलो न! ’’ सोहन के बापू ने कहा.

‘‘देखो, मेरे पास एक जोड़ी बैल हैं, पर खेती की जमीन बहुत कम है. अपने खेत जोत-बोकर मैं दूसरे के खेतों में हल चलाता हूं. अगर आप लोग सहमत हों, तो मैं आकर यहां के खेतों की जुताई-बोवाई करवा दिया करूंगा. समय पर खेतों की सिंचाई और कटाई-मड़ाई करने के लिए भी आ जाया करूंगा.’’

‘‘ये तो बहुत अच्छा रहेगा!’’ सोहन के बापू बोले, ‘‘बेटा तुमने मेरी सारी चिंता दूर कर दी. कुछ दिन आकर तुम इसका घर संभाल दो, तो सब ठीक हो जाएगा. फिर आगे जैसा सुभागी चाहेगी...अगर कहेगी तो दूसरा ब्याह कर देंगे. अकेले इतना बड़ा जीवन गुजारना मुश्किल है.’’

‘‘वो तो करना ही पड़ेगा. अभी इसकी उमर ही कितनी है. अकेली औरत इतना लंबा जीवन बिना मर्द के कैसे गुजार सकती है?’’ सन्तू बोला. घूंघट के अन्दर सुभागी का दिल धड़क उठा. सभी उसकी बात से सहमत थे.

सन्तू घर जाकर अपने बैल ले आया और कुछ ही दिनों में सुभागी के खेतों को जोत-बोकर तैयार कर दिया. उस साल बरसात के कारण काफी फसलें बरबाद हो गयी थीं, परन्तु जितना कुछ हो सकता था, सन्तू ने किया और खेतों में अन्न उगाने में कोई कसर न छोड़ी. सारा दिन धूप में पसीना बहाता, पल भर भी आराम न करता. सुभागी उसके लिए खेतों में कलेवा लेकर जाती थी. दोपहर और शाम को वह स्वयं घर आ जाता था. सन्तू का ससुराल में रहकर सुभागी की मदद करना सुभागी के पट्टीदारों को फूटी आंख न सुहाता था, परन्तु वह खुलकर विरोध नहीं कर सकते थे. सन्तू उस गांव का दामाद था, इसलिए वह थोड़ा दबते थे; वरना अब तक सुभागी को मार-पीट कर भगा देते और उसकी जमीन पर कब्जा करके बैठ जाते. सन्तू चालीस वर्ष की उम्र का समझदार व्यक्ति था. वह अच्छी तरह जानता था कि औरत-मर्द के रिश्ते को बदनाम होते देर नहीं लगती है. ससुराल में उसकी सलहज अकेली थी, जवान और सुन्दर थी. उसी घर में वह रहता था. रिश्ता नाज़ुक और हंसी-मजाक वाला था. लोगों को सन्तू और सुभागी की उम्र से कोई मतलब नहीं था. वह तो बिना सोचे समझे आग लगाने के लिए तैयार खड़े थे. सन्तू ने अपनी तरफ से सब होशियारी बरती थी कि किसी को उस पर उंगली उठाने का मौका न मिले. सारा दिन वह खेतों में काम करता रहता था. दोपहर को आता तो भी बाहर ही खाना मंगाकर खा लेता था. शाम को भी चौपाल में बैठकर खाना खाता और बगल के कमरे में सो जाता. घर के अन्दर वह तभी जाता, जब कोई भारी सामान रखना होता या उठाकर बाहर लाना होता. सुभागी ने शुरू-शुरू में टोंका था, ‘‘जीजा आप बाहर बैठकर खाते हो, यह अच्छा नहीं लगता. आप हमारे मान्य हो. आपकी यहां बड़ी इज्जत है. परायों की तरह घर के बाहर बैठकर खाना खाते हो, गांव के लोग देखेंगे तो क्या कहेंगे? मुझे अच्छा नहीं लगता. एक तो आप हमारे लिए इतना कुछ कर रहे हो, कड़ी धूप में पसीना बहाते हो, फिर हम आपको इज्जत से दो रोटी न दे सकें, तो कितना अफसोस होता है.’’ सुभागी उसके सामने घूंघट करती थी, परन्तु घूंघट के अन्दर से उसकी बड़ी-बड़ी आंखें चमकती रहती थीं. चांद सा गोरा चेहरा परदे के भीतर से ही जैसे आग लगाने के लिए मचलता रहता था. सन्तू ने अचानक ही कई बार सलहज का खुला चेहरा भी देखा था, परन्तु हर ऐसे मौके पर वह सिर झुका लेता था और सुभागी मुस्करा कर रह जाती थी. सन्तू नीचे की तरफ देखता हुआ बोला, ‘‘भौजी, मेरे घर के बाहर बैठकर खाना खाने से लोग जो बातें बनायेंगे, वह हम सहन भी कर लेंगे; परन्तु घर के अन्दर मैं आने-जाने लगा तो लोग ऐसी आग लगाएंगे, जिसकी आंच न तुम बर्दाश्त कर पाओगी, न मैं. बताओ, भरी जवानी में विधवा होकर क्या बिना किसी दोष के तुम अपने ऊपर लांछन लगवाना पसन्द करोगी?’’ सुभागी समझ गयी कि सन्तू का इशारा किस तरफ था. वह भी इसी बात से डरती थी, परन्तु क्या लोगों के डर से वह अपने बड़ों को सम्मान न दे? फिलहाल सन्तू की बात से वह कुछ सोच कर चुप रह गयी थी, लेकिन मन ही मन सोचा..लोगों का क्या, वह तो बिना बात के भी बातें बना सकते हैं. अभी भी तो कह सकते हैं कि सन्तू दिन में दिखाने के लिए बाहर खाना खाता है. रात में कौन उसके ऊपर गांव वालों का पहरा रहता है. रात के अन्धेरे में हर तरह के पाप किए जाते हैं, और लोगों की नजरों से छिपे भी रहते हैं. पाप का घड़ा जब तक नहीं भरता, तब तक किसी को कहां पता चलता है? हो सकता है, रात के अन्धेरे में सन्तू और सुभागी

भी यहीं पाप करते हों. घर में वहीं दोनों तो रहते हैं. उनको कौन देखने वाला है? सुभागी अक्सर सोचती रहती थी कि पता नहीं गांव वाले कब उसके ऊपर यही लांछन लगा दें.

