प्रश्न अभी शेष है - 5 / कहानी संग्रह / ठूंठ में कोंपल / राकेश भ्रमर

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(पिछले अंक से जारी…) कहानी 5 ठूंठ में कोंपल रीना मलिक को पच्‍चीस वर्ष की वय तक किसी से प्‍यार नहीं हुआ था और इस बात का उसे बहुत अभिमा...

(पिछले अंक से जारी…)

कहानी 5

ठूंठ में कोंपल

रीना मलिक को पच्‍चीस वर्ष की वय तक किसी से प्‍यार नहीं हुआ था और इस बात का उसे बहुत अभिमान था. उसका मानना था कि शादी के पहले का प्‍यार-प्‍यार नहीं होता, बल्‍कि वासना होती है, महज शारीरिक आकर्षण होता है. युवक और युवती एक अनैतिक और अमर्यादित संबन्‍ध को प्‍यार का नाम देकर केवल अपनी शारीरिक भूख शान्‍त करते हैं...बस!

बड़ी अजीब बात थी कि एक सुन्‍दर और जवान लड़की का परिपक्‍व उमर तक किसी लड़के को देखकर दिल नहीं धड़का था, किसी की तरफ उसने लालसा भरी नजरों से नहीं देखा था. क्‍या उसमें कोई शारीरिक या ऐन्‍द्रिक कमी थी, या उसके संस्‍कार और पारिवारिक मूल्‍य इतने तगड़े थे कि उसने जान-बूझकर अपनी आंखों में गाढ़ा-मोटा पर्दा डाल लिया था; ताकि उसे कुछ दिखाई न पड़े और अपने दिल को उसने भारी भरकम बोझ के नीचे दबा रखा था. अपने नाजुक दिल को उसने मर्यादा के मजबूत तारों से जकड़ रखा था कि वह किसी लड़के के प्रति धड़क न उठे किसी को प्‍यार करना या न करना, यह रीना का व्‍यक्‍तिगत मामला था और इसमें कोई उसकी मदद नहीं कर सकता था, परन्‍तु उसकी इस हठधर्मी का परिणाम बहुत गलत तरीके से उसके ही ऊपर पड़ रहा था. वह सबसे अलग-थलग पड़ती जा रही थी. सहेलियां अपने-अपने प्रेमियों के साथ जीवन के मजे लूट रही थीं या जब आपस में मिलतीं तो एक दूसरे के प्रेम के किस्‍से चटखारे लेकर सुनती-सुनाती कालेज के लड़के-लड़कियां अपनी मस्‍तियों में डूबे हुए रहते थे. ऐसे में खूबसूरत बगीचे में रीना एक ठूंठ के समान खड़ी हुई लगती थी. वह किसी की बातों में शामिल नहीं होती थी और न इस तरह की बातों में कोई उसे शामिल करता था.

वह जब कालेज की लड़कियों के आसपास होती तो वे ऐसे जाहिर करतीं जैसे वह कोई अनजान और बाहरी लड़की हो जो भूलवश उनके बीच में आकर खड़ी हो गयी थी. वह खूबसूरत थी, बहुत खूबसूरत...परन्‍तु उसकी खूबसूरती में उदासी का ग्रहण लगा हुआ था. उसका चेहरा हरदम सूखी हुई लौकी की तरह लटका ही रहता था. अनजाने भी उसके चेहरे पर मुस्‍कराहट की परछाईं नजर नहीं आती थी. अपनी सहेलियों के बीच वह मर्दाना औरत के नाम से जानी जाती थी. सब उसका मजाक उड़ाते, पर रीना देखा-अनदेखा कर देती और सुनी-अनसुनी. कुछ नजदीकी सहेलियां जब अपने प्‍यार के किस्‍से चटखारे लेकर सुनातीं तो वह कान पर हाथ धर कर बंद कर देती, मुंह दूसरी तरफ घुमा लेती या उठकर चल देती. सहेलियां उसकी इन हरकतों पर खिलखिला कर हंस पड़तीं और कहती, ‘‘ठूंठ कहीं की, पता नहीं भगवान ने इसे लड़की कैसे बना दिया. लगता है, लड़की के शरीर में लड़के की जान डाल दी है, परन्‍तु यह तो किसी लड़की की तरफ भी आकर्षित नहीं होती. इसके लिए लड़के लड़कियां सब एक समान हैं. पता नहीं किसको प्‍यार करेगी, करेगी भी या नहीं. लगता है, ताउम्र कुंआरी ही रह जाएगी. कौन इस फटे मुंह के साथ अपना रिश्‍ता जोड़ेगा?'' रीना ने अपने इर्द-गिर्द जो न टूटने वाला घेरा डाल रखा था, उसे पार करने की जुर्रत कोई लड़का भी नहीं करता था. जब उस पर नई-नई जवानी चढ़ रही थी, कई भंवरों ने उसके ऊपर मंड़राकर गुनगुनाने का प्रयास किया था, परन्‍तु रीना एक ऐसा फूल थी, जिसमें खुशबू नाम का तत्‍व नहीं डाला गया था...उसमें पराग नहीं था. वह ऐसी गीली लकड़ी की तरह थी, जिस पर न तो आग लग सकती थी और न उस पर पानी कुछ असर करता था. वह न भीगती थी, न जलती...जलना तो दूर सुलगती भी नहीं थी. उसकी सबसे प्रिय सहेली नेहा ने एक दिन कहा, ‘‘क्‍यों अपने जीवन को बंजर बना रही हो. जीवन में प्‍यार के फूल न खिलें, और खुशियों के रंग न बिखरें; तो ऐसे ठूंठ जीवन को जीने का क्‍या फायदा?'' नेहा एक अच्‍छे स्‍वभाव की लड़की थी. वह सदैव रीना के भले के बारे में सोचती थी. उसका मत था कि रीना अपनी उदासी को दूर करने के लिए या तो शादी कर ले या किसी से प्‍यार...जो आज के जमाने में एक जरूरियात बन गई थी.

‘‘प्‍यार करूंगी, परन्‍तु अपने पति से...किसी और से नहीं.'' रीना ने अपनी लटों को झटकते हुए कहा.

‘‘प्‍यार का अर्थ ये तो नहीं होता कि तुम अपना शरीर ही उस लड़के को समर्पित कर दो.'' नेहा जैसे समझाने का प्रयास कर रही थी.