रात के गहन अन्धेरे में जब चारों तरफ सन्नाटे का साम्राज्य हो, वातावरण में केवल झींगुरों का मधुर संगीत हो और एक बड़े घर में मात्र दो प्राणी, जिनके बीच में केवल एक दीवार का फासला हो तो उन्हें जल्दी नींद नहीं आती. नींद उनसे छल करती है और मन एक दूसरे की तरफ दौड़ते हैं. कितना भी कोशिश करो उन्हें रोकने की, परन्तु वह उसी के पास जाकर अटक जाते हैं, जिनके पास जाने के लिए सामाजिक वर्जनाएं होती हैं, नैतिक मर्यादा का बन्धन होता है, परन्तु मन किसी वर्जना या मर्यादा का गुलाम नहीं होता. उस पर लगाम न लगायी जाए तो बाढ़ की तरह वह सारे बन्धन तोड़ देता है. सन्तू और सुभागी के साथ यही हो रहा था. न चाहते हुए भी दोनों एक दूसरे के बारे में बीती रात तक सोचते रहते थे, परन्तु कोई उठकर एक दूसरे के पास न जाता था. एक के मन में शर्म थी तो दूसरे के मन में संकोच...दीवार बड़ी ऊंची

थी और उसे गिराने का साहस किसी के पास नहीं था. सुभागी की बन्द आंखों के सामने सन्तू का कसरती, मेहनती और पसीने से लथपथ गठा हुआ बदन नाचता रहता, तो सन्तू के दिमाग में परी सा सुन्दर, गोरा चिट्टा, बड़ी-बड़ी आंखों वाला गोल मटोल सुभागी का चेहरा हरदम विराजमान रहता. इस चेहरे को थोड़े समय के लिए ग्रहण लग गया था, परन्तु अब वह फिर से मुस्कराने लगा था. उसकी आंखों में एक प्यारा-सा सन्देश छिपा होता था, तो बदन की हलचल एक असंवादित कहानी बयान कर रही होती थी. सुभागी के बदन की कहानी का अर्थ समझने का सन्तू प्रयास करता और उसकी आंखों के मूक सन्देश का विश्लेषण...हृदय में उसके एक हलचल होती, मीठी टीस उठती, परन्तु फिर अपने कदम पीछे खींच लेता. क्या पता सुभागी की आंखों की चंचलता और शरीर की हरकतें स्वाभाविक हों. उनका दूसरा मतलब निकाल कर वह अनजाने में ही उसके साथ कोई गलत हरकत कर बैठे और वह बुरा मान जाए तो...सारा मान-सम्मान मिटटी में मिल जाएगा. फिर क्या वह ससुराल में किसी को मुंह दिखा पाएगा? चोरों की तरफ मुंह छिपाकर भागना पड़ेगा. वह अपनी तरफ से कोई पहल नहीं करेगा, उसने तय किया. लेकिन अब सुभागी के सामने होते हुए सन्तू की नजरें जमीन में नहीं अर्द्धपारदर्शी घूंघट के अन्दर उसके चेहरे में कुछ खोजने का प्रयास करती रहती थीं.

ज्वार-बाजरा और अरहर की बुआई तथा धान की रोपाई के बाद खेती का कोई काम नहीं बचा था. निराई-गोड़ाई या अगला पानी देने में कम से कम पन्द्रह दिन लगने वाले थे. अतः इस बीच सन्तू ने अपने गांव जाने का विचार किया. सुभागी से बोला तो उसको धक्का सा लगा, जैसे दिल निकलकर बाहर गिर गया हो. फिर

भी उसने पूछा- ‘‘जाना जरूरी है क्या? कब लौटोगे?’’

‘‘जल्द ही आ जाऊंगा. उधर भी देख लूं, क्या हो रहा है?’’

‘‘हां, जीजा, अब तो दोनों घर आपको ही संभालने हैं, परन्तु जल्दी आना.’’ वह अपने दिल को तसल्ली देते हुए बोली‘‘तुम्हें डर तो नहीं लगेगा?’’ सन्तू ने पूछा.

‘‘इस घर में अकेले कभी नहीं रही. पहली बार ऐसा मौका आया है. पता नहीं..फिर भी डर तो लगेगा. सूना घर भांय-भाय करेगा. कहीं डर से मेरी जान न निकल जाए. पटटीदारों का भी खौफ है. अभी तक तो आपके कारण कोई दरवाजे पर नहीं फटकता था. आपके जाने के बाद पता नहीं क्या करें. उल्टी सीधी बातें तो करेंगे ही?’’ उसने आशंका व्यक्त की.

‘‘हां, इसका डर तो है, परन्तु जीवन में हर तरह के हालात का सामना करने के लिए हमें तैयार रहना चाहिए.’’ सन्तू ने उसका हौसला बढ़ाया‘‘अब आपका ही सहारा है.’’ सुभागी ने मायूसी से कहा. पन्द्रह दिन बाद जब सन्तू वापस अपनी ससुराल आया, तो सुभागी काफी बदली सी लग रही थी. वह दुःखी और भयभीत थी. सन्तू को देखते ही लगभग रुंआसी हो गई और उसके बिल्कुल सामने खड़ी होकर विह्वल होकर बोली, ‘‘जीजा, आप आ गए. अब मुझे यहां अकेली छोड़कर न जाना.’’ सुभागी बिल्कुल सीधे उसकी आंखों में देख रही थी. उसका घूंघट आंखों तक उठा हुआ था. सन्तू ने गौर से देखा, वह रेगिस्तान में भटक रही अकेली हिरणी की तरह भयभीत थी. सन्तू बेकरारी से बोला, ‘‘क्या हुआ? कुछ अनिष्ट हो गया है क्या?’’