‘‘इसके अलावा लड़के और कुछ नहीं चाहते एक लड़की से.'' रीना ने दृढ़ता से कहा.

‘‘चाहते होंगे, परन्‍तु यह तो हमारे ऊपर निर्भर करता है कि किस सीमा तक हम उनको अपने नजदीक आने देते हैं.''

‘‘मैं नहीं समझती कि सीमा-रेखा बनाकर कोई किसी से प्‍यार करता है. जब लड़का-लड़की एकान्‍त में मिलते हैं तो सारी सीमाएं टूट जाती हैं.'' रीना इतने आत्‍मविश्‍वास से यह बात कह रही थी जैसे उसने अपने जीवन में इसे अच्‍छी तरह से भोग लिया था.

‘‘लेकिन मैं समझती हूं कि तुम नियम-कानून बनाकर प्‍यार कर सकती हो, क्‍योंकि तुम्‍हारा स्‍वभाव अलग है. तुम अपने चारों तरफ एक रेखा खींच सकती हो. कोई भी लड़का उसे पार करने की हिम्‍मत नहीं करेगा. लड़की के विचार शुद्ध और निर्मल हों, मन में दृढ़ आत्‍मविश्‍वास हो तो कोई भी लड़का तुमसे किसी प्रकार की ज्‍यादती नहीं कर सकता.''

‘‘मुझे आवश्‍यकता ही क्‍या है कि मैं किसी से प्‍यार करूं?'' वह थोड़ा झुंझलाकर बाले ी.

‘‘आवश्‍यकता तो नहीं है, परन्‍तु तुम किसी को अपने मन में बसाकर देखो, तब पता चलेगा कि प्‍यार विहीन जीवन से प्‍यारसिक्‍त जीवन कितना अलग होता है. ठूंठ पर तो भटका हुआ पक्षी भी नहीं बैठता. कहीं ऐसा न हो कि तुम उजाड़ रेगिस्‍तान का एक सूखा हुआ ठूंठ बनकर रह जाओ और उस पर कभी कोई कोंपल तक न उगे. अपने जीवन को नीरस मत बनाओ. अपने आचरण से तुम हम सबसे भी दूर होती जा रही हो. कोई भी लड़की तुम्‍हें अपने साथ नहीं रखना चाहती. तुम बिलकुल अलग-थलग पड़ती जा रही हो. एक दिन मैं भी तुम्‍हें अकेला छोड़ दूंगी, तो बताओ तुम कालेज में किसके साथ हंसोगी, बोलोगी और किसके साथ उठोगी-बैठोगी. लड़के तो पहले से ही तुमसे इतना दूर हो चुके हैं कि अब कोई तुम्‍हारी तरफ देखना भी पसंद नहीं करता. ऐसी सुन्‍दरता किस काम की, जिसका कोई प्रशंसक न हो, कोई गुण-ग्राहक न हो.'' नेहा ने जैसे उसे फटकार लगाते हुए कहा.

रीना के मस्‍तिष्‍क को एक तगड़ा झटका लगा. क्‍या प्‍यार जीवन के लिए इतना जरूरी है? क्‍या यही एक ऐसा धागा है, जो मानव को मानव से जोड़ता है, उन्‍हें खुश रखता है. उसके विचारों में एक बवण्‍डर सा उठा और वह उसके वेग से एक तरफ कटी पतंग की तरह उड़ चली.

ऐसी बात नहीं थी कि नेहा ने उसे पहले कभी नहीं समझाया था. उन दोनों के बीच में इस तरह की बातें हमेशा होती रहती थीं, परन्‍तु रीना एक कान से सुनती और दूसरे से निकाल देती. प्‍यार की बातों को उसने कभी गंभीरता से नहीं लिया। परन्‍तु धीरे-धीरे वह स्‍वयं महसूस करने लगी थी कि जैसे वह भीड़ के बीच भी अकेली थी. सभी उसके परिचित थे, परन्‍तु न तो कोई उसकी तरफ देख रहा था, न कोई उसकी बात सुन रहा था. वह उपेक्षित सी एक किनारे खड़ी थी और लोग हंसते-खिलखिलाते उसके पास से गुजरते हुए चले जा रहे थेवह सोचने पर मजबूर हो गयी थी कि क्‍या इस दुनिया में उसका कोई अस्‍तित्‍व भी है? अगर है, तो फिर लोग उसकी तरफ आकर्षित क्‍यों नहीं होते? क्‍यों उसे अलग-थलग करने पर आमादा थे? इस बात का उत्तर तो उसी के पास था और वह इससे भलीभांति परिचित थी. उस रात रीना बहुत बेचैन रही. उसकी आंखों की नींद उड़ चुकी थी, शरीर कसमसा रहा था. विचार उसके मस्‍तिष्‍क को शान्‍त नहीं रहने दे रहे थे और शरीर का कसाव उसके सारे अंगों को तोड़-मरोड़ रहा था. उसके दिमाग में विचार गड्‌ड-मडड्‌ हो रहे थे और वह स्‍थिर होकर किसी भी एक बात पर विचार नहीं कर पा रही थी. अगली सुबह रीना ने जब आईने में अपनी सूरत देखी, तो उसे लगा कि उदासी की एक और पर्त उसके मुख पर चढ़ गयी थी. पर्त-दर-पर्त उसका चेहरा उदासी के जंगल में गुम होता जा रहा था और जंगल धीरे-धीरे घना होता जा रहा था. यह सचमुच चिन्‍ताजनक बात थी. पच्‍चीस की उम्र में लड़कियों के चेहरे पर वसन्‍त के फूल खिलते हैं, न कि पतझड़ के सूखे पत्ते वहां उड़ते हैं. यह क्‍या होता जा रहा है उसे? नेहा ने उसे एक दिन फिर टोंका था, ‘‘क्‍या तुम्‍हें नहीं लगता कि तुम चिड़-चिड़ी होती जा रही हो. बात-बेबात पर तुम्‍हें गुस्‍सा आने लगा है?''

‘‘तो...मैं क्‍या कर सकती हूं?'' वह मुंह लटकाकर बोली.

‘‘बहुत कुछ... इतना शिक्षित होने के बाद भी क्‍या तुम नहीं समझती कि ऐसा तुम्‍हारे साथ क्‍यों हो रहा है? अगर तुमने अपने आपको नहीं सुधारा तो समझ लो, तुम पागलपन की ओर अपने कदम बढ़ा रही हो. जल्‍द ही तुम्‍हें हिस्‍टीरिया के दौरे पड़ने लगेंगे.''