‘‘क्या बताऊं जीजा, जब तक आप यहां थे, सब चूहे की तरह दुबके हुए थे, आपके जाते ही शेर बन गये.’’

‘‘कौन...?’’

‘‘और कौन...यहीं सब गांव के लोग...किस-किसका नाम गिनाऊं? आपको और मुझे लेकर गन्दे-गन्दे रिश्ते जोड़ रहे थे. औरतें भी पीछे नहीं थी. जीजा, मैं अब अकेले यहां नहीं रहूंगी. लोग मेरा जीना हराम कर देंगे.’’ वह लगभग सुबकने लगी थी. सन्तू ने उसको सान्त्वना देते हुए कहा, ‘‘अच्छा, ठीक है, अब बताओ कि किसने क्या कहा?’’

‘‘कहने को तो बहुत सारी बातें कहीं. सब कुछ बताने से कोई फायदा नहीं, परन्तु सबकी बातों का एक ही मतलब था कि मेरा आपके साथ नाजायज रिश्ता है, इसीलिए मैंने आपको घर में बिठा रखा है.’’

‘‘हूं,’’ सन्तू ने कुछ सोचकर हुंकारी भरी, ‘‘मैं उन सबकी चाल समझता हूं. हमें बदनाम करके वह पंचायत क माध्यम से गांव से निकाल बाहर करना चाहते हैं, ताकि तुम्हारी जमीन वह औने-पौने दामों में हथिया लें. देखता हूं, कितनी कुटिल चालें वह चलते हैं. मैं भी उन्हें ऐसा सबक सिखाऊंगा कि उम्र भर याद रखेंगे.’’ सुभागी की समझ में नहीं आया कि सन्तू ऐसा क्या करेगा, जो गांव वाले उन दोनों के बारे में गलत-सलत बातें करना बन्द कर देंगे. गांव के लोग सांप की तरह चलते हैं और अचानक ही काटकर सीधे खड़े हो जाते हैं. सन्तू हाथ-मुंह धोकर दरवाजे पर चारपाई डालकर बैठा था. आते-जाते लोग राम-जुहार करते, हाल-चाल पूछते और चलते बनते. कुछ लोग बीड़ी पीने के लिए बैठ भी जाते, परन्तु किसी के मुंह से ऐसी कोई बात न निकली, जिससे यह पता चलता कि गांव वाले सन्तू और सुभागी को लेकर गलत सोचते हैं. कई सारी औरतें भी आईं. जिनके साथ साली या सलहज का रिश्ता था, उन्होंने खुले दिल से सन्तू के साथ हंसी-मजाक और ठिठोली भी की और फिर अन्धेरा होने से पहले अपने-अपने घर चली गईं अन्धेरा घिरने लगा था. ओस भी पड़ने लगी थी. सन्तू ने चारपाई उठाकर चौपाल में डाल ली. तभी चिराग लेकर सुभागी बाहर आई और आले पर रखकर बोली, ‘‘जीजा, मैं खाना बना लेती हूं. यहां मन ऊब रहा हो, तो अन्दर आकर बैठो मैं खाना बनाऊंगी और आप बातें करना.’’ सन्तू ने चौंककर सुभागी को देखा. चिराग की रोशनी में उसका गोरा रंग सुनहरा हो गया था. आंखें मुस्करा रही थीं. सन्तू को आश्चर्य हुआ. आज के पहले सुभागी ने रात में घर के अन्दर आने के लिए नहीं कहा था. सन्तू का मन हुलसकर रह गया. समझ गया कि उधर आग लगी हुई है, चाहे किसी भी कारण से...क्या पहले से वह सन्तू को अपने मन में बिठा चुकी थी, या गांव वालों की बातें सुनकर उसके मन में सन्तू को अपना बना लेने का विचार आया था. उसकी बड़ी-बड़ी आंखें और बदन की हलचल क्या सचमुच वही बात कह रही थीं, जो वह समझ रहा था. उसके छोटे होते घूंघट, मुस्कराती आंखों और दमकते चेहरे और मछली की तरह तड़पते बदन से तो यही जाहिर हो रहा था. कुछ भी हो, वह अच्छी तरह समझ गया था कि सुभागी उसे चाहने लगी है. यह उसके लिए बड़ी सुखद अनुभूति थी. मन तो कर रहा था, परन्तु उसने उतावनापन नहीं दिखाया. कोई पन्द्रह-सोलह साल का बच्चा तो था नहीं कि पानी देखते ही बिना कपड़े उतारे नहाने के लिए कूद पड़े. शादीशुदा, दो बच्चों का चालीस बरस का प्रौढ़ आदमी था. औरत की फितरत अच्छी तरह जानता था. जितना उनको तड़पाओ, उतना ही वह मर्द के प्रति आकर्षित होती हैं. फिर वह जीवन भर मर्द की गुलाम बनकर रहती हैं. मन होते हुए भी उसने कहा, ‘‘नहीं तुम खाना बना लो. मैं यहीं बैठता हूं.’’

‘‘अच्छा, लेकिन आज खाना बाहर नहीं खाओगे. अन्दर खाओगे...चौके में...’’ सुभागी के शब्दों में अधिकारपूर्ण आग्रह था. कहकर सन्तू की प्रतिक्रिया जाने बिना वह अन्दर चली गई. सन्तू मन ही मन मुस्करा उठा. पानी का बहाव बहुत तेज हो गया था. बांध टूटने ही वाला था. जब खाना बन गया तो सुभागी उसे बुलाने आई. इस बार उसने कोई नानुकर नहीं की और बिना कुछ बोले बकरी की तरह उसके पीछे-पीछे घर के अन्दर आ गया. पीछे से उसने बाहर का दरवाजा उढ़का दिया. वह चौके पर जा बैठा, तो सुभागी चमचमाती नयी थाली में खाना परोसकर लाई और नई नवेली दुल्हन की तरह शरमाती-सकुचाती कांपते हाथों से थाली नीचे रखी, जैसे पहली बार अपने पति के सामने आ रही हो. सन्तू उसकी हालत पर मन ही मन मुस्करा रहा था. उसने थाली में हाथ लगाया, तो सुभागी सामने ही दो कदम पर बैठ गयी. दाहिनी तरफ चिराग जल रहा था. सुभागी का घूंघट अब माथे पर आ गया था. बिन्दी विहीन माथा..फिर भी आभायुक्त. सन्तू सम्मोहित होकर रह गया. आज कुछ होने वाला था, कुछ नया...सोचकर दोनों ही पुलकित हो रहे थे. सन्तू ने दो-चार कौर खाए होंगे कि सुभागी ने कहा, ‘‘जीजा, आप बहुत चालाक हो.’’

‘‘ओ...कैसे...? क्या मतलब?’’ सन्तू उसकी बात का मतलब समझ नहीं पाया.

‘‘हाय! कितने भोले बन रहे हो. मैं सब जानती हूं आप कोई जादू जानते हो.’’

‘‘जादू...नहीं तो?’’ वह और ज्यादा चकित रह गया.

‘‘कैसे नहीं, ऐसे थोड़े न किसी औरत का दिल मर्द की ओर भागता है. मर्द जादू से औरत को सम्मोहित कर लेता है या फिर कोई जड़ी बूटी सुंघाकर...आपको जरूर कोई वशीकरण मंत्र आता है! या फिर आपने अनजाने में कोई जड़ी-बूटी सुंघा दी है.’’ सुभागी के नाखून कच्ची जमीन को कुरेद रहे थे. सन्तू सब समझ गया‘‘हां, शायद ऐसा हुआ हो, परन्तु मैंने किसको जादू से अपने वश में कर लिया.’’ मन ही मन वह मुस्करा रहा था.

‘‘आप जानते हो, फिर मुझसे क्यों पूछते हो?’’ सुभागी ने शर्माकर अपना चेहरा आंचल में छुपा लिया.

‘‘तो मैं बताऊं, मैंने क्या किया था?’’ उसने जल्दी-जल्दी खाना खत्म किया, फिर थाली में ही हाथ-धोकर उठ खड़ा हुआ. सुभागी चौंक गयी, ‘‘अरे इतनी जल्दी..तुमने तो कुछ खाया ही नहीं?’’ पहली बार सन्तू के लिए उसके मुंह से तुम निकला था.

‘‘कुछ और खाने का मन कर रहा है.’’ वह दो कदम आगे बड़ा और बिना किसी हिचक के सुभागी का कोमल फूल सा नाजुक बदन अपनी सख्त बांहों में समेट लिया. वह कटी पतंग की तरह सन्तू की बांहों में झूल गयी, जैसे युगों-युगों से उसे इसी क्षण का इन्तजार था. दोनों कुछ पल तक एक दूसरे के शरीर की गर्मी महसूस करते रहे, फिर जैसे सुभागी को होश आया हो, वह हल्का सा विरोध करते हुए उससे हट गयी, परन्तु इतनी दूर नहीं कि वह उसे दुबारा न पकड़ सके. घबराती हुई बोली- ‘‘हाय राम! ये क्या हुआ? मैं अपनी सुध-बुध कैसे खो बैठी? लोग क्या कहेंगे?’’

‘‘लोग वहीं कहेंगे, जो कह चुके हैं. अब उनके पास कहने के लिए नया क्या होगा. तुम खुद सोचो, जब कुछ नहीं किया था, तब भी बदनाम हो रहे थे. अब कुछ कर भी लेंगे, तो क्या हमारे दामन से बदनामी का दाग मिट जाएगा.’’ सुभागी के पास कोई जवाब नहीं था. उसका मन उसके अपने वश में नहीं था. वह तो कभी का सन्तू का हो चुका था. फिर भी एक शंका उसके मन में थी. बोली- ‘‘जीजा, तुमने तो मुझे फंसा लिया, परन्तु चोरी-छिपे मैं कब तक तुम्हारी बनकर रह सकूंगी. जब कभी तुम अपने गांव जाओगे, तो मैं अकेली सब गांव वालों के ताने और गालियां कैसे झेल पाऊंगी? लोग मुझे जीने नहीं देंगे.’’

‘‘तुम चिन्ता मत करो. मैं समाज के सामने तुम्हें अपना बना लूंगा. कुछ दिन ऐसे ही चलने दो. तुम्हारे पति की मौत हुए दो महीने ही हुए हैं. इतनी जल्दी तुम मेरे नाम की चूड़ियां पहन लोगी, तो लोग कहेंगे कि हम दोनों का पहले से ही कोई चक्कर था और हमने जान-बूझकर रतनलाल को अपने रास्ते से हटा दिया है.’’ उसने सुभागी को समझाते हुए कहा‘‘कब तक इन्तजार करना पड़ेगा?’’

‘‘बस...लगभग एक साल...फिर हम दोनों दुनिया के सामने एक दूसरे के हो जाएंगे. मैं तुम्हारी मांग में अपने नाम का सिन्दूर भर दूंगा और तुम मेरे नाम की चूड़ियां पहन लेना.’’

‘‘और दीदी...?’’