‘‘क्‍या ऐसा होता है? मैं तो पूरी तरह स्‍वस्‍थ हूं!''

‘‘शरीर से स्‍वस्‍थ हो, परन्‍तु दिमाग से नहीं. जिन जवान औरतों की शारीरिक भूख शांत नहीं होती, वह हिस्‍टीरिया के दौरों से ग्रस्‍त हो जाती हैं. देहाती औरतें भूत-प्रेत के चक्‍कर चलाती हैं और इस तरह बाबाओं के पास जाकर इलाज के बहाने अपनी भूख मिटाती हैं. मुझे डर है कि कहीं तुम्‍हें भी इसी दौर से न गुजरना पड़े कहीं तुम सोच-सोचकर पागल न हो जाओ.'' ‘‘क्‍या तुम मुझे डरा रही हो?'' रीना सचमुच डर गई थी. नेहा ने उसे उदास नजरों से देखा, ‘‘नहीं मैं सच बयान कर रही हूं। तुम जल्‍दी से शादी कर लो. यही तुम्‍हारे लिए उचित रहेगा, प्‍यार तुम किसी से कर नहीं सकती.'' नेहा का जोर केवल कहने भर तक था. मानना न मानना रीना के ऊपर था. बचपन से लेकर जवानी तक रीना एक भ्रम में जीती रही थी. उसके पारिवारिक संस्‍कारों ने बहुत गहरे तक उसके मन में यह बात बिठा रखी थी कि प्‍यार-मोहब्‍बत, लड़के-लड़कियों का आपस में मेल-जोल और उनसे एकान्‍त में मिलना, न केवल बुरी बात होती है, बल्‍कि इससे सामाजिक प्रतिष्‍ठा और पारिवारिक मान-सम्‍मान को भी आंच आती है. इसी धारणा को अपने मन में पालते हुए रीना प्रकाश के विरुद्ध शरीर में आए बदलावों, अपनी भावनाओं और शारीरिक इच्‍छाओं से लड़ती हुई जी रही थी...शायद जी भी नहीं रही थी, तिल-तिलकर मरने के लिए मजबूर हो रही थी. उसने अपने मुख पर एक झूठा आवरण डाल रखा था और सच्‍चाई का सामना करते हुए डरती थी. सच्‍चाई तो कुछ और ही थी.

ऊपर से वह कुछ भी दिखावा करती रही हो, परन्‍तु अन्‍दर से वह एक भरपूर जवान लड़की थी. सामान्‍य लड़कियों की तरह उसके मन में भी इच्‍छाएं और कामनाएं जन्‍म लेती थीं. उसके मन में भी वासनात्‍मक विचार आते थे, किसी से प्‍यार करने का मन होता था. लड़कों को देखकर उसका दिल भी धड़कता था, परन्‍तु झूठा आवरण तोड़ने की उसकी हिम्‍मत नहीं होती थी. मन ही मन वह घुट रही थी. बी.ए. और एम.ए. करने के बाद उसने इसी कालेज से पीएचडी की थी. अब उसी कालेज में पढ़ा भी रही थी. इसी कालेज में कितने लड़के उसके दीवाने थे, कितने प्राध्‍यापक उसे अपने आगोश में समेटने के लिए आतुर थे, परन्‍तु वह सबसे बचती-बचाती रही थी. इतने दिनों तक उसने अपने आपको किस तरह धोखे में रखा था, वही जानती थी. अपने दिल के सारे अरमानों को उसने चकनाचूर कर दिया था.

शारीरिक बदलाव, मानसिक चिन्‍ताओं और सहेलियों के ताने-उलाहनों से वह अब कुछ ज्‍यादा ही विचलित होने लगी थी. मन बगावत करने के लिए कहता, परन्‍तु निरर्थक मान्‍यता और मर्यादा उसे हमेशा रोक लेती. घुटन बढ़ती जा रही थी और वह कुछ निर्णय नहीं ले पा रही थी. अन्‍ततः उसने अपनी सहेली नेहा को अपनी मनोस्‍थिति से अवगत कराया. सुनकर नेहा भेद भरे ढंग से मुस्‍कराई और उसे अपने अंक में भरकर बोली, ‘‘तो

शीशा पिघल रहा है. ठूंठ में भी अंकुर पनपने लगा है, बधाई हो!''

‘‘तुम मुझे कोई रास्‍ता बताओ.'' उसने बेचारगी के भाव से कहा.

‘‘प्‍यार तुम करोगी नहीं, शादी कर लो.'' नेहा ने सहज भाव से जवाब दिया.

‘‘मजाक मत करो, तुम्‍हें पता है, मैं अभी शादी नहीं कर सकती. घर में कोई इस बारे में बात तक नहीं करता.'' उसके स्‍वर में निराशा का पुट था.

‘‘हां, दुधारू गाय को कौन दूसरे के खूंटे से बांधना चाहेगा.'' नेहा ने दुःख-भरे स्‍वर में कहा. नेहा की बात से रीना का मन दुखित हो उठा. घर में उसका बड़ा भाई था. उसकी शादी हो चुकी थी, परन्‍तु एक नम्‍बर का निकम्‍मा और आवारा था. बाप और बहन की कमाई पर खुद का और पत्‍नी का पेट पाल रहा था. उसको लेकर घर में लगभग रोज लड़ाइयां होती थीं, परन्‍तु उसकी सेहत पर कोई असर न पड़ता था. सब उसे घर से अलग करना चाहते थे, परन्‍तु वह घर से अलग होने का नाम नहीं लेता था. मुफ्‍त की रोटियां जो तोड़ने को मिल रही थीं. उसके निकम्‍मेपन की वजह से मां-बाप रीना की शादी में भी देरी कर रहे थे; ताकि जब तक उसकी शादी न हो, कम से कम उसकी तनख्‍वाह तो घर में आती रहे.

‘‘मैं बहुत परेशान हूं.'' रीना ने जैसे सब कुछ नेहा के भरोसे छोड़ दिया था,

‘‘अब मैं अकेलापन बर्दाश्‍त नहीं कर सकती.''

‘‘तो किसी से दोस्‍ती कर लो.'' नेहा ने सुझाव दिया.

‘‘परन्‍तु किससे?'' उसने जैसे अपनी मान्‍यताओं को ठुकराकर हार मान ली हो.

‘‘जिस पर तुम्‍हारा दिल आ जाए.''

‘‘अगर वह भी मेरे शरीर का भूखा हुआ तो...?'' उसने आशंका जाहिर की.

‘‘तो तुम किसी से प्‍यार नहीं कर सकती.'' नेहा ने जोर से कहा, ‘‘बेवकूफ, पहले दोस्‍ती तो कर किसी से...उसके बाद अगर लगे कि उसके साथ प्‍यार किया जा सकता है तो आगे बढो़, वरना छोड़ दो. फिर शादी होने तक इन्‍तजार करो.'' रीना को नेहा की बात उचित लगी. किसी से दोस्‍ती करने में क्‍या हर्ज है? अपनी सीमा में रहेगी, तो क्‍या मजाल कि उसके पवित्र शरीर को कोई अपने नापाक हाथों से गन्‍दा कर सके. उसके मन का सूनापन दूर हो जाएगा. उसका मन मचल उठा. मन की आंखों से उसने सारे लड़कों को आजमा डाला. बहुत सारे युवक थे, पर यथार्थ में उससे बहुत दूर. अब उसे ही अपने प्रयत्‍नों से उनमें से किसी एक को अपने करीब लाना होगा, या उसके करीब जाना होगा. यह काम बहुत मुश्‍किल था, क्‍योंकि उसके स्‍वभाव से सभी परिचित थे. परन्‍तु उसने नामुमकिन को मुमकिन करने की ठान ली थी. नेहा की सलाह, सुझाव और प्रोत्‍साहन उसे प्‍यार की डगर पर आगे बढ़ने के लिए प्रेरित कर रहे थे. प्रशान्‍त कालेज में उससे दो साल सीनियर था. मनोविज्ञान पढ़ाता था और शान्‍त प्रकाश्‍ति का युवक था. रीना पहले भी उसके बारे में सोचा करती थी, अब तो पूरा मन ही उसके ऊपर फिदा हो गया था. उनके बीच अक्‍सर बातें नहीं हो पाती थी. प्रशान्‍त शान्‍त प्रकश्‍ति का था, तो रीना नकचढ़ी और अपने अभिमान में डूबी रहने वाली. दोनों के स्‍वभाव में चुप रहने के अलावा और कोई समानता नहीं थी. दोनों अपनी-अपनी दुनिया में खोए रहने वाले प्राणी थे, और उनके बीच में दोस्‍ती या बोल-चाल जैसी कोई बात नहीं थी, जबकि वह दोनों एक ही कालेज में पढ़ाते थे और स्‍टाफ रूम में अक्‍सर उन दोनों का आमना-सामना होता रहता था. नेहा उनके बीच माध्‍यम बनी. कामनरूम में जब नेहा प्रशान्‍त के सामने बैठी उसके साथ इधर-उधर की बातें करके उसको उलझाए हुई थी, तो रीना उसकी बगल में बैठकर नई नवेली दुल्‍हन की तरह शरमाती-सकुचाती, अपनी आंखों में दुनिया के सबसे सुन्‍दर ख्‍वाब सजाए कभी तिरछी नजर से, कभी सीधे देखती हुई मुस्‍कराये जा रही थी. प्रशान्‍त को रीना की इन बेतुकी हरकतों पर बड़ा आश्‍चर्य हो रहा था. वह बातें तो नेहा से कर रहा था, परन्‍तु नजरें रीना के रंग बदलते चेहरे पर जाकर बार-बार अटक जाती थी. उसने रीना को पहले भी देखा था, परन्‍तु इतना चंचल कभी नहीं...वह किसी स्‍नेह भाव से नहीं, बल्‍कि आश्‍चर्य मिश्रित सन्‍देह से रीना को घूरे जा रहा था. नेहा ने भांप लिया और बोली, ‘‘क्‍यों सर! रीना पर दिल आ रहा है क्‍या?

बातें आप मुझसे कर रहे हैं और देख उसको रहे हैं.'' वह झेंप गया, ‘‘नहीं, ऐसी कोई बात नहीं है.'' उसने सिर नीचा कर लिया और बेवजह मेज पर रखी पुस्‍तक को उलटने पुलटने लगा. नेहा ने अर्थपूर्ण निगाहों से रीना की आंखों में झांका. रीना भी मुस्‍कराई, जैसे उसको प्‍यार का खजाना प्राप्‍त हो गया हो.

‘‘लंच का समय हो रहा है, कैंटीन में चलकर कुछ खा-पी लेते हैं.'' नेहा ने सुझाव दिया.

‘‘हां, बिलकुल ठीक...मुझे बहुत जोरों की भूख लगी है.'' रीना ने चहककर कहा. इस प्रस्‍ताव पर भी प्रशान्‍त को आश्‍चर्य हुआ. ऐसा पहले कभी नहीं हुआ था. नेहा भी आज उससे घुल-मिलकर बातें कर रही थी. रीना भी उसको देखकर बन्‍दरों की तरह खिसियाए जा रही थी. आखिर चक्‍कर क्‍या था? वह कुछ समझ नहीं पा रहा था. नेहा ने कैंटीन चलने का सुझाव दिया तो उसे और ज्‍यादा आश्‍चर्य हुआ। यह आज दिन में चांद-सितारे कहां से चमकने लगे. दोनों को उसके ऊपर क्‍यों इतना प्‍यार आ रहा है कि उसे साथ चलकर लंच करने के लिए कह रही हैं. कोई न कोई बात तो अवश्‍य है, वरना नेहा जैसी समझदार और सुलझी हुई लड़की उसके साथ इस तरह घुलकर बातें नहीं करती. मन में शंकाओं के बादल घुमड़ रहे थे, परन्‍तु यह बादल तभी छंट सकते थे, जब वह ज्‍यादा से ज्‍यादा उनके साथ रहे, उनकी बातें सुने और उनके अन्‍तर्मन को समझे. अतः उसने कहा, ‘‘अगर आप लोगों की इच्‍छा है, तो....चलिए.'' वह उठ खड़ा हुआ.