‘‘उसके बारे में बाद में सोचेंगे. अभी तो तुम्हारे बदन से जड़ी-बूटी का असर दूर करना है, जिससे मैंने तुम्हें मोहित कर दिया है. तुम तैयार हो न!’’ ‘‘कैसे दूर करोगे?’’ वह उससे चिपककर बोली. सन्तू ने एक बार फिर से उसे अपने आगोश में भर लिया और उसके मुंह को चूमता हुआ बोला, ‘‘मेरे पास एक दूसरी जड़ी है, जिससे पहले वाली बूटी का असर दूर हो जाता है.’’ वह रात सन्तू के जीवन की सबसे मधुर रात थी. सुभागी उसकी पत्नी नहीं थी, परन्तु उस रात एक ब्याहता पत्नी की तरह उसने स्वयं को सन्तू के चरणों में समर्पित कर दिया था. सन्तू अधेड़ावस्था को पार कर रहा था, सुभागी जवानी के पहले पायदान पर थी. उसके सौन्दर्य का पान और शरीर का उपभोग सन्तू के लिए नैसर्गिक था. वह विभोर हो उठा था और उसने सुभागी से उस रात वायदा किया था कि वह उसका हाथ कभी नहीं छोड़ेगा. जीवन के हर कदम पर वह उसका साथ देगा और उसे मुसीबतों से बचाएगा. और आज लगभग एक साल बाद सन्तू सुभागी को अपने नाम की चूड़ियां पहनाकर, उसकी मांग में सिंदूर भरकर, उसे एक विवाहिता सुहागिन की तरह अपने घर ले आया था. उसने अपनी पत्नी और बच्चों को भनक तक नहीं लगने दी थी, परन्तु वह अपने परिवार को तोड़ना भी नहीं चाहता था; वरना सुभागी की सम्पति को बेचकर वह दोनों कहीं भी जाकर आराम की जिन्दगी बसर कर सकते थे. सुभागी को अपने घर लाते समय उसे विश्वास था कि वह पुनीता को मना लेगा और वह परिस्थितियों से समझौता करके अपने छोटे भाई की विधवा को सौत के रूप में स्वीकार कर लेगी. मधुर यादों में खोए रहना मनुष्य को अच्छा लगता है, परन्तु मधुर यादों के क्षण बहुत अल्प होते हैं.

स्मृतियों में कोई न कोई व्यवधान उत्पन्न हो जाता है. सन्तू जब सुभागी की मधुर यादों में खोया हुआ था, तभी गली के कुत्तों को उसका जागते हुए मीठे सपने देखना अच्छा न लगा. पता नहीं किस बात पर वह सब आपस में लड़ पड़े और सन्तू की मधुर यादों की कड़ी टूट गयी. वह चौंकते हुए चारपाई पर उठ बैठा और ‘‘दुर-दुर’’ की तेज आवाज से उन्हें भगाने लगा. परन्तु कुत्ते भी उसे अच्छी तरह पहचानते थे. बिगड़ैल बेटों की तरह उन्होंने सन्तू के दुरदुराने को अनदेखा कर दिया और अपने भौंकने के अनवरत अभियान पर जोर-शोर से जुटे रहे. सन्तू भी कुत्तों को उनके हालात पर छोड़कर चारपाई से उठकर घर के अन्दर की तरफ बढ़ा. घर के अन्दर मरघट सा सन्नाटा था. वह सहमे कदमों से दहलीज लांघकर आंगन में आया. आंगन के बीच में खड़े होकर चारों तरफ का जायजा लिया. पश्चिम वाली कोठरी के बाहर आले पर रखे दिए से घर में धुंधली सी रोशनी हो रही थी. उसने देखा, सुभागी उत्तर तरफ वाली दीवार पर रखे छप्पर के नीचे सिमटकर बैठी थी. उसे देखकर थोड़ा कसमसाई, फिर शान्त हो गयी. पुनीता और बेटे दिखाई नहीं दे रहे थे. दुविधा में खड़ा सोचता रहा कि पहले पुनीता के पास जाए या सुभागी के पास. फिर उसने तय किया कि पहले पुनीता के पास जाकर उसके तेवर का पता लगाना चाहिए. सुभागी से बाद में बात करेगा. अभी तो हालात को समझना ज्यादा जरूरी था. वह जानता था, पुनीता कहां होगी? वह दबे कदमों से कोठरी की तरफ बढ़ामन में संकोच था, डर भी...पता नहीं पुनीता कैसा व्यवहार करे उसके साथ? उसका पलड़ा कमजोर था. उसे बहुत संभलकर पुनीता को काबू में लाना होगा. आज हालात दूसरे थे और वह जोर-जबरदस्ती, मारपीट या अधिकार से पुनीता को चुप नहीं करा सकता था. दीपक की रोशनी की प्रतिछाया से कोठरी में नीम उजाला फैला हुआ था. पुनीता शान्त, लेकिन मन के अन्दर भयानक तूफान लिए लेटी थी. गनीमत थी कि उसने घर के बाहर कोई हंगामा नहीं किया था, शायद इसका एक कारण ये रहा हो कि वह जिसे घर में लाया था, वह उसके सगे छोटे भाई की पत्नी थी.

पुनीता के सामने ही उसके भाई का विवाह हुआ था और उसके सामने ही सुभागी उसकी छोटी भावज बनकर उसके भाई के घर आई थी. अभी कुल तीन-चार साल ही हुए होंगे. बड़े हुलास के साथ पुनीता ने अपनी छोटी भावज का अपने मायके में स्वागत किया था. अपने भाई को उसने अपनी गोदी में खिलाया था और अपनी आंखों से उसे बड़ा होते हुए देखा था. आज वह इस दुनिया में नहीं था, परन्तु उसकी प्यारी भाभी तो थी. वहीं आज उसकी सौत बनकर उसके घर में आ गई थी. पुनीता को क्या कम दुःख होगा? उसके दुःख को कम करने का उपाय तो सन्तू को ही ढूंढ़ना होगा. चारपाई के करीब जाकर सन्तू ने बिना किसी भूमिका के कहा, ‘‘खाना नहीं बनेगा क्या?’’ कोई और मौका होता तो शायद उसकी आवाज में अधिकार के साथ-साथ धमकाने वाला अन्दाज भी होता, परन्तु आज गिड़गिड़ाने वाला भाव था. पुनीता भरी हुई बैठी थी. तमक कर उठ बैठी और गरजती हुई बोली, ‘‘अभी भूख बाकी है क्या? जाओ, उसी रसगुल्ले को खाओ. मेरे पास क्या है, दो बच्चों की मां...धूप में तपी हुई काली-खूसट औरत. अब सोन परी लाए हो, तो मेरे पास क्या करने आए हो? जाओ उसी से खाना बनवा लो और ठूंस-ठूंसकर खाओ. मुझे तो मारकर तुम गंगा में डाल आते, दोनों लड़कों को बेच देते, फिर मूंछों में ताव देकर उसे ब्याहकर घर लाते. न मैं देखती, न भौंकती. तुम दोनों तो सुखी रहते...हमें क्यों कांटा बनाकर सेज पर बिछा लिया, चुभेंगे नहीं...?’’ पुनीता की कंटीली बातों से भी सन्तू को तकलीफ नहीं हुई. होती भी तो जाहिर नहीं कर सकता था. अभी तो पुनीता की जली-कटी बातों को एक कान से सुनकर दूसरे कान से निकाल देना था. एक चुप, हजार चुप...इसी में भलाई थी.