‘‘परन्‍तु कालेज की कैन्‍टीन में नहीं. वहां बहुत सारे कालेज के छात्र-छात्रायें आती हैं. कुछ हमारी परिचित भी होंगी. बेवजह चर्चा होगी और लोग बातें बनायेंगे. चलिए, बाहर कहीं चलते हैं.'' नेहा ने यथार्थ से अवगत कराते हुए कहा.

‘‘परन्‍तु दो बजे मेरी क्‍लास है!'' प्रशान्‍त ने अटकते हुए कहा.

‘‘हम जल्‍दी ही लौट आएंगे. कालेज के सामने ही किसी रेस्‍त्रां में बैठकर कुछ हल्‍का-फुल्‍का खा लेंगे.''

यह रीना की प्रशान्‍त के साथ पहली मुलाकात थी, परन्‍तु दोनों के बीच कोई बात नहीं हुई. नेहा ही उसके साथ बातों में व्‍यस्‍त रही. रेस्‍त्रां में खाने के दौरान वह बिना किसी झिझक के प्रशान्‍त को ही खुलकर देखती रही थी. प्रशान्‍त उसकी निगाहों का ताव नहीं ला पा रहा था. उसके मन में तरह-तरह के विचार आ रहे थे, परन्‍तु वह उनको व्‍यक्‍त नहीं कर सकता था. वह ज्‍यादातर समय गुम-सुम रहा और नेहा की बक-बक तथा रीना की निगाहों का अर्थ समझने का प्रयास करता रहा

था. रीना जितना आंखें चुराने वाली लड़की थी, उतना ही आज खुलकर वह प्रशान्‍त को देख रही थी. परन्‍तु उस दिन कुछ खास उसकी समझ में नहीं आया. प्रशान्‍त की दो बजे की क्‍लास थी, अतः वह तीनों जल्‍दी ही हल्‍का-फुल्‍का खाकर कालेज के अन्‍दर आ गये. अगली दो-तीन मुलाकातें भी नेहा के माध्‍यम से हुईं. प्रशान्‍त को धीरे-धीरे बात समझ में आ रही थी, परन्‍तु उसके मन में शंकाएं थीं, तो रीना के मन में संस्‍कारों की बेड़ियां. वह दोनों खुलकर आपस में बात करने का साहस नहीं जुटा पा रहे थेनेहा ही बातों-बातों में रीना के मन की झूठी-सच्‍ची बातें प्रशान्‍त को बताकर उसके मन को रीना की तरफ आकर्षित करना चाह रही थी. वह अच्‍छी तरह जानती थी कि प्रशान्‍त और रीना स्‍वयं एक दूसरे की तरफ नहीं बढ़ेंगे, अतः उसे ही कुछ न कुछ करना पड़ा। एक दिन स्‍टाफ रूम में जब रीना उसके साथ नहीं थी तो नेहा ने प्रशान्‍त से पूछा, ‘‘रीना के बारे में आप क्‍या सोचते हैं?''

वह मधुर मुस्‍कान की जलेबी अपने चेहरे पर लपेटता हुआ बोला, ‘‘मैं तो आपके बारे में सोचता हूं.'' नेहा चौंकी नहीं, उसे कोई आश्‍चर्य भी नहीं हुआ. निर्विकार भाव से बोली- ‘‘मेरे बारे में सोचना छोड़ दो. मैं आपके हाथ आनेवाली नहीं, आप रीना के बारे में सोचो, वह आपकी तरफ आकर्षित है, आपके बारे में बातें करती रहती है. मुझे लगता है, वह अपने दिल में आपको बसा चुकी है.''

‘‘हो सकता है, परन्‍तु वह मुझे नारी नहीं लगती. उसमें कोई स्‍त्रियोचित गुण नहीं है. वह ठूंठ है ठूंठ...''

‘‘व्‍यर्थ की धारणा अपने मन से निकाल दो. वह एक बहुत सुन्‍दर लड़की है, बाहर से भी और अन्‍दर से भी...आप एक बार प्रयत्‍न करके तो देखो. ऊपर से ठूंठ को देखकर यह नहीं समझना चाहिए कि उसकी जड़ें हरी नहीं हैं. ठूंठ में भी कोंपलें निकलती हैं, अगर ढंग से उसे सींचा जाय.'' नेहा गंभीर थी और प्रशान्‍त के मन में संशय के बादल घुमड़ रहे थे-

‘‘मुझे उसकी आंखों में मेरे लिए प्‍यार जैसा कोई भाव नहीं दिखाई देता.''

‘‘प्‍यार के मामले में वह अभी बच्‍ची है. उसे प्‍यार करना नहीं आता, परन्‍तु उसके दिल में प्‍यार का सागर उमड़ रहा है. बस बांध को तोड़ना पड़ेगा, प्‍यार का सागर बह निकलेगा. देखना, एक दिन जब उसके प्‍यार का बांध टूटेगा तो तुम डूब जाओगे, निकल नहीं पाओगे उससे.''

‘‘परन्‍तु जब वह हंसती है, तो जोकर लगती है.'' ‘‘आप उसे प्‍यार से हंसना सिखा दो.'' नेहा ने उसे उकसाया. हर रोज इसी तरह की बातें होतीं. रोज-रोज नेहा से रीना की बातें सुन-सुनकर प्रशान्‍त उसके बारे में सोचने पर मजबूर हो गया. वह उसके दिलो-दिमाग में कब्‍जा जमाती जा रही थी और वह उसके बारे में सोचने के लिए मजबूर...स्‍थिति यह हो गयी कि रीना एक पल के लिए भी उसके दिमाग से नहीं निकलती थी. रात-दिन घुटते रहने से क्‍या लाभ...? बात को आगे बढ़ाना चाहिए? नेहा ने उसे समझाया और फिर उसने हिम्‍मत करके एक दिन रीना को एकान्‍त में प्रपोज कर ही दिया, ‘‘रीना, बुरा न मानो तो एक बात कहूं.''

‘‘कहो!'' उसने प्रोत्‍साहित किया. वह समझ रही थी कि प्रशान्‍त क्‍या कहने वाला था. नेहा ने उसे बता दिया था‘. ‘मेरे साथ घूमने चलोगी?'' वह झिझकते हुए बोला‘‘कहां?''

‘‘जहां तुम कहो.''

‘‘मैं किसी जगह के बारे में नहीं जानती. आप अपनी मर्जी से चाहे जहां ले चलंे, परन्‍तु मैं एक शर्त पर चलूंगी. मैं आपके साथ किसी एकान्‍त जगह पर नहीं चलूंगी, और वायदा करिए कि आप मेरे साथ कोई ऐसी-वैसी हरकत नहीं करेंगे.'' रीना के संस्‍कारों ने सांप की तरह बिल से मुंह निकालना शुरू कर दिया. यह प्रथम अवसर था, जब दोनों के बीच प्‍यार की शुरुआत जैसी कोई गंभीर बातचीत हो रही थी और रीना अपनी नासमझी से बात को बिगाड़ने में लगी हुई थी. प्रशान्‍त को उसकी बातें सुनकर झटका सा लगा. क्‍या इस लड़की से प्‍यार किया जा सकता है? बड़ी कठिन लड़की है. उसे रीना की बात पर गुस्‍सा तो बहुत आया, परन्‍तु उसने अपने आपको संभाल लिया. उसकी समझदारी से ही शायद बात बन जाए, और इस नकचढ़ी और घमण्‍डी लड़की के जीवन में प्‍यार की दो-चार फुहारें पड़ जाए, जिससे यह हरी-भरी दिखने लगे; वरना तो यह ठूंठ ही है, और ठूंठ ही बनी रहना चाहती हैवह तो इस लड़की से कभी प्‍यार न करता. कभी इसका खयाल तक उसके दिमाग में नहीं आता था. नेहा की बातों से उसका मन इसके लिए मचलने लगा था, वरना सुन्‍दरता के अलावा इस लड़की में क्‍या है? न कोई तमीज है, न कोई समझ..बेवकूफ कहीं की. उसने अपने गुस्‍से को फिलहाल काबू में किया, परन्‍तु उसने मन ही मन तय कर लिया, इसे सबक सिखाकर रहेगा. अपने आपको बहुत पाक-साफ समझती है और सती-सावित्री की तरह व्‍यवहार करना चाहती है. ठीक है, तुम भी क्‍या याद करोगी कि प्रशान्‍त से पाला पड़ा है. वह कोई मिट्टी का माधो नहीं है कि तुम उसे बेवकूफ बनाकर नचाती फिरोगी. मनमुटाव से ही सही, परन्‍तु दोनों के बीच घूमने का सिलसिला चल पड़ा. दोनों अक्‍सर शाम को कालेज के बाद साथ-साथ घूमने जाते. प्रशान्‍त जान-बूझकर ऐसी जगह बैठता, जहां खूब भीड़ भाड़ हो. बस, मेट्रो या आटो में भी वह रीना से इतनी दूरी बनाकर रखता, कि रीना को स्‍पष्‍ट आभास होता रहे कि वह उसके सान्निध्‍य के लिए लालायित या उत्‍सुक नहीं है. ऐसी लड़कियों को उपेक्षा से ही सही रास्‍ते पर लाया जा सकता था. पार्क में या रास्‍ते में कभी भी आते-जाते प्रशान्‍त प्‍यार भरा कोई शब्‍द नहीं बोलता. रीना के सौन्‍दर्य या पहनावे पर भी उसने कभी कोई कमेन्‍ट नहीं किया. ऐसी कोई बात नहीं की जिससे रीना को यह आभास हो कि वह उसे प्‍यार करने लगा है या उसका प्‍यार हासिल करने के लिए उत्‍सुक था. वह उसकी सुन्‍दरता से भी प्रभावित होता नहीं दिख रहा था. दोनों बेगानों की तरह मिलते, इधर-उधर की फालतू बातें करते और शाम का अंधेरा घिरने के पहल जुदा होकर अपने-अपने घर चले जाते. कई महीने बीत जाने पर भी प्रशान्‍त ने अभी तक उसके किसी अंग को भूले से भी नहीं छुआ था. रीना समझ गई थी कि वह जान-बूझ कर ऐसा कर रहा था. प्रशान्‍त की उपेक्षा से वह जल-भुनकर रह जाती. इसे अपने सौन्‍दर्य का अपमान समझती, परन्‍तु अपने मुंह से कुछ कह भी नहीं सकती थी, क्‍योंकि प्रारंभ में उसने ही यह शर्त रखी थी कि वह उसके साथ कोई छेड़छाड़ नहीं करेगा. गलती उसी थी, अब उसे कैसे सुधार सकती थी. इस प्रकार के मिलन से दोनों वर्षा की रिमझिम फुहारों में भीगने के बजाय रेगिस्‍तान की तपती धूप में जल रहे थे. रीना कोई पत्‍थर नहीं थी. प्रशान्‍त के साथ घूमने-फिरने और बैठने से उसकी भावनाओं में परिवर्तन होता जा रहा था. वह पूरी तरह से प्रशान्‍त के प्रति आकर्षित हो चुकी थी और मन ही मन उसे प्‍यार करने लगी थी. हर प्रयास करती कि प्रशान्‍त उसकी प्रशंसा करे, उसके लिए प्‍यार के दो शब्‍द बोले. इसके लिए वह नित अधिक से अधिक सज-संवरकर आती और मन ही मन सोचती कि प्रशान्‍त उसकी खूबसूरती और कपड़ों की प्रशंसा करेगा, परन्‍तु वह निर्मूढ़ व्‍यक्‍ति की तरह शान्‍त रहता. घूर-घूरकर अन्‍य व्‍यक्‍तियों की तरफ देखता रहता, परन्‍तु रीना से आंख न मिलाता. रीना ने एक दिन कहा, ‘‘चलो कहीं एकान्‍त में बैठते हैं.'' प्रशान्‍त चौंककर बोला, ‘‘यहां एकान्‍त कहां मिलेगा?''

‘‘लोधी गार्डेन चलते हैं, वहां एकान्‍त मिलेगा.'' रीना ने चहकते हुए कहा.

‘‘तुम्‍हें कैसे पता?'' उसने हैरान होकर पूछा‘‘नेहा ने बताया है.'' उसने चहकते हुए कहा. प्रशान्‍त मान गया. वह दोनों लोधी गार्डेन गये, एकान्‍त में भी बैठे, परन्‍तु ढाक के वही तीन पात! प्रशान्‍त उससे दूर ही बैठा रहा. रीना मखमली घास पर बैठी थी. उसने जान-बूझकर अपनी जगह पर कुछ गड़ने का बहाना बनाकर उसकी तरफ खिसकने का प्रयास किया तो वह और परे खिसक गयारीना ने कुढ़ते हुए उसकी तरफ खा जाने वाली नजरों से देखा, परन्‍तु वह निश्‍छल और निर्विकार बैठा रहा. रीना फिर उसकी तरफ फिर खिसकी, ‘‘कुछ बातें करो न.''