‘‘अब जो हुआ, अच्छा या बुरा...उसे हमें ही भोगना है. खाना बनाओ, सभी भूखे हैं और धरम तथा हीरा कहां गये?’’

‘‘वह भी तुम्हारी तरह किसी को फंसाने में लगे होंगे. आखिर जवान हो रहे हैं, तुम्हारे लच्छन तो सीखेंगे ही.’’ फिर चारपाई पर लेटती हुई बोली, ‘‘जिसको भूख लगी हो, बना ले. मैं किसी की नौकरानी नहीं हूं. जाओ, अब मेरा जी न जलाओ. कल पंचायत के सामने जब तुम्हारी करतूत खुलेगी, तो बताऊंगी कैसे उसको घर में रखते हो. अन्धेर है क्या?’’ सन्तू को आभास हो गया, ज्यादा बात बढ़ाने से कहीं मामला बिगड़ न जाए. रात भी काफी हो गयी थी. वह नहीं चाहता था कि घर में कोई हंगामा हो और गांव वाले तमाशा देखें. कल दिन में कुछ न कुछ होगा ही...न पुनीता चुप बैठेगी, न जाति-बिरादरी वाले. पंचायत तो बैठेगी ही. वह बाहर आकर एक पल के लिए सुभागी के पास रुका और खड़े-खड़े ही बोला- ‘‘आज तो उपवास करना पड़ेगा. तुम्हें कुछ पता भी नहीं कि घर में कहां क्या रखा है? अन्धेरे में कहां-कहां ढूंढ़ोगी, इसलिए पानी पीकर सो जाओ. कल सुबह खाने की व्यवस्था करूंगा.’’ फिर उसने एक चारपाई लाकर वहीं छप्पर के नीचे डाल दी, ‘‘इस पर सो जाओ.’’

‘‘दीदी क्या बोल रही हैं?’’ सुभागी ने शंकित होकर धीमे स्वर में पूछा.

‘‘अभी तो कुछ नहीं, पर गुस्सा बहुत है. गनीमत मानो कि बस गुस्सा ही है. कहीं घर को सिर पर उठा लेती, तो गजब हो जाता.’’

‘‘मान तो जाएंगी?’’

‘‘मानेगी क्यों नहीं? आज नहीं कल मानेगी, आखिर यह घर छोड़कर जाएगी कहां? उसको और कहां सहारा मिलेगा? बूढ़े शरीर को तो कोई बूढ़ा मरद भी नहीं पूछेगा.’’ सन्तू ने जीवन की सच्चाई से सुभागी को अवगत कराया. गरीब ब्याहता और जीवन के असहनीय दुःखों की मारी हुई औरत का पति के सिवा और कौन होता है? दुःख में ही उसे सुख की तलाश करनी पड़ती है. जीवन भर वह एक भुलावे में जीती रहती है कि पति के घर में वह सुख की जिन्दगी जी रही है. इसी भुलावे में वह पति की सारी ज्यादतियों को नजर अन्दाज करती रहती है. सन्तू के घर में उस दिन पांच कोण बन गए थे. सन्तू, पुनीता और सुभागी का एक अनोखा त्रिकोण था. उसके बेटों के दो कोण अलग थे, जो दिखाई तो नहीं पड़ रहे थे, परन्तु घटनाओं से वे भी अप्रभावित नहीं थे.

घर के पांचों व्यक्ति अपने-अपने कोण में कुछ अनसुलझे सवालों से घिरे बैठे थे. मन में अनगिनत गुत्थियां थी, जो गांठों की तरह उनके दिलों में गड़ रही थीं, परन्तु न तो वह गुत्थियों को सुलझा पाने में समर्थ थे, न उन गांठों को खोल पाने में...नींद किसी की आंखों में नहीं थी. तरह-तरह के ख्यालों से उनकी आंखों की नींद उड़ी हुई थी. काफी रात गए, जब सन्नाटा इतना गहरा हो गया था कि सांसों की आवाज भी दूर तक सुनाई पड़ने लगी थी, सुभागी अपनी खटिया से उठी और एक पल अपने आस-पास का जायजा लेकर बिना आवाज किए हौले-हौले पुनीता की कोठरी की तरफ बढ़ी. बाहर रखा चिराग अब तक बुझ चुका था, शायद उसका तेल खत्म हो गया था, क्योंकि उसे किसी ने बुझाया नहीं था. काली अंधियारी रात थी. आसमान में फूलों की तरह खिलखिलाते तारे भी उस अन्धेरे को रत्ती मात्र भी कम करने में समर्थ नहीं थे. पुनीता के हृदय में भी ऐसा ही अन्धकार छाया हुआ था और सुभागी के हृदय से आशा का दीपक घर के दिए की तरह बुझ चुका था. सुभागी अपनी बड़ी ननद के हृदय की हालत को महसूस नहीं कर सकती थी, परन्तु समझ सकती थी. शाम से अब तक आने वाले भविष्य के बारे में वह बहुत कुछ विचार कर चुकी थी. कल होने वाला बवण्डर तूफान न बन जाए, इसके लिए उसे शान्त मन से कुछ न कुछ करना होगा. यही सोचकर वह पुनीता के पास जा रही थी.

दुविधा, संशय और भय की मनोदशा में सुभागी कई पल तक पुनीता के सिरहाने खड़ी रही. उसकी तेज सांसों की आवाज सांप की भयानक फुंफकार की तरह सुभागी के कानों में भय का विस्तार कर रही थी. पुनीता सोई नहीं थी और शायद उसे सुभागी के सिरहाने खड़े होने का एहसास भी हो गया था, इसीलिए उसके हृदय की धड़कन बढ़ गयी थी और वह नागिन की तरफ फुंफकार रही थी. साहस बटोरकर सुभागी ने कहा, ‘‘दीदी...’’ पुनीता शायद इसी पल का इन्तजार कर रही थी, सांप की तरह उछल कर चारपाई पर बैठ गयी और कर्कश आवाज में चिल्लायी, ‘‘मेरे पास क्या लेने आई है रांड. सब कुछ तो ले लिया, मेरे घर में आग लगा दी. अब और क्या चाहिए?’’ वह उछलकर खड़ी हो गयी.

‘‘दीदी, मुझे माफ कर दो.’’ वह हाथ जोड़ कर बोली.

‘‘माफ कर दूं, किसलिए...? मेरा दिल जल रहा है. मन करता है, आग लगाकर तुझे फूंक दूं. तू मेरी भावज है कि दुश्मन जो सौत बनकर मेरे सीने पर सांप की तरह लोटने आई है...बता! क्या इसी दिन के लिए अपने भाई की बीवी बनाकर तुझे लाई थी कि मेरे भाई को मारकर तू मुझे ही डस ले. तेरी जवानी को आग लगे. गांव जवार के सारे मर्द मर गए थे क्या, जो मेरे मरद के पीछे पड़ गई. मन करता है तुझे कच्चा चबा जाऊं.’’ और उसने सचमुच सुभागी का सिर पकड़कर अपनी तरफ झटके से खींच लिया. सुभागी असावधान थी, अतः वह आगे की तरफ लगभग गिर ही पड़ी. पुनीता ने उसका झोंटा पकड़कर कई झटके दिए. सुभागी पस्त होकर चारपाई की पाटी पर गिर पड़ी. हताश अवस्था में पुनीता ने उसकी पीठ पर कई दोहत्थड़ जड़ दिए, ‘‘मर जा कुलच्छनी, मेरे भाई का नाम डुबो दिया, अब मेरे

घर को मिट्टी में मिलाने आई है.’’ मार खाती हुई सुभागी ने अपना कोई बचाव नहीं किया, बस गिड़गिड़ाती हुई यही कहती रही, ‘‘दीदी, तुम चाहे मुझे मार डालो, परन्तु पहले मेरी बात सुन लो. अगर तुम्हें लगे कि मैंने गलत किया है, तो कल पंचायत के सामने मेरा गला रेत देना, मैं उफ् न करूंगी.’’ पुनीता के हाथ रुक गये. क्या कहना चाहती है सुभागी? क्या बताना बाकी रह गया? उसने सुभागी के बाल पकड़ कर उसका सिर ऊपर उठाया. पाटी पर गिरने से शायद उसके माथे पर चोट लग गई थी. दमकते सुन्दर माथे पर काला सा निशान पड़ गया था और हल्का गुम्मड़ उमड़ आया था, परन्तु सुभागी को अपनी मार और चोट की कोई चिन्ता नहीं थी. उसके मन में तो कोई और बात चल रही थी और वह समझ रही थी कि उसकी बात सुनकर पुनीता उसके मजबूर हालात को अच्छी तरह समझ सकेगी और उसे माफ कर देगी.

पुनीता ने कुछ नहीं पूछा, परन्तु सुभागी ने स्वयं ही उसे बताना शुरू किया कि गांव वाले किस प्रकार उसे लुभाने और अपने जाल में फंसाने के लिए कुचक्र रच रहे थे. पट्टीदार किस प्रकार उसकी सम्पत्ति को हड़प करने के लिए उसके साथ अत्याचार और बुरा व्यवहार कर रहे थे. गांववाले चाहते थे कि तंग आकर वह गांव

छोड़कर चली जाए. अगर सन्तू नहीं होता तो उसकी लाश का भी पता न चलता. अन्त में उसने कहा, ‘‘दीदी, अब तुम्हीं बताओ, इस हालत में मैं क्या करती? क्या गांव के लोगों की हवश का शिकार बनती और पट्टीदारों के हाथों अपनी जान गंवाती.’’ सुभागी की बातों का थोड़ा बहुत असर पुनीता पर हुआ था. उसके प्रति दया का भाव भी उमड़ा, आखिर उसकी सगी भौजी थी, फिर भी मन की शंका दूर करने के लिए पूछा, ‘‘तू किसी जवान कुंवारे मर्द से शादी करके घर बसा लेती. मेरे मरद पर ही क्यों नजर डाली?’’

‘‘दीदी, किसी अनजान मरद से शादी करती तो इस बात की क्या गारण्टी थी कि वह जीवन भर मेरा साथ निभाता. मेरी जमीन-जायदाद के लालच में तो कोई भी मुझसे शादी कर लेता, परन्तु वह बाद में मेरी जमीन बेचकर और मुझे बीच मंझधार में छोड़कर कहीं चला जाता तो मैं क्या करती? फिर गरीब और लुटी-पिटी औरत को कौन सहारा देता? जीजा पर मुझे भरोसा था. जिस मेहनत और लगन से बिना लालच के घर का काम करते थे, उससे उन्होंने मेरे दिल में अपने लिए जगह बना ली. मैं अच्छी तरह समझ गयी थी कि जीजा की बांहों में मैं पूरी तरह सुरक्षित रहूंगी और मेरी सम्पत्ति भी. हमारे पास इतनी जमीन है कि अब हमार दोनों बेटों को मेहनत-मजदूरी के लिए कहीं भटकना नहीं पड़ेगा. पूरे साल का राशन बचाने के बाद भी इतना अन्न बेच लेंगे कि उनके पास पैसों की कमी कभी नहीं रहेगी.’’ सुभागी ने ‘हमारे बेटों’ पर जोर देकर कहा. सुभागी की बात सुनकर पुनीता का हृदय बल्लियों उछल पड़ा. इस पहलू पर तो उसने गौर ही नहीं किया था. अब खुले दिमाग से सोचा तो समझ में आ गया कि सुभागी केवल उसकी सौत ही बनकर नहीं आई थी, बल्कि लाखों रुपये की उपजाऊ जमीन भी लाई थी. उसके लड़कों के जीवन में अब कभी अभाव नहीं रहेगा.