‘‘तुम कुछ बोलो,'' वह घास के तिनके तोड़ता हुआ बोला.

‘‘देखो, वह फूल कितने सुन्‍दर हैं.''

‘‘सारे फूल सुन्‍दर होते हैं.'' वह जैसे किसी छात्र को समझा रहा था. रीना के मन में हजारों मन बर्फ जम गई. कैसे मूढ़ व्‍यक्‍ति को अपने मन में बसाने की भूल कर बैठी वह? क्‍या इसी को प्‍यार कहते हैं. वह जैसा सोचती थी, वैसा तो कुछ नहीं हो रहा है. लड़के किस प्रकार लड़कियों से चिपकते हैं, कैसे उनके अंगों से छेड़-छाड़ करते हैं और उनकी भावनाओं का सम्‍मान करते हुए प्‍यार करते हैं, वैसा तो प्रशान्‍त उसके साथ कुछ नहीं कर रहा है. इसका मतलब वह गलत सोचती थी कि सारे लड़के लड़कियों के शरीर के भूखे होते हैं. प्रशान्‍त तो उसकी तरफ देखता तक नहीं, उसकी खूबसूरती की प्रशंसा तक नहीं करता. आज तक प्‍यार का एक शब्‍द छोड़ो, ऐसा भी कोई शब्‍द नहीं बोला, जिससे यह लगे कि वह रीना को पसन्‍द करता था. परन्‍तु उसने खुद भी तो प्रशान्‍त के लिए ऐसा कुछ नहीं कहा. गलती तो उसकी भी है...फिर...? क्‍या वह स्‍वयं प्‍यार का इजहार नहीं कर सकती? कर सकती है, परन्‍तु संकोच और शर्म की बेड़ियों से उसके होंठ सिले हुए हैं, क्‍योंकि वह एक लड़की है. ऐसी लड़कियों को अच्‍छा नहीं समझा जाता जो प्‍यार में बेशर्मी से काम लेती हैं. रीना को अब इस तरह के मेल-मिलापों से घुटन होने लगी थी. उसका मन विद्रोह करने के लिए उतारू था. प्रशान्‍त से उसे कुछ आशा नहीं थी कि वह उसके साथ कुछ करेगा या प्‍यार के दो शब्‍द बोलकर उसके मन में रंग-बिरंगे फूलों की महक बिखरा देगा. वह तो खुद ठूंठ बनता जा रहा था. रीना ने ही कुछ करने की ठानी. वह उससे सटकर बैठने लगी, जान-बूझकर प्रशान्‍त के हाथों को या किसी अन्‍य अंग को छू लेती और उसकी छोटी सी बात पर भी खिल-खिलाकर हंस पड़ती. प्रशान्‍त उसके छूने से ‘‘सॉरी'' बोल देता और जब वह हंसती तो उसको आंखें फाड़-फाड़कर देखता.

शाम को रीना देर तक बैठने की जिद्‌ करती. अन्धेरा हो जाता तब भी वह दोनों बैठे रहते. अन्धेरे में रीना उसको जी भर के देखती जैसे कोई साधक अपने इष्‍टदेव को ताकता हुआ धीर और शान्‍त बैठा रहता है कि कभी तो भगवान प्रसन्‍न होकर उसको आर्शिवाद देंगे. परन्‍तु ऐसे मौकों पर प्रशान्‍त घर जाने के लिए उतावला रहता था. उठकर खड़ा हो जाता और कहता- ‘‘घर चलो, अन्धेरा हो गया है.'' वह मन मारकर कुढ़ते हुए निःशब्‍द उसके पीछे चल देती. दोनों के बीच में ऐसा कुछ नहीं हो रहा था, जिसे प्‍यार के नाम से जाना जा सके. रीना हताश और कुण्‍ठित होती जा रही थी. जब उसने अपनी बेड़ियां तोड़कर मुक्‍त हवा में सांस लेने का प्रयत्‍न किया तो सारे पेड़ मुरझा गए, फूलों की खुशबू गायब हो गई, जंगल में आग लग गई. उसके लिए न तो भंवरों ने गीत गाए, न तितलियों ने रंग बिखराए. सारी सृष्टि उसके लिए वीरान हो गई. उसने अपने दिल के हालात नेहा से बयान किए. प्रशान्‍त की निष्‍ठुरता पर नेहा को भी हैरानी हुई, परन्‍तु वह समझ गई कि प्रशान्‍त ऐसा क्‍यों कर रहा था. दोनों के बीच की दीवार आसानी से टूटने वाली नहीं थी. रीना को ही कुछ करना होगा, नेहा ने उसे सलाह दी. अगले दिन रीना ने अपने जीवन का सबसे सुन्‍दर श्रृंगार किया. सबसे अच्‍छी गुलाबी रंग की साड़ी पहनी. ब्‍लाउज तो केवल नाम के लिए था। ब्‍लाउज इतना छोटा था कि उसकी गोरी चिकनी बांहें, पीठ, पेट और वक्ष भाग पूर्णतया दर्शनीय था. प्रशान्‍त के साथ आज प्‍यार की बाजी का सबसे बड़ा मोहरा खेलने जा रही थी वह. अगर यह मोहरा पिट गया, तो वह प्‍यार की बाजी हार जाएगी. यह उसके जीवन मरण का सवाल था. आज नहीं तो कभी नहीं...

शाम का झुटपुटा घिरने लगा था. बोट क्‍लब के किनारे गुड़हल के पौधों के बीच वह बैठे थे. यह रीना की ही जिद् ‌ थी कि वह दोनों सबकी नजरों से छिपकर बैठें. आज वह अगल-बगल न बैठकर आमने-सामने बैठे थे. यह भी रीना ने कहा था. रीना के दमकते सौन्‍दर्य, गठीले उठानों और उछलने के लिए बेताब अंगों पर प्रशान्‍त की नजर नहीं ठहर रही थी. आज से ज्‍यादा सुन्‍दर वह पहले कभी नहीं लगी थी. प्रशान्‍त की सारी इन्‍द्रियां बेकाबू हो रही थीं. वह बेचैन हो गया था और अपने हृदय को काबू में करने की नाकाम कोशिश कर रहा था, परन्‍तु रीना जैसे उससे ज्‍यादा बेताब थी. रीना ने अपने दोनों हाथों से प्रशान्‍त की कमीज के कालर के नीचे दोनों तरफ पकड़कर उसे अपनी तरफ खींचा. वह लगभग उसके ऊपर झुक आया. वह लगभग

गुर्राकर बोली, ‘‘मैं बहुत खराब लड़की हूं?''