खेतों में मेहनत करेंगे, तो जीवन भर सुख की रोटी खाएंगे. उसने सुभागी को मीठी नजरों से देखा. अपनी भावज के प्रति उसके दिल में ढेर सारा प्यार उमड़ आया, परन्तु उसको जाहिर नहीं किया, बस नरम स्वर में बात बदलते हुए पूछा-

‘‘सच बता, किसकी गलती से यह सब हुआ था?’’ उसके स्वर में प्यार और मजाक दोनों थे.

‘‘दीदी, अब मैं क्या बताऊं...मन ही तो है. उनको मैं क्या दोष दूं, मेरा मन ही उनके ऊपर आ गया था. वह तो मेरी तरफ नजर उठा कर भी नहीं देखते थे. फिर भी मुझे लगता है, उन्होंने मेरे ऊपर कोई वशीकरण मन्त्र कर दिया था या फिर चुपके से, अनजाने में कोई जड़ी-बूटी सुंघाई थी, तभी तो बिना सोचे-समझे मैं उनके वश में हो गयी.’’

‘‘हट पगली!’’ पुनीता ने उसके हाथों को पकड़कर कहा, ‘‘मर्दों के पास न तो कोई मंत्र होता न जड़ी-बूटी. मेहनत के पसीने से नहाया हुआ उनका दमकता-चमकता शरीर ही औरत के लिए सबसे बड़ा वशीकरण मंत्र होता है और उनके पसीने की महक ही जड़ी-बूटी. मर्द इसी से औरत को अपने वश में करते हैं.’’

‘‘सच्ची दीदी!’’

‘‘हां और क्या?’’ उनमें अब बहनापा-सा हो गया था. पुनीता के मन का सारा मैल धुल चुका था. सुभागी अब उसे न तो अपनी सौत लग रही थी, न पराई औरत..वह उसकी अपनी थी, सगी भावज से भी बढ़कर...उसने सच्चे मन से सुभागी को स्वीकार कर लिया था. उसको अपने सीने से चिपकाकर आगे कहा, ‘‘तू अब मन से सारा भय निकाल दे. मेरा भाई चला गया तो क्या हुआ, मेरी अच्छी भावज तो मेरे साथ है. हम दोनों मिलकर इस घर को स्वर्ग बना देंगे.’’ ‘‘हां, दीदी!’’ सुभागी बस इतना ही कह सकी. दूसरी सुबह सन्तू उठा तो नींद न आने से उसका सिर भारी-भारी हो रहा था. मन में शंका के बादल छाये हुए थे कि रात में घर के अन्दर न जाने क्या हुआ हो. कोई अनहोनी न हो गयी हो. यही जानने के लिए वह भारी मन और थके-बोझिल कदमों से घर के अन्दर घुसा और आंगन में जाकर खड़ा हो गया. सामने का दृश्य देखकर उसकी आंखें विस्फारित-सी हो गई, भय से नहीं,

आश्चर्य से. ऐसे दृश्य की तो उसने कल्पना भी नहीं की थी. सामने चौके में पुनीता और सुभागी ऐसे हंस-हंसकर आत्मीयता से बातें कर रही थीं, जैसे सालों पहले बिछड़ी दो सगी बहनें अचानक मिल गई हों. उन दोनों के चेहरों पर असीमित खुशी झलक रही थी. चूल्हा जल रहा था और बातों के साथ-साथ वे दोनों मिलकर खाने की तैयारी कर रही थीं. भूख से सभी के पेट जल रहे थे.

चूल्हे के साथ-साथ अब उन दो औरतों के दिलों में प्रेम की आग भी जल उठी थी. उनका आपस में प्रेम देखकर सन्तू की भी भूख जाग उठी. दूसरी आग के नीचे अभी तक उसकी भूख की आग दबी हुई थी, परन्तु अब जब दोनों औरतों के दिलों में प्रेम की आग तेज हुई, तो उसके मन से भय के साथ-साथ सारे संशय भी दूर हो गये. उसके दिल में उल्लास भर उठा. वह आगे बढ़कर बोला- ‘‘अरे भई, ये तो कमाल हो गया. एक साथ इस तरह बैठकर हंसी-खुशी से काम करते हुए तुम दोनों सगी बहनें लग रही हो. तुम्हारा आपस में प्यार देखकर तो मुझे ईर्ष्या हो रही है. अच्छा, अब जल्दी खाना बनाओ, मेरी भूख तेज हो गई है.’’

‘‘हां, हां, भूख क्यों न तेज होगी. सामने रसगुल्ला जो रखा है...आओ, खा लो न!’’ पुनीता ने सुभागी की तरफ इशारा करते हुए उसके साथ चुहल की. उसकी आंखों में शरारत झलक रही थी. सुभागी ने झट से शरमाकर मुंह दूसरी तरफ घुमा लिया.

‘‘रसगुल्ले के साथ-साथ मालपुआ भी खाने का मन कर रहा है, खिलाओगी न!’’ सन्तू भी पीछे हटने वाला नहीं था.

‘‘नहीं, मालपुआ अब बासी हो गया है. रसगुल्ला ताजा है, उसे ही खा लो, लेकिन एक बात का ख्याल रखना, इसके बाद किसी और को जड़ी-बूटी सुंघायी तो खैर नहीं. अब हम दो हैं, घर से निकाल बाहर कर देंगी. न घर के रहोगे न घाट के.. रसगुल्ला तो क्या बासी मालपुआ भी खाने को नहीं मिलेगा, समझे?’’ पुनीता ने मजाक में चेतावनी देते हुए कहा. सन्तू बस मुस्कराकर रह गया.

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(क्रमशः अगले अंक में जारी…)

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रचनाकार: प्रश्न अभी शेष है - 4 / कहानी संग्रह / जड़ी - बूटी / राकेश भ्रमर
प्रश्न अभी शेष है - 4 / कहानी संग्रह / जड़ी - बूटी / राकेश भ्रमर
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