‘‘आं.'' प्रशान्‍त समझ नहीं पाया, क्‍या कहे?

‘‘आप समझते हैं, मेरे अन्‍दर धड़कता हुआ दिल नहीं है, मेरी कोई भावनाएं नहीं हैं?'' उसकी आवाज में तरलता भरती जा रही थी. प्रशान्‍त अकबका गया था और वह कुछ बोलने की स्‍थिति में नहीं था. उसका मुंह रीना के खुले सीने के ऊपर झुका हुआ था, परन्‍तु उसने आंखें बन्‍द कर ली थीं. रीना के यौवन की एक मादक सुगन्‍ध प्रशान्‍त के नथुनों में भरती जा रही थी. कितनी मदहोश कर देने वाली सुगन्‍ध थी. रीना वाकई बहुत खूबसूरत और आकर्षक लड़की थी. कोई भी उस पर मर सकता था.

‘‘आप मुझसे बदला ले रहे हैं?'' वह धमकाने के स्‍वर में बोली.

‘‘नहीं तो....'' कुछ न समझकर भी प्रशान्‍त बोला, ‘‘कैसा बदला...?''

 

‘‘मासूम और भोले बनने का प्रयत्‍न मत करो. यह मेरी ही गलती थी, जो प्रथम मिलन में मैंने आपको मुझे छूने से मना किया था. वही गुस्‍सा अभी तक आपके मन में भरा हुआ है, है न!'' प्रशान्‍त कुछ नहीं बोला, परन्‍तु वह जानता था कि सच यही था. रीना ने उसकी कमीज को अपने दाएं-बाएं खींचा कि उसके बटन तड़तड़ाकर टूट गये. रीना लगभग रुआंसी होकर बोली-

‘‘आप अपना गुस्‍सा इस तरह भी जाहिर कर सकते थे, जैसे मैंने अभी किया है. मुझे तड़पाने में आप को मजा आ रहा था. आप जान-बूझ कर मुझे उपेक्षित करते रहे, और मैं बिना आग के सुलगती रही. क्‍या आप नहीं समझते हैं कि जब लड़की के मुंह से लड़के के लिए न निकलता है तो वह अन्‍दर से हां कहती है. प्‍यार करने वाले इस बात को अच्‍छी तरह समझते हैं. आपने समझने का प्रयास क्‍यों नहीं किया?'' अब तक अन्‍धेरा पूरी तरह घिर आया था. इण्‍डिया गेट और राजपथ पूरी तरह से बिजली की रोशनी से जगमग हो उठा था, परन्‍तु उनके इर्द-गिर्द अन्धेरा था. रीना ने लपककर प्रशान्‍त के दोनों हाथ अपने सीने पर रख दिए और गिड़गिड़ाती हुई बोली, ‘‘आज आपने मेरा घमण्‍ड तोड़ दिया है. मैं हार गई, अब मैं आपकी हूं. आप मेरे साथ जोर-जबरदस्‍ती करते, मेरे शरीर के साथ खिलवाड़ करते तो मुझे अच्‍छा लगता.'' फिर वह हांफने लगी, जैसे बहुत लंबी दौड़ लगाकर आई हो. लेकिन यह शारीरिक थकन की वजह से नहीं हो रहा था. उसके अंदर एक ज्‍वालामुखी धधक रहा था, जिसकी आंच में वह तप रही थी. उसने प्रशान्‍त को अपनी तरफ खींचते हुए कहा, ‘‘लीजिए मैं आपके सामने सम्‍पूर्ण रूप से उपस्‍थित हूं, जैसे चाहे मुझे प्‍यार करें. अब मैं किसी भ्रम में नहीं जीना चाहती. अब तक मैं एक वीरान रेगिस्‍तान में भटक रही थी, अब और ज्‍यादा भटकना नहीं चाहती. मेरी भावनाओं को समझो और मुझे प्‍यार करो. बहुत तड़प चुकी हूं मैं...झूठे अभिमान को लेकर मैं अब तक जी रही थी. ये भी कोई जीना है. मैं ठूंठ नहीं हूं, प्रशान्‍त, मैं ठूंठ नहीं हूं. देखो मेरे ऊपर भी प्‍यार की कोंपलें अंकुरित हो रही हैं.'' उसकी रुलाई फूट पड़ी थी. उसने जोर से प्रशान्‍त के हाथों को अपने सीने पर दबा दिया. प्रशान्‍त के शरीर को एक तगड़ा झटका लगा, जैसे उसने आग के दो बड़े अंगारों पर अपने हाथ रख दिए हों. उसकी बोलती बंद थी, परन्‍तु शरीर कांप रहा था.

रीना लगभग उसके ऊपर गिर पड़ी. उसके भरे-भरे होंठ प्रशान्‍त के होंठों पर टिक गये. प्रशान्‍त जब तक पीछे हटता, रीना ने उसके होंठों को अपने मुंह में भर कर दबा लिया था. इसके साथ ही उसकी आंखों से गरम-गरम आंसू उन दोनों के होंठों के ऊपर गिरकर मीठेपन में खारेपन का एहसास दिला रहे थे, जैसे उन्‍हें आगाह कर रहे हों कि प्‍यार में अगर अद्‌भुत मिठास होती है, तो उसमें यथार्थ का

खारापन भी होता है. अब प्रशान्‍त के हाथ रीना की नंगी पीठ पर फिसल रहे थे. ठूंठ में सचमुच कोंपलें निकल आई थीं.

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(क्रमशः अगले अंकों में जारी…)

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रचनाकार: प्रश्न अभी शेष है - 5 / कहानी संग्रह / ठूंठ में कोंपल / राकेश भ्रमर
प्रश्न अभी शेष है - 5 / कहानी संग्रह / ठूंठ में कोंपल / राकेश भ्रमर
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